________________
मोक्ष
३२६
४. मोक्षप्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र काल आदि
-
-
-
-
--
1..
कर्मका नाम
सन्दर्भ नं.
गुणका नाम
२.३,४
केवलदर्शन केवलज्ञान अनन्तसुख या अध्यात्राधत्व
दर्शनावरणीय ज्ञानावरणीय वेदनीय
स्वभावघाती ४ | चारो घातियाकर्म ५] समुदितरूपसे
आठों कर्म मोहनीय आयु
२,३.६
सूक्ष्मत्व या अशरीरता
अवगाहनत्व या जन्म( मरणरहितता
नाम
।
गोत्रकर्म अन्तराय
२,३,६ शीर्षक न.४ २,३,४,६ २३,४,६
मूक्ष्मत्व या अशरीरता अगुरुलघुत्व या ऊँचनीचरहितता अनन्तवीर्य ५ क्षायिकल ब्धि
प्र. सा /मू./६० 5 केवल ति णाण तं सोक्रवं परिणाम च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खय जादा। -जो केवलज्ञान है, वह ही सुख है और परिणाम भी वही है। उसे खेद नहीं है, क्योंकि घातीकर्म क्षयको प्राप्त हुए हैं। प्र सा./त प्र./६१ स्वभावप्रतिघाताभावहेतुक ही सौख्यं । -मुखका
हेतु स्वभाव-प्रतिघातका अभाव है। 4. ध /उ./१११४ कर्माष्टक विपक्षि स्यात सुखस्यैकगुणस्य च । अस्ति किचिन्न कर्मक तद्विपक्षं तत पृथक् ।१११४।-आठो ही कर्म समुदायरूपसे एक सुख गुणके विपक्षी है। कोई एक पृथक् कर्म उसका विपक्षी नहीं है। ४. सूक्ष्मत्व व अगुरुलधुत्व गुणों के अवरोधक कमौंको
स्वीकृतिमें हेतु प, प्र./टी./१/६२/६२/१ सूक्ष्मस्वायुष्ककर्मणा प्रच्छादितम् । कस्मादिति
चेत् । विवक्षितायु' कर्मोदयेन भवान्तरे प्राप्ते सत्यतीन्द्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मत्वं त्यक्त्वा पश्चादिन्द्रियज्ञानविषयो भवतीत्यर्थः। सिद्धावस्थायोग्यं विशिष्टागुरुल घुत्वं नामकर्मोदयेन प्रच्छादितम् । गुरुत्वशब्देनोच्चगोत्रजनितं महत्त्व भण्यते, लघुत्वशब्देन नीचगोत्रजनित तुच्छत्वमिति, तदुभयकारणभूतेन गोत्रकर्मोदयेन विशिष्टागुरुलघुत्व प्रच्छाद्यत इति ।-आयुकर्म के द्वारा सूक्ष्मत्वगुण ढका गया क्योकि विवक्षित आयुकर्म के उदयसे भवान्तरको प्राप्त होनेपर अतीन्द्रिय ज्ञानके विषयरूप सूक्ष्मत्वको छोडकर इन्द्रियज्ञानका विषय हो जाता है। सिद्ध अवस्थाके योग्य विशिष्ट अगुरुलघुत्व गुण ( अगुरुलघु संज्ञक) नामकमके उदयसे ढका गया। अथवा गुरुत्व शब्दसे उच्चगोत्रजनित बड़प्पन और लघुरव शब्दसे नीचगोत्रजनित छोटापन कहा जाता है। इसलिए उन दोनोके कारणभूत गोत्रकर्मके उदयसे विशिष्ट अगुरुलघुत्वका प्रच्छादन होता है।
५. सिद्धों में कुछ गुणों व भावोंका अभाव त.सू./१०/३-४ औपशमिकादिभव्यत्वानां च ३। अन्यत्र केवलसम्य- क्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः ।४। औपशमिक, क्षायोपशमिक व
औदयिक ये तीन भाव तथा पारिणामिक भावो में भव्यत्व भावके अभाव होनेसे मोक्ष होता है।३। क्षायिक भावोमे केवल सम्यक्त्व. केवलज्ञान, केवलदर्शन, और सिद्धत्वभावका अभाव नही होता है। (त सा./८/५)। दे 'सत्' की ओघप्ररूपणा-(न वे सयत है, न असंयत और न संयतासंयत । न वे भव्य है और न अभव्य । न वे सही है और न
असज्ञी।) दे जीव/२/२/ (दश प्राणों का अभाव होनेके कारण वे जीव ही नहीं
