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मोहनीय
है, और उदासीन रूपसे अवस्थित रहकर आत्माके श्रद्धधानको नहीं रोकता है तब सम्यक्त्व ( सम्यप्रकृति है। इसका वेदन करनेवाला पुरुष सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । ३, वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेषके कारण क्षीणाक्षीण मदशक्तिवाले कोदों के समान अर्थशुध स्वरसवाला होनेपर भय या सम्यग्मिथ्यात्व कहा जाता है। इसके उदयसे अर्ध शुद्रध मदशक्तिवाले कोदों और ओदनके उपयोगसे प्राप्त हुए मिश्रपरिणामके समान उभयात्मक परिणाम होता है। (रा.वा./८/१/२/४०४/३) ( गो . जी. प्र./२३/२७/११ ) ( और श्री दे० आगे शीर्षक नं. ४) ।
४. तीनों प्रकृतियोंमें अन्तर
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ध. ६/१,१-१,२१/३१/१ अत्तागम- पदत्यसद्वधाए जस्सोदरण सिथिल सं होदि सम्म ..जस्सोदरण अन्तागम पर असधा होदि तपश्मिमय अ
तं मिच्छतं । जस्सोदरण अत्तागमपयरथे
मेन सहधा उपव्यदि तं सम्मामिच्छतं । घ. ६/१,६-८,७/२३५/१ मिच्छत्ताणुभागादो सम्मामिच्छत्ताणुभागो गुणीषो रातो सम्माभागो अनंतगुणहीणो चि पाहुड मिहिड़ादो, जिस कर्म के उदयसे आाप्त, बागम व पदार्थोंकी भामे शिविकता ( व अस्थिरता) होती है वह सम्यक्त्व प्रकृति है । जिस कर्मके उदयसे आप्त, आगम और पदार्थोंमें अश्रद्धा होती है, वह मिध्यात्व प्रकृति है । जिस कर्मके उदय से आप्त, आगम और पदार्थोंमें, तथा उनके प्रतिपक्षियों अर्थात् कृपेन, कुशास्त्र और कुतत्त्वोने, युगपद भया उत्पन्न होती है वह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति है। (भ. १२/२-२२३/२४० / १०:२५३/३) २ मिध्याकर्मके अनुभाग सम्यग्मिल कर्मका अनुभाग अनन्तगुणा होन होता है, और सम्यग्मिथ्यात्व कर्मके अनुभाग सम्पन्न प्रकृतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है' ऐसा प्राभूतसूत्र अर्थात कषायप्राभृतके पूर्णसूत्रोंमें निर्देश किया गया है (दे० अनुभाग /४/५ ( और भी दे० र २१
५. एक दर्शनमोहका तीन प्रकार निर्देश क्यों
घ. १३/२२-२३/३५८/० कथं बंधकाले एगविहं मोहनीयं संसावस्थाए विनिहं पडियज्जदे ण एस दोसी, एक्सस्सेव कोइक्स्स दसिज्जमागस्य एगकाले एगक्रिया बिसेसे व्रत को भाव
भादो । होदु तत्थ तथाभावो सकिरियजंत संबंधेण । ण एत्थ
अपिठकरणसहिजीवघेण एगविहस्त मोहणीयस्स तथा विभावविरोधादो प्रश्न- १. जो मोहनीयकर्म बन्ध कालमें एक प्रकारका है, वह सत्त्वावस्थामें तीन प्रकारका कैसे हो जाता है । उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, दला जाने वाला एक ही प्रकारका कोदों द्रव्य एक कालमें एक क्रियाविशेषके द्वारा चावल, आधे चावल और कोदों, इन तीन अवस्थाओंको प्राप्त होता है । उसी प्रकार प्रकृतमें भी जानना चाहिए। (ध. ६/१,६-१,२१/३८/ ७ ) । प्रश्न- वहाँ तो क्रिया युक्त जाँते (चक्की) के सम्बन्धसे उस प्रकारका परिणमन भले ही हो जाओ, किन्तु यहाँ बेसा नहीं हो सकता। उत्तर- नहीं, क्योंकि यहाँपर भी अनिवृत्तिकरण सहित जीवके सम्बन्धसे एक प्रकारके मोहनीयका तीन प्रकार परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है।
६. मिथ्यात्व प्रकृतिमेंसे भी मिथ्यात्वकरण कैसा ? गो.क./जी. प्र. / २६ / ११ / १ मिथ्यात्वस्य मिध्यात्वकरणं तु अतिस्थामालिया पूर्व स्थितानितमित्यर्थः प्रश्न मिथ्या तो था हो, उसको मिथ्यात्वरूप क्या किया । उत्तर-पहले जो स्थिति थी उसमें से अतिस्थापनावली प्रमाण घटा दिया । अर्थात् असंख्यातगुणा हीन अनुक्रमसे सर्व प्रम्प के तीन खण्ड कर दिये। उनमें से जो
