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रम्यपुर ३९२
रसकूट रम्यपुर-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर ।
क्षित होती है, उस समय वस्तुको छोडकर पर्याय नही पायी जाती
है, इसलिए वस्तु ही रस है। इस विवक्षामे रसके कर्म साधनपना रम्या -१ भरत आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । २ पूर्व
है। जैसे जो चरखा जाये वह रस है। तथा जिस समय प्रधानविदेहस्थ एक क्षेत्र-दे० लोकाशः३.पूर्व विदेहस्थ अजन वक्षारका
रूपसे पर्याय विवक्षित होती है, उस समय द्रव्यसे पर्यायका भेद एक कूट-दे० लोक/13४.पूर्व विदेहमें अजन वक्षारपर स्थित रम्या
बन जाता है, इसलिए जो उदासीन रूपसे भाव अवस्थित है उसका कूटका रक्षक देव-दे० लोक/५/४५.नन्दीश्वर द्वीपकी उत्तर दिशामे
कथन किया जाता है। इस प्रकार रसके भाव-साधन भी बन जाता स्थित वापी-दे० लोक/५/११।।
है जेसे-आस्वादन रूपक्रियाधर्मको रस कहते हैं । रयणसार--आचार्य कुन्दकुन्द (ई. १२७-१७६) कृत आचरणविषयक १६७ प्राकृत गाथाओमें निबद्ध ग्रन्थ है। इसपर कोई टीका
२. रस नामकर्मका लक्षण उपलब्ध नहीं है। (ती०/२/११५) ।
स. सि./८/११/३६०/६ यन्निमित्तो रसविकल्पस्तद्रस नाम । = जिसके रयसकांत देव-मानषोत्तर पर्वतस्थ ऊष्मगर्भ कूट का भवनवासी
उदयसे रसमें भेद होता है वह रस नामकर्म है। (रा, वा./८/११/१०/ सुपर्णकुमार देव-दे० लोक/७ ।
५७७/१५), (गो. क /जी.प्र/३३/२६/१४)। रावनाद-आप षट खण्डके ज्ञाता, शुभनन्दिके सहचर, तथा बप्प
ध ६/१,६-१,२८/५५/७ जस्स कम्मरवधस्स उदएण जीवसरीरे जादि
पडिणिबदो तित्तादिरसो होज्ज तस्स कम्मरबंधस्स रससण्णा । एदस्स देव (ई. श १) के शिक्षा गुरु थे। बप्पदेव के अनुसार आपका समय
कम्मस्साभावे जीवसरीरे जाइपडिणियदरसो ण होज्ज। ण च एव ई. श. एक आता है। (ष ख १/प्र. ५१/H L Jain)।
णिबंवजबीरादिसु णियदरसस्सुवल भादो। जिस कर्मके उदयसे रावभद्र-आप सिद्विविनिश्चयके टीकाकार अनन्तवीर्य के शिक्षा- जीवके शरीरमें जाति प्रतिनियत तिक्त आदि रस उत्पन्न हो, उस गुरु थे । कृति-आराधनासार । समय-ई ६५-६६० (का अ/प्र.८२/ कर्म स्कन्धकी 'रस' यह सज्ञा है। (ध. १३/५,५,१०१/३६४/८) इस AN. Up.), (सि. वि/प्र.७८/प. महेन्द्र)।
कर्मके अभावमे जीवके शरीरमे जाति प्रतिनियत रस नही होगा। विवार व्रत-आषाढ शक्लपक्षके अन्तिम रविवारसे प्रारम्भ
किन्तु ऐसा है नही, क्योकि नीम, आम और नीबू आदिमें प्रतिहोता है। आगे श्रावण व भाद्रपद के आठ रविवार । इस प्रकार :
नियत रस पाया जाता है। वर्ष तक प्रतिवर्ष इन हरविवारोका उपवास करे । यदि थोडे समयमे करना है तो आषाढके अन्तिम रविवारसे लेकर अगले अ.षाढके
३. रसके भेद अन्तिम रविवार तक एक वर्ष के ४८ रविवारोक उपवास करे । नम
ष ख 18/१,६-१/सू ३६/७५ जंत रसणामकम्मत पचविह, तित्तणाम स्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (वत-विधान स /४४)।
कडवणाम कसायणाम अबणाम महुणाम चेदि ।७५॥ = जो रस नामविषण-सेन स धकी गुर्वावलोके अनुसार आप लक्ष्मण सेनके शिष्य
कर्म है वह पॉच प्रकारका है-तिक्त नामकर्म, कटुकनामकर्म, कषायथे। वि. ७३४ में आपने पद्मपुराणको रचना की थी। तदनुसार
नामकर्म, आम्लनामकर्म और मधुर नामकर्म । (ष ख,/१३/५.५/ आपका समय-वि ७००-७४० ई ६४३-६८३ (प.पु /१२३/१८२ ),
सू. ११२/३७०), (स, सि /८/११/३१०/१०), (स सि./५/२३/(दे० इतिहास/१६) । (ती./२/२७६) ।
२६३/१२). (पस /प्रा /२/४/४८/१),(रा वा/८/११/१०/५७७/१५), (प प्र/टी /१/११/२६/२), (द्र. स./टी /9/१६/१२); (गो.
