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जैन लक्षणावली
ग्रहण होता है, इसका नाम संग्रहनय है । जैसे- 'सत् द्रव्य' ऐसा कहने पर द्रव्य, पर्याय व उनके भेद-प्रभेद जो सत्ता सम्बन्ध के योग्य हैं उन सबको द्रव्यत्व से अविरुद्ध होने के कारण एक रूप में ग्रहण किया गया है | अतएव इसे संग्रहनय जानना चाहिये। दूसरा उदाहरण यहां घट का दिया गया है, 'घट' ऐसा कहने पर यद्यपि प्रकृत घट नाम स्थापनादि के भेद से, सुवर्ण व मिट्टी ग्रादि उपादान के भेद से, रक्त-पीतादिरूप वर्ण के भेद से, तथा प्रकार के भेद से अनेक प्रकार के हैं; तो भी वे सब ही 'घट' शब्द के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं । अतः वाचक के अभिन्न होने से उन सबको यह नय एक रूप में ग्रहण करता है । यहां जो 'सत् द्रव्य व घट' ये दो उदाहरण दिये गये हैं उन्हें क्रम से पूर्वोक्त त भाष्य में निर्दिष्ट सर्वदेश व एकदेश के स्पष्टीकरण स्वरूप समझना चाहिए ।
पूर्वोक्त त· भाष्यगत 'प्रर्थानां सर्वेकदेशग्रहणं संग्रह:' इस लक्षण को स्पष्ट करते हुए उसकी हरि. वृत्ति में 'सर्व' शब्द से सामान्य और 'देश' शब्द से विशेष को ग्रहण करके उसका यह अभिप्राय प्रगट किया है कि पदार्थों का सामान्य व विशेष रूप से जो एक रूप में ग्रहण होता है उसे संग्रहनय कहा जाता है । यही अभिप्राय प्रायः उन्हीं शब्दों में उक्त त भाष्य की अपनी वृत्ति में सिद्धसेन गणि ने भी व्यक्त किया है । अनुयोगद्वार की हरि वृत्ति (पृ. ३६ ) में प्रकृत संग्रहनय को स्वभावतः सामान्य मात्र को ग्रहण करने वाला निर्दिष्ट किया गया है।
धवला (पु. १, पृ. ८४) में प्रकृत संग्रहनय के स्वरूप को दिखलाते हुए कहा गया है कि विधि को छोड़कर चूंकि प्रतिषेध उपलब्ध नहीं है, इसलिये 'विधि मात्र ही तत्त्व है' इस प्रकार का जो अध्यवसाय होता है उसे समस्त को ग्रहण करने के कारण संग्रहनय कहा जाता है, अथवा द्रव्य को छोड़कर पर्याय चूंकि पाई नहीं जाती, इसलिए 'द्रव्य ही तत्त्व है' इस प्रकार का जो अध्यवसाय होता है उसे संग्रहन समझना चाहिये । अन्यत्न यहीं पर (पु. ६, पृ. १७० ) पर्याय कलंक से रहित होने के कारण जो सत्तादि के द्वारा सव में अद्वैतता - द्वैत के प्रभाव स्वरूप एकत्व -का अध्यवसाय होता है उसे शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रहनय का लक्षण कहा गया है ।
पश्चात्कालीन ग्रन्थों में प्रायः सवार्थसिद्धिगत लक्षण का अथवा त भाष्यगत लक्षण का ही हीनाधिक रूप में अनुसरण किया गया है ।
संयम - प्राकृत पंचसंग्रह ( दि. १-१२७) में व्रतों के धारण, समितियों के पालन, कषायों के निग्रह, दण्डों के त्याग और इन्द्रियों के जय को संयम का लक्षण कहा गया है । प्रकृत पंचसंग्रह की यह गाथा धवला (पु. १, पृ. १४५) में उद्भुत की गई है तथा गो. जोवकाण्ड (४६५) में वह उसी रूप में श्रात्मसात् की गई है । उक्त लक्षण का अनुसरण प्रायः उन्हीं शब्दों में त वार्तिक (६, ७, ११), धवला ( पू. १, पृ. १४४ व पू. ७, पृ. ७), उपासकाध्ययन (६२४), चारित्रसार (पृ. ३८) श्रमितगति विरचित पंचसंग्रह (१-२३८), मूलाचार वृत्ति (१२-१५६ ) और कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टोका (३६९) में किया गया है । सर्वार्थसिद्धि ( ६-१२) के अनुसार प्राणियों और इन्द्रियविषयों में जो अशुभ प्रवृत्ति हुआ करती है उससे निवृत्त होने का नाम संयम है । इसका अनुसरण त. वार्तिक ( ६, १२, ६) तत्त्वार्थसार ( २ - ८४ ) और पद्मनन्दिपंचविंशति (१-६६ ) में किया गया है।
त. भाष्य ( ६-६) में योगों के निग्रह को संयम का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है। यहां यह स्मरणीय है कि मूल तत्त्वार्थसूत्र (E-४) में सम्यक् प्रकार से किये जाने वाले योगनिग्रह को गुप्ति कहा गया है । प्रकृत भाष्य में संयम को सत्तरह प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है--- १-५ पृथिवीकायिकादि के भेद से (पृथिवीकाfraiयम श्रादि ) ६-६ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के भेद से, १० प्रेक्ष्यसंयम, ११ उपेक्ष्यसंयम, १२ अपहृत्यसंयम, १३ प्रमृज्यसंयम, १४ कायसंयम, १५ वाक्संयम १६ मनसंयम १७ उप
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