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राग
ससा २०० त्वं विजानश्य स्वभाबोपादानानिष्पाद्य स्वस्य वस्तु प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभयान भाषा सर्वानपि मुञ्चति । ततोऽय नियमात् ज्ञानवैराग्यसंपन्नो भवति तत्त्वको जानता हुआ, स्वभाव के ग्रहण और परभाव के त्यागसे उत्पन्न होने योग्य अपने बस्तुको विस्तारित करता हुआ कर्मोदयके विपाकसे उत्पन्न हुए समस्त भावोंको छोड़ता है। इसलिए वह ( सम्यग्दृष्टि ) नियमसे ज्ञान-वैराग्य सम्पन्न होता है । यू.आ./टी./१०६ कदाचिद्रा स्यात्तथापि पुनर्वन्ति, पश्चात्तापेन तत्क्षणादेव बिनाशमुपयाति हरिद्वारक्तवस्त्रस्य पीतप्रभारविकिरणस्पृष्टेवेति । जीवके प्राथमिक अवस्थामे यद्यपि कदाचित राग होता है तथापि उसमें उसका अनुबन्ध न होनेसे वह उसका कर्ता नहीं है । इसलिए वह पश्चात्तापवश ऐसे नष्ट हो जाता है जैसे सूर्य की किरणोका निमित्त पाकर हरिद्राका रंग नष्ट हो जाता है।
४. सरागी भी सम्बगृष्टिविरागी है
र.सा./मू./५० सम्माइट्ठीका मोटर एगणाम भावेण मिच्याही बाघा दुम्मावालस्कल हेहि १०१ सम्यदृष्टि पुरुष समयको वैराग्य और ज्ञानसे व्यतीत करते है । परन्तु मिध्यादृष्टि पुरुष दुर्भाव आलस और कलह से अपना समय व्यतीत करते है । स.सा./आ./१६७/क. १३६ सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्ति. स्य वस्तु मितुमय स्वान्यरूपामिमुपया यस्माज्ज्ञाला व्यतिकरमिदं तवस एवं परय स्वस्मिन्नास्ते विरमति पात्सर्वतो राजयोगात् ॥ १३६॥ यष्टि नियमसे ज्ञान और वैराग्यकी शक्ति होती है, क्योंकि वह स्वरूपका ग्रहण और परका त्याग करनेकी विधिके द्वारा अपने वस्तुत्वका अभ्यास करनेके लिए, 'यह स्व है। ( अर्थात् आत्मस्वरूप है और यह पर है इस भेदको परमार्थ से जानकर स्वमें स्थिर होता है और परसे—- रागके योग विरमता है।
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स.सा./आ./१६६/१३५ नास्ते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं कई विषयसेवनस्य ना । ज्ञानवैभवविरागताबलात् सेवकोऽपि तदसावसेवक | १३५ | यह ( ज्ञानी ) पुरुष विषयसेवन करता हुआ भी ज्ञान वैभव और विरागला मलसे विषयसेवनके निजको नही भोगता प्राप्त नहीं होता, इसलिए यह (पुरुष) सेवक होने पर भी सेवक है | १२३॥ ब्र.सं./टी./१/३/११ जिमिध्यात्वरागादिश्वेन एकदेशणिना. असंयतसम्यग्दृष्टय. 1 = मिध्यात्व तथा राग आदिको जीतनेके कारण असंयत सम्यग्दृष्टि आदि एकदेशी जिन है ।
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मो मा १० / ६ / ४६७ / १७ क्षायिकसम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व रूप्र रंजना के अभाव वीतराग है।
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५. घर में वैराग्य व वनमें राग सम्भव है
भापा / टी, / ६६ / २१३ पर उद्धृत वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणी गृहेऽपि द्रयनिग्रहस्तप। अकुत्सिते निय प्रवर्तते, विरागस्य गृह तपोवनं रागी जीवोको मनमें रहते हुए भी दोष विद्यमान रहते है, परन्तु जो रागसे विमुक्त है उनके लिए घर भी तपोवन है, क्योकि वे घरमे भी पाँचो इन्द्रियोके निग्रहरूप तप करते है और अकुत्सित भावनाओं में वर्तते है ।
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१. सम्यग्दृष्टि को राग नही तो मोग क्यों भोगता है स.सा./ता.वृ/१६४/२६८ / १४ उद्यागते व्यकर्मणि जीवेनोपभुज्यमाने सति नियमात सुख दुखं जायते तावत् .. सम्यग्दृष्टिर्जीवो कुमुदयति न च तन्मयो भूत्वा अहं सुखी
६. सम्यग्दृष्टिको विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका
