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अन्यापदेश
१०१
अन्वादेश
अन्यापदेश - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) देखो अन्यान्य - सर्व० यौ० (सं० ) परस्पर,
" अन्योक्ति ।"
ग्राफ्स में, उभयतः, एक दूसरे से -- मिथः, संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार का अलंकार जिसमें दो वस्तुओं की किसी क्रिया या उनके किसी गुण का एक दूसरे के कारण उत्पन्न होना सूचित किया जाता है । अन्योन्याभाव - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) किसी एक वस्तु का दूसरी न होना । अन्योन्यभेद - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पारस्परिक विरोध, आपस का भेद-भाव । श्रन्योन्याश्रय - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) परस्पर का सहारा, एक दूसरे की अपेक्षा, एक वस्तु के ज्ञान के लिये दूसरी वस्तु के ज्ञान की अपेक्षा, सापेक्ष ज्ञान, परस्पर ज्ञान, ज्ञानाश्रय, अपने ज्ञान से अन्य वस्तु का ज्ञान और अन्य वस्तु के ज्ञान से अपना
ज़ुल्म,
अन्याय - संज्ञा, पु० (सं० ) न्याय विरुद्ध श्राचरण, अनीति, बेइंसाफी, अंधेर अनुचित, विचार, धनरीति । दे० - अन्याव, प्रनियाव । अन्यायी - वि० (सं० प्रन्यायिन् ) अन्याय करने वाला, ज़ालिम, दुराचारी, अधर्मी, दुर्वृत्त, दुष्ट, न्याय-रहित, अनीति करने
वाला ।
अन्यान्य - वि० यौ० (सं० ) अपरापर और-और, भिन्न-भिन्न, पृथक-पृथक, दूसरेदूसरे ।
प्रन्यारा - वि० दे० (सं० अ + हिं०न्यारा) जो पृथक् न हो, जो जुदा या विलग न हो, अनोखा, निराला, खूब, बहुत । " बढ़े बंस जग माँहि अन्यारो " - छत्र० । वि० दे० अनियारा, नुकीला, बाँका । " त्यौं पंचम को भाट अन्यारे "बहु-ब० ।
-छत्र० ।
अन्यारे, ( ब० भा० ) अन्यारो, स्त्री० अन्यारी ।
प्रन्यास - क्रि० वि० (सं० ) अनायास, बिना प्रयत्न किये, अकस्मात् ।
" मोको तुम अपराध लगावत कृपा भई श्रन्यास " सूबे० ।
अन्यून - वि० (सं० ) न्यून जो न हो, बहुत, पर्याप्त, अधिक ।
अन्योक्ति - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) वह कथन, जिसका अर्थ साधर्म्य के विचार से कथित वस्तु के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं पर घटाया जाय, एक प्रकार का अलंकार ( काव्य - शास्त्र ), धन्य के प्रति कहे हुए कथन को अन्य पर घटित करना, ताना, अन्यापदेश |
अन्योदर्य - वि० यौ० (सं० ) दूसरे के पेट से पैदा, सहोदर का विलोम ।
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ज्ञान ।
श्रन्योन्याश्रित -- वि० यौ० (सं० ) एक दूसरे के सहारे, एक दूसरे के आधार पर, परस्पर आधारित ।
अन्वय- संज्ञा, पु० (सं० ) परस्पर सम्बन्ध, तारतम्य, संयोग, मेल, पद्यों के शब्दों या पदों को गद्य की वाक्य-रचना के नियमानुसार यथास्थान या यथाक्रम रखने का कार्य, पदच्छेद, अवकाश, शून्यस्थान, कार्यकारण-सम्बन्ध, वंश, परिवार, ख़ान्दान, एक बात की सिद्धि से दूसरी की सिद्धि का
सम्बन्ध ।
((
तदन्वये शुद्धमति प्रसूतः " ० । अन्वयज्ञ - संज्ञा, पु० (सं० ) वंशावली का जानने वाला, बंदी, भाट ।
अन्वयी - वि० (सं० ) संबंध विशिष्ट, सम्पर्की, पश्चादर्ती, वंशवाला । अन्वह-संज्ञा, पु० ( सं० ) नित्य, प्रत्यह, प्रतिदिन ।
अन्वादेश -संज्ञा, पु० (सं० ) किसी को एक कार्य के कर चुकने पर दूसरे के लिये प्रेरित करना, ( व्या० ) ।
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