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भक्ति
भक्ष्याभक्ष्य
गो. क /मू./७३/८८ सयला सवित्थर ससंखेव वण्णणसस्थ थय होइ नियमेण 1८८-सकल अग सम्बन्धी अर्थको विस्तारसे वा संक्षेपसे विषय करनेराले शास्त्रको स्तव कहते है।
४. स्तुति आगमोपसहारके अर्थमें ध.६/४,१,५५/२६३/३ बारसंगेसु एक्कगोबसंघारो युदी णाम । तम्हि जो उवजोगो सो विथुदि त्ति घेत्तव्यो । बारह अंगोमेसे एक अगके उपसहारका नाम स्तुति है। उसमें जो उपयोग है, वह भी स्तुति है
ऐसा ग्रहण करना चाहिए। ध ११५,६,१३/६/६ एगंग बिसओ एयपुत्र विसा वा उवजोगो थुदी णाम ।- एक अग या एक पूर्वको विषय करनेवाला उपयोग (या शास्त्र गो. क, ) स्तुति कहलाता है। (गो. क./F./८८)। * प्रशंसा व स्तुतिमें अन्नर-दे० अन्यदृष्टि ।
२. चतुर्विंशतिस्तवका लक्षण मू. आ /२४ उसहादिजिणवराणं णामणिरुत्ति गुणाणुकित्ति च । काऊण
अचिदूण य तिसुद्धपणमो थओ णेओ ।२४- ऋषभ अजित आदि चौबीस तीर्थ करोके नामकी निरुक्तिके अनुसार अर्थ करना, उनके असाधारण गुणोको प्रगट करना, उनके चरणोको पूजकर मन वचनकायकी शुद्धतासे स्तुति करना उसे चतुर्विशतिस्तव कहते है। ( अन, ध./८/३७)। रा वा /६/२४/११/५३०/१२ चतुर्विंशतिस्तव तीर्थकरगुणानुकीर्तनम् ।
-तीर्थक्रोके गुणो का कीर्तन चतुर्विंशतिस्तव है। (चा. सा./५६/१), (भा. पा./टी /७७/२२१/१३)। भ. आ बि./११६/२०४/२७ चतुर्विंशतिसंख्याना तीर्थ कृतामत्र भारत प्रवृत्ताना वृषभादीना जिनवरत्वादिगुणज्ञानश्रद्धानपुरस्सरा चतुर्विशतिस्तवनपठनक्रिया नोआगमभावचतुविशतिस्तव इह गृह्यते । मन इस भरतक्षेत्रमे वर्तमानकालमे वृषभनाथसे महावीर तक चौबीस । तीर्थकर हो गये है। उनमे अर्हन्तपना वगैरह अनन्तगुण है, उनको जानकर तथा उसपर श्रद्धान रखते हुए उनकी स्तुति पढना यह नोआगमभाव चतुर्विशतिस्तव है।
३. स्तवके भेद मू. आ|५३८ णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले य होदि भावे । एसो
थवम्हिणे ओ गिवखेको छपिहो होइ ।५३८ नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव स्तबके भेदसे चौबीस तीर्थकरोके स्तवनके छह भेद है । ( अन ध/८/३८)।
४. स्तवके भेदोंके लक्षण भ. आ./वि /५०६/७२८/११ मनसा चतुर्विंशति तीर्थकृता गुणानुस्मरण 'लोगस्मुज्जोययरे' इत्येवमादीना गुणानां वचन ललाटविन्यस्तकरमुकुलता जिनेभ्य कायेन मनसे चौबीस तीर्थंकरोके गुणोका स्मरण करना, वचनमे लोयस्सुज्जोययरे' इत्यादि श्लोकामे कही हुई तीर्थ कर स्तुति बोलना, ललाटपर हाथ जोडकर जिनेन्द्र भगवान्
को नमस्कार करना ऐसे चतुर्विशतिस्तुतिके तीन भेद होते है। क पा, १/१,१/८/११०/१ गुगाणुसरणबारेण च उबीसह पि तित्ययराणं णामट्ठसहस्सग्रहण णामत्थओ। कट्टिमाकट्टिम जिणपडिमाण सम्भावासम्भावट्ठवणाए विदाण बुद्धीए तित्ययरेहि एयत्त गयाण तिरथयराण तासेसगुणभरियाणं कित्तणं वा ठ्वणाथवो णाम।। चउबीसह पि तित्थयरसरोराण असेसवेयणुम्मुक्काण चउसटूिठ लक्रवणायुगाण सुहस ठाणसं घडणाण' सुवण्णद डसुरहिचामरविराइयाण सुहवण्णाण सरूवाणुसरणपुरस्सर तषिकत्तणं दव्यत्थओ णाम । तेसि जिगणमण तणाण-दसण-विरियसुहसम्मत्तव्याबाह-विरायभावादि गुणाणुसरण गरूवणाओ भावत्थओ णाम । = चौबीस तीर्थ
करोके गुणोके अनुसरण द्वारा उनके एक हजार आठ नामोव । ग्रहण करना नामस्तव है। जो सद्भाव असद्भावरूप स्थापनामे बुद्धिके द्वारा तीर्थक्रोसे एकत्वको प्राप्त है, अतएव तीर्थकरोके समस्त गुणोको धारण करती हैं, ऐसी जिन प्रतिमाआके स्वरूपका अनुसरण (कीर्तन) करना स्थापनास्तव है। जो अशेष वेदनाओ से रहित है
