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योग
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५. योगस्थान निर्देश
२. योगस्थानोंके भेद ष.ख/१०/४,२,४/१७५-१७६/४३२,४३६ जोगट्ठागपरूवण दाए तत्थ इमाणि दस अणियोगद्दाराणि णादव्याणि भवति ( १७५/४३२) अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गणएरूवणा फद्दयपरूवणा अतरपरूवणा ठाणपरूवणा अण तरोवणिधा पर परोवणिधा समयपरूवणा वढिपरूवणा अप्पाबहुए त्ति ।१७६। =योगस्थानोको प्ररूपणामें दस अनुयोगद्वार जानने योग्य है ।१७५३ अविभागप्रतिच्छेद प्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्द्धक प्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पब हुत्व, ये उक्त दस अनुयोगद्वार है ।१७६। दे० योग/१/५ ( योजनायोग तीन प्रकारका है-उपपादयोग, एकान्तानु__ वृद्धियोग, और परिणामयोग ।) गो क / /२१८ जोगाणा तिविहा उववादेयतबढिपरिणामा । भेदा एक्केवक पि चोद्दसभेदा पुणो तिविहा ।२१८) - उपपाद, एकातानुवृद्धि और परिणाम इस प्रकार योग-स्थान तीन प्रकारका है। और एक-एक भेदके १४ जीवसमासकी अपेक्षा चौदह-चौदह भेद है। तथा ये १४ भी सामान्य, जघन्य और उत्कृष्टकी अपेक्षा तोन-तीन प्रकारके है।
प्रयत्नात्मसहकारिभ्य' इन्द्रियेभ्यस्तदुत्पत्त्युपलम्भात् । समनस्केषु ज्ञानस्य प्रादुर्भावो मनोयोगादेवेति चेन्न केवलज्ञानेन व्यभिचारात् । समनस्काना यक्षायोपशमिक ज्ञानं तन्मनोयोगात्स्यादिति चेन्न, इष्टत्वात् । मनोयोगाद्वचनमुत्पद्यत इति प्रागुक्त तत्कय घटत इति चेन्न, उपचारेण तत्र मानसस्य ज्ञानस्य मन इति संज्ञा विधायोक्तत्वात्। कथ विक्लेन्द्रियवचसोऽसत्यमोषत्वमिति चेदमध्यवसायहेतत्वात्। ध्वनिविषयोऽध्यवसाय' समुपलभ्यत इति चेन्न, वक्तुरभिप्रायविषयाध्यवसायाभावस्य विवक्षितत्वात। प्रश्न-अनुभय रूप मनके निमित्तसे जो वचन उत्पन्न होते है, उन्हे अनुभय वचन कहते है। यह बात पहले कही जा चुकी है। ऐसी हालतमें मन रहित द्वीन्द्रियादिक जीवों के अनभय वचन कैसे हो सकते हैं । उत्तर-यह कोई एकान्त नहीं है कि सम्पूर्ण वचन मनसे ही उत्पन्न होते है, यदि सम्पूर्ण वचनोकी उत्पत्ति मनसे हो मान ली जावे तो मन रहित केवलियोके वचनोका अभाव प्राप्त हो जायेगा। प्रश्न-- विक्लेन्द्रिय जीवो के मनके बिना ज्ञानकी उत्पत्ति नही हो सकती है और ज्ञानके बिना वचनोकी प्रवृत्ति नही हो सक्ती है । उत्तरऐसा नहीं है, क्योकि, मनसे ही ज्ञानको उत्पत्ति होती है यह कोई एकान्त नहीं है। यदि मनसे ही ज्ञानकी उत्पत्ति होती है यह एकान्त मान लिया जाता है तो सम्पूर्ण इन्द्रियों से ज्ञानकी उत्पत्ति नही हो सकेगी, क्योकि सम्पूर्ण ज्ञानकी उत्पत्ति मनसे मानते हो। अथवा. मनसे समुत्पन्नत्वरूप धर्म इन्द्रियोमे रह भी तो नहीं सकता है, क्योकि, दृष्ट, श्रुत और अनुभूतको विषय करने वाले मानस ज्ञान का दूसरी जगह सद्भाव माननेमे विरोध आता है। यदि मनका चक्षु आदि इन्द्रियोका सहकारी कारण माना जावे सो भी नही बनता है, क्योकि प्रयत्न और आत्माके सहकारको अपेक्षा रखनेवाली इन्द्रियोसे इन्द्रियज्ञानकी उत्पत्ति पायी जाती है। प्रश्न-समनस्क जीवोमें तो ज्ञान की उत्पत्ति मनोयोगसे ही होती है। उत्तर- नहीं, क्योकि, ऐसा माननेपर केवलज्ञानसे व्यभिचार आता है। प्रश्न -जो फिर ऐसा माना जाये कि समनस्क जीवीके जोक्षायोपशमिक ज्ञान होता है वह मनोयोगसे होता है। उत्तर-यह कोई शंका