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दुखीत्याग्रहमिति प्रत्ययेन नानुभवति मिथ्याहटे पुनरुपाय बुद्धया, सुख्य दुख्यहमिति प्रत्ययेन बधकारण भवति । कि च, यथा कोऽपि तस्करो यद्यपि मरण छति तथापि वरं गृहीत सन् मरणमनुभवति । तथा सम्यग्दृष्टि यद्यप्यात्मोत्थ सुखमुपादेयं च जानाति विषयच हे जानाति तथापि चारित्रमोहोदयवरेण गृहीत सन् तदनुभवति तेन कारणेन निर्जरानिमित्तं स्यात् । द्रव्यमों उदय ने जीवके द्वारा उपयुक्त होते है. और तब नियमसे उसे उदयकालपर्यन्त सुख-दुख होते है। तहाँ सम्यग्दृष्टि जीव उनमे राग-द्वेष न करता हुआ उन्हे हेय बुद्धिसे अनुभव करता है। 'मै सुखी हूँ, मै दुखी हूँ' इस प्रकारके प्रत्यय सहित तन्मय होकर अनुभव नहीं करता। परन्तु मिथ्यादृष्टि तो उन्हे उपादेय बुद्धिसे मैसुली, मै दुखी' इस प्रकार के प्रत्ययसहित अनुभव करता है, इसलिए उसे बन्धके कारण होते है और भी-सि प्रकार कोई चोर यदि मरना नही चाहता तो भी कोतवालके द्वारा पकड़ा जानेपर मरणका अनुभव करता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि यद्यपि आत्मासे उत्पन्न सुखको ही उपादेय जानता है, और विषय मुखको हेय जानता है, तथा चारित्रमोहके उदयरूप कोतवाल द्वारा पकडा हुआ उन वैषयिक सुख-दुखको भोगता है । इस कारण उसके लिए वे निर्जराके निमित्त ही है।
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प ध /उ /२६१ उपेक्षा सर्वभोगेषु सद्दृष्टेष्टरोगवत् । अवश्यं तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गज | २६११- सम्यग्दृष्टिको सर्वप्रकारभोगमें रोगकी तरह अरुचि होती है क्योंकि उस सम्यक्त्वरूप अवस्थाका प्रत्यक्ष विषयोमे अवश्य अरुचिका होना स्वतः सिद्ध स्वभाव है । २६१४
७. विषय सेवता भी असेवक हैं।
स. सा / मू./१६७ सेतो विण सेवइ असेवमाणो वि सेवगो कोई । पगरणा परस पिय पायरणो ति सो होई-कोई तो विषयको सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता, और कोई मनन करता हुआ भी सेवन करनेवाला है-जैसे किसी पुरुष प्रकरण की पेष्ट पायी जाती है तथापि यह प्राकरणिक नहीं होता। ससा / २९४ / १४६ पूर्वजिविका शानि भवत्युपभोग भवस्य च रागवियोगात् नूनमेसिन परिप्रभाव | १४६ । पूर्वबद्ध अपने कर्म के विपाकके कारण ज्ञानीके यदि उपभोग हो तो हो, परन्तु रागके वियोग (अभाव) के कारण वास्तव में वह उपभोग परिषभावको प्राप्त नहीं होता । ९४६०
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अन ध./८/२-३ मन्त्रेणेव विषं मृत्य्वैमध्वरत्या मदायवा । न बंधाय हत ज्ञप्त्या न विरक्त्यार्थ सेवनम् |२| ज्ञो भुजानोऽपि नो भुङ्क्ते विषयास्तत्फलात्ययात् । यथा परप्रकरणे नृत्यन्नपि न नृत्यति । ३। मन्त्र द्वारा जिसकी सामर्थ्य नष्ट कर दी गयी ऐसे विषका भक्षण करनेपर भी जिस प्रकार मरण नही होता, तथा जिस प्रकार बिना प्रीतिके पिया हुआ भी मद्य नशा करनेवाला नही होता, उसी प्रकार
ज्ञान द्वारा उत्पन्न हुए वैराग्यके अन्तर में रहनेवर विषयोपभोग कर्मबन्ध नहीं करता |२| जिस प्रकार नृत्यकार अन्य पुरुष के विमाहा दिनें नृत्य करते हुए भी उपयोगकी अपेक्षा पृथ्य नहीं करता है, इसी प्रकार ज्ञानी आत्मस्वरूप में उपयुक्त है वह चेष्टामात्र यद्यपि
को भोगता है, फिर भी उसे अभोक्ता समझना चाहिए |३| २००-२०४ ) ।
प/उ/२०४ सम्यग्दृष्टिरसी भोगान् सेवमानोप्य सेवकः। नीरागस्य न रागाय कर्माकामकृत यत 1२७४ - यह सम्यग्दृष्टि भोगोंका सेवन करता हुआ भी वास्तव में भोगोका सेवन करनेवाला नही कहलाता है, क्योकि रागरहित जीवके बिना इच्छाके किये गये कर्मरागको उत्पन्न करने में असमर्थ हैं । २७४ |
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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