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योग
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यर्याके परिणामयोग होने सम्बन्धी दो मत ध. १०/४,२,४, १७३ / ४२०/६ लद्धि अज्जत्ताणमा अब धकाले चेव परिणामजोगो होदित्ति के वि भणति । तण्ण घडदे, परिणामजोगे दिस्स अपत्ववादजोगस्स एयंताणुवढिजोगेण परिणामबिरोहादोपको आयुषन्धकारमें ही परिणाम योग होता है, ऐसा किसने ही आचार्य कहते है (दे० योग/२/५) यह घटित नही होता. किस प्रकार जो जीव परिणाम योगमें स्थित है वह उपपाद योगको नही प्राप्त हुआ है, उसके एकान्तानुवृद्धियोगके साथ परिणामके होने में विरोध आता है।
१०. योग स्थानों की क्रमिक वृद्धिका प्रदेशबन्ध के साथ
सम्बन्ध
घ. २/१.१-७,४३/२०१ / २ पदेसमचादी जोगा
डीए अस भागमेताजिहणहाणादी अदिगडी अस ज्जविभागपडिभागिषण विसायामि जाउकस्सजोरहाणेति दुगुण- दुगुणगुणहाणिअाणेहि सहियाणि सिद्वाणि हवति । कुदो जोगेण विना पदेसमंधावसीदों अथवा अभागादपसो तस्कारणजोगामागच सिद्वाणि हवति कुदो पहिया अणुभागाणुववत्तदो । प्रदेशबन्ध से योगस्थान सिद्ध होते है । वे योगस्थान जगश्रेणी के असंख्यातवे भागमात्र है, और जघन्य योगस्थानसे लेकर जगबीके असंख्यात भाग प्रतिभागरूप स्थित प्रक्षेपके द्वारा विशेष अधिक होते हुए उत्कृष्ट योगस्थान तक दुगुने - दुगुने गुणहानि आयाम सहित सिद्ध होते है, क्योंकि योग के बिना प्रदेशबन्ध नही हो सकता है। अथवा, अनुभागबन्धसे प्रदेशबन्ध और उसके कारण योगस्थान सिद्ध होते है, क्योकि प्रदेशों के बिना अनुभागबन्ध नहीं हो सकता
६. योगवगंणानिर्देश
१. योगवगंणाका लक्षण
ध. १०/४,२,४,१८१ / ४४२-४४३/८ अस खेज्जलोगमे त्तजोगा विभागपडिच्छेदाणमेया दग्गणा होदिति भणिदे जोगाविभागपडिदेहि सरिसधणियजीव देसान जोगाविभागपच्छेिदासंभवादी असं खेज्जलोगमेत्ता विभागपडिच्छेदपमाणा एया वग्गणा होदि त्ति घेत्तव्वं ।..... जोगाविभागपडिच्छेदेहि सरिससब्बजीवपदेसे सब्वे तूण एगा वग्गणा होदि । असंख्यात लोकमात्र योगाविभाग प्रति -
की एक वर्गणा होती है, ऐसा कहने पर योगाविभाग प्रति की अपेक्षा समान धनवाले सब जीव प्रदेशोंके योगाविभाग प्रतिच्छेद असंभव होनेसे असंख्यात लोकमात्र अविभाग प्रतिच्छेदोके बराबर एक वर्गणा होती है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए।. योगाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान सब जीव प्रदेशोको ग्रहणकर एक वर्गणा होती है।
२. योगवर्गणा अविभाग प्रतिच्छेदोंकी रचना
.सं. २०/४.२४/१९४४० असा लोगा जोगाविभाग पडिच्छेदा । १७८ ॥ एवदिया जोगाविभागपडिच्छेदा | १७६१ वग्गणपरूवणदार असंखेज्जलो गजोगः विभागपडिच्छेदाणमेया वग्गणा होदि । एवम जाओ वग्गणाओ सेडीए बताओ।१८१८ ध.१०/४,२,४,१८१/४४३-४४४ / ३ जोगा विभागपडिच्छेदे हि सरिससव्वजीवपदे से सब्वे घेत्तूण एग्गा वग्गणा होदि । पुणो अण्णे वि जीवपदेसे जोगाविभागपडिच्छेदेहि अण्णोण समाणे पुठित्रल्लवगणाजीवपदेस जोगाविभागपडिन्छेदेहितो अहिरउवरिमाणागमेयजोनपदेसमोगाविभागदेहि विदिया
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योगचंद्र
