Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 352
________________ मौन मलेच्छ बुद्धका शिष्य होनेसे रोका था। (द.सा /पृ. २६/प्रेमी जी), (धर्म परीक्षा/६)१२. एक क्रियावादी-दे० क्रियावाद । अधिक प्रशसनीय है। रसायन (औषध) सदा हित करनेवाला होता है और फिर रोग हानेपर तो पूछना ही क्या है। व्रतविधान सग्रह/पृ. ११२। मौनव्रतकथासे उद्धृत-यहाँ मौनव्रतका कथन है। भोजन, वमन, स्नान, मैथुन, मलक्षेपण और जिन पूजन इन सात कर्मोमे जीवन पर्यन्त मौन रखना नित्य मौनव्रत कहलाता है। ५. मौनावलम्बी साधुके बोलने योग्य विशेष अवसर दे. अपवाद/३ (दूसरेके हितार्थ साधुजन कदाचित् रात्रिको भी बोल लेते है।) दे. वाद-(धर्मकी क्षति होती देखे तो बिना बुलाये भी बोले । ) दे. अथालंद-(मौनका नियम होते हुए भी अथालंद चारित्रधारी साधु रास्ता पूछना, शंकाके निराकरणार्थ प्रश्न करना तथा वसतिका के स्वामीसे घरका पता पूछना-इन तीन विषयो में बोलते है।) दे. परिहार विशुद्धि-(धर्मकार्यमें आचार्य से अनुज्ञा लेना, योग्य ब अयोग्य उपकरणो के लिए निर्णय करना, तथा किसीका सन्देह दूर करनेके लिए उत्तर देना इन तीन कार्योंके अतिरिक्त वे मौनसे रहते * मौनव्रतके अतिचार-दे० गुप्ति/२/१ । स. श./१७ एवं त्यक्त्वा बहिर्वावं त्यजेदन्तरशेषत'। एष योगा समासेन प्रदीप परमात्मन' १७४ - इस प्रकार (दे० अगला शीर्षक) बााकी बचन प्रवृत्तिको छोडकर, अन्तरंग वचन प्रवृत्तिको भी पूर्णतया छोड देना चाहिए। इस प्रकारका योग ही सक्षेपसे परमात्मा का प्रकाशक है। नि. सा./ता वृ/१५५ प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनां परित्यज्य... मौनव्रतेन साधं.-।-प्रशस्त व अप्रशस्त समस्त वचन रचनाको छोड़कर मौनव्रत सहित (निजकार्य की साधना चाहिए।) २. मौन व्रतका कारण व प्रयोजन मो. पा./न./२६ जं मया दिस्सदे रूबण जाणादि सम्वहा । जाणगं दिस्सदे णतं तम्हा जंपेमि केण हे २६ । जो कुछ मेरे द्वारा यह माह्य जगत में देखा जा रहा है, वह तो जड़ है, कुछ जानता नहीं। और मै यह ज्ञायक हूँ वह किसीके भी द्वारा देखा नही जाता। तम मै किसके साथ बोलू । (स, श./१८)। सा.ध./४/३४-३६ गृहध्यै हुंकारादिसज्ञा संक्लेशं च पुरोनुग। मुश्चन्मौनमदन कुर्यात्तप-संयमबृ हणम् ॥३४. अभिमानागृद्धिरोधाद्वर्धयते तप । मौन तनोति श्रेयश्च श्रुतप्रश्रयतायनात् ।३॥ शुद्धमौनात्मनः सिद्ध्या शुक्लध्यानाय कल्पते। वासिद्धया युगपत्साधुस्त्रैलोक्यानुग्रहाय च ।३६ श्रावकको भोजनमे गृहधिके कारण हूंकार करना, खकारना, इशारे करना, तथा भोजनके पहले व पीछे क्रोध आदि संक्लेशरूप परिणाम करना, इन सब बातोको छोडकर तप व सयमको बढ़ानेवाला मौनव्रत धारण करना चाहिए।३४। मौन धारण करना भोजनकी गृधि तथा याचनावृत्तिको रोकनेवाला है तथा तप पुण्यको बढ़ानेवाला है ।३५॥ इससे मन वश होता है, शुक्ल-ध्यान व बचनकी सिद्धि होती है, और वह श्रावक या साधु त्रिलोकका अनुग्रह करने योग्य हो जाता है ।३६ ३. मौनव्रतके उद्यापनका निर्देश सा. घ./४/३७ उद्योतनमहेनैकघण्टादानं जिलाल ये । असर्वकालिके मौने निर्वाहः सार्वकालिके ।