Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 330
________________ मोक्ष ३२३ १. भेद व लक्षण समस्तानां कर्मणा। -- क्षायिक ज्ञान, दर्शन ब यथारख्यात चारित्र नामवाले ( शुद्धरत्नत्रयात्मक ) जिन परिणामोसे निरवशेष कर्म आत्मासे दूर किये जाते है उन परिणामोको मोक्ष अर्थात भावमोक्ष कहते है और सम्पूर्ण कर्मोका आत्मासे अलग हो जाना मोक्ष अर्थात द्रव्यमोक्ष है। (और भी दे० पीछे मोक्ष सामान्यका लक्षण नं.३). (द्र सं./म् /३७/१५४ )। पं. का./ता. वृ./१०९/१७३/१० कर्म निर्मूलनसमर्थ शुद्धात्मोपल ब्धि रूप जीवपरिणामो भावमोक्ष , भावमोक्षनिमित्तेन जीवकर्मप्रदेशाना निरवशेष पृथग्भावो द्रव्यमोक्ष इति। - कर्मोके निर्मूल करने में समर्थ ऐसा शुद्धात्माकी उपलब्धि रूप (निश्चयरत्नत्रयात्मक ) जीव परिणाम भावमोक्ष है और उस भावमोक्षके निमित्तसे जीव व कर्मोके प्रदेशोका निरवशेषरूपसे पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष है। (प्र. सा./ता वृ८४/१०६/१५) (इ. स./टी/२८/८५/१४)। दे० आगे शीर्षक न.५ (भावमोक्ष व जीवन्मुक्ति एकार्थवाचक है। स्था. मं./८/८६/१ स्वरूपात्रस्थान हि मोक्ष । -स्वरूपमें अवस्थान करना ही मोक्ष है। ४. मुक्त जीवका लक्षण पं. का./भू /२८ कम्ममल विष्पमुक्को उड्डु लोगस्स अतमधिगंता । सो सव्वणाणद रिसो लहदि सुहमणि दियमण त ।२८। -कर्ममलसे मुक्त आरमा ऊर्ध्व लोकके अन्तको प्राप्त करके सर्वज्ञ सर्वदर्शी अनन्त अनिन्द्रिय सुखका अनुभव करता है। स.सि./२/१०/१६६/७ उक्तात्पञ्चविधात्ससारान्निवृत्ता |ये ते मुक्ता.। -जो उक्त पाँच प्रकारके ससारसे निवृत्त है वे मुक्त है। रा.वा./२/१०/२/१२४/२३ निरस्तद्रव्यभावबन्धा मुक्ता ।- जिनके द्रव्य व भाव दोनो कर्म नष्ट हो गये है वे मुक्त है। न, च, वृ./१०७ णटुकम्मसुद्धा असरी राणं तसोवरवणाणछा । परमपहुत्त पत्ता जे ते सिद्वा हु खलु मुक्का १०७। -जिनके अष्ट कर्म नष्ट हो गये है, शरीर रहित है, अनन्तसुख व अनन्तज्ञानमें आसीन है, और परम प्रभुत्वको प्राप्त हैं ऐसे सिद्ध भगवान मुक्त है। (विशेष देखो आगे सिद्धका लक्षण)। पं.का./ता. वृ/१०६/१७४/१३ शुद्धचेतनात्मका मुक्ता केवलज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणा मुक्ता.-शुद्धचेतनात्म या केवलज्ञान व केवलदर्शनोपयोग लक्षणवाला जीव मुक्त है। .. जीवन्मुक्तका लक्षण पं.का./ता. वृ१५०/२१६/१८ भावमोक्ष केवलज्ञानोत्पत्ति. जीवन्मुक्तोऽहरपदमित्येकार्थ.। -भावमोक्ष, केवलज्ञानकी उत्पत्ति, जीवन्मुक्त, अर्हन्तपद ये सब एकार्थवाचक है। ६. सिद्ध जीव व सिद्धगतिका लक्षण नि.सा/म्/७२ णट्ठढकम्मबधा अहमहागुणसमष्णिया परमा। लोयगठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिमा होति ।७२। आठ कर्मों के बन्धनको जिन्होंने नष्ट किया है ऐसे, आठ महागुणो सहित, परम, लोकाग्र में स्थित और नित्य, ऐसे वे सिद्ध होते है । ( और भी दे० पीछे मुक्तका लक्षण ) (क्रि.क/३/१/२/१४२)। पं. सं./प्रा./२/गाथा न -अट्ठविहकम्मवियडा सीदीभूदा णिर जणा णिच्चा । अगुणा कयकिच्चा लोयग्गणिवासिको सिद्धा ।३१। जाइजरामरणभया सजोय विओयदुक्खसण्णाओ। रोगादिया य जिस्से ण होति सा होइ सिद्धिगई।६४ ण य इदियकरणजुआ अवग्गहाई हि गाहया अत्थे । णेव य इदियमुक्त्रा अणिदियाण तणाणसुहा 1७४। -१. जो अष्टविध कर्मोसे रहित है, अत्यन्त शान्तिमय है, निर जन है, नित्य है, आठ गुणोसे युक्त है, कृतकृत्य है, लोकके अप्रभाग पर निवास करते है, वे सिद्ध कहलाते है। (ध १/१,१,२३/गा.