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योग
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१.योगके भेद व लक्षण
योग कहते हैं। योग, समाधि और सम्यक्प्रणिधान ये एकार्थवाची है। (द. पा./टी/8/4/१४) । दे० सामायिक/१ साम्यका लक्षण (साम्य, समाधि, चित्तनिरोध व
योग एकार्थवाची है।) दे. मौन/१ (बहिरन्तर जल्पको रोककर चित्त निरोध करना योग
१. योगके भेद व लक्ष
१. योग सामान्यका लक्षण १. निरुक्ति अर्थ रा.वा./७/१३/४/५४०/३ योजनं योग संबन्ध इति यावत् ।
सम्बन्ध करनेका नाम योग है। घ.१/१,१,४/१३६/युज्यत इति योग । जो सम्बन्ध अर्थात् संयोग
को प्राप्त हो उसको योग कहते है।
२. जीवका वीर्य या शक्ति विशेष पं.स./प्रा./१/८८ मणसा गया कारण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो।
जीवस्य (जिह) पणिजोगो जोगो त्ति जिणेहि णि दिट्ठो। मन, वचन और कायसे युक्त जीवका जो वीर्य-परिणाम अथवा प्रदेश परिस्पन्द रूप प्रणियोग होता है, उसे योग कहते है।८। (ध.१/१,१,४/
गा. ८८/१४० ); गो. जी./म् /२१६/४७२ )।। रा, वा /8/७/११/६०३/३३ वीर्यान्तरायक्षयोपशमलब्धवृत्तिवीर्यल ब्धि
र्योग' तद्वत आत्मनो मनोवाक्कायवर्गणालम्बन प्रदेशपरिस्पन्द. उपयोगो योग ।-वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे प्राप्त वीर्यलब्धि योगका प्रयोजक होती है। उस सामर्थ्यवाले आत्माका मन, वचन और
काय वर्गणा निमित्तिक आत्म प्रदेशका परिस्पन्द योग है। दे० योग/२/५ (क्रियाकी उत्पत्तिमें जो जीवका उपयोग होता है वह
योग है।) ३. आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द या संकोच विस्तार स. सि./२/२६/१८३/१ योगो वाड्मनसकायवर्गणानिमित्त आत्मप्रदेशपरिस्पन्द । वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणाके निमित्तसे होनेवाले आत्म प्रदेशों के हलन-चलनको योग कहते है। (स.सि /६/९/३१८/५); (रा. वा./२/२६/४/१३७/८); (रा. वा./६/ १/१०/५०५/१५); (घ/१/१,१,६०/२६६/७),(ध ७/२,१,२/६/813 (ध. ७/२.१.१५/१७/१०), (प.का./त,प्र/१४८), (द्र.सं.टी./ ३०/८८/६); (गो.जी/जी प्र/२१६/४७३/१८)। रा. वा./९/७/११/६०३/३४ आत्मनो मनोवाकायवर्गणालम्बन प्रदेशपरिस्पन्द उपयोगो योगः। =मन, वचन और काय वर्गणा निमित्तक आत्मप्रदेशका परिस्पन्द योग है। (गो, जी./म.प्र./२१६/
४७४/१)। घ. १/१.१,४/१४०/२ आत्मप्रदेशानी संकोचक्किोचो योग ।
आत्मप्रदेशोके संकोच और विस्तार रूप होनेको योग कहते है। (ध.७/२,१,२/६/१०)। घ.१०/४,२,४,१७५/४३७/७ जीव पदेसाणं परिप्फंदो स कोचविकोचम्भमणसरूबओ। =जीव प्रदेशोका जो संकोच-विकोच व परिभ्रमण रूप परिस्पन्दन होता है वह योग कहलाता है।
४. समाधिके अर्थमें नि. सामू १३६ विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोहक हियतच्चेसु ।
जो जुजदि अप्पाग णियभावो सोहवे जोगो ।१३। -विपरीत अभिनिवेशका परित्याग करके जो जैन कथित तत्त्वोमें आत्माको लगाता है, उसका निजभाव वह योग है। स. सि./६/१२/३३१/३ योग' समाधि सम्यक्प्रणिधानमित्यर्थः । योग, समाधि और सम्यक् प्रणिधान ये एकार्थवाची नाम है। (गो. क./
