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मनोरम
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मरण
मनोहरण-यक्षीका एक भेद-दे० यक्ष ।
पूर्व प्रयोगसे प्रयत्नके बिना भी मनकी प्रवृत्ति देखी जाती है। उत्तर-यदि ऐसा है तो होने दो, क्योकि, ऐसे मनसे होनेवाले योगको मनोयोग कहते है. यह अर्थ यहाँ विवक्षित नहीं है, किन्तु मनके निमित्तसे जो परिस्पन्दरूप प्रयत्न विशेष होता है, वह यहाँ पर योग
रूपसे विवक्षित है। गो.जी./जी प्र./७०३/१९३०/२० लब्ध्युपयोगलक्षणं भावमन. तद्वयापारो मनोयोगः।-लब्धि व उपयोग लक्षणवाला तो भावमन है और उसका व्यापार विशेष मनोयोग है। ७. मरण या व्याघातके साथ ही मन व वचन योग
मी समाप्त हो जाते हैं ध, ४/१,५,१७५/४१६४ मुदे वाघादिदे वि कायजोग मोत्तूण अण्णजोगाभावो। मरण अथवा व्याघात होने पर भी काययोगको छोड़कर अन्य योगका अभाव है।
ममकार-त अनु/१४ शश्वदनात्मीयेषु स्वतनुप्रमुखेषु कमजनितेषु । आत्मीयाभिनिवेशो ममकारो मम यथा देह ।१४। सदा अनात्मीय, ऐसे कर्मजनित स्वशरीरादिकमें जो आत्मीय अभिनिवेश है, उसका नाम ममकार है, जैसे मेरा शरीर । (द्र. सं./टी./४१/ १६६/१)। प्र.सा/ता वृ./१४/१२२/१५ मनुष्यादिशरीरं तच्छरीराधारोत्पन्नपञ्चेन्द्रियविषयसुखस्वरूपं च ममेति ममकारो भण्यते । 'मनुष्यादि शरीर तथा उस शरीरके आधारसे उत्पन्न पञ्चेन्द्रियोके विषयभूत सुखका स्वरूप सो मेरा है इसे ममकार कहते है। ममत्व-स्व. स्तो./टी./१० ममेत्यस्य भावो ममत्वं । - मेरेपनेका भाव ममत्व कहलाता है।
८. अन्य सम्बन्धित विषय १. मनोयोग सम्बन्धी विषय ।
-दे० योग २. केवलीमें मनोयोग विषयक ।
-दे० केवली/५ ३. मनोयोगमें गुणस्थान जीवसमास मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ।
-दे० सत्। ४. मनोयोगकी सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।
-दे० वह वह नाम। ५. मनोयोगियोंमें कर्मोंका बन्ध, उदय. सत्त्व ।-दे० वह वह नाम ।
मय-प.पु/८/श्लोक-रावणका श्वसुर व मदोदरी का पिता था
।। रावणकी मृत्युके पश्चात् दीक्षित हो गया /६० । मरण-लोक प्रसिद्ध मरण तद्भव मरण कहलाता है और प्रतिक्षण
आयुका क्षीण होना नित्य मरण कहलाता है। यद्यपि संसारमे सभी जीव मरणधर्मा है, परन्तु अज्ञानियोक्को मृत्यु बालमरण और ज्ञानियोंकी मृत्यु पण्डित मरण है, क्योंकि, शरीर द्वारा जीवका त्याग किया जानेसे अज्ञानियोंकी मृत्यु होती है और जीव द्वारा शरीरका त्याग किया जानेसे ज्ञानियों की मृत्यु होती है, और इसीलिए इसे समाधिमरण कहते है। अतिवृद्ध या रोगग्रस्त हो जानेपर जब शरीर उपयोगी नही रह जाता तो ज्ञानीजन धीरे-धीरे भोजनका त्याग करके इसे कृश करते हुए इसका भी त्याग कर देते हैं। अज्ञानीजन इसे अपमृत्यु समझते है, पर वास्तवमें कषायोके क्षीण हो जानेपर सम्यग्दृष्टि जागृत हो जानेके कारण यह अपमृत्यु नहीं बल्कि सल्लेखना मरण है जो उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्यके भेदसे तीन विधियो द्वारा किया जाता है। यद्यपि साधारणत. देखनेपर अपमृत्यु या यह पण्डितमरण अकालमरण सरीखा प्रतीत होता है, पर ज्ञाता द्रष्टा रहकर देखनेपर वह अकाल होनेपर भी अकाल नहीं है।
मनोरम-१.किन्नर नामक व्यन्तर जातिका एक भेद-दे. किन्नरः
२. सुमेरु पर्वतका अपर नाम-दे. सुमेरु । मनोरमा-१ ह पु./१५/श्लोक नं विजया पर मेघपुरके राजा
पवनवेगकी पुत्री थी ।२७। इसका विवाह राजा सुमुखके जीवके साथ हुआ, जिसने पूर्व भवमे इसका हरण कर लिया था।।३३। पूर्व जन्मका असली पति जो उसके वियोगमें दीक्षित होकर देव हो गया था, पूर्व वैरके कारण उन दोनोको उठा कर चम्पापुर नगरमें छोड़ गया और इनको सारी विद्याएँ हरकर ले गया। वहाँ उनके हरि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ जिसने हरिवंशकी स्थापना की।३८-५८१२ बरांगचरित्र/सर्ग/श्लोक-राजा देवसेनकी पुत्री थी। वरांगपर मोहित हो गयी। (१६/४०)। वरागके साथ विवाह हुआ। (२०/४२)। अन्तमें दीक्षा धारण की। (२६/१४)। तपके प्रभावसे स्त्रीलिग छेद देव हुआ। (३१/११४)। मनो वर्गणा-दे० वर्गणा/१। मनो विनय-दे० विनय/१। मनावग-१. वहन कथाकोश/कथा न ७/प्र. मथुरा नगरीमें मुनिगुप्त द्वारा रेवतीको आशीष और भव्यसेन मुनिको कुछ नहीं कहला भेजा ।२०। इस प्रकार इसने उन दोनोकी परीक्षा ली ।२७। २ म पु./७५/श्लोक--पूर्व भव नं.४ में शिवभूति ब्राह्मणका पुत्र था ।७२। पूर्वभव नं. ३ में महाबल नामका राजपुत्र हुआ।१। पूर्व भव नं. २ में नागदत्त नामका श्रेष्ठीपुत्र हुआ६६ पूर्वभव नं. १ में सौधर्म स्वर्गमे देव हुआ।१६२। वर्तमान भवमें मनोवेग होकर पूर्व स्नेहवश चन्दनाका हरण किया।१६५-१७३। मनोवेगा-भगवान चन्द्रप्रभुकी शासक यक्षिणी-दे० तीर्थकर/५/३ । मनोहर-महोरग जातिका एक व्यतर देव-दे० महोरग।
भेद व लक्षण मरण सामान्यका लक्षण। मरणके भेद। नित्य व तद्भव मरणके लक्षण । बाल व पण्डितमरण सामान्य व उनके भेदों के लक्षण । भक्त प्रत्याख्यान इंगनी व प्रायोपगमन मरणके लक्षण।
-दे० सल्लेखना/३। च्युत, च्यावित व त्यक्त शरीरके लक्षण।
-दे०निक्षेप/। ५ अन्य मेदोंके लक्षण।
मरण निर्देश आयुका क्षय हो वास्तव में मरण है।
चारों गतियों में मरणके लिए विभिन्न शब्द । ३ | पण्डित व बाल आदि मरणोंको इष्टता-अनिष्टता।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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