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योग
एकेन्द्रिय जीवोके होता है । ६७ मनोयोग और वचनयोग पर्याप्तकोके ही होते है अपकी नहीं होते।ईटा काययोग पर्यातको भी होता है । ६ । अपर्याप्तकोके भी होता है, औदारिक काययोग पर्याप्त और औदारिक मिश्र काययोग अपर्याप्तको के होता है । ७६ । वैक्रियक काययोग पर्याप्तकोके और वे क्रियकमिश्र काययोग अपकोंके होता है आहार काययोग को और आहारकमिश्र काययोग को होता है (. १९२०) (पं. सं/२/११-१५), (गो. जी // ६७९-६०४/११२२-११२५) । ४. पर्याप्त व अपर्याप्त में मन, वचनयोग सम्बन्धी शंका
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घ. १/१,१,६८/३१० / ४ क्षयोपशमापेक्षया अपर्याप्तकालेऽपि तयो सत्त्व न विरोधमास्कन्देदिति चेन्न वाङ्मनसा भ्याम निष्पन्नस्य तद्योयानुपपते पर्याष्टानामपि विरुद्धयोगमध्यासितावस्थाया नास्त्येवेति चेन्न, सभवापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनाव, तच्छक्तिसत्त्वापेक्षया वा । = प्रश्न - क्षयोपशमकी अपेक्षा अपर्याप्त काल में भी वचनयोग और मनोयोगका पाया जाना विरोधको प्राप्त नही होता है ? उत्तर- नहीं. क्योकि जो क्षयोपशम वचनयोग और मनोयोग रूप से उत्पन्न नहीं हुआ है, उसे योग संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती हैं। प्रश्न- पर्याप्तक जीवोके भी विरुद्ध योगको प्राप्त होने रूप अवस्थाके होने पर विवक्षित योग नहीं पाया जाता है ? उत्तरनही, क्योकि, पर्याप्त अवस्थामें किसी एक योगके रहनेपर शेष योग सम्भव है, इसलिए इस अपेक्षासे वहाँ पर उनके अस्तित्वका कथन किया जाता है। अथवा, उस समय वे योग शक्तिरूपसे विद्यमान रहते है, इसलिए इस अपेश्वासे उनका अस्तित्व कहा जाता है।
५. मनोयोगी में भाषा व शरीर पर्याप्तिकी सिद्धि
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ध. २/११/६२८/६ केई बचिकायपाणे अवणे ति. तण्ण घडदे; तेसि सत्ति संभवादो । वचि कायवलनिमित्त पुग्गल - खधस्स अस्थित्त पेक्खि पज्जत्तीओ होति त्ति सरीर वचि पज्जत्तीओ अस्थि । = कितने ही आश्चार्य मनोयोगियो के दश प्राणो मेसे वचन और काय प्राण कम करते है, किन्तु उनका वैसा करना घटित नही होता है, क्योंकि, मनोयोगी जीवोके वचनबल और कायबल इन दो प्राणोकी शक्ति पायी जाती है, इसलिए ये दो प्राण उनके बन जाते है । उसी प्रकार वचनबल और कायबल प्राणके निमित्तभूत पुद्गल - स्कन्धका अस्तित्व देखा जानेसे उनके उक्त दोनो पर्याप्तियाँ भी पायी जाती है इसलिए उक्त दोनो पर्याप्तियाँ भी उनके बन जाती है
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६. अप्रमत्त व ध्यानस्थ जीवोंमें असत्य मनोयोग कैसे
ध. १/१.१.५१/२८५/७ भवतु नाम क्षपकोपशमकाना सत्यस्यासत्यमोषस्य च सत्त्वं नेतरयोरप्रमादस्य प्रमादविरोधित्वादिति न, रजोजुषा विपर्ययानध्यवसायाज्ञानकारणमनस' सच्चाविरोधात् । न च तद्योगात्प्रमादिनस्ते प्रमादस्य मोहपर्यायत्वात् । प्रश्न- क्षपक ओर उपशमक जीवोके सत्यमनोयोग और अनुभय मनोयोगका सद्भाव रहा आवे, परन्तु बाकीके दो अर्थात् असत्य मनोयोग और उभयमनोयोगका सद्भात्र नही हो सकता है, क्योंकि, इन दोनो में रहने वाला अप्रमाद अपत्य और उभय मनके कारणभूत प्रमादका विरोधी है ? उत्तर - नहीं, क्योकि आवरण कर्मसे युक्त जीवोके विपर्यय और अनध्यवसायरूप अज्ञानके कारणभूत मनके सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। परन्तु इसके सम्बन्ध से क्षपक
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४. योगका स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शकाए
