Book Title: Visesavasyakabhasya Part 2
Author(s): Jinbhadrasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa Int Lalbhai Dalpatbhai Series No. 14 ACARYA JINABHADRA'S VISESĀVASYAKABHAṢYA WITH AUTO-COMMENTARY PART II Edited by Pt. Dalsukh Malvania n 42150 भारतीय 292 General Editors: Dalsukh Malvania Ambalal P. Shah अहमदाबाद LALBHAI DALPATBHAI BHARATIYA SANSKRITI VIDYAMANDIRA AHMEDABAD-9 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lalbhai Dalpatbhai Series General Editors: Dalsukh Malvania Ambalal P. Shah No. 14 ĀCĀRYA JINABHADRA'S VISESĀVASYAKABHASYA WITH AUTO-COMMENTARY PART II Edited by Pl. Dalsukh Malvania 5:31 LALBHAI DALPATBHAI BHARATIYA SANSKRITI VIDYAMANDIRA AHMEDABAD Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ First Edition : 500 copies Februari 1968 Printed by Svami Tribhuvandas, Ramananda Printing Press, Kankaria Road, Ahmedabad & Published by Dalsukh Malvapia, Director, L. D. Institute of Indology, Ahmedabad-9 This Volume is published with the grant-in-aid from the Ministry of Education, Government of India, New Delhi Price Rupees Twenty Copies can be had of L. D. Institute of Indology Ahmedabad-9. Gurjar Grantha Ratna Karyalaya Gandhi Road, Ahmedabad-1. Motilal Banarasidas Varanasi, Patna, Delhi. Munshi Ram Manoharalal Vai Sarak, Delbi. Mehar Chand Lachbamandas Delhi-6. Chowkhamba Sanskrit Series Office Varanasi. Sarasvati Pustak Bhandar Hathikhana, Rataopole, Ahmedabad-1. Oriental Book Centre Manek Chowk, Ahmedabad, Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचित विशेषावश्यकभाष्यं स्वोपज्ञवृत्तिसहितं कोट्यार्यवादिगणिकृतसंपूर्तिरूपविवरणसहितं च । द्वितीयो भागः संपादक पण्डित दलसुग्व मालवणिया P RO: प्रकाशक लालभाई दलपनभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर अमदावाद-९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रित ग्रन्थाः १. सप्तपदार्थी – शिवादित्यकृत, जिनवर्धनसूरिकृतटीका सह 2,5 CATALOGUE OF SANSKRIT AND PRAKRIT MANUSCRIPTS: MUNI SHRI PUNYAVIJAYAJI'S COLLECTION, PART I Rs. 50-00 PART 11 Rs. 40-0000 लालभाई दलपतभाई ग्रन्थमाला प्रधान संपादक दलसुख मालवणिया अंबालाल मे. शाह ३. काव्यशिक्षा - विनय चंद्रसूरिकृत ४. योगशतक - आचार्य हरिभद्रकृत स्वोपज्ञवृत्ति तथा ब्रह्मसिद्धान्तसमुच्चय सह ६. रत्नाकरावतारिका रत्नप्रभसूरिकृत, प्रथम भाग ७. गीतगोविन्दकाव्यम् - महाकविश्रीजयदेवविरचित, मानाङ्गटीका सह ८-०० ८. नेमिरंगरत्नाकर छंद कविलावण्यसमयकृत ५. १०. विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञवृत्ति सह प्रथम भाग 11. AKALANKA'S CRITICISM OF DHARMAKIRTI'S PHILOSOPHY: A STUDY DR. NAGIN SHAH १२. रत्नाकरावतारिकाद्यश्लोकशतार्थी - वाचक श्री माणिक्यगणि १३. शब्दानुशासन - आचार्य मलयगिरिविरचित 9. 12. 13. Jain Educationa International संप्रति मुयमाणग्रन्थनामावलि 00-8 महामात्य अम्बाप्रसादकृत THE NATYADARPANA OF RAMACANDRA AND GUNACANDRA A CRITICAL STUDY: Dr. K. H. Trivedi 30-00 १५-०० इ - उपाध्याय हर्षवर्धनकृत १०-०० १. कल्पलताविवेक - कल्पपलवशेष निघण्टुशेष - सवृत्तिक श्री हेमचन्द्रसूरि २. ३. रत्नाकरावतारिका भा० २ - रत्नप्रभसूरिकृत, टिप्पण-पत्रिका-गुर्जरानुवाद सह ४. नेमिनाहचरिउ - आ. हरिभद्रसूरि (द्वितीय) कृत ५. अध्यात्मविन्दु - स्वोपज्ञवृत्ति सह ६. न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्ग - चक्रधर कृत ७. मदनरेखा आख्यायिका - जिनभद्रसूरिकृत S. ५-०० ८-०० ६-०० For Personal and Private Use Only 20-00 ८-०० ३०-०० YOGABINDU OF HARIBHADRA TEXT WITH ENGLISH TRANSLATION, EXPLANATION 10, 11. CATALOGUE OF SANSKRIT AND PRAKRIT MANUSCRIPTS, PART III. IV SOME ASPECTS OF RELIGION AND PHILOSOPHY OF INDIA DICTIONARY OF PRAKRIT PROPER NAMES YOGADRSTISAMUCCAYA OF HARIBHADRA TEXT WITH ENGLISH TRANSLATION, NOTES, Etc. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE The present volume is the second part of the Visesavasyakabbasya by Jinabhadragani kşamásramana. In this volume the auto-commentary ends with gatha No. 2318 i.e. with the end of the chapter on the sixth ga nadhara. Kotāryavādigani who has completed the commentary ioforms us that after completing the commentary on the sixth ganadhara Jinabhadragani kşamāśramana died and hence he has completed the commentary (p. 413) We have included the commentary by Kotyārya in this volume from the gatha No. 2319 (p. 413). This commentary by Kotjärya is differnt from that of Kotjåcårya which was published from Ratlam in A, D, 1936 (part I) and in A. D. 1937 (part II). In this volume the spiritual life of Lord Mabăvira, Lord Mahavira's discussions with his Ganadbaras on different topics like the existence of soul etc., his refutation of the views of the Nihnavas and many other subjects are dealt with by the author. Tbe third part of this important text is in press and we hope to publish it very soon. Words fail to express my indebtedness to Muni Shri Punyavijayaji who banded over to me all the material at his disposal, which was absolutely necessary for editing the presett work. My thanks are also due to Pt. Shri Bechardasji Doshi who read the proofs for me and who helped me in correcting the text. I record my hearty thanks to Dr. K. R. Chandra who noted down different readings from gåthā No. 2001. I am thankful to Pt. Ambalal P. Shah who read the proofs. I must also gratefully acknowledge the financial assistance given by the Ministry of Education, Government of India (under the scheme of the publication of rare mss. ) for the publication of this important work. I am sure this publication will prove useful to all those interested in the study of Indian Philosopby in general and Jaina philosophy in particular. L. D. Institute of Indolog! Ahmedabad - 11-2-68 Dalsukh Malvania Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः प्रथमे भाग १. पीठिका (अनुयोगद्वारावतारः) गा० १-१०१० २. अनुगमद्वारे शास्त्रोपोद्घातविस्तारः १०११-१५२८ १-६६ तीर्थनमस्कारादिः १०११-१४८१ ७ उद्देशादिद्वारविधिः १४८२-१४८४ २. उद्देशनिक्षेपः १४८५-१४९४ २. निर्देशनिक्षेपः १४९५-१५२८ द्वितीये भागे ३१ उद्देशादिद्वारविधी ३. निर्गमनिक्षेपः १५२९ निगमनिक्षेपः (नि. १४०) १५३१ पुनः प्रकृतं ऋषभचरितम् (नि०२५१-) १६८९. द्रव्यनिगमः १५३२ चक्रिविवरणम् (नि० २१७-) १७४४ क्षेत्रनिर्गमः १५३५ वासुदेव-प्रतिवासुदेवाः १७४६ कालनिर्गमः १५३९ मरीचेः भावितीर्थकर त्वनिर्देशः (नि. ३.४-) भावनिगमः १७३९ १७६८ निगम श्रीवर्धमानस्य प्रथमसम्यक्त्वलाभः (नि० १४१) १५४७ मरीचिचरितम् (नि. :१३-) १७७७ मरीचिभवः (नि. १४२) १५५० मरीचिभवाः (नि. ३२१-) १७८७ कुलकर निरूपणम् (नि. १४३) १,५१ तीर्थकर नामकमबन्ध कारणानि (नि० ३३४-) ऋषभचरितम् (नि. १६३-१९७) १६७२ १८०० तीथकराणां संबोधनादि सामान्यम् (नि० १९८- श्रीमहावीर चरितम् (नि. ३५०-) १८२१ २५०) १६३६ निर्गमे गणधराणां विवरणम् नि० ४३४) १९८७ निर्गमद्वारे गणधरवादः (नि० ४४१-४८५) १९९४-२४७९ १ जीवास्तित्वसिद्धिः (नि. ४४३) २००३ ४ शून्यवादनिषेधः (नि. ४५३) २११२ २ कमसिद्धिः (नि. ४४५) २०६१ ५ परलोके सर्वथा सदशभावनिषेधः (नि. ४५७) ३ तज्जीवतरछरीरबाद निराकरणम् (नि. १४९) २२२५ २१. ० ६ बन्धमोक्षसिद्धिः (नि. ४६१) २२५७ ___ आचार्यश्रीजिनभद्रकृतं विवरणं समाप्तम् ॥ कोट्यार्यवादिगणिकृतसंपूर्तिरूपविवरणप्रारम्भः । ७ देवसिद्धिः (नि. ४६५) २३१९ १० परलोकसिद्धिः । नि० ४७) २४०४ ८ नारकसिद्धिः (नि. ४६९) २३४० ११ निर्वाणसिद्धिः (नि. ४८१) २४२७ २ पुण्यपापसिद्धिः (नि० ३७३) २३६० गणधराणां क्षेत्रादिकम् (नि. ४८५) २४८. Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. कालस्य क्षेत्रान्तरङ्गत्वेन प्रथमं निक्षेपः २४९८ कालशब्दस्य व्युत्पतिः २५०० ७. कारणनिक्षेपः (नि० ५२१) २५७० द्रव्यादिमेदाः (नि. ५.३) २५.२ समवाय्यादिकारणभेदाः (नि. ..२२ २.७१ १ द्रव्यकाल: (नि. ५०४) २५०३ षटकार कभेदाः २५८४ २ अद्धाकालः २००७ भावकारणविवरणम् (नि. ५२३) २५९१ समयादिरद्धाकाल: (नि० ५०५) २५०८ प्रशस्तभावकारणेन प्रकृतम्-इति निदेशः (नि. ३ अथायुष्ककाल: २५०९ ५२) २५९३ नारकादीनामथायुष्ककालः (नि. ५०६)२५१. सामायिकार्थभाषणे तीथकरस्य कि कारणमिति ४ उपक्रमकालः २५१३ चर्चा (नि. ५२६) २५९५ उपक्रमकालस्य मेदो स माचारी अथायुष्कोपक्रमौ ८. प्रत्ययनिक्षेपः (नि० ५३२) २६०२ सामाचार्यात्रैविध्यम-ओघ-दशधापदविभागेन २. लक्षणनिक्षेपः (नि० ५३४) २६१७ (नि० ५०७) २५१२ १०. नयविवरणे नयलक्षणम् २६५१ अथायुष्कोपक्रमस्य अध्यवसानादयो भेदा: सप्त मूलनयाः (नि. '५३७॥ २६५२ (नि. ५.८) २५१३ नगमादीनां विवरणम् (नि. ५३७) २६५२ ५ देशकालः २५३५, (नि. ५११) २५३६ नयानां सप्त वा पत्र वा शतानि भेदाः (नि. : कालकाल: २५३८, (नि. ५१३) २५३९ ७ प्रमाणकाल: २५४० नयेष्टिवादे व्याख्या न कालिके । प्रायः विभिप्रमाणकालस्य द्ववियम् नि० ५१४) २५४१ नेयव्यवहारः कालिके (नि. ५४३) २०४६ ८ वर्णकालः (नि. ..१५) २५४५ ११. समवतारविचार: (नि० ५४५) २७४६ ९ भावकाल: (नि. ५१६) २.५, जिनमते शब्दोऽर्थो वा नाम्ति नयविरहितः (नि. प्रमाणकालेन प्रकृतम् - इति निर्दिश्य कस्मिन जिनवरोपदेश इति पुनहा (नि० ५१७) २५५४ कालिकत मूढनयम् (नि. ५४५) २७५. देशकालभावानां निर्देश: (नि. ५१८)२५५५ आयव नानन्तरमनुयोगपृथक्त्वम् (नि. ४६) ५. क्षेत्रनिक्षेपः २५६० ६. पुरुषनिक्षेपः (नि० ५२०) २५६२ समवतारे निह्नवविवरणम् २७७८ प्रासङ्गिकी निहवा २७७८ ६ रोहगुप्तः राशित्रयवादी निवः २९३३ निहवगणनादि सामान्यम् (नि. ५६१) २७८२ । गोष्ठामाहिलः अबद्धिकवादी,, २९९१ १ जमालिः बहुरतवादी निहवः २७८८ ८ शिवभूतिः बोटिको .. ३०३२ २ तिष्यगुप्तः जीवप्रदेश कनाती .. ' नियसामान्यम् ३.५.५ ३ आषादः अव्यक्तवादी .. २८३८ अनुमतद्वारम् ३१०१ ५ अश्वमित्रः समुन्दवादी .. २.८७१ किमिति द्वारम् :११६ ५ गङ्गः युगपतिक्रियावादी .. २.. कतिनिधीमति द्वारम् (नि. १८) 11 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वाणुयोगमूलं भासं सामाइयस्स सोतॄणं । होति परिकम्मियमती जोग्गो सेसाणुयोगस्त ॥ विशेषावश्यकभाष्य Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ नमो वीतरागाय ॥ श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितं स्वोपज्ञवृत्तिसहितं विशेषा व श्य क भाष्य म् । द्वितीयो भागः [ उपोद्घाते निर्गमद्वारम् ] णिदिट्ठस्स पसूती सा 'देव्वक्खेतकालभावेहिं । किं तं जीवद्दव्वं पसूतमेयं जतो जध वा ॥ १५२९॥ णिद्दिठ० गाहा । निर्देशोऽभिहितः । तन्निर्द्दिष्टस्येदानों निर्गमोऽभिधेयः । स च भाष्यादेवानुसरणीयो यावद्भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः समवसरणमिन्द्रभूतिरायातः ॥ १५२९॥ खेत्ते कम्मिकाले पुरिसविसेसो व भावतो को सो । खेत्तातितियं णिग्गमभेतो च्चिय छव्विधो जं सो ॥ १५३० ॥ Jain Educationa International मंठवणादवि [ १०० - प्र० ]ए खेते काले तव भावे य । एसो तु णिग्गमस्से णिक्खेवो छव्विधो होति ॥ १४० ॥। १५३१ ।। 'दव्वातो दव्वस्स व विणिग्गमो दव्वणिग्गमो सो य । तिविधो 'सच्चित्ताती तिविधातो संभवो णेयो || १५३२ ॥ पत्र सच्चित्तादो भूमेरंकुरपतंगवष्फाति । किमिगन्भसोणितादी मीसातो थीसरीरातो ॥। १५३३॥ किमिघुणघुणचुण्णाती दारूतो जं व णिग्गतं जेत्तो । दवं विपत्रसतो जध सन्भावोवयारेहि || १५३४ ।। दारं ॥ १ दव्वखे हे । २ तं च जी को है त । ३ विजे । ४ भेउ च्चि को है । ५ मस्सा को जे । ६ सचि हे । ७ धो तो जे । ८ पसो त । ९ तत्तो त । For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ विशेषावश्यकभाष्ये . [नि० १४०खेत्तस्स वि णिग्गमणं सरूवतो णत्थि तं जमक्किरियं । खेत्तातो खेत्तम्मि वि हवेज्ज दवातिणिग्गमणं ।।१५३५॥ उवयारतो व खेत्तम्स णिग्गमो लोगणिवखुदाणं च । लद्धं विणिग्गतं ति य जध खेतं राउलातो त्ति ॥१५३६।। दारं ।। कालो वि दव्वधम्मो णिक्किरिओ तस्स णिग्गमो पभवो । तत्तो चिय दव्यातो पभवति काले व जं जम्मि ॥१५३७॥ उवयारतो व सरतो विणिग्गतो णिग्गओ य तत्तो हैं । अधवा दुक्कालातो ण[१००-द्वि]रो व वालातिकालातो॥१५३८।। दारं ॥ भावो वि दव्यधम्मो तत्तो च्चिय तस्स णिग्गमो पभयो । दव्वस्स व भावातो विणिग्गमो भावतोऽव॑गमो ॥१५३९।। रूवादि पोग्गलातो कसायणाणातयो य जीवातो । णिन्ति पभवंति ते वा तेहिंतो तब्वियोगम्मि ॥१५४०॥ तत्थ पसत्थं मिच्छत्तण्णाणाविरतिभावणिग्गमणं । जीवस्स संभवन्ति य ज सम्मत्तादयो तत्तो ॥१५४१॥ एत्थ तु पसत्यभावप्पसूतिमेत्तं विसेसतोऽधिकतं । अपसत्थावगमो वि य सेसा वि तदंगभावातो १५४२॥ वीरो दव्वं खेत्तं महसेणवणं पमाणकालो य । भावो उ भावपुरिसो समासतो णिग्गमंगाई ॥१५४३॥ सामइयं वीरातो महसेणवणे पमाणकाले य । भावपुरिसा हि भावो विणिग्गतो वक्खमाणोऽयं ।।१५४४॥ • इच्चेवमाति सव्वं दव्याधीणं जतो निणस्सेव । तो णिग्गमणं वोत्तु वोच्छं सामाइयस्स ततो ॥१५४५।। 'मिच्छत्तातितमातो स णिग्गतो जध य केवलं पत्तो । 1 व जे को। २ °णिकुडा त । ३ 'लाट ति को हे। ५ विगमो त । ५ रूवाई हे । ६ य जे हे । ७ सामा त । ८ आचार्य हेमचन्द्रमलधारिणा नियुक्तित्वेनानिदिष्टा तथापि हे. मुद्रितमूले नियुक्तित्वेन कथं स्वीकृतयं गाथा इति न ज्ञायते । आ.हरिभद्रमलयगिरिभ्यामपि न व्याख्यातेय गाथा । दीपिकायामपि नास्ति व्याख्या अस्याः गाथायाः । को मुद्रिते भाष्यगाथात्वेनैव स्वीकृता । For Personal and Private Use Only Jain Educationa Interational Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० १४४ ] निर्गमद्वारम् । जय पमूतं तत्तो सामाइयं तं पवक्खामि ॥। १५४६॥ पन्थं किर देता साधू अडविविप्पणद्वाणं । सम्मत्तमभो बोद्धव्वो वैमाणस्स || १४१ ।। १५४७।। "अरविदेहे गामस्स चिन्तओ रायदारुणमणं । साधू भिक्खणिमित्तं संत्था होणे तहिं पासे || १५४८ ।। दाsoण पंथणणं अणुकंप गुरूणं कधण सम्मत्तं । सोमे वणो पलिता ततो चुतो मिरियी ।। १५४९ ॥ "इक्खागकुले जातो इक्खागकुलस्स होति उप्पत्ती । कुलकरेसातीते भरस्स तो मिरियिति ॥ १४२ || १५५० ॥ ओसप्पिणी इमी से ततियाए समाए पच्छिमे भाए । पलितो भागे सम्मि तु कुलकरुप्पत्ती ॥१४३॥१५५१॥ "अइभर मज्झतिभागे गंगसिंधुमज्झम्मि | एत्थ बहुझसे उप्पण्णा कुलकरा सत्त || १४४ || १५५२॥ इन आरम्य गा० १ तह पंत को । २ नियुक्तिगाथा को चू हा मदी । अत्र "इत ऊर्ध्व' पंथं किर देसित्ता' इत्यादिका सवां अपि निर्गमवक्तव्यता सूत्रसिद्वैव । यच्चेह दुरवगमं तद् मूलावश्यकविवरगावगन्तव्यं तावत् यावत् प्रथमगणधर वक्तव्यतायां भाष्यं जीवे तुह संदेहो " इति कृत्वा मलधारिणा नोद्धृता इत आरभ्य गा० २००३ पर्यन्तम् । ३ देसि ह म दी । ४ वृद्ध को चहा मदी । ५ १९९२ पर्यन्तं सर्वा अपि गाथा भाग्यत्वेनैव स्वीकृताः कोमुद्रिते । द्रष्टव्याः को० गा० १५५८-२०१६ | "गाथाद्वयमाह भाष्यकार:-" हा । "गाथाद्वयमन्तर्भाध्यकृदाह" म । “भाष्यगाथाद्वयम्"- दी । ६ सत्थो जे । ७ दागंण जे । ८ गुरू क' हा दी । ९ उ सुरो तओ मरिई को । उ सुरो महिइडीओ हा म । उयूरो मिहड्डीओ दी । १० इतः पूर्व को० प्रती भाष्यत्वेन, हा म दा प्रतिषु च निर्युक्तत्वेन गाथाद्वयं दृश्यते । तद्यथा 66 'लक्षूण य सम्मत्तं अणुकंपाए उ सो सुविहियाणं । भारaratri देवो वेमाणिओ जाओ || चऊण देवलगाओ इह चैव य भारहंमि वासंसि । इक्खागकुळे जाओ उसभमुओ मरीइ ति ||" -- २८५ १४४-१४५ को गा० १९६०-६१ | हा० गा० १४० १५८ म गा० गा० १४७ - १४८ । एतच गावादयं नियुक्तौ प्रक्षिप्तं प्रतिभाति । इतः परं नियुक्तिगाथाया निर्णयः प्रायः आचार्य हरिभद्रमनुसृत्य कृतो इष्टव्यः | ११ सेऽईए हा दी। मंडलीएम । १२ "मस्य भाए जे । १३ अद्ध' हा म दी । १४ ल्ले तियभा को । 'ल्लुतिभा' हा दी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० १४५ 'पुव्वभव जम्म णाम' प्पमाण संघतणमेव संद्वाणं । for आयुभागा भवणोवातो [१०१ - द्वि] य णीती य || १४५ || १५५३॥ ૨૮૬ अवरविदेहे दो वणियवयंसा माइ उज्जएँ चेव । कालगता इध भर हत्थी मणुयो य आयाती ॥ १४६ ॥ १५५४ ॥ द सिणेहकरणं गयमाभणं च णामणिव्वती । परिहाणि धि को सामत्थण विण्णमण हत्ती || १४७ || १५५५ || पत्थ विलवाण चक्खुम जसमं चउत्थमभिचन्दे | तत्तो य पसेणईया मरुदेवे चेव णाभी य ॥ १४८॥१५५६॥ व धणुसताई पढमो अ य सत्तद्ध सचमाई च । छ च्चेत्र अछट्ठा पंचसता पण्णवीसा य ॥ १४९ ॥१५५७॥ 10 वज्जरिसभसंघतणा समचतुरंसा य होन्ति संठोणे । वणं पिय वोच्छामिं पत्तेयं जस्स जो आसी || १५० ।। १५५८ ॥ चक्मजमं च पसेणई य एते पियंगुवण्णाभा । अभिचंदो ससिगोरो णिम्मलकणगप्पभा सेसा ॥ १५१ ॥ १५५९ ॥ चंदजस चन्दकन्ता सुरूवपडिरूवचक्खुकन्ता य । सिरिकता मरुदेव इत्थीणं णामवेज्जाई ॥ १५२॥१५६०॥ संघणं [ १०२] संठाणं उच्चत्तं चैव कुलकरेहि समं । वणेण एगवण्णा सच्चाओ पियंगुण्णाओ || १५३ ॥ १५६१॥ पलितोत्रम सभाओ पढमस्सायुं ततो असंखेज्जा । ते आणुपुव्विीणा पुव्वा णाभिस्स संखेज्जा || १५४॥१५६२॥ १ एमा गाथा अस्याथ व्याख्यारूपाः सर्वा गाथाः १५७१ गाथापर्यन्तम् भाष्यरूपा एव इति मलयगिरिपादानां मतमिति भाति यस्मात् तैः " अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं भाष्यकार: स्वयंमेव वक्ष्यति " इति व्याख्यानात् । द्रष्टव्या म० गा० १४९ व्याख्या । २ 'मं पमा को हा । ५ रुह को हा मदी । ६ ई को । इए हा म दी । संडा जे । १२ वा कुलगरपत्तीण संहा जे । म दी । ३ उज्जुगे म० । ४ आयाया को महा । निष्पत्ती को हा मदी ९ देवोजे । १० वीमं तु णामाणि को । 'देवी कुल गेहि को हा म । ८ हा दी। वीसाओ म। ११ नामाई हा म दी । १३ Jain Educationa International ७ For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० १६३] निर्गमद्वारे कुलकरविवरणम् । जं चेव आयुअं कुलगराण तं चेव होति तासि पि । जं पढमगस्स आयुं तावतियं होति हत्थिस्स ॥१५५।।१५६३॥ जं जस्स आयुगं खलु तं दसभाए समं विभइतूणं । मझिल्लीतिभाए कुलकरकालं वियाणाहि ॥१५६॥१५६४॥ पढमो य कुमारत्ते भागो चरिमो य वुड्ढभावम्मि । दारं । ते पतणुपेज्नदोसा सव्वे देवेसु उववण्णा ॥१५७॥१५६५॥ दो चेव सुवण्णेमुं उदधिकुमारेसु होन्ति दो चेव । दो दीवकुमारेमुं एगो णागेसु उववण्णो ॥१५८॥१५६६॥ . हत्थी छ चित्थीओ णागकुमारेसु होन्ति उववण्णा । एगा सिद्धिं पत्ता मरुदेवा णाभिणो पत्ती ॥१५९॥१५६७॥ हक्कारे मक्कारे धिक्कारे चेव डण्डणीतीओ । 'बोच्छं तासि विसेसं [१०२-द्वि०] अंधक्कम आणुपुबीए॥१६०॥१५६८। पढर्मवितियाण पढेमा ततियचउत्थाणे अभिणवा वितिया । पंचम छहस्स य सत्तमस्स ततिया अभिणवा" तु ॥१६१।१५६९।। सेसा तु "डंडणीती माणवकणिधीउ होति भरधस्स । उसभस्स गिहावासे असक्कतो आसि आहारो ॥१६२॥१५७०॥" "परिभासणा तु पहमा मण्डलिवन्धे" य होति "वितिया तु । चरगछविछेदे य उ भरधस्स चतुविधा णीती ॥१५७१।। णाभी विणीतभूमी मरुदेवी उत्तरामु साढा य । राया य वैइरणाभो विमाण सव्वदृसिद्धातो" ॥१६३॥१५७२॥ १ लठाति जे। २ चरो हा दी। ३ हुन्ति हा दी। ४ देवी हा म दी। ५ दंडनीईओ हा दी । दंडणीतौउ को । दंडनीतीओ म । ६ वुच्छं हा दी। ७ जहक्क हा म । जइक्क, दी। ८ °मवीयाण हा दी। ९ पढमो जे । १० °ण वि॰ जे। ११ वाओ म । १२ दंड को हा म दी । १३ निहीओ हा दी। १४ आचार्यहरिभद्रेण स्पष्ट मूलनियुक्तित्वेनोक्तेयं गाथा । १५ आचार्यहरिभद्रण दीपिकायां च नि दष्टेयं गाथा। १६ बंधमि हौं को हा। बंधो उ हो म । १७ बीया हा म दी। १८ 'छेआई भ हा म दी । १९ देवी हा म दी । २० उत्तरा य सा हा दी। उत्तरा असा म। २१ वयर म । २२ °द्धाउ को । अस्याः अनन्तरं For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ विशेषावश्यकभाष्ये नि० १६४धणसत्यवाघोसण जतिगमण अडवि वास ठाणं च । बहुवोलीणे वासे चिन्ता घतदाणमासि तता ॥१६४॥१५७३।। उत्तरकुरु सोधम्मे महाविदेहे महब्बलो राया । ईसाणे ललितंगो महाविदहे वइरजंघो ॥१५७४॥ उत्तरकुरु सोधम्मे विदेह तेगिच्छियस्स तत्थ सुतो । रायमुतसेठिमच्चे" सत्थाहसुता वयंसा से ॥१६५॥१५७५॥ वेज्जसुत[ १०३ प्र० स य गेहे किमिकुठोवद्दतं जतिं दह । . 'वन्ति य ते वेज्जसुतं करेहि एतस्स तेगिच्छं ॥१६६।१५७६॥ 'तेल्लं तेगिच्छिसुतो कंवलयं चंदणं च वाणियो । दातुं अभिणिक्खंतो तेणेव भवेण अंतकडो ॥१६७॥१५७७॥ साधु तिगिच्छिनृणं सामण्ण देवलोगगमणं च । पोण्डरिगिणिए तु "चुता ततो "सुता व ईरसेणस्स ॥१६८॥१५७८॥ पढमेत्थ "वइरणाभो वाहु सुवाहू य पीढमहिपीढे । तेसिं पिता तित्थकरो णिक्खंता ते वि तत्थेव ।।१६९॥१५७९॥ पढमो चोदसपुव्वी सेसा एक्कारसंगवी" चतुरो । वितिओ वेयावच्चं कितिकम्मं ततियओ कासी ॥१७०।१५८०॥ केवलं मलयगिरिणा एका अधिका गाथा व्याख्याता-तद्यथा धण मिहुण सुर महब्बल ललियंग य वइरजंघ मिहुणे य । सोहम्म विज्ज अच्चुय चक्की सब्वह उसमे य । १ मण हा । २ तदा इत्यर्थः । तया को हा म दो। ३ गार्थयं सर्वामु प्रतिषु उपलभ्यते । आचार्यहरिभद्रास्तु “इयमन्यकर्तृकी गाथा सोपयोगा च" इत्याहुः । “एषा अन्यकृता गाथा' इति सूचयन्ति दीपिकाकाराः । ४ तस्स जे । ५ °मच्चा को हा म दी । ६ बिति दी । ७ विज म हा दी। ८ तिल्लं हा दी। ९ पुण्डरगिगीए को। पुण्डर हा दी। १० सुता जे। जुया को । ११ चुता जे । १२ वयर म । १३ 'मित्थ हा दी । मोत्थ म। १४ चउदस हा म दी। १५ गविउ हा दी । १६ वेता जे। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० १७८ ] निगमद्वार ताथकरनामकमचचा | भोगफलं बाहुबलं पसंसणा जे इतर अचित्तं । पढमो तित्रतं वीसहि ठाणेहि कासी य ॥ १७१ ॥१५८१ ॥ अरहंत सिद्ध पत्रयण गुरू थेर बहुस्सुते तवस्सीसु । वच्छताय तेसिं अभिक्खणाणोवयोगे य ॥ १७२ ।। १५८२ | दंसण विre आवस्सए य सीलव्वते णिरतियारो । खणलवतवच्चिया[ १०३- द्वि० ] ए वेयावच्चे समाधी य ॥ १७३॥। १५८३ || : अव्वाणगहणे सुतभती पत्रयणे पभावणता । एतेहिं कारणेहिं तित्थकरतं लभति जीवो ॥ १७४॥१५८४॥ पैढमेण पच्छिमेण य एते सव्वे वि फासिता 'द्वाणा | मज्झिमहिं जिणेहिं एक्कं दो तिष्णि सव्वे वा ।। १७५ ।। १५८५|| उववातो सव्व सवेसिं पढमओ चुतो उसभो । रिक्खेणीसाहाहिं असाढवहुले चउत्थी || १७६ || १५८६ ।। जम्मणे णाम वड्डीय जातीसरणे ति य । विवाहे य अवच्चे" अभिसेये रज्जसंग ॥ १७७॥१५८७॥ "चेतबहुलमी जातो उभो असाढणक्खते । जम्मणमहो य सव्वो णेतव्वो जाव घोसणयं || १७८ || १५८८ ।। १ जिह हा दी । २ यत्ता को । ३ थिर जे । ४ सुं हा मदी । ५ लया एएसि हा दी । लया य एसि म । ६ वेता' जे । ७ पुरिमेग हा म दी । ८ ठाणा को हा मदी । ९ अत्रानन्तरं को प्रतावेव एका गाथा अधिका वर्तते । यथा"नाभी विणीयभूमी मरुदेवा चेव होइ उसभो य । राया य वरनाभो विमाण सव्वहसिद्धाउ || को० गा० १९९८ ।। अस्याः अनन्तरं गाथाद्वयं को हा म दी प्रतिषु अधिकम्-यथा" तं च कहं वेइज्जइ अगिला धम्मदेसाईहिं । बज्झ तं तु भगवओ तयभवासक्कत्ताणं || नियमा मgrafe इत्थी पुरिसेयरो य सुहलेसो । आसेवियवलेहिं बीसाए अण्णयर एहिं ।। " ९८९ Jain Educationa International को गा० १५९९ - १६०० । हा० १८३-४ | म० १८०-१८१ । दी १८३-१८४ १० ०ण असा को हा म दी । ११ ०८चे अ अभि को । १२ 'चित्त' हा दी। For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये हमे आसगा य भिंगार टालियंटो य । चामर जोती रक्खं करेन्ति एतं कुमारीओ ॥ १७९॥१५८९ ॥ देणगमि वरिसे सक्कागमणं च वंसठर्वेणट्टा | जं च जधा जम्मि वए जोगं कासी य तं सव्वं ॥ १८० || १५९० ॥ सक्को सवणे इक्खु अगू तेण होन्ति इक्खागा । " आहार मंगुलीए विहिंति देवा मणुष्णं तु ॥ १८१॥ १५९१॥ [१०४ - प्र० ] सो वढति भगवंतो " दियलोगचुतो" अणोवम सिरीओ । देवगणसंपरिवुडो णंदाय सुमंगलासहितो || १८२ ॥ १५९२॥ असितसिरयो सुणयणो" विवोट्ठो धवलंत पंतीओ । वरपउमग भगोरो "फुल्लुप्पल गंधणिस्सासो ॥ १८३ ॥ १५९३ ॥ जातीसरो" तु भगवं अँप्पपिडितेहि तिहि तु णाणेहि । "कंतीय य बुद्धीय य अंग्भतिओ तेहिं मणुयेहि ॥ १८४॥१५९४॥ पढमो अकालमच्चू तर्हि तालफलेण दारओ तु' हतो | कण्णा य कुलगरे सिट्ठे गहिता उसभपत्ती ॥। १८५ ।। १५९५ ॥ भोगसमत्थं गातुं वरकम्मं तस्स कासि देविंदो । दो वरमहिलाणं बहुकम्मं कासि देवीओ || १८६ ॥१५९६॥ छपुव्वतहस्सा पुव्विं जायेस्स ' जिणवर्रिदस्स । २३ २९० २२ तो भरहवंभिसुन्दरि बाहुबली चेव जायाई ॥ १८७॥१५९७॥ सुमंगला भरहो वंभी य मिहुणयं जायं । देवीय सुनंदा बाहुबली सुंदरी चैत्र || १५९८ ॥ Jain Educationa International [ नि० १७९ १ तालियंटा को हा दी। २ एषा गाथा म प्रतौ नास्ति । ३ देसूणग च वासं सक्का को । देसूण च वरिसं हा म दी । ४ वणाय हा म दी । ५ जंच जहा जिणजोग्गं सव्वं तं तस्स कासी य को । आहारमंगुलीए ठवंति देवा मणुष्णं तु हा दी। आहार, ...... लीए विहिति देवा...... म । ६ खाया जे । ७ जं च जहा जंमि वए जोगं कासी य तं सव्वं हा दी म । -इत्येवं गा० १५९०-९१ तमयोरुत्तरार्धयोर्व्यत्ययः दृश्यते । ८ विहेंति को । ठवंति दी हा । ९ अह वइ सो भयवं हा मदी । १० दिव को । ११ ° तो य अणुव' म १२ दाए म को। दाइ हा दी । १३ बिंदु हा दी। विंव। जें । १४ फुलु' जे । १५ नीसासो को हा मदी । १६°रो य को । °रो अ हा दी। १७ अप्परिवडिएहिं को हा मदी । १८ 'तीहि हा दी । ती बु म। तीए हापा १९ द्धीहि हा दी। डीए म । डीइ हापा २० अन्महिओ को हा दी। अम्भहितो म । २१ ओ पहओ हा दी । २२ रेहि यसि म । २३ इयानेव गाथांशः उद्धः जे प्रतौ । आचार्य हरिभद्र - मलयगिरिदीपिकाकारैः मूलभाष्यत्वेन संमता । २४ For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० १९७] निर्गमद्वारे ऋषभवरितम् । . २९१ अउणापण्णं जुअले' पुत्ताण सुमंगला पुणो पसवे । णीतीण अतिकमणे निवेयणं उसभसामिस्स ॥१८८॥१५९९॥ राया करेति दण्डं सिढे ते बेति' अम्ह वि स होउ । मग्गह य कुलगरं सो य वेति उसभो य भे राया ॥१८९॥१६००। आभोएतुं सको उवागओं तस्स कुणइ अभिसेयं । 'मउडाइअलंकारं नरिंदजोग्गं च से कुणइ ॥१९०॥१६०१॥ भिसिणीपत्तेहितरे घेत्तूणुदयं छुहन्ति पाएमु । साधु विणीता पुरिसा विणीतनगरी अध णिविट्ठा ॥१९१॥१६०२॥ आसा इत्यो गावो गहिताई रज्जसंगहणिमित्तं । 'धेतूग एवमादी चतुविधं संगई कुणति ॥१९२॥१६०३॥ उगा भो[१०४--द्वि०][गा] राइण्ण खत्तिया संगहो भवे चतुधा । आरक्खि गुरुवयंसा सेसा जे खत्तिया ते तु ॥१९३।।१६०४॥ आहारे सिप्पकम्मे य मामणा य विभूसणा । लेहे गणिते य रूवे य लक्खणे माण पोतए ॥१९४॥१६०५।। ववहारे णीति जुद्धे य ईसत्थे य उवासणा । तिगिच्छा अस्थसत्थे य बंधे घाते य मारणा ॥१९५॥१६०६॥ जण्णूसवसमवाए मंगले कोतुए ति य । वत्थे गन्धे य मल्ले य अलंकारे तधेव य ॥१९६ ॥ ॥ १६०७॥ चोलोवण विवाहे य दत्तिया मडगपूयणा । ज्झावंगा थूम सद्दे य छेलावणग पुच्छणा ॥ १९७ ॥ १६०८ ॥ "आसी य कन्दाहारा मूलाहारा य "पत्तहारा य । पुप्फफलभोइणो वि य जइया किर कुलगरो उसभो ॥ १६०९ ॥ १ इयानेव गाथांश उद्धृतः जेप्रतौ । २ गमइक' हा दी। ३ विति हा i . 'ओ कुजे । ५ उत्तराध नोडतं जेपतौ । ६ °रे उदय घेनुं छुभंति को । °रे उदयं पित्तं छु हा दी । "रे उदयं घेनं छु म। ७ घित्तूग हा दी। ८ खेत्ति' जे । ९ झाव. को हा मदी। १. आचार्य हरिभद्दीपिकाकाराभ्यां मूलभाष्यत्वेन सम्मताः गाथाः १६.९ १६२५ । ११ पत्ता. जे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०१९७आसी य इक्खुभोई इक्खागा तेण खत्तिया होन्ति । सणसत्तरसं धणं आमं ओमं च भुंजीया ॥ १६१० ॥ ओमं 'पाहारेन्ता अजीरमाणम्मि ते जिणमुंवेन्ति हत्थेहिं घंसितूणं आहारेध त्ति ते भणिता ॥ १६११।। आसी य पाणिघंसी ती[१०५-५० ]मिततंदुलपवालपुडभोई । हत्थतलपुडाहारा जइया किल कुलकरो उसभो ॥ १६१२ ॥ घंसेतूण य तीमणघसणतिम्मणपवालपुडभोई । घंसणतिम्मपवाले हत्थपुडे कक्खसेए य ॥ १६१३ ॥ अगणिस्स य उठाणं दुमघसा भीतपुरिसपरिकधणं । पांसेहि परिच्छिन्दध गेण्हध पागं च तो कुणध ॥ १६१४ ॥ पक्खेव डहणे ओसधि कधणं णिग्गमण हत्थिसीसम्मि । पयणारंभपत्ति"ताधे कासी य ते मणुया ॥ १६१५॥ पंचेव य सिप्पाई घड लोहे चित्त पंत कासवए। "एकेकस्स य "एत्तो वीसं वीसं भवे भेता ॥ १६१६ ॥ कर्म किसिवाणिज्जादि (दारं) मामणा जा परिग्गहे ममता । पुवं देवेहि कता विभूसणा मंडणा गुरुणो ।। १६१७ ॥ लेहं लिवीविधाणं जिणेण वभीय दाहिणकरेण । गणितं संखाणं सुन्दरीये" वामेण उवदिटुं ॥ १६१८॥ भरधस्स रूवकम्मं (दार)[१०५-द्वि०] णरातिलक्षणमधोदितं बलिणो।दारं। माणुम्माणवमाणं गणिमपमाणादि वत्थूणं ॥१६१९।। ।।दारं। ., रता हा दी । २ ० मुविति हा दी। ३ 'रेधन्ति जे । रेहनि को हा म दी ४ तिमियत० को । तिम्मिअतं. हा म दी । ५ तिम्मण को हा म दी । ६ °सा दटुं भीयपरिक को हा म दी।७ पासेसुं हा म दी । ८ च्छेनुं गें को। गं ततो कु म। १० णमोस हा मदी। ११ वत्ती को । 'वित्ती हा म दी। १२ इक्कि हा दी। १३ इत्तो हा दो । १४ भीए को म। भीइ हा दी । १५ रीए को । दी म । 'रोह हा.. १६ मवों को। महोइयं हा म दी । १७ णं पमागगणिमादिव को। °माणप्पमाणगणिमाइव हा दी। णं पमाणगणिमाइव म। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० १९७] ऋषभचरितम् । 'मणयाती हारातिसु पोता तथ सागरम्मि बहणाई । दारं । वत्रहारो लेहवणं कज्जपरिच्छेदणत्थं वा ||१६२० || || दारं ॥ णीती हकारादी सत्तविधा अधव साममेतादि । जुद्धा बाहुजुद्धातिया बट्टातियां च || १६२१ || || दारं ॥ * सत्थो धणुवेतो ( दारं ) उवासणा मंसुकम्ममादीया । गुरुरायातीणं वा उवासणा पज्जुवासणता ॥ १६२२|| || दारं || रोगहरणं तिमिच्छा ( दारं ) अस्थागमसत्यमत्यसैत्थं ति । दारं । णिगलातिजमो बन्धो (दारं) घातो दण्डातिताँलणता ||१६२३|| || दारं ॥ मारणता जीववध ( दारं) जण्णा णागातियाण पूजाओं । दारं । इंदातिमहा पायं पतिणियता ऊसना होंति ।। १६२४ || || दारं || समवायो गोडीणं गामादीणं व संपसारो वा । दारं । त मंगलाई 'सोत्थियसुत्रण [ १०६ - प्र० ] सिद्धत्थयादीणि ।। १६२५ || | दारं । "पुव्वं कताईं पेंणो सुरेहिं रक्खादिकोतुगाई च दारं । 'वैत्थमालंकारा केसभूसा "य ।। १६२६॥ तं दण पवत्तोऽलंकारेतुं जणोऽवैसेसो वि । दारं । विधिणा चलाकम्मं वालाणं चोलयं णाम । १६२७॥ ॥ दारं ॥ उवणणं तु कलाणं गुरुर्मूलं साधू व ततो धम्मं । 20 "घेतं हवन्ति सा केई दिक्खं पवज्जति ॥१६२८ ॥ ॥ दारं || द कतं विवाह जिणस्स लोका विकातुमारदी || दारं ॥ गुरुदत्तिया य कण्णा परिणिज्जंते ततो पायं ॥१६२९॥ दत्ति व दाणमुस देन्तं दठ्ठे जणम्मि वि पर्यंत्तं । जिभिक्खादाणं पिय छं भिक्खा पत्ता उ || १६३०|| || दारं ॥ २९३ १ मणियाई दोराइसु म हा दी । मणिमादी दोराइ को । २ याणं च ॥ को म "याणं वा ॥ हा दी । ३ ईसत्थ को हा म दी । ४ 'दी य को । ५ सत्था जे । ६ °त्थित्तिम। ७ 'ताई' हा दी । ८ पूया उ को । ९ सत्थि हा दी । १० या दोणि को । गामि । ११ पुत्र हा दी । १२ गुणो को । १३ कोनुवाई जे । १४ वच्छ जे । १५ साई हा मदी । १६ णोऽवि से' को हा मदी । १७ चोलया हा दी । १८ मूले हा मदी । १९ साहुगो त को हा दी। साधुगो म । २० घितु हा दी । २१ घाए जे । पाएको । २२ पवत्तं को हा मदी । २३ ताओ हा मदी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० १९८मडयं मतस्स देहो तं मरुदेवीए पढमसिद्धोत्ति । देवेहिं पुरा महितं (दारं) झामणता अग्गिसक्कारो ॥१६३१॥ सो जिणदेहादीणं देवेहि कतो चिंतातु धूभा य दारं। सदो य रुग्णसदो लोको वि तओ तथा पगतो ॥१६३२॥ ॥दारं॥ छेलावणमुक्कट्ठादि बा[१०६-द्वि०]लकीलावणं च सेंटाई । 'इक्खणियादि रुतं वा (दारं) पुच्छा पुण किं कथं कज्ज ?॥१६३३॥दार। अधव णिमित्तादीणं सुहसइयादि सुहदुक्खपुच्छा वा । इच्चेवमादि पाएणुप्पण्णं उसमकालम्मि ॥१६३४॥ ॥दारं॥ किंचिच्च भरधकाले कुलकरकाले वि किंचिदुप्पण्णं । पभुर्णां तु देसिताई सव्वकलासिप्पकम्माई ॥१६३५॥ उसभचरिताधिकारे सव्वेसि जिणवराण सामण्णं । संबोधणाति वोत्तुं "वोच्छिति पत्ते यमुसभस्स ॥१९८॥१६३६॥ संबोधण परिच्चाए पत्तेयं उवधिम्मि य । अण्णलिंगे कुलिंगे य गामायार परीसहे ॥१९९॥१६३७॥ जीवोवलंभे "मुतलंभे पच्चक्खाणे य संजमे । छतुमत्थतवोकम्मे उप्पैंता णाणसंगहे ॥२००॥ ॥ १६३८॥ तित्थं गणो गणधरा" धम्मोवायस्स देसगा। "परियाय अन्तकिरिया कस्स केण तवेण वा ॥२०१॥१६३९।। "सव्वे सयं पवुद्धा लोगंतिययोधिया य "जीतं ति दारं। सव्वे सि परिच्चाओ संवच्छरियं महादाणं ।।२०।।१६४०॥ रज्जादिच्चाओ वि य [१०७.०] (दारं) पत्तेयं को व "केत्तियसमग्गो। को कस्सुवधी "कोऽणुणातो केण सीसागं ॥२०३।१६४१॥ १ वीइ हा दी। २ दु त्ति हा दी। ३ चिया य धू को। 'सु थूभाई हा दा । चिता सयूमाय म । ४ णं व मेंढदो जे । ५ इंखिणियाइ हा दी। खिणियादि म। ६ कहिं को म । ७ °चि उण' को हा मदी। ८ 'णा य हा दो । ९ वुत्तुं हा दी। १० वोच्छिहि को । बुच्छं हा दी ।। योच्छ म । ११ लंभ सुय' हा म दी । १२ उप्पया को म । उप्पाया हा दी । १३ गणहरो हा दी। १४ परियाग जे । १५ सव्वे वि सयंबुद्धा । को हेा दी म । १६ जीएण हा दी । १७ कति हा दी। कित्ति म । १८ को वाऽणु' को हाम दी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० २०५] तीर्थकराणां संबोधनादि सामान्यम् । 'एगो भगवं वीरो पासो मल्ली य तिहि तिहि सतेहिं । भगवं पि वासुपुज्जो छहिं पुरिससतेहिं णिक्खंतो ॥२०४॥१६४२ ॥ उग्गाणं भोगाणं रोइण्णाणं च खत्तियाणं च । चतुहि सहस्से सभी सेस साहस्सिपरिवार || २०५ ।। १६४३॥ १. इतः पूर्व गाथादशकमधिकं वर्तते हामदीप्रतिषु - सारस्सयमाइच्चा वही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अव्वावाहा अग्गिच्चा चैव रिट्ठा य ॥ एए देवनिकाया भयवं बोर्हिति जिणवरिंदं तु । सव्वजगज्जीवहिअं भयवं तित्थं पवतेहि || संवच्छरण होही अभिणिक्यमणं तु जिणवरिंदाणं । तो अत्यसंपयाणं पत्रत्तर पुव्त्रसूरंमि ॥ एगा हिरण्णकोडी अहेव अणूनगा समसहस्सा । सूरोदमाईयं दिज्जइ जा पायरासाओ || सिंघाडगतिगचउकचच्चरच मुहमहापपदे । दारे पुरवराणं रत्थामुहमज्झयारेसुं ॥ वरवरिआ घोसिज्जर किमिच्छत्रं दिज्जए बहुविहीअं । सुरअसुरदेवदाणवनरिंदमहिआण निक्खमणे || तिण्णेत्र कोडिसया अट्ठासी च हुंति कोडीओ । असि च सयसहस्सा एवं संच्छरे दिण्णं ॥ ari aarti पास मल्लि च वासुपूज्जं च । एए मुत्तण जिणे अवसेसा आसि रायाणो ॥ रायकुलेसु वि जाया विसुद्ध से खत्तिअकुले | न य इच्छियाभिसेआ कुमारवा संमि पव्वइआ ॥ ( अत्र " न यइत्थियाभि” इति हाप्रतावेवाशुद्धः पाठः ) संत कुंथू अ अरो अरिहंता चैव चकवड़ी अ । असा तित्रा मंडलिया आसि रायाणो ॥ हा गा० २१४-२२३ । म. २३६ - २४५ | दी २१४ - २२३ | अत्रेदं ध्येयम्- 'संवच्छरेण होही' इत्यादितः आरभ्य गाथापञ्चकं वीरचरित्रादिहानीतमिति भाति - द्रष्टव्या गा० १८६११८६५ । २ रायण्णा हा दी म । २ सेसा उ सहस्स महा दी । Jain Educationa International ३९५ For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० २०६ 'सव्वे वि एगदूसेण णिग्गता जिणवरा चतुव्वीसं । दारं । णय णाम अष्णलिंगेणं णो गिहिलिंगे कुलिंगे वा ॥ २०६ ॥१६४४ ॥ | दारं | सुमति त्थ णिच्चभत्तेण णिग्गतो वासुपुज्जो जिणो चउत्थेणं । पासो मल्ली विय अट्टमेण सेसा तु छणं ॥ २०७ ॥१६४५ ॥ उभय विणीता बारवतीए अरिद्ववरणेमी । अवसेसा तित्थकरा णिक्खता जम्मभूमीमु || २०८।। १६४६॥ उसभी सिद्धत्थवणम्मि वासुपुज्जो बिहार गिहयम्मि । धम्मो वगाए 'लगुहाए य मुणिणामा || २०९॥१६४७॥ आसमपतम्मि पासो वीरजिणिन्दो य णातसंडम्मि । अवसेसा [१०७-द्वि०] "णिक्खता सहसंवत्रणम्मि उज्जाणे ॥ २२० ॥१६४८ | पासो अरिणेमी 'सेज्जंसो सुमति मल्लिणामा य । पुच्चण्हे क्खिता सेसा पुर्ण पच्छिमहमि ॥ २१९ ॥१६४९॥ गामायारा विसया णिसेविता ते कुमारवज्जेहिं । गामागरादिसु य केसु विहारो भवे कस्स ? ॥ २१२॥१६५०॥ मागहा रायगिहादिसु मुणयो खेत्तोरिएस विहरिंसु । उसभी मी पासो वीरो य अणारिए पि ॥ २१३॥१६५१॥ उदिता परीसहा सिं परायिता ते य जिणवर्रिदेहिं । दारं । व जीवादिपयत्थे उभिनूर्ण चणिक्खता ॥ २१४॥१६५२॥ पढमस्स बारसंगं "सेसाणेक्कार संगमुतलंभी । दारं । पंच जमा पढमंतिमजिणाण सेसाण चत्तारि । ॥ २१५ ॥१६५३॥ १ इतः पूर्वम् एका गांथा हामदीप्रतिषु अधिका वर्तते । यथावीरो अरिट्ठनेमी पासो मल्ली अ वामुपुज्जो अ । पढमए पव्वइआ सेसा पुण पच्छिमवयम्मि || हा गा० २२६ | दी २२६ । म २४८ । मतौ 'सेसा पुर्ण मज्झिमवयंमि' इति पाठः । २ 'लिंगे नो को । °लिगे न य गि' म । 3 सुमई थ हा । सुमइ त्थ म दो । सुमइत्त को । तेल को । ५ ° सा पव्वइया म। ६ सिज्ज हा दी । ७ नामो हा ।९त्तादि जे । १० 'लं' म । ११ साणिक्कार हा दी म । ४ नील हा दी म दी म । ८ केसि म । १२ भ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि २१९] तीर्थकरणां सामान्यम् । २९७ पच्चक्खाणमिणं (दार) संजमो तु पढमंतिमाण दुविकप्पो। सेसाणं सामइयो सत्तरसंगो य सव्वेसिं ॥२१६॥१६५४॥दारं॥ वाससहस्सं वारस 'चोइस अट्ठारस वीस वरिसाइं। मासा छण्ण तिण्णि य चतु तिग [१०८-०] दुगमेक्कय दुगं च ॥ ॥२१७॥१६५५॥ 'ति दु एक्कय सोलसयं वासा तिण्णि य तहेवऽहोरत्तं । मासेक्कारस णवगं चतुवण्णदिणां य चुलेसीति ॥२१८॥१६५६॥ तध बारसवासाई जिणाण छतुमत्थकालपरिमाणं । दारं । उग्गं च तवोकम्मं विसेसतो बद्धमाणस्स ॥२१९॥१६५७॥" १ य म । २ चउदस हा । चउद्दस दी । ३ अट्ठार वी' को हा म दी । ४ तित्ति य च को। ५ 'मेक्कगहुँ को म । 'मिक्कग हा दी। ६ तिदुएक्कगसोलसगं को । तिगद्गमिक्कगसोलस पासा हा दी । तियदुगएक्कग सोलस वासा म । ७ तमेव जे। ८ चउप को हा दी म । ९ °णाइ चु' हा दी । णाई म । १० सोई हा दी। सीई म । ११ अस्याः गाथायाः अनन्तरं हामदाप्रतिषु द्वादश गाथाः अधिकाः सन्ति-यथा फग्गुणवहुलिक्कारसि उत्तरसाढाहि नाणमुसभस्स । पोसिक्कारसि सुद्धे रोहिणिजोएण अजिअस्स ॥ कतिअबहुले पंचमि मिगसिरजोगेण संभवनिणस्स । पोसे सुद्धचउदसि अभीइ अभिणंदणजिणस्स ॥ चित्ते सुद्धिक्कारसि महाहि सुमइस्स नाणमुप्पण्ण । चित्तस्स पुणिमाए पउमाभजिणस्स चित्ताहि ॥ फग्गुणवहुले छही विसाहजोगे सुपासनामस्स । फग्गुणवहुले सत्तमि अणुराह ससिप्पहजिणस्स ॥ कत्तिअमुद्धे तइया मूले सुविहिस्स पुप्फदंतस्स । पोसे वहुल चउद्दसि पुयासाढ़ाहि सीअलजिणस्स ॥ पण्णरसि माहबहुले सिज्जसजिणस्स सवणजोएणं । सयभिय वासुपुज्जे बीयाए माहसुद्धस्स ॥ पोसस्स सुद्धछट्ठी उत्तरभद्दवय विमलनामस्स । वइसाहबहुलचउदसि रेवइजोएणऽणंतस्स ॥ पोसस्स पुण्णिमाए नाणं धम्मस्स पुस्सजोएणं । पोसस्स मुद्धनवमी भरणीजोगेण संतिस्स ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ FRI विशेषावश्यकभाष्ये [नि० २२० 'उसभस्स पुरिमताले वीरस्सुजुवालियाणदीतीरे । सेसाण केवलाइं जेसुज्जाणेसु पन्चइता ॥२२०॥१६५८॥ तेवीसाए णाणं उप्पण्णं जिणवराण पुचण्हे । वीरस्स पच्छिमण्हे माणप्पत्ताए चरिमाए ॥२२१॥१६५९॥ अट्ठमभत्तन्तम्मिय पासोसभमल्लिरिट्ठणेमीण । वसुपुज्ज' चउत्थेगं' छ?भतण सेसाणं ॥२२२॥१६६०॥ चुलसीतिं च सहस्सा एगं च दुवे य तिणि लक्खाई । तिणि य वीसधियाई तीसधियाई च तिण्णेव ॥ २२३ ॥ १६६१॥ तिण्णि य अड्ढातिज्जा दुवे य “एक्कं च सतसहस्साई । चुलसी[१०८-द्वि०]तिं च सहस्सा विसत्तरि अहसहि च ।।२२४॥१६६२॥ छावहिं चोवढि वावहिँ सहिमेव पण्णासा। चत्ता तीसा वीसा अट्ठारस सोलस सहस्सा ॥ २२५ ॥१६६३ ॥ 'चोइस य सहस्साई जिणाण जतिसीससंगहपमाणं । अज्जासंगहमाणं उसभादीणं अतो "वोच्छं ॥२२६ ॥ १६६४ ॥ तिण्णेव य लक्खाई तिण्णि य तीसौति तिणि छत्तीसा । तीसाई छ च्च पंच य तीसा चतुरो य वीसाइ” ॥ २२७ ॥ १६६५ ।। चित्तस्स सुद्धतइआ कित्तिअनोगेण नाण कुंथुस्स । कत्तिअसुद्धे बारसि अरस्स नाणं तु रेवइहि ॥ मग्गसिर सुद्धइक्कारसीइ मल्लिस्स अस्सिणीजोगे । फग्गुणबहुले वारसि सवणेणं सुव्वयजिणस्स ॥ मगसिरसुद्धिक कारसि अस्सिणिजोगेण नमिजिणिदस्स । आसोअमावसाए नेमिजिणिंदस्स चित्ताहि ॥ चित्ते बहुलचउत्थी विसाहजोएण पासनामस्स । वइसाहसुद्धदसमी हत्युत्तरजोगि वीरस्स ॥ हा गा० २४१-२५२ । दी २४१-२५२ । म २६३-२७५ । १ इयं गाथा "तेवीसाए'' इत्यादि गाथायाः (१६५९) अनन्तरं निर्दिष्टा हादीमप्रतिषु । २ वीरस्स युवा जे। स्सुजुया म । ३ °ण्हे पमाणप' हा म दी। ४ तिमी पा हा दी म । ५ जस्स हा मदी को। ६ थेग हा मदी को। ७ छट्ठभ' हा मदी को। ८ एर्ग हा दी म । ९ चउसहि हा दी। १० चउदस हा दी। ११ बुच्छं हा दी। १२ तीसाय हा दी। तीसाई को म। १३ वीसा अ हा दी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० २३७ ] तीर्थकराणां सामान्यम् । २९९ चत्तारि य तीसाइं 'तिण्णि यऽसीताई तिण्हमेत्तो य । वीसुत्तरं छलधियं तिसहस्सधियं च लक्खं च ।। २२८ ॥ १६६६ ॥ लक्खं अट्ठसताणि य वाससिहस्स चउसयसमग्गा । एगर्छि छ च्च सता सठिसहस्सा सता ? च्च ॥ २२९ ॥ १६६७ ।। सहि पणपण्ण पण्णेगयत्त चत्ता तघऽतृतीसं च । छत्तीसं च सहस्सा अज्जाणं संगहो एसो ॥ २३० ॥ १६६८ ॥ पढमाणुयोगसिद्धो पत्तयं सावयादियाणं पि। योस[१०९-०] बजिणाणं सीसाणं 'संगहो कमसो ॥२३१॥१६६९ तित्थं चातुवण्णो संघो सो पढमए समोसरणे । उप्पण्णो तु जिणाणं वीरजिणिन्दस्स बितियम्मि ॥ २३२ ॥ १६७० ॥ चुलसीति पंचणउती विउत्तरं सोलमुत्तरसतं च । सत्तधियं पणणउतिं तेणउती" अट्ठसीती य ॥ २३३ ॥ १६७१ ॥ एफौसीती छावत्तरी य छावहि सत्तेपण्णा य । पण्णा तेतालीसा छत्तीसा चेव पणतीसा ॥२३४ ॥ १६७२॥ "तेत्तीसेंट्टावीसा अट्ठारस चेव तध य सत्तरस । "एक्कारस दस णवगं गणाण माणं जिणिन्दाणं ॥ २३५ ॥ १६७३ ॥ एक्कारस उ गणधरी जिणस्स वीरस्स सेसयाणं तु । जावतिया जस्स गणा तावतिया गणधरा तस्स ।। २३६ ॥ १६७४ ।। धम्मोवायो पवयणमधवा पुन्बाई देसैया तस्स । सम्वजिणाण गणर्धेरा चोदसपुवी व जे जस्स ।। २३७ ॥ १६७५ ॥ १ तिण्णि । तिणि अ असिआइ हा दी। तीसाइं असीउत्तर तिण्णि म । २ तिष्णि मित्तो य म । ३ विसट्ठिसत चतुसता सहस्सा य जे । ४ हह जे । ५ वण्णेगचत्त हा । पण्णेगचत्त दी को । पन्नेगचत्त म। ६ णं परिग्गहो हा दी । ७ बीयमि हा दी म । ८°सीई को। १°उई को महा दी । १० "उई म। ११ सीइ छाम । 'सीई बाव हा दी। १२ 'त्तव हा दी म । १३ तित्तीस हा दी। तेतीस म । १४ °स अट्ठवीं हा दी । १५ इक्का हा दी। १६ रा वीरजिणिदस्स म । १७ देसगा हा दी। १८ हर चों को । हरा चउद हा दी। १९ पुवी उ ते तस्स म । 'पुन्वी व जो जे । पुव्वी य जे जस्स को। २८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० विशेषावश्यकभाष्ये [नि२३८सामाइयादिया वा वतजीवणिकायभावणा पढमं । [१०९-द्वि०] एसो धम्मोवातो जिणेहि सव्वेहि उवदिट्ठो॥२३८।१६७६ उसभस्स पुव्वलक्खं पुव्वंगुणमजितस्स तं चेय'। चतुरंगूणं लक्खं पुणो पुणो जाव सुविधि त्ति ॥ २३९ ॥ १६७७ ॥ 'पणुवीसं तु सहस्सा पुव्वाणं सीतलस्स परियाओ। लक्खाई “एक्कवीसं "सेज्जंस जिणस्स वांसाणं ॥ २४० ॥ १६७८ ॥ 'चतुपण्णं पण्णारस तत्तो अट्ठमाई लक्खाई। अड्ढातिज्जाई ततो वाससहस्साई पँणुवीसं ॥ २४१ ॥ १६७९ ॥ तेवीसं च सहस्सा सताणि अट्ठमाणि य हवंति। इगवीसं च सहस्सा चाससऊणा य पणपण्णं ॥ २४२ ॥ १६८० ॥ अद्धहमा सहस्सा अड्ढातिज्जा य सत्त य सताई। सत्त"रि विच"त्तवासा दिक्खाकालो"जिणिदाणं ॥ २४३ ॥ १६८१॥" १ वादो म। २ चेव । को हा दी म । ३ पणवी' को हा दी। ४ एगवी को। इक्कवी हा दी। ५ सिज्ज को हा दी म । ६ चउप्पन्नं । ७ पणवी हा दी। ८ °सउणा हा दी । ९ पण्णा हा दी । १० 'त्तरी को। सयरी हा दी म । ११ वियत्त जें । १२ काला जे । १३ अत्र हादीमप्रतिषु पञ्चविंशतिः गाथा अधिकाः सन्ति । यथा उसभस्स कुमारत्तं पुव्वाणं वीसई सयसहस्सा । तेवही रज्मी अणुपालेऊण णिक्खंतो ॥२७७॥ अजिअस्स कुमारत्तं अट्ठारसपुव्वसयसहस्साई । तेवणं रज्जमी पुव्वंगं चेव बोद्धच्वं ॥२७८॥ पण्णरससयसहस्सा कुमारवासो अ संभवजिणस्स । चोआलीसं रज्जे चउरंगं चेव बोद्धव्वं ॥२७९॥ अद्धत्तेरसलक्खा पुवाणऽभिणंदणे कुमारत्तं । छत्तीसा अद्धं चिय अहंगा चेव रज्जमि ॥२८०॥ सुमइस्स कुमारत्तं हवंति दसपुच्चसयसहस्साई । अउणातीसं रज्जे वारस अंगा य बोद्धव्वा ॥२८१।। पउमस्स कुमारत्तं पुन्वाणऽद्धमा सयसहस्सा । अद्धं च एगवीसा सोलस अंगा य रज्जमि ॥२८२।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि. २४३] तीर्थकराणां सामान्यम् । ३०१ पुनसयसहस्साई पंच सुपासे कुमारवासो उ । चउदस पुण रज्जमी वीसं अंगा य बोद्धव्या ॥२८३।। अड्डाइज्जा [ अद्भुट्ठा उ] लक्खा कुमारवासो ससिप्पहे होइ । अद्धं छ चिय रज्जे चवीसंगा य वोद्धव्वा ॥२८४॥ पण्णं पुन्चसहस्सा कुमारवासो उ पुष्पदंतस्स । तावइअं रज्जमी अठ्ठावीसं च पुव्वंगा ॥२८५।। पणवीससहस्साई पुव्वाणं सीअले कुमारत्तं । तावइअं परिआओ पण्णासं चेव रज्जमि ॥२८६॥ वासाण कुमारत्तं इगवीसं लक्ख हुँति सिज्जंसे । तावइअं परिआओ वायाली सं च रज्जमि ॥२८७॥ गिहवासे अट्ठारस वासाणं सयसहस्स निअमेणं । चउपण्ण सयसहस्सा परिआओ होइ वसुपुज्जे ॥२८८।। पण्णरस सयसहस्सा कुमारवासो अ तीसई रज्जे । पणरस सयसहस्सा परिआओ होइ विमलस्स ॥२८९॥ अद्धहमलक्खाई वासाणमणंतई कुमारत्ते । तावइ परिआओ रज्जमी हुंति पण्णरस ॥२९०॥ धम्मस्स कुमारत्तं वासाणऽड्ढाइआई लक्खाई । तावइअं परिआओ रज्जे पुण हुंति पंचेव ॥२९॥ संतिस्स कुमारत्तं मंडलियचकिपरिआअ चउमुं पि । पत्तेअं पत्तेअं वाससहस्साई पणवीस ॥२९२॥ एमेव य कुंथुस्स वि चउमु वि ठाणेसु हुंति पत्तेअं । तेवीस सहस्साई वरिसाणट्ठमसया य ॥२९३।। एमेव अरनिगिंदस्स चउसु वि ठाणेसु हुंति पत्ते । इगवीस सहस्साई वासाणं हुंति णायव्वा ॥२९४।। मल्लिस वि वाससयं गिहवासे सेसअं तु परिआओ। . चउपण्ण सहम्साई नव चेव सयाइ पुण्णाई ॥२९५।। त्तिम। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० २४४छतुमत्थकालमेत्तो सोधेतुं सेसओ तु जिणकालो । सव्वाउअंपि ऐत्तो उसभातीणं णिसामेह ॥ २४४ ॥ १६८२ ॥ चतुरासीति विसरि सपिण्णासमेव लक्खाई । चत्ता तीसा वीसा दस दो एगं च पुवाणं ॥ २४५ ॥ १६८३ ॥ [११०-५०] चतुरासीती बावत्तरी य सही य होति वासाणं । तीसा य दसग एगं च एवमेते सतसहस्सा ॥ २४६ ॥ १६८४ ॥ पंचाणउतिसहस्सा चतुरासीती' य पंचण्णा य । तीसा य दस य एगं सतं च बावत्तरि चेव ॥२४७॥१६८५॥ ॥दार।। 'णेन्वाणमन्तकिरिया सा 'चोदसमेण पढमणाधस्स । सेसाण मासिएणं वीरजिणिन्दस्स छ?णं ॥२४८॥१६८६॥ अद्धठमा सहस्सा कुमारवासो उ सुव्वयजिणस्स । तावइथं परिआओ पण्णरससहस्स रज्जमि ॥२९६॥ नमिणो कुमारवासो वाससहस्साइ दुण्णि अद्धं च । तावइअं परिआओ पंच सहस्साई रज्जमि ॥२९॥ तिण्णेव य वाससया कुमारवासो अरिहनेमिस्स । सत्त य वाससयाई सामण्णे होइ परिआओ ॥२९८॥ पासस्स कुमारत्तं तीसं परिआओ सत्तरी होइ । तीसा य वद्धमाणे बायालीसा उ परिआओ ॥२९९॥ उसभस्स पुन्बलक्खं पुव्वंगुणमजिअस्स तं चेव । चउरंगणं लक्खं पुणो पुणो जाव सुविहि ति ।।३००॥ सेसाणं परिआओ कुमारवासेण सहिअओ भणिओ। पत्ते अंपि अ पुव्वं सीसाणमणुग्गहटाए ॥३०१॥ इति हा प्रतो । दी गा० २७७-३०१ । म गा० २९९-३२३ । १ इत्तो हा दी। २ सट्टो को हा दी म । ३ दसय हा दी म को। ५ °सीई म । ५ वण्णा हा दी म। ६ तरी म हा दी । . निव्वा हा दी म । ८ चउदस हा. दी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ नि० २५४] ऋषभचरितम् । अट्ठावत'चंपोज्जितपावासम्मेतसेलसिहरेसु । उसभ वसुपुज्ज णेमी वीरो सेसा य सिद्धिगता ॥२४९॥१६८७॥ 'इच्चेवमाति सव्वं जिणाण पढमाणुयोगतो णेयं । थाणामुणत्यं पुण भणित पयतं अतो वोच्छं ॥२५०॥१६८८॥ उसभजिणसमुत्थाणं उत्थाणं जं ततों मिरीयिस्स । सामाइयस्स एसो जं पुब्वं णिग्गमोऽ हिंगतो ॥२५१॥१६८९॥ संबोधण णिक्खमणे णमिविणमी विज्जधरण वेतड्ढे । उत्तरदाहिणसेढी सर्टि पण्णासणगराइं ॥२५२॥१६९०॥ 'चेत्तबहुलट्ठमीए चतुर्हि सहस्से हिं सो तु अवरण्हे । सीया[११०-द्वि०] सुदंसणाए सिद्धत्थवणम्मि छठेणं ॥२५३॥१६९१॥ चतुरो साहस्सीओ लोयं कातूण अप्पणा चेव ।। जं एस जता काहिति तं तध अम्हे वि कोहिमो ॥२५४॥१६९२॥ १ चंपुजित' हा दी । चंपुज्जत म । चंपोज्जिल दी । २ इत पूर्व हादीम प्रतिषु गाथाचतुष्कमधिकं यथा एगो भय वीरो तित्तीसाइ सह निव्वुओ पासो । छत्तीसएहि पंचर्हि सएहिं नेमी उ सिद्धिगओ ॥ पंचहि समणसएहिं मल्ली संत्ती उ नवसएहिं तु । अट्ठसएणं धम्मो सएहि छहि वासुपूज्जजिणो ॥ सत्तसहस्साणंतइजिणस्स विमलस्स छस्सहस्साई । पंचसयाइ सुपासे पउमाभे तिणि अट्ठसया ॥ दसहि सहस्सेहि उसभो सेसा उ सहस्सपरिवुडा सिद्धा । कालाइ जं न भणिअं पढमऽणुओगाउ तं णेअं ॥ हा गा. ३०८-३११ । दो-३०८-३११ । म ३३०-३३३ । ३ थाणअसु जे । ४ "त्थे जे।५ पगयं हा दी म। पययं को। ६ मिरीइस्स को। मरीइस्स हा दी। मिरीयस्स म । ७ मो विगतो जे। ८ एषा गाथा अत्र नास्ति-हामदीषु किन्तु सैव पूर्वार्धपरिवर्तनसहिता अन्यत्र हामदीषु अस्ति-नमिविनमीणं जायण नागिंदो विज्जदाणवेअड्ढे हा ३१७ । दी-३१७ । म ३४० । को प्रतौ तु पूर्वाध - "(संबोहण निक्खमणं नागिंदो) विज्जदाण वेयड्ढे"-इति । ९ चित्त' हा दी । १० काहिई को। कही हा दी म । ११ - काहामो को हा मदी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FX ३०४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० २५५ उसभो 'वसभसमगती घेत्तूण अभिग्गरं परमंगोरं । वोसट्टचत्तदेहो विहरति गामाणुगामं तु ॥२५५॥१६९३॥ 'ण वि ताव जणो जाणति का भिक्खा केरिसा व भिक्खयरा । ते भिक्खमलभमाणा वणमज्झे तावसा जाता ॥१६९४॥ भगवर्मंदीणमणसो संवच्छरमणसिते विहरमाणो । कण्णाहि णिमंतिज्जति वत्थाभरणासणेहिं च ॥२५६॥१६९५॥ संवच्छरेण लद्धा भिक्खा उसभेण लोगणाहेणं । सेसेहि 'बितियदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥२५७॥१६९६॥ उसभस्स तु" खोतरसो पारणए आसि लोगणाधस्स । सेसाणं परमण्णं अमतरसरसोवमं आसि" ॥२५८॥१६९७॥ घुटं च अहोदाणं दिव्वाणि य आहताई तूराई । देवा य सण्णिवतिता वसुधारा चेव बुट्टा य ॥२५९॥१६९८॥ गयपु १११-०] रसेजंसो खोतरदाण वसुधार पेढ" गुरुपूआ । तक्खसिलातलगमणं बाहुबलिणिवेतणं चेव ॥२६०॥१६९९॥" १ भो वरवसभगई को हा दी म । २ घोरं को हा दी म । ३ इयं गाथा मूलभाष्यमिति हरिभद्राचार्याः । ४ वंपदीण को । वंपतीण जे । वंअदीण हा दी। ५ 'सिओ वि” को हादी म। ६ °णादीहि ॥ जे । . °ण भिक्खा लद्धा को हा म दी। ८ ततिए को । बीयदि हा म दी । ९ द्धाउ को । १० उ खोयरसो को। उ पारणए इक्खुरसो आसि हा दी म। ११ आसी हा दी। १२ तूराणि म हा दी। १३ सेजसो को । सेउजस म । सिमंसिक्खुरस हा दी । १४ पीढ म हा दी। १५ इतः पश्चात् गाथाद्वादशक हादीमप्रतिषु अधिक यथा---- हत्थिणउरं अओज्झा सावत्थी तहय चेव साके। विजयपुर बंभथलयं पाडलिसंडं पउमसंडं ॥ सेयपुरं रिट्टपुरं सिद्धत्यपुरं महापुरं चेत्र । धण्णकड वद्धमाणं सोमणसं मन्दिरं चेव ॥ चकपुरं रायपुरं मिहिला रायगिहमेव बोद्धव्वं । वीरपुरं बारवई कोअगडं कोल्लयग्गामो ॥ एएस पढमभिक्खा लद्धाओ जिणवरेहि सव्वेहिं । दिण्णाउ जेहि पढम, तेसिं नामाणि वोच्छामि ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मि० २६३] ऋषभचरितम् । कल्लं सबिड्डीए पूएहंमददठु धम्मचक्कं तु । विहरति सहस्समेगं च्छतुमत्यो भारधे वासे ॥२६१॥१७००॥ 'बहली य अडम्ब इला जोणग विसया सुवण्णभूमि य । आहिण्डिता भगवता उसभेण तवं चरंतेणं ॥२६२॥१७०१॥ वहली य जोणगा पण्हेवा य जे भगवता समणुसहा । अण्णे य मेच्छजाती ते तइया भइया जाता ॥२६३॥१७०२॥ सिज्जंस वंभदत्ते सुरदेंदत्ते य इंददत्ते अ । पउमे अ सोमदेवे महिंद तह सोमदत्ते अ॥ पुस्से पुणव्वसू पुणनंद सुनंदे जए अ विजए य । तत्तो अ धम्मसीहे सुमित्त तह वग्यसीहे अ॥ अपराजिअ विस्ससेणे वीसइमे होइ वंभदत्ते अ । दिपणे वरदिण्णे पुण धण्णे बहुले अ बोद्धव्वे ॥ एए कयंजलिउडा, भत्तीवहुमाणमुक्कलेसागा । तक्कालपहट्ठमणा, पडिलाभेसुं जिणवरिंदे ॥ सव्वेहिपि जिणेहिं, जहि लद्धाओ पढमभिक्खाओ । तहि वमुहाराओ, वुट्टाओ पुप्फवुट्ठीओ ॥ अद्धत्तेरसकोडी, उक्कोसा तत्थ होइ वमुहारा । अद्धतेरसलक्खा, जहण्णिआ होइ वसुहारा ॥ सव्वेसिपि जिणाणं, जेहिं दिण्णाउ पढमभिक्खाओ । ते पयणुपिज्जदोसा, दिनवरपरक्कमा जाया ॥ केई तेणेव भवेण, निव्वुआ सव्वकम्मउम्मुक्का । अन्ने तइअभवेणं, सिज्झिस्संति जिणसगासे ॥ हा गा० ३२३-३३४ । दी गा० ३२३-३३४ । म ३२३-३३४ (पृ० २२७ -२२८)। मलयगिरिटीकायां संख्याङ्केनान्तिर्विद्यते । गा० संख्याङ्क ३४५ इत्यन्तरं ३२३ आदि संख्याकाः दृश्यन्ते । १ पूएमहददे को । पूएमऽहऽदछु म । पूएमहऽदछु हा दी । २ पहजे । बहली अर्डबइल्ला को हा दी म । ३ विसओ हा को दी म । ४ पण्हगा को पल्हगा हा दी । पल्लगा म । ५ °सिट्टा हा मदी । ६ मिच्छ हा दी म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि0 २६४. तित्थ कराणं पढमो उसभरिसी' विहरितो णिरुवसगं । अट्ठावतो णगवरो अग्गभूमी जिणवरस्स ॥ २६४ ॥ १७०३ ॥ *च्छतुमत्थरीयाओ वाससहस्सं ततो पुरिमताले । . लग्गोधस्स य हेट्ठा उप्पण्णं केवलं गाणं ॥ २६५ ॥ १७०४ ॥ फग्गुणबहुलेकारसी य अध अट्ठमेण पुव्वण्हे । उप्पण्णम्मि अणंते महन्चता पंच पण्णवए ॥ २६६ ॥ १७०५ ॥ उप्पण्णम्मि अणं ते णाणे जरमरणविष्पमुक्कस्स। [ १११-द्वि० ] तो देवदाणविन्दा करेन्ति महिमं जिणेन्दसे ॥ २६७ ॥ . ॥१७०६॥ उज्जाणपुरिमताले पुरी विणीतीये तत्थ णाणवरं ।। चक्कुपता य भरधे णिवेतणं चेव "दोण्हं पि ॥ २६८ ॥ १७०७॥. तातम्मि पूइते चक्क पूयितं पूयणारिहो तातो । इधलोयियं तु चक्कं परलोयसुहावहो तातो ॥ २६९ ॥ १७०८ ॥ . सह मरुदेवाए णिग्गतो कधणं पव्वज्ज उसभसेणस्स । बंभी "मिरीयिदिक्खा मुंन्दरिओरोध सुतदिक्खा ॥ २७० ॥ १७०९॥ पञ्च य पुत्तसताई भरधस्स य सत्त णत्तुअसताई। सयराहं पव्वइता तम्मि कुमारा समोसरणे ॥ २७१ ॥ १७१० ॥ भवणवतिवाणमन्तरजोतिसवासी विमाणवासी य । सबिढिये सपरिसा कासी णाणुप्पतामहिमं ॥ २७२ ॥ १७११ ॥ दण कीरमाणि महिमं देवेहि खत्तियो मिरीयी। सम्मत्तलद्धबुद्धी धम्मं सोतूण पव्वइतो ॥ २७३ ॥ १७१२॥ १° भसिरी जे को। २ अग्गा म । ३ जिणिदस्स को । ५ छउम' को म हा दी। ५ परि' को हा मदी । ६ नग्गोह को । जग्गोह हा दी। निग्गोह म । ७ °लेक्कारसीए को । °ले एक्कारसीइ हा दी । 'ले इक्कारसीइ म । ८ °ण भत्तेण हा दी म । ९ करिति हा दी म । १० जिणि को हा दी म। ११ °णीआइ हा दी म । १२ दुण्हं म । १३ °देवीए को । °देवाइ हा दी । देवीइ म । १४ मिरीई को । मरीइ हा दीम। १५ दरी हा दी। १६ °ड्डीए को। बिढइ हा दी। 'ड्ढिई म । १७ करत्ति को। १८ मिरीई को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निं० २७७ ] ऋषभचरितम् । सामाइयमातीयं एक्कारसमातो' जाव अंगातो' । उज्जुत्तो भत्तिगतो अधिज्जितो सो गुरुसयासे ॥ २७४ ॥ १७१३ ॥ [११२ - प्र० ] मागधमाती विजयो 'सुन्दरिउवरोध बारसभिसेओ । आणण भातुआणं 'ओसरणे पुच्छ दितो ॥ २७५ ॥ १७१४ ॥ बाहुबलिको करणं णिवेतणं चक्कि देवताकधणं । धम्मेणं जुज्झे दिक्खा पडिमा पतिष्णा य ॥ २७६ ॥ १७१५ ॥ पढमं दिट्ठीजुज्झ वायाजुद्धं तथैव बाहाहिं । मुट्ठीहि य दंडेहि य सव्वत्थ वि जिते भरधो ॥ १७१६"॥ 'सो एव जिव्वैमाणो विधुरो अध णरवती विर्चितेति । कि "मण्णे एस चक्की जध दोई दुब्बलो " अहयं ॥ १७१७ ॥ संवच्छरण धूता " अमूढलक्खो तु पेसए अरहा । हत्थीतो "ओतर ति य बुत्ते चिंतापते गाणं ॥ १७१८ ॥ उप्पण्णणाणरतणो तिष्णपतिष्णो जिणस्स पामूले" । "केवलिपरिसं गंतु तित्थं णमितूण आसीणो ।। १७१९ ॥ कातून "एक्कछत्तं भरघो वि य झुंजते विपुलभोगे । मिरीय वि सामिपासे विहरति तवसंजमसमग्गो ॥ १७२० ॥ सामाइयमातीयं "एक्कारसातो जान अंगातो" । [११२ - द्वि० ] उज्जुत्तो भत्तिगतो अधिज्जितो सो गुरुस्यासे ॥ १७२१ ॥ अ अण्णता ताई गिम्हे उन्हेण परिगतसरीरो । अहाणपण चइतो इमं कुलिंग विचितेति ॥ २७७ ॥ १७२२ ॥ ३०७ १ माउ को । २ गाउ को । ३ गाथेयं नास्ति हादीमप्रतिषु । ४ विजओ बारसभिसेअ सुन्दरीदिक्खा दी । "रि पव्वज्जा को हे म । ५ अणवण को हा मदी । ६ समुसरणे को हा मदी । ७ 'कोव' को हा मदी । ८ जुद्धं को म हा दी । ९ systह तथा सजे । १० जिव्वई को । जिव्वए हा मदी । ११ गा० १७१६ तः १७२१ पर्यन्तं भाष्यत्वेन संमताः हा दी म प्रतिषु । १२ जो एव जे । १३ जिप्प म हा दी । १४ मन्नि हा दी । १५ दाणि म । दाणि हा दी । १६ 'लो उ अहं को । १७ धूर्य को । धूअं हा मदी १८ अरिहा हा दी । १९ उत्तर ति को । २० पामूलं को । २१ गतुं तित्थं नमिउ केवलिपरिसाइ आसीणो हा मदी । २२ एगछत्त को म हा दी । २३ भुंजती को । २४ मिरियी को । मरिई हा दी म । २५ इक्का हा दा म । २६ माउ को हा म दी । २७ गाउ को हा दी । २८ मिरियी को । ३९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० २७८मेरुगिरिसमभारे ण हुमि समत्थो मुहुत्तमवि वोढुं । 'सामण्णए गुणे गुणरहितो अईयं संसारमणुकंखी ॥ २७८ ॥ १७२३ ॥ एवमणुचिन्तयंतस्स तस्स णियगा मती समुप्पण्णा । लद्धो मए उवातो जाता मे सासता बुद्धी ॥ २७९ ॥ १७२४॥ समणा तिदण्डविरता भगवंतो णिहुतसंकुचितगत्ता। अजितिन्दियदण्डस्स तु होतु तिदंडं ममं चिंधं ॥ २८० ॥ १७२५ ॥ लोइन्दियमुण्डा संजता तु अहगं खुरेण संसिहो अ । थूलगपाणवधातो वेरमणं मे सता होतु ॥ २८१॥ १७२६ ॥ णिक्किचणा य समणा अकिंचणा मज्झ किंचणं होतु । सीलसुगंधा समणा अहयं सीलेण दुग्गंधो ॥२८२॥१७२७॥ ववगतमोहा समणा मोहच्छन्नस्स छत्तयं होतु । अणुवा[११३-०]हणा य समणा मॅज्झं च उवाहणा होतु ॥२८३॥ १७२८॥ सुक्कंबरा य समणा णिरंवरा मज्झ धातुरत्ताई । अरिहा कासाईओ कसायकलुसाउलमतिस्स ॥२८४॥१७२९॥ "वज्जति[5]वज्जभीरू बहुजीवसमाउलं जलारंभं । होतु मम परिमितेणं जलेग पहाणं च पियगं च ॥२८५॥१७३०॥ एवं सो रुइतमती णियगमतिविकप्पितं इमं लिंगं । तद्धितहेतुसुजुत्तं पारिवज्ज वत्तेति ॥२८६॥१७३१॥ अध तं पागडरूवं दटुं पुच्छे बहू जणो धम्म । "कधयति जतीणं तो सो "विचालणे तस्स परिकवणा ॥२८७॥१७३२॥ १ हुवि म । २ समणगुणे को। ३ अहगं को। रहिओ संसा म हा दी। " चितंतस्स हा दी। ५ कुइअअंगा हा दी म । ६ महं हा दी म । ७ य दो। ८ ससिहा ओ जे । ससिहो उ को। ९ पाणि हा दी म। १० मज्झ च को । मझं तु हा मदी। ११ होंतु य मे वत्थाई अरिहो मि कसायकलुसमई को। हुंतु इमे --- मई हा दीम। १२ वज्ज तऽवज्ज हा दी म । १३ नियत जे को । निअग हा दी म । १४ जं तओ कासी म। १५ कहती सुजतीणं सो इति मलयगिरिनिर्दिष्टं पाठान्तरम् । कहइ ज म हा दी। १६ वियालणे को । विआलणे हा दी म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० २९४] ऋपभचरितम् । ३०९ धम्मकधाभक्खित्ते उवहिते देति सामिणो सीसे । गामणगरागरोदी विहरति सो सामिणा सद्धी ॥२८८॥१७३३॥ समोसरण भत्तै ओग्गह अंगुलिं ज्झय सक्क सावगा अधिया । जेता वइति कार्गणि लक्खण अणुसज्जणा अट्ठा ॥२८९॥१७३४॥ राया आदिच्चजसे महायसे अतिर्वले य बलभदे । [११३-द्वि०] बलविरिय कत्तविरिए जलविरिऐ डण्डै विरिए य ॥२९०॥ १६३५॥ "अस्सावगपडिसेधो छटे छै? य मासे" अणियोगो । कालेण य मिच्छत्तं जिणंतरे साधुंवोच्छेदो ॥२९१॥१७३६॥ दाणं च माहणाणं "वेया कासी य पुच्छ णेवाणं । कुण्ड यूभी निगहरे "कविलो भरधस्स दिक्खा य ॥२९२॥११३७॥ पुणरवि य समोसरणे पुच्छी य जिणं तु चक्किणो "भरधो । अप्पुट्ठो य दसारे तित्थकरो को इधं भरघे ॥२९३॥१७३८॥ जिणचक्किदसाराणं वण्णपमाणाई णामगोत्ताई। आयु पुर मादिपितरो परियाय गतिं च आहेया ॥२९४॥१७३९॥ जारिसगा लोगगुरू भरथे वासम्मि केवली तुम्भे । एरिसया कति अण्णे ताता होहिन्ति तित्थकरा ॥१७४०॥ १ राइआई दी हा । २ सद्धिं हा दो म को। ३ समुस' को महा। ४ भत्त उग्गको हा म दी।५ °लिझय हा दी म । °लिधय को । ६ काराणी जे। कीगिणि म हा दी। ७ लंछण को हा दी म । ८ अति जसे को। ९ विरए को । १० दंड' को म हा दी। ११ इतः पूर्व कोहामदीप्रतिषु एका गाथा अधिका वर्तते । यथा एएहि अड्डभरहं सयलं भुत्तं सिरेण धरिओ अ । पवरो जिणिंदमउडो सेसेहि न चाइओ वोडं । को० गा० १७५१ । हा ३६४ । दी ३६४ । म ३६४ । १२ छटो य जे । १३ मासि अनुयों को हा दी म। १४ वुच्छे म । १५ वेदा को। वेए हा दी म । १६ पुव्य को। १. णिव्या म हा दी । १८ कंभा को । १९ थूभ दी हा म । २० जिणवर जे । २१ कविला जे । २२ भरहे हा दी म । २३ गुप्ता म । २४ साही हा दी म। साहीया को । २५ भाष्यगाथेयमिति हा दी म। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० विशेषावश्यकभाष्ये [नि० २९५अध भणति जिणवरिंदो जारिसओ णाणदंसणेण अहं । एरिसया तेवीस अण्णे होहिन्ति तित्थगरा ॥२९५॥१७४१॥ होहिति अजितो संभवअभिणंदणसुमतिसुप्पभसुपासा । [११४-०] ससि पुप्फदंत सीतल सेज्जंसो वासुपुज्जो य ॥२९६॥ १७४२॥ विमलमणंतइ धम्मो संती कुंथू अरो य मल्ली य । मुणिसुन्धत णमि णेमि पासो तब बद्धमाणो य ॥२९७॥१७४३॥ 'होहिति' सगरो मघवं सणंकुमारो य रायसङ्कलो । संती कुंधू य अरो ईवति सुधम्मो य कोरबो ॥२९८॥१७४४॥ *णवमे य महापउमें हरिसेणे चेव रायसैले । जयणामो य णरवती बारसमो" बंभदत्तो" य ॥२९९॥१७४५॥ "होहिंति "वासुदेवा णव अण्णे णीलपीतकोसेज्जा । हलमुसलचक्कजोधी सतालगरुलेया दो दो ॥१७४६॥ "तिविठू य दुविठ्ठ" य सयंभू" पुरिमुत्तिमे पुरिससीहे । तब पुरिसपुंण्डरीए दत्ते णारायणे कण्हे ॥१७४७॥ [११४-द्वि०] अयले विजये भदे सुप्पभे य मुदंसणे । आणंदे णंदणे "पोमे रामे यावि अपच्छिमे ॥१७४८ ॥ १ होहो अ हा दी। होहिइ म । २ सुपासो को हा म दी ।। नेमी को हा म दी । ४ इतः पूर्व गाथाद्विकमधिकं वर्तते कोहामदीप्रतिषु ।-यथा अह भणति नरवरिंदो भरहे वासंमि जारिसो उ अहं । तारिसया कइ अण्णे ताया होहिति रायाणो॥ अह भणइ जिणवरिंदो जारिसओ तं नरिंदसर्दुलो । ' तारिसया एक्कारस अण्णे होहिंति रायाणो ॥ को १७६०-६१ । म ३७२-३ । हा ३७२-३ । दी ३७२-३ । ५ भरहो सगरो को। होही सगरो म हा दी। ६ होइ हा दी। ७ णवमो को म दी हा । ८ उमो को हा दी म । ९ °सेणो म दी हा । १० दूलो म दी हा। ११ °समे को । १२° दत्ते को। १३ भाष्यत्वेन संमतं गाथापञ्चकम् महदीप्रतिषु । १४ बलदेववासुदेवा को। १५ रुडज्झया को हा दी । लज्झया म। १६ तिवठू को। १. 'दछ सयं ह । दी। १८ सयंभुपुरिसोत्तमो को। सयंभुपुरिसुत्तमे म हा दी। १९ सीहो को । २० पौड को। २१ पउमे को म हा दी। Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० २९९] ऋषभचरितम् । आसग्गीवे तारए मेरए मधुकेढवे णिसुभे य । बलि पहराते तध रामणे य णवमे जरासंधे॥१७४९॥ एते खलु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वे य चक्कजोधी सव्वे ये हता सचक्केहि ॥