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राग
प्रवृत्ति तथा दोनाके अभावका नाम ही निवृत्ति है। चूँ कि वे दोनो बाह्य वस्तुओसे सम्बन्ध रखते है, अतएव उन बाह्य वस्तुओका हो परित्याग करना चाहिए ।
४. तृष्णा छोड़ने का उपाय
आ. अनु / २५२ अपि सुतपसामाशावली शिखा तरुणायते भवति हि मनोमुले याममरजलाई इति कृतधिय कुणारम्भैश्चरति निरन्तर चिरपरिचिते देहेऽस्मिनतीन गतस्पृहा । २५ २० जय तक मनरूपी जड़के भीतर ममस्वरूपी जलसे निर्मित गीलापन रहता है, तब तक महातपस्वियोंकी भी आशारूप बेलकी शिखा जवान सी रहती है। इसलिए विवेकी जीव चिरकालसे परिचित इस शरीर में भी अत्यन्त निःस्पृह होकर सुख दुख एवं जीवन-मरण आदिमें समान होकर निरन्तर कष्टकारक आरम्भों में- ग्रीष्मादि ऋतुओके अनुसार पर्वतकी शिला आदिपर स्थित होकर ध्यानादि काय प्रवृत रहते हैं । २३२ ।
५. तृष्णाको वश करनेकी महत्ता
शा./१०/१०.११.१६ स यो निराकृत्य नैराश्यमवलम्बते तस्य चिदपि स्वान्तं गर्न सिध्यते ॥१०॥ तस्य सयं श्रुतं वृत्तं विवेकस्तत्त्वनिश्चयः । निर्ममत्वं च यस्याशापिशाची निधनं गता ११) चरस्थिरार्थ जातेषु यस्याशा प्रलयं गता । कि किं न तस्य लोकेऽस्मिन्मन्ये सिद्ध समीहितम् १६। जो पुरुष समस्त आशाओंका निराकरण करके निराशा अवलम्बन करता है, उसका मन किसी काल में भी परिग्रहरूपी कर्दमसे नही लिपता । | १० | जिस पुरुष के आशा रूपी पिशाची नष्टताको प्राप्त हुई उसका शास्त्राध्ययन करना, चारित्र पालना, विवेक, तत्त्वोका निश्चय और निर्ममता आदि सत्यार्थ है । ११० चिरपुरुषकी चराचर पदार्थोंने आशा नष्ट हो गयी है, उसके इस लोकमें क्या-क्या मनोवांछित सिद्ध नहीं हुए, सर्वमनोवाचित सिद्ध हुए ।१६।
बो पा / टी / ४६/१९४ पर उद्धृत आशादासीकृता येन तेन दासीकृतं जगत् । आशाया यो भवेद्दास सदास सर्वदेहिनाम् । -जिसने आशाको दासी बना लिया है उसने सम्पूर्ण जनयको दास बना लिया है । परन्तु जो स्वयं आशाका दास है, वह सर्व जीवोका दास है । ६. सम्यग्दृष्टिकी विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका
समाधान
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१. सम्यग्दष्टिको रागका अभाव तथा उसका कारण स.सा.// २०१-२०२ परमाणु मित्तर्यपि रामादीनं तु नये जस्स । ण वि सो जाणदि अप्पाणय तु सब्बागमधरो वि । २०६० अप्पाणमयाण तो अणप्ययं चावि सो अयाणंतो कह होदि सम्म - दिट्ठी जीवाजीचे अयातो ॥ २०२ ॥ - वास्तव में जिस जीवके परमामात्र लेशमात्र भी रागादिक बर्तता है, यह जीव भसे ही सर्व आगमका धारी हो तथापि आत्माको नहीं जानता । २०११ (प्र. सा./
/२११) (पं. का/यू./१६०) (खि ५/२/१७) और आरमाको न जानता हुआ, वह अनात्मा (पर) को भी नहीं जानता। इस प्रकार जो जीव और अजीवको नही जानता वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है।
मोपा परमाणुपमा वा परदि इदि मोहा। सो मूढो अगाणी आदसहावस्स विवरीओ | ६६| = जो पुरुष पर द्रव्य में लेशमात्र भी मोहसे राग करता है, वह मूढ है, अज्ञानी है और आरमस्वभावसे विपरीत है | ६|
प. प्र/मू /२/८१ जो अणु-मेत्तु वि राउ मणि जामण मिल्लह एत्थु । सो विमुच्च ताम जिय जाणतु वि परमत्यु | ८१| जो जीव
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सम्यग्दृष्टिकी विरागता तथा सरसम्बन्धी शंका......
