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राग
४. रागमे इष्टानिष्टता
३. व्यक्ताव्यक्त राग निर्देश
१. व्यक्ताव्यक्त रागका स्वरूप रा बा./हिं/8/४४/७५७-७५८ जहाँ ताई अनुभवमें मोहका उदय रहै तहाँ ताई तो व्यक्त रूप इच्छा है और जब मोहका उदय अति मन्द हो जाय है, तब तहाँ इच्छा नाहीं दीखे है। और मोहका जहाँ उपशम तथा क्षय होय जाय तहाँ इच्छाका अभाव है।
२. अप्रमत्त गुणस्थान तक राग व्यक्त रहता है पं ध/उ /११० अस्त्युक्तलक्षणोरागश्चारित्रावरणोदयात। अप्रमत्तगुणस्थानादर्वाक स्यान्नो+मस्त्यसौ ।११०) रागभाव चारित्रावरण कर्मके उदयसे होता है तथा यह राग अप्रमत्त गुणस्थानके पहले पाया जाता है, अप्रमत्त गुणस्थानसे ऊपरके गुणस्थानोमे इसका सद्भाव नहीं पाया जाता है ।।१०। रा. वा. हिं/8/४४/७५८ सातवाँ अप्रमत गुणस्थान विषै ध्यान होय है ।
ता धर्मध्यान कहा है । तामें इच्छा अनुभव रूप है । अपने स्वरूपमे अनुभव होनेकी इच्छा है। तहाँ तई सराग चारित्र व्यक्त रूप कहिये।
३. ऊपरके गुणस्थानों में गग अव्यक्त है घ १/१,१,११२/३५१/७ यतीनामपूर्वकरणादोनो कथं कषायास्तित्वमिति
चेन्न, अव्यक्तकषायापेक्षया तथोपदेशात् । प्रश्न-अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवाले साधुओके कषायका अस्तित्व कैसे पाया जाता है। उत्तर-नहीं, क्योकि अव्यक्त कषायको अपेथा वहॉपर कषायोके अस्तित्वका उपदेश दिया है। ध./उ./११ अस्ति चोर्ध्वमसौ सूक्ष्मो रागश्चाबुद्धिपूर्वज । अकि क्षीणकषायेभ्य स्याद्विवक्षावशान्नवा। - ऊपरके गुणस्थानोमे जो अबुद्धि पूर्वक सूक्ष्म राग होता है, यह अबुद्धि पूर्वक सूक्ष्म राग भी क्षीण कषाय नामके बारहवे गुणस्थानसे पहले होता है। अथवा ७ वें से १० वें गुणस्थान तक होनेबाला यह राग भाव सूक्ष्म होनेसे बुद्धिगम्य नही है ।।११ रा. वा. हिं/६/४४/७५८ अष्टम अपूर्वकरण गुणस्थान हो है तहाँ मोहके
अतिमन्द होने” इच्छा भी अव्यक्त होय जाय है । तहाँ शुक्लध्यानका पहला भेद प्रवर्ते है । इच्छाके अव्यक्त होनेतै कषायका मल अनुभवमें रहे नाही, उज्जवल होय।
जलाना चाहता है, उसे ज्ञानरूप अग्निके द्वारा उस मोहरूपी बीजको जला देना चाहिए।१२।
२. मोक्षके प्रतिका राग भी कथंचित् हैय है मो. पा/म् ५५ आसवहेदू य तहा भाव मोक्खस्स कारणं वदि । सो तेण हु अण्णाणी आदसहावाहु विवरीओ।५५॥ रागभाव जो मोक्षका निमित्त भी हो तो आरबका ही कारण है। जो मोक्षको पर द्रव्यकी भॉति इष्ट मानकर राग करता है सो जोव मुनि भी अज्ञानी है, आत्म स्वभाव से विपरीत है ।।५।। प.प्र /मू./२/१८८ मोवतु म चितहि जोइया मोवखु ण चितिउ होइ ।
जेण णिबद्धउ जीवडउ मोवखु क्रेसइ सोइ।१८८ हे योगी। अन्य चिन्ताकी तो बात क्या मोक्षकी भी चिन्ता मत कर, क्योकि मोक्ष चिन्ता करनेसे नही होता। जिन कर्मोंसे यह जीव बँधा हुआ है वे कर्म ही मोक्ष करेंगे।१८८॥ १.का /त प्र./१६७ तत स्त्रसमयप्रसिद्धयर्थ अर्ह दादि विषयोऽपि क्रमेण
रागरेणुरपसारणीय इति-जीवको स्वसमयकी प्रसिद्धिके हेतु अर्हतादि विषयक भी रागरेणु क्रमश' दूर करने योग्य है। पं. वि/१/५५ मोलेऽपि मोहादभिलाषदोषा विशेषतो मोक्षनिषेधकारी।
