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रात्रि भोजन
६. रात्रि भोजन त्यागका मदश्व
पु. सि. उ. / १३४ किवा बहु प्रलपितैरिति सिद्ध यो मनो बचन कार्य परिहरति रात्रिति महिसास पालयति । १२४ = बहुत कहने से क्या । जो पुरुष मन, वचन और कायसे रात्रि भोजनको त्याग देता है वह निरन्तर अहिंसाको पालन करता है ऐसा सार सिद्धान्त हुआ । १३४|
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का. ज./मू./१०३ जो मिसि भुति बज्नदि यो उबलाएं करेदि छम्मासं । संवच्छरस्स मज्भे आरभ मुयदि रयणीए । ३८३ जो पुरुष रात्रि भोजनको छोड़ता है वह एक वर्ष मे छह महीनेका उपवास करता है। रात्रि भोजनका त्याग करनेके कारण वह भोजन व व्यापार आदि सम्बन्धी सम्पूर्ण आरम्भ भी रात्रिको नही
करता।
७. रात्रि भोजनका निषेध क्यों
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पु. सि. उ / १२६ - १३३ रात्रौ भुजानाना यस्माद् निवारिता भवति हिंसा हिंसानिरत रतस्माकृत्या रात्रिभुक्तिरपि । १२६६ रागायदयपरस्यादनिवृतिर्नातिवर्तते हिंसा रात्रि दिमामाहरत कर्म हि हिसा न संभवति । १३०| यद्येवं तर्हि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहार । भोक्तव्य तु निशाया नेत्थं नित्यं भवति हिंसा | १३१० नैवं वासरभुक्त भवति हि रागाधिको रजनि भुक्तौ । अन्नकवलस्य भुक्त' भुक्ताविव माँसकवलस्य । १३२ । अर्का लोकेन विना भुञ्जान. परिहरेत् कथं हिंसा । अपि बोधित' प्रदीपो भोज्यजुषा सूक्ष्मजीवानाम् ॥१३३॥ रात्रिमें भोजन करने वालोके हिसा अनिवारित होती है, अतएव हिसाके त्यागीको रात्रि भोजनका त्याग करना चाहिए | १२ | अत्यागभाव रागादिभावोके उदयकी उत्कृष्टतासे हिंसाको उल्लंघन करके नहीं वर्तते है तो रात दिन आहार करने वालों के निश्चय कर हिसा कैसे सम्भव नहीं होती अर्थात् तीव्र रांगी ही रात्रि-दिन खायेगा और जहाँ राग है वहाँ हिसा है । १३०| प्रश्न- यदि ऐसा है तो दिनके भोजनका त्याग करना चाहिए, और रात्रिको भोजन करना चाहिए, क्योकि ऐसा करनेसे हिसा सदा काल न होगी । १३११ उत्तर - अन्नके ग्रासके भोजनकी अपेक्षा मांस के ग्रास के भोजन में जैसे राग अधिक होता है वैसे ही दिनके भोजन की अपेक्षा रात्रि भोजनमें निश्चय कर अधिक राग होता है अतएव रात्रि भोजन ही त्याज्य है । १३२ । दूसरे सूर्यके प्रकाश के बिना रात्रिमे भोजन करने वाले पुरुषोके जलाये हुए दीपक में भी भोजन में मिले हुए सूक्ष्म जीवोको कैसे दूर किया जा सकेगा । अतएव रात्रि भोजन प्रत्यक्ष हिंसा है ।
सा. प./४/२४] अहिंसावतरार्थं मूलत विशुद्धये
न भुक्ति चतु र्धापि, सदा धीरस्त्रिधा त्यजेत् | २४| = व्रतोका पालक श्रावक अहिंसा की रक्षा के लिए धैर्य होता हुआ रात्रिमे मन, वचन व कायसे चारों ही प्रकारके आहारको भी जीवन पर्यन्तके लिए छोडे |२४|
ला सं / २ / ४५ अस्ति तत्र कुलाचार सैष नाम्ना कुलक्रिया । ता विना दार्शनिको न स्यान्नास्यान्नमतस्तथा । ४५॥ रात्रि भोजनका त्याग करना पाक्षिक श्रावकका कुलाचार वा कुलक्रिया है । इस किया मिना यह मनुष्य दर्शन प्रतिमापारी अर्थात पाक्षिक श्रावक भी नही हो सकता और की तो बात ही क्या
८. दीप व चन्द्रादिके प्रकाश में भोजन करनेमें दोष सम्बन्धी
रावा./०/२/१७-२०/२२४ स्यान्मतम् - यचासोकनार्थ दिवाभोजनस् प्रदीपचन्द्रादिकाभित्र भोज कार्यमिति न कि
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३. रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा निर्देश
