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यंत्रपीड़न कर्म
यज्ञोपवीत
यंत्रपीड़न कर्म-दे० सावद्या। यंत्रंशयंत्र-दे० यंत्र। यक्षध. १३/५०५,१४०/३६१/8 लोभभूयिष्ठा' भाण्डागारे नियुक्ता' यक्षा'
नाम । -जिनके लोभकी मात्रा अधिक होती है और जो भाण्डागारमें नियुक्त किये जाते हैं, वे यक्ष कहलाते हैं।
२. यक्षनामा व्यन्तर देवके भेद ति प./६/४२ अहमणिपुण्ण सेलमणो भद्दा भद्दका सुभद्दा य । तह सव्वभद्दमाणुसधणपालसरूवजक्वक्वा ।२। जक्खुत्तममणहरणा ताणं ये माणिपुण्णभदिदा ..।४३ = माणिभद्र, पूर्णभद्र, शैलभद्र, मनोभद्र, भद्रक, सुभद्र, सर्वभद्र, मानुष, धनपाल, स्वरूपयक्ष, यक्षोत्तम और मनोहरण ये बारह यक्षोंके भेद है ।४। इनके माणिभद्र और पूर्णभद्र ये दो इन्द्र है (त्रि. सा./२६५-२६६)। * अन्य सम्बन्धित विषय १. व्यन्तर देवोंका एक मेद है।
-दे० व्यन्तर/१। २. पिशाच जातिके देवोंका एक मेद है। -दे०पिशाच। ३. छह दिशाओंके ६ रक्षक देव-विजय, वैजयन्त, जयन्त
अपराजित, अनावर्त, आवर्त । (प्रतिष्ठा सारोद्धार/३/१९६-२०१)। ४. यक्षोका वर्ण, परिवार व अवस्थान आदि। -दे० व्यन्तर। ५. तीर्थंकरोंके २४ यक्षोंके नाम ।
-दे० तीर्थकर/५॥ ६. तीर्थकरोकी २४ यक्षिणियोंके नाम। -दे. तीर्थकर/५। ७. तीर्थकरोंके २४ शासक देवता। --दे० तोथंकर/५। यक्षलिक-ह. पु /३३/श्लोक मलयदेशमें यक्षदत्तका पुत्र था। एक बार एक सर्पिणीको गाडीके पहियेके नीचे दबाकर मार दिया
(१५६-१६०) यह श्रीकृष्णका पूर्वका तीसरा भव है-दे० कृष्ण । यक्षवर-चतुर्थ सागर व द्वीप-दे० लोका/१। यक्षश्वर-अभिनन्दन भगवान् का शासक देवता।-दे०तीर्थंकर/३ । यक्षोत्तम-यक्ष जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० यक्ष ।
कामाग्नि और उदराग्नि, (दे० अग्नि/१) इन तीन अग्नियोमे क्षमा, वैराग्य और अनशनकी आहुतियाँ देनेवाले जो ऋषि, यति, मुनि, और अनगार रूपी श्रेष्ठ द्विज वनमें निवास करते है, वे आत्म-यज्ञकर इष्ट अर्थको देनेवाली अष्टम पृथिवी मोक्षस्थानको प्राप्त होते है। (२०२+२०३) । इसके सिवाय तीथ कर, गणधर तथा अन्य केवलियोंके उत्तम शरीरके संस्कारसे उत्पन्न हुई तीन अग्नियोंमें (दे० मोक्ष/५/१) अत्यन्त भक्त उत्तम क्रियाओं के करनेवाले तपस्वी गृहस्थ परमात्मपदको प्राप्त हुए अपने पिता तथा प्रपितामहको उद्देशकर वेदमन्त्रके उच्चारण पूर्वक अष्ट द्रव्यकी आहुति देना आर्ष यज्ञ है १२०४-२०७। यह यज्ञ मुनि और गृहस्थके आश्रयके भेदसे दो प्रकारका निरूपण किया गया, इनमें से पहला मोक्षका कारण और दूसरा परम्परा मोक्षका कारण है ।२१०। इस प्रकार यह देवयज्ञकी विधि परम्परासे चलो आयी है ।२११। किन्तु श्री मुनिसुव्रत नाथ तीर्थंकरके तीर्थ में सगर राजासे द्वेष रखनेवाला एक महाकाल नामका असुर हुआ था उसी अज्ञानीने इस हिसायज्ञका उपदेश दिया है ।२१२। यज्ञोपवीत--१. यज्ञोपवीतका स्वरूप व महत्व म पु/२८/११२ उरोलिङ्गमथास्य स्याद ग्रथित सप्तभिर्गुणै । यज्ञोपवीतक सप्तपरमस्थानसूचकम् ॥११२॥ =उस (आठवें वर्ष ब्रह्मचर्याश्रममें अध्ययनार्थ प्रवेश करनेवाले उस बालक) के वक्षस्थल का चिह्न सात तारका गूंथा हुआ यज्ञोपवीत है । यह यज्ञोपवीत सात परम स्थानों
का सूचक है। म. पु /३६/६५ यज्ञोपवीतमस्य स्याद् द्रव्य स्त्रिगुणात्मकम्। सूत्रमौपा
