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मतिज्ञान
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४. एक बहु आदि विषय निर्देश
कस्यचिच्छब्दग्रणकाल एव तद्रसादिप्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भाच्च । -यह (अनुक्त अवग्रह ) असिद्ध भी नहीं है, क्योकि, चक्षुसे लवण, शक्कर व खाण्डके ग्रहण काल में ही कभी उनके रसका ज्ञान हो जाता है, दहीके गन्धके ग्रहणकाल में ही उसके रसका ज्ञान हो जाता है; दीपकके रूपके ग्रहण कालमें ही कभी उसके स्पर्शका ग्रहण हो जाता है, तथा शब्दके ग्रहण काल में ही संस्कार युक्त किसी पुरुषके उसके रसादिविषयक प्रत्ययकी उत्पत्ति भी पायी जाती है। (ध १३/५, १,३५/२३८/१३)। ११. मन सम्बन्धी अनुक्त ज्ञानकी सिद्धि ध.१/४,१,४५/१५४/६ मनसोऽनुक्तस्य को विषयश्चेददृष्टमश्रुतं च । न
च तस्य तत्र वृत्तिरसिद्धा, उपदेशमन्तरेण द्वादशाङ्गश्रुतावगमान्यथानुपपत्तितस्तस्य तत्सिद्ध ।। = प्रश्न- मनसे अनुक्तका क्या विषय है । उत्तर-अदृष्ट और अश्रुत पदार्थ उसका विषय है। और उसका वहाँ पर रहना असिद्ध नहीं है, क्योकि, उपदेशके बिना अन्यथा द्वादशांग श्रुतका ज्ञान नही बन मक्ता; अतएव उसका अदृष्ट व अश्रुत पदार्थ में रहना सिद्ध है। (ध. १३/५.५,३५/२३६/६) । १७ अप्राप्यकारी इन्द्रियों सम्बन्धी अनिःसृत व अनुक्त
ज्ञानोंकी सिद्धि रा. वा./१/१६/१७-२०/६५/११ कश्चिदाह-श्रोत्रघाणस्पर्शनरसनचतुष्टयस्य प्राप्यकारित्वात अनि सृतानुक्तशब्दाद्यवग्रहहावायधारणा न युक्ता इति; उच्यते-अप्राप्ततत्त्वात् ।१७। कथम् । पिपीलिकादिवत् । 1१। यथा पिपीलिकादीना घ्राणरसनदेशाप्राप्तेऽपि गुडादिद्रव्ये गन्धरसज्ञानम्, तच्च यैश्च यावद्भिश्चास्मादाद्यप्रत्यक्षसूक्ष्मगुडाक्यकैः पिपीलिकादिघाणरसनेन्द्रिययो' परस्परानपेक्षा प्रवृत्तिस्ततो न दोष' । अस्मदादीना तदभाव इति चेद. न, श्रुतापेक्षत्वात् ।१६। परोपदेशापेक्षत्वात् । किच, लब्ध्यक्षरत्वात् ।२०. चक्षु श्रोत्रमाणरसनस्पर्शनमनोलध्यक्षरम्' इत्यार्ष उपदेश । अत' लमध्यधरसानिध्यात एतसिध्यति अनि सृतानुक्तानामपि शब्दादीना अवग्रहादिज्ञानम् । = प्रश्न--स्पर्शन रसना प्राण और श्रोत्र ये चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी है (दे० इन्द्रिय/२), अत. इनसे अनि सृत और अनुक्त ज्ञान नहीं हो सकते । उत्तर-इन इन्द्रियोसे किसी न किसी रूपमें पदार्थ का सम्बन्ध अवश्य हो जाता है, जैसे कि चींटी आदिको घाण व रसना इन्द्रिय के प्रदेशको प्राप्त न होकर भी गुड आदि द्रव्योके रस व गन्धका जो ज्ञान होता है, वह गुड आदिके अप्रत्यक्ष अवसबभूत सूक्ष्म परमाणुओके साथ उसकी घाण व रसना इन्द्रियोका सम्बन्ध होनेके कारण ही होता है। प्रश्न-हम लोगोको तो वैसा ज्ञान नही होता है। उत्तर-नहीं, श्रुतज्ञानकी अपेक्षा हमें भी वैसा ज्ञान पाया जाता है, क्योकि, उसमें परोपदेशकी अपेक्षा रहती है। दूसरी बात यह भी है, कि आगममें श्रुतज्ञानके भेद-प्रभेदके प्रकरण में लब्ध्यक्षरके चक्षु, श्रोत्र, घाण, रसना, स्पर्शन और मनके भेदसे छह भेद किये है (दे० श्रुतज्ञान/II/१), इसलिए इन लब्ध्यक्षररूप श्रुतज्ञानोसे उन-उन इन्द्रियो द्वारा अनि सृत और अनुक्त आदि विशिष्ट अवग्रह आदि ज्ञान होता रहता है। १८.ध्रुव व अध्व ज्ञानोंके लक्षण स.सि /१/१६/११३/१ ध्र वं निरन्तरं यथार्थ ग्रहणम् । - जो यथार्थ ग्रहण 'निरन्तर होता है, उसके जतानेके लिए ध्रव पद दिया है । (और भी दे० अगला शीर्षक २०१६)। (ग वा १/१६/१२/६३/२१) । रा. वा./१/१६/१६/६४/८ सक्लेशपरिणामनिरुत्सुकस्य यथानुरूपश्रोत्रन्द्रियावरणक्षयोपशमादिपरिणामकारणाव स्थितत्व त यथा प्राथमिक शब्दग्रहण तथावस्थितमेव शब्दमवगृह्णाति नोन नाभ्यधिकम् । पौन -