१७५०॥ १ रावणे हा दी म । २ सिंधू हा दी म । ३ वि को.म। १ वि को म । ५ इतः परं निम्नलिखिताः नियुक्तिगाथाः हामदीप्रतिषु अधिकाः वर्तन्ते पउमाभवासुपुज्जा, रत्ता ससि पुप्फदंत ससिगोरा। मुन्वयनेमी काला, पासो मल्ली पियंगाभा ॥ वरकणगतविभगोरा, सोलस तित्थंकरा मुणेयव्वा । एसो वण्ण विभागो, चउवीसाए जिणवराणं ॥ पंचेव अद्धपंचम चत्तारखुट्ठ तह तिगं चेव । अढाइज्जा दुण्णि अ दिवइहमेगं धणुसयं च ॥ नउई असीइ सत्तरि सट्ठी पण्णास होइ नायव्या । पणयाल चत्त पणतीस तीसा पणवीस वीसा य॥ पण्णरस दस धणि य, नव पासो सत्तरयणिओ वीरो । नामा पुव्वुत्ता खलु, तित्थयराणं मुणेयव्वा ॥ मुणिमुन्नओ अ अरिहा, अरिट्ठनेमी अ गोअमसगुत्ता । सेसा तित्थयरा खलु, कासवगुत्ता मुणेयव्वा ॥ इक्खागभूमि उज्झा सावत्थि विणीअ कोसलपुरं च । कोसंबी वाणारसी चंदाणण तइ य काकंदी ॥ भहिलपुर सीहपुरं चंपा कंपिल्लं उज्झ रयणपुरं । तिण्णेव गयपुरंमी मिहिला तह चेव रायगिहं ॥ मिहिला सोरिअनयरं वाणारसि तह य होइ कुंडपुरं । उसमाईण जिणाणं जम्मणभूमी जहासंखं ॥ मरुदेवि विजय सेणा सिद्धत्या मंगला सुसीमा य । पुहवी लक्खग सामा नंदा, विण्हू जया रामा ॥ मुजसा सुचया अइरा, सिरी देवी पभावई । पउमावइ अ वप्पा अ, सिव वम्मा तिसला इअ ॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये नाभी जिअसत्तू आ, जियारी संवरे इअ । मेहे घरे पट्टे अ, महसेणे अ खत्तिए || सुग्गीवे दढरहे वह वपुज्जे अ खत्तिए । कम्मा सीहसेणे अ, भाणू विससेणे इअ || सूरे सुदंसणे कुंभे सुमितु विजए समुद्दजए अ । राया अ अस्ससेणे सिद्धत्थेऽवि य खत्तिए || सव्वेऽवि गया मुक्खं जाइजरामरणवंधण विमुक्का | तित्थयरा भगवंतो, सासय सुक्खं निराबाई || सव्वेऽवि एगवण्णा निम्मलकणगप्पभा मुगेयव्त्रा । छक्खंडभरहसामी, तेसि पमाणं अओ वुच्छं || पंचसय अद्धपंचम बायालीसा य अद्धधणुअं च । इगयाल धणुस्सद्धं च चउत्थे पंचमे चत्ता ॥ पणतीसा तीसा पुण अट्ठावीसा य वीसइ घणूणि । पण्णरस बारसेव य अपच्छिमो सत् य धणि ॥ कासवगुत्ता सव्वे, चउदसरयणाहित्रा समक्खाया | देविंद दिएहिं जिणेहिं जिअरागदो सेहिं ॥ चउरासीई बाबत्तरी अ पुव्त्राण सयसहस्साईं । पंचय तिण्णि अ एगं च सयसहस्सा उ वासाणं ॥ पंचाणउ सहस्सा चउरासीई अ अहमे सही । तीसा य दस य तिणि अ, अपच्छिमे सत्तत्राससया || जम्मण विणीअ उज्झा सावत्थी पंच इत्थिणपुरंमि । वाणारसि कंपिल्ले, रायगिहे चैव कंपिल्ले | सुमंगला जसवई भद्दा सहदेवि अइर सिरि देवी | तारा जाला मेरा य, वप्पगा तह य चूलणी अ ॥ उसमे सुमित विजए समुदविजए अ अस्स सेणे अ । तह वीस सेणे सूरे सुदंसणे कत्तविरिए अ ॥ पउमुत्तरे महाहरि विजए राया तदेव बंभे अ । ओसपिणी इमीसे, पिउनामा चक्रवहणं ॥ ३१२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only [. नि० २९९ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ नि० २९९) ऋषभचरितम् । अहेव गया मोक्ख, सुभूमो वंभो अ सत्तमि पुढविं । मघवं सर्णकुमारो, सणकुमारं गया कप्पं ॥ वणेण वासुदेवा, सव्वे नीला बला य मुक्किलया । एएसि देहमाणं, वुच्छामि अहाणुपुबीए ॥ पढमो धणसीई सत्तरि सही पण्ण पणयाला । अउणतीसं च धणू, छब्बीसा सोलस दसेव ।। बलदेववासुदेवा, अट्टेव हवंति गोयमसगुत्ता । नारायणपउमा पुण, कासवगुत्ता मुणेअव्वा ॥ चउरासीई विसत्तरि सट्ठी तीसा य दस य लक्खाई । पण्णहि सहस्साई, छप्पण्णा वारसेगं च ॥ पंचासीई पण्णत्तरी अ पण्णटि पंचवण्णा य । सत्तरस सयसहस्सा पंचमए आउअं होइ । पंचासीई सहस्सा पण्णट्ठी तह य चेव पण्णरस । बारस सयाई आउं, वलदेवाणं जहासंखं ॥ पोषण बारवातिगं अस्सपुरं तह य होइ चक्करं । वाणारसि रायगिहं अपच्छिमो जाओ महुराए ॥ मिगावई उमा चेव, पुहवी सीआ य अम्मया । लच्छीमई सेसमई, केगमई देवई इय ॥ भद सुभदा मुप्पभ सुदंसणा विजय वेजयंती अ । तह य जयंती अपराजिआ य तह रोहिणी चेव ॥ हवइ पयावइ, बंभो रुद्दो सोमो सिवो महसिवो अ । अग्गिसिहे अ दसरहे, नवमे भणिए अ वसुदेवे ॥ परिआओ पन्नज्जाऽभावाओ नत्थि वासुदेवाणं । होइ पलाणं सो पुण, पठमऽणुभोगाभो णायन्यो । एगो अ सत्तमाए, पंच य छट्ठीए पंचमी एगो । एगो अ चउत्थीए, कण्हो पुण तच्चपुढवीए ॥ अहंतगडा रामा एगो पुण बंभलोगकप्पंमि । उववण्णु तत्थ भोए भोत्तुं अयरोवमा दस उ ॥ . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ विशेषावश्यकभाष्ये . [नि० २९९[तत्तो अचइत्ताणं इहेव उस्सप्पिणीइ भरहंमि । भवसिद्धिआ अ भयवं, सिज्झिस्सइ कण्हतित्थंमि ॥] दीपिकायामधिका अणिआणकडा रामा, सम्वेऽवि अ, केसवा निआणकडा । उइदंगामी रामा, केसव सव्वे अहोगामी ॥ उसभी वरवसभगई, ततिअसमापच्छिमंमि कालंमि । उप्पण्णो पढमजिगो, भरहपिआ भारहे वासे ॥ पण्णासा लक्खेहि, कोडीणं सागराण उसभाओ । उप्पण्णो अजिअजिणो, ततिओ तीसाए लक्खेहि ॥ जिणवसहसंभवाओ, दसहि उ लक्खेहि अयरकोडीणं । अभिनंदणो उ भगवं, एवइकालेण उप्पण्णो ॥ अभिणदणाउ सुमती, नवहि उ लखेहि अयरकोडीणं । उप्पण्णो सुहपण्णो, सुप्पभनामस्स वोच्छामि ।। णउई य सहस्सेहिं, कोडीण सागराण पुण्णाणं । सुमइजिणाउ पउमो, एवति कालेण उप्पण्णो ॥ पउमप्पहनामाओ, नवहि सहस्सेहि अयरकोडीणं । कालेणेवइएणं, सुपासनामो समुप्पण्णो ॥ कोडीसएहि नवहि उ, सुपासनामा जिणो समुप्पण्णो । चंदप्पभो पभाए, पभासयंतो उ तेलोकं ॥ णउईए कोडीहिं, ससीउ सुविहीजिणो समुप्पण्णो । सुविहिजिणाओ नवहि उ कोडीहिं सीअलो जाओ। सीअलजिणाउ भयवं, सिज्जसो सागराण कोडीए । सागरसयऊणाए, वरिसेहिं तहा इमेहिं तु ॥ छब्बीसाए सहस्सेहि, चेव छासही सयसहस्सेहिं । एतेहिं ऊणिआ खलु कोडीमग्गिल्लिा होइ । चउपण्णा अयराणं, सिज्जंसाओ जिणो उ वसुपुज्जो । वसुपुज्जाओ विमलो, तीसहि अयरेहि उप्पण्णो ॥ विमलजिणा उप्पण्णो नहिं अयरेहिऽणंतइजिणो वि । चउसागरनामेहि, अणंतईतो जिणो धम्मो ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मि० ३००] तीर्थकराणां सामान्यम् । उसभे भरघो अजिते सगरो 'मगवं सणंकुमारो य । धम्मस्स य संतिस्स य जिणंतरे चक्कवहिदुगं ॥३०० ॥ १७५१॥ सन्ती कुंथू य अरो अरहंता चेव चक्कवट्टी यै ।। अरमल्ल्लिंअंतरम्मि य हवति सुभुम्मो य कोरवो ॥१७५२॥ मुणिसुनते णमिम्मि य 'होन्ति दुवे पउमणाभहरिसेणा । णमिणेमिसु जयणामा अरिट्टपासंतरे बम्भो ॥१७५३।। 'पंचसत अद्भपंचम बाताला चेव अद्धधणुभं च । चत्ता दिवइढधणुगं च चउत्थे पंचमे [११५-प्र०] चत्ता ॥१७५४॥ पणतीसा तीसा पुण अट्ठावीसा य वीस य धणि । पण्णरस बारसेव य अपच्छिमे सत्त तु धाणि ॥१७५५॥ चतुरासीती वावत्तरी य पुव्वाणमाहिता एते । पंच य तिण्णि ये मेगं तु एवमेते सतसहस्सा ॥१७५६॥ पंचाणउतिसहस्सा चतुरासीती य सहि तीसा य । दस तिणि सहस्साई अपच्छिमे सत्त वाससता ॥१७५७॥ धम्मजिणाओ संती तिहि उ, तिचउभागपलिअऊणेहिं । अयरेहि समुप्पण्णो, पलिअरेणं तु कुंथुजिणो ॥ पलिअचउभारणं, कोडिसहस्सूणएण वासाणं । कुंथूलो अरनामो, कोडिसहस्सेण मल्लिजिणो । मल्लिजिणाओ मुणिमुनो य, चउप्पण्णवासलक्खेहिं । सुनयनामामो नमी, लक्खेहिं छहि उ उप्पण्णो ॥ पंचहि लक्खेहि तओ, अरिटुनेमी जिणो समुप्पण्णो । तेसीइसहस्सेहि, सएहि अट्ठमेहिं च ॥ नेमीओ पासजिणो, पासजिणाओ य होइ वीरजिणो। अड्ढाइज्जसएहिं गएहिं चरमो समुप्पण्णो ॥ दी गा० ३७६-४१६; अनन्तरम्-1-१७ । हा गा. ३७६-४१५; अनन्तरम् १-१७ । म गा० ३७६-४१५; अनन्तरम् १-१७ । १ मघवं को हा मदी। २ वट्टीआ म । ३ ली अंतरे उ हव हा दी। °ल्लि अंतरे पुण म। ४ मुभूमो हा को मदी। ५ कोरव्वा जे । ६ हुन्ति हा दी म ।७ पउमनामहजे। ८ मा नेमीपासं को। नामो अर' हा दी। ९ इत आरभ्य [ १७५४ - ५८ ] गाथापञ्चकं नास्ति हादीमप्रतिषु । १० वीसइ ध को। ११°सीति को । १२ य एगं को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ३०१अहेव गता मोकण्यं सुहुमो बंभो य सत्तमि पुढनि । मेघवं सणंकुमारो सर्णकुमारं गता कप्पं ॥१७५८।। पंचैरहन्ते वंदन्ति केसवा पंच आणुपुवीए । 'सेज्जसतिविट्ठाती धम्मपुरिससीहपेरंता ॥३०१॥१७५९॥ अरमल्लिअंतरे दोणि केसवा पुरिसपोण्डे रियदत्ता । मुणिसुव्वतण मिअंतर णारायणों कण्हों णेमिम्मि ॥३०२॥१७६०॥ 'पढमो धणसीति सत्तरि सट्ठी य पण्ण पणेयाला । अउणत्तीसं च धणू छन्वीसा सोलस दसेव ॥१७६१॥ चतुरासीति विसत्तरि [११५-द्वि०] सैट्ठी तीसा य दस य लक्खाई। पण्णद्विसहस्साई छप्पणा बारसेगं च ॥१७६२॥ एगो य सत्तमाए पंच य छट्ठीय पंचमी" एगो । एगो य चउत्थीए कण्हो पुण तच्चपुढवीए ॥१७६३॥ अणिताणकदा रामा सव्वे वि य केसवा णिताणकडा । उड्ढंगामी रामा केसव सम्वे अधोगामी ॥१७६४॥ अटुंतकडा रामा एगो पुण बंभलोगकप्पम्मि । तत्तो चई चइत्ताणं "सिज्झिहिती भरधवासम्मि ॥१७६५।। चक्किदुगं हरिपणगं पणयं चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव दु●क्कि केसी य चक्की य ॥३०३।१७६६।। अंध भणति णरवरिंदो तात ! इमीसेंत्तियाए परिसाए । अण्णो वि कोई होहिति "तित्थकरो इमम्मि वासम्मि ॥१७६७॥ तत्थ मिरीणामं आदिपरिव्वाअओ उसभणत्ता । सज्झायझाणजुत्तो एगंते' अच्छति महप्पा ॥३०४॥१७६८॥ १ भगवं को। २ पंचरिहं को। ३ सिज्ज म हा दी। ५ दुणि हा दी। दुन्नि म । ५ पुंड' म हा दी। ६ °रि म हा दी। रंमि को। . "यण को हा म दी। ८ कण्ह को म। कण्हु हा दी। ९ इत आरभ्य गाथापञ्चकं (गा. १७६१-१७६५) नास्ति हादीमप्रतिषु । १. सीती को। ११ पाणवणता जे । १२ सट्ठा को। १३ छट्ठीए को । १४ पंचमा जे । १५ तत्तो वि चइत्ता को। १६ सिज्झिस्सइ भारहे वासे को । १७ दुचक्की केसव चक्की य को । दुचक्की हा दी। १८ आचार्यहरिभद्रेण दीपिकाकारेण चेयं गाथा मूलभाष्यत्वेन निर्दिष्टा । १९ इमीसित्तिआइ हा दी म । इमीसेतियाए को। २० कोवि को हा दी म । २१ होही भरहे वासम्मि तित्थयरो हा दी म । होहिइ तित्थगरु इम को । २२ मिरीई नाम को। मरीईनामा हा दी म। २३ ते झायइ को हा दी म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि०३१५ ] . ऋषभचरिते मरीचिः । तं दाएति जिणिन्दो एव णरिन्देण पुच्छितो संतो । धम्मवरचक्कवट्टी अपच्छिमो वीरणामो त्ति ॥३०५॥१७६९।। [११६-०] आतिकरो दसाराणं तिविठ्ठणामेण पोतणाधिपती । पियमित्तचक्कवट्टी मूआए विदेहवासम्मि ॥३०६॥१७७०॥ तं वयणं सोनूणं राया अंचिततगुरुहसरीरो। आपुच्छितूण पितरं 'मिरीयिमभिवंदओ जाति ॥३०७॥१७७१।। सो विणएण उवगतो कातूण पदाहिणं च तिक्खुत्तो । वंदति अभित्थुणंतो इमाहि महुराहि वग्गृहि ॥३०८॥१७७२॥ लाभा हु ते सुलद्धा जं सि तुमं धम्मचक्कवट्टीणं । होहिसि दसचोदैसमो अपच्छिमो वीरणामो त्र्तिं ॥३०९॥१७७३॥ आतिकरो दसाराणं तिविठ्ठणामेण पोतणाधिवती । पियमित्तचक्कवट्टी मूविदेहाय वासम्मि ॥३१०॥१७७४॥ "ण वि ते पारिवज्ज वदामि अहं इमं च ते जम्मं । जं होहिसि तित्थकरो अपच्छिमो तेण वन्दामि ॥३११॥१७७५॥ एवण्हं थोतूणं कातूण पदाहिणं च तिक्खुत्तो। आपुच्छितूण पितरं विणीतणगरि अध पविट्ठो ॥३१२॥१७७६॥ १३ वयणं सोतुणं तिवई अप्फोडितण तिक्खुत्तो। अब्भति(धि)य[११६-द्वि०]जातहरिसो तत्थ "मिरोयी इमं भणति ॥ ३१३॥१७१७॥ जति वासुदेव पढमो मूयविदेहाए चैक्करहित्तं । चैरिमो तित्थकराणं होउ अलं ऍत्तियं मज्झं ॥३१४॥१७७८॥ अंहगं च दसाराणं पिता य मे चक्कवहिवंसस्स । अजओ तित्थकराणं अहो कुलं उत्तम मज्झं ॥३१५॥१७७९॥ १ नामु त्ति हा दी म । २ आइगरो को। आइगरु हा दी म। ३ तिविठू हा दी। ५ मुआइ हा म दी। मूयाए को। ५ अभिवंदिऊण पि को। ६ मिरीइ अभिवंदिओ जाइ को। मरीइमभिवंदओ जाइ हा दी म । ७ चउदसमो म हा दी। ८ 'नामु त्ति हा दी म । ९ गाथेयं पुनरावृत्ता सर्वत्र । द्रष्टव्या गा० १७७० । १० मूयाए विदेहवा को। ११ णाविअ ते पारिवज्जम । णावि अ पारिव्वज्ज हा दी। १२ वहादी। १३ तव्वय म हा दी। ११ मरीई म हा दी । १५ °हाइ च” को । मूआइ विदेह च म । मूआइ विदेहि हा दी। १६ चरमो को हा दी। १७ इत्तिअंम दी ह।। १८ अहयं म को हा दी। १९ मज्झ को म दी हा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ विशेषावश्यकभाष्ये अह भगवं भवमघणो 'संपुर्ण पुव्वसतसहस्सं तु । सीमण्णं विहरितूर्ण पत्तो अट्ठावदं सेलं ||३१६ || १७८० ॥ अन्तम्मि सेले चोदसभत्तेण सौ महरिसीणं । दसहि सहस्सेहि समं णेव्वाणमणुत्तरं पत्तो ॥ ३१७।१७८१॥ "व्वाण चितगआगिति जिणस्स इक्खागसेसगाणं च । सकषाथू भजिणघरे जायग तेण हितग्गति ॥ ३१८।। १७८२ ।। धूमसत भातुआणं चतुवीसं चैव जिणवरे कासी । सव्वजिणाणं पडिमा त्रण्णपमाणेहि णियऐहि ।। १७८३॥ [ नि० ३१६ "आदंसघरपवेसो भर पडणं च अंगुलेस्स । सेसाण ओमूअणं संवेगो णाण दिक्खा य ॥ ३१९॥१७८४॥ पुरमात पितिदिक्खी संपत[ ११७ प्र० ]णुच्चत्तमेव संद्वाणं । कोमार रज्ज संगह छतुमत्थिय केवलं चायं ॥ १७८५ ।। - पुच्छंताण कती उवसंते देति साधुणी सीसे । "गेलणे अपडियरणं कविला ऐत्थं पि इधई पि || ३२० || १७८६|| दुब्भासितेण एक्केण मिरीयी दुक्खसागरं पत्तो | भमितो कोडा कोडि सागर सरिणा मैंधेज्जाणं ॥ ३२१॥ १७८७॥ तम्मूलं संसारो णीयागोत्तं च कासि “तिवयिम्मि । अँगालोइए भम्मि कविलो अद्धितो कधए || ३२२|| १७८८ || १ णो पुव्वाणमणूणयं सयसहरसं महा दी। २ अणुपुव्विं विहरित्ता को । अणुपुव्वि विहरिऊणं मदी हा । ३ चउदसभ महा दी । ४ सामकरि जे ५ निव्वा' म हा दो । ६ तमं जे । ७ निव्वाणं हा दी म । ८ चिरगाग हा दी म । ९ नियगेहि को । १० मूलभाप्यत्वेन संमता हा म दी । ११ आयंस हा म दी । १२ अंगुलेज्जस्स को अंगुलीअस्स हा मदी । १३ सेसाणं उम्मुअणं हा दो म। सेसाणं उम्मुयणं को । १४ गाथेयं नास्ति - हा दी म। १५ माही जे । १६ 'रिक्खा जे । १७ चाउं को । १८ को । गेलन्नि अप डि म । गेल उडिए म हा दो । १९ रोजे । २० हा दो । २१ इत्थं म को हा दो । २२ एगेण को । इक्केण हा मदी । २३ मरी हा दी म । २४ कोडी को । २५ 'मधिज्जा' को म । २६ तिवइम्मि म । तिव इंमि हा दी । तिवतिमि को । २७ अगलोइउ को । अपडिवतो हा दी म । २८ भम्मि जे । चंभे हा दी मं । २९ अतद्वितो जे को । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ३३१] ऋषभचरिते मरीचिः। .. ३१९ इक्खाएसु मिरीयी चतुरीसीती य वम्भलोगम्मि । कोसियो कोल्लाएमु य असीतिमायुं च संसारे ॥३२३॥१७८९।। धूणाएं पूसमित्तो आयु बावतरं च सोधम्मे । चेतिय अग्गिज्जोतो चोवट्ठीसाणकप्पम्मि ॥३२४॥१७९०।। 'मन्दिरेमु अग्गिभूतिच्छप्पणीयु सणंकुमारम्मि । सेतविय भरदायो चोतालीसं च माहिन्दे ॥३२५।।१७९१।। संसरिय थावरो रायगिहे "चोत्तीस "वम्हलोगकप्पम्मि । छस्स वि पौरिव्यज्ज भमितो [११७-द्वि] तत्तो य संसारं ॥३२६॥ १७९२॥ रायगिह विस्सगंदी विसाहभूती य तस्स जुवराया। जुवरण्णो विस्सभूती विसाहणन्दी य इतरस्स ।।३२७।१७९३॥ रायगिह विस्तभूती विसाहभूति,तखत्तिए कोडी । वाससहस्सं दिक्खा संभूतजतिस्स पासम्मि ॥३२८॥१७९४॥ गोत्तासितो" मधुराए सणिदाणो मासिएण भत्तेगं । महसुक्के उववण्णो ततो चुतो पोतणपुरम्मि ॥३२९॥१७९५॥ पुत्तो पयावतिस्सा मियादीदेविकुच्छिसंभूतो । णामेण तिविठू ती औदी आसी दसाराणं ॥३३०॥१७९६॥ चुलेसीतिमप्पतिढे सीहो णरगेमु तिरिय मणुएसु । पियमित्त चक्कवट्ठी मूअविदेहाए चुलसीती ॥३३१।१७९७॥ १ इक्खागेमु को। इक्खागेसु हा दी म । २ मिरिई को । मरीई हा दी म । ३ रासीइ को। ४ उ को। ५ कोसिउ को' को। कोसिअ कुल्लागम्मी म । कोसिउ कुल्लागंमी हा दी। नास्ति म हा दो । ७ धूगाइ हा दी। थूणाई म । ८ चोवट्ठी चेव इसाणे म । ९ मंदरे अग्गिभूई छ दा। मंदिरे अग्गिभुई छ' हा म । मंदिरेसु अग्गिभूई छ' को। 10 °गा उ दो हा । गाउं को म । ११ सेअविभा' मदी हा। सेयविभा को । १२ चरतीस म हा दी। १३ वंभ को। बंभलोगम्मि म हा दी। १४ पारीवजं को। १५ भूतीय को। भुइमुओ ख' हा दी। भूइसुअख' म । १६ 'सिउ म को दी हा । गुत्तासिओ म म । १७ उप्पणो को। १८ वईकु म । वइंद' को। ११ संभवो भयवं म । २० 'त्ति म । २१ अइं हा दी । २२ 'सीईम' हा दी । २३ मयविदेहाई चुलगीते को। मूआइ विदेहि चुलसीई हा दी। मुया विदेहाइ चुलसीइ म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ३३२पुत्तो धणंजयस्सा पुट्ठिल परियाओं कोडि सवढे । णन्दणो छत्तगाए पणुवीसायु सतसहस्सा ॥३३२॥१७९८॥ पन्वज्जे पोट्ठिले सतसहस्स सव्वत्थ मासभत्तणं ।। पुप्फुत्तरे' उववण्णो ततो चुतो माहणकुलम्मि ॥३३३॥१७९९॥ अरहन्तसिद्धपवयणगुरुथेरबहुस्सुते तवस्सीसु । [११८-०] वच्छल्लता य एसिं अभिक्खणाणोवयोगे य ॥३३४॥१८०० दसण विणए आवस्सए य सीलव्यते णिरतियारो । खणलवतवच्चियाए वेयावच्चे समाधी या ॥३३५॥१८०१॥ अप्पुव्वणाणगहणे सुतभत्ती पवयणे पभावणया । एतेहि कारणेहि तित्थकरत्तं लभति जीवो ॥३३६॥१८०२।। पढमण पच्छिमेण य एते सव्वे वि फासिता द्वाणा । मज्झिमएहि जिणेहि एक्कं दो तिण्णि सव्वे वा ॥३३७॥१८०३॥ अरहंता सत्यारो (दारं) सिद्धा णिद्धृतसव्वकम्माणो । पवयणमिह सुतणाणं संघो व जतो तदाधारो ॥१८०४॥दारं॥ धम्मोवदेस दिक्खा वदोवदेस दिसवायगा गुरवो । एत्थेव उवज्झाओ गहितो मुतवायणायरिओ ॥१८०५॥ जाती[११८-द्वि]सुतपरियायेत्थेरो जातीय सहिवरिसो" तु । सुततो समवायधरो वीसतिवरिसो य परियाए ॥१८०६॥दारं॥ जस्स सुतं बहुतरयं जत्तो स बहुस्सुतो तधत्थे वि । मुत्तधरादॆत्थधरो अत्यधरातो तदुभयण्णो ॥१८०७।।दारं। स तबस्सी जस्स तवोऽणसणादिविसेसतो विचित्तो वा। जो जथै विसे सितो वा जैती व अविसेसतो सव्यो ॥१८०८॥॥दार।। १ पुट्टिल म हा दी । २ °याउ को' को म । परिआउ हा दी। ३ °न्दण छत्तागाए को। नन्दण छत्तग्गाए म दी हा। १ साउं को म हा दी। ५ पवज्ज ओट्ठिले जे । पवज्जा पो को । पव्वउज पुट्टिले म हा दी। ६ तरि को हा दी। ७ गा० १८००-१८०३ पुनरावृताः । द्रव्याः गा० १५८२-१५८५ । अत्रापि हादीमप्रतिषु 'तंच कह' इत्यादिगाथाद्विकं पुनरावृत्तम् । ८ तेसिं को। ९ वेता जे। १० कम्मरया को। ११ °याए थे' को । १२ : जाईए स को। १३ °रिसा उ जे । १४ °धरा अत्थ' को । १५ जध चिरोसितो जे। १६ वा अतीव को । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ३३८] तीर्थकरनामकर्मलामे कारणानि । ३२१ एतेसु जोणुरागो संतगुणुक्तित्तणा पमोदो य । जो जस्से य उवयारो जोग्गो सा होति वच्छलता ॥१८०९॥ सज्झायव्वावारो भिक्खणमध दंसणं च सम्मत्तं ॥दार। दंसणणाणचरित्तोवयारभेतो य विणयो तू ॥१८१०॥दा।। आवस्सगाई संजमवावारा जे अवस्सकरणिज्जा ॥दार।। सीलाई उत्तरगुणा (दार) मूलगुणा छ व्यताई तु ॥१८११॥दारं।। एतेसु दंसणातिसु णिरतीयारो ति जो णिरवराधो ॥दारं॥ संवेगभावणाओ झाणं य खणलवादीसु ॥१८१२॥दारं॥ सत्तीय [११९-०] तबोकम्मं (दार) दाणं चाओ त्ति जतिजणे विधिणा ॥दा।। वेयावच्चं दसविध जणोवगारा य वावारी ॥१८१३॥ गुरुकज्जसाधणातो संघाती सत्यता समाधि त्ति ॥दारं॥ अप्पुवमुतग्गहणं पयत्ततो णाणभत्ती य ॥१८१४॥॥दारं।। मग्गस्स जधासत्तीय देसणं पवयणप्पभावणता । जेणं बंधति णामं एतेहि विसुद्धपरिणामो ॥१८१५॥ ॥दारं।। तं च कधं वेतिज्जति ? अगिलाए धम्मदेसणादीहिं । वज्झति तं तु भगवतो ततियभवोसक्कइत्ताणं ॥३३८॥१८१६।। तहितिमोसक्केउं ततियभवो जाव अधव संसारं। तित्यकरभवाओ वा ओसक्केतुं भवे ततिए ॥१८१७॥ जं बज्झति ति भणितं तत्थ णिकाइज्जति ति णियमोऽयं । तदवंज्झफलं णियमा [११९-द्वि] भयणा अणिकाचिताऽवत्थे ॥१८१८॥ आरंभ बंधसमया सततं उवचिणति जाव अप्पुव्वी । संखेज्जे भागे तू केवलिकालम्मि उदयों से ॥१८१९॥ १ जो जस्स जोवयारो जे । २ जोगो सो को। ३ उ को। वेत जे । १ वावारो को । ५ एषा गाथा जे प्रतौ 'णियमा मणुय [गा० १८२०] इत्यनन्तरं लिखिता वर्तते किन्तु कोप्रत्यनुरोधेन अर्थदृष्टया च तया अत्रैव भाव्यमिति अत्र स्थापिता । ६ "आरभ्य बन्धसम. यादिति निकाचडा(ना)रम्भकालादारभ्य यावदपूर्वकरणं यावदर्हदादिषु भक्ता(क्त्या)दिकृपा(दा) दरवानित्यर्थः, भावाद(तावद)सौ सततं बध्नाति प्रारम्भबन्धापेक्षया विशुद्धतरपरिणामः संख्येयभागाधिकं उत्तरोत्तरं यावदायुषपरिज्ञाया(रिक्षयः। ) अवचूण्णका गाथाद्वयम्” इति गा १८२९ इत्यनन्तरम् जे. प्रती लिखितं वर्तते । तत्तु गा. १८१९ इत्यस्याः टिप्पणीति मत्वात्र स्थापितम् । ७ सो जे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ विशेषावश्यकभाष्ये [ नि०३३९ णियमा मणुयगतीए इत्थी पुरिसेतरो व मुह लेस्सो।' आसेवितबहुलेहिं वीसाए अण्णतरएहिं ॥३३९॥१८२०॥ माहणकुण्डग्गामे कोडालसगोत्तमाहणो अत्थि । तस्स घरे उववण्णो देवाणन्दाय कुच्छिंसि ॥३४०॥१८२१॥ सुविणमवहारैभिग्गह जम्मणं अभिसेग वढि सरणं च । भोसण विवाहऽवच्चे दाणे संबोध णिक्खमणे ॥३४१॥१८२२॥ गय वसभ सीह अहिसेय दाम ससि दिणकरं झंयं कुम्भं । पयुमसर सागर विमाण भवण रतणुच्चय सिहिं च ॥१८२३॥ एते चौद्दस सुमिणे पासति सा माहणी मुह पमुत्ता ॥ जं रतणि उववण्णो कुच्छिंसि महायसो वीरो॥१८२४॥ गं विमाणभवणं तो चोद्देस होन्ति तं च कधमेगं । जं भणियं वेमाणियदेवावासो ण सेसं ति ॥१८२५॥ वेमाणियागताणं च विमाणं भवणमधरणामातो। पेच्छंति मातरो इहे विमाणभवणाई ण तु दो वि ।।१८२६॥ अध दिवसे बोसीर्ति वसति तहिं माहणीय कुच्छिंसि । (१२० -प्र०)"चिंतेति मुंधम्मवती साहरितुं जे जिणं कालो ॥१८२७॥ अरहंत चक्कवट्टी बलदेवा चेव वासुदेवा य । एते उत्तमपुरिसा ण हु तुच्छकुलेसु औयंति ॥१८२८॥ उग्गकुलभोगखत्तियकुलेमु इक्खागणात कोरव्वे । हरिवंसे य विसाले आयंति तहिं पुरिससीहा ॥१८२९।। अध भणति णेगमेसि देविंदो एस एत्य तित्थकरो । लोगुत्तमो महप्पा उववण्णो माहणकुलम्मि ॥१८३०॥ १ लेसो को। २ °न्दाए के। दाइ म दी हा । ३ ममिण हा दी सुमिणऽव म। ५ रमभि म। ५ णमभि म हा दी। ६ वुद्धि म । बुढि दी हा । ७ भेस म हा दी। ८ इत आरभ्य गा. १८५९ पर्यन्ता भाष्यकारीया गाथा इति हामदीप्रतिषु । ९ कर ज्झय को। १० चउदस को हा दी। ११ 'एगं' इत्यादिगाथाद्विक हामदीप्रतिषु नानिन । १२ चउदस को। १३ °णमवरणामाओ को। १४ इर जे, । १५ सीई हा दी। १६ गीए को। णीइ हा म दी। १७ चिंतइ हा दी। १८ सोह हा दी। १९ ज्जे जे । २० काले को। २१ जार्यात हा मदी। २२ जायंति म।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ ३२३ नि० ३४१] तीर्थकरवर्धमानचरितम् । खत्तियकुण्डग्गामे सिद्धत्यो णाम खत्तियो अत्थि । सिंद्वत्थभारियाए साहर तिसलाए कुच्छिसि ॥ १८३१ ॥ बाढं ति [१२०-द्वि० ] भाणितूणं वासारत्तस्स पंचमे पक्खे । सहरति पुव्वरत्ते हत्थुत्तर तेरसी दिवसे ॥ १८३२ ॥ गय 'उसभ सीह अभिसेय दाम ससि दिणयरं झयं कुम्मं । पउमसर सागर विमाणभवण रतणुच्चय सिहि च ॥१८३३॥ एते चोद्दस सुमिणे पासति सा माहणी पडिणियत्ते । जं रयणि अवहरितो कुच्छिसि महायसो वीरो ॥१८३४॥ *गय उसभ सीह अभिसेय दाम ससि दिणयरं झयं कुम्भं । पउमसर सागर विमाणभवण रतणुच्चय सिहि च ॥१८३५॥ एते चोद्दस सुमिणे पासति 'तिसला सुहप्पसुत्ता सा। जं रतणि साहरितो कुञ्छिसि महायसो वीरो ॥१८३६।। तिहिं णाणेहिं समग्गो देवीतिसलाए सो तु कुच्छिंसि । अध वसति सण्णिगन्भो छम्मासे अद्धमासं च ॥१८३७।। अध सत्तमम्मि मासे गब्भत्थो चेवभिग्गहं गेण्हे । णाई समणो होहं (१२१-प्र०) अम्मापितरम्मि जीयंते ॥१८३८॥ दोण्हं वरमहिलाणं गन्भे वसितूण गब्भसुकुमालो । णवमासे पडिपुण्णे सत्त य दिवसे समतिरेगे ।१८३९॥ अध" चेत्तसुद्ध पक्खस्स तेरसी पुनरत्त कालम्मि । हत्युत्तराहि जातो कुण्डग्गामे महावीरो ॥ १८४० ॥ आभरण रतणवासं वुढे तित्थंकरम्मि जातम्मि । सक्को ये देवराया सेंमागतो आगता णिधयो ॥ १८४१ ॥ तुट्टाओ देवीओ देवा आणंदिता सपरिसागा । भगवम्मि वद्धमाणे तेलोकक मुहावहे जाते ।। १८४२ ॥ ।। दारं ॥ १ गयसीहवसह म। २ रयणी हा दी। ३ कुच्छीउ म । कुच्छीओ दी । कुच्छीआ हा। ४ गयसीहवसह म । ५ °ति सा तिसलया सु म हा दी । ६ नास्ति म हा दी। प्रतिषु । ७ लाए सो य कुम । लाइ सो अ कु हा दी। ८ गिण्हे को दी हा । ९ जोवते को म हा दी । १० चित्त' हा दी । ११ वि म। व को । अ हा दी। १२ उवागतो म। उवागओ को हा दा । १३ तेलुक्क दी हा म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ३४१भवणपति वाणवन्तर जोतिसवासी विमाणवासी य । सब्बिड्ढय सपरिसा चतुविधा आगता देवा ।। १८४३ ॥ देवीहि सपरिवुडो देविंदो गेण्डितूण तित्थकरं । णेतूण मन्दरगिरि अभिसेयं तत्थं कासी य ।। १८४४ ॥ कातूण य अभिसेयं देविंदो देवदाणवेहिं समं । जणणीयअप्पिणित्ता जम्मणमहिमं तु कासी य ॥१८४५॥ खोमं कुण्डलजुयल सिरिदामं चेव देति से सक्को । [१२१-द्वि० मणिकणगरतणवासं उवच्छभे जंभगा देवा ॥१८४६॥ वेसमणवयणसंचोतिता तु ते तिरिय जंभगा देवा । कोडिग्गसो हिरण्णं रतणाणि य तत्थ उवणेन्ति ॥१८४७।। अध वड्ढति सो भगवं दियलोअचुतो अणोवमसिरीओ । दासीदासपरिवुडो परिकिण्णो पीढमदेहिं ॥१८४८॥दार।। असितसिरओ सुणयणो विवोटो धवलदन्तपन्तीओ । वरपउमगन्भगोरो फुल्लुप्पलगन्धणीसासो ॥१८४९।। जातीसरो "तु भगवं अॅप्पडिपडिप्रतेहिं तिहि तु णाणेहिं । कंतीय य बुद्धीय य अभतिओ तेरौं मणुएस ॥१८५०।।दारं।। अध ऊणअट्ठ वासस्स भगवतो सुरवराण मज्झम्मि । संतगुणकित्तणं" से करेति सक्को सुधम्माए ॥१८५१।। बालो अवालभावो अंबालपरक्कमो महावीरो । णहु सक्का “खोभेतुं अमरेहि सइंदरहिं पि ॥१८५२।। । वयणं सोतूणं अध एगों" सुरो असतो तें । [१२२-०] एति जिणसण्णिगासं तुरितं सो भीसैंणट्टाए ॥१८५३॥ १ वाणमन्त को म दो हा । • इिटइ दी हा। 'डीए म | : देवेहिं को म हा दो । ४ गिहि म हा दी। ५ तत्थ सेकासी || म । ६ णीइ समप्पित्ता हा दी। णीए अप्पइत्ता म । ७ च को म हा दी। ८ मं दइ चंय सकको से को। म चेव देइ सक्को से म दी हा। ९ उवणिन्ति को हा दी। १. अणुव' म । ११ ‘असित' इत्यादि गाथाद्विकं पुनरावृत्तम् । द्रष्टव्यं गा०१५९३-१५९४ इति गाथाद्विकम्। १० विबुटो को। १३ हुल्ल' जे । १४ य को । अ हा दी। १५ अप्परिवडिएहिं को म। १६ कंतीए बुद्धीए य अब्भ' म। १७ तेहिं मणुएहि को म । १८ `त्तणयं क को । गुणुक्कित्तगयं क म हा दी। १९ अब्बाल जे । २० सवकइ भेसेउ हा दी। सक्को मेसेउ म। २१ एगु हा दी। २२ य म । २३ भेस' को मादी हा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ नि० ३४२] वीरचरितम् । सप्पं च तरुवर म्मिं कोतुं तेन्ट्सएण डिम्भं च । पैट्ठी मुट्ठीय हतो बन्दिय वीरं पडिणियत्तो ॥१८५४॥ अध तं अम्मापितर' जाणित्ता अधिय अवासायं । कतकोतुअलंकारं लेहायरियरस उवणेन्ति ।।१८५५।। सक्को अ तस्समक्खं भगवंतस्सासणे ‘णिवेसेत्ता । सदस्स लक्खणं पुच्छे वार्गेरिते अवयवा इंदं" ॥१८५६।। उम्मुक्कवालभावो" कमेण अर्धे जोव्वणं अणुप्पत्तो । भोगसमत्थं णातुं अम्मापितरो य वीरस्स ॥१८५७।। तिधिरिक्खम्मि पसत्थे महंतसामन्तकुपमूताए । कारेन्ति पाणिगहणं जसोतवररायकण्णाए ॥१८५८||दार।। पंचविधे माणुस्से भीए " जित्तु सह जसोताए । "तीयसिरिं व मुरूवं जैणयति पियदंसगं धृतं ॥१८५९।। "सो देवपरिगिहितो* तीसं वासाई [१२२-छि ०] वसइ गिहेवासे । अम्मापितीहि भगवं देवत्तंगतेहि पवइतो ॥३४२॥१८६०॥ "संवच्छरेण होहिति अभिणिक्खमग तु निणवरिन्दाणं । तो अत्थसंपताणं पंवत्तते पुव्यमरम्मि ॥१८६१।। एगा हिरण्णकोडी अटेव अणूणगा सतसहस्सा। 'सूरो तयमातीयं दिज्जति जा पातरासातो" ॥१८६२॥ "सिंघाडग तिग चतुक्क चच्चर चतुम्मुंह महापधपधेमु । दारेसु पुरवराणं "रच्छामुहमज्झगारेसु ॥१८६३॥ १ रम्मी म हा दी। २ तिदूस' म हा दो। ३ पिट्ठी को हा दी। पट्टीए म । १ मुट्ठीए म । मुट्टीइ हा दी। ', 'पियरो को म । पिअरो हा दी। ६ वासं तु को म हा दी। . उवणिति हा दी। ८ निवेगिना को हा म दी। ९ पुछ जे । १० वागरणा को। वागरण म हा दी। ११ ईदं जे । १२ भावं जे । १३ अइजोवणं को । अह जुव्वण म । १४ उ को म हा दी। १', 'लप्पन' को। १६ जसोय को म । जसोअ हा दो। १७ भोत्तण म । भुंजितु हा दो। १८ जसोदाए म । जसोयाए को । जसोआए दी हा । १९ तेय को हा दी म। २० जगइ य पिम । जगइ पि दी हा । २१ इतः पूर्व 'हत्थुन्नर' इत्यादिका नियुक्तिगाथा महादीप्रतिषु कोप्रतौ च दृश्यते । सा च जेप्रती व्यत्ययेन दृश्यते। द्रष्टव्या गा० १८६६ । २२ रिग्गहि म हा दी को । २३ गिहि को। २४ अम्मा हि को । अम्मापिइहि को दी। :, देवनिग जे।२६ मंबच्छरेग' इत्यादि गाथापञ्चक भाप्यत्वेन संमतं हादी म प्रतिषु । द्रष्टव्या टिप्पणी गा1१२।२७ पवत्तई को। २८ पायरासोउ म । पयरासाउ को। २९ संघा म । ३. चतुमुह जे। ३१ रथामुहमम्मकारेमु म रत्थामु य मशयारेगु को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ३४३वरवरिया घोसिज्जति 'किमिच्छियं दिज्जते बहुविधीयं । असुरसुरदेवदाणवणरिन्दमहिताण णिक्खमणे ॥१८६४॥ तिण्णेव य कोडिसता अट्टासीति च होन्ति कोडीओ। "असितिं च सतसहस्सा एतं संच्छुरे दिण्णं ॥१८६५॥ 'हत्थुत्तरजोएणं कोण्डगामम्मि खत्तियो जच्चो । वज्जरिसभसंघतणो भवियजण विबोधओं वीरो ॥३४३॥१८६६॥ सारस्सतमातिच्चा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिता अव्वाबाधा अग्गिच्चा चेव [१२३-५] रिट्ठा य ॥१८६७।। एते देवणिकाया भगवं वोधेति निणवरिन्दं तु । सव्वजगजीवहितयं भगवं ! "तित्थं पवत्तेहि ॥१८६८॥ एवं अभित्थे तो बुद्धो बुद्धारविंदसरिसमुहो। लोगंतियदेवेहिं कुण्डग्गामे महावीरो ॥१८६९॥ मणपरिणामो ये कतो अभिणिक्खमणम्मि जिणवरिन्देणं । देवेहि य देवीहि य समंततो उत्थतं गगणं ॥१८७०॥ भवणपतिवाणमंतरजोतिसवासीविमाणवासीहि । धरणितले गगणयले विज्जुज्जोवो"कतो खिप्पं ॥१८७१॥ जाव य कुण्डग्गामो जाव य देवाण भवणावासा । देवेहि य देवीहि य अविरहितं संचरंतेहिं ॥१८७२।। चन्दप्पभा य सीया उवणीता जम्ममरणमुकस्स । आसत्तमल्लदामा जलथैलयदिव्यकुसुमेहिं ॥१८७३॥ "पण्णासतिआयामा धणूणि वित्थिण्णाणवीसा" तु । छत्तीसैंतिमुन्निद्धा सीया चंदप्पमा भणिता ॥१८७४।। १ किमिच्छयं को। २ दिज्जइ म । ३ सीई म। ४ कोडीउ को। ५ असिय म । ६ द्रष्टव्या टिप्पणी गा १८६० । ७ कुण्डग्गा को म दी हा । ८ विबोहतो म। ९ वोहिति म। १० अगज्जीवहियं म। ११ भगव' तित्थंगरत्तं ति को । १२ अभिथुव्वं तो को हा दी म। १३ उ म । १४ उच्छुये को। उत्थुयं म । उच्छयं दी हा । १५ °सी य । को म दी हा । १६ °ज्जोओ को हा दी म। १७ °ण आवा को म हा दी। १८ जलयथल' हा दी । १९ यदिव्व को हा दी म। २० पंचासइ आ० म हा दी । २१ विच्छिण म। २२ वीसं तु को म हा दी । २३ °सं उवि म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ३४३] वीरचरितम् । ३२७ सीयाए मज्झयारे दिव्वं मणिकणगरतणचंचेइतं । सीहासणं महरिहं सपादपीढं जि[१२३ द्वि०]णिन्दस्स ॥१८७५।। आलइतमालमउडो भास(सु)रबोन्दी पलंबवणमालो । सेतयवत्थणियत्थो जस्स य मोल्लं सतसहस्सं ॥१८७६॥ छटेणं भत्तेणं अन्झवसाणेण सोभणेण जिणो । लेस्साहि विमुज्झतो आरुहती उत्तमं सीयं ॥१८७७॥ 'सीहासणे णिसण्णो सक्कीसाणा य दोहि पासेहिं । 'वीएन्ति चामेरेहि मणिकगगविचित्तदैण्डेहि ॥१८७८॥ पुलि उक्खित्ता माणुसेहि सा हैहरोमकूवेहिं । पच्छा वहं ति सोयं अमुरिन्दमुरिन्दणागिन्दा ॥१८७९।। चलचवलभूसणधरा सच्छंदविउविताभरणधारी । देविन्द दाणविन्दा वहति सीयं जिणिन्दस्स ॥१८८०॥ कुसुमाणि पंचवण्णाणि मुयंता दुंदुभीओ "वायेंता । देवगणा य पहढा समंततो "उत्थतं गगणं ॥१८८१॥ “वणसंडो ब्व कुमुमितो पउमसरो वा जधा सरयकाले । सोभति कुमुमभरेणं इय गगणतलं सुरगणेहि ॥१८८२॥ सिद्धत्थवणं व जघा असणवणं सणवणं असोगवणं ।। चूतवणं व कुसुमितं इय गगणतलं सुरगणेहि ॥१८८३।। [१२४ प्र०] अतसिवणं व कुसुमितं कणियारवणं व चंपयवणं वा । तिलगवणं व कुसुमितं इय गगणतलं मुरगणेहि ॥१८८४।। १ सीयाय को । सीआइ दी हा । सीयाए म । २ चिचइयं महा दी । ३ सिंहा' म। ४ जिणवरस्स म हा दो को। ५ मल्लदामो को । ६ लेसाहि को दी हा । . सिंहा' म। ८ वीयति म । वीएति को। वीअंति हा दी। ९ चामराहि जे । १० दण्डाहिं जे। ११ सा हट्ट को । १२ कुवे जे । १३ दुदुही य ताईता को दी हा । दुदुही उ ताडता म । १४ उच्छुयं को म । उच्छय हा दी। १५ इतः पूर्व गाथाद्विवं कोप्रतावधिकम्-- पुरओ वहति देवा [पच्छा] नागा पुण दहिणंमि पासंमि । पच्चच्छिमेण अमुरा गरुला पुण उत्तरे पासे ॥ कुसुमाणि पंचवण्णाणि मुयंता दुदुंमीउ वाएंता । देवगणा य पसण्णा समंतओ उत्तरंति नभे ॥ कोगा० १८९९-१०००। १६ रो ब्व जहा को । १७ गुण (?) म । १८ व हा दी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ३४४ वरपडहभेरिझल्लरिदुंदुभिसंखसहिएहि तूरेहिं । धरणितले गगणतले तुरितणिणादो परमरम्मो ॥१८८५।। एवं सदेवमणुयामुराए परिसाए परिवुडो भगवं । अभिथुन्वंतो गिराहि संपत्तो णायसंडवणं ॥१८८६॥ उज्जाणं संपत्तो ओरुहिया उत्तमातो सीयातो । सयमेव कुणति लोयं सको से पडिच्छती " केसे ॥१८८७।। जिणवरमणुण्णवेना अंजणवणरुअगविमलसंकासा । केसा खगेण णीता खोरसरिणामयं उदधिं ॥१८८८॥ दिव्यो मणुस्सघोसो तुरितगिणातो यं सक्वयणेणं । खिप्पामेव णिलुको जाचे पडिवज्जति चरितं ॥१८८९॥ कातूण णमोकार सिद्धाणे अभिग्गहं तु सो "गेण्हे । सव्वं मे अकरणिज्नं पावन्ति चरित्तमारूहो ॥१८९०॥ तिहि णाणेहि समग्गा तित्थकरा जाव होन्ति गिढवासे । पडिवण्णम्मि चरित्ते [१२४-छि०] चतुणाणी जाव छम्मत्था ॥१८९१॥ वहिया य णातसण्डे आपुच्छित्ताण णातए सव्वे । दिवसे मुहुत्तैसेसे कैम्मारग्गाममणुपत्तो ॥१८९२।। गोवणिमित्तं सक्स्स आगमो वागरेति देविन्दो । कोल्ला "बहुले छहस्स पारणे पयसवसुधारा ॥३४४॥१८९३॥ तिज्जतेंग पितुणो "वयेंस तिव्वा "अभिग्गहा पंच । अचियत्तोग्गैह ण वसणं णिच्च वोसट्टमोणेण ॥३४५॥१८९४॥ पाणिप्पेतं गिहिवंदणं च तह बद्धमाण वेगमदी। धणदेवसूलपाणिन्दसम्म वासऽहियग्गामे ॥३४६।।१८९५॥ १ तूरनि म हा दी। नुरियनि' को। २ णाग जे । ३ ओरभिया को । आरुहिउ म ।ओरुभइ हा दी। ४ सि को म ।'. 'चलाए को हा दी म । ६ बिना को म हा दी। . सरिसनाहा दी म । ८ व को । उ म । अ हा दी। ९ ‘णमभिग्ग' म हा दी । १० गिण्हे म हा दी। ११ छउमत्था को म हा दी । १२ “त्तमगं को। १३ कमारगाम समणु म । कुमारगाम समणु हा दी। १४ कोल्लाये वलो जे । कुल्लाग बहुल म । १५ तगा हा दो । १६ वयंस हा म दी । १७ तिव्य अ' को। निव्यं अ' म । १८ गहण वसण जे । अचियत्तुग्गहि न वसण हा दी। अचियत्तुग्गहऽनिवसण म । १९ पाणीप हा दी म। २० वेगवई को हादी म । Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ नि० ३५१] वीरचरितम् । 'रोदा य सत्त वेतण थुति दस सुमिणुप्पलऽद्धमासे य । मोराए सक्कारं सक्को अच्छन्दए कुवितो ॥३४७॥१८९६॥ भीमट्टहास हत्थी पिसाय णागे य वेतणा सत्त । सिरकण्णणासदन्ते नहच्छी पट्टी य सत्तमिया ॥१८९७॥ तालपिसायं दो कोइला दामदुगमेव गोवग्गं । सर सागर मूरन्ते' मन्दर सुमि[प्पले चेव ॥१८९८॥ मोहे य झाण पवयण धम्मे संघे य देवलोगे य । संसार णाण जसे ध[१२५-प्र०]म्म परिसाए मज्झम्मि ॥१८९९॥ "तण छेतंगुलि कम्मार वीर घोस महिसेन्दु दसपलिये । "वितिइन्दसम्म ऊरणे वतरीए दोहिणुवकुरुडे" ॥३४८॥१९००॥ ततियमेवच्चं भज्जी कधेहिति" ततो य पितुवयंसा तु । दाहिणेवायाल मुवण्णवालुआ कंटए वत्थं ॥३४९॥१९०१॥ उत्तरवाचालंतर वणसंडे चण्डकोसिओ सप्पो । ण" दहे चिन्ता सरणं जोतिस कोवाऽहि जातो हैं ॥३५०॥१९०२॥ उत्तरवाचाल णागसेण खीरेण भोयणं दिव्वा । सेतवियाएँ पतेसी पंचरंधे णिज्जैरायाणो ॥३५१॥१९०३॥ १ रु म । २ भीमद्ध जे । 'भीमट्टहास' इत्यादिगाथात्रिक मूलभाष्यमिति हा म । भाष्यमिति दी । ३ दन्ते हत्थ छ प में। नहऽच्छि पिट्ठी म । ४ कोइला य दा हा दी म । ५ सो जे। ६ सूरंतो म। ७ मुविण' हा दी। ८ संसार हा दी म । ९ परिसाय जे। १० इतः पूर्व एकगाथा "इयं गाथा सर्व पुस्तकेषु नास्ति सोपयोगा च" इत्युक्त्वा आचार्यहरिभद्रेण गृहीता। सा च को प्रतावपि उपलभ्यते । दीपिकायां "इयमन्यकर्तृकी' इत्युक्तम् । आचार्यमलयगिरिणा सा गृहीता व्याख्याता च । सा चैवम् मोरागसन्निवेसे वाहिं सिद्धत्थ तीतमाईणि । साहइ जणरस अच्छंद पओसो छेअणे सक्को । ११ महिसिंदु हादी म। १२ °लिया को। 'लिए म। १३ विइयंदम। १४ ऊरणग म । १५ दहिजे । १६ ओ जे । १७ ततियसमव जे। १८ भज्ज जे । १९ कहेहि नाह तओ को । कहए नाहं ततो म । कहीह नाहं तओ हा दी। २० ततो पिउवयंसो म । तओ पिउवयंसो हा दी को । २१ दाहिण चावाल जे । दक्षिण चावाल म । २२ उत्तर चावाल जे म । २३ तारि को । २४ ण डहे को। न डही म । न डहे दी हा । २५ उत्तर चावाल नागमेण जे । २६ दिन्नं म । २७ सेयवियाय हा दी । २८ पंचर हो म। २९णिज्जयाणो य ।। म । Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ३५२सुरभिपुरसिद्धयत्तो गंगा कोसिय विद ये खेमिलओ। णागसुडाह सीहे कम्बलसवला य जिणमहिमं ॥३५२॥१९०४॥ मथुराए जिणदासे आभीर विवाह गोण उपवासे । भंदीर मित्त धब्वे भत्ते ‘णागोधियागमणं ॥३५३॥१९०५॥ वीरवरस्स भगवतो णावारूढस्स कासि उवसग्गं ।। मिच्छादिट्टि परदं कम्बलसवला समुत्तारे ॥३५४॥१९०६॥ थूणाए बर्हि पोसो लक्खणमभंतरे य देविंदो । रा[१२५-द्वि०]यगिह तंतुसाला मासवखमणं च गोसालो ॥३५५॥ ॥१९०७॥ मंखलि मंख सुभद्दा सरवण गोवहुलैगेह गोसालो।। विजयाऽऽणंद सुणंदे "भोयणखज्जे य कामगुणे ॥३५६॥१९०८॥ "कोल्लाय बहुल पायस दिव्या गोसाल दट्ठ पव्वजा । बाहिं सुवण-खले पायसथाली "णियतीय गहणं च ॥३५७॥१९०९॥ वम्भणगामे णन्दोवणंद उवणन्द ते य पच्चैद्धे । चंपा दुमासखमणे वासावासं मुणी" खमइ ॥३५८॥१९१०॥ कालाए" सुण्णगारे सीहो विज्जुमति गोहिदासीए । खंदओ" दंतिलियाए पत्तालग मुण्णगारम्मि ॥३५९॥१९११॥ मुणिचन्दकुमाराए "कूवणय चंपिरमणिज्ज उज्जोते” । "चोराय चारि अगदे सोमजयंती उसमेंती ॥३६०॥१९१२॥ पिडीचंपा वासं तत्थ चतुम्मासिएण खमणेणं । कयंगल देउलवरिसे दरिद्दथेरा “य गोसालो ॥३६१॥१९१३।। १ विदू खे जे। २ हिमा म हा दी । ३ जिणवासे जे । ५ आभीरि जे । ५ भंडोरमणमित्त वच्चे म । भंडीर मित्त अवच्चे को हा दी। ६ नागोहिआगमणं म हा दी। ७ पुसो को म हा दी। ८ मभिं को म । ९ °तरं हा दी। १० गिह तंतवाला जे। 'गिहि तं' हा दी। ११ °लमेव को जे हा दी । १२ भोय खज्जकामणुसे जे । १३ कोल्लाग को। कुल्लाग दी हा म । १४ दिव्वं म । १५ °लपयसथली जे । 'लए पा मदी हा। १६ थालि नियत्ति गहणं च ॥ को। ली नियइ गहणं ॥ म हा दी। १७ पच्छद्ध जे । पड्ढे म। १८ मुणी वइ ।। जे । °णी वसइ को। १९ कालाए सुवण्णगारे जे दी। कालाय सुन्नगारे म । २० मइगुट्ठिदासीय म । मईगोट्ठीदासीय दी हा । २१ खंदो दंदी हा। खंदो दत्तिलि म । २२ कुव जे को। २३ चप को हा म दी। २४ उज्जाओ को ज्जाणे दी हा म । २५ चोरा अ जे। २६ उवसमेइ को हा दी। उवसमंति म । २७ गल ओउल जे । २८ थेराण गों म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ३७० ] वीरचरितम् । सात्थी सिरिभा शिन्दु पितुदत्त पयस सिवदत्ते । दारsगणिक्खवाले हेलिहपडिमाऽगणी पधिया ।। ३६२ । । १९१४ ।। तत्तो अ णंगलाए डिम्भ मुणी अच्छिक [ १२६ - प्र० ]ड्ढणं चेत्र । 'आवं मुहतासे मुणिय त्ति वाहि वलदेव || ३६३॥१९१५॥ चोरा मण्डर्वभोज्जं गोसालो वधण तेय झार्वणता | hat काही कळंबुआए य उवसग्गा || ३६४॥१९१६॥ लामु अ उवसग्गा घोरा पुण्णकलसा य दो तेणा । वज्जहता सकेण भद्दिय वासासु चतुमासं || ३६५ || १९१७॥ कतलसमागम भोगण मंखलि दधिकूर भगवतो पडिमा । जंबूसंडे "गोट्टीय भोजणं भगवतो पडिमा || ३६६ ॥१९१८॥ "तंवाए मंदिसेणो पडिमा आरविख वहण भयडहणं । कूविय चारिय मोक्खणं विजय पगव्भा य पत्तेयं ॥ ३६७॥१९१९॥ तेहि पधे गहितो गोसालो मातुलो त्ति वाहणया । भगवं वेसाए कम्मारे धणेण देविन्दो || ३६८|| १९२० ।। १९ गामाग विभेलग जक्ख उवसमे सालिसीस छणं । २१ "उवसग्ग तावसी तु विमुज्झमाणस्स लोगोही || ३६९।।१९२१॥ पुणरवि भद्दियणगरे तवं विचित्तं तु उवासम्म । मगधायें णिरुसगं “मुणि उद्[ १२६ द्वि] बद्धम्म विहरित्या ||३७० || ।।१९२२॥ ३३१ १ पिअदत्त म । पिउदत्त हा 1 पति को । २ शाला को । गणे नवा दी हा । 'गणी नहवाले म । ३ हलेदुप जे ४ आवंत जे । ५ मुणिओति अ दीहा । मुणिउत्तिय को म । ६ भुज्जं म ।७ साले को म । ८ आमण को हा दी। ९ लाभेसु जे । १० कलसी अ दो म । पुण्णाकलसा य दो दी हा 'लसा दो जे । " तत्थ पुन्नकलसा णाम अणारियगामो आवचू० पृ०२९० । “तत्थ पुण्णकलसो नाम अणारिय. गामो" हा गा० ४८२ । “पूर्णकलशाख्यौ ग्रामान्तराद् द्वौ स्तेनौ ।" दी गा ४८३ । " पूर्णकलशो नाम ग्रामः” म गा० ४८२ । ११ गुट्टिय म । १२ भोयणे जे को । १३ चंपाए दिसेणस्स पडिम जे । १४ 'किस भयववेदहणं जे । १५ मोक्खे वि० दी हा मुक्खो म । १६ माउलुत्ति म । १७ महणता जे । १८ 'रय' जे । १ गामग विभेलवा ज जे । गामाग बिलग ज हा दी म । गामाय बिभेलग ज' को । २० जक्ख तासी उवसमावसथुई । को हा दी । २१ (छण) सालिसीसे विसुद्धमाणस्स लोगोही को । छटेण सालिसीसे विभुज्झमाणस्स लोगोही म हा दी । २२ लोगोवी जे । २३ च को हा दी। वहीं जे। १४ मगाए को हा दी। मगहाइ म । २५ मणि जे । પૂર Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ३७१ आलभियाए वासं कुंडागे देउले पराहत्तो। 'मद्दण देउल समुहि गोसालो दोसु वि मुणि नि ॥३७१।१९२३॥ बहुसालगसालणे कडपूतण पडिम 'विग्घमावसमे । लोहग्गलर्मि चारिय जितसत्तू उप्पले मोक्खो ॥३७२॥१९२४॥ तत्तो य पुरिमताले वग्गुर ईसाण अञ्चए पडिमं । मल्लिंजिणायतणवाहि उण्णार वंसि "वधुगोडी ।।३७३।१९२५॥ गोभूमिवज्जलाह ति गोवकोवे य वंसि जिणुवसमे । रायगिट्टमवासं तु वज्ज भूमी वहुवसग्गा ।।३७४।।१९२६।। अँणियचारं सिद्धत्थपुरं निलथंभ पुच्छ णिप्फनी । उपेदिति अणज्जो गोमालो वास बहुला य ॥३७५।।१९२७।। मगधा गोवरगामे गोसक्खी वेसिआण पाणामा । "कुम्मग्गामातावण गोसाले कोवण पउद्दे॥३७६।।१९२८।। वेसालीए पूयं संखो गणराय पितुवएंसो त । गण्डइआसरितिण्णो चित्तो णावाए भइणि मुतो ।।३७७।।१९२९॥ वाणियगामातावण आ[१२९:४०]णंदोधी परिसहस हे त्ति । सावत्थीए वासं चित्ततयो साणुलहि वहिं ॥३७८॥१९३०॥ पडिमा भद महाभद्द सव्वतोभद्द पढमिया चतुरो। अट्ट य वीसाणंदे बद्दलीय तध उज्झिति य दिना ॥३७९॥१९३१॥ १ कंटाए जे। कंडाए को । कुडंग तह दे' म । २ मग जे। 'ल समुहि गो को। 'ल सारिअ मुहमूले दोसु हा दी । 'ल सागारियं महे दोम म । : f गय। जे । . विग्धणोव को हा दी म । ६ म्मि गरिय जे । ५ मुक्यो म । ८ पडिमा को हा दी। महिमं म। ९ मल्लीजिणायणपडिमा उहा दी। म। १० बहुगी म। 11 ‘लाहेन्ति जे। लाढे गो हा दी । लाढि नि म । १२ ठुकम जे । १३ बालः यज' को दी हा । १४ अनियतवासं सि म । अनिअयवासं सि को हा दी। ।, कन्ट को। १६ उप्पाडेइ को म हा दी। १७ लाए को हा दी म । १८ गोचरगान म को । गोवरगामो हा दी। १९ गोसंखी को म हा दो । २, कम्मगा मनाया ज। कानागामायावण म।२१ पट्टे हा दी। २२ वमालेए जे। वसालीए पदिम डिभ मणि ति जय गणगया। पुएइ संखनामो चिनो नावाइ भगिणिमुओ। को हा दी। मालीए पटिम म। :: यम । २४ गंदइया तवणं चि जे । २५ आणं दो ओहि प' को हा दी। माह नि म को । महिंति हा दी। २. उझिया दिव्वा म । उज्झिदिय दिव्या की । झिए दिव्य! हा दी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ३८९ ] वीरचरितम् । "भूमी वहिता पेढा णाम होति उज्जाणं । पोलासचेतियम्मिं द्विगरातिं महापडिमं || ३८० ।।१९३२ ।। सको य देवराया सभागतो भणति हरिसितो वयणं । तिण लोग समत्था जिणवीरमिणं चलें ज्जे || ३८९ || १९३३ || सोधम्मप्पवासी देवी सकस्स सो अमरिसेणं । सामाणिय संगम वेति मुरिन्द्र पडिनिविट्टो || ३८२ । । १९३४ ।। तेलोकं असमत्थं ति बेह एतस्स चालणं काउं । अज्जेव पास इमं मम वसगं भजोगतवं ॥ ३८३ ।। १९३५ ।। ३३३ अध आगतो तुरंतो देवो सकस्स सो अमरिसेणं । कासी य उवसग्गं मिच्छंदिट्ठी पडिणिविट्टो || ३८४।।१९३६।। धूली पिवीलियाओ उसा चैव तथ य उन्होला । "विच्छुग णउला सप्पा य मूसगा चेव अनुमगा ||३८५ ।।१९३७ ।। हत्थी हथि [ १२७ - द्वि० ]णियाओ पिसाव बोरस्वग्वे य । थेरो थेरी सूतो आगच्छति पक्कणो य तथा ।। ३८६|| १९३८ ।। खरवात कलंकलिया कालच्चैक्कं तथेव य । पाभातियें उवसग्गे वीसतिमो" होति अणुलोमो ||३८७|| १९३९ ॥ सामाणि देवेति देवो दाएति सो विमाणगतां । भण " य वरेहि महरिसि ! गिरफत्ती सरगमोक्खाणं ।। ३८८ ।। १९४० । उवहतमतिविणाणी तावे वीरं बहु सहावें । 'ओधीय जिगं ज्झायति झायति छज्जीवहितमेव ॥ ३८९१-१९४१॥ 1 १ भूमी बहुमेच्छा पेडगामा भगयं को दी बहुमिच्छा पे... म । २ "मि दिएगराई को । 'यमी टिएगराई हा दी। भिम । वीरम नचालेको हा दी । वीरमिणं चलेडं जे म । ४ ओ एति मुरिन्दो डिजे । एजे । ति पेह ए को । ति पेहए तस्स दी हा । 'गं रुद्वजो को । ७ कामी यह उपमहा दी । कासी अ य उवसग्गं को । मिच्छादिट्टी को म । स खलु तब उन्हेल को । १० विच्चुग जे वियदी हा । बिच्छु म ११ वग्घो म हा दी । १२ च को हा दी म १३ प्राभाइ म । १४ मे म । १५ मे म। १६ देविद्धि महा दी । 'देविटि को । १७ इ वरेह म । '३ य वरह की हा दी । १८ एषा गाया तो नास्ति । १२. पसाहेउ दी हा | २० ओहीए निज्झाइ झा हा दी । ८ 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ विशेषावश्यकभाष्य [नि० ३९० वालुअपंथे तेणा मातुलपारणए तत्थ काणच्छिं । तत्तो सुभो मअलि मुच्छेत्ताए य विडरूवं ॥३९०॥१९४२॥ मलए पिसायरूवं सिवस्वं हथिसीसए चेव । ओहसणं पडिमाए मसाण सको जर्मण पुच्छा ॥३९१।।१९४३।। "तोसलि खडगवं संधिच्छेदो इमो नि बझो ति ।। मोएति इन्द जालिमो तत्थ महाभूतिलो णाम ॥३९२॥१९४४॥ मोसलि 'संधि समागध माएती रट्रिओ "पितिवएंगो।। तोसलिय सत्तरज्ज" वायत्ती तोसलीमोक्खे ॥३९३॥१९४५।। [१२८-प्र०] सिद्धत्वपुरे "तेणो त्ति कोसिभो आसवाणिओ मोक्खो। वयगामहिण्डणेसण "वितियदिणे बति उसंतो ।।३९४॥१९४६॥ बच्चध हिंडधैं न करेमि किंचि इच्छा ण किंचि वत्तव्यो । तत्थेव वच्छवालियथेरी परमण्ण वसुधारा ॥३९॥१९४७।। छम्मासे अणुवद्धं देवो कासीय "सो उबस्सग्गं । दण वयग्गामे वन्दिय वीरं पडिणियच। ॥३९६।।१९४८॥ देवो "चुतो मैहि इढीपी मैन्दरलियाए सिहरम्मि । परिवारितो मुंरवधूहि तस्स य अंतरोवमं सेसं ॥३९७।।१९४९।। ऑलभिया हरि पियपुच्छा जितउवसग्ग थोवसेस च । हरिसह सेतवि सावत्थि खओ पडिमा य सको तु ॥३९८॥१९५०॥ १ वालुग' को । वालुय म दी हा । : कारण जे। ३ मुभोमंजलि जे । ४ सुच्छि ’ को हा म दी । ... सीसए कासी म। सामए जे : जवण' को हा दी म । ७ ओसलिकुकुसिस्सरूवेण सं. जे । तोसलि कुसिस्सरूवेण सं० को हा दी। ८ वज्झो य को हा दी म। ९. इंदजालित म । इंदालिउ हा दी। इंदयालिट को। १० संधि समागम मों म । ११ पिर' हा दी । जय को। भजे । १३ मोगली जेको । १५ तिण्णो जे । तेणे त्ति दी हा । तेणु ति म । १', माक्व को। १ः बीयदिणे को। १५ 'ध करें जे । १८ वाली थे दी म हा । १९ सो उ उवमागे को। सो उ उवसगं दी हा म। २० ठिओ को। २१ महिढीउ को। इट्टी सो म म । 'ड्डिओ वरमंदरचलियाइ दी। ड्ढीओ वरमंदलियाइ हा । २२ मन्दिर जे। य मागरोवमं सेसं को। २३ सुरवहहि आउमि सागरे सेमे दी हा । २४ य सागरोयम सेय को। य अयरों म । २५ अस्याः गाथायाः विस्तरेण द्वे गाथे कृत कोमहादीपु इति भनि । यथा आलभियाए हरि विज्ज़ जिणम्स भनीए वंदना एइ । भगवं पियपुच्छा जियउवसग्गा थोवसेसं च ॥ हरिसह सेयवियाए सावधि खंदपडिमाए सक्को य । ओयरिउं पडिमाए लोगो आउट्टिउं वंदे ।। को १९७१-२ । दी ५.१६-७ । हा '१५-६ । म. १.१४-५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ नि० ४०७ } वीरचरितम् । कोसंबी' चंदमूरोतरणं वाणारसीय सको तु । रायगिहे ईसाणो मिधिलाए जणओ य धरणो य ॥३९९।।१९५१।। वेसालि वास भूदाणंदे चमरुप्पातो य मुस्मुमारपुरे । भोगपुरि सिन्दिकंटग माहिन्दो खत्तियो कुणनि ।।४००।१९५२।। साणकुमारमोअण णन्दिग्गामे य पिनुसहो णन्दी । 'मेण्डिय[१२८-द्वि.]गामे गोवा वित्तामणगं च देविन्दा।।४०१।१९५३।। कोसंबीएँ सताणीओ अभिग्गही पासवहलपाडिए । चातम्मास मियावेति विजय सुगुत्तो य णन्दा य ॥४०२॥१९५४!! तच्चायती चंपा दधिवाहण वसुमती विजयणामा । धणवह मूला लोअण संपुल. दाणं च पधज्जा ।।४०३।।१९५५।। तत्तो मुमंगलाए सणंकुमार मुच्छेत्ताए य माहिंदो । "पालग वाइलवणीए अमंगलं अप्पणो अमिणा ।।४०४॥१९५६॥ चंपा वासावासे जवखेन्दो सातिदत्त पुच्छा य । "वागरणदुंधा पदेसण पच्चक्खाणे य दुविधे तु ॥४०५।१९५७।। जंभियगामे णाणस्स उप्पदा बागरेति "देवेन्दो । । "मेण्ढियगामे चमरो वन्दण पियपुच्छणं कुणति ।।४०६॥१९५८॥ " छम्माणि गोव कंदसलपवेसणं मज्झिमाए पाबाए । खरो “वज्जो सिद्धत्यवाणिो णीहरावति ।। ४०७॥१९५९॥ १ कोसंवि को म । २ सीइ म । 'लाज' को दी हा म । ४ 'लिभूयणदो दी हा। , संममा को दी हा ।मृममा म । : "१ मिटिकंद य को। परि सिंद कंदग दी हा । पुरसि म। गणंकु का। वारण मणकनारे नंदीगामे पिटयह वंदे दी हा। वारण सुणकमार नदियगामे पिमहा व म । ८ मदिय दोहा। ९ गों को। 1. बीइ म । 'घि मया को । विए हा। अभिगहो' इति नास्ति दी १२° वई दी हा । १३ चउमाम य नि को । बाउन्नम मि म । 1 वई ई हा। १, मगोत्तो को । 15 मई अबोजनामा म । मनी यांच्य जे को। १७ दाणे हाई म। १८ तत्तो अ ममंगल सण म। 1ला ग जे। मुन्छेत्तए य मा” को। मुछ एइ मा दी हा म । २१ बालग को। वाट्य वाटत म । याम जनिखदा को वासं ज हा दी म । २३ सतिद जे। ? बागरदु जे । २. दुहपदे को म हा । २६ दविंदो को म हा दी। २५ मिटि दी म हा । २८ कडसिल को कडसल दी हा । २९ विज्जो को दी हा म । ३८ वणियो को। वाणियओदी हा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४०८-] जंभियगाभेजुवालिया वियावत्त साम सालमभासे । छटेणुक्कुइयस्स तु उप्पणं केवलं गाणं ॥४०८॥१९६०॥ जो अ तवो अणुचिण्णो वीरवरेणं [१२९--प्र०] महाणुभावणं । छतुमत्थकालियाए अधक्कम कित्तास्सामि ।।१०९।।१९६१।। णव किर चातुम्मास छ विकर दोमासिए उवासी य । वारस य मासियाई चावतार अद्धमासाई ॥४१०॥१९६२॥ एगं किर छम्मासं दो किर तेमासिए उवासी य । अइहातिजाइय दुवे दो चेयं दिवड्डमासाई ॥४११।।१९६३॥ भई च महाभई पडिमं तत्तो य सव्यतो भदं । दो चत्तारि दसेव य दिवसे ठोसी य अणुबद्धं ॥४१२॥१९६४।। गोअरमभिग्गहजुतं खमणं छम्मासियं च कासी य । पंचदिवसे हि उणं अव्वधितो वच्छणगरीए ॥४१३।।१९६५।। दस दो अकिर महप्पा ठाति मुणी एगरातिय पडिमं । अट्ठमभत्तेण जती ऐक्केक्कं चरिमरातीयं ॥४१४॥१९६६।। दो चेव य छह सते अउणत्तीसे उवासिया भयेवं । ण कताइ णिचभत्तं चउत्थभत्तं च से आसी ॥४१५॥१९६७॥ वारसवासे अधिए छटुं भत्तं जहण्णयं आसी । सव्यं च तवोकम्मं अपाणगं आसि वीरम्स ॥४१६॥१९६८॥ तिणि सते दिवसाणं अउणोणे तु पारणाकाली । [१२९-द्वि०] उक्कुइअणिमेनाग ठितपडिमाणं सने बहुए ॥१७॥ १९६९॥ पवज्जाएँ दिवसं पढमं एन्धं तु पक्खिवित्ताणं । संकलितम्मि तु संते में लद्धं तं णिसामेध ॥४१८॥१९७०॥ १ भियवहि उजुवा' को दी हा म । २ लिया वियतु साम' जे । 'लियतीर विया को हा दी म । ३ साल अहे को दी हा म । ५ णुक्कुटुस्स जे । .. भागेणं जे। . मीया जे। - मासा य को। ८ जा यदु जे म को।९ ठामीयमण म। १. 'य पडिमे दी हा । ११ इक्किरकं चरमराई अ म। एक्केक्कचरिमराईयं को। १: चरम दी हा । १३ वासिओ म । १४ भगवं दी हा । १५ ‘पन्न को। वयं दी हा। १६ "सिज्जाए म । 15 °ए पढम दिवसं दी हा को। Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____३३७ नि० ४२६ ] वीरचरितम् । बारस चेव य वासा मासा छ च्चेव अद्धमासो य । वीरवरस्य भगवतो एसो छतमत्थपरियाओ ।।४१०।।१९.७१ ।। एवं तवांगणरती अपुल्वणं मुणी वि.रमाण । घोरं परीसहचर्मु अधियासित्ता महावीरो ।।४२०।।१९७२।। उप्पण्ण म्मि अणंते ण दृम्मि य छातुमथिए णाणे । रातीए संपत्तो महसेणवण म्मि उज्जाणे ॥४२१||१९७३।। अमरणरगयमहितो पत्तो धम्मवरचक्कयट्टित्तं । *वितियम्मि समोसरणे पावाए मज्झिमाए तु ॥४२२।१९७४॥ तत्थ किरें सोमिलज्जो त्ति माहणो तम्स दिक्खकालम्मि । पउरा जणजाणवता समागता जण्णवाडम्मि ।।४२३॥१९७५।। एगंते य विविने उत्तर पामम्मि जणवाडम्म । तो देवदाणविन्दा करन्ति महिमं जिणिन्दस्स ।४२४।।१९७६।। भवणवति वाणमंतर जोतिस[१३०-प्रवासी विमाणवासी य । सविहीर्य सपरिसा कासी णाणुप्पतामहिमं ॥१९७७।। मंणिकणगरतणचित्तं भूमीभागं समंततो मुरभि । आजोअणंतरेणं कॅरेन्ति देवा विचित्तं तु ॥४२५।।१९७८।। "वेंटट्ठाई सुरभि जलथलयं दिव्वकुसुमणीहारि । "पइरन्ति समंतेणं दसवण्णं कुसुमवास ॥४२६।१९७।। १ ‘सेत्ता को। संतो जे । २ वणं तु उजाणं जे । : वरधम्मच म को। ५ वोय पि समोसरणं को हा दी म । ५ किल दी हा । ६ करिति म । वई वा म । ८ दृढीए को। इट्टीइ म । 'ड्डिए दी हा । ९ इतः पूर्व गाथाद्वयमधिक महादाको पु । यथा--- समोसरणे केवइया रूव पुच्छ वागरण सोय परिणामे । दाणं च देवमल्ले मल्ल्याणयणे उवरि तित्यं ।। जत्थ अव्यासरणं जत्थ व देवो महि दिओ पर । वाउदयपुप्फवदलपागारतियं च अभिओगा ।। को २००१-२००१ । हा .. -५ । दी , ५ . -' । म ,५३-५ । 'समोसरणे' इति प्रथमां गाथामधिकन्य---"इयं न गाथा कंचित्पुम्न के अन्यत्रापि दृश्यते । इह पुनयुज्यते, द्वारनियमनोऽसंमोहन मम वगरणवक्तव्यताप्रतीनिनिधनत्यादिनि दयुक्तं हरिभद्रेः । १० करिति म । ११ विट' म। १२ पयरिति म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४२७. मणिकणगरतण चित्ते' समंततो तोरणे 'विगुव्यंति । सच्छत्तसालभंजियमगरद्धयचिन्धसंठागी ॥४२७॥१९८०।। तिणि य पागारवरे रतण विचित्ते तहिं सुरगणिन्दा । मणिकंचणकै विसीसगविभूसित ते विर्गुब्बति ४२८॥१९८१॥ तत्तो य समंतेणं कालागरुकुन्दुरुक्कमी सेणं । गंधेण मघमवेन्ता अवयवडियो विगंव्यति ॥४२९॥१९८२।। उक्कै टिसीहणातं कलकलसहेण सव्यतो सव्यं । तित्थगरपातमूले करेन्ति देवा णिवतमाणा ।४३०॥१९८३॥ १ ते चउदिसि तो को म हा दी। विउव्विति म । विउति को । विउव्वंति हा दी। ३ सालि जे। ४ ठाणे हा दी को म । ५ कव जे । ६ विउति म को । विउव्वेंति हा दी। " इतः पूर्व गाथाद्विक हाद मप्रतिषु अधिकं वर्तते यथा अभिंतर मज्झ वहिं विमाणजोइसभवणाहिवकया उ । पायारा तिन्नि भवे रयणे कणगे य रयए य ।। मणिरयण हेमयाऽवि य कविसीसा सवरयणि या दारा । सव्वरयणामय च्चिय पडागझयतोरण विचित्ता ॥ म ५५९-५० ! हा ५.४९-५० । दी .......। ८ ण मणहरेणं धूवर्घ म दी हा । ९ धूवघ' को । १. विउव्वेति दी हा । बिउव्यंति म को । 11 उक्किट्टि' म । इतः पूर्व निम्नलिखिता गाथा अधिकाः सन्ति हामदीपु चेइदुमपेढ छंदय, आसण उत्तं च चामराश्री य । जं चऽण्णं करणिज्ज, करेंति तं वाणमंत रिया ॥ साहारणओसरणे, एवं जस्थिढिमं तु ओसरइ । एक्कु चिय तं सव्वं, करेइ भयणा उ इयरेसिं ॥ मूरोदय पच्छिमाए, ओगाहन्तीए पुनओ ईह । दोहिं पउमेहिं, पाया मग्गेण य होइ सत्तऽन्ने ।। आयाहिण पुब्वमुहो, तिदिसि पडिरूवगा उ देवकया । जेट्ठगणी अण्णो वा, दाहिणपुव्वे अदरंमि ।। जे ते देवेहि कया, तिदिसि पडिरूवगा जिण वाम्म । तेसि पि तप्पभावा, तयाणुरुवं हवइ रुवं ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४३०] वीरचरिते समवसरणम् । ३३९ तित्थाइसेससंजय, देवी वेमाणियाण समणीओ । भवणवइवाणमंतर, जोइसियाणं च देवीभो ॥ केवलिणो तिउण जिणं, तित्थपणामं च मग्गओ तस्स । मणमादी वि णमंता, वयंति सहाणसट्टाणं ।। भवणवई जोइसिया, बोद्धव्या वाणमंतरसुरा य । वेमाणिया य मणुया, पयाहिणं जं च निस्साए । संजयवेमाणित्थी संजया पुव्वेण पविसिउ वीरं । काउं पयाहिणं, पुव्वदक्खिणे ठंति दिसिभागे ॥ (भाप्यम्) जोइसियभवणवंतरदेवीओ, दक्खिणेण पविसंति । चिट्ठति दक्खिणावरदिसिमि, तिगुणं जिणं काउं ॥ (भाप्यम्) अवरेण भवणवासी वंतरजोइससुरा य अइगंतुं । अवरुत्तरदिसिभागे ठंति जिर्ण तो नमंसित्ता । (भाष्यम्) . समहिंदा कप्पसुरा, राया णरणारिओ उदीणेणं । पविसित्ता पुन्वुत्तरदिसीए चिटंति पंजलिया ॥ (भाष्यम्) एक्केकीय दिसाए, तिगं तिगं होई सन्निविटं तु । आदिचरिमे विमिस्सा, थीपुरिसा सेसपत्तेयं ।। एतं महिडिढयं, पणिवयंति ठियमवि वयंति पणमंता । णवि जंतणा ण विकहा, ण परोप्परमच्छरो ण भयं ॥ विइयंमि होति तिरिया, तइए पागारमन्तरे जाणा। पागारजढे तिरियाऽचि होति पत्तेय मिस्सा वा ॥ सव्वं च देसविरति, सम्मं घेच्छति व होति कहणा उ । इहरा अमूढलक्खो , न कहेइ भविस्सइ ण तं च ॥ मणुए चउमण्णयरं, तिरिए तिण्णि व दुवे व पडिवज्जे । जइ नत्थि नियमसो चिय सुरेसु सम्मत्तपडिवत्ती ॥ तित्थपणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्देणं । सव्वेसिं सण्णीणं जोयणणीहारिणा भगवं ।। तप्पुब्विया अरहया, पूइयपूता य विणयकम्मं च । कयकिच्चोऽवि जह कहं, कहए णमए तहा तित्थं ।। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० विशेषावश्यकभाष्ये [मि० ४३० जत्थ अपुरोसरणं, न दिपव्वं व जेण समणेणं । बारसहि जोयणेहिं सो एइ अणागमे लहुआ ॥ सव्वमुरा जई रूवं, अंगुट्टपमाणयं विउव्वेजा । जिणपायंगुटुं पइ ण सोहए तं जहिंगालो ॥ गणहर आहार अणुत्तरा (य) जाव वण चक्कि वामु चला । मण्डलिया ता होणा, छट्ठाणगया भवे सेसा ।। संघयण रूव संहाण, वण्ण गई सत्त सार उम्सासा । एमाइणुत्तराई, हवंति नामोदए तस्स ।। पगडीणं अण्णामु वि, पसत्थ उदया अणुत्तरा होति । खयउवसमेऽवि य तहा, खयम्मि अविगप्पमाहंमु ॥ अस्सायमाइयाओ, जा वि य असुहा हवंति पगडीओ। णिंबरसलयो व्य पए ण होति ता अमुहया तस्स ।। धम्मोदएण रूवं, करेंति रूवरिसणोऽवि जइ धम्म । गिज्झवो य सुरूवो, पसंसिमो तेण रूवंत ॥ कालेण असंखेण वि, संखातीताण संसईणं तु । मा संपयवोच्छित्ती, न होज्ज कमवागरणदोसा ।। सव्वत्थ अविसमत्तं, रिद्धिविसेसो अकालहरणं च । सवण्णुपञ्चओऽवि य, अचिंतगुणभूतिओ जुगवं ।। वासोदयस्स व जहा, वण्णादी होति भायण विसेसा । सम्वेसि पि सभासा, जिणभासा परिणमे एवं ।। साहारणासवत्ते, तदुवओगो उ गाहगगिराए । न य निबिज्जइ सोया, किढिवाणियदासिआहरणा ।। सव्याउभं पि सोया, खवेज्ज जइ हु सययं जिणो कहए । सीउण्हग्वुप्पिवासापरिस्समभए अविगणेतो । वित्ती उ मुवणस्सा, वारस अद्धं च सयसहस्साई । तावइयं चिय कोडी, पीतीदाणं तु चक्किम्स ।। एयं चेव पमाणं, णव रययं तु केसवा दिति । मंडलिआण सहस्सा, पीईदाणं सयसहस्सा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४३४] वीरचरिते गणधराः । ३४१ तं दिव्वदेवघोसं सोतूणं 'माणुसा तहिं तुट्ठा । अहो जण्णिएण जहं देवा किर आगता इधई ॥४३१॥१९८४॥ सीहासणे णिसण्णो रत्तासोगस्स [१३०-द्वि०] हेहतो भगवं । सक्को सहेमजालं सयमेव य गेण्हते छत्तं ॥४३२॥१९८५।। दो होन्ति चामराओ सेताओ मणिमएहिं दण्डे हिं । ईसाणचमरसहिता धरेन्ति ते णातवच्छस्स ॥४३३॥१९८६।। एक्कारस वि गणधरा सव्वे उण्णतविसालकुलवंसा । पावाएं मज्झिमाए समोसहा जण्णवाडम्मि ॥४३४॥१९८७।। भत्तिविहवाणुरूवं, अण्णेऽवि य देंति इन्भमाईया । सोऊण जिणागमणं, निउत्तमणिओइएसुं वा ।। देवाणुअत्ति भत्ती, पूया थिरकरण सत्तअणुकंपा । साओदय दाणगुणा, पभावणा वेव तित्थस्स ।। राया व रायमच्चो, तस्सऽसई पउरजणवो वाऽवि । दुबलिखंडियवलिछडियतंदुलाणाढगं कलमा ॥ भाइयपुणाणियाणं, अखंडफुडियाण फलगसरियाणं । कीरइ बली सुरा वि य, तत्थेव छुहति गंधाई । बलिपविसणसमकालं, पुव्वद्दारेण गति परिकहणा । तिगुणं पुरओ पाडण, तस्सद्धं अवडियं देवा ।। अद्धद्धं अहिवइणो, अवसेसं हवइ पागयजणस्स । सव्वामयप्पसमणी, कुप्पइ णऽण्णो य छम्मासे ॥ खेयविणोओ सीसगुणदीवणा पच्चओ उभयोऽवि । सोसायरियकमोऽवि य गणहरकहणे गुणा होति ॥ राओवणीयसीहासणे, निविट्ठो व पायवीÉमि ।। जिट्टो अन्नयरो वा, गणहारी कहइ बीआए ॥ संखाईएऽवि भवे, साहइ जं वा परो उ पुच्छिज्जा । ण य णं अणाइसेसी, वियाणई एस छ उमत्थो ।। दो ५५४-५९१ । हा '.५३-५९० । म ५५३-५९. । १ माहणा म । २ इहयं म । ३ 'सीहासणे' इति गाथाद्विकं नास्ति दीहामप्रतीषु। ५ सहिया देवेहि पहिढचित्तहिं को। ५ इक्का कोम। ६ पावाइ म । Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ विशेषावश्यकभाष्ये इनि० ४३५पढेमेत्थ इंदभूती वितिए पुण होति अग्गिभूति त्ति । ततीए य वायुभूती ततो वियते मुहम्मे य ॥४३५॥१९८८।। मंडिय मोरियपुत्ते अकंपिए चेव अयलभाता य । मेतज्जे य पभासे [य] गणधरा होन्ति वीरस्स ॥४३६॥१९८९।। जंकारण णिक्खमणं वोच्छं एतेसि आणुपुवीए । तित्थं च सुधम्मातो णिरवच्चा गणधरा सेसा ॥४३७॥१९९०।। जीवे कम्मे तज्जीव भूत तारिसय वंध मोक्खे य। देवा जेरइया वा पुण्णे परलोग ‘णेव्याणे ।।४३८॥१९९१।। पंचण्हं पंचसत्ता असता य होन्ति दोण्हें गणा । "दोण्हं तु जुवलयाणं तिसतो तिसतो हे वति गच्छो ॥४३९॥१९९२।। भवणवति वाणवन्तर जोतिसवासी विमाणवासी य [१३१-०] सव्विढिये सपरिसा कासी णाणुप्पतामहिमं ॥४४०॥ __१९९३॥ देंण कीरमाणि" महिमं देवेहिं जिणवरिन्दस्स । अध एति अहम्माणी अमरिसितो इन्दभूति त्ति ॥४४१॥१९९४|| मोत्तूण ममं लोगो कि धावति एस तस्स पामूले ? ॥ अण्णो वि जाणति मए द्वितम्मि कत्तोच्चयं एतं ॥१९९५।। धावेज्ज व मुक्खजणो देवा कि) णेण विम्हयं णीता । वन्दन्ति संथुणंति य जेणं सव्वण्णुबुद्धीए ॥१९९६।। अधवा जारिसओ च्चिय सो णाणी तारिसा मुरा ते वि । अणुसरिसो संजोगो गामणडाणं च मुक्खाणं ॥१९९७।। कातुं हतप्पता पुरतो देवाण दाणवाणं च । णासे हं णीसेसं खणेण सवण्णुवातं से ॥१९९८।। १ पढमित्थ म दी हा । २ विइओ हा दो। बीए म । ३ 'म्मो को। १ हुंति म । ५ वुच्छं म। ६ मुक्खे म । ७ ‘इए वा को। ८ णिव्वा को म । ९ हुँति म । १० टुण्ह म । दोण्हं हा दी । ११ दुण्हं म । १२ भवे हादी। १३ गाथैषा नास्ति हादीमप्रतिषु । १४ ढढीए को। १५ सोऊण म हा दी । १६ णी को दी हा। १७ वच्चति को। १८ प्रासाई ! को। १९ कहऽणेण को। २० ओ सो को। २१ तारिसया को । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरचरिते गणधरवादः । इय बोलू पत्तो दहुं तेलोकपरिवुडं वीरं । चोत्तीसायिसयणिधिं ससंकितो चिट्ठितो पुरतो ॥१९९९ ॥ आभट्ठो य जिणेणं जातिजरामरणविष्पमुक्केणं । णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी में ||४४२||२०००|| हे इंदभूति ! गोतम ! सागतमुत्ते जिणेण चिंतेति । णामपि मे विवाणति अधवा को मण्ण याणाति ॥ २००१ || जति वा हितयगतं मे संसयमुण्णेज्ज 'अधव "छिंदेज्ज । तो होज्ज विम्हयो मे इय चिन्तेंतो पुणो भणितो । २००२ || किं 'मण्णे अस्थि जीवो उताहु णत्थि ति संसओ तुज्झं । वेतपाणय अत्यं ण याणसी तेसिमो अत्थो ||४४३||२००३|| " जीवे तुह संदेहो पच्चक्खं जण्ण 'घेप्पति घडो व्व । अच्चन्तापच्चक्खं च णत्थि लोए खपुष्पं व || २००४ ॥ दरण गाहा । मोत्तूण गाहा । धावेज्ज गाहा | अहवा गाहा । काउं० गाहा । इय गाहा । आभट्ठो गाहा । हे इंद० गाहा । जति वा गाहा । किं मण्णे गाहा । जोवे गाहा । भगवानुवाच – आयुष्मन्निन्द्रभूते ! भवतः सन्देहः-‘किमयमात्मास्ति नास्तीति' । कुतः पुनः । उभयहेतुसद्भावात् । तत्र नास्तित्व हे तवस्तावदमी - नास्त्यात्मा अत्यन्ताप्रत्यक्षत्वात् खपुष्पवत् । अत्यन्तग्रहणम्अणवोऽपि प्रत्यक्षास्ते तु घटादिकार्यापन्नाः प्रत्यक्षतामायान्ति न पुनरेवमात्मा कदाचिदपि प्रत्यक्षतामेति ॥१९९४ - २००४ ॥ नि० ४४३ ] णय सोऽणुमाणगम्मो जम्हा पच्चक्खपुव्वयं तं पि । पुच्वोवलद्धसंबंधसरणतो लिंगलिंगीणं ||२००५ || णय गाहा । न चायमनुमानगम्योऽपि यतः प्रत्यक्षपूर्वकमनुमानमुक्तम्, इह पूर्वोपलब्धलिङ्गलिङ्गिसम्बन्धानुस्मरणद्वारेणानुमानमुच्यते । यथेह साक्षाद् धूमाग्निमद्देशसम्बन्धमुपलभ्योत्तरत्र तमनुस्मरतो धूममात्रसंदर्शनात् 'अग्निमानयं देश:' इति गम्यते ||२००५|| णय जीवलिंग संबंधदरिसिंमभू जतो पुणो सरतो । तल्लिंगद रिसणातो जीवे संपच्चओ होज्ज || २००६॥ ३४३ १ सीण को। सिणा म । २ मण्णेज्ज जे । ३ 'ज्ज जइ व को। ४ छिन्नेज्जा को ५ चिन्तंतो जे । ६ मन्नि म दो हा । इतः पूर्व - ॥६०॥ नमः श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेभ्यः ॥ इति दृश्यते तप्रती । ८ घिप्पइ को हे । ९ 'दरिणत की है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४४३ " णय गाहा । न चेहात्म लिङ्ग सम्बन्ध दर्शनमभूत् कस्यचित् यदनुस्मरतः तल्लिङ्गमात्र दर्शनादात्मनि संप्रत्ययो भवेत् । स्यात् - सामान्यतो दृष्टेनानुमानेनाधिगम्यते, चन्द्रादित्यगतिवत् । न तत्रापि साक्षादेवदत्तादेर्देशादेशान्तरप्राप्तिदर्शनात् ॥ २००६॥ णागमगम्मो वि ततो भिज्जति जं णागमोऽणुमाणातो । य कीस पच्चक्खो जीवो जैस्सागमो वयणं ||२००७ || 1 नागम० गाहा । न चायमागमगम्योऽपि यतो नानुमानादागमो भिद्यते । यथेोर्ध्वे कुण्डलौष्ठायतवृत्ते ग्रीवादिमति घटशब्दप्रयोगदर्शनात् उत्तरत्र घटशब्दमात्रश्रवणात् अन्वयव्यतिरेकद्वारेण तत्रैवानुमानमुत्पद्यते । न चैवमयमात्मशब्दः शरीरादृतेऽन्यत्र प्रयुज्यमानः कचिदुपलब्धः, यत्र खल्वात्मश्रवणादात्मेति प्रत्ययो भवेत्, अदृष्टार्थस्याप्यागमस्याssसवादाऽविसंवाद सामान्यादनुमानता । न चासावाप्तः कश्चिदस्ति यस्यायमात्मा प्रत्यक्षः स्यात्, यद्वचनमागमं प्रतिपद्यामहे ||२००७|| जं चागमा विरुद्धा परोप्परमतो वि संसयो जुत्तो । सम्प्पमाण विसयातीतो जीवो सिते बुद्धी ||२००८|| जं चा० गाहा । यतश्चागमाः परस्परविरोधिनः खलु, युक्तरूपस्तद्यथा ३४४ " एतावानेव पुरुषो यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं ह्येतद्यद्वदन्त्यबहुश्रुताः ॥” यथोक्तं “विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञास्ति" [बृहदा० २.४.१२) तथा " न रूपं भिक्षवः पुद्गलः" इत्यादि । तथाऽस्तित्वप्रतिपत्तयः - " न ह वै शरीरस्य प्रियाप्रिययोरुपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः " [ छान्दो० ८ । १२ । १] इति । तथा "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः" इत्यादि । तथा कापिलादयोऽभिमन्यन्ते 'अस्ति पुरुषः' इत्यतः परस्परविरोधित्वात् आगमोऽप्यप्रमाणम्, अतः सर्वप्रमाणगोचरातीतोऽयमित्यभिप्रायस्ते ||२००८ || गोतम ! पच्चक्खो' च्चिय जीवो जं संसयातिविष्णाणं । [१३२ - प्र० ] पच्चक्खं च ण सज्झं जध मुहदुवैखं सदेहम्मि ||२००९ || गोतम ! गाहा । गौतम ! प्रत्यक्ष एवायमात्मा, यदेतत् संशयादिविज्ञानं भवतः विज्ञानादात्मनोऽनन्यत्वात् । न च स्वप्रत्यक्षं साध्यम्, स्वदेहसुखदुःखा दिवत् ॥२००९|| १. कस्सइ को । २ कस्सा जे। ३ तो त । ४ 'क्खु हे । ५ क्खा त हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४४३] वीरचरिते गणधरवादे जीवसिद्धिः । ३४५ कतवं करेमि काहं चाहमहंपच्चयादिमातो य । अप्पा सप्पच्चक्खो तिकालकज्जीवदेसातो ॥२०१०॥ कतवं गाहा । इतश्च स्वप्रत्यक्ष एवायमात्माऽत्रै त्रैकाल्यकार्यव्यपदेशात् । तद्यथा कृतवान् अहं, करोम्यहं, करिष्याम्यहम्, उक्तवानहं, अवीम्यहं, वक्ष्याम्यहं, ज्ञानवानहं जानेऽहं ज्ञास्येऽहमिति योऽयं त्रिकालकार्यव्यपदेश हेतुम्हंप्रत्ययो नायमा. नुमानिकः । न चागमिकः । किं तहिं ? प्रत्यक्ष एवायम् । अनेनैवात्मानं प्रतिपद्यस्व, नायमनात्मनि घटादावुपलभ्यते ॥२०१०॥ “किह पडिवण्णमहन्ति य किमस्थि णत्थि त्ति संसओ 'किध णु । सइ संसयम्मि वाऽयं कस्साहंपच्चयो जुत्तो ।।२०११।। किह गाहा । कथमह मिति प्रतिपद्यते, कथं च किमिदमस्त नास्तीति संशयः, संशयहेत्वभावात् । आह- संशये च सति कस्यायमहंप्रत्ययो युक्तरूपः ॥२०११॥ जति पत्थि संसयि च्चिय किमत्थि णत्थि त्ति संसओ कस्स । संसइते व सरूवे गोतम ! किमसंसयं होज्जा ॥२०१२।। ___ जति गाहा । संशयो हि विज्ञानाख्यो गुणविशेषः, न चापंद्रयोस्ति गुणः । अतः संशयसद्भावे संशयिनावश्यं भवितव्यम् । न चेत् संशयिनमात्मानं प्रतिपद्यसे किमहमस्मि नास्मीति-करयायं संशयः ? यस्य वा स्वयमेव संशेते किमस्मैि नास्मीति तस्यान्यत् किमसंशयं भवेदिति ! सर्वसंशयतश्चात्मनि को विशेषः ? अहंप्रत्ययवि. शिष्टं स्वप्रत्यक्षमात्मानं निबुवानस्य प्रत्यक्षविरुद्धः पक्षाभासोऽयम्, अश्रावणशब्दप्रतिपत्तिवत् । वक्ष्यमाणात्माऽस्तित्वानुमानसद्भावादनुमानविरुद्धः, घटनित्यत्वप्रतिपत्तिवत् । अहमस्मि संशयीति प्रागभ्युपगम्योत्तरत्र नास्तीति प्रतिजानानस्य पूर्वाभ्युपगमविरुद्धः, साङ्ख्याऽसत्कार्यप्रतिपत्तिवत् । आगोपालप्रतीतमात्मानमनभ्युपगच्छतो लोकविरुद्धोऽयम् - अचन्द्र प्रतिपत्तिवत् । अहं नाहं चेत्येवं पक्षश्च स्ववचनविरुद्धः, सर्वानृतवचनप्रतिपत्तिवत् । तथाहि- स्वप्रत्यक्षवादात्मन: 'अत्यन्ताप्रत्यक्ष वात्' इत्ययमपक्षधर्मत्वादसिद्धो हेत्वाभासः । विपक्षेऽपि हिमव पलानपरिमाणादौ दर्शनादनैकान्तिक., अक्षकरणाधिष्टायकत्वादनुमानप्रसिद्धेविरुद्धः ॥२०१२॥ १ या इमाओ य को। या इमाउ य हे । २ अप जे । ३ कज्जा को । ४ त्रैवाल्पकार्य इति प्रतौ। ५ कह को हे। ६ कह को हे । कध त । ७ अस्सा' को । ८ चायं द्र-इति प्रती। दु. गा० २०१५, २०१७ । ९ मस्मिन्नास्तीति-इति प्रतौ । १० किमस्मिन्नास्मीति इति प्रतौ। ११ त्वान्दमास - इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४४३गुणपच्चक्खत्तणतो गुणी वि जीवो घडो व्व पच्चक्खो । घडओ वि घेप्पति गुणी गुणमेत्तग्गहणतो जम्हा ॥२०१३।। गुण० गाहा । गौतम ! प्रत्यक्ष एवायमात्मा, गुणप्रत्यक्षत्वात् । इह यस्य गुणाः प्रत्यक्षाः स प्रत्यक्षो दृष्टो यथा घटः । घटोऽपि हि रूपादिगुणप्रत्यक्षत्वा. देव प्रत्यक्षः, तद्वद्विज्ञानादिगुणप्रत्यक्षत्वादात्मापीति । आह-अनैकान्तिकोऽयम्, यस्मादाकाशगुणः शब्दः प्रत्यक्षः, न त्वाकाशम् । उच्यते-नैवाकाशगुणः शब्दः, ऐन्द्रियकत्वाद्रूपादिवत् । अत एव च पुद्गलगुणः । आह-तद्गुणप्रत्यक्षताऽस्तु । उच्यते-गुणगुणिनोरेकत्वात् प्रत्यक्ष एवासौ ॥२०१३। अण्णोऽषण्णो व्वं गुणी होज्ज गुणेहि जति णाम सोऽणण्णो । णणु गुणमेत्तग्गहणे घेप्पति जीवो गुणी सक्खं ॥२०१४॥ अण्णो गाहा । भवताऽपि हि गुणेभ्योऽर्थान्तरमनन्तरं वा गुणी प्रतिपद्यते ! यद्यनर्थान्तरमतो विज्ञानादिगुणप्रत्यक्षत्वादात्मप्रत्यक्षता सिद्धा ॥२०१४॥ अध अण्णो तो एवं गुणिणो ण घडातयो वि पच्चक्खा । गुणमेत्तग्गहणातो जीवम्मि कतो वियारो यं ॥२०१५।। अध गाहा। अर्थान्तरमतः, न घटादयोऽपि गुणिनः प्रत्यक्षाः, गुणमात्रग्रहणात् । इह घटादीनां गुणमात्रमेवोपलभ्यते, न गुणिनः । तत्र यदुक्तं 'यतो न घटवदुपलभ्यते साक्षादयमतः संशयः' इत्येतद् घटादिष्वपि समानम्, आत्मनि को विशेषः ? अथ नापेंद्रव्यो गुणोस्तीत्यनुमानतोऽवसीयन्ते घटादयः । किमेवमात्माऽपि न गम्यते ? अर्थान्तराभ्युपगमे च गुणिनः प्रत्यक्षतायां च सर्वथात्मप्रसिद्धिः ॥२०१५॥ अध मण्णसि अस्थि गुणी ण तु देहत्थन्तरं तओ किंतु । देहे णाणातिगुणा सो च्चिय 'ताणं गुणी जुत्तो ॥२०१६।। अध गाहा । अथ मन्यसे ---न गुणिनं प्रत्याचक्ष्महे विज्ञानादिगुणानाम्, किन्तु यत्रैवोपलभ्यन्ते विज्ञानादयः स एवैषां गुणी युक्तरूपः । यथा यत्रैव घटरूपादयः तत्रैव घटो नान्यत्र । देहमात्र एव च विज्ञानादिगुणोपलब्धित स एवैपां गुणी नार्थान्तरमिति ॥२०१६॥ णाणादयो ण देहस्स मुत्तिमत्तातितो [१३१-द्वि०] घडस्सेव । तम्हा जाणातिगुणा जस्स स देहाधियो जीवो ॥२०१७॥ वाद्भयादि-इति प्रतौ। २ व को हे। ३ 'हणो जे। ५ शयप्रत्ये-इति प्रतौ । ५ नाय - इति प्रतौ । ६ गुणास्ती -इति प्रतौ। ७ ण य त हे । न तदवत्यं को। ८ तेर्सि हे त को । ९ स्सऽमु को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि०४४३ ] गणधरवादे जीवसिद्धिः । ३४७ णाणा० गाहा । उच्यते - न विज्ञानादिगुणो देहस्य, मूर्तिमत्त्वाद्, घटादिवत् । तथा चाक्षुषत्वादित्यादि । न चापेद्रव्यता गुणस्येत्यतो यो विज्ञानादिगुणः स देहादर्थान्तरमात्मेति । आह- ननु प्रत्यक्षविरुद्धमिदम् - न विज्ञानादयो देहस्येति, यथैन्द्रियकत्वादश्रावणः शब्दो रूपादिवदिति । उच्यते-न, अनुमानसद्भावात् - इहेन्द्रियातिरिक्तो 1 विज्ञाता तदुपलब्धार्थानुस्मरणात् । यो हि यदुपरमेऽपि यदुपलब्धमर्थमनुस्मरति, स तस्मादर्थान्तरमुपलब्धा दृष्टः, यथा पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुस्मर्त्ता देवदत्त इत्यादि वायुभूतिप्रश्नेऽपि च वक्ष्यामः ॥२०१७॥ इय तुह देसेणायं पच्चक्खो सव्वधा महं जीवो । अविहतणाणतणतो तुह विष्णाणं व पडिवज्जै ॥२०१८॥ इय गाहा । इत्येवमेकदेशप्रत्यक्षोऽयमात्मा भवतः । सर्वस्य जीवादिवस्तुनोऽनन्तपर्यायत्वाद्भवदादेश्च छद्मस्थस्य विज्ञानदेशप्रकाशवत् । सर्वथाऽयमस्मत्प्रत्यक्षो विहितानन्तज्ञानत्वाद्भवद्विज्ञानोपलब्धिवत् । यथा भवद्विज्ञानमतीन्द्रियमशेषमहमुपलभे तथात्मानमपीति प्रतिपद्यस्व || २०१८ || एवं चिय परदेहेऽणुमाणतो गे‍ जीवमत्थि ति । अणुवित्तिणि वित्तीतो विष्णाणमयं सरुवे व्व ॥ २०१९॥ एवं गाहा । एवमेव परशरीरे गृहाणाऽऽत्मानमनुमानतः । कथम् ? इह परशरीरमपि हि विद्यमान विज्ञानादिगुणम्, इष्टानिष्टयोः प्रवृत्तिनिवृत्तिक्रियासद्भावात् । यदिष्टानि - ष्टयोः प्रवृत्तिनिवृत्तिक्रियास्वभावम्, तद्विद्यमानविज्ञानादिगुणमवसीयते, यथात्मशरीरम्, यच्च विज्ञानादिगुणविकलं न तदिष्टानिष्टप्रवृत्तिक्रियास्वभावम्, यथा घटः ॥ २०१९ ॥ जं च ण लिंगेहि समं मण्णसि लिंगी जतो पुरा गहितो । संग ससेण व समं ण लिंगतो तोऽणुमेयो सो ॥२०२० ॥ सो गंतो जम्हा लिंगेहि समं ण दिट्ठपुत्रो ि गहलिंगदरिसणात गोऽणुमेयो सरीरम्मि || २०२१॥ जं च गाहा । सो णे० गाहा । यच्चाभिधीयते - यतो न लिङ्गिनो लिङ्गसमेतस्योपलब्धिरभूत् कदाचिदपि विषाणस्योपगम समेतस्य, अतो न लिङ्गतोऽनुमेयोऽसाविति । नायमेकान्तो यतो न च तावद् ग्रहो लिङ्गसमेतः कदाचिदुपलब्धपूर्वः, अथ च १ चायं द्र - इति प्रतौ । २ वज्जा को । ३ गिण्ह हे । ४ सरूवं व जे । सरूवि व्व त । ४४. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૪૮ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४४३लिङ्गदर्शनादेवदत्तशरीरेऽनुमीयतेऽस्तीति । यद्येवमात्मापि स्यात् को दोषः ? आहयद्येवं ततः शशलिङ्गोपलक्षितं शशविषाणमप्यस्तु । उच्यते-यत एव शशे विषाणं नानुमीयते ग्रहश्चानुमीयते, अत एवानेकान्तः । इदं चात्मनोऽनुमानमुच्यते ॥२०२०-२१॥ देहस्सत्थि 'विधाता पतिणियताकारतो घडस्सेव । अक्खाणं च करणतो दण्डातीणं कुलालो व्य ॥२०२२॥ देहस्स गाहा । विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरमादिमत् , प्रतिनियताकारत्वात् । इह यदादिमत् प्रतिनियताकारं च, तद्विद्यमानकर्तृकं दृष्टम्, यथा घटः । यच्चाविद्यमानकर्तृकम्, न तदादिमत् प्रतिनियताकारं च, यथाऽभ्रादिविकारः । यश्चास्य कर्ता स जीवः । तस्मादस्ति जीवः । विद्यमानाधिष्टातृकाणीन्द्रियाणि, करणत्वात् । इह यत्करणं तद्विद्यमानाधिष्ठातृकं दृष्टम्, यथा कुलालाधिष्ठाना दण्डादयः । यच्चाऽविद्यमानाधिष्ठातृकं न तत् करणम्, यथाकाशम् । यश्चैषामधिष्ठाता स जीवः । तस्मादस्तौति ॥२०२२॥ अत्थिन्दियविसयाणं आदाणादेयभावतोवस्सं । कम्मार इवादाता लोए संदौसलोहाणं ॥२०२३॥ अथिन्दि० गाहा । इह विद्यमानाऽऽदातृकमिदं विषयकदम्बकम् , आदानादेयभावात् । इह यत्राऽऽदानाऽऽदेयभा, तत्र विद्यमानाऽऽदातृकत्वं दृष्टम्, यथा संदंशाध्यस्पिण्डयोः अयस्कारादातृकता । यच्चाविद्यमानाऽऽदातृकं न तत्राऽऽदानाऽऽदेयभावो यथाऽऽकाशे । यश्च विषयाणामिन्द्रियैरादाता स जीवः । तस्मादस्तीति ॥२०२३॥ भोत्ता देहादीणं भोज्जत्तणतो जरो व्च भत्तस्स । संघाताति[१३३-०]त्तणतो अस्थि य अत्थी घरस्सेव ॥२०२४॥ भोत्ता गाहा । विद्यमानभोक्तकमिदं शरीरादि भोग्यत्वात् । इह यद्भोग्य तद्विद्यमानभोक्तकं दृष्टम्, यथाहारवस्त्रादि । यच्चाविद्यमानभोक्तकं न तद्भोग्यं यथा खरविषाणम् । यश्चैषां शरीरादीनां भोक्ता स जीवः । तस्मादस्तीति । विद्यमानस्वामिकं शरीरेन्द्रियादि, संघातत्वात् । इह यत्सङ्घातात्मकं तद्विद्यमानस्वामिकं दृष्टम्, यथा १ विहाया हे को त। विवातो जे। द्रष्टव्या गा० २१२२ । २ सूत्रकृतांग चूणि १. १. १२.। ३ द्रष्टव्या गा० २१२३ । ४ संडास को हे त । ५ 'नादाकर्तृत्व-इति प्रतौ। ६ द्रष्टव्या गा० २१२१ । ७ घड जे। ८ वस्त्वा-इति प्रतौ। । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४४३] गणधरवादे जीवसिद्धिः। ३४९ गृहम् । यच्चा विद्यमानस्वामिकं न तत् सङ्घातात्मकम् , यथा स्वरविषाणम् । यश्च शरीरादिस्वामी स जीवः । तस्मादस्तीति । एवं मूर्तिमत्त्वादैन्द्रियकत्वाच्चाक्षुषत्वादनित्यत्वादित्यादयोऽप्यायोजनीयाः ॥२०२४॥ जो कत्ता ति स जीवो सज्झविरुद्धो त्ति ते मती होज्जा । मुत्तातिपसंगातो तण्णो संसारिणोऽदोसो ॥२०२५॥ जो कत्ता गाहा । यश्चायं कर्ता अधिष्ठाता आदाता भोक्ता अर्थी चोक्तः स जीवः । तथा चैवोदाहृतम् । स्यात्-कुलालादीनां मूर्तिमत्त्व-संघाताऽनित्यत्वादिदर्शनादात्मनोऽपितद्धमता प्रसक्तेविरुद्धाभिप्रायः । तच्च न,संसारिणः खल्वदोषात् । संसार्यवस्थायामेवायं साध्यते, न मुक्तावस्थायाम् । अयं चानादि कर्मसन्तानोपनिबन्धत्वात् , द्रव्यपर्यायार्थिकनयाभिप्रायाच्च तद्धर्मापीत्यदोषः ॥२०२५॥ अस्थि च्चिय ते जीवो संसयतो सोम्मे ! थाणुपुरिमो व्य । जं संदिद्धं गोतम ! तं तत्थण्णत्थ वऽस्थि धुवं ॥२०२६॥ अत्थि गाहा । सौम्य ! भवतोऽप्ययमात्मास्ति । कुतः ! तत्र भवतः संशयतः । इह यत्र सदसत्त्वसंशयस्तदस्ति यथा स्थाणुपुरुषो। यह स्थाणुपुरुषयोरूर्वाऽऽरोहपरिणाहादिसामान्यप्रत्यक्षे चलनवयोनिलयनादिविशेषाऽप्रत्यक्षे च सत्युभयविशेषस्मृतौ च सत्यामेकतरविशेषोपलिप्सोः किमिदमिति विमर्त्य संशयः । समानानेकधर्मोपपन्नमित्यादितो वा । तद्वदात्मशरीरयोरपि प्रागुपलब्धसामान्यविशेघस्य सयोः सामान्यप्रत्यक्षतायां विशेषाप्रत्यक्षतायां विशेषानुस्मृतौ च सत्यामेकतरविशेषोपलिप्सोः किमयमात्मा शरीरमात्रमिति विमर्पा संशयो युक्तरूपः, नात्मशरीरयोरेकतराभावे । आह-नन्वेकतराऽभावेऽपि संशयो दृष्टः । स्थाणावेव कदाचितकिमयं स्थाणुः पुरुष इति । न च तदा तत्र पुरुषोऽस्ति । यन--न बमस्तो. वोभयमवश्यम् । किन्तु तत्रान्यत्र वा विद्यमानयोरेव स्थाणुपुरुपयो:-इति तयोः संशयो भवतीति बमः, नाविद्यमानयोः, तद्वदात्मशरीरयोरपोति ॥२०२६॥ एवं णाम विसाणं खरस्य पत्तं ण तं खरे चेव । अण्णत्थ तदस्थि च्चिय एवं विवरीतगाहे वि ॥२०२७।। एवं गाहा । आह-यदि यत्र संशयस्तेनावश्यं भवितव्यम् , अतः खरविपाणमप्यस्तु, तत्संशयसद्भावात् । उच्यते- ननूक्तं--'तत्रान्यत्र वा विद्यमान एव संशयो १ द्रष्टव्या गा० २१२५ । २ तं न को हे । ३ णो दो हे । ५ ताशक्त'-इति | पनौ ५ गोमन । नारा -रति प्रौ। रतनगोनित'–रति पनी । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४४३भवति नाविद्यमाने' इति । खरस्य च विषाणमिति तत् खर एव न स्यादन्यत्र तु गवादावस्त्येवेति न दोषः । विपर्ययेऽपि चायमेव न्यायः । यथा विद्यमान एव हि स्थाणुपुरुषे स्थाणौ पुरुषाभिमानो भवति, नाऽविद्यमाने, तथा भवदभिप्रायाद्यो हि शरीरेऽस्मदादीनामात्माभिमानो नासावात्मानमन्तरेण युक्त इति ॥२०२७॥ अत्थि अजीवविवक्खो पडिसेधातो घडो'ऽघडस्सेव । पत्थि घडो त्ति य जीवत्थित्तपरो पत्थि सद्दोऽयं ॥२०२८॥ अत्थि गाहा । प्रतिपक्षवानयमजीवः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदप्रतिषेधात् । इह यत्र व्युत्पत्तिमतः शुद्धपदस्य प्रतिषेधः श्रूयते, स प्रतिपक्षवान् दृष्टो, यथा अघटो घटप्रतिपक्षवान् । यश्च न प्रतिपक्षवान्न स व्युपत्तिमच्छुद्धपदादिप्रतिषेधवान्, यथा अखरविषाणमडिस्थ इत्यादि । तथा अँजीवाभिधानमपि जीवास्तित्वप्रसाधकमेवेति पूर्ववेत् घटप्रतिषेधवत् ॥२०२८॥ असतो णत्थि णिसेधो संजोगातिपडिसेधतो सिद्धं । संजोगातिचतुकं 'पि सिद्धमत्यंतरे णियतं ॥२०२९॥ असतो गाहा। योऽयमात्मनः प्रतिषेधोऽभिधीयते भवता स विद्यमानस्यैव नाविद्यमानस्य संयोगादिमात्रप्रतिषेधात् । इह यत् प्रतिषिध्यते तस्य विद्यमानस्यैव संयोगादिमात्रप्रतिषेधो दृष्टो नाभावः, तद्यथा-नास्ति घटो गेह इति विद्य मानयोरेव गेहघटयोः संयोगादिमानं प्रतिषिध्यते, न तयोरस्तित्वम् , तथा अस्ति खरविषाणमिति विद्यमानस्यैव स्वरस्य विषाणस्य च] समवायमानं निषिध्यते, न सर्वथास्तित्वम्, तथा नास्त्यन्यश्चन्द्रमा इति विद्यमानस्यैव चन्द्रमसः, द्वितीयं चन्द्र. मसमन्तरेण सामान्यमात्रप्रतिषेधो न चन्द्रमसः, तथा न सन्ति घटप्रमाणा मुक्ता इति विद्यमानानामेव मुक्तानां घटप्रमाणविशेषमात्रप्रतिषेधो न मुक्तास्तितायाः । तथा नात्यात्मेति विद्यमानस्यैवात्मनो यत्र क्वचन येन केनचित् संयोगमात्रं प्रतिषिध्येत त्वया, न सत्त्वम्, तथा समवायादिनिषेधोऽपि नात्मनिपेधः । आह-यदि यत् प्रतिषिध्यते तदस्ति, न मे त्रिलोकेश्वरत्वमस्तीति तदपि स्यात् । न च पश्चमः प्रतिषेध इति सोऽपि स्यात् । उभ्यते-त्रिलोकेश्वरस्वमात्रप्रतिषेधात् पञ्चमविशेषमात्रप्रतिपेधाश्च । नैव तदपि संयोगादिनिषेधचतुष्टयमतिवर्तते । आह-ननूक्तं भवतैव संयोगादिमात्रप्रतिपेधादिति संयोगादीनामसतां प्रतिषेधस्तद्यथा नास्ति घटो गेह इति गेहघटयोः संयोगस्यासतः प्रतिषेधः, तथा समवाया १ घडो घ जे । २ प त को है । ३ ‘दो य जे । ५ तथा न जी-इति प्रतौ । ५ वन्न ५-इति प्रतौ । ६ क प सि त। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि०४४३ ] गणधरवादे जीवसिद्धिः । दीनामपि यद्येवमात्मनोऽपि स्यात् को दोषः ? उच्यते - निषेधविषया एवासन्तः संयोगादयो न त्वर्थान्तरविषया यथा नास्ति घटो गेह इति । गेहघटसंयोगमात्रमेवासत्, न घटस्याकाशादिना संयोगो' न वा गेहस्य खट्वादिभिरण्वादीनां च परस्परम्, तथा समवायादयोपीति ॥ २०२९॥ जीवो त्ति सत्थमिणं सुद्धत्तणतो घडाभिधाणं व । जेणऽत्थेण सयत्थं सो जीवो अध मती होज्ज ॥२०३०|| अत्थो देहो च्चिय से तं णो पज्जायवयण भेतातो । णाणादिगुणो य जतो भणितो जीवो ण देहो ति ॥२०३१ ॥ जीवो गाहा [२] | जीव इत्येतदभिधानमर्थवत् व्युत्पत्तिमत्त्वे सति शुद्धपदत्वात्। इह ं यद् व्युत्पत्तिमत् शुद्धपदं च तदर्थवद् दृष्टं यथा घटाभिधानम् । यदनर्थकं न तद् व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदं च यथा डित्थः स्वरविषाणं च । येनार्थेनार्थवदिदं जीवाभिधानं स जीवः । तस्मादस्तीति । अथ मतिः [न] जीवाभिधानस्यार्थवत्त्वं प्रत्याचक्ष्महे, किन्वेतद्देहमात्र एवानुप्रयुज्यमानमनुश्रूयते - यथैष जीवो यथैनं न हिनस्तीत्यतो देह एवार्थोऽस्य युक्तः । तच्च न, पर्यायवचनभेदात् । इह यत्र पर्यायवचनभेदस्तत्रान्यत्वं प्रतीयते यथा घटाकाशयोः, तत्र घटकुम्भादयो घटपर्यायाः नभोग्यो माम्बरादयश्वाssकाशपर्यायाः, जीवशरीरयोरपि च पर्यायवचनभेदः प्रतीतः, तद्यथा जीवः प्राणी भूत इत्यादयो जीवस्य, देहः कायः तनुरित्यादयः शरीरस्य । तदेकत्वे वाभिधानसंकरप्रसङ्गस्ततश्चाभिधेयसं करैकत्वादयः । यत्पुनरिदमुक्तमेष जीवो यथैनं न हिनस्तीति तच्छरीरसहचरणस्थानादितो नीवस्य शरीरे तदुपचारः । इदमपि चानुश्रूयते गतः स जीवो दह्यतामिदं शरीरम् । यतश्च प्रागपदिष्टं-न विज्ञानादिगुणो देहो, मूर्तिमत्वात्, घटवत्; शरीरेन्द्रियातिरिक्तश्च विज्ञाता, तदुपरमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणाद्वातायनपुरुषवत् ||२०३०-३१॥ जीवोsत्थि वयो सच्चं मव्वयणातोऽवसेसवयणं व्व । [१३५-द्वि०] सव्वण्णुवयणतो वा अणुमतसव्वण्णुत्रयणं वै ॥२०३२ || ३५१ जीवो गाहा । जीवोऽस्तीत्येतद्वचः सत्यम् मद्वचनत्वात् । इह यन्मद्वचनं तत्सत्यम्, यथा शेषवचनम्, यथा वा शेषभवदादिविज्ञानोपलब्धिवचनम् । यच्चासत्यं न 'निपतौ । 'मि ने । Jain Educationa International को है। For Personal and Private Use Only U नाते। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४४३तदस्मद्वचनं यथा कूटसाक्षिवचनम् । अथवा सत्यं जीवास्तित्वाभिधानम्, सर्वज्ञवचनत्वात्, भवदनुमतसर्वज्ञवचनवत् ॥२०३२।। भयरागेमोहदोसाभावातो सच्चमणतिवाति च । सव्वं चिय मे वयणं जाणयमज्झत्थवयणं व ॥२०३३॥ [भय०] गाहा० । अथवा सर्वमेव हि मे सत्यमनतिपाति वचनम्, रागद्वेषमोहमयाभावात् । इह यस्य रागद्वेषमोहमयाभावस्तद्वचनं सत्यमनतिपाति च दृष्टम्, यथा पथज्ञस्याभयस्य द्रष्टर्यरागद्वेषवतः सत्पथोपदेशवचनम् ॥२०३३॥ किंध सव्वण्णु त्ति मती जेणाहं सव्वसंसयच्छेत्ता। पुच्छसु व ज ण याणसि जेण वे ते पञ्चयो होज्जा ॥२०३४॥ किध गाहा । स्यान्मतिः-सर्वज्ञवचनत्वादिति मां प्रति सर्वज्ञत्वमसिद्धम् , भवतः रागद्वेषमोहमयाभावश्च । तच्च न, यस्य सर्वसंशयछेदनसामर्थ्यमस्ति स सर्वज्ञः । यथा क इति चेत् । प्रत्यक्षत्वादविप्रतिपत्तेश्च नान्वयोऽन्वेषणीयः । रागद्वेषमोहभयाभावश्च लिङ्गतोऽनुमेय इति ॥२०३४॥ एवमुवयोगलिंग गोतम ! सव्वप्पमाणसंसिद्धं । संसारीतरथावरतसाविभेत मुणे जीवं ।।२०३५॥ एव० गाहा । एवमनेन प्रकारेण प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणसिद्धमुपयोगात्मकं संसारीतरादिभेदमात्मानं प्रतिपयस्व ॥२०३५॥ जति पुण सो एगो च्चिय हवेज्ज वोमं व सव्वपिण्डेसु । गोतम ! तमेगलिंग पिण्डेसु तथा ण जीवोऽयं ॥२०३६।। जति गाहा । आह-यदि पुनरसावेक एवाकाशवत् सर्वमूर्तिविशेपेषु स्यात् । तथोक्तम् "एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥" [ बह्मबिन्दू० १२] Sr. "ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेत्ति स वेदवित् ।।" [गीता० १५.१] १ गदोसमोहाभा को हे त। २ वायं च त। ३ कह को हे त । । 'च्छेई को हे । ५ वि-त । ६ होई त । होज्ज जे । ५ तदेग को हे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४४३ ] गणधरवादे जीवसिद्धिः । तथोक्तं - " पुरुष एवेदं सर्वम्" इत्यादि । उच्यते गौतम ! युक्तमेतत् सर्वमूर्तिविशेपेष्वेकमाकाशमे कलिङ्गत्वान्न पुनरेवं प्रतिशरीरमेकलिङ्गो जीवः || २०३६ ॥ णाणा जीवा कुंभातयो व्व भुवि लक्खणादिभेदातो । सुह- दुक्ख-बंध मोक्खाभावो य जतो तदेगत्ते || २०३७। गाणा गाहा । नानात्मानः, लक्षणभेदाल्लक्ष्यभेदो दृष्टो यथा घटादिभेदः, यच्चाभिन्नं न तस्य लक्षणभेदो यथाकाशस्य । सुखदुःखाद्यभावचैकत्वे सत्यात्मनः । ॥२०३७॥ जेणोवयोगलिंगो जीवो भिष्णो य सो पतिसरीरं । उत्रयोगो उक्करिसाऽत्रकरिसतो तेण तेऽणंता || २०३८॥ जेणो ० ० गाहा । आह-कथं पुनरात्मनां लक्षणभेदोऽभ्युपगम्यते ? उच्यतेयस्मात् ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणो जीवः स चोपयोगः प्रतिशरीरमुत्कर्षापकर्षभेदादानन्त्यं भजते, तदनन्तत्वादात्मनामप्यानन्त्यम् ॥२०३८ || एते सव्वगतत्तो णं सोक्खादयो णभस्सेव । कत्ता भोत्ता मंता ण य संसारी जधाऽऽगासं ॥। २०३९ || ३५३ एग गाहा । ऐकत्वे हि खल्वात्मनो [न] सुखादयः सम्पद्यन्ते सर्वग तत्वात् । इह यत् सर्वगतं न तत्सुखादिगुणं यथाकाशम् । एवं न बध्यते, सर्वगतत्वात् । इह यत् सर्वगतं न तद् बध्यते यथाकाशम् । यच्च बध्यते न तत् सर्वगतं यथा देवदत्तः । एवं न मुच्यते, न कर्त्ता, न भोक्ता, न मन्ता, न संसारीत्यादि ॥२०३९॥ एगत्ते णत्थि सुही बहूवघातो ति [१३४ - प्र० ] देसणिरुयों व्व । बहुतरवद्धत्तणतो ण य मुक्की देसमुको व्व ॥ २०४०॥॥ एग गाहा । नात्मैकत्वे सुखी बहुतरोपघातात् । इह यो बहुतरोपघातो नासौ सुखी, यथा सर्वरोगावृतोऽङ्गुल्यैकदेशारोगः । यश्च सुखी नासौ बहुतरोपघातो यथेह विषयसम्पदुपेतोऽनुपद्रवो देवदत्तः । न चासौ मुक्तो बहुतरोपनिबन्धात् । इह यो बहुतरोपनिबन्धनो नासौ मुक्त इति व्यपदिश्यते, न वा १ एते जे । २ ण मोक्खा है को त । ३ तुलना मूत्रकृ० चु० १. १. १. १० पत्र २६ । ४ उ व्व है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४४३मुक्तसुखमश्नुते यथा सर्वाङ्गशीलिते विमुक्ताङ्गुल्यैकदेशः पुमान् । यश्च मुक्तो नासौ बहुतरोपनिबन्धनः, न च स्वल्पनिबन्धनो यथाऽशीलितः पुमान् ॥२०४०॥ जीवो तणुमेत्तत्थो जध कुंभो तग्गुणोवलंभातो । अधवाऽणुवलंभातो भिण्णम्मि घडे पडस्सेव ॥२०४१॥ जीवो गाहा । त्वक्पर्यन्तमात्रशरीरव्यापी जीवः, तत्रैव तद्गुणोपलब्धः। इह यस्य यावति गुणोपलम्भः स तन्मात्रो दृष्टो यथा घटः । यश्च यत्रासन्, न तस्य तत्र गुणोपलब्धियथाऽग्नेरम्भसि । अथवा न शरीरादन्यत्रात्मा तद्गुणानुपलम्भात् । इह यस्य यत्र गुणानुपलम्भः [न] स तत्रोपलभ्यते यथा घटात्मनि पटः । यश्च यत्रास्ते न तस्य तत्र गुणानुपलम्भो यथा स्वाकारे घटस्य ॥२०४१॥ तम्हा कत्ता भोत्ता बन्धो मोक्खो सुहं च दुक्खं च । संसरणं च बहुत्ताऽसव्वगतत्तेसु जुत्ताई ॥२०४२॥ तम्हा गाहा । तस्मात् कर्तृत्वादयो बहुत्वाऽसर्वगतत्वयोरात्मनोयुक्तरूपा नान्यथेति ॥२०४२॥ गोतम ! वेदपदाणं इमाणमत्यं च तं ण याणासि । जं विण्णाणघणो च्चिय भूतेहिंतो समुत्थाय ॥२०४३।। "मण्णसि मज्जगेसु व मतभावो भूतसमुदयम्भूतो । विण्णाणमेत्तमाता भूतेणुविणस्सति स भूयो ।२०४४॥ अत्थि ण य पेच्चसण्णा जं पुन्वभवेऽभिधाणममुंओ त्ति । जं भणितं ण भवातो भवंतरं जाति जीवो ति ॥२०४५।। गोतम गाहा । [मण्णसि गाहा] अत्थि० गाहा । गौतम ! न च त्वमेषां वेदपदानां वाक्यार्थं वेसि यदपदिश्यते "विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञास्तीति" । पृथिव्यादिभूतविज्ञानलवसमु. दायो विज्ञानघनः, पृथिव्यादिविज्ञानदेशानां पिण्डीभवनमिति यावत् । विज्ञानघन एवेत्यवधारणमात्मनो भूतातिरिक्तस्य विज्ञानगुणाश्रयस्याभावोपदर्शनार्थम् । एतेभ्यो भूतेभ्यः पृथिव्यादिभ्योऽन्यथा जीवपर्यायवचनोऽपि भूतशब्दस्तेभ्यो मा भूत, न विज्ञानात्मकसत्त्वसवातघनो जैनानामिवानेकसत्त्वविज्ञानसङ्घातो वनस्पत्यादिवत् । समुत्थायेति संभूयाऽभूतविज्ञानप्रादुर्भावमाह । पृथिव्यादिविज्ञानदेशानामपि समुदा १ ग्निरम्भसि । २ एतस्याः प्रतीकं स्वोपज्ञवृत्तौ न दृश्यते । अर्थानुरोधात् तु गाथया अत्र भाव्यम् । ३. 'मुगो त्ति त हे को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ नि० ४४३] गणधरवादे जीवसिद्धिः । यनिमित्तपरिणामाङ्गीकरणं न व्यस्तानामिति यावत् । तान्येवानु विनश्यति तद्विनाशमनु विनश्यति । न यथात्मवादिनामात्मा न शरीरविनाशमनुविनश्यति । न प्रेत्य. संज्ञास्ति-प्रेत्यभावो नाम नारकादिः । स एवायं प्रेत्य नारको देवो वाऽभवन्मनुष्योधुना. संवृत्त इति न भवाद्भवान्तरसंक्रान्तिरस्तीत्युक्तं भवति ॥२०४३-४५॥ गोतम ! पतत्थमेवं' मण्णंतो णत्थि मण्णसे जीवं । वक्तरेसु अ पुणो भणितो जीवो जमथि त्ति ॥२०४६॥ अग्गिहवणातिकिरियाफलं च तो संसयं कुणसि जीवे । मा कुरु ण पदत्थोऽयं इमं पदत्थं णिसामेहि ॥२०४७।। गोतम गाहा । अग्गि० गाहा । गौतमैकवाक्यतायामेषां पदानामेनमर्थमनुमन्यमानो नात्मानमर्थान्तरभूतं भूतेभ्योऽभिमन्यसे, यच्च वाक्यान्तरेषूक्तं "न ह वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोरपहतिरस्त्यशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" इति, तथा "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इत्यादि क्रियाफलं च नात्मन्यसति संभवे. दिति संशये यः) किमयमात्मास्ति नास्तीति ते । वयं ब्रमो मा कृथाः संशयमिह माचैवं प्रतिपत्थाः, नैषां पदानामेकवाक्यतायामयमर्थः । शृणु पदार्थ वक्ष्यामः ॥२०४६-४७|| [१३४-द्वि०] विण्णाणातोऽणणो विण्णाणघणो त्ति सव्वसों' वा वि । स भवति भूतेहिंतो घडविण्णाणादिभावेणं ॥२०४८॥ विण्णा० गाहा । ज्ञान-दर्शनोपयोगरूपं विज्ञानम् । ततोऽनन्यत्वादात्मा विज्ञानघनः, अथवा प्रतिप्रदेशमनन्तविज्ञानपर्यायसंघातात्मकत्वाद्विज्ञानघनः । विज्ञानघन एवेति विज्ञानघनानन्यत्वादवधारणार्थमात्मनः । अथवा शेषात्मधर्माणामपि चेतोवृत्त्यविरोधादि(द्वि)ज्ञानान्तर्भावोपदर्शनार्थ सर्वात्मलिङ्गोपसङ्ग्रहार्थं वा । एतेभ्यो भूतेभ्यो विद्यमानेभ्यो द्रव्यादिभ्यः, यतो नार्थमनालम्ब्य विज्ञानप्रसूतिरस्ति, अतो घटादिभ्यस्तद्विज्ञानभावेनोत्पद्यते ॥२०४८॥ ताई चिय भूताई सोऽणु विणस्सति विणस्समाणाई । अत्यंतरोवयोगे कमसो विष्णेयभावेणं ।।२०४९।। पुव्यावरविण्णाणोवयोगतो विगमसंभवसभावो । विण्णाणसंततीए विण्णाणघणोऽयमविणासी ॥२०५०॥ १ मेतं जे। २ संभावय सं० इति प्रतौ। ३ सव्वओ है। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४४३. ताई गाहा। [पुवागाहा ] । तेभ्यः समुत्थाय तान्येव हि विनाशव्यवधानाभ्यां विज्ञेयभावेन विनश्यन्त्यनुविनश्यति । अथवा तान्येवानुप्राप्यानुप्रकाश्य वा विनश्यन्त्यनुविनश्यति । स च प्रागेतनविज्ञानात्मनोपरमति पाश्चात्यविज्ञानात्मना चोत्पद्यते । सामान्यविज्ञानात्मना द्रव्यतयाऽवतिष्ठते इत्युत्पाद-व्यय-ध्रौव्यधर्मा विज्ञानघनः ॥२०४९-५०॥ ण य पेच्चणाणसण्णाऽवतिट्टते संपतोवयोगातो। विण्णाणघणाऽभिक्खो जीवोऽयं वेदपतविहितो ॥२०५१।। ___ण य गाहा । न प्रेत्य संज्ञास्तीति-न चेह प्रागेतनी घटविज्ञानादिसंज्ञा अवतिष्ठते, साम्प्रतविज्ञानोपयोगविनितत्वात् । स एष विज्ञानघनाख्यो जीवो वेदविहितः प्रतिपद्यस्वैवम् ॥२०५१॥ एवं वि भूतधम्मो णाणं तब्भावभावतो बुद्धी । तण्णो तदभावम्मि विजं गाणं वेतसमयम्मि ॥२०५२।। ___ एवं गाहा । स्यान्मतिः-एवमपि हि भूतधर्म एव ज्ञानम् , तद्भावे भावात् , तदभावे चाऽभावात् । तेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यतीति वचनात् भूतनिमित्तप्रादुर्भावात् , यदत्यये चाऽप्रादुर्भावादित्यर्थः । तच्च न, यस्मात्तदत्ययेऽपि श्रुतेवि( श्रुतौ वि)ज्ञानमुक्तम् ॥२०५२॥ अत्यमिते आतिच्चे चन्दे संतासु अग्गिवायासु । किं जोतिरयं पुरिसो अप्पज्जोति ति णिहिटो ॥२०५३।। अत्थ० गाहा । तद्यथा “अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ, शान्तायां वाचि, किं ज्योतिरेवायं पुरुषः ? आत्मज्योतिः सम्राडिति इहोवाच" [बहदा०४.३.६] । ज्योतिरिति ज्ञानमाह। आत्मैव ज्योतिरस्य सोऽयमात्मज्योतिः ज्ञानात्मक इत्यर्थः । अतो न ज्ञानं भूतधर्म इति ॥२०५३।। तदभावे भावातो भावे चाऽभावओ ण तद्धम्मो । जध घडभावाभावे विवज्जयातो पडो भिण्णो ॥२०५४॥ तद० गाहा । इतश्च न ज्ञानं भूतधर्मः, तदभावे भावाद्भावेऽपि चाभावात् । इह यदभावेऽपि यद् भवति, भावेऽपि च न भवति, न तत् तस्य धर्मो यथा घटस्येह पटः । यच्च यस्य धर्मः, न हि तत् तदभावे भवति, भावे च सर्वथा १ नशतनि द्र- इति प्रतौ । २ 'भिक्खा जे । ३ °भिहिओ हे को त । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४४४] गणधरवादे जीवसिद्धिः। ३५७ न भवति, यथा घटस्य रूपादयः । न च विज्ञान भूताभावे न भवति, भाये चावश्यमेव भवत्यतो न भूतधर्म इति ॥२०५४॥ एसिं वेतपदाणं ण तमत्थं वियसि अधव [१३५-प्र०] सव्वेसिं । अत्थो किं होज्ज सुती विण्णाणं वत्थुभेतो वा ॥२०५५।। जाती दव्वं किरिया गुणोऽधवा संसओ' स चायुत्तो। अयमेवेति ण वायं ण वत्थुधम्मो जतो जुत्तो ॥२०५६।। एसिं गाहा । जाती गाहा । गौतम ! त्वमेषां वेदपदानां न वाक्यार्थमवबुध्यसे । अथवा सर्वेषामेव हि वेदपदानामर्थं नाववुध्यसे । किं श्रुत्यर्थ पदं भवेयथा भैरीशब्दः, उत विज्ञानार्थ यथा घट इति, उत वस्स्वन्तरं यथा घटात् पट इति, उत जात्यर्थ यथा गौरिति, द्रव्याथे दण्डीति, क्रियार्थ धावतीप्ति, गुणार्थ शुक्ल इत्यादौ संशयः । स चायमयुक्तः यतोऽयमेवेति नैवायमिति वा न वस्तुधर्मों युक्तः, सर्वासर्वात्मकत्वाद्वस्तुनः । वस्तुविशेषश्च शब्दः । तस्मान्न 'तद्धर्मावधारणं युक्तम् ॥२०५५-५६॥ सव्वं चिय सव्वमयं सपरपज्जायतो जतो णियतं । सब्वमसव्वमयं 'पि य "विवित्तरूवं विवक्खातो ॥२०५७॥ सव्वं गाहा । इह स्व[पर पर्यायतः सर्व सर्वमयमुक्तं सामान्यविवक्षातः । तथा स्व[पर] पर्यायतः सर्वमसर्वमयमेकान्तविविक्तमिप्यते, विशेषविवक्षातः ।।