थोडा भी राग मनमें से जब तक इस संसार में नही छोड़ देता है, तब तक हे जीव । निज शुद्धात्म तत्वको शब्द से केवल जानता हुआ भी नहीं मुक्त होता (मो.सा अ/२/४०)।
पघ / / २५६ वैषयिक सुखेन स्याद्रागभाव सुदृष्टिनाम् । रागस्याज्ञानभावस्वादस्ति मिथ्यादृश' स्फुटम् | २५६ = सम्यग्दृष्टियोके वैषयिक सुख में ममता नही होती है क्योकि वास्तवमे वह आसक्तिरूप राग भाव अज्ञानरूप है, इसलिए विषयोकी अभिलाषा मिथ्यादृष्टिको होती है | २६६०
२. निचली भूमिकाओं में रागका अभाव कैसे सम्भव है स. सा./ता.वृ/ २०१,२०२/२७६/५ रागी सम्यग्दृष्टिर्न भवतीति भणितं भवद्भिर्हतुर्थस्थान सम्यष्टोन भवन्ति । इति तन्न मिथ्यादृष्टयपेक्षया त्रिचत्वारिशत्प्रकृतीना बंधाभावात् सो भवति वर्ष इति चतुर्थगुणस्थानमा अनन्तानुबन्धिको पापा रेखादिसमानाना रागादीनामभावाद।" पञ्चगुणस्थानर्तिनां अप्रत्याख्यानक्रोध भूमिरेखादि समानाना रागादीनामभावात् । अत्र तु ग्रन्थे पञ्चमगुणस्थानादुपरितनगुणस्थान
1=
मां वीतरागसम्यग्टन मुख्यवृत्याग्रह सराग सम्यन्दीना गोगवृत्येति व्याख्यानं सम्यग्पटि व्याख्यानवाले सर्वत्र तात्पर्येश ज्ञातव्यम् । प्रश्न- रागी जीव सम्यग्दृष्टि नही होता, ऐसा आपने कहा है, तो चौथे व पाँचवे गुणस्थानवर्ती जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकेंगे। उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योकि मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा ४३ प्रकृतियोके बन्धका अभाव होनेसे सराग सम्यग्दृष्टि होते है । यह ऐसे कि चतुर्य गुणस्थान जीव के हो पापान रेखा सहा अनन्तानुबन्धी चतुष्करूप रागादिको अभाव होता है, और पचम गुणस्थानवर्ती जीवोके भूमिरेखा दश अत्याख्यान चतुष्क रूप रागादिकों का अभाव होता है। यहाँ इस ग्रन्थ में पंचम गुणस्थान से ऊपर वाले गुणस्थानवर्ती वीतराग सम्यग्दृष्टियोका मुख्य रूपसे प्रहण किया गया है और सरागसम्यग्गृहियोका गौण रूपसे सम्यदृष्टि के व्याख्यान काल मे सर्वत्र यही जानना चाहिए ।
दे. सम्यग्दृष्टि / ३ // (ता. ९१३) [सम्यन्दष्टिका अर्थ गीतराग सम्यदृष्टि समझना चाहिए ]
ससा /पं जयचन्द / २०० जब अपनेको तो ज्ञायक भावरूप सुखमय जाने और कर्मोदयसे उत्पन्न हुए भावोको आकुलतारूप दुखमय जाने तब ज्ञानरूप रहना तथा परभावोसे विरागता यह दोनों अवश्य ही होते है । यह बात प्रगट अनुभवगोचर है। यही सम्यग्दृष्टिका है।
ससा / जयचन्द / २००/१३७/१०७ प्रश्न---परद्रव्यमें जब तक राग रहे तब तक जीवको मिथ्यादृष्टि कहा है, सो यह बात हमारी समझ में नहीं आयी । अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादिके चारित्रमोहके उदयसे गादि भाव तो होते है, तब फिर उनके सम्यक्त्व कैसे । उत्तरयहाँ मिथ्यात्वसहित अनन्तानुबन्धी राग प्रधानता से कहा है । जिसे ऐसा राग होता है अर्थात जिसे परमें तथा परद्रव्यसे होनेवाले भाव में आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति- अप्रीति होती है, उसे स्व-परका ज्ञान श्रद्वान नहीं है भेदज्ञान नहीं है ऐसा समझना चाहिए (विशेष दे. सम्यग्दृष्टि / ३ / ३ में ता.वृ.) ।
३. सम्यग्दष्टिको ही यथार्थ बैराग्य सम्भव है स.मू./६७ यस्य सस्पन्दमाभाति निःस्पन्देन समं जगत् । अप्रज्ञ - मक्रियाभोगं स शम याति नेतर' । ६७। जिसको चलता-फिरता भी यह जगत् स्थिरके समान दीखता है। प्रज्ञारहित तथा परिस्पन्दरूप किया तथा सुखादिके अनुभव से रहित दीखता है उसे वैराग्य आ जाता है अन्यको नहीं । ६७ ।
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