जी/जी. प्र/४७६/८८५/१)। राश्मदव-म.पु/५६/श्लोक "पुष्करपुर नगरका राजा सूर्यावर्तका स.सि./५/२३/२६४/२ त एते मूलभेदा प्रत्येकं संख्येयासख्येयानन्तपुत्र था ( २३०-२३१) किसी समय सिद्धकूटपर दीक्षा ग्रहण कर भेदाश्च भवन्ति । =ये रसके मूल भेद है, वैसे प्रत्येक ( रसादिके) आकाशचारण ऋद्धि प्राप्त की। (२३३-२३४)। एक समय पूर्व के सख्यात असख्यात और अनन्त भेद होते है। वैरी अजगरके खानेसे शरीर त्यागकर स्वर्गमें देव हुआ (२३१-२३८) यह संजयन्त मुनिका पूर्व का चौथा भव है। -दे० सजयन्त।
३. गोरस भादिके लक्षण राश्मवेग-म पु/७३/श्लोक पुश्कलावतो देशके विजयार्ध पर सा.ध./१/३५ पर उधृत-गोरस' क्षीरघृतादि, इक्षुरस खण्डगुड आदि, त्रिलोकोसम नगरके राजा विद्य द्गतिका पुत्र था। दीक्षा ग्रहण फनरसो द्राक्षाम्रादि निष्यन्द , धान्यरसस्तै लमण्डादि। घी, दूध कर सर्वतोभद्रके उपवास ग्रहण किये। एक समय समाधियोगमें आदि गोरस है। शक्कर, गुड आदि इश्चरस है। द्राक्षा आम आदिके बैठे हुए इनको पूर्व भवके भाई कमठके जीवने अजगर बनकर रसको फल रस कहते है और तेल, मॉड आदिको धान्यरस कहते है। निगल लिया। (३१-२५) । यह पार्श्वनाथ भगवान्का पूर्वका छठा भव है। दे०-पार्श्वनाथ।
* अन्य सम्बन्धित विषय रस-१. रस सामान्यका लक्षण
१ रम परित्यागको अपेक्षा रसके भेद। --दे० रस परित्याग । स. सि./२/२०/१७८-१७६/ह रस्यत इति रस.। • रसन रस । - जो • रस नामकर्ममें रस सकारण है या निष्कारण । -दे० वर्ण/४ । स्वादको प्राप्त होता है वह रस है। अथवा रसन अर्थात ३. गोरस शुद्धि।
-दे० भक्ष्याभक्ष्य/३1 स्वादमात्र रस है। (स सि/५/२३/२६३/१२), (रा.वा./२/२०/
४ रस नाम प्रकृतिको बन्ध उदय सत्ख प्ररूपणा । १३२/३१)।
--दे० वह वह नाम। ध.१/१,१,३३/२४२/२ यदा वस्तु पाधान्येन विवक्षितं तदा वस्तु व्यति
५. अग्नि आदिमें भी रसकी सिद्धि। रिक्तपर्यायाभावाद्वस्त्वेव रस। एतस्या विरक्षाा कर्मसाधनत्व
-दे० पृद्गल/१०॥ रसस्य, यथा रस्यत इति रस । यदा तु पर्याय प्राधान्येन विध
रस ऋद्धि-दे० ऋद्धि/01 सितस्तदा भेदोपपत्ते औदासोन्यावस्थितभावकथनाद्भावसाचनत्व रसस्य, रसनं रस इति । = जिस सयय प्रधान रूपसे वस्तु विव- रसकूट-शिखरों पर्वतस्थ एक कूट । -दे० लोक/७।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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