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रस देवी
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राग
रस देवी-शिखरी पर्वतस्थ रसकुटकी स्वामिनी देवी । ---दे०
लोक/५/४। रसना-१ रसना इन्द्रियका लक्षण । -दे० इन्द्रिय/१। २ रसना इन्द्रियकी प्रधानता। -दे० संयम/२ ।
जो परिग्रहका त्याग कर रागद्वेषका निरोध कर चुके है, उनको प्राणोके असयमका निरोध देखा जाता है ।
३. रस परित्याग तपके अतिचार भ आ./वि /४८७/७०७/१० कृतरसपरित्यागस्य रसासक्ति', परस्य वा रसवदाहारभोजनं, रसबदाहारभोजनानुमननं, बातिचार । -रसका त्याग करके भी रसमें अत्यासक्ति उत्पन्न होना, दूसरोको रसयुक्त आहारका भोजन कराना और रसयुक्त भोजन करनेकी सम्मति देना, ये सब रसपरित्याग तपके अतिचार है।
रसमान प्रमाण-दे० प्रमाण/५।
रसपरित्यागभ, आ./मू /२१५/४३१ खीरदधिसप्पितेल्ल गुडाण पत्तेगदो व सव्वे सि । णिज्जूहणमोगाहिमपणकुसणलोणमादीण ।२१५। -दूध, दही, घी, तेल, गुड इन सब रसोका त्याग करना अथवा एक-एक रसका त्याग करना यह रस-परित्याग नामका तप है। अथवा पूप, पत्रशाक, दाल, नमक, वगैरह पदार्थोंका त्याग करना यह भी रस परित्याग
नामका तप है ।२१॥ मू. आ /३५२ ग्वीरदहिसप्पितेलगुडलवणाणं च ज परिच्चयण । तित्तकडुकसायंबिलमधुर रसाणं च ज चयणं ।३५२। दूध, दही, घी, तेल, गुड, लवण इन छह रसोका त्याग रसपरित्याग तप है। (अन. ध/७/२७) अथवा कडुआ, कसैला, खट्टा, मीठा इनमें से किसीका त्याग वह रसपरित्याग तप है ।३५२। ( का अ./टी /४४६ ) । स. सि./६/९६/४३८/६ घृतादिवृष्यरसपरित्यागश्चतुर्थ तप । -घृतादिगरिष्ठ रसका त्याग करना चौथा तप है। (रा.बा/8/१६/५/६१८/२६); (चा. सा./१३५/३)। भ. आ/वि/६/३२/१८ रसगोचरगार्थत्यजन त्रिधा रसपरित्याग ।
-रस विषयकी लम्पटताको मन, वचन, शरीरके संकल्पसे त्यागना रसपरित्याग नामका तप है। त सा /६/११ रसत्यागो भवेत्तै लक्षीरेक्षुदधिसर्पिणाम् । एकद्वित्रीणि
चत्वारि त्यजतस्तानि पञ्चधा ।११। तेल. दूध, खाँड, दही, घीइनका यथासाध्य त्याग करना रसत्याग तप है। एक, दो, तीन, चार अथवा पाँचौं रसौका त्याग करनेसे यह व्रत पाँच प्रकारका हो जाता है। का अ/मू./४४६ संसार-दुक्रव-तट्ठो विस-सम-विसयं विचितमाणो जो। णोरस-भोज्ज भुजइ रस-चाओ तस्स सुविसुद्धौ । ससारके दु खोसे सतप्त जो मुनि इन्द्रियोके विषयोको विषके समान मानकर नीरस भोजन करता है उसके निर्मल रस परित्याग तप होता है।
रहस्य-ध १/१.१,१/४४/४ रहस्यमन्तरायः, तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टवीजवन्नि शक्तीकृता घातिकर्मणो । = रहस्य अन्तराय कर्मको कहते हैं । अन्तरायर्मका शेष नाश तीन धातियाक्मोके नाश का अविनाभावी है। और अन्तरायकर्मके नाश होनेपर अघातिया र्म भ्रष्ट बीजके समान निशक्त हो जाते है। रहस्यपूर्ण चिट्ठी-प. टोडर मल्ल (ई. १०५३) द्वारा अपने किन्हीं मित्रोको लिखी हुई आध्यात्मिक रहस्यपूर्ण चिट्ठी है।