या उपशम जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि, प्रमाद मोहकी पर्याय है।
ध. १/१,१.५५/२८६/५ क्षीणकषायस्य वचनं कथमसत्यमिति चेन्न, असत्य निबन्धनाज्ञानसत्त्वापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात् । तत एव नोभयसंयोगोऽपि विरुद्ध इति । वाचंयमस्य क्षीणकषायस्य कथं बाग्योगश्चेन्न तत्रान्तर्जल्पस्य सत्त्वाविरोधात् । = प्रश्न — जिसकी कषाय क्षीण हो गयी है उसके वचन असत्य कैसे हो सकते है 1 उत्तर- ऐसी शका व्यर्थ है, क्योकि असत्य वचनका कारण अज्ञान बारहवे गुणस्थान तक पाया जाता है, इस अपेक्षासे वहाँ पर असत्य वचनके सद्भावका प्रतिपादन किया है । और इसीलिए उभय संयोगज सत्यमृषा वचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है, इस कथन में कोई विरोध नही आता है। प्रश्न-वचन गुप्तिका पूरी तरहसे पालन करने वाले कषायरहित जोवोके वचनयोग कैसे सम्भव है। उत्तर नहीं, क्योंकि कषायरहित जीवोमें अन्तर्जरूपके पाये जाने में कोई विरोध नहीं आता है ।
घ. २/१, १/४३४/६ प्राणीणपुरा भय पाम वितर अत्थितं भासापज्जन्ति सण्णिद-पोग्गल खंज-जणिद-सन्ति-सम्भावादो। ण पुण वचिजोगो कायजोगो वा इदि । न, अन्तर्जल्पप्रयत्नस्य कायगतसूक्ष्मप्रयत्नस्य च तत्र सरत्वात् । प्रश्न- ध्यानमै लोन अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीवों के वचनमा सहभाव भले हो रहा आवे, क्योकि भाषा पर्याप्त नामक पौगलिक स्कन्धोसे उत्पन्न हुई शक्तिका उनके सद्भाव पाया जाता है किन्तु उनके वचनयोग या काययोगका सद्भाव नहीं मानना चाहिए। उत्तरनही, क्योकि, ध्यान अवस्था में भी अन्तर्जरूपके लिए प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत सूक्ष्म प्रयत्नरूप काययोगका सत्त्व अपूर्व - करण गुणस्थानवर्ती जीवोके पाया ही जाता है इसलिए वहाँ वचन योग और काययोग भी सम्भव है।
● समुदायगत जीवोंमें वचनयोग कैसे
४. ४/१,१.२६/१०२/०१० समुपाददार्थ का मणीगयषिजोगाणं सभवो ण, तेसि पि णिप्पण्णुत्तरसरीराणं मणजोगवचिजोगाण परावत्ति संभवादो || मारण तियसमुग्धादगदाण असंखेज्जजोयणायामेण ठिदाणं मुच्छिदाण कथं मण - वचिजोगसभरो। ण, कारणाभावादी अवत्ताण णिन्भरसुत्तजीवाण व तेसि तत्थ सभवं पडिविरोहाभावादो |१०| प्रश्न - वैक्रियिक समुद्घातको प्राप्त जीवोके मनोयोग और वचनयोग कैसे सभव है। उत्तर- नही. क्योंकि, निष्पन्न हुआ है विक्रियात्मक उत्तर शरीर जिनके ऐसे जीवोके मनोयोग और वचनयोगोका परिवर्तन सम्भव है। प्रश्न-मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त, असख्यात योजन आयामसे स्थित और मूच्छित हुए संज्ञी जीवोके मनोयोग और वचनयोग कैसे सम्भव है ? उत्तर - नहीं, क्योकि, बाधक कारणके अभाव होनेसे निर्भर ( भरपूर ) सोते हुए जीवोके समान अव्यक्त मनोयोग और वचनयोग मारणान्तिक समुद्घातगत मूच्छित अवस्थामें भी सम्भव है. इसमे कोई विरोध नहीं है।
८. असंज्ञी जीवोंमें असत्य व अनुमय वचनयोग कैसे घ.१/१.१.५३/२००/मनोनयनवचनमय्यमोचनमिति प्रागुक्तम्, तद् द्वीन्द्रियादीनां मनोरहितानां कथं भवेदिति नायमेकान्तोऽस्ति सकलवचनानि मनस एव समुत्पद्यन्त इति मनोरहित केवलिना वचनाभावसजननात् । विकलेन्द्रियाणा मनसा विना न ज्ञानसमुत्पत्तिः । ज्ञानेन विना न वचनप्रवृत्तिरिति चेन्न, मनस एव ज्ञानमुत्पद्यत इत्येकान्ताभावात् । भावे वा नाशेषेन्द्रियेभ्यो ज्ञानसमुत्पत्ति मनसा तदषि विषय स्य मानसप्रत्ययस्यान्यत्र वृत्तिविरोधात् । न चक्षुरादीनां सहकार्यपि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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