१२७/ २००), (गो जी./मू /८/१७७)। २. जहॉपर जन्म, जरा, मरण, भय, मयोग, वियोग, दुख, सज्ञा और रोगादि नहीं होते है वह सिद्धगति कहलाती है।६४। (ध. १/१,१,२४/गा. १३२/२०४ ), (गो जी/मू /१५२/३७५)। ३ जो इंद्रियोके व्यापारसे युक्त नहीं है, अवग्रह अादिके द्वारा भी पदार्थ के ग्राहक नही है, और जिनके इन्द्रिय सुख भी नहीं है, ऐसे अतीन्द्रिय अनन्तज्ञान और सुखवाले जीवोको इन्द्रियातीत सिद्ध जानना चाहिए ।७४!--[ उपरोक्त तीनो गाथाओका भाव-(प.प्र./मू /१/१६-२५); (चा सा /३३-३४)] घ १/१,१.१/गा २६-२८/४८ णिहयविबिहट्टकम्मा तिवणसिरसेहरा विहुवदुक्खा । सुहसायरमझगया णिर जणा णिच्च अगुणा । ।२६। अणबज्जा कयकज्जासव्यावयवेहि दिसम्बटूठा। बज्जसिलत्थ भग्गय पडिम बाभेज्ज सठाणा (२७/ माणुससठाणा वि हु सब्यावयवेहि णो गुणेहि समा। सबिदियाण विसय जमेगदेसे विजाण ति ।२८-जिन्होने नानाभेदरूप आठ कर्मोका नाश कर दिया है, जो तीन लोकके मस्तकके शेरवरस्वरूप है. दु'खोसे रहित है, सुखरूपी सागरमे निमग्न है, निर जन है, नित्य है, आठ गुणोसे युक्त है ।२६। अनवद्य अर्थात् निर्दोष है, कृतकृत्य है, जिन्होने सर्वांगसे अथवा समस्तपर्यायो सहित सम्पूर्ण पदार्थोको जान लिया है, जो बज्रशिला निर्मित अभग्न प्रतिमाके समान अभेद्य आकारसे युक्त है ।२७। जो सब अवयवोसे पुरुषाकार होनेपर भी गुणोसे पुरुषके समान नहीं है, क्योकि पुरुष सम्पूर्ण इन्द्रियोके विषयोको भिन्न देशमें जानता है, परन्तु जो प्रति प्रदेशमे सब विषयोको जानते है, वे सिद्ध है ।२८। और भी दे० लगभग उपरोक्त भावोको लेकर ही निम्नस्थलोपर भी सिद्धोंका स्वरूप बताया गया है । (म. पु/२९/११४-११८ ), (द्र स / मू/१४/२१), (त. अनु /१२०-१२२)। प्रसा/ता वृ /१०/१२/६ शुद्धामोपलम्भलक्षण सिद्ध पर्याय - शुद्धारमो पलब्धि ही सिद्ध पर्यायका ( निश्चय ) लक्षण है। ७. सिद्धलोकका स्वरूप भ. आ. मू /२१३३ ईसिप्पन्भाराए उरि अत्यदि सो जोयणम्मिसदिए । धुबमचलमजरठाण लोगसिहरमस्सिदो सिद्धो। = सिद्धभूमि 'ईषप्रारभार' पृथिवीके ऊपर स्थित है। एक योजन में कुछ कम है। ऐसे निष्कम्प व स्थिर स्थानमें सिद्ध प्राप्त होकर तिष्ठते है।। ति.प.//६५२-६५८ सम्बद्वसिद्धिइदयकेदणदंडादु उवरि गंतुण । बारस जोयणमेत्त अट्ठमिया चेट्ठदे पुढवो ।६५२। पुव्वावरेण तीए उवरिमहेछिमतलेसु पत्तेक्क । वासो हवेदि एक्का रज्जू रूवेण परिहीणा । ।६५३। उत्तरदक्षिणभाए दीहा किचूणसत्तरज्जूओ। वेत्तासण संठाणा सा पुढवी अट्ठजोयणबहला ६५४ जुत्ता घणोवहिघणाणितणुवादेहि तिहि समीरेहि । जोयण बीससहस्स पमाण बहलेहि पत्तेक्क ६५५। एदाए बहुमज्झे खेतं पणामेण ईसिपम्भार । अज्जुणसवण्णसरिस जाणारयणेहि परिपूर्ण ६५६। उत्ताणधवलछत्तोवमाणसठाणसंदर एद । पंचत्ताल जोयणयाअंगुलं पि यताम्मि। अट्ठमभूमझगदो तप्परिही मणुबखेत्तपरिहिसमो।६५८! - सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रक्के ध्वजदपडसे १२ योजनमात्र ऊपर जाकर आठवी पृथिवी स्थित है।६५२। उसके उपरिम और अधस्तन तल में से प्रत्येक तलका विस्तार पूर्वपश्चिममें रूपसे रहित ( अर्थात् वातक्लयोकी मोटाईसे रहित) एक राजू प्रमाण है।६५३। वेत्रासनके सदृश वह पृथिवी उत्तरदक्षिण भागमें कुछ कम ( वातवलयोकी मोटाईसे रहित) सात राजू लम्बी है। इसकी मोटाई आठ योजन है ६५४। यह पृथिवो घनोदधिवात, धनवात, और तनुवात इन तीन वायुओसे युक्त है। इनमें से प्रत्येक वायुका बाल्य २०,००० योजन प्रमाण है ।६५४। उसके बहुमध्य भागमे चॉदी एव सुवण के सदृश और नाना रत्नोसे परिपूर्ण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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