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राग
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२. राग-द्वेष सामान्य निर्देश
क्योकि क्यो नही माना है। इसलिएतने ही जीवोके
प्र सा./ता वृ/८३/१०६/१० निर्विकार शुद्वात्मनो विपरीतमिष्टानिष्टे- ३. मोह. राग व द्वेषमें शुभाशुभ विभाग न्द्रिपत्रिषयेषु हर्ष विषादरूप चारित्रमोहसंज्ञं रागद्वेष। -निर्विकार शुद्वात्मासे विपरीत इष्ट-अनिष्ट विषयोमें हर्ष-विषाद रूप चारित्रमोह
प्र सा /मू /१८० परिणामादो बधो परिणामो रागदोसमोहदो। असुहो नामका रागद्वेष ।
मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो ।१८०। परिणामसे बध है,
परिणाम राग, द्वेष, मोह युक्त है। उनमें से मोह और द्वेष अशुभ है, २. रागके भेद
राग शुभ अथवा अशुभ होता है ।१८०। नि सा/ता. वृ६६ राग प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविध । -प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग ऐसे दो भेदोके कारण राग दो प्रकारका है। ४. पदार्थमें अच्छा बुरापना व्यक्तिके रागके कारण ३. अनुरागका लक्षण
होता है ६.ध/उ [४३५ अथानुरागशब्दस्य विधिर्वाच्यो यदार्थत । प्राप्तिध.६/१,६-२,६८/१०६/४ भिण्णरुचीदो केसि पि जीवाणममहुरो वि स्यादुपलब्धिर्वा शब्दाश्चैकार्थवाचका ।४३५॥ -- जिस समय अनुराग
सरो महुरोबरुच्चइ त्ति तस्स सरस्स महूरत्त किण्ण इच्छिज्जदि । शब्द का अर्थको अपेक्षासे विधि रूप अर्थ बक्तव्य होता है उस ण एस दोसो, पुरिसिच्छादो वत्युपरिणामाणुवल भा। ण च णिवो समय अनुराग शब्दका अर्थ प्राप्ति व उपलब्धि होता है क्योकि अन- के सि पि रुचदि त्ति महरत्त पडिज्जदे, अव्यवस्थावत्तीदो। राग, प्राप्ति और उपलब्धि ये तीनो शब्द एकार्थवाचक है ।४३५॥ - प्रश्न-भिन्न रुचि होनेसे कितने ही जीवोके अमधुर स्वर भो ४. अनुरागके भेद व उनके लक्षण
मधुरके समान रुचता है। इसलिए उसके अर्थात् भ्रमरके स्वरके
मधुरता क्यो नही मान ली जाती है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं, भ आ./मू/७३७/१०८ भावाणुरागपेमाणुरागमज्जाणुरागरत्तो वा। क्योकि पुरुषोकी इच्छासे वस्तुका परिणमन नहीं पाया जाता है। धम्माणुरागरत्तो य होहि जिणसासणे णिच्च । =भावानुराग, प्रेमानु- नीम कितने ही जीवोको रुचता है, इसलिए वह मधुरताको नही राग, मज्जानुराग, वा धर्मानुराग, इस प्रकार चार प्रकारसे जिन- प्राप्त हो जाता है, क्योकि, वैसा माननेपर अव्यवस्था प्राप्त होती है।
शासनमे जो अनुरक्त है। भ. आ /भाषा /७३७/१०८ तत्त्वका स्वरूप मालूम नही भी हो तो भी जिनेश्वरका कहा हुआ तत्त्व स्वरूप कभी झूठा होता ही नहीं ऐसी
५. वास्तवमें पदार्थ इष्टानिष्ट नहीं श्रद्धा करता है उसको भावानुराग कहते है। जिसके ऊपर प्रेम है यो, सा, अ/२/३६ इष्टोऽपि मोहतोऽनिष्टो भावोऽनिष्टस्तथा पर। न उसको बारम्बार समझाकर सन्मार्ग पर लगाना यह प्रेमानुराग कह- द्रव्यं तत्त्वत किचिदिष्टानिष्ट हि विद्यते ॥३६॥ = मोहसे जिसे इष्ट लाता है। मजानुराग पाण्डवोमे था अर्थात् वे जन्मसे लेकर आपसमें समझ लिया जाता है वही अनिष्ट हो जाता है और जिसे अनिष्ट अतिशय स्नेहयुक्त थे। वैसे धर्मानुरागसे जैनधर्ममे स्थिर रहकर समझ लिया जाता है वही इष्ट हो जाता है, क्योकि निश्चय नयसे उसको कदापि मत छोड।
