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योग दर्शन
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योगवक्रता
४. भूमि व प्रज्ञा विचार १. योगीकी साधनाके मार्ग मे क्रमश: चार भूमियों प्रगट होती हैप्रथमकल्पिक, मधुभूमिक, प्रज्ञाज्योति तथा अतिक्रान्त भावनीय । २. समाधि के प्रति प्रवृत्तिमात्र चित्त प्रथमकल्पिक है। ३. इन्द्रियो व भूतोको अपने वशमें करनेकी इच्छा वाली ऐसी ऋतम्भरा प्रज्ञा मथुभूमि है। यह देवगतिके सुखोका कारण होनेसे अनिष्ट है। ४. इन्द्रियवशी तथा असम्प्रज्ञात समाधिके प्रति उद्यमशील प्रज्ञाज्योति है। ५. असम्प्रज्ञात समाधिमें पहुंचकर केवल एकमात्र चित्तको लय करना शेष रह जाता है। तब अतिक्रान्तभावनीय भूमि होती है। ६ अनात्मा व आत्माके विवेकको विवेकरख्याति कहते है। वह जागृत होनेपर योगीको प्रान्तभूमि प्रज्ञा प्राप्त होती है। वह छह प्रकारकी है-हेम, क्षेतव्य, हान, अन्य कुछ नहीं चाहिए, भोग सम्पादन रूप मुक्ति, लय और जीवनमुक्ति। ७. हेम तत्त्वोका ज्ञान हेम है। ८. इस ज्ञानके हो जानेपर अन्य कुछ क्षीण करने योग्य नही यह क्षेतव्य है। ह अन्य कुछ निश्चय करना शेष नही यह हान है। १० हानके उपायोकी प्राप्ति हो जाने पर अन्य कुछ प्राप्तव्य नही। ११. मुक्ति तीन प्रकार है-बुद्धि भोगका सम्पादन कर चुकी और विवेक ज्योति प्रगट हो गयी, सत्त्व आदि त्रिगुण अपने-अपने कारणोमे लय होनेके अभिमुख हुए अब इनकी कभी अभिव्यक्ति न होगी, तथा ज्योति स्वरूप केवली पुरुष जीवित भी मुक्त है। १२. इन सात भूमियोका अनुभव करनेवाला पुरुष कुशल कहलाता है। ( योगदशन सूत्र ) । ९. परिणाम विचार १. सारख्यवत यह भी परिणामवादी है। भूतोंमे सारख्यो वत धर्म, लक्षण व अवस्था परिणाम होते है और चित्त में निरोध, समाधि व एकाग्रता । चित्तको संसारावस्था व्युत्थान और समाधिस्थ अवस्था निरोध है। दो अवस्थाओमें परिणाम अवश्य होता है। धर्म आदि तीनो परिणाम चित्तमे भी लागू होते है। व्युत्थान धर्मका तिरोभाव होकर निरोधका प्रादुर्भाव होना धर्म परिणाम है। दोनो धर्मोकी अतीत, वर्तमान व अनागत काल में अवस्थान लक्षण परिणाम है। और दोनो परिणामोका दुर्बल या बलवान् होना अवस्थापरिणाम है । ( योग दर्शन सूत्र) १०. कर्म विचार १. रजोगुणके कारण क्रियाशील. चित्तमें कर्म होता है, उससे संस्कार या कर्माशय, उससे वासना और वासनासे पुन' कर्म, यह चक्र बराबर चलता रहता है। कर्म चार प्रकारके होते है-कृष्ण, शुक्ल कृष्ण, शुक्ल, अशुक्ल अकृष्ण । पापकर्म कृष्ण, पुण्यकर्म शुक्ल, दोनोसे मिश्रित कृष्ण-शुक्ल, और निष्काम कर्म अशुक्ल-अकृष्ण है। प्रथम तोन बन्धके कारण है। और चौथा न बन्धका कारण है और न मुक्ति का। २. कर्म वासनाके आधीन है। अनेक जन्म पहलेको वासनाएँ अनेक जन्म पश्चात उद्बुद्ध होती है। अविद्या ही वासना का मूल हेतु है। धर्म, अधर्म आदि कार्य है और वासना उनका कारण। मन वासनाका आश्रय है, निमित्तभूत वस्तु आलम्बन है, पुण्य-पाप उसके फल है। (योगदर्शन सूत्र)
1. मुक्तारमा व ईश्वर विचार १. यम नियमके द्वारा पाँच प्रकार क्लेशोंका नाश होकर बैराग्य प्रगट होता है, और उससे आठ अगोके क्रम पूर्वक असंप्रज्ञात समाधि हो जाती है। मार्गमे आने वाली अनेक ऋडियो व सिद्धियो रूप विघ्नोका दूससे ही त्याग करता हुआ चित्त स्थिर होता है, जिससे समस्त कर्म निर्दग्ध बोजवत नष्ट हो जाते है । त्रिगुण साभ्या