(ती/४/२८७)। रहोभ्याख्यान-स सि/७/२६/३६६/- यत्स्त्रीपुंसाभ्यामेकान्तेऽनुष्ठितस्य क्रियाविशेषस्य प्रकाशन तद्रहोभ्याख्यान वेदितव्यम् । -स्त्री और पुरुष द्वारा एकान्तमें किये गये आचरण विशेषका प्रगट कर देना रहोभ्ययाख्यान है। (रा. वा/७/२६/२/५५३/२६)।
राक्षस-१ व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० व्यन्तर। २. पिशाच जातीय व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० पिशाच । ३. मनोवेग विद्याधरका पुत्र था (प पु/५/३७८) इसीके नामपर राक्षस द्वीपमें रहनेवाले विद्याधरोका वंश राक्षस वंश कहलाने लगा । दे०-इतिहास१०/१२ ।
१. राक्षसका लक्षण ध १२/१५,५.१४०/३६१/१० भीषण रूपविकरण प्रिया' राक्षसा नाम ।जिन्हे भीषण रूपर्क विक्रिया करना प्रिय है, वे राक्षस कहलाते है।
२. राक्षस देवके भेद
.. रस परित्याग तपका प्रयोजन
ति.प/६/१४ भीममहभीमविग्यविणायका उदकरवखसा तह य । रक्रवसरक्खसणामा सत्तमया बम्हरवखसया ।४४ -भीम, महाभीम, विनायक, उदक, राक्षस, राक्षसराक्षस और सातवा ब्रह्मराक्षस इस प्रकार ये सात भेद राक्षस देवोके है।४४ (त्रि. सा./२६७)।
राक्षस देवोंके वण वैभव अवस्थान आदि-दे० व्यंतर।
स सि/8/१६/४५८/8 इन्द्रियदर्ष निग्रहनिद्रा विजयस्वाध्यायसुखसिध्याद्यर्थो.. रस परित्यागश्चतुर्थ तप । -इन्द्रियोके दर्शका निग्रह करनेके लिए, निद्रापर विजय पानेके लिए और सुखपूर्वक
स्वाध्यायकी सिद्धिके लिए रसपरित्याग नामका चौथा तप है। रा, वा/8/१६/५/११८/२६ दान्तेन्द्रियत्व तेजोऽहानिसंयमोपरोधव्यावृत्त्याद्यर्थ रसपरित्याग १ -जितेन्द्रियत्व, तेजोवृद्धि और सयमवाधानिवृत्ति आदिके लिए रसपरित्याग है। (चा. सा /१३५/३)। घ. १३/५,४,२६/५७/१० किमट्ठमेसो करिदे । पाणिदिय संजम। कुदो । जिभिदिए णिरुद्धे सयलिदियाणं णिरोहुवल भादो। सयलि दिएसु णिरुदधेसु चत्तपरिगाहस्स णिरुद्धराग-दोसस्स. पाणासंजमणिरोहुवलं भादो। -प्रश्न-यह क्सि लिए क्यिा जाता है। उत्तर-प्राणिसयम और इन्द्रिग्रसयमकी प्राप्तिके लिए क्यिा जाता है, क्यो कि, जिला इन्द्रियका निरोध हो जानेपर सम इन्द्रियोका निरोध देखा जाता है, और सब इन्द्रियोका निरोध हो जानेपर
राक्षसराक्षस--राक्षस जातीय व्यन्तर देवोका भेद -दे० राक्षस । राक्षस वंश-दे. इतिहास१०११२ । राग-इष्ट पदार्थोके प्रति रति भावको राग कहते है, अतः यह द्वेषका अविनाभावी है। शुभ व अशुभके भेदसे राग दो प्रकारका है, परद्वेष अशुभ ही होता है । यह राग ही पदार्थोमे इष्टानिष्ट बुद्धिका कारण होनेसे अत्यन्त हेय है। सम्यग्दृष्टिकी निचली भूमिकाओमें यह व्यक्त होता है और ऊपर की भूमिकाओमे अव्यक्त। इतनी विशेषता है कि व्यक्त र गमें भी रागके रागका अभाव होने के कारण सम्यग्दृष्टि वास्तवमे वैरागी रहता है।
भा० ३-५०
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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