संसारमे न कोई पदार्थ इष्ट है और न अनिष्ट है ।३६ (विशेष दे० ५. तृष्णाका लक्षण
सुख/१)1 न्या द/टी/४/१/३/२३०/१३ पुनर्भवप्रतिसधानहेतुभूता तृष्णा । = 'यह
६. आशा व तृष्णामें अन्तर पदार्थ मुझको पुन प्राप्त हो' ऐसी भावना से किया गया जो प्रतिसन्धान या इलाज अथवा प्रयत्न विशेष, उसकी हेतुभूत तृष्णा भ,आ /मू. आ /११८९/११६७/१६ चिरमेते ईदृशा विषया ममोदितोदिता होती है।
भूयासुरित्याशसा । तृष्णा इमे मनागपि मत्तो मा विच्छिद्यान्ता इति
तीन प्रबधप्रवृत्त्यभिलाषम् । = चिरकाल तक मेरेको सुख देने वाले २. राग-द्वेष सामान्य निर्देश
विषय उत्तरोत्तर अधिक प्रमाणसे मिले ऐसी इच्छा करना उसको
आशा कहते है । ये सुखदायक पदार्थ कभी भी मेरेसे अलग न होवे १. अर्थ प्रति परिणमन ज्ञानका नहीं रागका कार्य है
ऐसी तीन अभिलाषाको तृष्णा कहते है। प. घ./पु/१०६ क्षायोपश मिकं ज्ञानं प्रत्यर्थं परिणामि यत् । तत्स्वरूपं न ज्ञानस्य किन्तु रागक्रियास्ति वै ।।०६। =जोक्षायोपशमिक ज्ञान
७. तृष्णाकी अनन्तता प्रति समय अर्थसे अर्थान्तरको विषय करने के कारण सविकल्प माना
आ. अनु /३६ आशागर्त प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य कि जाता है, वह वास्तव में ज्ञानका स्वरूप नहीं है किन्तु निश्चय करके
कियदायाति वृथा वो विषयै षिता ।३६ - आशा रूप बह गड्ढा उस ज्ञानके साथमे रहनेवाली रागकी क्रिया है। (और भी दे०
प्रत्येक प्राणीके भीतर स्थित है, जिसमें कि विश्व परमाणुके बराबर विकल्प/१)।
प्रतीत होता है। फिर उसमे किसके लिए क्या और कितना आ २ राग द्वेष दोनों परस्पर सापेक्ष है
सकता है। अर्थात् नहीके समान ही कुछ नहीं आ सकता। अत हे ज्ञा./२३/२५ यत्र राग' पद धत्ते द्वेषस्तौति निश्चय । उभावेतौ
भव्यो,, तुम्हारी उन विषयोकी अभिलाषा व्यर्थ है।३६। समालम्ब्य विक्राम्यत्यधिक मन ॥२५॥ = जहॉपर राग पद धारै तहाँ । ज्ञा /२०/२८ उदधिरदकपूरै रिन्धनै श्चित्रभानुर्यदि कथमपि दैवात्तप्तिद्वेष भी ग्रवर्तता है, यह निश्चय है। और इन दोनोको अवलम्बन मासादयेताम् । न पुनरिह शरोरी काममोगै विस ख्यश्चिरदमपि करके मन भी अधिकतर विकार रूप होता है ।२५।
भुक्तैस्तृप्तिमायाति कैश्चित् ।२८। - इस जगत्मे समुद्र तो जलके प ध /3/५४६ तद्यथा न रति पक्षे विपक्षेऽप्यरति विना। नार तिर्वा प्रवाहोसे तृप्त नहीं होता और अग्नि इंधनोसे तृप्त नही होती, सो स्वपक्षेऽपि तद्विपक्षे रति विना ।५४६स्व पक्षमें अनुराग भी विपक्ष- कदाचित दैवयोगसे किसी प्रकार ये दोनो तृप्त हो भी जाये परन्तु मे अरतिके बिना नही होता है वैसे ही स्वपक्षमे अरति भी उसके यह जीव चिरकाल पर्यन्त नाना प्रकार के काम-भोगादिके भोगनेपर विपक्षमे रतिके बिना नही होती है।५४६।
भी कभी तृप्त नहीं होता।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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