पुन्येन सक्लेशविशुद्धिपरिणामकारणापेक्षस्यात्मनो यथानुरूपपरिणामोपात्तश्रोत्रेन्द्रियसानिध्येऽपि तदावरणस्येषदीषदाविर्भावात पौन.पुनिक प्रकृष्टावकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरणादिक्षयोपशमपरिणामत्वाच्च अध वमवगृह्णाति शब्दम्-वचिद् बहु क्वचिदल्प क्वचिद् बहुविध क्वचिदेकविध क्वचित क्षिप्र क्वचिच्चिरेण क्वचिदनि सृत क्वचिन्निसृतं वचिदुक्त क्वचिदनुक्तम् । -संक्लेश परिणामोके अभावमे यथानुरूप ही श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशमादि परिणामरूप कारणोके अवस्थित रहनेसे, जैसा प्रथम समयमें शब्द का ज्ञान हुआ था आगे भी वैसा ही ज्ञान होता रहता है । न कम होता है और न अधिक। यह 'ध्रुव' ग्रहण है । पर तु पुन पुन. संक्लेश और विशुद्धिमें झूलनेवाले आत्माको यथानुरूप श्रोत्रेन्द्रियका सान्निध्य रहनेपर भी उसके आवरणका किचिव उदय रहनेके कारण, पुन' पुन' प्रकृष्ट व अप्रकृष्ट श्रोत्रेन्द्रियावरणके क्षयोपशमरूप परिणाम होनेसे शब्दको अध्र व ग्रहण होता है, अर्थात् कभी बहुत शब्दोंको जानता है, और कभी अल्पको, कभी बहुत प्रकारके शब्दोको जानता है और कभी एक प्रकारके शब्दोको, कभी शीघतासे शब्दको जान लेता है और कभी देरसे, कभी प्रगट शब्द को ही जानता है और कभी अप्रगटको भी, कभी उक्तको ही जानता है और कभी अनुक्तको भी। ध. ६/१.६-१,१४/२१/१ णिच्चत्तार गहण धुवावग्गहो, तबिवरीयगहणमद्ध वावगहो। -नित्यतासे अर्थात निरन्तर रूपसे ग्रहण करना ध व-अवग्रह है और उससे विपरीत ग्रहण करना अधव अवग्रह है। घ. १/१,११११/३१७/६ सोऽयमित्यादि ध्र वावग्रह । न सोऽयमित्याद्यध्र वावग्रह.= 'वह यही है' इत्यादि प्रकारसे ग्रहण करनेको ध वाव
ग्रह कहते है और वह यह नही है। इस प्रकारसे ग्रहण करनेको ___ अध्र वावग्रह कहते है । (ध १/४,१,४५/१५४/६)। ध १३/५,५.३५/२३६/३ नित्यत्वविशिष्टस्तम्भादिप्रत्यय स्थिर..." विद्य प्रदीपज्वालादौ उत्पादविनाश विशिष्टवस्तुप्रत्यय अध वः । उत्पाद-व्यय धौव्यविशिष्टवस्तुप्रत्ययोऽपि अधव , ध्र वात्पृथग्भूतस्वात् । नित्यत्वविशिष्ट स्तम्भ आदिका ज्ञान स्थिर अर्थात धवप्रत्यय है और बिजली, दीपककी लौ आदिमें उत्पाद विनाश युक्त वस्तुका ज्ञान अध व प्रत्यय है। उत्पाद व्यय और ध्रौव्य युक्त वस्तुका ज्ञान भी अध व प्रत्यय है, क्योंकि, यह ज्ञान ध व ज्ञानसे भिन्न है। १९. ध्रुवज्ञान व धारणामें अन्तर स सि./१/१६/११४/४ ध्र वावग्रहस्य धारणायाश्च कः प्रति विशेष । उच्यते, क्षयोपशमप्राप्तिकाले विशुद्धपरिणामसंतत्या प्राप्तात्क्षयोप. शमात्प्रथमसमये यथावग्रहस्तथैव द्वितीयादिष्वपि सममेषु नोनो नाभ्यधिक इति धुवावग्रह इत्युच्यते । यदा पुनर्विशुद्धपरिणामस्य सक्लेशपरिणामस्य च मिश्रणात्क्षयोपशमो भवति तत उत्पद्यमानोऽवग्रह. कदाचिद् बहूना कदाचिदल्पस्य कदाचिद् बहुविधस्य कदाचिदेकविधस्य वैति न्यूनाधिकभावादध वावग्रह इत्युच्यते। धारणा पुनर्ग्रहीतार्थाविस्मरणकारणमिति महदनयोरन्तरम् । प्रश्न-५ वाबग्रह और धारणामें क्या अन्तर है। उत्तर-क्षयोपशमकी प्राप्तिके समय विशुद्ध परिणामोकी परम्पराके कारण प्राप्त हुए क्षयोपशमसे प्रथम समय जैसा अवग्रह होता है, वैसा ही द्वितीय आदि समयोंमें भी होता है, न न्यून होता है और न अधिक, यह ध वावग्रह है। किन्तु जब विशुद्ध परिणाम और सक्लेश परिणामोंके मिश्रणसे क्षयोपशम होकर उससे अवग्रह होता है, तब वह कदाचित बहुतका होता है, कदाचित् अल्पका होता है, कदाचित् बहुविधका होता है
और कदाचित एकविधका होता है। तात्पर्य यह कि उसमें न्यूनाधिक भाव होता रहता है, इसलिए वह अधु वावग्रह कहलाता है। किन्तु धारणा तो गृहीत अर्थ के नहीं भूलनेके कारणभूत ज्ञानको कहते है. अत. ध वावग्रह और धारणामें बड़ा अन्तर है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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