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योग
तिम्मधभूमि
= प्रश्न - जीव- प्रदेशोका परिस्पन्द न होनेसे ही जाना जाता है कि वे योगसे रहित है । और परिस्पन्दसे रहित जीवप्रदेशो में योगकी सम्भावना नहीं है, क्योकि वैसा होनेपर सिद्ध जोवोके भी सयोग होनेकी आपत्ति आती है। उत्तर- उपर्युक्त शंकाका परिहार करते हैं-१, मन वचन एवं काय सम्बन्धी क्रियाकी उत्पत्ति में जो जीवका उपयोग होता है, वह योग है, और यह कर्मबन्धका कारण है। परन्तु वह थोडेसे जीवप्रदेशो में नहीं हो सकता, क्योकि एक जीवमें प्रवृत्त हुए उक्त योगी थोडेसे ही अनयो प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है। अथवा एक जीव में उसके खण्ड-खण्ड रूपसे प्रवृत्त होने में विरोध आता है। इसलिए स्थित जीमप्रदेशो कर्ममन्भ होता है, यह जाना जाता है । २. दूसरे योगसे जीवप्रदेशो मे नियमसे परिस्पन्द होता है. ऐसा नहीं है क्योंकि योग से उसकी उत्पत्ति होती है । तथा एकान्ततः नियम नहीं है, ऐसी बात भी नहीं है; क्योकि यदि जीवप्रदेशो में परिस्पन्द उत्पन्न होता है, तो योगसे ही उत्पन्न होता है, ऐसा नियम पाया जाता है । इस कारण स्थित जीवप्रदेशो में भी योगके होनेसे कर्मबन्धको स्वीकार करना चाहिए ।
६. योग में शुभ-अशुभपना क्या
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या /६/३/२-३/५००/६ कथं योगस्य शुभाशुभम् । शुभपरि णामनिवृत्तो योग शुभ, अशुभपरिणामनिवृ तश्चाशुभ इति अध्यते न शुभाशुभकर्मकारणलेन यद्य व शुभयोग एव न स्यात् शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिवन्धहेतुत्वाभ्युपगमात् । - प्रश्न - योगमे शुभ व अशुभपना क्या ? उत्तर- शुभ परिणामपूर्वक होनेवाला योग शुभयोग है तथा अशुभ परिणामसे होनेवाला अशुभयोग है। शुभ-अशुभ कर्मका कारण होनेसे योग में शुभत्व या अशुभत्व नहीं है क्योकि शुभयोग भी ज्ञानावरण आदि अशुभ कर्मों के मन में भी कारण होता है।
७. शुभ-अशुभ योगको अनन्तपना कैसे है
बा./६/३/२/५००/४ असं स्पेयलोक्रमादभ्यवसायापस्थानानां कथम
स्विमिति उच्यते-अनन्तानन्तप्रदेशप्रतिज्ञानारणमर्यान्तरादेशसर्व पातिद्विविधस्पर्धकक्षयोपशमादेशात योगत्रयस्यानन्त्यम् । अनन्तानन्तप्रदेश मदानकारणत्वाद्वा अनन्त, अनन्तानन्तनागाजीवदान
- प्रश्न - अध्यवसाय स्थान असंख्यात -प्रमाण है फिर योग अनन्त प्रकारके कैसे हो सकते है ? उत्तर - अनन्तानन्त पुद्गल प्रदेश रूपसे बँधे हुए ज्ञानावरण बोर्यान्तरायके देशघाती और सर्वघाती स्पर्धको क्षयोपशम भेदसे, अनन्तानन्त प्रदेशवाले कर्मोंके ग्रहणका कारण होनेसे तथा अनन्तानन्त नाना जीबोकी दृष्टिसे तीनो योग अनन्त प्रकारके हो जाते है।
३. योग सामान्य निर्देश
१. योगमागंणामें भावयोग इष्ट
दे० योग/२/५ (किपाकी उत्पत्ति जो जीवको उपयोग होता है वास्तव वही योग है । )
दे योग/२/१ आत्मा धर्म न होनेसे अन्य पदायका संयोग योग नही कहला सकता | )
दे मार्गणा (सभी मार्गणास्थानों में भावमार्गणा इष्ट है । )
२. योग वीर्य गुणकी पर्याय है
भ, आ./ / ११०७/१९७०/४ योगस्य बीर्यपरिणामस्य वीर्यपरि णामरूप जो योग ( और भी दे० अगला शीर्षक ) ।
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भा० ३-४८
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३. योग कथचित् पारिणामिक भाव है [घ] ४ / १७,४८ / २२४ / १०
ण
