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पूजा
२. पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व
प्रकारसे पूजा करना चाहिए यह क्षेत्रपूजा कहलाती है।४५२ (गुण, ।१६। जो जीव भक्तिसे जिनेन्द्र भगवान् का न दर्शन करते है, न श्रा./२२२)।
पूजन करते है, और न ही स्तुति करते है उनका जीवन निष्फल है,
तथा उनके गृहस्थको धिक्कार है ।१॥ श्रावकोको प्रातःकालमें उठ ५. कालपूजा
करके भक्तिसे जिनेन्द्रदेव तथा निर्ग्रन्थ गुरुका दर्शन और उनकी मु. श्रा./४५३-४५५ गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्रवमण णाण-णिव्वाणं ।
वन्दना करके धर्म श्रवण करना चाहिए। तत्पश्चात् अन्य कायोंको जम्हि दिणे सजाद जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा ।४५३॥ गंदीसरढदिवसेसु
करना चाहिए ।१६। तहा अण्णेसु उचियपव्वेतु । जं कीरइ जिणमहिमा विण्णेया कालपूजा
बो, पा./टी./१७/८५ पर उद्धृत-उत्तं सोमदेव स्वामिना-अपूजयित्वा सा४५५-जिस दिन तीर्थंकरोके गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्र
यो देवान मुनीननुपचयं च । यो भुञ्जीत गृहस्थः सन् स भुञ्जीत पर मणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए है, उसदिन तमः। -आचार्य सोमदेवने कहा है कि जो गृहस्थ जिनदेवकी भगवान् का अभिषेक करे। तथा इस प्रकार नन्द श्वर पर्व के आठ
पूजा और मुनियोकी उपचर्या किये बिना अन्नका भक्षण करता है। दिनो में तथा अन्य भी उचित पर्यों में जो जिन महिमा की जाती है,
वह सातवे नरकके कुम्भीपाक बिलमें दुःखको भोगता है। (अ.ग, वह कालपूजा जानना चाहिए १४५३॥ ( गुण. श्रा./२५३-२२४ )
श्रा./१/५५)। ६. भावपूजा
पं. ध./उ./७३२-७३३ पूजामप्यर्हतां कुर्याद्यद्वा प्रतिमा तद्धिया। भ.आ/वि./४७/१५६/२२ भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं । -मनसे
स्वरव्यञ्जनानि संस्थाप्य सिद्धानप्यचंयेत्सुधी १७३२। सूर्युपाध्यायउनके (बर्हन्तादिके ) गुणोका चिन्तन करना भावपूजा है। (अ. ग.
साधूनां पुरस्तत्पादयो. स्तुतिम् । प्राग विधायाष्टधा पूजां विदध्यात्स
त्रिशुद्धितः १७३३। - उत्तम बुद्धिवाला श्रावक प्रतिमाओमें अर्हन्तश्रा./१२/१४)। वसु, श्रा./४५६-४५८ काऊणाणंतचउट्ठयाइ गुणकित्तणं जिणाईणं । ज
की बुद्धिसे अर्हन्त भगवानकी और सिद्ध यन्त्रमे स्वर व्यंजन आदि बंदणं तियाल कीरइ भावच्चणं तं खु।४५६ पंचणमोकारयएहि अहवा
रूपसे सिद्धोकी स्थापना करके पूजन करे १७३२॥ तथा आचार्य उपाजाव कुणिज्ज सत्तीए। अहवा जिणिदथोत्तं बियाण भावचणं तं पि
ध्याय साधुके सामने जाकर उनके चरणोकी स्तुति करके त्रिकरणकी ।४५७ ज झाइज्जइ झाणं भावमहंत विणि दिट्ठ।४५८ = परम
शुद्धिपूर्वक उनकी भी अष्ट द्रव्यसे पूजा करे १७३३। (इस प्रकार नित्य भक्तिके साथ जिनेन्द्र भगवान के अनन्त चतुष्टय आदि गुणोका कीर्तन
होनेवाले जिनबिम्ब महोत्सवमें शिथिलता नहीं करना चाहिए। करके जो त्रिकाल वन्दना की जाती है, उसे निश्चयसे भावपूजा जानना
1(७३६)। चाहिए।४५६॥ अथवा पच णमोकार पदोंके द्वारा अपनी शक्तिके अनुसार जाप करे। अथवा जिनेन्द्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगानको भाव
२. नंदीश्वर व पंचमेरु पूजा निर्देश
भार प्रकारका ध्यान किया ति.प.//८३,१०१,१०३ वरिसे वरिसे चउविहदेवा गंदीसरम्मि जाता है वह भी भावपूजा है ।४१८॥
दीवम्मि.। आसाढकत्तिएसु फरगुणमासे समायन्ति।८३। पुवाए कप्प५.निश्चय पूजाका लक्षण
वासी भवणसुरा दक्विणाए वेतरया। पच्छिम दिसाए तेसु जोइसिया
उत्तरदिसाए ।१०० यिणियविभूदिजोग्ग महिमं कुव्वं ति थोत्तस, श./मू./३१ य' परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयो
बहलमुहा। गंदीसरजिणमंदिरजत्तासु बिउलभत्तिजुदा ।१०११ पास्यो नास्य कश्चिदितिस्थिति ।३१। जो परमात्मा है वह ही मै
पुचण्हे अवरण्हे पुव्वणिसाए वि पच्छिमणिसाए । पहराणि दोणिहूँ तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही परमात्मा है, इसलिए मै ही
दोणि वरभत्तीए पसत्तमणा ।१०२१ कमसो पदाहिणेणं पुण्णिमयं मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा कोई अन्य नही।
जाव अट्ठमीदु । तदो देवा विविहं पूजा जिणिदपडिमाण कुव्वंति। इस प्रकार ही आराध्य-आराधक भावकी व्यवस्था है।
११०३। -चारो प्रकारके देव नन्दीश्वरद्वीपमें प्रत्येक वर्ष आषाढ, प. प्र/मू./१/१२३ मणु मिलियउ परमेसरहें परमेसरु वि मणस्स !