क्षिकं तु स्याद् भावारूढ स्त्रिभिर्गुण १५॥ म, पु/४१/३१ एकाद्य कादशान्तानि दत्तान्येम्यो मया विभो। व्रतचिह्नानि सूत्राणि गुणभूमि विभागत १३१ तीन तारका जो यज्ञोपवीत है वह उसका ( जैन श्रावकका) द्रव्य सूत्र है, और हृदयमें उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्र रूपी गुणोसे बना हुआ श्रावकका सूत्र उसका भाव सूत्र है ।६५ (भरत महाराज ऋषभदेवसे कह रहे है कि) हे विभो । मैने (श्रावकोको) ग्यारह प्रतिमाओंके विभागसे तोके चिह्न स्वरूप एकसे लेकर ग्यारह तक सूत्र (ग्यारह लडा यज्ञोपवीत तक) दिये है 1 ३१) (म पु/३८/२१-२२)।
२. यज्ञोपवीत कौन धारण कर सकता है म पु./४०/१६७-१७२ तत्तु स्यादसिवृत्त्या वा मष्या कृष्या वणिज्यया ।
यथास्व वर्तमानाना सदृष्टीना द्विजन्मनाम् ।१६७४ कुतश्चिद कारणाद् यस्य कुल संप्राप्तदूषणम् । सोऽपि राजादिसंमत्या शोधयेत् स्वं सदा कुलम् ।१६८। तदास्योपनयाहत्व पुत्रपौत्रादिसंततौ। न निषिद्ध हि दीक्षा कुले चेदस्य पूर्वजा. १६६। अदीक्षार्हे कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविन । एतेषामुपनीत्यादिसंस्कारी नाभिसंमत ११७० तेषा स्यादुचितं लिड्गं स्वयोग्यव्रतधारिणाम् । एकशाटकधारित्वं संन्यासमरणावधि ।१७१। स्यान्निरामिषभोजित्वं कुलस्त्रीसेवनव्रतम् । अनारम्भवधोत्सगों ह्यभक्ष्यापेयवर्जनम् ।१७२।
१. जो अपनी योग्यतानुसार असि, मषि, कृषि व वाणिज्यके द्वारा अपनी आजीविका करते है, ऐसे सदृष्टि द्विजोंको वह यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।२ जिस कुलमे दोष लग गया हो ऐसा पुरुष भी जब राजा आदि (समाज) की सम्मतिसे अपने कुलको शुद्ध कर लेता है, तब यदि उसके पूर्वज दीक्षा धारण करनेके योग्य कुलमें उत्पन्न हुए हों तो उसके पुत्र-पौत्रादि सन्ततिके लिए यज्ञोपवीत धारण करनेकी योग्यताका कही निषेध नहीं है ।१६८-१६६॥ ३ जो दोक्षाके अयोग्य कुलमे उत्पन्न हुए है, तथा नाचना, गाना आदि विद्या और शिल्पसे अपनी आजीविका पालते है ऐसे पुरुषको यज्ञोपवीतादि संस्कारकी आज्ञा नही है । १७०। किन्तु ऐसे लोग यदि अपनी योग्यतानुसार व्रत धारण करे तो उनके योग्य यह चिह्न हो
दे० पूजा/१/१ ( याग, यज्ञ, ऋतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और
मह ये सब पूजाविधिके पर्यायवाचक शब्द हैं।) म. पु./६७/११४ यज्ञशब्दाभिधेयोरुदानपूजास्वरूपकाव। धर्मात्पुण्यं समावयं तत्पाकादिविजेश्वरा ।१६४।-यज्ञ शब्दका वाच्यार्थ जो बहुत भारी दान देना और पूजा करना है, तत्स्वरूप धर्म से ही लोग पुण्य संचयके फलसे देवेन्द्रादि होते हैं ।१६४॥
२. यज्ञके भेद व भेदोंके लक्षण म. पु./६७/२००-२१२/२५८ आर्षानार्षविकल्पेन यागो द्विविध इष्यते १२०० त्रयोऽग्नय' समुद्दिष्टा' । । तेषु क्षमाविरागत्वानशनाहुतिभिर्वने ।२०२१ स्थित्वर्षियति मुन्यस्तशरणा. परमद्विजा' । इत्यात्मयज्ञमिष्टार्थामष्टमीमवनीं ययुः ।२०३३ तथा तीर्थगणाधीशशेषकेवलिसद्वपुः । संस्कारमहिताग्नीन्द्रमुकुटोत्थाग्निषु त्रिषु ।२०४॥ परमात्मपदं प्राप्तान्निजान् पितृपितामहान। उद्दिश्य भाक्तिका. पुष्पगन्धाक्षतफलादिभिः ।२०५। आर्षोपासकवेदोक्तमन्त्रोच्चारणपूर्वकम्। दानादिसरिक्रयोपेता गेहाश्रमतपस्विन' ।२०६। यागोऽयमृषिमि, प्रोक्तो यत्यगारिद्वयाश्रय. आयो मोक्षाय साक्षात्स्यात्परम्परया पर' ।२१०॥ एवं परम्परामतदेव यज्ञविधिष्विह । १२११। मुनिसुबततीर्थे शसताने सगरद्विष । महाकालासुरो हिंसायज्ञमज्ञोऽन्वशादमुम् १२१२॥ आर्ष और अनार्ष के भेदसे यज्ञ दो प्रकारका माना जाता है ।२००। क्रोधाग्नि,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० ३-४७
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