कारणम् अनेकारम्भदोषात् । अग्न्यादिसमारम्भकरणकारणलक्षणो हि दोष स्यात् । स्यादेतत् परकृत प्रदीपादिसंभवे नारम्भदोष. इति तत्र किं कारणम् चक्रमणायसंभवात् 'ज्ञानादित्यस्वेन्द्रियप्रकाश परीक्षितमार्गेण युगमात्रपूर्वापेक्षी देशकाले पर्यट्य यति भिक्षां शुद्धामुपाददीत हत्यापरोपदेश चार्य विधि रात्रौ भवतीति चाभवस्यान्मतम्-दिना प्रार्थ पर्यट्य कनचिद्भाजने भोजनाद्यानीय रात्रावुपयोग प्रसक्त इति, तन्न; कि कारणम् । उक्तोत्तरखात् । उक्तोतरमेतत्-प्रदीपादिसमारम्भप्रसङ्ग इति । नेद सयमसाधनम् - आनीय भोक्तव्यमिति । नापि निस्सङ्गस्य पाणिपात्रपुटाहारिण. आनयनं संभवति । भोजनान्तरसहे अनेकामदर्शनात अतिदीनचरितप्रसद्गारचिरादेव निवृतिपरिणामासंभवाच्च । भाजनेनानीतस्य परीक्ष्य भोजन संभवतीति चेत्; न; योनिप्राभृतज्ञस्य संयोगविभागगुणदोषविचारस्य तदानीमेवोपपनीतस्य पुनर्दोषदर्शनात विसर्जनेऽनेकदोषोपपश्च || रविप्रकाशस्य स्फुटार्थाभिव्यञ्जका भूमिदेवादातूनचक्रमणाद्यन्नपानादिपतितमितरच स्पष्टमुपलभ्यते न तथा चन्द्रादिप्रकाशानाम् अस्फुटार्थाभिव्यञ्जकत्वात् स्फुटा भ्रम्याद्य परि स्तोति दिवाभोजनमेव युक्तम् ॥२०॥ = प्रश्न - यदि आलोकित पान भोजन ( देखकर ही भोजन आदि करनेकी) विवक्षा है तो यह प्रदीप और चन्द्रादिके प्रकाशमें रात्रि भोजन करने पर भी सिद्ध हो सकती है। उत्तर- नहीं, क्योकि इसमें अनेक आरम्भ दोष है । दीपके जलानेमें और अग्नि आदिके करने करानेमे अनेक दोष होते है । प्रश्न – दूसरेके द्वारा जलाये हुए प्रदीपके प्रकाश में तो कोई आरम्भ दोष भी सम्भव नहीं है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि भले वहाँ स्वयंका आरम्भ दोष न हो तो भी गमन आदि नहीं हो सकते । 'ज्ञान सूर्य तथा इन्द्रियो से मार्गकी परीक्षा करके चार हाथ आगे देखकर यतिको योग्य देशकालमें शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए' यह आचारशास्त्रका उपदेश है । यह विधि रात्रिमे नही बनती। प्रश्न- दिनके समय ग्राममें घूमकर किसी भाजनमें भोजनादि लाकर रात्रिमे उसे ग्रहण करनेसे उपरोक्त दाषकी निवृत्ति हो जाती है । उत्तर- नही, क्योकि इसने अन्य अनेको दोष लगते है- १. दीपक आदिका आरम्भ करना पडेगा, २. लाकर भोजन करना' यह संयमका साधन भी नहीं है; ३. निष्परिग्रही पाणिपुट भोजी साधुको भिक्षा माँगकर लाना भी सम्भव नहीं है, ४. पात्र रखनेपर अनेक दोष देखे जाते है-निवृत्ति आ जाती है. और शीघ्र पूर्ण निवृत्तिके परिणाम नही हो सकते क्योकि सर्व-साबच निवृत्ति काल में ही पात्र ग्रहण करनेसे पात्र निवृत्तिके परिणाम हो सकेगे, ५ पात्रसे लाकर परीक्षा करके भोजन करनेमें भी योनि प्राभृतज्ञ साधुको सयोग विभाग आदिसे होने वाले गुणदोषोका विचार करना पडता है, लानेमें दोष है, छोडने में भी अनेक दोष होते है, ६. जिस प्रकार सूर्यप्रकाश में स्फुटरूप से पदार्थ दिख जाते है, तथा भूमि, दाता, अन्न, पान आदि गिरे या रखे हुए सब साफ दिखाई देते है, उस प्रकार चन्द्रमा आदिके प्रकाशमें नही दिखते । अत. दिनमें भोजन करना ही निर्दोष है। दे० रात्रि भोजन / २ / १ ( रात्रि में जलाये गये दीपकमे भी भोजनमें मिले हुए सूक्ष्म जन्तुओकी हिसाको किस प्रकार दूर किया जा
सकेगा ) ।
३. रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा निर्देश
१ रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा व अणुतका कक्षण र. क श्री. / १४२ अन्नं पानं खाद्य लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम् । सच रात्रिभुक्तिविरत सरवेयनुरूपमागमा १४२ जी जीमों
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