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मिथ्यादृष्टि
स सा /आ./१६४ स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टे रागादिभावाना सद्भावेन बन्धनिमित्त भूत्वा निर्जीर्यमाणोऽप्यजीर्णः सन् अन्ध एव स्यात् । - जब उस सुख या दुखरूप भावका बेदन होता है तब मिथ्याष्टिको रागादिभावोके सदभावसे बन्धका निमित्त होकर वह भाष निर्जराको प्राप्त होता हुआ भी (वास्तवमे) निर्जरित न होकर बन्ध ही होता है। दे सम्यग्दृष्टि/२(ज्ञानीके जो भाव मोक्षके कारण है वही भाव अज्ञानीको बन्धके कारण है)। ३. मिथ्याष्टिका तश्वविचार नय प्रमाण आदि सब मिथ्या हैं न.च.व./४१५ लवणं व इणं भणियं णयचक्कं सयलसत्थसुद्धियरं । सम्माविय सुय मिच्छा जीवाण सुणयमग्गरहियाण-सकल शास्त्रोंकी शुद्धिको करनेवाला यह नयचक्र अति संक्षेपमें कहा गया है। क्योकि सम्यक् भी श्रुत या शास्त्र, सुनयरहित जीवोंके लिए मिथ्या होता है। पं का /ता.व / प्रक्षेपक ४३-६/०७/२८ मिथ्यात्वात यथैवाज्ञानमविरतिभावश्च भवति तथा मुनयो दुर्नयो भवति प्रमाण दुःप्रमाणं च भवति । कदा भवति । तत्त्वविचारकाले। किं कृत्वा। प्रतीत्याश्रित्य । किमाश्रित्य । शेयभूत जीवादिवस्त्विति ।-मिथ्यात्वसे जिस प्रकार अज्ञान और अविरति भाव होते है, उसी प्रकार ज्ञेयभूत वस्तुकी प्रतीतिका आश्रय करके जिस समय तत्त्व विचार करता है, तब उस समय उसके लिए मुनय भी दुर्मय हो जाते है और प्रमाण भी दु प्रमाण हो जाता है। (विशेष दे ज्ञान/111/२/८,६:चारित्र/३/१०: धर्म/२:नय/II/प्रमाण/२/२,४/२:भक्ति/१। ४. मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिमे अन्तर
१.दोनोंके श्रद्धान व अनुभव आदिमें अन्तर स, सा./मू./२७५ सदहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पूणो य फासेदि।
धम्म भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणि मित्त । -वह (अभव्य जीव ) भोगके निमित्तरूप धर्म की ही श्रद्धा करता है, उसीकी प्रतीनि करता है, उसीकी रुचि करता है और उसीका स्पर्श करता है, किन्तु कर्मक्षयके निमित्तरूप धर्म की श्रद्धा आदि नहीं करता। र. सा/५७ सम्माइट्ठी काल बीलइ वेरग्गणाणभावेण । मिच्छाइट्ठी वांछा दुब्भावालस्सकल हेहिं ।।७। सम्यग्दृष्टि पुरुष समयको वैराग्य
और ज्ञानसे व्यतीत करते है। किन्तु मिथ्यादृष्टि पुरुष दुर्भाव, आलस्य और कलहसे अपना समय व्यतीत करते है। प्र. सा./ता.व./प्रक्षेपक ६८-१/३६०/१७ इमां चानुकम्पा ज्ञानी स्वस्थ
भावनामविनाशयन् सक्लेशपरिहारेण क्रोति । अज्ञानी पुनः संक्लेशेनापि करोतीत्यर्थ । -इस अनुकम्पाको ज्ञानी हो स्वस्थ भावका नाश न करते हुए संक्लेशके परिहार द्वारा करता है, परन्तु अज्ञानी
उसे संक्लेशसे भी करता है। स, श/म./५४ शरीरे वाचि चात्मानं संधत्ते वाकशरीरयोः। भ्रान्तो
ऽभ्रान्त पुनस्तत्त्व पृथगेष निबुध्यते ।४।- वचन और शरीरमें ही जिसकी भ्रान्ति हो रही है, जो उनके वास्तविक स्वरूपको नही समझता ऐसा बहिरात्मा वचन और शरीरमें ही आरमाका भारपण करता है। परन्तु ज्ञानी पुरुष इन शरीर और वचनके स्वरूपको
आत्मासे भिन्न जानता है। (विशेष दे० मिथ्याधि/१/१/२)। स.श./मूव टी /४७ त्यागादाने बहिर्मूढ करोत्यध्यात्ममात्मवितानान्त
बहिरुपादान न त्यागो निष्ठितात्मन' ।४७ मूढारमा बहिरात्मा त्यागोपादाने करोति क । बहिर्वाह्ये हि वस्तुनि द्वेषोदयादभिलाषाभावान्मूढात्मा त्याग करोति। रागोदयात्तत्राभिलाषोत्पत्तेरुपादानमिति । आत्मवित अन्तरात्मा पुनरध्यात्मनि स्वात्मरूप एष त्यागो