२०५७।। सामण्णविसेसमयो तेण पतत्थो विवकखया जुत्तो । वत्थुस्स विस्सरूवो पज्जायावेक्खया सव्वो ॥२०५८॥ सामण्ण. गाहा । तस्मात् सामान्यमयो विशेषम यश्च पदार्थो युक्तस्तथा चान्यथा च विश्वरूपः, पर्यायापेक्षया वस्तुतत्स्वाभाव्यादिति ॥२०५८॥ छिण्णम्मि संसयम्मी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केण । सो समणो पव्वइतो पंचहि सह खण्डियसएहि ॥४४४॥२०५९।। एवं कम्मादीसु वि जं सामण्णं तयं समायोज्ज । जो पुण 'जत्थ विसेसो समासतो तं पवक्खामि ॥२०६०॥ १ 'ओ तबाजुत्तो। को हे त । २ अहमें त । ३ 'स्मात्तद्ध'- इति प्रतौ । ५ चिय जे । ५ विचित्त जे। ६ तथाहि इति प्रतौ । ७ समाउजं को हे । ८ एन्थ को। ९ 'मि ।। रनि श्री प्रथमगणधरवादः समाप्तः । त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४४५छिण्णम्मि गाहा । एवं गाहा । एवं यदिह सामान्यं तत् कर्मादिष्वपि यथासम्भवमायोजनीयं प्रत्यक्षानुवृत्त्या संशये संशये संशयाऽपाकरणे चेति विशेषं वक्ष्यामः। ॥२०५९-६०॥ तं पध्वइतं' सोतुं 'बितियो आगच्छती अमरिसेणं । बच्चामि णमाणेमि परायिणित्ता-ण तं समणं ॥४४५॥२०६१॥ छलितो छलातिणा सो मण्णे माइंदजालतो वा वि। को जाणति 'किध वत्तं एत्ताहे वदृमाणी से ॥२०६२॥ सो पक्खंतरमे में पि जाति [१३५-द्वि०] जति मे ततो मि तस्सेव । सीसत्तं होज्ज गतो वोत्तुं पत्तो जिणसगास ॥२०६३॥ आभहो य जिणेणं जातिजरामरणविष्पमुक्केणं । णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णूसव्वदरिसीणं ॥४४६॥२०६४॥ किं मण्णे अस्थि कम्मं उदाहु जत्थि त्ति संसयो तुझं । वेतपताण य अत्थं ण याणसे तेसिमो अत्थो ॥४४७॥२०६५।। कम्मे तुह संदेहो मण्णसि तं णाणगोयरातीतं । तुह तमणुमाणसाधणमणुभूतिमयं फलं जस्स ॥२०६६।। तं पन्न० गाहा । छलितो गाहा । सो पक्खं० गाहा । आभट्ठो गाहा । कि मण्णे गाहा । कम्मे गाहा । आयुष्मन्नग्निभूते कर्मणि भवतः सन्देहः, यतः किल तत् सर्वप्रमाणविषयातीतमिति । मैवं प्रतिपत्थाः । नैव हि तत् सर्वप्रमाणगोचरातिकान्तम्, अस्मत्प्रत्यक्षवाद, भवतश्चानुमानागमगम्यत्वात्। न हि तत् अप्रत्यक्ष सर्वथा यत् अन्यस्य कस्यचित् प्रत्यक्षं सिंहवत् । यथा सिंहः केपाश्चिदेव प्रत्यक्षोऽथ च तत्प्रामाण्यादागोपालं प्रतीतः, तथेहापि मत्प्रत्यक्षं कर्म सर्वप्रत्यक्षवाद्भवद्विज्ञानवदिति प्रतिपद्यस्व । आह-सर्वप्रत्यक्षत्वादित्ययमसिद्धो मां प्रति । न हि भवतोऽस्माभिः सर्वज्ञवं सम्भाव्यते, तदभ्युपगमे वा भवचनात् कर्मापि प्रतिपयेमहि । उच्यते-न, सर्वथा सर्वसंशयच्छेदनसामर्थ्यात् । इह यस्य सर्वथा सर्वसंशयच्छेदनसामर्थ्यमस्ति स सर्वज्ञो यथा क इति चेत् ! प्रत्यक्षत्वादविप्रतिपत्तेश्च नान्वयोऽन्वेषणीयः । यदि वा सर्वथा सर्वसंशयच्छेद[न]मपि न सर्वज्ञता, लिङ्गमभिधत्स्व । न चेदभिधीयतेऽभ्युपगम्यता १ 'इउ त। २ बीओ को त हे। ३ 'मी प त हे को। ४ जालि' को । ५ पाइ जे ।। क को हे। कल त । ७ रमितत। 'गागेको । १ मणि दी हो । १० जाणसी हा को दी। याणसी त म। याणसि हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ नि० ४४७ ] गणधरवादे कर्मसिद्धिः। मस्मत्सर्वज्ञता। ततश्चास्मत्प्रत्यक्ष कर्मेति। अथवा भवतोऽपि हि प्रत्यक्षमेव कर्म तदनुभूतिप्रत्यक्षत्वात् । इह यस्यानुभूतिः प्रत्यक्षा, तत्प्रत्यक्षम् , यथा रूपादयः । कर्मापि च सुखदुःखानुभूत्याऽनुभूयते, तन्निमित्तत्वात् सुखदुःखानुभूतेः । तस्मात् प्रत्यक्षं कर्मेति । आह-ननु तदनुभूतेरित्ययमसिद्धः, न प्रतिपद्यामहे सुखदुःखादिना कर्मणोऽनुभूतिरिति ॥२०६१-६६॥ अस्थि सुहदुक्खहेतू' कज्जातो बीयमंकुरस्सेव । सो दिट्ठो चेव मती वभिचारातो ण तं जुत्तं ॥२०६७॥ अस्थि गाहा । उच्यते-सुखदुःखानुभूतेहेतुरस्ति, कार्यत्वादनुरस्येव बीजम् , यश्च हेतुरस्यास्तत्कर्म तस्मादस्ति कर्मेति । स्यान्मतिः-सुखदुःखानुभूतेष्ट एव हेतुरि. ष्टानिष्टविषयप्राप्तिमयो भविष्यति । तत् किमिह कर्मपरिकल्पनया ? न हि दृष्टं निमित्तमपास्य निमित्तान्तरान्वेषणं युक्तरूपम् । उच्यते-न, व्यभिचारात् ।।२०६७॥ जो तुल्लसाधणाणं फले विसेसो ण सो विणा हेतुं । कज्जत्तणतो गोतम ! घडो व्व हेतू य सो कम्मं ॥२०६८॥ ___ जो तुल्ल० गाहा । इह यो हि द्वयोरिष्टशब्दादिविषयसुखसाधनसमेतयोबहनां वा तत्फले विशेषो दुःखानुभूतिमयः, यश्चानिष्टसाधनसमेतयोरेकस्य तत्फलविघातविशेषो नासौ हेतुमन्तरेण सम्भाव्यते। न च तद्धतुरेव] वा युक्तः, साधनविपर्ययात् । परिशेपात्-हेतुमानसौ, कार्यत्वाद्, घटवत् । यश्च समानसाधकसाधनसमेतयोस्तत्फलविशेषहेतुस्तत् कर्म । तस्मादस्ति कर्म ॥२०६८॥ बालसरीरं देहतरपुव्वं इन्दियातिमत्तातो । जध बालदेहपुन्यो जुवदेहो पुवमिह कम्मं ॥२०६९॥ बाल० गाहा । अन्यदेहपूर्वकमिदं बालशरीरम्, इन्द्रियादिमत्त्वात् । इह यदिन्द्रियादिमत् तदन्यदेहपूर्वकं दृष्टम् , यथा बालदेहपूर्वकं युवशरीरम् । यच्छरीरपूर्वकं चेदं बालशरीरकं तत् कर्म । तस्मादस्ति कर्मेति । इन्द्रियादिमत्त्वादित्यादिग्रहणाच्चेतनत्वात्, सुखित्वात्, दुःखित्वात्, प्राणापाननिःशेषोन्मेषजीवनादिमत्त्वादिति ॥२०६९॥ किरियाफलभावातो दाणादीणं फलं किसीए व्य । 'तं चिय दाणादिफलं मणप्पसादाति जति बुद्धी ॥२०७०॥ किरिया० गाहा । फलवन्तो दानादयः, चेतनरूपक्रियारूपत्वात् । इह यच्चे. तनक्रियारूपं तत्फलवदृष्टम् , यथा कृष्यादिक्रिया । यच्चाफलं न तच्चेतनक्रियारूपम्, • - - . . गे से। , mon- - --- - . .... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाग्ये [न० ४४७ यथाऽण्वादि । यच्चैषां दानादिक्रियाविशेषाणां फलम् , तत् कर्म । तस्मादस्ति कर्म । स्यात्-विपक्षेऽपि दर्शनार्दनैकान्तिकोऽयम् , यतः कृष्यादिक्रियाणां हि कदाचिद्वैफल्यमपि दृष्टम् । तच्च न, फलवत्वे सति तदारम्भदर्शनादज्ञानाच्चाफलत्वदर्शनात् । दानादीनामपि तत्स्वभावत्वाऽभ्युपगमाददोषः । स्यान्मतिः-यथा कृष्यादिक्रिया दृष्टप्रयोजनास्तथा दानादयोऽपि मनःप्रसादादिमात्रफला एव भविष्यन्ति । किमिहादृष्टफलपरिकल्परूपा:( कल्पनया )तच्च न ॥२०७०॥ [१३६-प्र०] किरियासामण्णातो जं फलमस्सावि तं मतं कम्मं । तस्स परिणामरूवं सुह दुक्खफलं जतो भुज्जो ॥२०७१।। किरिया० गाहा । क्रियासामान्यात् मनःप्रसादादिरूपमपि क्रियाविशेष एव । तेनापि हि फलवतावश्यं भवितव्यम् । अस्यापि हि यत् फलं तत् कर्म । तत्परिणामात्मकं तत्फलमुच्यते भूयः सुख-दुःखादि । स्यात् - प्रागभ्युपगम्य दानादिक्रियाफलं कर्म, इदानीं मनःप्रसादादिक्रियाफलमिति विरुद्धमुच्यते । तच्च न, कारणे कार्योपचारात् पर्जन्य(न्ये) तन्दुलवर्षणवत् ॥२०७१।। होज्ज मणोवित्तीए दाणातिकिये व जति फलं बुद्धी । तं ण णिमित्तत्तातो पिण्डो व्य घडस्स विष्णेयो ।।२०७२।। होज्ज गाहा । स्यान्मतिः-मनोवृत्तरपि प्रत्यावृत्या दानादिक्रियैव फलं भविष्यति । तच्च न, निमित्तत्वात् । न हि निमितं फलमिष्टं घटस्य पिण्डवत् । नैमित्तिकं तूपलभ्यते पिण्डस्य घटवत् ॥२०७२।। एवं पि दिट्टफलता 'किया ण कम्मप्फला पसत्ता ते । सा तम्मत्तफले च्चिय जय मंसफलो पसुविणासो ॥२०७३।। ___ एवं गाहा । आह--एवमपि दृष्टार्थानां क्रियाणामदृष्टफलाभावप्रसङ्गः, दृष्टेन फलेनाभिमतप्रयोजनत्वात्, पशुविशसनवत् । यथेह पशुविशसनक्रिया मांसाशना. याऽऽरभ्यते नाऽधर्मायेत्यतस्तस्यास्तन्मात्रफलतैवेष्यते, नाधर्मफलता ॥२०७३।। पायं च जीवलोओ वट्टति दिदृप्फलासु किरियामु।। अहिट्ठफलासु पुणो वदृति णासंखभागो वि ॥२०७४॥ पायं गाहा । प्रायं चायं प्रागिलोको दृष्टास्वेव क्रियास्वनुप्रवर्तते, दानादिष्वदृष्टफलासु कतिपयेऽनुप्रवर्तते । हिंसादीनां चानिष्ट क्रियाणामदृष्टफलाभावाद्दानादीष्टक्रियाणामयदृष्टफलाभावो भविष्यति ॥२०७४।। १ नादिन-इति प्रतौ । २ किरिया को हे। ३ तम्मित्त त । सम्मेत्त है। ४ फले त । ५ पुण को हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४४७] गणधरवादे कर्मसिद्धिः। सोम्म जतो च्चिय जीवा पायं दिटुप्फलामु वटुंति । अद्दिष्टफलाओ वि' हु ताओ पडिवज्ज तेणेव ॥२०७५।। ___ सोम्म गाहा । सौम्य यत एव प्राणिनः प्रायेण दृष्टफलास्वेव क्रियास्वनुप्रवर्त्तन्ते नादृष्टफलासु । अत एव ताः खल्वदृष्टफला अपीति प्रतिपद्यस्व । ॥२०७५।। कोऽभिप्रायः ? इधरा अदिट्टरहिता सव्वे मुच्चेज्ज ते अयत्तेण । अहिट्ठारंभो चेव किलेसबहलो भवेज्जा हि ॥२०७६॥ इधरा गाहा । इतरथाऽदृष्टफलाभावादनिष्ट क्रियानुष्टातारः सर्व एव अयत्नेन मुच्येरन् । दानाद्यदृष्टार्थक्रियारम्भाय वा पापबहुलो भवेत् । कथम् ? इहेप्टक्रियानुष्टातारस्तत्क्रियाफलविपाकमनुभवन्तस्तत्प्रचोदिताः पुनरिष्टास्वेव क्रियास्वनुप्रवर्तन्ते । ततश्च भूयस्तत्फलविधाकानुभूतिः । पुनरिष्टक्रियानुष्टानमित्येवमनन्तसन्ततिमयः संसारः । आह-तथास्तु । किं नो बाध्येत-यद्यनिष्ट क्रियानुष्टातारो मुच्येरन् इष्ट क्रियानुष्टातृणां चानन्तः संसारः स्यात् ? उच्यते-नन्विदमेव बाध्यते यदिष्टक्रियानुष्टातारस्तत्फलविपाकानुभुज एवोपल येरन् , अशुभक्रियानुविधायिनोऽनि. एफलभुजश्च न स्युः । न च तत्तथा ॥२०७६।। जमणिट्ठभोगभाजो बहुतरया जं च णेइ मतिपुव्वं । अहिट्ठाणि?फलं कोइ वि किरियं समारभते ॥२०७७।। जम० गाहा। यतश्चेहानिष्टभोगभाजो भूयांसः, न च कश्चिदपि बुद्धिपूर्वमदृष्टानिष्टफलां क्रियामारभते । अदृष्टमनिष्टं च फलमस्याः सेयमदृष्टाऽनिष्टफलेति ॥२०७७॥ तेण पडिवज्ज किरिया अद्दिष्टे[१३६-द्वि०]गंतियप्फला सव्वा । दिठाणेगंतफला सा वि अदिट्ठाणुभावेणं ।।२०७८॥ तेण गाहा। तेन सौम्य प्रतिपद्यस्व संसारिणः सर्वक्रिययाऽवश्यमदृष्टफलया भवितव्यम् । दृष्टफलतायामनेकान्तस्तत्फलविघातश्चाऽदष्टानुभावत एव, अन्यथा हि समानमीहमानानामेकस्य विघातो न युक्तरूपः ॥२०७८।। 'अधव फलातो कम्मं कज्जत्तणतो पसाहितं पुव्वं । परमाणवो घडस्स व किरियाण तयं फलं भिणं ॥२०७९॥ १ ओ च्चिय ता' त । 'ओ विय ता हे । २ अपयत्तेणं को हे । ३ केसब जे हे । ४ भइ त को हे । ५ अहवा त हे को। ६ लाउ हे को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४४७अधव गाहा । अथवा प्रागेवास्माभिः प्रसाधितं कर्म कार्यस्वाद् घटस्येव परमाणवः । तदेवेह क्रियाफलमनुमेयं ताभ्यो भिन्नमिति ॥२०७९॥ आह गणु मुत्तमेवं मुत्तं चिय कज्जमुत्तिमत्तातो । इध जह मुत्तत्तणतो घडस्स परमाणवो मुत्ता ॥२०८०॥ ____ आह गाहा । आह-यदि कार्यात् कर्म प्रसाध्येत शरीरादिकार्यस्य मूर्तिमत्त्वात् कर्मापि मूत्तिमत् प्रसजति । उच्यते-इदमस्माभिः साध्यं तत् साधु भवतैव प्रसाधितम् | सत्यमिह मूर्तिमदेव कर्म, तत्कार्यस्य शरीरादेः मूर्तिमत्त्वात् । इह यस्य कार्य मूर्तिमत् तस्य कारणमपि मूत्तिमद् दृष्टम् , यथा घटस्य परमाणवः । यच्चामूते न तस्य कारणे मूर्तिमत्त्वम् , यथा विज्ञानकारणस्यात्मनः । समवायिकारणं चेहाधिक्रियते, न निमित्तमात्रमालोकरूपादि । ____ आह-ननु सुखदुःखादयोऽपि कर्म कार्यम् । अतस्तदमूर्तिमत्त्वादमूर्त्तत्वमपि कर्मणः । न च मूर्त्तामूर्तमस्ति । उच्यते - ननूक्तमिह समवायिकारणमधिक्रियते । सुखदुःखादयश्चात्मधर्मास्तेषामात्मैव समवायिकारणम्, कमैषां निमित्तकारणमन्नादिवदित्यदोषः ॥२०८०॥ तध सुहसंवित्तीतो संबंधे वेतणुब्भवातो य । बज्झबलाधाणातो परिणामातो य विष्णेयं ॥२०८१॥ आहार इवाणल इव घडो व जेहादिकतबलाधाणो। खीरमिवोदाहरणाई कम्मरूइत्तगमगाइं ॥२०८२॥ तध गाहा । आहार गाहा । इतश्च मूर्तिमत् कर्म, तत्सम्बन्धे इह मुखसंवित्तेः । इह यत्संबन्धे सुखसंवित्तिर्ज्ञायते तत् मूर्तिमत् , यथाहारः । यच्चामूर्त न तत्सम्बन्धे सुखसं विदस्ति, यथाकाशसम्बन्धे । तथा, तत्सम्बन्धे वेदनोद्भवात् । इह यत्सम्बन्धे वेदनोद्भवो भवति तन्मूर्तिमद्यथाग्निः । यच्चामूर्त न तत्सम्बन्धे वेदनोद्भवः, यथाऽऽकाशसम्बन्धे । तथाऽनात्मविज्ञानादित्वे सति मूर्तिमबलाधानात् । इह यस्याऽनात्मविज्ञानादेः मूर्त्तिमता बलाधानं जन्यते [स] मूर्तिमान् यथा स्नेहादिबलाधानो घटः । यच्चामूर्त न तस्याऽनात्मविज्ञानादे मूर्त्तिमता बलाधानक्रिया यथाऽऽकाशस्य । तथाऽनात्मादिपरिणामात् । इह यदनात्मादिस्वभावं परिणामि तन्मूर्तिमद् यथा पयः । यच्चामूर्त न तदात्मस्वभावं परिणामि यथाकाशम् ॥२०८१-८२॥ १ ताद्यौ- इति प्रतौ। २ कारण-इति प्रतौ। ३ घडु व्य को हे। ४ लाहाणे त । ५ रूवि को हे त। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४४७ ] गणधरवादे कर्मसिद्धिः । अध मतमसिद्धमेतं परिणामातो' त्ति सो विकज्जातो । सिद्धो परिणामो से दधिपरिणामाति व पयस्स || २०८३ || अध गाहा । अथ मतिः- असिद्धमेतत् परिणामादिति । न हि परिणामि कर्मेति प्रतिपद्यामहे । उच्यते - परिणामि कर्म, कार्यस्य परिणामित्वात् । इह यस्य कार्यं परिणामि तस्य कारणमपि परिणामि । यथा दधिकार्य परिणाम पयः । यच्चापरिणामि न तस्य कार्यपरिणामिता यथाकाशस्य ॥२०८३ || अभातिविगाराणं जध वइचित्तं विणा वि कमेण । तध जति संसारीणं हवेज्ज को णाम तो दोसो || २०८४ ॥ अभाति गाहा । यथाऽभ्रादिविकाराणामन्तरेण कर्म वैचित्र्यं दृष्टम् । यद्येवं संसारिणामपि स्यात् को दोषः || २०८४|| ३६३ कम्मम्म को तो जध वज्झक्खंधचित्तता सिद्धा । व त कम्म पुग्गलाण वि [१३७ - प्र० ] विचित्तता जीवसहिताणं ॥२०८५ || कम्म० गाहा | सौम्य कर्म अणु वा को भेदः ? ननूक्तं कर्मापि पुद्गलविकार एव, केवलमात्मसंयोगविशिष्टः । ततो यथाऽभ्रादिविकारविश्वरूपता तथास्यापीति । ।। २०८५ ॥ वज्झाण चित्तता जति पडिवण्णा कम्मणो विसेसेणं । जीवाणुगतस्स मता भत्तीण व सिप्पिणत्थाणं || २०८६|| बज्झा० गाहा । यदि चेह बाह्यानामभ्रादिविकाराणां पुगलमयत्वाद्विचित्रता प्रतिपाद्यते कर्मणो विशेषेण प्रतिपत्तव्या, पुरुषाधिष्ठानात् । यथेह कुशलशिल्पिविन्यस्ता भक्तयश्चित्राश्चित्रादिषूपलभ्यन्ते तथा पुरुषाधिष्ठितस्य कर्मणः प्रतिनियतविश्वरूपता विशेषोऽभ्युपेयः ॥२०८६।। तो जति तणुमेतं चिय हवेज्ज का कम्मकरपणा णाम । कम्मं पि णणु तणु च्चिय सण्हतर अंतरा वरं ॥ २०८७ || जाज्जइ ( तो जति) गाहा । आह-यदि पुनरभ्रादिविकारवत्तनुमात्रतैव स्यात् किमिह कर्मपरिकल्पनया : उच्यते - कर्मापि ननु तनुरेव केवलमणीयसीन्द्रियविषयातीता चाभ्रादिविकारकारणद्रव्यवत् ॥ २०८७ ॥ १ माउ त्ति को हे । २ कार्यपम-इति प्रत्तौ । ३ वेचि को हे त । ४ पोग्ग को है । ५ ण विचित्तणत्थाणं त । ४६. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४४७को तीये विणा दोसो धूलातो सव्वधा विमुक्कस्स । देहग्गहणाभावो ततो य संसारवोच्छित्ती ॥२०८८॥ को तीय गाहा । आह-यदि पुनरणीयसी तनु व स्यात् को दोषः स्यात् ? उच्यते-- स्थवीयसी सर्वथा विहायोपादानहेत्वभावाच्छरीरादानाभावः स्यात् । ततश्च संसारोच्छेदः ॥२०८८॥ सव्वविमोक्खावत्ती णिक्कारणतो व्व सव्वसंसारो। भवमुक्काणं च पुणो संसरणमतो अणासासो ॥२०८९।। सब० गाहा । अथ(अप्य)शरीरत्वे सति सर्वमोक्षप्रसङ्गः । अशरीरस्यापि च संसरणप्रतिपत्तावकारणः संसारः स्यात् , मुक्तानामपि चाकस्मात् पतनप्रसङ्गः । ततश्चानाश्वासदोषः ॥२०८९।। मुत्तस्सामुत्तिमता जीवेण कधं हवेज्ज संबन्धो । सोम्म ! घडस्स व णभसा जध वा दबस्स किरियाए ॥२०९०॥ मुत्तस्स गाहा । आह-मूर्तिमतः कर्मणोऽमूर्तेनात्मना कथं सम्बन्धः स्यात् ! उच्यते-यथेह घटस्य नभसा, द्रव्यस्य या क्रियादिभिः । एतावती च सम्बन्धक्रिया यत् संयोगः समवायो तदुभयं च मूर्तामूर्तयोरविरुद्धम् ॥२०९०।। अधवा पच्चरखं चिय जीयोवणिबंधणं जध सरीरं । चेट्टइ 'कम्मयमेवं भवंतरे जीवसंजुत्त ।।२०९१॥ अधवा गाहा । अथवा यथेह प्रत्यक्षमेव जीवोपनिबन्धनमिदं शरीरमाचेप्टते तद्वत् कार्मणमपि प्रतिपद्यस्व । उतैतद्धर्माधर्मनिमित्तम् । तावपि मूर्तीमूत्तौ भवेतां ? यदि मूर्ती तत्सम्बन्धवदात्मकर्मणोरपि सम्बन्धः । अथामूर्ती तच्छरीरानुविधायित्वेऽपि समानम् ।।२०९१॥ मुत्तेणामुत्तिमतो उवघाताणुग्गहा कधं होज्न । जध विष्णाणादीणं मदिरापाणोसधादीहिं ॥२०९२॥ मुने० गाहा । आह--मूर्तिमता कर्मणाऽऽमनोमूर्नम्योपघातानुग्रहौ कथं स्याताम् ! उच्यते-यह-विज्ञानस्य मदिरापानापूविषापालिकाशना दुपघातोऽनुप्रहश्च सर्विचादिमेध्यभेषजोपयोगात् , तथा चक्षुरादिविज्ञानानामिष्टानिष्ट विषयनिमित्ताव १ तीर को हे। तीइ त । २ धुलाए को हे त । ३ णउ व्व को हे। " 'मुक्खा । त । ५ व को हे । ६ तम्म त। होज्जा को हे । ८ विहानसामदि-इति प्रती । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ नि० ४४७] गणधरवादे कर्म सिद्धिः । नुग्रहोपघातौ सुखस्य दुःखस्य तद्विपरीतविषयनिमित्तौ । तथा रागद्वेषभयशोकादीनामपि सम्भवतोऽभिधेयम् ॥२०९२।। अधवा णेगंतोऽयं संसारी सहा अत्तो ति । जमणातिकम्मसंततिपरि[१३७-द्वि०]णामावण्णरूबो सो ॥२०९३॥ अधवा गाहा । अथवा नायमेकान्तः संसारी सर्वथैवाऽमूर्त इति । कुतः ? अनादि कर्मसन्तानोनिबन्धनत्वादात्मकर्म सामान्यपर्यायाच्च सुखदुःखादीनाम् । पर्यायिणश्च पर्यायाऽनन्यत्वविवक्षात इति ॥२०९३।।। संताणोऽणातीओ परोप्परं हेतुहेउभावातो । देहेस्स य कम्मस्स य गोतम ! बीयंकुराणं व ॥२०९४॥ संताणो गाहा । आह-कथं पुनः कर्मणोऽनादिः सन्तान इति ? उच्यते-- देहकर्मणोरंन्योन्यहेतुहेतुमद्भावात् । इह ययोरन्योन्यहेतुहेतुमद्भावस्तयोरनादिः सन्तानो यथा बीजाङ्कुरयोरथवा पितापुत्रयोः ।।२०९४॥ कम्मे 'वाऽसति गोतम ! जमग्निहोत्तादि सग्गकामस्स । वेत विहितं विहण्णति दाणातिफलं च लोअम्मि ॥२०९५॥ कम्मे वा गाहा । कर्मण्यसति वा यद् "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इत्यादि क्रियानुष्टानं वेदविहितं तद्विघातः । लोके [च] दानादि क्रियाफलविशेषाणाम् । अनिष्टं चैतत् , क्रियाफलदर्शनात् क्रियादिवदित्युक्तम् ॥२०९५॥ कम्ममणिच्छंतो वा सुद्ध चिय जीवमीसराई वा । मण्णसि देहातीणं जं कत्तारं ण सो जुत्तो ॥२०९६।। कम्म० गाहा । कर्म वाऽनिष्ठन् शुद्धमेवाकर्माणमात्मानमीश्वरमव्यक्ति(क्त)कालनियतियदृच्छादिकं कर्तारमभिप्रैपि शरीरादीनां यदि । असावपि न युक्तरूपः । ॥२०९६॥ कथम् ? उपकरणाभावातो णिच्चेद्वाऽमुत्ततादितो वा वि । ईसरदेहारंभे वि तुल्लता वाऽणवत्था वा ॥२०९७।। उव० गाहा । नायमकर्मा शरीरमारभते । निरुपकरणत्वात् । इह यो निरुपकरणो नासावारभते, यथा दण्डादिविकलकुलालः । यश्चारभते नासौ निरुपकरणो यथाऽसा १ सव्वतो जे । २ अनन्नु त्ति त । ३ नो यदनि -इति प्रतौ ।, 'गाईट को हे। द्रष्टव्या गा' २१२० । '५ जीवस्म जे । ६ चा को हे । ७ ताई की। ८ मणास-इति प्रतौ । ९ रासि वा जे । राई त । १० नां यमवमा - इति प्रती । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [ नि० ४४७ वेव दण्डादिसमेतः । न चास्य कर्मान्तरेणान्यदुपकरणमस्ति । अथवाऽयं प्रयोगः - ना [य] - मकर्माssरभते, एकत्वादेकपरमाणुवत् । एवैमशरीरत्वादाकाशवत्, निःक्रियत्वाद्, अमूर्त. त्वात्, सर्वगतत्वादित्यादि । अथ मतिः - ईश्वरः शरीरखामारssभते । तच्छरीरारम्भेऽपि तुल्यता । ननूक्तम् 'अकर्मा नारभतेऽनुपकरणत्वात्' इत्यादि । अथान्यस्तच्छरीरारम्भाय व्याप्रियते । सोऽपि हि शरीरवानशरीरो वा ? यद्यशरीरः, नारभते निरुपकरणत्वादित्यादितः । अथ शरीरवांस्तच्छरीरारम्भेऽपि तुल्यता । अथ तच्छरीरमन्यः शरीरखानारभते । अतस्तस्याप्यन्यस्तस्याप्यन्यः इत्यनवस्था, अनिष्टं चैतत् सर्वम् || २०९७ ॥ I ३६६ अधव सभाव मण्णसि विष्णाणघणादिवेतवंकातो । त बहुदो गोतम ! ताणं च पताणमयमत्थो || २०९८|| अधव गाहा । अथवा "विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय" इत्यादिवेदवचनप्रामाण्यात् स्वभावोऽभिप्रेतस्तथापि हि भूयांसो दोषाः प्रसजति । कथम् इह स्वभावो हि वस्तुविशेषोऽकारणता वस्तुधर्मो वाभ्युपगम्येत ? सर्वथा च दोषः । तत्र भावस्वभावो वस्तुविशेषः सर्वप्रमाणगोचरातीतत्वात् स्वरविषाणवत् । अथासौ सर्वप्रमाणविषयातीतोऽप्यस्ति; कर्म किमिति नास्ति ? स्वभावास्तित्वे वा यो हेतुः स कर्मणोऽपि समानः । अथवा कर्मणोऽभिधानं स्वभाव इति तन्नामास्ति । न संज्ञामात्रविप्रतिपत्तिः । स च मूर्तिमान - मूर्त्तो वा ? यदि मूर्त्तिमान्, अस्य कर्मणः को विशेषः ? कर्मैव संज्ञाविशिष्टं तत् । अथामूर्तः; नारम्भको निरूपकरणत्वात् इत्यादितः । न च मूर्तिमतः शरीरादिकार्यस्यामूर्त कारणमनुरूपमाकाशवत् । अथाऽकारणता नाम स्वभावः । अतोऽभिदध्मः - नाऽकस्मि[क]न्निर्गतः(तिः) शरीरादिकार्यस्यै । [ नाकस्मिकमभूत् ] शरीरम्, आदिमत्प्रतिनित्यताकारत्वात् । इह यदादिमत् प्रतिनियताकारं च न तदाकस्मिकं यथा घटः । यच्चाकस्मिकं न तदादिमत् प्रतिनियताकारं च । यथाभ्रादिविकारः । प्रतिनियताकारत्वादेव चोपकरणसमेतकर्तृकं शरीरं घटवत् । न च कर्मणोऽन्यदुपकरणं सम्भाव्यते । अथ वस्तुनो धर्मः स्वभावः । तथाप्यसौ यद्यात्मधर्मो विज्ञानादिवन्न शरीरकारणममूर्त्तत्वादाकाशादिवत् । अथ मूर्त्तिमद्धर्मः । न पुनलपर्यायमतिवर्त्तते । कर्माऽपि हि पुद्गलपर्यायाऽनन्यरूपमेवेत्यविप्रतिपत्तिः । न चैषां विज्ञानघनादिपदानामयं वाक्यार्थो यो भवदभिप्रेतः । किं तर्हि ? विज्ञानघनाख्यः पुरुष एवायं भूतेभ्योऽर्थान्तरम् । भयं च कर्त्ता । कार्य च शरीरम् । अत एव च तावत् कर्त्तान्तरं करणमवसीयते, 'कर्तृकार्यसद्भावात् । इह यत्र कर्तृकार्य सद्भाव १. एकम- इति प्रतौ । २ वुत्ताओ को हे त । ३ताव को है । ४ स्यामूर्तकं श० - इति प्रतौ । ५. दानादि० - इति प्रतौ । ६. न्तरक० इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४५१] गणधरवादे तज्जीवतच्छरीरवादः। ३६७ स्तत्रावश्यंभावि करणं, यथाऽयस्कारायस्पिण्डसद्भावे संदंशः । यच्चात्रात्मनः शरीरकार्यनिवृत्तौ करणभावमापद्यते तत्कर्मेति प्रतिपद्यस्व ॥२०९८॥ छिण्णम्मि संसयम्मी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पव्वइतो पंचहि सह खंडियसतेहिं ॥४४८॥२०९९।। ते पव्वइते सोतुं ततियो आगच्छती जिणसयासे । वच्चामि णं वदामि वन्दित्ता पज्जुवासामि ॥४४९।।२१००॥ सीसत्तेणोवगता संपदमिन्दग्गिभूतिणो जस्स । तिभुवणकतप्पणामो स [१३८-५०] महाभागोऽभिगमणिज्जो ॥२१०१॥ तर्दभिगमणवंदणोवासणादिणा होज्ज पूतपावो हं । वोच्छिण्णसंसयो वा वोत्तुं पत्तो जिणसगासं ॥२१०२।। आभट्ठो य जिणेणं जाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सवण्णूसबदरिसीणं ॥४५०॥२१०३॥ तज्जीवतस्सरीरं ति संसओ ण वि य पुच्छसे किंचि । वेतपताण य अत्यं ण याणसे" तेसिमो अत्थो ॥४५१॥२१०४॥ वसुधातिभूतसमुदयसंभूता चेतण त्ति ते संका । पत्तेयमदिहा वि हु मज्जंगमदो" व्व समुदाए ॥२१०५।। ज़ध मज्जंगेसु मदो वीसुमदिट्ठो वि समुदए होतुं । कालंतरे विणस्सति तब भूतगणम्मि चेतणं ॥२१०६॥ छिण्णम्मि गाहा । ते पच्च० गाहा । सीसत्ते० गाहा । तदभि० गाहा । आभट्ठो गाहा । तज्जीव० गाहा । वसुधा० गाहा । जध गाहा । सौम्य वायुभूते ! भवदभिप्रायो-नैव हि शरीरादयं पृथक् पुरुषः, पृथिव्यादिमहाभूतसमुदायधर्म एवेयं चेतना, प्रत्येकमदर्शनात्, समुदाये च दर्शनात् । आह-यत् समुदायेषु प्रत्येकं नोपलभ्यते तत्समुदाये चोपलभ्यते तत् समुदायमात्रधर्म एव प्रतीयते । यथा मद्याड्ने मदः पृथगनुपलभ्यमानस्तत्समुदाय एवाविर्भवति तद्विनाशे चोपरमति, तथेयमपि चेतना पृथगभूता भूतेषु, तत्समुदाये भूत्वा,पुनर्न भवति । वाक्यान्तरषु चानुश्रयते--- " न ह वै १यम्मि वि जे। २ "हिं अ खं जे। ३ द्वितीयो गणधरवादः समाप्त । त । ५ सगासं को हे त । ५ °मि ण को जे त । 'मि व हे दी । ६ तदधिगमवंदणणमंसणादिणा जे । ७ गासे हे को। ८ जे प्रतौ " आभट्ठो य जिणणं । गाधा ॥” इति अंशो गृहीतः । ९ ति मण्णसे ण जे। १० °णसी दी को हे । ११ मउव्व । १२ पं-इति प्रतौ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ नि० ४५१ सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्त्यशरीरं कायावसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" इत्या दिष्वतः संशयः ॥ २०९९ ॥ पत्तेयमभावतो ण रेणुतेल्लं व समुदये चेता । मगे तु मतो वसुं पि ण सम्सो णत्थि || २१०७॥ ३६८ विशेषावश्यकभाष्ये मणि- वितण्हतादी पत्तेय पि हु जधा मतंगे । तध जति भूतेसु भवे चेता ती समुदए होज्जा ॥ २१०८॥ जति वा सव्वाभावो वीसुं तो किं तदंगणियमोऽयं । तस्समुदयणियमो वा अण्णेसु वि तो भवेज्जा हि ॥२१०९ ॥ पत्तेय गाहा० । भमि० गाहा । जति गाहा । मा कृथाः संशयम्, न भूतसमुदायमात्रस्येयं चेतना, सर्वथा पृथगनुपलब्धेः । इह यत् सर्वथा पृथग् नोपलभ्यते तत्समुदायेऽप्यसद् यथा सिकतातैलम् । यच्च समुदायेऽस्ति तत् पृथगपि विद्यत एव यथा मद्याने मदः । इह यथा सिकतासु पृथगसत् सर्वथा तैलम् । न खल्वि (ल्व) यं मद्याङ्गेषु पृथक् सर्वथा मदाभावः । मयाङ्गेषु हि पृथगवि (पि) भ्रमा (म्या) दिरूपा या च यावती च मदशक्तिरस्ति तथा भूतेषु यदि पृथग् मनागपि चैतन्यं भवेत् तत्समुदाPost | यदि ह न मद्याङ्गेषु पृथग्मदभावः स्यात्तदङ्गनियमस्तत्समुदायनियमो वा न स्यात् । यत्र कचन येषु केषुचिद्वा समुदितेषु तद्भस्मगोमयादिषु मदः स्यात्, न चासावस्ति ॥ २१०९ ॥ भूताणं पत्तेयं [१३८ - द्वि०] पि चेतणा समुदये दरिसणातो । जय मज्जंगे मदो मति त्ति हेतू ण सिद्धोऽयं ॥ २११०॥ भूताणं गाहा । स्यान्मतिः- मंखूक्तं साधूक्तं ) यत् पृथगपि मद्याङ्गेषु मदसामर्थ्यम् एतदेव हि व्यस्त भूतचेतनायामुदाणमिह व्यस्तेष्वपि भूतेषु चैत न्यमस्ति तत्समुदाये दर्शनात् मद्याङ्गमदवत् । यथा मद्याङ्गेषु मदः पृथगणुत्वान्नातिस्पष्टस्तत्समुदाये व्यक्तिमेति तथा पृथग्भूते अणीयसी चेतना तत्समुदाये भूयसी भवतीति । उच्यते - यदात्थ त्वं भूतसमुदायगुणाभिप्रायात् 'चेतनायाः समुदाये दर्शनात्' इत्ययमसिद्धः । न हि भूतसमुदायस्येयं भवेद्यदि व्यस्त भूतेषु न स्यात् । अतो व्यस्त भूत चैतन्यमपि प्रतिपद्येमहि ॥ २११० ॥ १° ताव - इति प्रतौ । २ तो को हे त । द्रष्टव्या मूत्रकृ० चू० पत्र ३४ । ३ सूत्र ० १. १. १. ८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४५१ ] गणधरवादे तज्जीवतच्छरीरवादनिषेधः । try पच्चख विरोधी गोतम ! तं णाणुमाणभावातो । तुंह पच्चकखविरोधो पत्तेयं भूतचेतति ॥ २१११ ॥ णु गाहा । आह- ननु प्रत्यक्षविरुद्धमिदं यत्समुदायोपलभ्या चेतना, न समुदायस्येति यद्वद् घटोपलभ्या रूपादयो न घटस्येति । उच्यते न हि समुदाये दर्शनादवश्यं तद्गुणेनैवानया भवितव्यमनुमानसद्भावात् । घटरूपादयस्त्वर्थान्तरस्येति नानुमानमस्ति । भवत एव हि प्रत्यक्षविरुद्धमिदं भूतचैतन्य प्रतिज्ञानमनुमानाभावात् । भूतग्रहणं चेह भूतविशिष्टमात्रपुद्गलानामेव न, सात्मकानामविप्रतिपत्तेः ॥ २१११ ॥ भूतिन्दियोबलद्धाणुसरणतो तेहि भिण्णरुवस्स । चेता पंचवक्खोवलद्ध पुरिसस्स वा सरतो ।। २११२॥ भूर्तिदिय० [० गाहा । आह-न भूतसमुदायस्य चैतन्यमिति किमनुमानम् ? उच्यते-भूतेन्द्रियातिरिक्तः संचेतैयिता, तदुपलब्धार्थाऽनुस्मरणात् । यो हि यैरुपलधानर्थानेकोऽनुस्मरति स तेभ्योऽन्यो दृष्टो यथा गवाक्षैरुपलब्धानर्थानकोऽनुस्मरस्तेभ्यो देवदत्तः । यश्च यतोऽनन्यो नासावेकोऽनेकोपलब्धानामर्थानामनुस्मर्त्ता यथा मनोविज्ञानम् ॥२११२॥ तदुवरमेव सरणतो तव्वाबारे वि णोवलंभातो । इन्दियभिण्णस्स मती पंचगवक्खाणुभविणो व्व ॥ २११३॥ तदु० गाहा । इतश्चेन्द्रियातिरिक्तो विज्ञाता तदुपरमेऽपि तदुपलब्धार्थाऽनुस्मरणात् । यो हि यदुपरमेऽपि यदुपलब्धानामर्थानामनुस्मर्त्ता स तेभ्योऽन्यो दृष्टः, यथा गवाक्षोपलव्धानामर्थानां गवाक्षोपरमे देवदत्तः । अनुस्मरति चायमात्मा - अन्धबधिरादिकालेऽपीन्द्रियोपलब्धानर्थान् । अतः स तेभ्योऽर्थान्तरमिति । व्यतिरेकः पूर्ववत् । इतश्चेन्द्रियातिरिक्तो विज्ञाता-तद्व्यापारेऽपि अनुपलम्भात् । हि यद्व्यापारेऽपि यदुपलभ्यानर्थान्नोपलभते स तेभ्योऽन्यो दृष्टो यथा गवाक्षानुपरमेऽपि तद्दर्शनानुपयुक्तस्तेभ्यो देवदत्तः ॥२११३॥ उवलभरणेण त्रिगारगहणतो तदधिओ धुवं अस्थि । पुव्वावरवादायणगहण विगारादिपुरिसो व्व ॥ २११४ ॥ ३६९ उव० गाहा । इतश्चेन्द्रियातिरिक्तो विज्ञाता - अन्येनोपलभ्यान्यविकारदर्शनात् । योऽन्येनोपधाऽन्येन विकारमुपदर्शयति स ताभ्यामन्यो दृष्टो, यथा १ तह त । २ तनयि - इति प्रतौ । ३ को न स्म - इति प्रतौ । ४ भ्याप्यधिकारुर्दइति प्रतौ । ... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४५१पूर्वापरवातायनाभ्यां देवदत्तः । यथा देवदत्तः पूर्वेण वातायनेन योषितमुपलभ्याऽपरेणायातास्तस्या एवाक्षा हस्तेन वा विकारमुपदर्शयति तथाऽयमप्यात्मा ध्रुवमानं रस्यमानमुपलभ्य चक्षुषा, रसनेन हल्लासादिविकारमुपदर्शयस्ताभ्यामन्योऽवसीयते । इतश्चेन्द्रियातिरिक्तो विज्ञाता-अन्येनोपलभ्यान्येन ग्रहणदर्शनात् । योऽन्येनोपलभ्यान्येन ग्रहणं करोति स ताभ्यामन्यो दृष्टः, यथा पूर्वापरवातायनाभ्यां देवदत्तः । यथा देवदत्तः पूर्वेण वातायनेनादेयमर्थमुपलभ्य घटादिकमपरेणादानं करोति । तथाऽयमप्यात्मा चक्षुषाऽऽदेयमर्थमुपलभ्य हस्ताभ्यामाददानस्तदर्थान्तरमवसीयते ॥२११४॥ 'सब्विन्दियोवलद्धाणुसरणतो तदधिोऽणुमंतव्यो । जध पंचभिण्णविण्णाणपुरिसविण्णाणसंपण्णो ॥२११५॥ सबिदिय० गाहा । इतश्चेन्द्रियातिरिक्तस्येयं चेतना, सर्वेन्द्रियोपलब्धार्थानुस्मरणात् । यो हि यैरूपलव्धानामर्थानामेकोऽनुस्मर्ता स तेभ्योऽन्यो दृष्टः, यथेच्छानुविधायि- शब्दादिभिन्नजातीयविज्ञानपुरुषपञ्चकात्तदशेषविज्ञानाभिज्ञः पुमान् । स्यात्-शब्दादिभिन्नविज्ञानपुरुषपञ्चकवत् पृथगिन्द्रियोपलब्धिमत्त्वानिष्टापादनात् विरुद्धोऽयम् । तच्च न, इच्छानुविधायिविशेषणादुपलब्धिकारणत्वाच्चोपलब्धिमदुपचारात् ॥२११५ ॥ विष्णाणतरपुव्वं बालण्णाणमिह णाणभावातो। जध वालणाणपुव्वं जुवणाणं तं च देहऽधियं ॥२११६॥ विण्णा० गाहा । अन्यविज्ञानपूर्वकमिदं बालविज्ञानम्, विज्ञानत्वात् । इह यद्वि. ज्ञानं तदन्यविज्ञानपूर्वकं दृष्टम् , यथा बालविज्ञानपूर्वकं युवविज्ञानम् । यज्ज्ञानपूर्वकं चेदं बालविज्ञानं तच्छरोरादन्यत्, शरीरात्ययेऽपीहत्यविज्ञानकारणत्वात् । तस्य च गुणत्वात् तद्गुणिनमात्मानं व्यवस्यामः । तस्मादन्यः शरीरादात्मा, न शरीरमात्रम् । स्याद्बालविज्ञानपक्षे विज्ञानत्वादित्ययं प्रतिज्ञार्थंकदेशित्वादसिद्धः । तच्च न, विशेषसामान्याभिधानात् । यथाऽनित्यः सामान्यशब्दः शब्दत्वाद् भेरीशब्दवत् । सामान्य एवं पक्षे प्रतिज्ञार्थंकदेशः स्यात्, यथाऽनित्यः शब्दः शब्दत्वात्, तथेहापि यदि सामान्यमेव पक्षः स्यात् अन्यविज्ञानपूर्वकमिदं विज्ञानत्वात्ततः स्यात् प्रतिज्ञार्थंकदेशः ॥२११६॥ १. यथा-इति प्रतौ। २. "माभ्रमस्य मा-इति प्रतौ । ३ सठवें दि० को हे। ४ यदज्ञा०इति प्रतौ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीवतच्छरीरवादनिषेधः । पदमोत्थणामिलासो अण्णाहाराभिलासपुब्वोऽयं । "जय संपताभिलासोऽणु [ १३९ प्र० ] भूतितो सो य देहधियो || २११७ ॥ ॥ पदम गाहा । योऽयमायस्तनाभिलाषो बालस्य, अयमन्याभिलाषपूर्वकः, अनुभूतेरनुभवादित्यर्थः । इह योऽनुभवात्मकः सोऽन्याभिलाषपूर्वको दृष्टो यथा सांप्रताभिलाषः । यदमिलाप पूर्वकच्चायमायस्तनाभिलाषः स शरीरादन्यः शरीरात्यये ऽपीहत्याभिलाषकारणत्वात् । न चापद्रव्यो गुणोस्तीत्यतो यस्तदाश्रयः स पुरुषः शरीरादर्थान्तरम् । स्यात् - अनेकान्तोऽयमिह - नाभिलाषोऽन्याभिलाषपूर्वक एव । न हि मोक्षाभिलाषोऽन्यमोक्षा मिलाघपूर्वकः । तच्च न, अविशेषाभिधानात् । मोक्षाभिलाषोऽपि हि न सामान्याभिलाषपूर्वकत्वमतिवर्त्तते । अथवा आयस्तनाभिलाषोऽन्याभिलाघपूर्वकोऽभि लापत्वादिति प्रयोगः ॥