जोगी न्ति को भाषो अणादिपारिणामियो भावो | णोवसमिओ, मोहणीए अणुवसंते वि जोगुवलभा । खइओ, अणप्पसरूवस्स कम्माण खएणुप्पत्तिविरोहा । ण घादिकम्मोजणिओ विपादिकम्मोदर तिम्हि जोभा जो अधादिकम्मोदयजणि विपादिकम्मोदर अनगिम्हि जोगाणुवलभा । ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गल विवाइयाणं जी परिफण हे उत्तविरोहा । कम्मइयशरीरं ण पोग्गल विवाई, तदो पोग्गलाणं वण्ण-रस-गंध-फास संठाणागमणादीणमणुवलंभा । तदु
दो जोगो ही ग कम्मइयसरी नि पोयाई चैव सन्नकम्माणमाययतादो कम्मोदयविगमए चैव जोगविणासद सणादो कम्मइयसरीरजणिदो जोगो चे ण, अवाइकम्मोदर्याविणासानंतर विणस्य भवियत्तस्स पारिणामियस्स बोदयम्पसंगा। तदो सिद्ध जोगरस पारिणामियत्त । प्रश्न- 'सयोग' यह कौनसा भाव है ? उत्तर- 'सयोग' यह अनादि पारिणामिक भाव है । इसका कारण यह है, कि योग न तो औपशमिक भाव है, क्योंकि मोहनीय कर्म के उपशम नहीं होनेपर भी योग पाया जाता है। न वह क्षायिक भाव है, क्योंकि, आत्मस्वरूपसे रहित योगकी मौके यसे उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। योग धातिकर्मोदयजनित भी नही है, क्योकि, घातिकर्मोदयके नष्ट होनेपर भी सयोगिकेवली में योगका सद्भाव पाया जाता है न योग अपातिकर्मोदय जनित भी है क्योंकि, अमिय रहनेपर भी अयोगकेवलीमें योग नही पाया जाता । योग शरीरनामकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि गलनिपाको प्रकृतियोंके जीन परिस्पन्दनका कारण होनेने विरोध है। प्रश्न- कार्मण शरीर प्रगटविपाकी नहीं है, क्योकि उससे पुद्गलोके वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और सस्थान आदिका आगमन आदि नहीं पाया जाता है। इसलिए योगको कार्मण शरीरसे ( औदयिक) उत्पन्न होनेवाला मान लेना चाहिए 1 उत्तरनहीं, क्योकि, सर्व कर्मोंका आश्रय होनेसे कार्मण शरीर भी पुद्गल विपाकी ही है। इसका कारण यह है कि वह सर्व कर्मोका आश्रय या आधार है। प्रश्न- कार्मण शरीरके उदय विनष्ट होने के समय में ही योगका विनाश देखा जाता है। इसलिए योग कार्मण शरीर जनित है, ऐसा मानना चाहिए उत्तर-नहीं, क्योंकि, यदि ऐसा माना जाय तो अघातिकर्मोदय के विनाश होनेके अनन्तर ही विनष्ट होनेवाले पारिणामिक भव्य भावके भी बौदयिकपनेका प्रसंग प्राप्त होगा। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचनसे योगके पारिणामिकपना सिद्ध हुआ।
४. योग कथंचित् क्षायोपशमिक भाव है।
ध. ०/२१,३२/७३ /२ जोगो गाम जीमपदेसान परिष्कंदो संकोचविकोचलवखणो । सो च कम्माणं उदयजणिदो, कम्मोदयविरहिदसिद्ध तदा । अजोगिकेवलिम्हि जोगाभावाजोगी ओदइयो
होदितुं त्, तत्थ सरीरणामकम्मोदया भावा । ण च सरीरणामकम्मोदएण जायमाणो जोगो तेण विणा होदि, अइयसगादो। एवमोदइयस्स जोगस्स कधं खओवसमियन्त उच्चते । ण सरीरणामकम्मोदन सरीरपाओग्गोग्गलेच्छा मासु विरियंतराइयस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावेण तेसि सतो - समेग देसयादिषट्यानमुदर समुन्भवादी ओसमयएसं
विरियं वदि, तं विरिय पप्प जेण जीवपदेसाण सकोच विकोच वइढदि तेण जोगो खओवसमिओ त्ति वृत्तो। विरियंतराइयखओसमदिवस हामीहितो दीपदेस परिदरस गि हाणी ओ होति तो खीण तराइयम्मि सिखे लोग बहुत पसज्ये ण खओवसमियबलादो खइयस्स बलस्स पुधन्त्तदंसणादो। ण च -हामीहिती हामी
जीव
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
२. योग सामान्य निर्देश
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