३. मिथ्यादृष्टि व सभ्यग्दृष्टिम अन्तर पादाने करोति । तत्र हि त्यागो रागद्वेषादेरन्तर्जल्पविकल्पादेर्वा । स्वीकारश्चिदानन्दादे । यस्तु निष्ठितारमा कृतकृत्यारमा तस्य अन्तबहिर्वा नोपादान तथा न त्यागोऽन्तबहिर्वा । -महिरारमा मिथ्यादृष्टि द्वेषके उदयवश अभिलाषाका अभाव हो जानेके कारण बाह्य वस्तुओंका स्याग करता है और रागके उदयवश अभिलाषा उत्पन्न हो जानेके कारण बाह्य वस्तुओंका ही ग्रहण करता है। परन्तु आरमवित् अन्तरात्मा आत्मस्वरूपमें हो त्याग या ग्रहण करता है। वह त्याग तो रागद्वेषादिका अथवा अन्तर्जल्परूप बचन विलास व विकल्पादिका करता है और ग्रहण चिदानन्द आदिका करता है।
और जो आत्मनिष्ट व कृतकृत्य है ऐसे महायोगीको तो अन्तरग व बाह्य दोनों ही का न कुछ त्याग है और न कुछ ग्रहण । (विशेष दे० मिथ्याष्टि/२/२)1 दे. मिथ्याष्टि/२/५ (मिथ्यादृष्टिको यथार्थ धर्म नही रुचता)। दे. श्रद्धान/३ (मिथ्यादृष्टि एकान्तग्राही होनेके कारण अपने पक्षकी हठ करता है, पर सभ्यग्दृष्टि अनेकान्तग्राही होनेके कारण अपने पक्षकी हठ नहीं करता)। स. सा./ता वृ./१६४/२६६/8 सुखं दुख वा समुदीण सत् सम्यग्दृष्टि
र्जीवो रागद्वेषौ न कुर्वन हेयबुद्धया वेदयति । न च तन्मयो भूत्वा, अहं मुखी दुखीत्याद्यमिति प्रत्ययेनानुभवति । मिथ्यादृष्टे पुन. उपादेयबुद्धया, मुख्यह दु.ख्यहमिति प्रत्ययेन । = कर्मके उदयवश प्राप्त सुखदुःखको सम्यग्दृष्टि जीव तो राग-द्वेष नहीं करते हुए हेयबुद्धिसे भोगता है। 'मै सुखी-मै दुःखी' इत्यादि प्रत्ययके द्वारा तन्मय होकर नहीं भोगता । परन्तु मिथ्यादृष्टि उसी सुख-दुःखको उपादेय बुद्धिसे मै मुखी, मै दुखी' इत्यादि प्रत्ययके द्वारा तन्मय होकर भोगता है। और इसीलिए सम्यग्दृष्टि तो विषयोंका सेवन करते हुए भी उनका असेवक है और मिथ्यादृष्टि उनका सेवन न करते हुए भी सेवक है ) दे० राग/६। पं. का/ता. वृ./१२५/२८८/२० अज्ञानिना हितं ग्वनिताचन्दनादि
तत्कारणं दानपूजादि, अहितमहि विषकण्टकादि। संज्ञानिना पुनरक्षयानन्तसुखं तत्कारणभूतं निश्चयरत्नत्रयपरिणतं परमात्मद्रव्य च हितमहितं पुनराकुलत्वोत्पादकं दुखें तत्कारणभूतं मिथ्यात्वरागादिपरिणतमात्मद्रव्यं चं। -अज्ञानियोंको हित तो माला, स्त्री, चन्दन आदि पदार्थ तथा इनके कारणभूत दान, पूजादि व्यवहारधर्म हैं और अहित -विष कण्टक आदि बाह्य पदार्थ है। परन्तु ज्ञानीको हित तो अक्षयानन्त सुख व उसका कारणभूत निश्चयरत्नत्रयपरिणत परमात्मदव्य है और अहित आकुलताकों उत्पन्न करनेवाला दुख तथा उनका कारणभूत मिथ्यात्व व रागादिसे परिणत आत्मद्रव्य है 1 (विशेष दे० पुण्य//४-८) मो. मा. प्र./८/३६७/२० (सम्यग्दृष्टि ) अपने योग्य धर्म को साधै है। तहाँ जेता अंश वीतरागता हो है ताको कार्यकारी जान है, जेता अंश राग रहै है, ताकौ हेय जाने है। सम्पूर्ण वीतराग ताकौ परमधर्म मानें है । (और भी दे० उपयोग/II/३) । २. दोनोंके तत्व कर्तृत्वमें अन्तर न. च. वृ./१६३-१६४ अज्जीवपुण्णपावे असुद्धजीवे तहासवे बंधे सामी मिच्छाइट्ठी समाइट्ठी हवदि सेसे ।१६३॥ सामी सम्मादिट्ठी जिय सवरणणिज्जरा मोक्खो। सुद्धो चेयणरूवो तह जाण सुणाणपञ्चक्रवं । १६४१ = अजीव, पुण्य, पाप, अशुद्ध जीव, आस्रव और बन्ध इन छह पदार्थों के स्वामी मिथ्यावृष्टि है, और शुद्ध चेतनारूप जीव तत्त्व, संबर, निर्जरा व मोक्ष इन शेष चार पदार्थोंका स्वामी सम्यग्दृष्टि है। द्र.स. टी./ अधिकार २/चूलिक/८३/२ इदानी कस्य पदार्थस्य कः कर्तेति कथ्यते-बहिरात्मा भण्यते । स चासवबन्धपापपदार्थ त्रयस्य कर्ता भवति। क्वापि काले पुनर्मन्द मिथ्यात्वभन्दकषायोदये सति भोगाकांक्षादिनिदानबन्धेन भाविकाले पापानुबन्धिपुण्यपदार्थस्यापि
भा० ३-३९
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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