नहीं, क्योकि, यह तो इष्ट ही है। प्रश्नमनोयोगसे वचन उत्पन्न होते है, यह जो पहले कहा जा चुका है वह कैसे घटित होता है। उत्तर-यह शंका कोई दोषजनक नहीं है. क्यो कि, 'मनोयोगसे वचन उत्पन्न होते है' यहाँपर मानस ज्ञानकी 'मन' यह मज्ञा उपचारसे रखकर कथन किया है। प्रश्नविकलेन्द्रियों के वचनोमें अनुभयपना कसे आ सकता है। उत्तरविकलेन्द्रियोके वचन अनधयबसायरूप ज्ञानके कारण है, इसलिए उन्हे अनुभय रूप कहा गया है। प्रश्न-उनके वचनोमें ध्वनि विषयक अध्यवसाय अर्थात निश्चय, तो पाया जाता है, फिर उन्हे अनध्यवसायका कारण क्यो कहा जाय। उत्तर-नही, क्योकि, यहाँपर अनध्यवसायसे वक्ताका अभिप्राय विषयक अध्यवसायका अभाव विवक्षित है।
३. उपपाद योगका लक्षण ध.१०/४,२,४,१७३/४२०/६ उववादजोगो णाम उप्पण्णपढमसमए चेव ।
जहण्णुकास्सेण एगसमओ। उपपाद योग उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही होता है। उसका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है। गो. क /मू /२१६ उववादजोगठाणा भवादिसमयट्ठियस्स अवखरा। विग्गहइजुगइगमणे जीवसमासे मुणेयव्वा ।२१। पर्याय धारण करनेके पहले समयमें तिष्ठते हुए जीवके उपपाद योगस्थान होते है। जो वक्रगतिसे नवीन पर्यायको प्राप्त हो उसके जघन्य, जो जुगत्तिसे नवीन पर्यायको धारण करे उसके उत्कृष्ट योगस्थान होते है ।२१६॥
५. योगस्थान निर्देश
४. एकान्तानुवृद्धि योगस्थानका लक्षण ध. १०/४,२,४,१७३/४२०/७ उप्पण्ण विदियसमयप्पहुडि जाब सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तयदचरिमसमओ ताव एगंताणुवडि ढजोगो होदि। णवरि लद्धिअपज्जत्ताणमाउबंधपाओग्गकाले सगजी विदतिभागे परिणामजोगो होदि। हेट्ठा एगंताणुवढिजोगो चेव । - उत्पन्न होनेके द्वितीय समयसे लेकर शरीरपर्याप्तिसे अपर्याप्त रहनेके अन्तिम समय तक एकान्तानुवृद्धियोग होता है। विशेष इतना कि लब्ध्यपर्याप्तकोके आयुबन्धके योग्य काल में अपने जीवितके त्रिभागमें परिणाम योग होता है । उससे नीचे एकान्तानुवृद्धियोग ही होता है। गो, क/म. व टी./२२२/२७० एयतड्ढिठाणा उभयहाणाणमंतरे होति। अवखरठाणाओ सगकालादिम्हि अंतमिह ।२२२॥ तदैवैकान्तेन नियमेन स्वकाल-स्वकाल-प्रथमसमयात चरमसमयपर्यन्तं प्रतिसमयमसंख्यात गुणितक्रमेण तद्योग्याविर्भागप्रतिच्छेदवृद्धिर्यस्मिन् स एकान्तानुवृद्धिरित्युच्यते । =एकाग्तानुवृद्धि योगस्थान उपपाद आदि दोनो स्थानोके बीचमें, ( अर्थात् पर्याय धारण करनेके दूसरे समयसे लेकर एक समय क्म शरीर पर्याप्तिके अन्तर्मुहूर्त के अन्त समय तक) होते है। उसमें जघन्यस्थान तो अपने कालके पहले समयमें और उत्कृष्टस्थान अन्तके समयमें होता है। इसीलिए एकान्त (नियम कर ) अपने समयोमे समय समय प्रति असंख्यातगुणी अविभागप्रतिच्छेदोंकी वृद्धि जिसमे हो वह एकान्तानुवृद्धि स्थान, ऐसा नाम कहा गया है।
१. योगस्थान सामान्यका लक्षण प. खं/१०४.२४/१८६/६३ ठाणपरूवणदाए अमखेज्जाणि फद्दयाणि सेडीए असखेज्जदिभागमेत्ताणि, तमेग जहण्णय जोगाणं भवदि ।१८६। स्थान प्ररूपणाके अनुसार श्रेणिके अस ख्यातवे भाग मात्र जो असरख्यात स्पर्धक है उनका एक जघन्य योग स्थान होता है।१८६। स. सा /आ./५३ यानि कायवाड्मनोवर्गणापरिस्पन्दलक्षणानि योगस्थानानि ।। = कार, वचन और मनोवर्गणाका कम्पन जिनका लक्षण है ऐसे जो योगस्थान ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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