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योग
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३. योग सामान्य निर्देश
पदेसपरिप्फंदो खइयबलादो बढिहाणीणं गच्छदि, अइप्पसंगादो । -प्रश्न-जीव प्रदेशोंके सकोच और विकोच रूप परिस्पंदको योग कहते हैं । यह परिस्पन्द कर्मोके उदयसे उत्पन्न होता है, क्योकि कर्मोदयसे रहित सिद्धों के वह नही पाया जाता। अयोगिकेवलीमें योगके अभावसे यह कहना उचित नहीं है कि योग औदयिक नहीं होता है, क्योंकि. अयोगि केवलीके यदि योग नहीं होता तो शरीरनामकर्मका उदय भी तो नहीं होता। शरीरनामकर्म के उदयसे उत्पन्न होनेवाला योग उस कर्मोदयके बिना नहीं हो सकता, क्योकि वैसा माननेसे अतिप्रसग दोष उत्पन्न होगा। इस प्रकार जब योग औदयिक होता है, तो उसे क्षायोपशमिक क्यो कहते है। उत्तर-ऐसा नहीं, क्योकि जब शरीर नामकर्म के उदयसे शरीर बननेके योग्य बहुतसे प्रदुगलोका सचय होता है और वीर्यान्तरायकर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावसे व उन्हीं स्पर्धकोंके सत्त्वोपशमसे तथा देशघाती स्पर्धकों के उदयसे उत्पन्न होनेके कारण क्षायोपशमिक कहलाने वाला वीर्य ( बल ) बढता है, तब उस वीर्यको पाकर चूकि जीकप्रदेशोका संकोच-विकोच बढ़ता है, इसलिए योग क्षायोपशमिक कहा गया है। प्रश्न-यदि वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए बल की वृद्धि और हानिसे जीव प्रदेशों के परिस्पन्दकी वृद्धि और हानि होती है, तब तो जिसके अन्तरायकर्म क्षीण हो गया है ऐसे सिद्ध जीवोमें योगकी बहुलताका प्रसंग आता है। उत्तर-नहीं आता, क्योकि क्षायोपशमिक बलसे क्षायिक बल भिन्न देखा जाता है। क्षायोपशमिक बलको वृद्धि-हानिसे वृद्धि-हानिको प्राप्त होनेवाला जीव प्रदेशों का परिस्पन्द क्षायिक बलसे वृद्धिहानिको प्राप्त नही होता, क्योंकि ऐसा मानने से तो अतिप्रसंग दोष आता है।
५. योग कथंचित् औदयिक माव है घ.१/१,७,४८/२२६/७ ओदइओ जोगो, सरीरणामकम्मोदयविणासाण तर
जोगविणासुवल भा। ण च भवियत्तेण विउवचारो, कम्मसंबंधविरोहिणो तस्स कम्मणिदत्तविरोहा। = 'योग' यह औदयिक भाव है, क्योंकि शरीर नामकर्मके उदयका विनाश होने के पश्चात ही योगका विनाश पाया जाता है। और ऐसा मानकर भव्यत्व भावके साथ व्यभिचार भी नही आता है, क्योकि कर्म सम्बन्धके विरोधी भव्यत्व भावकी कर्मसे उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। ध.७/२,१,१३/७६/३ जदि जोगो वौरियंतराइयखओवसमजणिदो तो सजोगिम्हि जोगाभावो पसज्जदे। ण उवयारेण खओवसमिय भावं पत्तस्स ओदइयस्स जोगस्स तथा भावविरोहादो । प्रश्न-यदि योग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, तो सयोगि केवलिमे योगके अभावका प्रसंग आता है। उत्तर- नहीं आता, योगमें क्षायोपश मिक भाव तो उपचारसे है। असल में तो योग औदयिक भाव ही है और औदयिक योगका सयोगि केवलिमे अभाव मानने में विरोध आता है। ध ७/२,१,६१/१०/२ कितु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगो वि लेस्सा त्ति इच्छिज्जदि, कम्मबधणि मित्तत्तादो। तेण कसाए फिट्ट वि जोगो अस्थि ।-शरीर नामकर्मोदयके उदयसे उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योकि वह भी कर्मबन्ध में निमित्त होता है। इस कारण कषायके नष्ट हो जानेपर भी योग रहता है। ध.१/४,१,६६/३१६/२ जोगमग्गणा रिओदइया, णामकम्मस्स उदीरणोदयजणिदत्तादो। - योग मार्गणा भी औदयिक है, क्योकि वह नामकर्मकी उदीरणा व उदयसे उत्पन्न होती है।
६. उत्कृष्ट योग दो समयसे अधिक नहीं रहता ध. १०/४,२,४,३१/१०८/४ जदि एवं तो दोहि समएहि विणा उक्कस्स
जोगेण णिरंतर बहुकाल किण्ण परिणमाविदो। ण एस दोसो, णिरतर तत्थ तियादिसमयपरिणामाभावादो। - प्रश्न-दो समय के