- अज्ञानतासे मोक्षके विषयमे भी की जानेवाली अभिलाषा दोष रूप होकर विशेष रूपसे मोक्षकी निषेधक होती है । (प. वि./२३/१८) ।
३. मक्षिके प्रतिका राग कथंचित् इष्ट है प.प्र./ /२/१२८. सिव-पहि णिम्मलिकरहि रइ धरु परियणु लहू छाडि । १२८१-तू परम पवित्र मोक्षमार्गमे प्रीतिकर, और घर आदिको शीघ ही छोड।१२८।। क.पा १/१,२९/६३४२/३६६/११ तिरयणसाण विसयलोहादो सग्गापजग्गाणमुप्पत्तिद सणादो । रत्नत्रयके साधन विषयक लोभसे स्वर्ग
और मोक्षको प्राप्ति देखी जाती है। प्रसा/त प्र/२५४ रागसयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमत परमनिर्वाण
सौख्यकारणत्वाच्च मुख्य ।-गृहस्थको रागके सयोगसे शुद्धात्माका अनुभव होता है, और इसलिए क्रमश. परम निर्वाण सौख्यका कारण होता है। आ. अनु /१२३ विधूततमसो रागस्तप श्रुतनिबन्धन । सन्ध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदयाय स ।१२३१ - अज्ञानरूप अन्धकारको नष्टकर देनेवाले प्राणीके जो तप और शास्त्र विषयक अनुराग होता है वह सूर्यकी प्रभात कालोन लालिमाके समान उसके अभ्युदयके लिए होता है।
४ तृष्णाके निषेधका कारण ज्ञा /१७/२,३,१२ यावद्यावच्छरीराशा धनाशा वा विसर्पति। तावत्तावन्मनुष्याणा मोहग्रन्थि ढीभवेत् ॥२॥ अनिरुद्धा सती शश्वदाशा विश्व प्रसर्पति । ततो निबद्धमूलासौ पुनश्छेत्तुं न शक्यते ।३। यावदाशानलश्चित्ते जाज्वलीति विशृङ्खल । तावत्तव महादुखदाहशान्ति' कुतस्तनी ।१२।१. मनुष्यो के जैसे-जैसे शरीर और धनमें आशा फैलती है. तैसे-तैसे मोहकर्मकी गाँठ दृढ़ होती है ।२।२ इस आशाको रोका नही जाये तो यह निरन्तर समस्त लोक पर्यन्त बिस्तरती रहती है, और उससे इसका मूल दृढ होता है, फिर इसका काटना अशक्य हो जाता है ।३। (ज्ञा/२०/३०) ३ हे आत्मन् । जब तक तेरे चित्तमें आशारूपी अग्नि रवतन्त्रतासे नितान्त प्रज्वलित हो रही है तब तक तेरे महादु खरूपी दाहकी शान्ति कहाँसे हो ।१२॥
५. ख्याति लामादिकी भावनासे सुकृत नष्ट हो जाते हैं आ. अनु /१८६ अधीत्यसकल श्रुत चिरमुपास्यघोर तपो यदीच्छसि ___ फलं तयोरिह हि लाभपूजादिकम् । छिनत्सि सुतपस्तरो' प्रसबमेव
४. रागमे इष्टानिष्टता
१. राग हेय है स. सि./७/१७/३५४४१० रागादय, पुन' कर्मोदयतन्त्रा इति अनारमस्वभावत्वाद्धयाः। -रागादि तो कर्मोके उदयसे होते है, अत वे
आत्माका स्वभाव न होनेसे हेय है। स. सा./आ /१४७ कुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसर्गों प्रतिषिद्धौ बन्धहेतुत्वात् कुशीलमनोरमामनोरमकरेणुकुट्टनीरागसंसर्गवत् । -जैसे-कुशील-मनोरम और अमनोरम हथिनी रूपी कुट्टनी के साथ (हाथीका) राग और ससर्ग बन्ध (बन्धन) का कारण होता है, उसी प्रकार कुशील अर्थात शुभाशुभ कर्मोके साथ राग और ससर्ग बन्धके कारण होनेसे, शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्गका निषेध किया गया है। आ. अनु./१८२ मोहबीजादतिद्वेषौ वीजान्मूलाड कुराविव। तस्माज्ज्ञानाग्निना दाह्य तदेतौ निदिधिक्षुणा ।१८२ - जिस प्रकार वीजसे जड़ और अंकुर उत्पन्न होते है, उसी प्रकार मोह रूपी बीजसे राग और द्वेष उत्पन्न होते है। इसलिए जो इन दोनो (राग-द्वेष) को
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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