वस्थाको प्राप्त होते है। चैतन्य मात्र ज्योतिर्मय रह जाता है । यही कैवल्य या मुक्ति है। २ चित्तको आत्मा समझने वाला योगी शरीर छूटने पर प्रकृतिमे लीन हो जाता है। वह पुन संसारमें आ सक्ता है। अत' मुक्त पुरुषसे बह भिन्न है। ३ त्रिकाल शुद्ध चैतन्यपुरुष है। सादि-शुद्ध व अनादि शुद्ध की अपेक्षा मुक्तारमा पुरुषमें भेद है। ४. उपरोक्त तीनासे भिन्न हो ईश्वर है। वह ज्ञान इच्छा, व क्रिया-शक्तिसे युक्त होता हुआ सदा जगत्के जीवो पर उपदेशादि द्वारा तथा सृष्टि, प्रलय व महाप्रलय आदि द्वारा अनुग्रह करता है। ५. प्रणव ईश्वरका वाचक नाम है। इसके ध्यानसे बुद्धि सात्त्विक होती है, अत मोक्षमार्गमे ईश्वर की स्वीकृति परमावश्यक है । ( योगदर्शन सूत्र) १२. योग व सांख्य दर्शनकी तुलना क्योकि पतंजलिने सारख्यतत्त्वके ऊपर ही योगके सिद्धान्तोंका निर्माण किया है, इसलिए दोनोमें विशेष अन्तर नही है। फिर मोक्ष-प्राप्तिके लिए सारख्यदर्शन केवल तत्त्वज्ञान पर जोर देता है जन कि योगदर्शन यम, नियम, ध्यान, समाधि आदि सक्रियात्मक प्रक्रियाओ पर जोर देता है। इसलिए दोनोमें भेद है। (स्या, म / परि०-घ/पृ. ४२१)। १३. जैन दर्शनमें योगका स्थान जैन आम्नायमें भी दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनो ही आचार्योंने विभिन्न शब्दो द्वारा ध्यान, समाधि आदिका विशद वर्णन किया है. और इसे मोक्षमार्ग का सर्व प्रधान अग माना है। जैसे-दिगम्बर आम्नायमै-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १ व इसकी टीकाएं सर्वार्थसिद्धि व राजवार्तिक आदि । ज्ञानार्णव, तत्त्वानुशासन, नामक ग्रन्थ । और श्वेताम्बर आनायमे-हरिभद्रसरिकृत योगनिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, योगविंशिका, षोडशक आदि तथा यशोविजय कृत अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, योगलक्षण, पातंजलियोगलक्षण विचार, योगभेद, योगविवेक, योगावतार, मित्रा, तारादित्रय, योग माहात्म्य, आदि अनेक ग्रन्थ । ( योगदर्शन सूत्र) योग निरोध-ध, १३/१,४,२६/८४/१२ को जोगणिरोहो। जोग
विणासो। -योगोंके विनाशकी योगनिरोध संज्ञा है । योग निर्वाण क्रिया-दे० क्रिया/३ । योगमागे-आचार्य सोमदेव (ई १४३-६६८)द्वारा विरचित ध्यान
विषयक संस्कृत छन्द-बद्ध ग्रन्थ है। इसमें ४० श्लोक है। योगमुद्रा-दे० मुद्रा। योगवक्रतास.सि./६/२२/३३७/१ योगस्त्रिप्रकारो व्याख्यात' । तस्य वक्रता
कौटिल्यम् । - तीनो योगोका व्याख्यान कर आये है। इसकी कुटिलता योगवक्रता है । (रा. वा./६/२२/१/५२८/8)।
२. योगवक्रता व विसंवादमें अन्तर स.सि./६/२२/३३७/२ ननु च नार्थभेद । योगवक्रतवान्यथाप्रवर्तनम् ।
सत्यमेवमेतत्-स्वगता योगवक्रतेत्युच्यते । परगतं विसवादनम् । सम्यगभ्युदयनि श्रेयसार्थासु क्रियासु प्रवर्तमानमन्य तद्विपरीतकायधामनोभिर्विसवादयति मैव कार्पोरेवं कुर्विति । प्रश्न-इस तरह इनमें अर्थभेद नहीं प्राप्त होता, क्योकि योगवक्रता और अन्यथा प्रवृत्ति करना एक ही बात है । उत्तर-यह ना सही है तब भी योग वक्रता स्वगत है और विसंवादन परगत है। जोस्वर्ग और मोक्षके योग्य समीचीन क्रियाओका आचरण कर रहा है उसे उसके विपरीत
भा० ३-४९
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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