है। अधिकसे अधिक उनको जीवितपूर्व कह सकते है।) स. सि./१०/४/४६८/११ यदि चत्वार एवावशिष्यन्ते, अनन्तवीर्यादीनां निवृत्ति. प्राप्नोति। नैष दोषः, ज्ञानदर्शनाविनाभावित्वादनन्तवीर्यादीनामविशेष, अनन्तसामर्थ्यहीनस्यानन्तावबोधवृत्त्य भावाज्ज्ञान, मयत्वाच्च सखस्येति । -प्रश्न-सिद्धोके यदि चार ही भाव शेष रहते है, तो अनन्तवीर्य आदिकी निवृत्ति प्राप्त होती है। उत्तर-- यह कोई दोष नही है, क्योकि, ज्ञानदर्शनके अविनाभावी अनन्तवीर्य आदिक भी सिद्धोमें अवशिष्ट रहते है। क्योकि, अनन्त : सामथ्यसे हीन व्यक्तिके अनन्तज्ञानकी वृत्ति नहीं हो सक्ती और
सुख ज्ञानमय होता है। रा.वा/१०/४/३/६४२/२३ । ध.१/१.१,३३/गा. १४०/२४८ ण वि इदियकरणजुदा अवगहादीहिगाहिया अत्थे। णेव य इंदियसोरखा अणिदियाणतणाणसुहा ।१४०१ - वे सिद्ध जीव इन्द्रियोके व्यापारसे युक्त नहीं है, और अवग्रहादिक क्षायोपशमिक ज्ञानके द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते है उनके इन्द्रिय सुख भी नहीं है: क्योकि, उनका अनन्तज्ञान और अनन्तसुरव अतीन्द्रिय है। (गो, जी /मू./१७४/४०४)।
६. इन्द्रिय व संयमके अमाव सम्बन्धी शंका ध: १/१,१,३३/२४८/११ तेषु सिद्धषु भावेन्द्रियोपयोगस्य सत्त्वात्सेन्द्रियास्त इति चेन्न, क्षयोपशमजनितस्योपयोगस्येन्द्रियत्वात् । न च क्षीणाशेषकर्मसु सिद्धषु क्षयोपशमोऽस्ति तस्य क्षायिकभावेनापसारितत्वात् । ध/१/१,१,१३०/३७८/८ सिद्धानां क. संयमो भवतीति चेन्नै कोऽपि । यथाबुद्धिपूर्व कनिवृत्तेरभावान्न संयतास्तत एव न संयतासंयताः नाप्यसंयता प्रणष्टाशेषपापक्रियत्वात् । -प्रश्न-उन सिद्धों में भावेन्द्रिय और तज्जन्य उपयोग पाया जाता है, इसलिए वे इन्द्रिय सहित है। उत्तर-नहीं, क्योकि, क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए उपयोगको इन्द्रिय कहते है । परन्तु जिनके सम्पूर्ण कर्म क्षीण हो गये है, ऐसे सिद्धोंमें क्षयोपशम नहीं पाया जाता है, क्योंकि, वे क्षायिक भावके द्वारा दूर कर दिया जाता है। (और भी दे० केवली/५)1 प्रश्नसिद्ध जीवोके कौन-सा संयम होता है। उत्तर-एक भी संयम नहीं होता है; क्योकि, उनके बुद्धिपूर्वक निवृत्तिका अभाव है। इसी प्रकार वे संयतासंयत भी नही है और असंयत भी नहीं है, क्योकि, उनके सम्पूर्ण पापरूप क्रियाएँ नष्ट हो चुकी है। ४. मोक्षप्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र काल आदि
..सिद्धोंमें अपेक्षाकृत कथंचित् भेद त. सू /१०/8 क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबोधितज्ञानावगाहनानन्तरसंख्याल्पबहुत्वत' साध्या' 18- क्षेत्र, काल, गति, लिग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबोधित, बुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहन, अन्तर, सख्या, और अल्पबहुत्व इन द्वारा सिद्ध जीव विभाग करने योग्य है। २. मुक्तियोग्य क्षेत्र निर्देश स. सि./१०/१/४७१/११ क्षेत्रेण तावत्कस्मिन क्षेत्र सिध्यन्ति । प्रत्युत्पन्नग्राहिनयापेक्षया सिद्धिक्षेत्रे स्वप्रदेशे आकाशप्रदेशे वा सिद्धिर्भवति ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org