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होदि ।... असज्जपदर मे जोमदेसा एक्के विकस्से वग्गणाए होति । ण च सव्वग्गणाणं दीहत्तं समाण, आदिवग्गणप्पहूडि विसेसहीणसरूवेण अवद्वाणादो । ६/१०/४.२,४,९८१/४४९/६ पढमवग्गणाए अविभागपडिच्छेदे हितो विदियवगग अविभागपडिच्छेदा विसेसहीणा । पढमवग्गणा एगजीवपदेसा विभागपडिच्छेदे णिसेगविसेसेण गुणिय पुणो तत्थ विदियगोवच्छाए अवणिदाए जं सेस तेत्तियमेत्तेण । एवं जाणिदूण दव्वं जाव पदमयचमिति जो हमफचरिमवग्गण विभागपच्छेिहितो विदिदिवग्गमाए जोगाविभागपदि किन्नूणदुगुणमेत्ता । - - एक एक जीव प्रदेशमें असख्यात लोकप्रमाण योगाविभाग प्रतिच्छेद होते है ॥१७८॥ एक योगस्थानमें इतने मात्र योगाविभाग प्रतिच्छेद होते है । १७६१ वर्गणा प्ररूपणा के अनुसार असंख्यात लोकमात्र योगाविभाग प्रतिच्छेदोकी एक वर्गणा होती है । १८० इस प्रकार श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात वर्गणाऍ होती ११८१ । । योगाविभाग प्रतिच्छेदोकी अपेक्षा समान सब जीव प्रदेशोको ग्रहण कर एक वर्गणा होती है। पुन योगाविभागप्रतिच्छेदोकी अपेक्षा परस्पर समान पूर्व वर्गासम्बन्धी जीवप्रवेशोके योगावि भाग प्रतिच्छेसे अधिक, परन्तु आगे कहीं जानेवाली वर्मणाओंके एक जीवप्रदेश सम्बन्धी योगाविभागप्रतिच्छेद से हीन ऐसे दूसरे भी जीन प्रदेशीको प्रहण करके दूसरी वर्गणा होती है (इसी प्रकार सब वर्गणाएँ श्रेणिके असख्यातवे भाग प्रमाण है ) असख्यात प्रतर प्रमाण जीव प्रदेश एक वर्गणामें होते है । सब वर्गणाओं की दीर्घता समान नहीं है, कि प्रथम वर्मणाको आदि लेकर आगेकी वर्गणाएँ विशेष हीन रूपसे अवस्थित है ।४४३-४४४। प्रथम वर्गणा के अविभाग प्रतिच्छेद से द्वितीय वर्गणा अविभाग प्रतिच्छेद विशेष होन है । प्रथम वर्गमा सम्बन्धी एक जीवप्रदेश के अविभाग प्रतिच्छेदको निषेकविशेषसे गुणितकर फिर उसमेंसे द्वितीय गोपुच्छ को कम करनेपर जो शेष रहे उतने मात्र से वे विशेष अधिक हैं। इस प्रकार जानकर प्रथम स्पर्धककी चरम वर्गणा सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदों से द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गमा योगाविभागाच्छेद कुछ कम दुगुने मात्र है । ( इसी प्रकार आगे भी प्रत्येक स्पर्धक में वर्गणाओके अविभाग प्रतिच्छेद क्रमशः हीन-हीन और उत्तरोत्तर स्पर्ध को से अधिक अधिक है ) |
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३. योग स्पर्धकका लक्षण
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१०/४.२४ / सूत्र १०२४५२ फद्दय परूवणाए अस खेज्जाओ बजाओ ढोए अज्जदिभागमेतीयो रामेग कदर्य होदि ॥१८२॥ घ. १०/४.४.२.१८२/४/१२/२ फयमिदि कि होदि म क्रमहानिश्च यत्र विद्यते तत्स्पर्धकम् । को एत्थ कमो णाम । सग सगळङ्कणकणाविभागपडिन्छेदेहितो एगेणाविभागपडिछेदबुद्धी, बुकस्वगाविभागपडदे हितो एगेगाविभागी कमो णाम । दुप्पहुडीणं वड्ढी हाणी च अक्कमो । ( योपस्थानके प्रकरण | स्पर्धकप्ररूपणा के अनुसार श्रेणीके असंख्यातवे भागमात्र जो असख्यात वर्गणाऍ है, उनका एक स्पर्धक होता है । । १८२ | प्रश्न- स्पर्धक क्या अभिशय है उत्तर जिसमे कमवृद्धि और क्रमहानि होती है वह स्पर्धक कहलाता है। प्रश्न यहाँ 'कम' का अर्थ का है उत्तर अपने-अपने जन्य वर्ग के अविभागाच्छेदकी वृद्धि और उत्कृष्ट वर्ग के अविभागप्रतिच्छेदोसे एक एक अविभाग प्रतिच्छेद की जो हानि होती है उसे क्रम कहते है। दो व तीन आदि अविभागप्रतिच्छेदोकी हानि व वृद्धिका नाम अक्रम है । ( विशेष दे० स्पर्ध) |
योगचंद्र- ई. श. १२ मे योगसार ( दोहासार) के कर्ता दिगम्बर आचार्य हुए है दि जे. सा. इ./२६ कामता )
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