३७ सीमित समयके लिए धारण किये गये मौनवतका उद्यापन करने के लिए उसका माहात्म्य प्रगट करना व जिन मन्दिरमें एक घंटा समर्पण करना चाहिए। जन्मपर्यन्त धारण किये गये मौनवतका उद्यापना उसका निराकुल रीतिसे निर्वाह करना ही है ।३७५ (टीकामे उधृत २ श्लोक)। १. मौन धारणे योग्य अवसर भ. आ./वि./१६/६२/६ भाषासमितिक्रमानभिज्ञो मौनं गृह्णीयात इत्यर्थः। -भाषा समितिका क्रम जो नही जानता वह मौन धारण करे, ऐसा अभिप्राय है। सा. ध/४/३८ आवश्यके मलक्षेपे पापकार्ये च बान्तिवद । मौनं कुर्वीत शश्वद्वा भूयोवाग्दोषविच्छिदे ।३८। -बोतिमें कुरला करनेवत, सामायिक आदि छह कमों में, मल-मूत्र निक्षेपण करनेमें, दूसरेके द्वारा पापकार्य की सभावना होने में, स्नान, मैथुन, आचमन आदि करने में श्रावकको मौन धारण करना चाहिए और साधुको कृतिकर्म करते अथवा भोजनचर्या करते समय मौन धारण करना चाहिए । अथवा भाषाके दोषोका विच्छेद करनेके लिए सदा मौनसे रहना चाहिए।३। सा. थ./टीका/४/३५ में उद्धृत-सर्वदा शस्तं जोष भोजने तु विशेपतः। रसायनं सदा श्रेष्ठ सरोगत्वे पुनर्न कि । मौन व्रत सदा प्रशसा करने योग्य है और फिर भोजन करनेके समय तो और भी मानवत-एक वर्ष तक पौष शु. ११ से प्रारम्भ करके प्रत्येक मासके प्रत्येक ११वें दिन १६ पहरका उपवास करे । इस प्रकार कुल २४ उपवास करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत विधान संग्रह/पृ ११२)। मौनाध्ययनवृत्ति क्रिया-दे० संस्कार/२। मौर्य वंश-दे० इतिहास/३/३ । मौलिक प्रक्रिया-Fundamental operation (ध.प्र.२८) म्रक्षित-वसतिकाका एक दोष-दे० वसतिका म्लेच्छ-१. म्लेच्छखण्ड निर्देश ति. प./४/गाथा नं. सेसा विपंचखंडा णामेणं होंति मेच्छरखंड त्ति। उत्तरतियखंडेसुं मज्झिमरखंडस्स बहुमज्झे ॥२६॥ गंगामहाणदीए अढाइज्जेसु । कुंडजसरिपरिवारा हुवंति ण हु अज्जरखंडम्मि ।२४५॥ - [विजया पर्वत व गगा सिन्धु, नदियों के कारण भरतक्षेत्रके छह रखण्ड हो गये है। इनमेंसे दक्षिणवाला मध्यरखण्ड आर्यरखण्ड है (दे० आर्यरखण्ड)] शेष पाँचों ही स्खण्ड म्लेच्छरखण्ड नामसे प्रसिद्ध हैं ।२६८। गंगा महानदीकी ये कुण्डोंसे उत्पन्न हुई (१४०००) परिवार नदियाँ म्लेच्छरखण्डों में ही हैं, आर्य खण्डमें नहीं है ।२४५। (विशेष दे० लोक/७)। २. म्लेच्छमनुष्योंके भेद व स्वरूप स. सि./३/३६/पृ./पक्ति म्लेच्छा द्विविधा -अन्तर्वीपजा कर्मभूमिजाश्चेति । ( २३०/३) • ते एतेऽन्तपिजा म्लेच्छा । कर्मभूमिजाश्च शकयवनशवरपुलिन्दादयः। -(२३१/६)। म्लेच्छ दो प्रकारके है-अन्तर्वीपज और कर्मभ्रमिज । अन्तीपोमे उत्पन्न हुए अन्तर्वीपजम्लेक्ष है। और शक, यवन, शवर व पुलिन्दादिक कर्मभूमिजम्लेच्छ है। (रा. वा./२/३६/४/२०४/१४,२६)। भ. आ./कि./७८१/६३६/२६ इत्येवमादयो ज्ञेया अन्तपिजा नरा। समुद्रद्वीपमध्यस्था. कन्दमूलफलाशिनः । वेदयन्ते मनुष्यायुस्ते मृगोपमचेष्टिता-समुद्रों में ( लवणोद व कालोदमें ) स्थित अन्तर्वीपोंमें रहनेवाले तथा कन्द-मूल फल खानेवाले ये लम्बकर्ण आदि (दे० आगे शीर्षक नं.३) अन्तर्वीपज मनुष्य है। जो मनुष्यायुका अनुभव करते हुए भी पशुओकी भाँति आचरण करते है। जैनेन्द्र सिदान्त कोश भा०३-४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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