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लब्धि
२
१
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१ विशुद्धि लब्धिका लक्षण
४
प्रायोग्य लब्धिका स्वरूप ।
काल (भायोग्य) लब्धिर्मे करणके बिना शेष चार लब्धियोंका अन्तर्भाव
-दे० नियति / २ ।
सम्यक्त्वकी प्राप्तिमें पच लब्धिका स्थान ।
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६ पाँचोंमें करण लब्धिकी प्रधानता ।
३ देशना लब्धि निर्देश
१
देशना लब्धिका लक्षण ।
२
सम्यग्दृष्टिके उपदेश से ही देशना सम्भव है । ३ मिध्यादृष्टि के उपदेशसे देशना सम्भव नहीं।
४
कदाचित् मिथ्यादृष्टि से भी देशना की सम्भावना निश्चय तत्वोंका मनन करनेपर देशना लब्धि सम्भव है ।
देशनाका सस्कार अन्य भवोंमें भी साथ जाता
है
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उपशम सम्यक्त्व सम्बन्धी पंच लब्धि निर्देश
पंच लब्धि निर्देश ।
अयोपशम लब्धिका लक्षण ।
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करण लब्धि निर्देश
करणका लक्षण |
अपप्रवृत्त आदि त्रिकरण
- दे० संस्कार / १ |
-दे० १० करण ! - दे० ० करण
करण लम्भि व अन्तरंग पुरुषार्थमें केवल भाषा
मेद है।
पाँचोंमें करण लब्धिकी प्रधानता । करण लब्धि भव्य ही होती है ।
करण लब्धि सम्यक्त्वादिका साक्षात् कारण है।
संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान
स्थानका लक्षण |
६ एकान्तानुवृद्धि सयम व सयमासयम लब्धि-स्थानका
- दे० लन्दि२ ।
संयम व संयमासयम लब्धि स्थानका लक्षण । सयम व सयमासंयम लब्धि स्थानोंके भेद | प्रतिपद्यमान व उत्पाद संयम व संयमासयम लब्धिस्थानका लक्षण ।
प्रतिपातगत सयम व संयमासंयम लब्धि स्थानका लक्षण ।
अनुभगत व तद्व्यतिरिक्त संयम व समासयन लब्धि
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लक्षण ।
जघन्य व उत्कृष्ट सयम व संयमासयम लब्धिस्थानका सामित्य ।
भेदातील स्थानोंका स्वामित्व |
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१. लब्धि सामान्य निर्देश
१. लब्धि सामान्यका लक्षण १. क्षयोपशम शक्तिके अर्थ में
१. लब्धि सामान्य निर्देश
सस/२/१८/०६/२ लम्भन लब्धि का पुनरसी ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम विशेष | यत्सनिधानादात्मा इध्येन्द्रियनित प्रतिव्याधिशब्दका अर्थ-सम्भन लब्धिप्राप्त होना । ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम विशेषको लब्धि कहते है । जिसके संसर्ग से आत्मा द्रव्येन्द्रियकी रचना करनेके लिए उद्यत होता है। (रा बा /२/१८/१२/१३०/१०)।
घ १/१.१.३३ / २३६/२ इन्द्रियनिय हेतु क्षयोपशमविशेषे ल यसंनिधानादात्मा मेन्द्रियनिसि प्रतिज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषो । क्षयोपशम विशेषो लब्धिरिति विज्ञायते इन्द्रियको सिका - निवृत्तिका कारणभूत जो क्षयोपशम विशेष है, उसे लब्धि कहते है । अर्थात् जिसके सन्निधानसे आत्मा द्रव्येन्द्रियकी रचनायें व्यापार करता है, ऐसे ज्ञानावरण के क्षयोपदम विशेषको सन्धि करते हैं। गो. जी //१६५/११/४ मतिज्ञानावरणमा विशुद्धिजब स्यार्थग्रहणशक्तिलक्षणलब्धि । =जीवके जो मतिज्ञानावरण कर्मक्षयोपशम उत्पन्न हुई विशुद्ध और उससे उत्पन्न पदार्थोंका ग्रहण करनेकी जो शक्ति उसको लब्धि कहते है ।
२. गुणप्राप्तिके अर्थ में
ससि./२/४०/२६०/- तपोविदपारद्विप्रासि विधतप विशेषसे प्राप्त होनेवाली ऋद्धिको लब्धि कहते हैं । ( रा वा / २/४७/२/ १५१/३९) ।
घ. / ३.४९/०६/३ सम्मान पर जीवस्त समागमो राखी णाम । - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्रमे जो जीवका समागम होता है उसे लब्धि कहते है । १२/१५-२०/२३/१ विकरणा अणिमादयो मुक्तिपर्यन्ताष्टवस्तूपलम्भा लब्ध्य । मुक्ति पर्यंत इष्ट वस्तुको प्राप्त कराने वाली अणिमा आदि विक्रियाएँ सकही जाती है।
निसा वा वृ./१६६ जीवाना सुखादिप्राप्ते व्धिजीवीको मुखादि की।
२. आगमके अर्थ में
ध. १३/५,५.५०/२८३ /२ लब्धीना परम्परा यस्मादागमात् प्राप्यते यस्मिन् प्रायुपायो निरूप्यते वा स परम्परानधिगम |
= लब्धियोकी परम्परा जिस आगमसे प्राप्त होती है या जिसमे उनकी प्राप्तिका उपाय कहा जाता है वह परम्परा लब्धि अर्थात् आगम है।
२. क्षायिक व क्षयोपशमकी दानादि लब्धि
त सू / २ / ५ लब्ध्य पञ्च ( क्षायोपशमिक्य दानलब्धिल भिलब्धिभगत रुपभोगलतिरावा) पाँच उन्धि होती है- ( दानलब्धि लाभलब्धि भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, और वीर्यलब्धि । ये पॉच लब्धियाँ दानान्तराय आदिके क्षयोपशम होती है। (रा. वा १२/४/८/१००/२८ ) ।
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ध. ५/१,७,१/१६१/३ लद्धी पंच वियप्पा दाण-लाह-भोगुपभोग-वीरियमिदि । = ( क्षायिक) लब्धि पाँच प्रकारकी है- क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, सायिक भोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिक मीर्य । लसा / / १६६/२१८ सत्तण्डं पयडोणं खयादु अवर तु खइयलद्धी दु । उकलइयोषा हये | १६६। सात प्रकृतियों के क्षयसे असयत सम्यग्दृष्टिके क्षायिक सम्यक्त्व रूप जघन्य क्षायिक
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