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भूमि
में जघन्य रूपसे छह गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे चौदह गुणस्थान तक पाये जाते है | २६३६ | सब भोगभूमिजो में सदा दो गुणस्थान ( मिथ्यात्व व असंयत ) और उत्कृष्ट रूपमे चार गुणस्थान तक रहते हैं। सब म्लेच्छखण्डो में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है | २६३७| (शि, प, J४/३०३), (ज. प./२/१६५)। स.सि./१०/६/४०१ / १२ जम्मप्रति पद कर्मभूमि संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धि' । जन्मकी अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियो में और अपहरणकी अपेक्षा मानुष क्षेत्रमें सिद्धि होती है। ( रा. वा./६/१०/ २/६४६/१६) ।
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घ. १/१.१८६५ / २२०/१ भोगभूमापन्नानां वह (अनुक्त) उपादानानुपपते। भोगभूमिमे उत्पन्न हुए जीवोके अवतोका प्रहरा नहीं बन सकता (घ, १/१.१.१६७/२०२/१
भ, आ./वि./१/६२७/६ एतेषु कर्म निजमानाना एव रत्नत्रयपरि नामयोग्यता नेतरेषां इति इन कर्मभूमि, भोगभूमिज, । - ( अन्तरद्वीपज, और सम्मूर्च्छन चार प्रकारके) मनुष्यो में कर्मभूमिज है उनकी हो नत्र परिणामकी योग्यता है । इतरोको नहीं हैं । गो. जी ./५००/०४/११ का भावार्थ - कर्म भूमिका अद्वायु मनुष्य क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्रस्थापना व निष्ठापना कर सकता है। परन्तु भोगभूमिमें क्षायिक सम्म निशाना हो सकती है. प्रस्थापना नही । ( ल. सा. / जी, प्र / १११ ) । गो. जी./जी. प्र. / ७०३/११३७/८ असयते भोगभूमितिर्यग् मनुष्या कर्मभूमिमनुष्या उभये । =असंयत गुणस्थानमे भोगभूमिज मनुष्य तिच कर्मभूमि मनुष्य पर्याप्त अपर्याप्त दोनो हाते है। ./१/० (भोगभूमिमें वर्णव्यवस्था व वेषधारी नहीं है। ) ८. कर्मभोगभूमियों जीवोंका अवस्थान
दे च भोमियो में जलचर व विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते, केवल संज्ञी पर्चेन्द्रिय ही होते है। विकलेन्द्रियजर जोन नियमसे कर्मभूमि में होते है। स्वयप्रभ पर्नसके परभागने सर्व प्रकार के जीव पाये जाते है भोगभूमियोमे संयत व संयतासंयत मनुष्य या तिथंच भी नहीं होते हैं, परन्तु पूर्व वैरीके कारण देवो द्वारा ले जाकर डाले गये जो वहाँ सम्भव है
दे. मनुष्य / ४ मनुष्य अढाई द्वीपमें ही होते है, देवोके द्वारा भी मानुषीउत्तर पर्वत पर भागने उनका ले जाना सम्भव नही है ।
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९. भोगभूमि चारित्र क्यों नही
वि. १ / ४ / ३८६ ते सन्वे वरजुगला अण्णोष्णुप्पण्णवेमसमूढा । जम्हा तम्हा तेनुं सावयवदसंजमो णत्थि ३८६ | क्योकि वे सब उत्तम युगल पारस्परिक प्रेममें अत्यन्त मुग्ध रहा करते है, इसलिए उनके श्रावक व्रत और संयम नही होता १३८६ |
रा. वा /३/२०/२०/२२ भोगभूमिषु हि यद्यपि मनुष्याणा ज्ञानदर्शने स्त चारित्र तु नास्ति अभिरतभोगपरिणानित्वात् भोगभूमियोंमें यद्यपि ज्ञान दर्शन तो होता है, परन्तु भोग परिणाम होनेसे चारित्र नहीं होता।
१०. अन्य सम्बन्धित विषय
२. अष्टमभूमि निर्देश
२. कर्मभूमियोंमें वशकी उत्पत्ति
३ कर्मभूमिमें वर्ग व्यवस्थाकी उत्पत्ति
४. कर्ममा प्रारम्भकाल
५.