कार्तिक और फाल्गुन मासमे आते है ।८३। नन्दीश्वरद्वीपस्थ जिन
मन्दिरोकी यात्रामें बहुत भक्तिसे युक्त कल्पवासी देव पूर्व दिशामें, बीहि वि समरसि-हाहं पुज्ज चडाव कस्स। -विकल्प
भवनवासी दक्षिणमें, व्यन्तर पश्चिम दिशामें और ज्योतिषदेव रूप मन भगवान आत्मारामसे मिल गया और परमेश्वर भी मनसे
उत्तर दिशामें मुखसे बहुत स्तोत्रोका उच्चारण करते हुए अपनीमिल गया तो दोनो ही को समरस होनेपर किसकी अब मै पूजा
अपनी विभूतिके योग्य महिमाको करते है ।१००-१०१। ये देव करूं। अर्थात् निश्चयनयकर अब किसीको पूजना सामग्री चढाना
आसक्त चित्त होकर अष्टमीसे लेकर पूर्णिमा तक पूर्वाह्न, अपराल, नही रहा । १२३॥ दे० परमेष्ठी-पाँचों परमेष्ठी आत्मामें ही स्थित हैं, अतः वही मुझे
पूर्वरात्रि और पश्चिमरात्रिमें दो-दो पहर तक उत्तम भक्ति पूर्वक
प्रदक्षिण क्रमसे जिनेन्द्र प्रतिमाओकी विविध प्रकारसे पूजा करते शरण है।
है।१०२-१०३॥
ज, प./५/११२ एवं आगंतूर्ण अहमिदिवसेसु मंदरगिरिस्स । जिण२. पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व
भवणेसु य पडिमा जिणिदईदाण पूयंति ।११२। -इस प्रकार अर्थात १. पूजा करना श्रावकका नित्य कर्तव्य है
बडे उत्सव सहित आकर वे (चतुनिकायके देव ) अष्टाह्निक दिनोंमें
मन्दर ( सुमेरु ) पर्वतके जिन भवनोंमें जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा वसु. श्रा./४७८ एसा छबिहा पूजा णिच्च धम्माणुरायरत्तेहिं । जह करते हैं ।११।
जोग्ग कायव्वा सव्वेहि पि देसविरएहि ।४७८ - इस प्रकार यह छह __ अन, ध./६/६३ कुर्वन्तु सिद्धनन्दीश्वरगुरुशान्तिस्तवैः क्रियामष्टौ । प्रकार (नाम, स्थापनादि) की पूजा धर्मानुरागरक्त सर्व देशबती शुच्यूर्जतपस्यसिताष्टम्यादिदिनानि मध्याह्न । आषाढ, कार्तिक श्रावकोको यथायोग्य नित्य ही करना चाहिए ।४७८!
और फाल्गुन शुक्ला अष्टमीसे लेकर पूर्णिमा पर्यन्तके आठ दिनों पं.वि /६/१५-१६ ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न । तक पौर्वाहिक स्वाध्याय ग्रहणके अनन्तर सब संघ मिला कर, सिद्धनिष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम् ॥१॥ प्रातरुत्थाय भक्ति, मन्दीधर चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शान्तिभक्ति द्वारा कतं व्यं देवतागुरुदर्शनम् । भक्त्या तद्वन्दना कार्या धर्मश्रुतिरुपासका। अष्टाह्निक क्रिया करे । ६३ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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