जी.प्र/८०१/१८०/१३); (वै.शे. दै/५/२/१६/१७२)। रा. वा./६/१/१२/५०५/२७ युजे समाधिवचनस्य योग- समाधि. ध्यानमित्यनर्थान्तरम् । =योगका अर्थ समाधि और ध्यान भी होता है। रा. बा./६/१२/८/५२२/३१ निरवद्यस्य क्रियाविशेषस्यानुष्ठानं योग समाधिः, सम्यक प्रणिधानमित्यर्थः।-निरवद्य क्रियाके अनुष्ठानको
५ वर्षादि काल स्थिति द. पा/टी./६/८/१४ योगश्च वर्षादिकाल स्थिति । = वर्षादि ऋतुओकी काल स्थितिको योग कहते है। २. योगके भेद १. मन वचन कायकी अपेक्षा ष. खं. १/१,१/सू. ४७,४८/२७८,२८० जोगाणुवादेण अस्थि मणजोगी वचजोगी कायजोगी चेदि 1४७। अजोगि चेदि ।४८-योग मार्गणाके अनुवाद की अपेक्षा मनोयोगी वचन योगी और काययोगी जीव होते है ।४८ (बा अ/४६); (त.सू./६/१) (ध,८/३,६/२१५); (ध.१०/४,२,४,१७५/४६७/६); (द्र.सं/टी./१३/३७/७), (द्र.सं./
टी./३०/८६/६)। स.सि 14/१/३७६/१ चत्वारो मनोयोगाश्चत्वारो वाग्योगा पञ्च काय
योगा इति त्रयोदश विकल्पो योग। -चार मन योग, चार वचन योग और पाँच काय योग ये योगके तेरह भेद है। (रा. वा/८/९/ २६/५६४/२६); (रा. वा./8/७/११/६०३/३४), (द्र. सं/टी./३०/८६/ ७-१३/३७/७); (गो. जी./मू /२१७/४७५), (विशेष दे. मन, वचन, काय)।
२. शुभ व अशुभ योगकी अपेक्षा ब, आ /४६.५० ..मणवचिकायेण पुणो जोगो.. ४६असुहेदरभेदेण दु
एक्केक्कू वण्णिदं हवे दुविहं /.. 101 =मन, वचन, और काय ये तीनो योग शुभ और अशुभ के भेदसे दो-दो प्रकारके होते है। (न.
च. वृ./३०८)। रा. वा./६/३/२/५०७/१ तस्मादनन्तविकल्पादशुभयोगादन्य शुभयोग इत्युच्यते। -अशुभ योगके अनन्त विकल्प है, उससे विपरीत शुभ योग होता है।
३. त्रिदण्डके भेद-प्रभेद चा. सा./EE/६ दण्डस्त्रिविध', मनोवाकायभेदेन । तत्र रागद्वेषमोहबिकल्पारमा मानसो दण्डस्त्रिविध | मन, वचन, कायके भेदसे दण्ड तीन प्रकार का है, और उसमें भी राग द्वेष, मोहके भेदसे मानसिक दण्ड भी तीन प्रकार है।
४. द्रव्य माव आदि योगोंके लक्षण गो. जी./जी. प्र./२१६/४७३/१५ कायवाड्मनोवर्गणावलम्बिन ससारिजीवस्य लोकमात्रप्रदेशगता कर्मादानकारणं या शक्ति सा भावयोगः । तद्विशिष्टात्मप्रदेशेषु य किचिच्चलनरूपपरिस्पन्द स द्रव्ययोगा। जो मनोवाक्कायवर्गणाका अवलम्बन रखता है ऐसे ससारी जीवकी जो समस्त प्रदेशो में रहनेवाली कोंके ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको भावयोग कहते है। और इसी प्रकारके जीवके प्रदेशोका जो परिस्पन्द है उसको द्रव्ययोग कहते है।
५. निक्षेप रूप मेदोंके लक्षण नोट-नाम, स्थापनादि योगोंके लक्षण - दे० निक्षेप । ध. १०/४,२,४,१७५/४३३-४३४/४ तव्वदिरित्तदव्वजोगो अणेयविहो ।
जहा-सूर-णवखत्तजोगो चद-गवरखत्त जोगोगह णवखत्तजोगो कोण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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