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रलमाला
रम्यका
१ बृहद् विधि-(ह पु/३४/७६) । प्रथम १० बेला, १,२,३,४,५,६, ७,८,९,१०,११,१२,१३,१४,१५,१६, इस प्रकार एक एक वृद्धि क्रमसे १३६ उपयास करे। फिर ३४ बेला, १६.१५,१४,१३,१२,११,१०,६,८,७, ६.५,४,३,२,१, इस प्रकार एक एक हानि क्रमसे १३६ उपवास करे, १२ बेला । विधि-उपरोक्त रचनावत् पहले एक बेला व १ पारणा क्रमसे १२ बेला करे, फिर एक उपवास १पारणा, २ उपवास १ पारणा क्रमसे १ वृद्धि क्रमसे १६ उपवास तक करे, पीछे ३४ बेला, फिर १६ से लेकर एक हानि क्रमसे १ उपवास तक करे, पीछे १२ बेला करे। बीचमे सर्वत्र एक एक पारणा करे । जाप्य नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। २. मध्यम विधि-एक वर्ष पर्यन्त प्रतिमासकी शु. ३,५,८ तथा कृ. २, ५.८, इन छह ति थियो में उपवास करे, तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (व्रत विधान स./पृ ७३)।
(लोहिताक्ष), असारगल्ल (मसारकल्पा), गोमेदक, प्रवाल, ज्योतिरस, अजन, अजनमूल, अक, स्फटिक, चन्दन, वर्चगत (सर्वार्थका), बहुल (बकुल ) और शैल, ये उन उपर्युक्त चौदह पृथिवियोके नाम है। इनमेसे प्रत्येककी मोटाई एक हजार योजन है ।१६-१७। इन पृथि वियोके नीचे एक पाषाण नामकी (सोलहवी) पृथिवी है । जा रत्नशैलके समान है। इसकी मुटाई भी एक हजारयोजन प्रमाण है। ये सब पृथिवियों वेत्रासनके सदृश स्थित है ।१८ (रा वा/३/१/८/१६०/११), (त्रि. सा/१४६-१४८), (ज. प/११/११४-१२०)।
* खर पंक मागमें भवनवासियोंके निवास..दे०भवन/४। रत्नमाला-१.धरणीतिलक नगरके राजा अतिवेगकी पुत्री थी। बज्रायुधसे विवाही गयी। (म. पृ/५६/२४१-२४२) यह मेरु गणधरका पूर्व का चौथा भव है-दे० मेरु । २, आ. शिवकोटि (ई श. ११) द्वारा तत्त्वार्थसूत्रपर रची गयी टीका। रत्तमुक्तावली व्रत-ह. पु/३४/७२-७३ एक उपवास, एक पारणा,
दो उपवास, एक पारणा, एक उपवास, एक पारणा इत्यादि नीचे लिखी संख्याके अनुसार २८४ उपवास करे, और बीचके (,) वाले स्थानोमे एक एक पारणा करे। यत्र-१,२,१,३,१,४,१,५,१,६,१,७,१, ८,१,६,१,१०,१,११,१,१२,१,१३,१,१४,१,१५,१,१६,१,१५,१,१४,१,१३,६, १२,१,११,१,१०,१,६,१,८,१,७,१.६,११५.१,४,१,३,१,२,१,। रत्नश्रवा-सुमालीका पुत्र तथा रावणका पिता था। (प. पु./७/
१३३, २०६)। रस्नसंचय-बिजया की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। रत्नाकर-१. विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर ।-दे० विद्याधर । २. काश्मीर नरेश अवन्तिवर्माके कालमे एक कवि थे।
समय-ई.८८४ (ज्ञा./प्र./4/पं. पन्नालाल )। रत्नावली व्रत-इस व्रतकी विधि तीन प्रकारसे वर्णन की गयी है-उत्तम, मध्यम, व जघन्य ।
जघन्य विधि-यन्त्र १,२,३,४,५,७,४,३,२, १ विधि-वृद्धि - हानि क्रमसे उपरोक्त प्रकार ३० उपवास करे, बीचके ६ स्थान तथा अन्तमे १ इस प्रकार १०पारणा करे। (ह पु./३४/७२-७३)।
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रत्ति-क्षेत्रका प्रमाण विशेष-दे० गणित/1/१ । रत्नच्चिय-१. सुमेरु पर्वतका अपरनाम-दे० सुमेरु । २. रुचक ___ पर्वतस्थ एक कूट- दे० लोक/५/१३ । रथ-ध १४/५,६,४१/३८/१२ जुधे अहिरह-महारहाण चउणजोग्गा रहा णाम । - जो युद्धमे अधिरथी और महारथियोके चढ़ने योग्य होते है, वे रथ कहलाते है। रथनपुर-विजयाध की दक्षिणश्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । रथपुर-विजयाकी दक्षिणश्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । रथरेणु-क्षेत्रका प्रमाण विशेष-दे० गणित/I/९/३ ! रमणीया-१ पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक ५/२,२.पूर्व विदेहस्थ
आत्माजन वक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव-दे० लोक ५/४; ३ नन्दीश्वर द्वीपकीउत्तरदिशामे स्थित एक वापी-दे० लोक/५/११ । रम्यककूट-नील व रुक्मि पर्वतस्थ एक-एक कूट ।-दे० लोक५/४ । रम्यकक्षेत्ररा. वा/३/१०/१४/१८१/११ यस्माद्रमणीयैर्देशै. सरित्पर्वतकाननादिभिर्युक्त', तस्मादसौ रम्यक इत्यभिधीयते। अन्यत्रापि रम्यकदेशयोग समान इति चेत्, न, रूढिविशेषत्रललाभाद। रमणीय देश नदी-पर्वतादिसे युक्त होनेके कारण इसे रम्य कहते है। यद्यपि अन्यत्र भी रमणीक क्षेत्र आदि हैं, परन्तु 'रम्यक' नाम इसमें रूढ
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* अन्य सम्बन्धित विषय १. रम्यक क्षेत्रका अवस्थान व विस्तार आदि-दे० लोक/३/३ । २. इस क्षेत्रमें काल वर्तन आदि सम्बन्धी विशेषता--दे० काल/४ । रम्यकदेव-नील व रुक्मि पर्वतस्थ रम्यक कूटके स्वामी-दे०
लोक/५/४ । रम्यका-१. पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक १२:२.पूर्व विदेहस्थ अजन वक्षारका एक कूट तथा उसका स्वामीरक्षक देव-दे० लोकाया।
४ बेलाके बिन्दु
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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