स्वस्तिकादि चौसठ लक्षण चिह्नोसे व्याप्त है, शुभ सस्थान व शुभ सहनन है सुवर्णदण्डसे युक्त चौसठ सुरभि चामरो से सुशोभित हैं, तथा जिनका वर्ण शुभ है, ऐसे चौबीस तीर्थ वरोके शरीरोके स्वरूपका अनुसरण करते हुए उनका कीर्तन करना द्रव्यस्तव है (क्षेत्र व कालस्तव दे० अगला प्रमाण अन ध ) उन चौबीस जिनोके अनन्तज्ञान, दर्शन, वीर्य, और अनन्त सुख, क्षायिक सम्यक्त्व, अव्यायाध, और बिरागता आदि गुणोके अनुसरण करनेकी प्ररूपणा करना भावस्तव
है। (अन. घ./८/३६-४४)। अन. ध /८/४२-४३ क्षेत्रस्तवोऽईता स स्यात्तत्स्वर्गावतरादिभिः । पूतस्य पूर्वनाद्यादेर्यत्प्रदेशस्य वर्णनम् ।४२। कालस्तवस्तीर्थ कृता स ज्ञेयो यदनेहस'। तद्गर्भावतराद्य धक्रियादृप्तस्य कीर्तनम् ।४३ -तीर्थकरोके गर्भ, जन्म आदि कल्याणकोके द्वारा पवित्र हुए नगर वन पर्वत आदिके वर्णन करनेको क्षेत्रस्तव कहते है। जैसे--अयोध्यानगरी, सिद्धार्थ वन, व कैलास पर्वत आदि ।४२॥ भगवान के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकोको प्रशस्त क्रियाओसे जो महत्ताको प्राप्त हो चुका है ऐसे समयका वर्णन करनेको कालस्तव कहते है ।४३
५. चतुर्विंशतिस्तव विधि मू आ /५३६०५७३ लोगुज्जोराधम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहते । कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहि मम दिसंतु ॥५३६। चउर गुलं तरपादो पडिलेयि अजली कयपसत्यो। अब्बबारिवतो वुत्तो कुण दि य चउवीसथोत्तय भिक्खू ।५७३। जगत्का प्रकाश करनेवाले उत्तम क्षमादिधर्म तीर्थ के करनेवाले सर्वज्ञ प्रशसा करने योग्य प्रत्यक्षज्ञानी जिनेन्द्र देव उत्तम अर्हन्त मुझे बोधि दे ।५३६। जिसने पैरोका अन्तर चार अगुल किया है, शरीर भूमि चित्तको जिसने शुद्ध कर लिया हो, अजलिको करनेसे सौम्य भाववाला हो, सब व्यापारोसे रहित हो, ऐसा स यमी मुनि चौबीस तीर्थ करो की स्तुति करे ।५७३। ६. चतुर्विंशतिस्तव प्रकरणमें कायोत्सगके कालका प्रमाण मू आ/६६१ उद्देसे णिद्देशे मज्झाए वंदणे य परिधाणे। सत्तावीसुस्सासा काओसग्गम्हि कादवा ६६१। ग्रन्यादिके आरम्भमे, पूर्ण ताकालमे, स्वाध्यायमे, वन्दनामे, अशुभ परिणाम हानेमे जो कायोत्सर्ग उसमें सत्ताईस उच्छ्वास करने योग्य है । ६ नोट--वास्तवमे इस क्रियाका कोई विशेष विधान नही है। प्रत्येक क्रियामे पढी जाने वाली भक्तिके पूर्व में नियमसे चतुर्विशति रतुति पढ़ी जाती है। अत प्रतिक्रमण, वन्दनादि क्रियाओमे इसका अन्तर्भाव हो जाता है। भक्ष्याभक्ष्य-मलमार्गमे यद्यपि अन्तरग परिणाम प्रधान है, परन्तु उनका निमित्त होनेके कारण भोजनमें भक्ष्याभक्ष्यका विवेक रखना अत्यन्त आवश्यक है। मद्य, मास, मधु व नवनीत तो हिसा, मद व प्रमाद उपादक हानेके कारण महाविकृतियाँ है ही, परन्तु पंच उदुम्बर फल, कन्दमूल, पत्र व पुष्प जातिकी वनस्पतियाँ भी क्षुद्र त्रस जोबोकी हिसा के स्थान अथवा अनन्तकायिक होने के कारण अभक्ष्य है । इनके अतिरिक्त बासी, रस चलित, स्वास्थ्य बाधक, अमर्यादित, सदिग्प व अशोधित सभी प्रकार की वाद्य वस्तुएँ अभक्ष्य है। दालो के साथ दूब व दहोका संयोग होनेपर विदल सज्ञावाला अभक्ष्य हो जाता है। विवेकी जनोको हन सबका त्याग करके शुद्ध अन्न जल आदिवा ही ग्रहण करना योग्य है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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