भूमि
६. आर्य व सुण्ड
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-३० मोक्ष/१/७ -३० इतिहास / ७। -दे० वर्ण व्यवस्था/२ शलाका पुरुष / ६ । -दे० म्लेच्छ / अन्तर्श्वोपज ।
- दे० वह वह नाम ।
७. कर्म व भोग भूमिकी आयुके बन्ध योग्य परिणाम
८. इसका नाम कर्मभूमि क्यों पा ९. कर्म व भोगभूमिमें षद् काल व्यवस्था
१०. भोगभूभिज क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं
११. भोग व कर्म भूमिज कहाँसे मर कर कहाँ उत्पन्न हो
० आयु १
- दे० भूमि / ३ ।
मेड
- दे० काल / ४ |
-३० तियंच/२/११।
- दे० वह वह नाम ।
१२. कर्मभूमि चि मनुष्य १२. सर्व द्वीप समुद्रोंमें संयतासंयत विचोंकी सम्भावना -दे० तियंच/२/१०।
१४. कर्मभूमिज व्यपदेशसे केवल मनुष्यों का ग्रहण १५. भोगभूमिमें जीवोंकी सख्या भूमिकल्पभूमिकुंडल - विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर ।
भेंडकर्म - ३० निलेप/४
- दे० जन्म / ६ |
-३० चि/२/१२ | - दे० तियंच / ३ /४ |
-आ० इन्द्रनन्दि ( ० ० १०) तान्त्रिक ग्रन्थ
० मन्त्र /१/६ ॥
भूमितिलक विजयको उत्तर श्रेणीका नगर-३० विद्याधर भूमिशुद्धि-पूजा विधानादि भूमिशुद्धि मन्त्र भूषणांग वृक्ष - ० पक्ष १ भृंगनिभा
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सुमेरुके नन्दनादि वनों में स्थित एक वापो ।
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-३० विद्यार
भुंगा -- सुमेरुके नन्दनादि वनोमें स्थित एक वापी-दे० लोक / ७ । भृकुटि मुनिवनाथ भगवान्का शासक यक्ष- ३० यह भृत्य
वंश -बी नि.४८५-७२७ ( ई. पू. ४२ - २०० ) का एक गध दे० इतिहास/३/४
- दे० लोक/७ |
भेद - २. विदारणके अर्थ में
ससि / ५ / २६ / २६८/४ सघातानां द्वितयनिमित्तवशाद्विदारणं भेद' । - अन्तरंग और बहिर गइन दोनो प्रकारके निमित्तो से संघातोके विदारण करनेको भैर कहते हैं (रा. वा /५/२६/१/४६३/२३) । रा. वा. २१/४०/९४ भिनचि भिद्यते भेरमा वा भेद जो भेदन करता है, जिसके द्वारा भेदन किया जाता है या भेदनमात्रको भेद कहते है ।
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ध. १४/५, ६.८ / १२१ / ३ खधाणं विहडणं भेो णाम । स्कन्धोका विभाग होना भेद है।
पर्याय १/१ अंश पर्याय, भाग, हार, विध प्रकार, भेद, छे, और मंग मे एकार्थवाची है।
२. वस्तुके विशेषके अर्थ में
आप / ६ गुणगुण्यादिसंज्ञाभेदाद् भेदस्वभाव | गुण और गुणीमें संज्ञा भेद होनेसे भेद स्वभाव है ।
द्रव्य
न च वृ./६२ भिण्णा हु वयणभेदेण हु वे भिण्णा अभेदादो। गुण पर्याय में वचन भेदसे तो भेद है परन्तु द्रव्य रूपसे अभेद रूप है । स्याम /५/२४/२० अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा यद्विधर्माध्यास कारणभेदश्चेति विरुद्ध धर्मोका रहना और भिन्न-भिन्न कारणोका होना यही भेद है और भेदका कारण है ।
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