सिवा निरन्तर बहुतकाल तक उत्कृष्ट योगसे क्यो नहीं परिणमाया। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि निरन्तर उत्कृष्ट योगमें तीन आदि समय तक परिणमन करते रहना सम्भव नहीं है।
७. तीनों योगोंकी प्रवृत्ति क्रमसे ही होती है युगपत् नहीं ध. १/१,१,४७/२७६/३ त्रयाणां योगानां प्रवृत्तिरक्रमेण उत नेति । नाकमेण, त्रिपक्रमेणै कस्यात्मनो योगनिरोधात् । मनोबाकायप्रवृत्त्योsक्रमेण क्वचिद्ध दृश्यन्त इति चेद्भतु तासा तथा प्रवृत्तिहत्वात, न तत्प्रयत्नानामक्रमेण वृत्तिम्तथोपदेशाभावादिति । अथ स्यात प्रयत्नो हि नाम बुद्धिपूर्वक , बुद्धिश्च मनोयोगपूर्विका तथा च सिद्धी मनोयोग शेष योगाविनाभावीति न, कार्यकारणयोरेककाले समुत्पत्तिविरोधात ।- प्रश्न-तीनो योगोकी प्रवृत्ति युगपत होती है या नहीं। उत्तर-युगपत नहीं होती है, क्योंकि, एक आत्माके तीनो योगोकी प्रवृत्ति युगपद माननेपर योग निरोधका प्रसंग आ जायेगा। अर्थात किसी भी आरमामें योग नहीं बन सकेगा। प्रश्न-कही पर मन, बचन और कायकी प्रवृत्तियाँ युगपत देखी जाती है। उत्तर-यदि देखी जाती हैं, तो उनकी युगपत वृत्ति होओ। परन्तु इससे, मन वचन और कायकी प्रवृत्ति के लिए जो प्रयत्न होते है, उनकी युगपत वृत्ति सिद्ध नही हो सकती है, क्योंकि, आगममें इस प्रकार उपदेश नही मिलता है। (तीनों योगोको प्रवृत्ति एक साथ हो सकती है, प्रयत्न नही।) प्रश्न-प्रयत्न बुद्धि पूर्वक होता है, और बुद्धि मनोयोग पूर्वक होती है। ऐसी परिस्थितिमें मनोयोग शेष योगोका अविनाभावी है, यह बात सिद्ध हो जानी चाहिए। उत्तर-नहीं. क्योकि, कार्य और कारण इन दोनोंकी एक कालमें उत्पत्ति नहीं
हो सकती है। घ ७/२, १,३३/७७/१ दो वा तिणि वा जोगा जुगब किण्ण होति । ण, तेसि णिसिद्धाक्मवृत्तीदो। तेसिमक्क्मेण बुत्ती बुबलभदे चे। ण, · । प्रश्न-दो या तीन योग एक साथ क्यो नहीं होते। उत्तरनहीं होते, क्योकि, उनकी एक साथ वृत्तिका निषेध किया गया है। प्रश्न-अनेक योगो की एक साथ वृत्ति पायी तो जाती है। उत्तरनहीं पायी जाती. (क्योकि इन्द्रियातीत जीव प्रदेशोका परिस्पन्द प्रत्यक्ष नहीं है। -दे० योग/२/३)। गो जी./मू /२४२।५०५ जोगोवि एक्ककाले एक्केव य हो दि णियमेण । - एक कालमें एक जीवके युगपत् एक ही योग होता है, दो वा तीन नही हो सकते, ऐसा नियम है ।
८. तीनों योगोंके निरोधका क्रम भ. आ/मू /२११७-२१२०/१८२४ बादरवचि जोग बादरेण कायेण मादर
मण च । बादरकायपि तथा रु भदि सुहूमेण काएण ।२१११ तध चेत्र सुहुममणवचिजोगं सुहमेण कायजोगेण । रु भित्त जिणो चिट्ठदि सो सुहुमे काइए जोगे।२११८। सुहुमाए लेस्साए सुहुमकिरियबंधगो तगो ताधे। काइयजोगे सुहमम्मि सुहुमकिरियं जिणो झादि ।२११६। सुहमकिरिएण काणेण णिरुद्ध सुहमकाययोगे वि। सेलेसी होदि तदो अबंधगो णिच्चलपदेसो ।२१२० बादर बचनयोग और बादर मनोयोगके बादर काययोगमे स्थिर होकर निरोध करते है तथा बादर काययोगसे रोक्ते है ।२११७१ उसही प्रकारसे सूक्ष्म वचनयोग और सुक्ष्म यनोयोगको सुक्ष्म काययागमें स्थिर होकर निरोध करते है और उसी काययोगसे वे जिन भगवान् स्थिर रहते है ।२६१८० उत्कृष्ट शुक्ल लेश्याके द्वारा सूक्ष्म काययोगसे साता वेदनीय कमका बंध करने वाले वे भगवान सूक्ष्मक्रिय नामक तीसरे शुक्लध्यानका आश्रय करते है। सूक्ष्मकाययोग होनेसे उनको सूक्ष्म क्रिय शुक्लध्यानकी प्राप्ति होती है ।२११६। सूक्ष्म क्रिय ध्यानसे सूक्ष्मकाय योगका निरोध करते है। तत्र आत्माके प्रदेश निश्चल होते है. और तब उनको कर्मका बन्ध नहीं होता। ( ज्ञा./४२/४८-५१); ( वसु. श्रा./५१३.५३६ ) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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