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३. चारित्रमोहनीय निर्देष
पहले सबसे अधिक द्रव्यखण्ड है वह 'मिध्याल' है ऐसा अभिप्राय है (गो, जी./जी. प्र. ७०४ / १९४१ / १३) ।
७. सम्यक्प्रकृति को 'सम्यक्' व्यपदेश क्यों
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प. ६/९.१ १.२९/३१/२ कथं तस्य सम्मत्तववरेसो सम्मतसहचरिदोदयत्तादो उबयारेण सम्मत्तमिदि उच्चदे । प्रश्न - इस प्रकृतिका 'सम्यक्त्व' ऐसा नाम कैसे हुआ। उत्तर- सम्यग्दर्शनके सहवरित उदय होनेके कारण उपचारसे 'सम्यक्त्व' ऐसा नाम कहा जाता है । (ध. १ / १,१.१४६ / ३६८/२); (ध. १३/५,५,९३/३५८/११) । ८. सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनोंकी युगपत् वृत्ति कैसे
भ. १३/२२-२३/३१/२ कप दोनां निरुद्धा भाषागमक्यमेण एयजीवदव्वहि वृत्ती । ण, दोष्णं संजोगस्स कथंचि जच्चतरस्स कम्मट् उवणस्सेव (1) दुतिविरोहाभावादो प्रश्न सम्यमरव और मिथ्यात्व रूप इन दो विरुद्ध भावोंकी एक जीव द्रव्यमें एक साथ वृत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि (1) क्षीमाक्षीण मदशक्ति युक्त कोदों, के समान उक्त दोनो भावोंके कथंचित् जात्यन्तरत संयोग के होनेमें कोई विरोध नहीं है (विशेष दे० मिश्र / २ / ६ ) ।
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९. दर्शनमोहनी के बन्ध योग्य परिणाम .सू./८/१३
संवधर्मदेवाना दर्शनमोहस्य केवली श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्मका आस्रव है। (त. सा./४/२७ ) ।
त. सा./४/२० मार्गदूषणं चैन राथैयोन्मादेिशनम् उपरोक्त अतिरिक्त सस्य मोक्षमार्गको दूषित ठहराना और असत्य मोक्षमार्गको सच्चा बताना ये भी दर्शनमोहके कारण है ।
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३. चारित्रमोहनीय निर्देश
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१. चारित्र मोहनीय सामान्यका लक्षण स.सि./८/३/२०१२ चारित्रमोहस्यासंयम असंयमभाव चारित्रमोहकी प्रकृति है (रा. वा./८/२/४:५६०/४ ) 1 घ. २/१.१ १.२२/२२/४०/२ पापक्रियानि सिरपारिश्रस्वादिकम्माणि पावं । तेसि किरिया मिच्छत्तासं जमकसाया । तेसिमभावो चारितं । तं मोहेर आवारेदिति पारितमोहणीयं पापरूप क्रियाओंकी निवृत्तिको चारित्र कहते है। पातिया कर्मोंको पाप कहते हैं। मिथ्यात्व असंयम और कषाय, ये पापकी क्रियाएं हैं। इन पापक्रियाओके अभावको चारित्र कहते हैं। उस चारित्रको जो मोहित करता है, अर्थात् आच्छादित करता है, उसे चारित्रमोहनीय कहते है । ( पं. ध /उ. / २००६ ) ।
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ध. १३/५०५.१२/३५८/१ रागभावो चरितं तस्स मोहयं तप्पडिक्क्खभानुप्यावयं चारिणमोहणीयं रागका न होना चारित्र है उसे मोहित करनेवाला अर्थात् उससे विपरीत भावको उत्पन्न करनेवाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है। गो.क./जी. प्र./१२/२७/२० चरति चर्यतेऽनेनेति चरणमात्रं या चारित्रं, तन्मोहयति मुह्यतेऽनेनेति चारित्रमोहनीयं । -जो आचरण करता अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है अथवा आचरणमात्र चारित्र है । उसको जो मोहित करता है अथवा जिसके द्वारा मोहित किया जाता है सो चारित्रमोहनीय है।
२. चारित्रमोहनीयके भेद-प्रभेद
ख. ६/११-१/२२-२४/४०-४५ तं चारितमोहणीयं कम् तं दुविहं कवायदणीयं चैव पोकसायवेदणी
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