२११७ ॥ नि० ४५१] बालसरीरं देहंतरपुव्वं इन्दियातिमत्तातो । जुवदेहो बालाविस जस्स देहो स देहि ति ॥२११८ ॥ बाल० गाहा | बालशरीरमन्यदेहपूर्वकम् इन्द्रियवत्त्वात् । यदि द्वियवत् तदन्य-सं देहपूर्वकं दृष्टं यथा युवशरीरं बालशरीरपूर्वकम् । यत्पूर्वकं चेदं बालशरीरं तदस्माच्छरीरादर्थान्तरमिहस्त (त्य) शरीरात्ययेऽपहत्य शरीरं कारणम् । अतश्च भवान्तरसद्भावः सिद्धैः । न चासौ शरीरादर्थान्तरमात्मानमन्तरेण युक्तस्तस्मादन्यः शरीरादात्मेति । एवं चेतनत्वात् सुखदुःखादिमत्त्वादित्यादि ।। २११८ ।। अणसुदुक्खपुच्वं सुहाति वास्स संपतेमुहं व । अणुभूतिमयत्तणतो अणभूतिमयो य जीवो त्ति ॥२११९|| अग० गाहा । अन्य सुखपूर्वकमिदमाचं बालमुखम्, अनुभवात्मकत्वात्, साम्प्रतसुखवत् । यत्सुखपूर्वकं चेदमाद्यं सुखं तच्छरीरादन्यत तदत्ययेऽपहत्यसुखकारणत्वात् । न चापयं तद् गुणत्वात् । अतो यस्तदाश्रयः स शरीरादन्यो जीव इति । एवं दुःखरागद्वेष भयशोकादयोऽप्यायो जनीयाः ।। २११९ ।। 'संताणोऽगाईओ परोप्परं हेतुहेतुभावातो । देहस्स य कम्मस्स य गोतम ! वीर्यकुराणं ॥ २१२०॥ तो कम्मसरीराणं कत्तारं करणकज्जभावातो । पडिवज्जे तदभधियं दण्डघडाणं कुलालं व ।।२१२१।। १ मो थणा को हे त । २ जह बाल हिलासपुव्यो जुवाहिलांसो से देहहिओ को ३ सांप्रभाभि इति प्रतौ । ४ द्ध इति प्रतौ । ५ संप को है । ६ द्रष्टव्या गा० २०९४ । हेयभा जे । ९ ठिति अंकुराणं व जे । 9 पाहीओ जे । Jain Educationa International C ३७१ पाउ को है । ८ O For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [मि० ४५१ संताणो गाहा । तो कम्म० । देहकर्मणोः सन्तानोऽनादिः, अन्योन्यहेतुहेतुमद्भावात् । इह ययोरन्योन्यं हेतुहेतुमद्भावस्तयोग्नादिः सन्तानः । यथा बीजाङ्कुरयोः । अथवा पितापुत्रयोः । अत एवानयोर्देहकर्मणोः वर्तावसीयते, तयोः कार्यकारणभावात् इह ययोः कार्यकारणभावस्तयोस्तदर्था तरभूतः कर्त्ता दृष्टो यथा दण्डघटयोः कुलाल: । यश्वानयोः कर्त्ता स जीवः शरीरादर्थान्तरमिति । स्यात् कर्म प्रतिपादितम् ! उच्यते - ननूक्तमन्यदेहपूर्व कमिदं बालकशरीरमिन्द्रियादिमत्त्वात् । यत्पूर्वकं चेदं तत् कर्मेति पूर्वशब्दस्य कारणवचनत्वादित्यादि ॥२१२१॥ , ३७२ 'देहस्सऽत्थि विधाता पतिणियताकारतो घडस्सेव । अक्खाणं च करणतो दण्डातीणं कुलालो व्व ॥ २१२२॥ " , देहस्स गाहा । 'विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम् आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात् । इह यदादिमत् प्रतिनियताकारं च तद्विद्यमान वर्तृकं दृष्टम् यथा घटः । यच्न विद्यमानकर्तृकं न हि तदादिमत् प्रतिनियताकारं च । यथाभ्रादिविकारः । यत्कर्तृकं चेदं शरीरं स जीवः । तस्मादन्य इति । आदिमत्त्व विशेषणं जम्बूद्वीपादिलोकस्थितिनिषेधार्थम् । विद्यमानाविष्ठातृकाणन्द्रियाणि, करणत्वात् । इह यत् करणं तद् वियमानाधिष्ठातुकं दृष्टम्, यथा दण्डादयः कुलालाधिष्ठानाः । यच्चाविद्यमानाधिष्ठातृकं न तत् करणं यथाकाशम् । यचैषामविष्ठाता स जीवः तेभ्योऽर्थान्तरमिति । ॥२१२२॥ "अत्यन्दियवियाणं आदाणादेयभावतोऽवस्सं । कम्मार इवादाता लोए संदसलं हाणं || २१२३ ॥ अस्थि० [० गाहा । विद्यमान दातृकमिन्द्रियविषयकदम्बकम्, आदानाऽऽदेयभावात् । इह यत्रादानादेयभावस्तत्र विद्यमानाऽऽदातृत्वं दृष्टम्, यथा संदंशाय स्पिण्डयोरयस्काराऽऽदातृऋत्वन्। यच्च विद्यमानाऽऽदातुकं न तत्र ऽऽदानाऽऽदेय नावो यथाकाशे । यच विषयाणामिन्द्रियैगदाता स तेभ्योऽर्थान्तरमात्मेति ।।२१२३|| "भोत्ता देहाती भोज्जत्तगतो णरो व्व भत्तरस । संतातित्तणतो अथ य अत्थी रस्सेव || २१२४॥ भोत्ता गाहा । विद्यमान मोक्तृकमिदं शरीरादि भोग्यत्वात् । इह योग्यं तद्वि धमानभोक्तृकं दृष्टम्, यथाऽऽहावस्त्रादि । यच्चाविद्यमानभोक्तृकं न तद्भोग्यं यथा १ द्रष्टव्या गा० २०२२ । अस्थि सरीरविधात जे २ द्रष्टव्या सूत्र कृ० चू० १.१.१.१२। ३ द्रष्टव्या गा० २०२३ । ४ संडास को हे त । ५ द्रष्टव्या गा० २०२४ । ६ घड जे को । ७ नाभो० इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४५१ ] तज्जीवतच्छरीरवादनिषेधः । ३७३ खरविषाणम् । यश्चैषां शरीरादीनां भोक्ता स तेभ्योऽर्थान्तरमा मेति । विद्यमानस्वामिक्रमिदं शरीरेन्द्रियादि, संधातत्वात् । इह यत् संघातात्मकं तदियमानस्व मिकं दृष्टम्, यथा गृहम् । यच्चाविद्यमानस्वामिकम्, न तत् संघातात्मकम्, यथा खरविषाणम् । यश्च शरीरादिस्वामी स तेभ्योऽर्थान्तरमात्मेति । एवं मूर्तिमत्त्वादेन्द्रियकत्वाच्चाक्षुषत्वादित्यादयोऽप्यायोजनीयाः ॥२१२४।। 'जो कत्ताति स जीवो [१३९-द्वि०] सज्झविरुद्धो त्ति ते मती होज्ज । मुत्तातिपसंगातो तं जो संसारिणोऽदोसो ॥२१२५॥ जो कत्ता गाहा । यश्चायं कर्ताऽविष्टाताऽऽदाता भोक्ता अर्थी चोक्तः स शरीरादन्यो जीवः । तथा चैवोदाहृतम् । स्यात्-कुलालादीनां मूर्तिमत्त्वसंघाताऽनित्यत्वादिदर्शनादात्मनोऽपि तद्धर्मतासक्तेविरुद्धाभिप्रायः । तच्च न, संसारिणः खल्वदोषाः । संसार्यवस्थायामेवायं साध्यते, न मुक्तावस्थायाम् । अयं चानादिकर्मसन्तानोपनिबन्ध. नत्वात् द्रव्यपर्यायार्थिकनयाभिप्रायाच्च तद्धर्मेत्यभिप्रायः ॥ २१२५ ॥ जातिरसरो ण विगतो सरणातो बालजातिसरणो व्य । जध वा सदेसवत्तं णरो सरंतो विदेसम्मि ॥२१२६॥ जाति० गाहा । योऽयं जातिस्मरोऽयमविनष्ट इहायातः, तदनुभूतानुस्मरणात् । योऽन्यदेशकालानुभूतमर्थमनुस्मरति सोऽविनष्टो दृष्टः यथा चाल्यकालानुभूतानामन्यदेशानुभूतानां चार्थानामनुस्मा देवदत्तः । यश्च विनष्टो नासावनुस्मरति यथा जन्मानन्तरोपरतः । न चान्यानुभूतानामर्थानामन्यस्याकृतसङ्केतस्यानुस्मरणमस्ति यथा देवदत्तानुभूतानां यज्ञदत्तस्य ॥२१२६॥ अध मण्णसि खणिओ वि हु सुमरति विण्णाणसंततिगुणातो । तह वि सरीरादण्णो सिद्धो विण्णाणसंताणो ॥२१२७॥ अध गाहा । अथ मन्यसे-जन्मानान्तरविनप्टोऽप्यनुस्मरति, विज्ञानसन्तानावस्थानात् । एवमपि भवान्तरसद्भावः, सर्वशारीरिभ्यश्च विज्ञानसन्तानार्थान्तरता सिद्धा, अविच्छिन्नविज्ञानसन्तानात्मकश्चात्मेति शरीरादर्थान्तरमिति सिनः ॥२१२॥ ण य सम्पधेव खणियं णागं पुरोवलद्धसरणातो। खणिो ण सरति भूत जध जम्माणंतरविणहो ॥२१२८॥ ण य गाहा । न च सर्वथैव क्ष विज्ञानमिह, पूर्वोपलब्धार्थानुस्मरणादेव । यः क्षशिको नासावनुस्मरति यथा जन्मानन्तरोपरतः ॥२१२८॥ १ द्रष्टव्या गा० २०२५ । २ णो दो हे। ३ सदेह जे । ४ बालानु-इति प्रतो । बाल्यकालानु इति सूत्रकृ० ० । बालकाला-को० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४५१जस्सेगमेगबंधणमेगन्तेण खणियं च विण्णाण । 'सव्वखणियविण्णाण तस्सायुत्तं कदाचिदवि ।।२१२९॥ जं सविसयणियतं चिय जम्माणंतरहैतं च तं किध णु । णाहिति सुबहुअविण्णाणविसयखणभंगतादीणि ॥२१३०॥ जस्सेग० गाहा । [ज सवि० गाहा) । इह यस्यैको कार्यालयानमुलायनतर ध्वंसि च विज्ञानमिष्टं तस्य 'सर्वं क्षणिकम्' इति चैतद्विज्ञानं न कदाचिदपि सम्भाव्यते । कथं ! सर्वमित्येतदशेषविज्ञेयाश्रयम् । न चेह सर्वविज्ञेयालम्बनं विज्ञानमभिप्रेतम् । परस्य स्वविषयनियतमात्रमेकमेव हि तदिति कुतोऽस्य सर्वपरिच्छेदसामर्थ्यम् ! एका. र्थत्वेऽपि हि सर्वपरिच्छेदसामर्थ्य भवेद्यदि युगपदनेकविज्ञानप्रसूतिः, आत्मा च तन्निबन्धनमवस्थितः प्रतिपद्यते(येत)। न च तदनेकमिष्यते ।। अथवा यदि तदेकमेकनिबन्धनं च सदुत्पत्त्यनन्तरध्वंसि न स्यात् , ततस्तदासीनमन्यं चान्यं चार्थमुत्पत्त्यनन्तरमुपरमन्तमुपलभ्य 'सर्वमस्मद्वर्जमस्मत्समानजातीयवर्ज च क्षणिकम्' इत्यवबुध्येत, यदि च प्रत्ययनियमो न स्यात् । स्वप्रत्ययमात्रनियतमेव हि सर्व विज्ञानमिति । न चेहाऽक्षणिकत्वमभिप्रेतं परस्य प्रत्ययार्थान्तरवृत्तिश्च, यतः सर्वपरिच्छेदशक्तिरस्य स्यात् । तदक्षणिकत्वादिप्रतिपत्तौ च पक्षहानिः । अतश्च जातिस्मरविज्ञानमविनष्ट. मिहायातमनपद्रव्यं च तद्, गुणत्वात्, तदाश्रयश्चात्मेति सिद्धम् ।।२१३०।। 'गेण्हेज्ज सव्वभंग जति य मती सविसयाणुमाणातो । तं पि ण जतोऽणुमाणं जुत्तं सत्ताइसिद्धीर्य ॥२१३१॥ गेण्हेज्ज गाहा । अथ मतिः-स्वविषयानुमानतोऽवभोत्स्यते सर्वभङ्गमयमस्मद्विषयः क्षणिकोऽहं च । अत एव च विज्ञानविषयसामान्यादन्यविज्ञानविषयाणामपि क्षणिकत्वमिति । तच्च न, यतस्तत्सत्वादिप्रसिद्धावनुमानं युक्तम् । न च तस्य प्रतीतम्अन्यविज्ञानानि सन्ति तद्विषयास्तत्स्वभावप्रत्ययनियमादयश्च । तदप्रतीतौ च क्षणिकत्वानुमानमयुक्तम् । स्यात्-स्वानुमानादेवैतत्-यथाहमस्मि मद्विषयश्च, उभयं च क्षणिकम् , एवमन्यविज्ञानविषया अपति । तच्च न, यतस्तदप्रत्ययात्तदात्मानमेव नावबुध्यते-अहमस्मि विज्ञानं क्षणिकं चेति । न चास्य स्वविषयमात्रभङ्गप्रतीतिरपि तत्समानकालोपरतत्वात् ॥२१३१॥ जाणेज्ज वासणातो सा वि हु वासेन्तवासणिज्जाणं । [१४०-५०] जुत्ता समेच्च दोण्हं ण तु जम्माणंतरह तस्स ॥२१३२॥ १ सव्वं खणवि० जे। २ हितं त। ३ खय हे । ४ हि कुतोऽस्य सर्वपरिच्छेदसा. मर्थत्वेपि हि सर्वपरि --इति प्रती । ५ गिहि हे। ६ °सिद्धीओ को हे । ७ वासित्तवा को हे त। ८ जुत्तो जे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४५१] तज्जीवतच्छरीरवादनिषेधः । ३७५ जाणेज्ज गाहा । स्यात्-पूर्वविज्ञानवासनायोगादन्यविज्ञानविषयस्वभावभङ्गा दिप्रतीतिः। तच्च न, यतो विद्यमानयोरेव वासकवासनीयता युक्ता, नोत्पत्त्यनन्त. रोपरतस्य बासमत्वम्, अनुत्पन्नस्य वा वासनीयस्यम् । उभयावस्थान चाक्षणिकरवम् । वासनायाश्च क्षणिकाक्षणिकत्वादुभयव्याघात इति ॥२१३२।। बहुविण्णाणप्पभवो जुगवमणेगत्थताऽधवेगस्स । विण्णाणावत्था वा 'पडुच्च वित्तीविधातो वा ॥२१३३॥ विण्णाणखण विगासे दोसा इच्चादयो पसग्नंति । ण तु ठितसंभूतच्चुतविण्णाणमयम्मि जीवम्मि ॥२१३४॥ बहु० गाहा । विण्णाण. गाहा । एवं क्षणभङ्गाभिधायिनः सर्वसंव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः स्यात् । स च नेष्यते । युगपदनेकविज्ञानप्रसूतिरभ्युपगम्यतामात्मनि च तन्निबन्धनमनपायः । अन्यथा कृतसङ्केतविज्ञानकदम्बकमकिञ्चित्करं परसन्तानविज्ञानवत् । क्षणिक विज्ञानान्युपगमेऽपि च सत्यात्मनि संव्यवहार : सा(त्या)यस्मादसावताताने विज्ञानाहितसंस्काररत दुपलब्धानामर्थानामनुस्मर्ताऽनुप्रयोजकश्चावस्थितः । विज्ञानेऽनेकार्थताऽभ्युपगमे वा सत्यात्मनि संव्यवहाराविरोधः स्यात् , एकार्थत्वेऽपि वा, विज्ञानावस्थानात् । ततश्च स एवात्मा विज्ञानविशिष्टः । प्रतीत्य वृत्तिमात्रपरित्यागाभ्युपगमेऽपि वा नित्यत्वात् पूर्ववत् । क्षणिकत्वेऽपि वा सत्यात्मनि [न] संत्र्यवहारः । सर्वथा न विज्ञातारमन्तरेण संव्यवहारक्रियास्ति, विज्ञानमात्रतायामुत्पत्त्यनन्तरविनश्वरत्वे चानेकविज्ञानप्रसूतिप्रभृतयोऽवश्यं प्रसजन्ति । तत्र यस्येह विज्ञानात्मा द्रव्यतयावस्थितः, प्राग्विज्ञानात्मनोपरमति, पाश्चात्यविज्ञानात्मना चोत्पद्यतेऽतीतानेकविज्ञाना. हितसंस्कारतया च, तद् अर्थानामनुस्मर्त्ता नियतः ॥२१३३-३४।। ताप विचिसावरणवखयोवसमजाई चित्तरूवाई। खणियाणि य कालंतरवित्तीणि य मइविधाणाई ॥२१३५।। णिच्चो संताणो' सिं सवावरणपरिसंखये जं च । केवलमुदितं केवलभावे गाणं तमविकप्पं ॥२१३६॥ सो जति देहादण्णो तो पविसंतो 'विणिस्सरंतो वा । कीस ण दीसति गोतम ! दुविधाणुवलद्धिदो सा त ॥२१३७॥ असतो खरसिंगस्स व सतो "वि दुरादिभावतोऽभिहिता । मुहमाऽमुत्तत्तणतो कम्माणुगतस्स जीवस्स ॥२१३८॥ १ वा बहुन त । २ संन्भूत जे। ३ संताणे त । . 'तो व नि त है । तो व जीम को। ५ [उ सा है। संगत की है। पर। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ विशेषावश्यकभाष्ये नि०४५१ तस्स गाहा । णिच्चो गाहा । सो जति गाहा । असतो गाहा । आह-स यदि शरीरादर्थान्तरमतस्तदनुविशन्निश्वरन् वा किं नोपलभ्यते ! उच्यतेअनुपलब्धिद्वैविध्यात् । तत्र द्विविधानुपलब्धिः-स्तोऽसतश्च । तत्रासतो[नुपलब्धिः खरविषाणस्य । सत]स्त यथा-अतिविप्रकर्षादति सन्निकर्षादतिसौम्यात्मनोऽनवस्थानादिन्द्रियार्थदो बयात् मति दुर्वलत्वादशक्यत्वादावरणादभिभवात् सामान्यादनुपयोगादनुपाय द्विस्मृतेर्दुरागमात् मोहाद्विदर्शनाद् विकारादक्रियातोऽनधिगमाच्च । तत्रातिवित्रकर्णा(पा त् स्वर्गादीनाम् , अतिसन्निकर्षाद क्षिपक्ष्मादीनाम् , अतिसौम्यात् परमाणोः, मनोऽनवस्थानाद् विक्षिप्त चेतसाम् , इन्द्रियार्थदौर्बल्यादिन्द्रियार्थानामतिदुर्वलत्वाच्छास्त्रार्थविशेषाणाम् , अशक्यत्व त् स्वमस्तकादोनाम् , आवरणान्निमीलितलोचनानाम् , अथवा कुड्यादिव्यवहितानाम्, अभिभवनादहि ताराणाम्, सामान्यात् सूर लक्षितस्यापि मापादेः समानराशिप्रक्षिप्तस्याप्रत्यभिज्ञानात्, अनुपयोगादनुपयुक्तस्य शेषविषयागाम् , अनुपायाद् गवादीनां शृङ्गादिभ्यः पयसः, विस्मृतेः पूर्वो. पलब्धस्य, दुरागमात्तत्प्रतिरूपकविप्रलम्भितमतेहेम्नः, मोहात्तत्वस्य जीवादेः, विदर्शनादन्यस्य शुक्लादेः, विकाराद् बालकालोपलव्धस्य वृद्धतायामप्रत्यभिज्ञानम् , अक्रियातो वृक्षमूलादीनाम् , अनधिगमादनध्ययनाच्छास्त्रस्येति । यस्मादियमे कान्नविशतिविधानुपलब्धिः सतां भावानाम् , अतो गृहाण-आत्मनोऽमूर्तत्वात् कार्मणस्य चातिसौदम्यादनुपलब्धि भावात् । स्यात्-अनुपलब्धिद्वैविध्यात् कुत एतत् सत एवान्मनोऽनुपलब्धिास्त इति ? उच्यते-ननुक्तमनुमानसद्भावादित्यादि ॥२१३५-३८॥ देहाणण्णे व्वे जिये जमग्गिहोत्तादि सग्गामस्स । वेतविहितं विहण्णति दाणादिफलं च लोगम्मि ॥२१३९॥ विण्णाणवणादीणं वेदपताणं प[१४०-द्वि०]दत्थमविदंतो । देहाऽणण्णं मण्णसि ताणं च पताणमयमत्यो ॥२१४०॥ देह० गाहा। [विण्णा० गाहा) । देहानन्यत्वे चात्मनो यद 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकागः' इत्यादि मियानुष्ठान वेदविहिन विधातः, लोके । दानादि क्रियाफलविशेषाणाम् , अनिष्टं चैतत् , क्रियाफलदर्शनात्, कृप्यादिवदित्यायुक्तम् । विज्ञानघनादिवेदपदानां वाक्यार्थमविदन् भवानेवमभिमन्यते- 'न देहाद पुरुषः' इति । तन्मैवं मंस्थाः । नैषां पदानामेप वाक्यार्थः । किं तर्हि ? विज्ञानधनाख्यपुरुष एवा मूतेभ्योऽथान्तरम् । अत एव चोक्तम् एप भूतसहातो विद्यमान कर्तृकः खल्वादिमत, प्रतिनियताकारत्वाद् घटवद् । अस्य यः कत्ता स पुरुष इति ॥२१३९-४०॥ १ व .को हे त । २ तुमत्थमयि त । तमत्थम को है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४५५] शून्यवादनिषेधः। छिण्णम्मि संसयम्मी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पव्यातो पंचहि सह खण्डियसएहिं ॥४५२।।२१४१॥' ते पव्वइते सोतुं वियत्तो आगच्छति जिणसगास । बच्चामि णं वदामि वंदित्ता पज्जुवासामि ॥४५३।२१४२।। आभहो य जिणेणं जातिजरामरणविप्पमुक्केणं ।। णामेण य गोत्तेण य सव्वष्णूसव्वदरिसीणं ॥४५४॥२१४३।। कि मणे पंच भूता अस्थि व णस्थि त्ति संसयो तुझं । वेतपताण य अत्थं ण याणसी तेसिमो अत्थो ॥४५५।।२१४४।। भूते सु तुज्झ संका "सिविणयमाओवमाई होज्ज त्ति । ण वियारिज्जताई "भयंति जं सवधा जुत्तिं ॥२१४५।। भूतातिसंसयातो जीवातिसु का कध त्ति ते बुद्धी । तं सव्य मुण्णसंकी मण्णसि मायोवमं लोअं ॥२१४६।। छिण्ण म्मि गाहा । ते पव्व० गाहा । आभट्ठो. गाहा । किं मण्णे गाहा । भूतेसु गाहा । [भूता० गाडा] हे व्यक्त ! भूतेषु भवतः सन्देहः-स्वप्नमायोपमानीमानि स्युर्यतो न जिज्ञास्यमानानि युक्तीः संसहन्ते । तसंशयाच्च जीवक्रमादिषु का कथा ? भूतविकाराधिष्टानाल्लोकमेव हि मायोपमानमभिमन्यसे ।।२१४१-४६।। जध किर ण सतो परतो णोभयतो णावि अण्णतो सिद्धी । भावाणम वेकखातो वियत्त ! जय दीह हुँस्साणं ।।२१४७।। जध गाहा । भक्तोऽभिप्रायो यथा किल न स्वतः, न परतः, नोभयतः, न चान्यतः सिद्भिः सम्भाव्यते भावानाम् , हरबर्द दिव्यपदे ददत् । इह न हस्वं स्वतः सिध्यति दीपिक्षत्वात् । न परत , परप्रसिद्धचभावात् । नोभ्यतः, तदुभयाभावात् । न चान्यतोऽनपेक्षत्वात् । आह च "न दीर्धेऽस्तीह दीर्घत्वं न हस्ते नापि च द्वये । तस्मादसिद्धिः शून्यत्वात् सदित्यास्यायते क हि ?" १ इति तृतीयगणधर वादः समाप्तः॥ त । 'तु त को। 'त्त है। ३ 'तीत 'छई मीम । ५ मा को तहे ही ह । मि म । '. 'जि है को दी हम । ६ मणि दी हा । ७ मण्णे अस्थि भूया उदाहु णयि हे का त । ८ 1.4 मथि मदी हा । ९ तुझं म दी हा । १० सुवि' त को हे। 11 चयं त । भ को । १२ णाषि वणजे 1१३ दीहह को है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाज्ये [नि०४५५"हस्वं प्रतीत्य सर्व दीर्घ दीर्घ प्रतीत्य हस्वमपि । न च किश्चिदस्ति सिद्धं व्यवहारवशाद वदन्त्येवम् ॥" ॥२१४७।। अत्थित्तघडे [१४१-०] काणेकता य सव्वेकदादिदोसातो । सम्वेऽणभिलप्पा वा सुण्णा वा सम्बधा भावा ॥२१४८॥ अस्थित्त० गाहा । अथास्ति-घटयोरेकत्वमन्यत्वं वाभ्युपगम्येत ! सर्वथा चाऽयुक्तिः । यद्ये कत्वमतो यो योऽस्ति स स घट इति सर्वघटत्वप्रसङ्ग:-घटस्य सर्वात्मकत्वम् , अनिष्टं चैतत् । तथा, यो घटः स एवास्तीति घटमात्रावरोधादस्तित्वस्याऽघटा. भावः, ततश्च प्रतिपक्षाभावाद् घटस्याप्यभावः । अन्यत्वे अस्ति-घटयोरस्यर्थान्तरस्वाद् घटस्यासत्वम् . खरविपाणवत् । घटाद्यनाधारत्वाच्चास्तित्वमसदित्यतो भावानामनैभिलापो वानुरूपः सर्वथाभाव इति ॥ २१४८ ॥ जाताऽजातोभयतो ण जायमाणं च जायते जम्हा । अणवत्थाऽभावोभयदोसातो मुण्णता तम्हा ॥२१४९॥ जाताऽजातो० गाहा । इह यन्नोत्पद्यते तदसदेवेति, खर विषाणवत् । तत्र निवृत्ता नाम कथा । यदप्युपादितस्यापि जातादिविकल्पाभ्युपगमात् सर्वथानुत्पादः । तथा हि न ताव जातं जायते, विद्यमानत्वात् घटवत् । अथ जातमपि जायतेऽनवस्थाप्रसङ्गः । तथा नाजातम्, अविद्यमानत्वात् खरविपाणवत् । अथाऽजातमपि जायते, खरविषाणाद्यभावः(व जातिक्रियाप्रसङ्गः । न जाताजातम् उभयदोपात् । अथवा जाताजातं विद्येत वा न वा ? यदि विद्यते जातं नाम तत्, न जाताजातमरित । तथा जायमानमपि न जातम् , अजातं चातिवर्तेत इत्यसत् । एवं सर्वथाऽनुत्पादाच्छुन्यतावसीयते । उक्तं च " गतं न गम्यते तावदगतं नैव गम्यते । गतागतविनिर्मुक्तं गम्यमानं तु गम्यते ॥" [मूलमाध्य० २. १] ॥२१४९।। हेतूपच्चयसामग्गि वीमुभावेमु णो य जं कज्ज । दीसति सामग्गिमयं सव्वाभावे ण सामग्गी ॥२१५०॥ हेतू० गाहा । इह खल हेतवः प्रत्ययाश्चारभ्यमर्थमेकैकस्ये (स्यै नं वाऽऽरभेरन् सम्भूय वा । तत्र तावदेकैकस्य नारभन्तेऽनुपलब्धेः । तस्मादेकैकस्य कार्यवेनाऽभावादेकैकत्र चाऽभावात्तत्सामन्यामपि नारप्स्यते सिकतातैलवत् । उक्तं च "हेतुप्रत्ययसामग्री पृथाभावेवसम्भवात् । तेन ते नाभिलाप्या हि भावाः सर्वे स्वभावतः ।।" १ संम्वेगयाइं दो त । २. नामभिलाषो वानु' इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९ नि० ४५५ ] शून्यवादनिषेधः। "लोके च यावती संज्ञा सामग्यामेव दृश्यते यस्मात् । तस्मान्न सन्ति भावाः भावेऽसति नास्ति सामग्री ॥२॥"२१५०॥ परभागादरिसणतो सव्वाराभागसुहुमतातो य । उभयाणुवलंभातो सव्वाणुवलद्धितो सुण्णं ॥२१५१॥ पर० गाहा । इह यदप्रत्यक्षं तदसदेव, अनुपलम्भात् खरविषाणवत् । दृश्यस्यापि च पर-मध्यभागयोरसत्त्वदर्शनात्, आराद् भागस्यापि च सावयवत्वात् पुनरन्यः खल्वाराद् भागस्तस्याप्यन्य इति सर्वारातीयस्यातिसूक्ष्मत्वादनुपलब्धिः । अतश्चो. भयभागाग्रहणात् सर्वानुपलब्धिरतश्च शून्यतानुमीयते । अभिमत च "यावद् दृश्यं परस्तावद्भागः स च न दृश्यते । तेन ते नाभिलाप्या हि भावाः सर्वे स्वभावतः ।।" श्रूयन्ते च श्रुतौ भूतानीत्यतः संशयः ॥२१५१॥ । मा कुणे वियत्त ! संसयमसति ण संसयसमुब्भवो जुत्तो। खकुसुमखरसिंगेसु व जुत्तो सो थाणुपुरिसेसुं॥२१५२।। मा कुण गाहा । व्यक्त मा कृथाः संशयम् । असति न संशयसम्भूतिरस्ति यथा खपुष्प-खरविषाणयोः । सत्येव हि संशयोऽनुरूपो यथा स्थाणु-पुरुषयोः ॥२१५२॥ को वा विसेसहेतू सव्वाभावे वि थाणुपुरिसेसु । संका ण खपुष्पादिसु विवज्जयो वा कधण्ण भवे ॥२१५३॥ को वा गाहा । को वात्र विशेपहेतुयेदसत्वसामान्ये स्थाणुपुरुषयोः संशयो न खरविषाण-खपुष्पयोः ? कथं समता न स्याद् विपर्ययो वेति ? ॥२१५३॥ पच्चक्खतोऽणुमाणादागमतो वा पसिद्धिरत्थाणं । सव्वप्पमाणविसयाभावे किध संसयो जुत्तो ॥२१५४॥ पच्चक्ख० गाहा । प्रत्यक्षादिप्रमाणाश्रया हि सिद्धि रिप्यतेऽर्थानां सर्वप्रमाणविषयाभावश्चाभिप्रेतः परस्येति कुतः संशयः ? ॥२१२४॥ जं संसयादयो णाणपज्जया तं च णेयसंवदं ।। सवण्णेयाभावे [१४१ द्वि०] ण संसयो तण ते जुत्तो ॥२१५५।। जं सं० गाहा । इह संशयविपर्ययानध्यवसायनिर्णया विज्ञानपर्यायाः, यतस्तच ज्ञेयनिबन्धनमतः सर्व विषयाभावे न संशयादयो युक्त रूपाः ॥२१५५।। १ कुरु को हे। २ ‘सेसु को हे। ३ कथं न को कहं न हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४५५संति च्चिय ते भावा संसयतो सोम्म ! थाणुपुरिसो व्व । . अथ दिटुंतमसिद्धं मण्णसि णणु संसयाभावो ॥२१५६॥ ___ संति गाहा। सौम्य सन्ति हि भवतोऽपि भावाः, संशयात् । इह यत् संशय्यते तदस्ति, यथा स्थाणु-पुरुषो। यच्चासत् न तत् संशय्यते, यथा वपुष्प-खरविपाणौ । अथ भवदभिप्रायात् स्थाणुपुरुषयोः सत्त्वमसिद्धम्, अतो ननूक्तम्- 'असति संशयो न युक्तः' इति । २१५६।। मव्वाभावे वि मती संदेहो 'मिमिणए' व्व णो तं च । जं सरणातिणिमिनो सिमिणो ण तु सव्वधाऽभावो ॥२१५७॥ सव्वा० गाहा । स्यान्मतिः-असत्यपि संशयो दृष्टः स्वप्नादौ। तच्च न, स्मरणादिनिमित्त वात् स्वप्नस्य ॥२१५७॥ अणुभूतदिट्ठचिन्तितसुतपयतिविकारदेवताणूगा । सिमिणस्त णिमित्ताई पुण्णं पावं च णाऽभावो ॥२१५८॥ अणु० गाह।। इहानुभूतादिस्मरणनिमित्तः स्वप्नो नाभावः ॥२१५८॥ विण्णाणमयत्तणतो घडविण्णाणं व सिमिणओ भावो । अधवा विहितणिमित्तो घडी ब्व णेमित्तियत्तातो ॥२१५९॥ . विण्णाण गाहा । भावः स्वप्नो विज्ञानमयत्वाद् घटविज्ञानवत् । अथवा नैमि. त्तिकत्वाद् घटवद् । विहितं चास्य निमित्तमनुभूतादिकमनेकविधम् ॥२१५९॥ सव्वाभावे व कतो सिमिणोऽसिमिणो ति सच्चमलियं ति । गंधव्यपुरं पाडलिपुत्तं तच्चीवयारों त्ति ॥२१६०॥ कज्ज ति कारणं ति य सज्झमिणं साधणं ति कत्त ति । वत्ता वयणं वच्चं परपक्खोऽयं सपक्खोऽयं ॥२१६१॥ किं चेह थिरदयोसिणचलतारूवित्तणाई णियताई । सदादयो य गंज्झा सोत्तादीआई गहणाई ॥२१६२।। [१४१-५०]समता विवज्जओ वा सव्वागहणं च किण्ण मुण्णम्मि । किं सुण्णता व सम्मं सग्गाहो किं व मिच्छत्तं ॥२१६३।। १ मुमि को। २ गइव्य त । ३ मुमि त हे । ५ मुमि त । ५ सव्व' जे । सव्वमिलि' त। ६ तत्थों त को हे। यारं त । ८ वत्थं त। ९ गेज्झा को। १० जयाओ त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४५५ ] शून्यवादनिषेधः । ३८१ सव्वा० गाहा । कज्जं गाहा । किं चेह गाहा । समता गाहा । सर्वाभावेऽपि वा स्वप्नोऽयमिति किंकृतो विशेषः ? तथा सत्यमिदमनृतं वेदम् इदं गान्धर्वपुरमिदं च पाडलिपुत्रम्, अयं मुख्य सिंहः चतुःपाद्, अयं चोपचारतः सिंहो माणकः, कार्यमिदं घटादिः, इदं च कारणं पिण्डादि, साध्यमिदमनित्यत्वादि, साधनं कृतकत्वादि, कर्त्तायं कुलालादि, अयं च बादी, वचनं चेदं व्यवयवं पञ्चावयवं वा, वाच्यमिदमर्थरूपम्, अयं स्वपक्षः प्रख्यापनीयः, अयं च परपक्षोऽवसेयः । किं चेह पृथिव्यतेजोवायुयोम्नां कठिन-द्रवोष्ण- चलताsरूपत्वनियमः, शब्दादयश्च ग्राह्या एव, इन्द्रियाणि च श्रोत्रादीनि ग्राहकाणीत्यादीनामभावत्वे सति समतैव किं न स्यात् ? स्वनास्वप्नयोर्विपर्ययो वा ? स्वप्नवदेवास्वप्नः, अस्वप्नवच्च स्वप्नस्तथो भयोरग्रहणमेवेत्येवं सत्यानृतादिष्वप्यायोजनीयम् । तथा शून्यतैव सम्यक्, सद्ग्रहश्च मिथ्यादर्शन मिति कस्ते विशेष हेतुः ? ॥२१६०-६३॥ किध सपरोभयबुद्धी कथं च तेर्सि परोप्परमसिद्धी । अध परमेतीय भण्णति सपरमतिविसेसणं कत्तों ॥२१६४ ॥ किध गाहा । कथमिह हृस्वदीर्घयोः स्वपरोभयबुद्धिराश्रीयते भवता ? कथं च तयोरेव परस्परमसिद्धिरिति विरुद्धमुच्यते ? स्यान्मतिः - स्वपरोभयव्यपदेशः परबुद्धया विधीयते । ननु सर्वोऽभावे स्वः परोऽयमियं चानयोबुद्धिरिति विशेषणमनर्थकम्, तदभ्युपगमे वा पक्षहानिः ॥ २१६४ ॥ जुगवं कमेण वा ते विष्णाणं होज्ज दीहहुस्सेसु । “जति जुगवं काऽवेक्खा कमेण पुव्वम्मि काऽवेक्खा || २२६५ || || २१६ आतिमविण्णाणं वा जं बालस्सेह तस्स काऽवेक्खा | तुल्लेसु कावेक्खा परोप्परं लोयैणदुर्वे व्व ॥ २१६६॥ जुगवं गाहा । आतिम० गाहा । इह युगपत् क्रमेण वा ह्रस्वदीवियोर्विज्ञानमुत्पद्येत भवतः यदि युगपत् किमत्र किमपेक्ष्यते ! स्यात् क्रमेण, ननु यदादावुत्पद्यते तदनपेक्षितमिति । प्रागुन्मिपित बालविज्ञानं वा यत् तत् किमपेक्ष्य प्रादुरस्ति या न दीर्घद्दस्वव्यपदेशं तुल्यमेव लोचनद्वयवत्तन्न (त्र ) किमपेक्षं विज्ञानमस्तु ॥ २१६५–६६॥ किं हुस्सोतो दीदे दीहातो चेव किष्ण दीहम्मि । कीस व ण खपुष्फातो" किष्ण खपुष्फे खपुष्फातो ।।२१६७।। १ मईए त है ६ वि जे । ७ लोवण पुप्फाउ हे । Jain Educationa International । २ कत्ता जे । ३ सर्वभा इति प्रत । ४ दोहह को हे । ५ जह है । । ८ दुगिव्व त । दुगे व्व को हे । ९ हस्सा त को है । १० For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [ नि० ४५५ किं गाहा । तुल्ये वाsसत्त्वे किमिह हस्वादेव दीर्घप्रत्ययो न दीर्घादेव, अथवा खपुष्पात, न वा खपुष्प एव खपुष्पादिति विशेष हेतुरभिधेयः || २१६७॥ किं वाऽवेक्खाए' च्चिय होज्ज मती वा सभाव एवायं । सो भावो त्ति सभावो वंज्झापुत्ते ण सो जुत्तो ॥ २१६८।। किंवा गाहा । अथवा किमिहापेक्षयैव सत्त्वे सति केयमपेक्षा नाम ? स्यान्मतिः - स्वभाव एवायमिति । अतः स्वो भावः स्वभाव इति स्वपरभावाभ्युपगमात् स्वमतविघातः । न च वन्ध्यापुत्रादीनां स्वभाव परिकल्पनमनुरूपम् ॥ २१६८॥ ३८२ होज्जाsक्खातो वा विष्णाणं वाऽभिधाणमेतं वा । दीहं ति व हुस्सं ति व ण तु सत्ता सेसधम्मा वा ।। २१६९ ।। होज्जा ० ० गाहा । अथवाऽपेक्षा तो विज्ञानमभिधानमात्रं वा भवेत् ह्रस्वदीर्घमिति न तु सत्ता, शेषधर्मा वा रूपादयः ॥ २१६९ ।। बा, इधरा हुस्साभावे सव्वविणासो हवेज्ज दीहस्स | णय सो तम्हा सत्तादयोऽणवेक्खा घडादीणं ॥ २१७० ॥ इध० गाहा । इतरथा हि-हृस्वदीर्घयोर्यदि सत्तादयोऽप्यपेक्षया स्युः, अतो हस्वविनाशे दीर्घस्य दीर्घव्यपदेशवत् सर्वथा नाशः स्यात् । न चेष्यते । तस्मादनपेक्षा: सत्तादयो घटादीनामिति ॥ २१७० ॥ जावि अवेक्खाऽवेक्खणमवेक्ख [ १४२ - द्वि० ] यावेक्खणिज्जमण वेक्खा | साण मता सव्वेसु वि संतेसु ण सुण्णता णाम ।। २१७१ ।। जा विगाहा । याऽपीयमपेक्षा नामेयमपि न अपेक्षणमपेक्षकमपेक्षणीयं चानपेक्ष्य सिध्यति । न च सर्वेषु सत्सु शून्यता नामेति ॥ २१७१ ॥ किंचि सतो त परतो तदुभयतो किंचि णिच्चसिद्धं पि । जलदो घडओ पुरिसो भं च ववहारतो णेयं ॥ २१७२॥ णिच्छयतो पुण वाहिर्रणिमित्तमेत्तोवयोगतो सव्यं । होति सतो जमभावो ण सिज्झति णिमित्तभावे वि ।। २१७३ । किंचि गाहा । णिच्छय० गाहा । इह किञ्चत् स्वत एव सिद्धयति यथा कर्तृनिरपेक्षस्तत्कारणद्रव्यसंघाताऽनन्यो मेघः । किञ्चित् परतो यथा कुलालकर्तृको १ वावि हे । २ चिय हे । ३ हस्सं को है । ४ हस्सा को हे । ५°विक्खा हे ६ खगोsवे को । 'खगोऽवि' हे । 'क्खयमवेक्ख इति तु सम्यक स्यात् । ७ तु जे । 'रि' को । ८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ नि० ४५५] शून्यवादनिषेधः। घटः । किञ्चिदुभयतो .यथा मातापितृभ्यां स्वकर्मक्रियानुष्टाता च पुरुषः । किञ्चिन्नित्यसिद्धमेव यथाकाशं - इत्येतद्व्यहारनयापेक्षया । निश्चयतस्तु बाह्यनिमित्तमात्राश्रयात सर्व स्वत एव सिद्धयति, यतो न बाह्य कारणभावेऽपि खरविषाणाधभाव. संसिद्धिस्ति । उभयनयापेक्षा चात्र सम्यक्त्वमिति ॥२१७३॥ अत्थित्तेघडेकाणेगता य पज्जायमेतचिंतेयं । अत्थि घडे पडिवण्णे इधरा सा कि ण खरसिंगे ॥२१७४॥ अत्थि० गाहा । यदप्युक्तम्-अस्ति-घटयोरेकत्वे चान्यत्वे चायुक्तिरित्यस्तिघटप्रतिपत्तावेकत्वान्यत्वादिपर्यायमात्रचिन्तेयमारूंढा । अन्यथा हि किं न खरविषाणवन्ध्यापुत्रयोरेकत्वान्यत्वायुक्तिचिन्तेयं भवतः ॥२१७४।। घडमुण्णअण्णताए वि मुण्णता का घडाधिया सोम्म । पगते घडओ च्चिय ण मुण्णता णाम घडधम्मो ॥२१७५।। घड० गाहा । यथा चास्ति-घटयोंरकत्वान्यत्वायुक्ता(युक्ति)रनुचित्यत तथा घटशून्यतयोरप्येकत्वान्यत्वं वाभ्युपगम्य-यद्यन्यत्वमतो घटमात्रमेव हि तत् न शून्यता नामेति काचित्, एकत्वाभ्युपगमेऽपि हि घटमात्रमेव । तन्न शून्यता नाम घटधर्मः कश्चिदस्ति, सर्वप्रमाणानुपलब्धेः खरविषाणवत् ॥२१७५॥ विण्णाणवयणवादीणमेगता तो तदत्थिता सिद्धा। अण्णत्ते अण्णाणी णिन्वयणो वा कधं वादी ॥२१७६॥ विण्णाण० गाहा । इह यदेतच्छून्यताविज्ञानमभिधानं च वक्ता च भवान्एतेषामप्येकत्वमन्यत्वं वाभ्युपगम्येत? यो कत्वमतस्तदस्तित्वाभ्युपगमस्ततश्च का शून्यता? अन्यथा हि न वन्ध्यापुत्र-खरविषाणयोरेकत्वमस्ति । स्याद्-अन्यत्वम् , अतोऽपि भवानविज्ञानो निर्वचनश्चेति केन शून्यतोपलब्धाभिहिता वेति शून्यताऽनुपपत्तिः ॥२१७६।। घडसत्ता घडधम्मो तत्तोऽणण्णो पडादितो भिण्णो । अत्थि ति तेण भणिते को घड एवेति णियमोऽयं ॥२१७७।। घड० गाहा । यदप्युक्तम् अस्ति-घटयोरेकत्वे सति योऽस्ति घट इति । अत्र वूमो घटसत्ता हि घटधर्म एव घटादभिन्नः पटादिभ्यश्च भिन्नः । ततोऽस्तीत्युक्ते घट एवेति कोयं नियमः ? ॥२१७७॥ १ 'त्ति जे। २ मरूपान्य इति प्रतौ । ३ प्रणयत्तयाइ वि त । ४ एगते जे। ५ ततो जे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ विशेषावश्यकभाष्ये [५नि०४५५ज वा जदत्थि तं तं घडो ति सव्वघडतापसंगो को । भणिते घडोऽस्थि व कधं सवस्थित्तावरोधो ति ॥२१७८॥ ___जं वा गाहा । यद्वा यदस्ति तत्तद् घट इति यदपदिश्यते सर्वस्य घटत्वमिति कः प्रसङ्गः ! तथा, यो घटः स एवास्ताति कथमिह घटमात्र एव सर्वास्तित्वावरोधः ? ॥२१७८॥ अत्थि त्ति तेण भणिते घडोऽघ[१४३-म०]डो वा घडो तु अत्थेव । चूतोऽचूतो न दुमो चूतो तु जघा दुमो णियमा ॥२१७९।। अस्थि गाहा । तस्मादस्तीत्युक्तेऽनेकाश्रयत्वादस्तित्वस्य घटोऽघटो वा गम्येत, घट इत्युक्ते तु नियमत एवास्ताति, यथेह वृक्ष इत्युक्ते चूतोऽचूतो वा स्याच्चूत इत्युक्ते तु वृक्ष एवेति ॥२४७९॥ 'किन्तं जातं ति मती जाताऽजातो-भयं पि जमजातं । अध जातं पि ण जातं किं ण खपुष्फे विचारोऽयं ॥२१८०॥ किन्तं गाहा । यच्चापदिश्यते यदेतत् 'जातं जातमेव तत्, न जायते; अजातं न जायते, जाताजातं न जायते इति । एतदसि प्रष्टव्यः-किं तजातं नाम देवानांप्रियस्य यत् सर्वथा न जायते ! ननु जातं सर्वथा वाऽजातमिति विरुद्धम् । अथ जातमप्यजातमतः खरविषाणे किमयं विचारो न स्यात् । को वा विशेषहेतुः ते यदसत्त्वसामान्ये घटादिप्वेवायं विचारो न खरविषाणादिषु ? कथं समता, विपर्ययो वा न स्यात् ? स्यात्-'जातमिति परबुद्धयाऽभिधीयते । ननु स्वपरमतिविशेषणमनर्थकम् , तदभ्युपगमे वा पक्षहानिरित्युक्तम् ।।२१८०॥ जति सव्वधा ण जातं कि जम्माणंतरं तदवलंभो । पुव्वं वाऽणुवलंभो पुणो य कालंतरह तस्स ॥२१८१।। जति गाहा । यदि सर्वथा न जायते कार्य घटादि, किमिह पिण्डावस्थायामनुपलभ्यमानो घटस्त जन्मानन्तरमुपलभ्यते ? पुनश्च कालान्तरोपरतः पिण्डावस्थायामिवानुपलभ्यः ? कुतोऽयं विशेषः ? ॥२१८१॥ जध सव्वधा ण जातं जातं सुण्णवयणं तथा भावा । अध जातं पि ण जातं पभासिता मुण्णता केणं ॥२१८२॥ १ घडो त्ति जे को। २ किं तं को हे। ३ जद जातं त को हे । ४ त् ज्ञातं मेत ज्ञातं न--इति प्रतौ। ५ यदसंत्व समोनो घं-इति प्रतौ। ६ स्याज्ञात-इति प्रती । ७ वि त को है। ८ 'रहितत । ९ पयासि त है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४५५ ] शून्यवादनिषेधः । ३८५ जध गाहा । शून्यतावचनविज्ञानयोरपि चायं समानो विचार:- किमिह जातं जातमजातमिति यथा तथास्तु । यथा शून्यतावचनं तद्विज्ञानं च सर्वधा न जातं सर्वथा च [ना]जातमित्येवं भावजन्मापि भविष्यति ॥ अथ शून्यतावचनविज्ञानद्वयमजातमतः केन शून्यतोपलब्धा अभिहिता वेति शून्यतानुपपत्तिः || २१८२ ॥ जायति जातमजातं जाताजातमध जायमाणं च । कज्जमिह विक्खाए ण जायते सव्वधा किंचि ॥ २१८३ ॥ जायति गाहा । इह किञ्चिज्जातं जायते किञ्चिदजातम्, किञ्चिज्जाताजातम्, किञ्चिञ्जायमानम्, किञ्चित् सर्वथा न जायते, विवक्षातः ॥ २१८३॥ रूत्रित्ति जाति जातो कुंभो संठाणतो पुणरजातो । जाताजातो दोहि विं तस्समयं जायमाणो ति ॥ २१८४ ॥ रूविगाहा । यथेह घटो मृद्रपादिभिर्जात एव जायते तन्मयत्वात् । स एवाssकारविशेपेणा जातो जायते, प्रागभावात् । रूपादिभिराकार विशेषेण च [जाता]जातो जायते, तेभ्योऽनर्थान्तरत्वात् । अतीतानागतका ल्योर्विनष्टानुत्पन्नत्वात् क्रियानुपपत्तिर्वर्त्तमानमात्रसमय एव क्रियासद्भावाज्जायमानो जायते ॥२१८४॥ पुव्वकतो तु घडतया परपज्जाएहि तदुभएहिं च । जायंतो य पडतया ण जायते सव्वधा कुंभो ॥२९८५ ॥ पुव्व० गाहा । स एव हि पूर्वजातः सन्न जातो जायते, नाजातो - जायते, न जयमानो जायते, जातत्वात् । तथा परपर्यायैः पटादिभिरजातत्वात् सर्वथा न जायते खरविषाणवत् । तथोभयपर्यायैः पर ( ट ) पर्यायैव जाताजातत्वात् यावता जातस्तावता जातत्वाद्यावता चाऽजातस्तावताऽजातत्वात् सर्वथा न जायते जाताजातघटस्वरविषाणवत् । तथा जायमानोऽपि सर्वथा न जायते घटादिपर्यायैरसत्त्वात् खरविषाणवत् ॥ २१८५॥ वोमा तिणिच्चजातं न जायते तेण सव्वधा सोम्म । इय दव्वतया सव्वं भयणिज्जं पज्जनगतीये ॥ २१८६॥ वोमाति० गाहा । व्योमादि च नित्यं जातत्वात् सर्वथा न जायते । तथा हि सर्वं द्रव्यतया । पर्यायतया तु जातादिविकल्पैर्भजनीयम् । तथैवोदाहृतमिति ॥ २१८६ | १ मि जे । २ गईए को है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [मि० ४५५ दीसति सामग्गिमयं सव्वमिहत्थि ण य सा गणु विरु[१४३ - द्वि०]द्धं । घेप्पति व ण पच्चक्खं किं कच्छभरोमसामग्गी । २१८७ ॥ ३८६ दीसति गाहा । यच्चापदिश्यते सर्व सामग्रीमयमुपलभ्यते, न चासावस्तीति । नन्वेतद्विरुद्धम्, सर्वानृतवचनप्रतिपत्तिवत् । अभाव सामान्ये वा सति किमिह न कूर्मरोमसामग्रीमयमुपलभ्यते । किञ्चेह न समता न विपर्ययो वेति ॥ २१८७ सामग्गिमयो वत्ता वयणं चऽस्थि जति तो कतो सुष्णं । अ णत्थि केण भणितं वयणाऽभावे सुतं केणं ॥ २१८८ ॥ सामग्गि० ० गाहा । स इह वक्ता भर्वांच्छुन्यतावचनं चैतत् सामग्रीमयत्वे २.ति सद्वा न वा ? यदि सन्न शून्यम् । अथाऽसत्केनाभिहितमनुश्रुतं वा भवतो वचनम् || जेणं चेर्ये णवत्ता वयणं वा तो ण सन्ति वणिज्जा । भावा तो सुण्णमिदं वयणमिणं सच्चमलियं वा ॥ २१८९ ॥ जेणं गाहा । आह यत एव न वक्ता वचनं वा अत एव हि वचनीया - नामप्यभावो भावानामतः शून्यमिति । उच्यते यदेतद्वक्तृवचनीयाभाववचनमिदं सत्यमनृतं वाभ्युपगम्येत भवता ? || २१८९ ।। किञ्चातः जति सच्चं णाभावो अघालियं ण पमाणमेतं ति । अन्वगतं ति व मती णाभावे जुत्तमेयं ति ॥ २१९० ॥ जति गाहा । यदि सत्यम्, नाभावः । अनृतं चेदप्रमाणम् । स्यान्मतिःअस्मद्वचनसत्यताभ्युपगमादभावप्रतित्तिरिति । तच्च न, यदस्माभिरुपदिष्टं सत्यमनृतं वा भवताभ्युपगम्येत नास्माभिः । न च सर्वाभावेऽभ्युपगमोऽभ्युपगन्ताऽभ्युपेयं च युक्तम्, अत एव भवत एवाभ्युपगमोऽभ्युपगमादिप्रतिपत्तेरिति ॥ २१९०॥ सिकतासु किरण तेल्लं सामग्गीतो तिलेसु वै किमस्थि । किं चण सव्वं सिज्झति सामग्गीतो खपुष्फाणं ॥ २१९१ ।। . सिकता० गाहा । किञ्चेहाऽभावसामग्रीमयत्वे सति न सिकतासु तैलोपलब्धिः तिलेषु च सति किं ? किञ्च न खपुष्पसामग्रयामेव सर्वोपलब्धिः ? समताविपर्ययो वेति ॥ २१९१॥ समता-विपर्यय १ नचायविस इति प्रतौ । २ शून्य मद्भासत्के - इति प्रतौ । ३ वचनत्वात् इति प्रतौ । ४ चेव को है । ५ 'मिदं को हे । ६ जुत्तमेतं पि जे । जुज्ञ्जए तंपि को ७वित को हे । ८ कि व हे को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८७ नि० ४५५] शून्यवादनिषेधः । सव्यं सामग्गिमयं णेगंतोऽयं जतोऽणुरपदेसो । अध सो वि सम्पदेसो जत्थावत्या स परमाणू ॥२१९२।। सव् गाहा । न चेह सर्वमेव सामग्रीमयमित्येकान्तो यतोऽणुरप्रदेशः कार्यानुमेयोऽस्ति । स्यान्मतिः-असावपि प्रदेशवान् , एवं तत्प्रदेशोऽणुभविष्यति । तत्प्रदेशवत्त्वप्रतिपत्तावपि च तत्प्रदेशं इत्येवं यत्रावस्था भविष्यति स परमाणुः ।।२१९२॥ दीसति सामग्गिमयं ण याणवो सन्ति णणु विरुद्धमिदं । किं वागणमभावे णिप्फण्णमिणं खपुप्फेहिं ॥२१९३॥ दीसति गाहा । उत सर्वं च सामग्रीमयमुपलभ्यते न चाणवो विद्यन्त इति । नन्वेतद्विरुद्धमुच्यते सर्वाऽनृतवचनप्रतिपत्तिवत् । परमाण्वभावे वा किमिह खपुष्पसामप्रीमयमिदमाभाव्यते ? तस्माद्यत्सामग्रीमयमिदं ते परमाणव इति ।।२१९३॥ देसस्साराभागो घेप्पति ण ये सोत्थि णणु विरुद्धमिणं । सव्वाभावे वे ण सो घेप्पति किं खरविमाणस्स ॥२१९४॥ देसस्सा० गाहा । यच्चापदिश्यते दृश्यस्याराद्भागो गृह्यते न चासावस्तीति । नन्वेतद्विरुद्धम् , असत्वे वा किं न खरविषाणस्यासावुपलभ्यते ? दृश्यस्योपलभ्यत इति कस्ते विशेषहेतुः ? समताविपर्ययापत्तिद्वयं च कस्ते निपेत्स्यति ! ॥२१९४|| परभागादरिसणतो णाराभागो [१४४-०]वि किमणुमाणं ते । आराभागग्गहणे किं व ण परभागसंसिद्वा ॥२१९५।। पर० गाहा । परभागमात्रादर्शनाचाराद्भागोऽपि नास्तीत्यत्र-किमनुमानं भवतः ! युक्तं तावदाराद्भागग्रहणात् परभागास्तित्वानुमानम् , न परभागादर्शनादाराद्भागनिवृत्तिः । कथम् ? इह दृश्यस्य परभागोऽस्ति भागत्वादाराद्भागवत् । न पुनः परभागाऽदर्शनादाराद्भागाऽभावानुमानमस्ति, प्रत्यक्षत्वात् । स्यात्-परभागोऽस्ति भागत्वादित्ययमसिद्धः । तच्च न, स्ववचनविरोधात् । ननु भवतैवोक्तं "यावद् दृश्यं परस्तावद्भागः स च न दृश्यते” इति, यच्चापदिष्टम् - "आराद्भागस्याप्यन्यः खल्वाराद्भाग इति सर्वारातीयाराद्भागपरिकल्पनम् , तच्च परभागासत्त्वेऽनर्थकम् ।।२१९५।। सव्वाभावे व कतो आरापरमज्झभागणाणत्तं । अध परमतीय भण्णति सपरमतिविसेसणं कत्तो ॥२१९६।। १ णणु सों त । २ सो त्ति त हे को । ३ न य त । १ मितं जे । ५ वि त को हे । ६ ति हे त । ७ वि हे त । ८ तीए को त हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४५५सव्वा० गाहा । सर्वाभावे वा कुतः खल्वारात्परभागनानात्वपरिकल्पनम् ? अथ परबुद्धयाभिधीयत इति । ननूक्तं [अ]सति परमतिविशेषणमनर्थकम् । तदभ्युपगमे वा पक्षहानिरिति ।।२१९६॥ आरपरमज्झभागा पडिवण्णा जति ण सुष्णता णाम । अप्पडिवण्णेसु चे का विकप्पणा खरविसाणस्स ॥२१९७।। आर० गाहा । आरात्परमध्यभागप्रतिपत्तौ न शून्यता नाम, अप्रतिपत्तौ वा किमिह खरविषाणादीनामियं प्रकल्पना न क्रियते, घटादीनां च क्रियत इति को विशेषः ! सव्याभावे वाऽऽराभागो कि दीसते ण परभागो । सव्वागहणं व ण किं किं वा ण विवज्जओ होति ॥२१९८॥ परभागदरिसणं वा फलिहादीणं ति ते धुवं सन्ति । जति वा ते वि ण सन्ता परभागादरिसणमहेतू ॥२१९९॥ सव्वा० गाहा। [परभाग० गाहा] । सर्वाभावे वा किमाराद्भाग एवोपलभ्यते न परभागः ? किं वा न सर्वानुपलब्धिविपर्ययो वेति ? परभागादर्शनादिति च ब्रुवाणस्य येषां स्फटिकादीनां परभागदर्शनमिह तदस्तित्वप्रतिपत्तिः । यदि वा तेऽप्यसन्तः परभागादर्शनादित्ययमहेतुः स्यात् । नन्वर्थापत्तिसमेयं जातिरभिधीयते । यथेह प्रयत्नानन्तरीयकत्वादनित्य इत्यपदिष्टे नावश्यमप्रयत्नानन्तरीयकत्वान्नित्य इति । तच्च न, यतस्तत्र प्रयत्नानन्तरीयकत्वस्य सपक्षे व्यतिरेकदर्शनाद. प्रयत्नानन्तरीयकत्वस्य चादर्शनाद्युक्तो विशेषः । इह भवतः सर्वासद्वादिनः को विशेषः यद्भयाद्विशेष्यापदिश्यते--परभागादर्शनादसत् । किमिह मा भूत परभागदर्शनात् सच्चासच्च, यथेहाऽप्रयत्नानन्तरीयकत्वान्नित्यमनित्यं वेत्येवं यदि हि भवतः कुतश्चिदपि हेतोः सत्त्वप्रतिपत्तिः स्यात् परभागादर्शनादसदिति विशेषणमनुरूपं स्यात् ।।२१९८-९९॥ सव्वादरिसणतो च्चिय ण भण्णते' कीस भणति तं णाम । पुव्यब्भुवगतहाणि पच्चक्खविरोधता चेव ॥२२००॥ सव्वा० गाहा । सर्वाभावे सति सर्वदैवाऽदर्शनादेवेति किं नोच्यते ? किमिह परभागाऽदर्शनविशेषणेन ? आह-तन्नामास्तु । उच्यते-नन्वेवं पूर्वाभ्युपगतहानिराप्यते, प्रत्यक्षविरुद्धं च-पूर्वमुक्ता(क्त्वा) परभागादर्शनात्, इदानीं सर्वाऽदर्शनादिति ।। १ वणो जे । २ वि त को हे । ३ परि जे। ४ °णउ को हे । ५ भण्णइ को हे । ६ हाणी को हे । ७ विरोहओ त को हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४५५] शून्यवादनिषेधः । पत्थि परमज्झभागा अप्पच्चक्खत्ततो मती होजे । णणु अक्खत्थावत्ती अप्पच्चक्खत्तहाणी वा ॥२२०१॥ णत्थि गाहा । स्यान्मतिः-न स्तः परमध्यभागौ, अप्रत्यक्षत्वात्, खरविषाणवत् । नन्वक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षोऽर्थः । ततश्चार्थाऽभ्युपगमादभ्युपेतहानिः, अप्रत्यक्षत्वादित्यस्य वा ॥२२०१॥ अत्थि अपच्चक्खम्पि हु जध भवतो संसयातिविण्णाणं । अध णत्थि सुण्णता का कास व केणोवलद्धा वा ॥२२०२॥ ___ अस्थि गाह । अनैकान्तिकश्चायमप्रत्यक्षत्वादिति, विपक्षेऽपि दर्शनाद्भवत्संश. यादिविज्ञानवत् । अथैतदप्रत्यक्षत्वाद् भवदीयं विज्ञानमसत् । केयं शून्यता कस्य केन चोपलब्धेति शन्यतानुपपत्तिरिति ।।२२०२॥ पच्चक्खेमु ण जुत्तो तुह भूमिजलाण[१४४-द्वि०]लेमु संदेहो । अणिलागासेसु भवे सो वि ण 'कजोऽणुमाणातो ॥२२०३।। पच्चक्खे० गाहा । सौम्य न पृथिव्यप्तेजःसु भवतः संशयो युक्तरूपः, प्रत्यक्षत्वात्, स्वरूपवत् । वायुरपि प्रत्यक्ष एव, तद्गुणप्रत्यक्षत्वाद, घटवत् । अस्तु वा वाय्वाकाशयोरप्रत्यक्षत्वमतश्च संशयः । असावपि च नैव कार्योऽनुमानसद्भावात् । ॥२२०३॥ तच्चानुमानमिदम् अत्यि 'अदेस्सापादितफरिसातीणं गुणी गुणत्तणतो।। रुवस्स घडो व गुणी जो तेसिं सोऽणिलो णामं ॥२२०४।। अत्थि गाहा । य एते खल्वदृश्यापादिताः स्पर्शादयः, आदिग्रहणाच्छब्दधृतिकम्पा गृह्यन्ते, एते हि विद्यमानगुणिनः, गुणत्वात् । इह ये गुणास्ते विद्यमानगुणिनो दृष्टाः, यथा घटरूपादयः । यश्चैषां गुणानां गुणी. स वायुः । तस्मादस्ति वायुः ॥२२०४॥ अत्थि वसुधातिभाणं तोयम्स घडो व्य मुत्तिमत्तातो । जं भूताण भाणं तं वोमं वत्त ! सुव्वत्तं ॥२२०५॥ अत्थि गाहा । विद्यमानभाजनाः पृथिव्यादयः, मूर्तिमत्त्वात्तोयवत् । यश्चैषां पृथिव्यप्तेजोवायूनां भाजनं तदाकाशम् । तस्मादस्त्याकाशं साध्यैकदेशदृष्टान्तपरि १ होज्जा को हे । २ अक्खत्ता त। ३ 'क्खन्थ जे । ४ 'तिः ततः इति प्रतौ । ५ ण जुत्तोऽणु त को हे १ अद्दिम्सा को । अदिस्सा हे । यदिस्सा त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४५५जीहीर्षया वा पृथक् प्रयोगस्तद्यथा विद्यमानभाजना पृथिवी, मूर्तिमयत्वात्तोयवत् , तथा पयस्तेजोवत्, तेजो वायुवत् , वायुः पृथिवीवत् ॥२२०५॥ एवं पच्चक्खादिप्पमाणसिद्धाइं सोम्मै ! पडिवज्ज । जीवसरीराधारोवयोगधम्माई भूताई ॥२२०६॥ एवं गाहा । एवं प्रत्यक्षादिप्रमाणेभ्यो भूतानि सन्तीति प्रतिपद्यस्व । जीवशरीराधारोपयोगवृत्तीनि चामूनि ॥२२०६॥ किध संग्जीवाइं मती तल्लिगातोऽणिलावसाणाई । 'वोमं विमुत्तिभावादाधारो चेव ण सजीवं ॥२२०७॥ किध गाहा । स्यान् मतिः--कथं पुनर्जीवशरीराणीमानि ? वाद्येन्तानि, जीवलिङ्गोपलब्धेः, आकाशं त्वाधारदानस्वभावमेव, न जीवशरीरममूर्त्तत्वात् ।।२२०७॥ जम्मजराजीवणमरणरोहणाहारदोहलामयतो । रोगतिगिच्छातीहि य णारि व्व सचेतणा तरवो ॥२२०८।। जम्म० गाहा । सात्मका वनस्पतयः, जन्मजराजीवनमरणसद्भावात्, स्त्रीवत् । आह-नन्वयमनैकान्तिको विपक्षेऽपि दर्शनात् , तद्यथा-जातं दधि, जीणं वासः, सञ्जीवितं विषम्, मृतं कुसुम्भकमित्यादि । उच्यते, न, वनस्पतो समस्तलिङ्गोपलब्धेः, दध्यादावसमस्तदर्शनादुपचारः । इतश्च-सात्मका वनस्पतयः, क्षतसंरोहणात्, आहारोपादानात, दोहृदसद्भावात्. आमयसद्भावात् , तथा रोगचिकित्सासद्भावात् । दौहदादौ संभविनः कूष्माण्डादीन् विशिष्य पक्षः कर्त्तव्यः ॥२२०८॥ छिक्कँप्परोइयाछिक्कमंत्तसंकोयतो कुलिंगो व्व । आसयसंचारातो वियत्त ! वल्लीविताणाई ॥२२०९॥ छिक्क० गाहा । सात्मकाः स्पृष्टप्ररोहिंकादयः, स्पृष्टाऽऽकुञ्चनात् कीटादिवत् । तथा, आश्रयाभिसंसर्पणात् "वल्यादयः ।।२२०९।। सम्मादयो य सावप्पबोधसंकोयणादितोऽभिमैया । बउलातओ य सदातिविसयकोलोवलंभातो ।।२२१०॥ सम्मा० गाहा । सात्मकाः शम्यादयः, स्वापप्रबोधसङ्कोचादिसद्भावात् । शब्दादिविषयोपलम्भात् बकुलाशोकादयः, देवदत्तवत् ।।२२१०॥ १ क्खाइपमा हे । २ सोम को । ३ सजी हे। साजीवाइ त । ५ वाम त । ५ वाद्यन्नानि--इति प्रती। ६ संभावतः-इति प्रती । ७ ककपरों हे। ८ 'मित्त त । 'मेत्त' को हे। ९ प्ररोदि को हे । १० बल्या' इति प्रतौ । ११ मतो जे । १२ काला जे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४५५ ] शून्यवादनिषेधः । [ १४५ - प्र० ] मंसकुरो व्व सामाणजातिरूवं कुरोवलंभातो । तरुगणविदुमलवणोवलादयो सासयावत्था || २२११॥ मंसं० ० गाहा । वनस्पतयो विद्रुमलवणोपलादयश्च स्वाश्रयावस्थाः [सात्मकाः ] समानजातीयङ्कुरे सद्भावात् 'अर्शोविकाराङ्कुरवत् ॥ २२११ ॥ भूमिताभावयसंभवतो दददुरो व्व जलमुत्तं । अव मच्छी व सभावयोमसंभूतपातात ॥ २२१२ ॥ भूमि० गाहा | सात्मकमम्भो भौमं, क्षतसमानजातीयस्वभावसम्भवाद्दद्दु रवत् । अथवान्तरीक्षम्, अभ्रादिविकारस्वभावसम्भूतपातात् मत्स्यवत् ॥ २२१२ ॥ "अपरप्पेरिततिरियाणियमितदिग्गमणतोऽणि लो गो व्व । arat आहारातो विद्धिविकारोंवलंभातो ॥। २२१३॥ अपर गाहा । सात्मको वायुः, अप्रतिहत तिर्यगनियतगतित्वाद् गोवत्, तेजः सात्मकम्, आहारोपादानात् तद्वृद्धिविशेषोपलब्धेः तद्विकारदर्शनाच्च, पुरुषवत् ॥ २२१३॥ तणवोऽणवभातिविकारमुत्तजातित्ततोऽणिताई । सत्यासत्यताओ णिज्जीवसजीवरूवा वो गाहा । पृथिव्यप्तेजोवायवः तनवः अनभ्रादिविकारमूर्तिमदुपलब्धेः, गवादिशरीरवत् । ताश्च शस्त्रानुपहतोपहताः सात्मका [Sनात्मकाः] लक्षणतोऽवसे या इति ।। २२१४ || ३९१ , ॥ २२१४॥ Jain Educationa International सिज्झंति सोम्म ! बहुसो जीवा णवसत्तसंभवो ण वि य । परिमितसो लोगो ण संति चेगिन्दिया जेसिं ॥ २२१५|| तेसिं भवविच्छिती पावति णेट्ठा य सा जतो तेणं । सिद्धमणंता जीवा भूताधारा य तेऽवस्सं ||२२१६॥ सिज्झति गाहा । ते सिं० ० गाहा । किव येपामजसं सत्वास्सिध्यन्ति, न चनवसत्त्वोत्पादः, परीत्तावकाशञ्च लोकः, न च वनस्पत्यादयः सात्मकाः प्रतिपद्यन्ते; येषामप्यनन्ता लोकधातवः प्रतिस्वं च निर्वाणमुक्तम्, तेषां संसारोच्छेदेन भवितव्यम् । न चासाविष्टो यतः सर्वतन्त्रान्तरीयाणाम्, अतः सत्वानामानन्त्यमभ्युपेयम् । शरीरिणच ते, संसारिख्यात्, मनुष्यवत् । न च वनस्पत्यादीनन्तरेणान्यच्छरीरं १ तीयो इति प्रतौ । २ वात् दर्शा इति प्रतौ । ३ अहव त । ४ रक्षिमत्रा' इति प्रतौ 1 ५ नास्त्येषा गाथा तप्रतौ । ६ रुवाइ त । तावनाश' इति प्रती । ८ 'दीनांतरे' इति प्रतौ । For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४५५भाव्यते। अपदिश्यतां यच्छरीरास्ते, न चेदपदिश्यते, अभ्युपगम्यतां वनस्पत्यादीनां सात्मकत्वमिति ॥२२१५-१६।।। एवमहिंसाऽभावो जीवघणन्ति 'ण य तं जतोऽभिहितं । सत्थोवहतमजीवं ण य जीवघणन्ति तो हिंसा ॥२२१७॥ एव० गाहा। आह-एवमहिसा न सम्पद्यते, जीवघनत्वात् लोकस्य । उच्यतेननूक्तमस्माभिः शस्त्रानुपहतोपहताः सात्मकानात्मकाः वनस्पत्यादयः । न सर्व एव सात्मकाः, न वेह सत्त्वाकुलो लोक इति हिंसा सम्भाव्यते, न चाल्पजीवत्वादहिंसा ॥२२१७|| ण य घातई त्ति हिंसो णाघातेन्तो ति णिच्छितमहिसो। ण विरलजीवमहिसो [१४५-द्वि०] ण य जीवघणो त्ति तो हिंसा ॥२२१८॥ ण य गाहा । यस्मान्न निघ्नन्नेव हिंस्रः, न वा [अनिम्नन् अ]हिंस्रः, तथा, सत्त्वाकुलाना कुलस्वादिति ॥२२१८॥ किं तर्हि ! अहणतो वि हु हिंसो दुट्टत्तणओ मतो अहिमरो व्व। बाँधेन्तो वि ण हिंसो सुद्धत्तणओ जधा 'वेज्जो ॥२२.१९॥ अह० गाहा । इहानिध्नन्नपि हिंस्रो दृष्टोऽन्तर्दुष्टत्वादभिमारवत् । निघ्नन्नपि वाऽहिंस्रः, शुद्धात्मकत्वाद्, वैद्यवत् ॥२२१९॥ पंचसमितो तिगुत्तो णाणी अविहिंसओ ण विवरीतो । .. होतु व संपत्ती से मा वा जीवोवरोधेणं ॥२२२०॥ पंच० गाहा । एवमिहापि गुप्तिसमिति द्धात्मा सत्त्वोपरोधपरिहारादिक्रिया. भिज्ञः स खल्वहिंसकः, सत्त्वोपरोधे सत्यसति वा ॥२२२०॥ असुभो जो परिणामो सा हिंसा तु बाहिरणिमित्तं । कोयि" अवेक्खेज्ज ण वा जम्हाऽणेगंतियं बझं ॥२२२१॥ असुभो गाहा । यस्मादिहाशुभः परिणामो हिंसेत्याख्यायते । स तु कदाचिद् बाह्य सत्त्वातिपातक्रियानिमित्तमपेक्षते कदाचिच्च तन्निरपेक्षः । कदाचिद्वा बाह्यानवद्यक्रियासमेतस्यापि स्यात्. यतोऽन्तःकरणप्रवणत्वाद् बाह्य करणमनैकान्तिकमुक्तम् ॥२२२१॥ १ घणं तिय तं को हे। २ घायउ को हे। घायओ त । ३ घायतो त हे । हिन्सो जे। ५ घणं को हे त। ६ हिंसो त हे को । ७ वाहितो को हे । ८ विज्जो को हे। ९ एवं इति प्रतौ । १० सुद्धात्सा इति प्रतौ । ११ कोवि त हे। कोइ को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४५९] परलोके सर्वथा सदृशभावनिषेधः । असुभपरिणामहेऊ' जीवाबाधो त्ति तो मतं हिंसा । जस्स तु ण सो णिमित्तं संतो वि ण तस्स सा हिंसा ॥२२२२॥ असुभ० गाहा । योऽप्ययं बाह्य सत्त्वाबाधक्रियाविशेषः सोऽप्यन्तःकरणहेतुरिति कारणे कार्योप[चारवृत्त्या अन्ने प्राणोप]चारवहिंसेत्युपचर्यतेऽन्यथाऽन्तःकरणपरिणाम एवाशुभो हिंसैकान्तिकीयुक्तम् । स इदानी बाह्यसत्त्वाबाधक्रियाविशेषो विद्यमानोऽपि न यस्य शुद्धात्मनोऽन्तःकरणविक्रिया हेतुर्न तस्यासौ हिंसाभिधीयते ॥२२२२॥ कथम् ! सद्दातयो रतिफला ण वीतमोहस्स भावमुद्धीतो । जध तध जीवावाधो ण सुद्धमणसो वि हिसाए ॥२२२३॥ सदा० गाहा । यथेह वीतरागद्वेषमोहस्य भगवतो यतेरिष्टाः शब्दादयो न रति हेतवः सम्पद्यन्ते, यथा चेह शुद्धात्मनो रूपवत्यामपि न मातरि विषयाभिलापः सञ्जायते, तथेह शुद्धात्मनो विदुषो न सत्त्वातिपातो हिंसायै सम्भाव्यत इति प्रतिपद्यस्व ॥२२२३॥ छिण्णम्मि संसर्यम्मि जिणेण जरैमरणविप्पमुक्केण । सो समणो पव्वइतो पंचहि सह खंडियसतेहि ॥४५६॥२२२४॥ ते पव्वइते सोतुं सुधम्मो आगच्छती जिणसगास । बच्चामि णं वंदामि वन्दित्ता पज्जुवासामि ।।४५७॥२२२५॥ [१४६-७०] आभट्ठो य जिणेणं जातिजरामरण विप्पमुक्केणं । णामेण य गोत्तेण य सवण्णूसव्वदरिसीणं ॥४५८॥२२२६।। कि मण्णे जारिसो इध भवम्मि सो तारिसो परभवे" वि। वेतपताण य अत्थं ण याणसी तेसिमो अत्थो ।४५९।।२२२७॥ कारणसरिसं कज्ज वीयस्सेवंकुरो त्ति मण्णंतो । इध भवसरिस सव्वं जमवेसि परे वि तजुत्तं ॥२२२८॥ जाति सरो "सिंगातो भूतणओ सरिसवाणुलित्तातो । संजायति गोलोमाऽविलोमसंजोगतो दुव्वा ॥२२२९॥ १ हे तुं जे । २ वा होति तो त । ३ सो त । ४ यम्मी हे त दी हा म । 'म्मि को। ५ °म्मि जाइजराम म । ६ जरा' को हे। ७ ॥हिं चतुत्थ॥ जे। इति चतुर्थों गणधरवादः समाप्तः ॥छ।। त । ८ सुहुम हे । सुहम्म को म । मुहमो दी हा । ९ 'मी हे त म दो हा । १० मन्नि त दी हा । ११°भवम्मि त। १२ रो ब्व मजे। 'रत्ति म त । १३ तमजुत को हे। १४ संगाजे । १५ सासुवा त । सासवा को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४५९'इति रुक्खायुव्वेते जोणिविधाणे य विसरिसेहितो। दीसति जम्हा जम्मं सुधम्म ! तो णायमेगंतो ॥२२३०॥ छिण्णम्मि गाहा । ते पन्च० गाहा । आभट्ठो गाहा । [किं मण्णे गाहा । [कारण० गाहा] । जाति गाहा । इति गाहा । भगवानुवाच सुधर्माणम्-आयुष्मन् भवतो भवत्यभिप्रायः-यतः किल कार्य कारणानुरूपमुपलभ्यते, यथा बीजानुरूपोङ्कुरः, इहभवप्रत्ययं चान्यजन्म, अतस्तेनापीहभवानुरूपेणैव भवितव्यमिति । तच्च न, यतः कारणविलक्षणमपि कार्यमुपलभ्यते । तद्यथा शृङ्गात् सरो जायते । तस्मादेव सर्पपानुदिग्धाद् भूस्तृणप्रसूतिः । तथा गोलोमाऽविलोमेभ्यो दूर्वा जायत इत्यादयो वृक्षायुर्वेदे विलक्षणानेकद्रव्यसंयोगजन्मानो वनस्पतयः, योनिप्राभृते चाऽसमानजातीयाऽनेकद्रव्यसंपर्कयोनयः प्राणिनो मणयो हेमादोनि चोपलभ्यन्ते । तस्मादयमनेकान्तो यत् कारणानुरूपमेव कार्यमिति ॥२२२४-३०॥ 'अधवा जतो चिय बीयाणुरूवजम्मं मतं ततो चेय ।' जीयं गेण्ह भवातो भवंतरे चित्तपरिणामं ॥२२३१॥ अधवा गाहा । अथवा सौम्य ! यत एव कारणानुरूपं कार्यमत एवात्मानं त्व[मान्यजन्मनि विचित्रजात्यादिपरिणाममपि प्रतिपद्यस्व ।।२२३१॥ कोऽभिप्रायः ! जेण भवंकुरवीयं कम्मं चित्तं च तं जतोऽभिहितं । हेतुविचित्तत्तणतो भवंकुरविचित्तता तेणं ॥२२३२।। जति पडिवण्णं कम्मं हेतुविचित्ततो विचित्तं च । प तो तप्फलं "विचित्तं [१४६-द्वि०] पर्वलज्ज संसारिणो सोम्म ! ॥२२३३। जेण गाहा । जति गाहा । येनेहभवाङ्कुरबीजं कर्मावसीयते । तच्च विचित्रमीक्ष(क्ष्य)ते, तदुपादानहेतुविचित्रत्वात् , अतो भवाङ्करु (र विचित्रतापीक्ष. (क्ष्य)ते । तदेवं सौम्य यदि भवता कर्म प्रतिपद्यते, तद्धेतूनां वैचित्र्याद्विचित्रम्, अतः संसारिणस्तत्फलविचित्रतामपि प्रतिपद्यस्व ॥२२३२-३३॥ चित्तं संसारित्तं विचित्तकम्मफलभावतो हेतू । इध चित्तं चित्ताणं कम्माण फलं च लोअम्मि ॥२२३४॥ चित्तं गाहा । चित्रा संसारितेति प्रति जानीमहे, तद्धेतोः कर्मणो वैचिव्यात् । इह यद्विचित्रहे तुकं तद् विचित्रमुपलभ्यते, यथा दृष्टस्य कर्मणः फलमनेकरूपं कृष्यादेः ॥२२३४॥ १ जति जे । २ जेहिं वि त । ३ तं जे को। ४ प्राया-इति प्रतौ । ५ अहव को। भधव जे । ६ जउ को हे। . चेव को त हे । ८ जीवं त को है । ९ भवंतर त । १० वियत्त जे । ११ °ल पि चिं को। १२ पवज्ज को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४५९] गणधरवादे परलोके सर्वथासदृशभावनिषेधः । ३९५ चित्ता कम्मपरिणती पोग्गलपरिणामतो जधा 'वज्झं(अभं)। कम्माण चित्तता पुण तद्धेतुविचित्तभावातो ॥२२३५।। चित्ता गाहा । इतश्च विचित्रा कर्मणां परिणतिः, पुद्गलपरिणामत्वात् । इह यत् पुद्गलपरिणामात्मकं तद् विचित्रपरिणतिरूपं उपलक्ष्यते, यथाभ्रादिविकारः, पृथिव्यादिविकारो वा । यच्च न विचित्रपरिणतिरूपम्, न तत् पुद्गलपरिणामम्, यथाकाशम् । पुद्गलपरिणामसामान्येऽपि च कर्मणामावरणादिविशेषविचित्रता, तद्धेतुविचित्रत्वात् , दृष्टार्थक्रियाफलवत् । चित्राश्च तद्धेतवो मिथ्यादर्शनादयः, प्रदोषनिहवादयश्च ॥२२३५॥ अधवा इधभवसरिसो परलोगो वि जति सम्मतो तेणं । कम्मफलं वि इधभवसरिसं पडिवज्ज परलोगे ॥२२३६।। _अधवा गाहा । अथवा यत एवेहलोकानुरूपं परलोकमपि प्रतिपद्यते भवान् , अत एव कर्मफल मपीहत्यकर्मफलवद्विचित्रं प्रतिपद्यतां परत्रेति ॥२२३६॥ किं भणितमि) मणुया णाणागतिकम्मकारिणो संति । जति ते तप्फलभाजो परे वि तो सरिसता जुत्ता ॥२२३७॥ किं भणित० गाहा । किमुक्तं भवति ? इह मनुजा नानागतिहेतुक्रियानुष्ठायिनो हि लक्ष्यन्ते । यदि हि तेऽमुत्रापि तक्रियाफलभाजो भवन्ति यथेहत्यक्रियाणाम्, अतः परलोकोऽपीहलोकानुरूपो युक्तः ।।२२३७।। अध इध सफलं कम्मं ण परे तो सवधा ण सरिसत्तं । अकतागम-कतणासी कम्माभावोऽधवा पत्तो ॥२२३८॥ अध गाहा । अथेहलोकक्रियाणां साफल्यं प्रतिपद्यते, न पारलौकिकीनाम् । न नामेहलोकानुरूपः परलोकः सर्वथा, अकृताभ्यागम-कृतप्रणाशप्रसङ्गः, कर्माभावो वेति ॥२२३८॥ कम्माभावे "वि कतो भवंतरं सरिसता व तदभावे । णिकारणतो य भवो जति तो णासो वि तध चेव ॥२२३९॥ कम्माभा० गाहा । कर्माभावे वा भवान्तरमेव न सम्भाव्यते, कुतः साहश्यम् ! अथाकारण एव भवः । नन्वकारणमसादृश्यमपि तद्विनाशश्च ॥२२३९।। १ वज्झा को हे। : २ ममाह इह-इति प्रतौ । ३ °मिह हे । " णासो जे । ५ य को त हे। ६ व जे त । ५० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४५९कम्माभावे वि मती को दोसो होज्ज जति सभावोऽयं । जध कारणाणुरूवं घडातिकज्ज सभावेणं ।।२२४०॥ कम्मा० गाहा । आह-यदि कर्माभावेऽपि भवसद्भावः स्वभावत एव स्यात्, को दोपः ?, यथेह कर्मान्तरेण कारणानुरूपं घटादिकार्य स्वभावतोऽभिलक्ष्यते । उच्यते-ननु घटोऽपि न स्वभावतः । कुतः ? कर्तृकरणसद्भावात् । इहापि कर्तरात्मनः कार्यस्य च शरीरादेरवस्यं करणमपि सम्भावनीयम् । अपि च प्रतिज्ञेयम्-आत्म शरीराभ्यां अर्थान्तरं करणमनुमीयते, कर्तृकार्यसद्भावात् , कुलालघटसद्भावे दण्डादिवत् । यच्चात्मनः शरीरादिकार्यनिर्वृत्तौ का(क)रणभावमनुभवति तत् कर्मति 'प्रतिपद्यस्व । स्यात्-स्वभावतः शरीरादिप्रसूतिः, अभ्रादिविकारवत् । न, आदिमत्प्रतिनियताकारत्वाद, घटवत् । सादृश्यप्रतिज्ञानं च हीयते, अभ्रादिविकाराणां अणुस्कन्ध. कारणद्रव्येभ्योऽतिविलक्षणत्वात् ॥२२४०॥ होज्ज सभावो वत्थु णिक्कारणता व वत्थु[१४७-प्र०] धम्मो वा । जति वत्थु णस्थि तओऽणुवलद्धीतो खपुप्फ व ॥२२४१।। ___होज्ज गाहा। किञ्च, योऽयं स्वभावो नामाभिप्रेतः, स वस्तुविशेषः, कारणता, वस्तुधर्मो वाऽभ्युपगम्येत । सर्वथा च दोपः । यदि वस्तुविशेषः, स नास्ति, सर्वप्रमाणगोचरालीतत्वात्, खपुष्पवत् ॥२२४१।। अच्चतमणुवलद्धो वि अध तो अस्थि णत्थि किं कम्मं । हेतू व तदत्थित्ते जो णणु कम्मस्स वि स एव ॥२२४२॥ __ अच्चंत० गाहा । अथासावत्यन्तमनुपलभ्यमानोऽप्यस्ति । कर्म किमिति नास्ति ? स्वभावाऽस्तित्वे वा यो हेतुः, स कर्मण्यपि समानः ॥२२४२॥ कम्मरस वाऽभिधाणं होज्ज सभाको त्ति होतु को दोसो । णिच्चं व सो सभावो सरिसो एत्थं च को हेतू ।।२२४३।। कम्म० गाहा । अथवा कर्मणोऽभिधानं स्वभाव इति तन्नामास्तु, न संज्ञामात्रे विप्रतिपत्तिः । सर्वदा चासावेकलक्षण इत्यत्र को हेतुः ? स्वभाव एवेति चेद् । विलक्षणतायामप्येतत् समानम् ॥२२४३॥ सो मुत्तोऽमुत्तो वा जति मुत्तो तो ण सव्वहा सरिसो । परिणामतो पयं पिव ण देह हेतू जति अमुत्तो ॥२२४४॥ १ 'तियद्यस्य-इति प्रतौ । २ भावोऽस्ति - इति प्रतौ। ३ णं हेतु स जे। ण हुन त । ५ इत्थं त। मुत्तामु जे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४५९] गणधरवादे परलोके सर्वथासदृशभावनिषेधः । ३९७ उवकरणाभावातो ण य भवति सुधम्म ! सो अमुत्तो 'वि । कज्जस्स मुत्तिमत्ता सुहसंवित्तातितो चेव ॥२२४५।। सो मुत्तो गाहा, [उवकरणा० गाहा । स च मूर्तिमानमूत्तों वा ? यदि मूर्तिमान् । अस्य कर्मणश्च को विशेषः ? कमव संज्ञामात्रविशिष्टं तत् । न चासौ सर्वदेवाविलक्षणः, मूर्तिमत्त्वादभ्रादिविकारवत् । अथ अमूर्तः, नारम्भको देहादीनाम्, अनुपकरणत्वाद्दण्डादिविकलकुलालवत् । स्यान्मतिः-नन्वसावेवोपकरणं कर्तुरात्मनः । नोपकरणस्यापि उपकरणं चिन्त्यते । तथापि नासावुपकरणमात्मनः समवायोटं शरीर'निर्वृत्तौ, [शरीरस्य मूर्त्तत्वात् । न हि मूर्तिमतोऽमृति[मत्] समवायिकारणमिष्टम् । स्यात्-ननु शरीरस्य पुदगला एव समवायिकारणम्, आत्मा च स्वभावोपकरणसाचि. व्यात् कर्तेति । तच्च न, यस्मादात्मस्वभावयोन शरीरपुद्गलादानमस्ति, अमूर्त्तत्वात् । अतो मूर्तिमतोपकरणेन भवितव्यम् , तत्समवायिना च । न च तदानादि पुद्गलसन्तानादिमयं कर्मान्तरेण सम्भाव्यते । ननु तद्ग्रहणेऽप्येतत् समम्, आत्मनोऽमूर्तत्वात् । अथवाऽयमात्मा सत्य[प्य]मूतत्वे कर्मणः समादांता, तद्वदमूर्तस्वभावो. पकरणसमेतः शरीरस्येति को दोषः ? उच्यते-नैवायं मूर्तिविकलः समादत्ते । ननूक्तम्अनादिकर्मसन्तानोपनिबन्धन एवायम् । न च कामर्णमाध्यात्मिकं शरीरमननुविश्य बाह्यशरीरनिवृत्तिरनुरूपेति समवायिकारणभावोऽस्यावसीयते । न चासावमूर्तस्वभावः, कार्यस्य मूर्तिमत्त्वाच्छरीरस्य। तथा सुखसंवित्तेरियादितः ॥२२४४-४५।। अधयाऽकारणतो च्चिय सभावतो तो 'वि सरिसता कत्तो । किमकारणतो ण भवे विसरिसता किं व विच्छित्ती ॥२२४६॥ अधवा गाहा । अथवाऽकारणत एव स्वभावत इति भवदभिप्रायः । तत्र वयं ब्रूमः-नाकस्मिकं शरीरम्, आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात् , घटवत् । वैधय॒णाभ्रादिविकारवत् । प्रतिनियताकारत्वादेव चोपकरणसमेतकर्तृकम्, घटवत् । न च कर्मणोऽन्यदुपकरणं सम्भाव्यते । अथवा नाकस्मादुत्पत्तिरिष्यते, स्वरविषाणाद्यभावप्रसूतिप्रसङ्गात् । अकारणप्रसूतस्य वा कुतः सादृश्यम् ? अकस्मादेवासादृश्यं कुतो न भवेदुच्छेदो वेति ! ॥२२४६।। अध "वि सभावो धम्मो वत्थुस्स ण सो वि सरिसओ णिच्चं । उप्पातै द्वितिभंगा चित्ता ज वत्थुपज्जाया ॥२२४७।। १ ति जे । २ भावो-इति प्रतो। नामा इति प्रतौ। ३ नि इति प्रती । ४ तद्-कर्म । ५ णः मा इति प्रती । ६ भावास्य-इति प्रतौ । 0 °णउ को हे । ८ व जे । ९ किंचि वि त । १० अहव को हे त । ११ उप्पाया को । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४५९___ अध गाहा । अथ वस्तुनो धर्मः स्वभावः, तथाप्यसौ यद्यात्मधर्मो विज्ञानादिवत्, न स शरीरकारणम्, अमूर्त्तत्वादाकाशवत् । अथ मूर्तिमद्धर्मः, न पुद्गलपर्यायमतिवर्त्तते । कर्मापि हि पुद्गलपर्यायानन्यरूपमेवेत्यविप्रतिपत्तिः । न च वस्तुनो धर्मः सदैव समानरूपोऽस्ति, स्थित्युत्पत्तिप्रलयपरिणामात्मकत्वाद्वस्तुनः' - ॥२२४७॥ कम्मस्स वि परिणामो सुधम्म ! धम्मो स पोग्गलमयस्स । हेतू चित्तो जगतो होति सभावो ति[१४७-द्वि०को दोसो ॥२२४८॥ कम्म० गाहा । अथवा कर्मापि पुद्गलपरिणामधर्म एव जगतः शरीरादिहेतुः स्वभाव इति को दोषः ? स च विचित्रात्मा, पुद्गलपरिणामत्वादेवाभ्रादिविकारवत् । कुतोऽस्य नित्यं समानरूपता ! ॥२२४८॥ - अधवा सव्वं वत्थु पतिक्षणं चिय मुधम्म! धम्महि । संभवति वेति केहि ये केहि य तदवत्थमच्चंतं ॥२२४९॥ अधवा गाहा । अथवा सौम्य सर्वमेव हि वस्तु प्रतिक्षणमुत्पद्यते पूर्वपर्यायसमानपर्यायैः कैश्चिच्चापरपर्यायसमानाऽसमानरुपरमति, कैश्चित्तदवस्थमेवास्ते ॥२२४९॥ तं अप्पणो वि सरिसं ण पुव्वधम्मेहि पच्छिमिल्लाणं । । सकलस्स तिभुवणस्स ये सरिसं सामण्णधम्मेहिं ॥२२५०॥ तं गाहा । तदात्मनोऽपि न पूर्वापरपर्यायैः सर्वथा समानमसमानं वा, समानासमानत्वात् । तथा भुवनत्रयस्यापि सामान्यविशेषपर्यायैः समानमसमानं वा ॥२२५०॥ अतः · को सब्वधेव सरिसोऽसरिसो वा इधभवे परभवे वा । सरिसासरिसं सव्वं णिच्चाणिच्चातिरुवं च ॥२२५१॥ को गाहा । को हि केन सर्वथैव समानोऽसमानो वेह परत्र वा । यदीहैव कश्चित् स्वेनान्येन वा सर्वथा समानः स्यात्, परलोकेऽप्यनुमीयेत । न चासावस्ति, यतः सर्वमेवेदं समानासमानं नित्यानित्यादिरूपं च ॥२२५१॥ जह णियएहिं वि सरिसो ण जुवा भुवि बालवुड्ढधम्महि । जगतो ये समो सत्तादिएहि तप परभवे जीवो ॥२२५२॥ केहि वि केहि वि त को है। २ व त । ३ 'सो अस हे । ४ सो इधत । ५ 'मानादिह-इति प्रतौ । ६ वि त को हे। . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४६०] गणधरवादे परलोके सर्वथासदृशभावनिषेधः। ३९९ जह गाहा । यथेह न निजैरपि युवा अतीतानागतैर्बालवृद्ध पर्यायैरात्मनः सर्वथा समानः, सत्तादिसामान्यपर्यायैश्च न केनचिदसमानः, तथाऽयमप्यात्माऽन्य. जन्मनि समानासमानः ॥२२५२॥ मणुओ देवीभूतो सरिसो सत्तादिएहि जगतो वि । देवादीहि विसरिसो णिच्चाणिच्चो वि एमेव ॥२२५३॥ मणुओ गाहा । अथ किम् ? इह मनुजो देवत्वमापन्नः पूर्वपर्यायैरात्मनाऽपि न समानः, सत्त्वादिसामान्यपर्यायन केनचिदसमान इति समानासमानः, तथा नित्यानित्यादिरूपोऽपीति । स्यान्मतिः-अस्माभिरपि न सर्वथा समानताऽभ्युपगम्यते । किं तर्हि ! समानजात्यन्वयोऽनुमतो नासमानजातीयता । [न] मनुजा[नां] देवादिपर्याये य)प्राप्तिः, असमानकारणत्वात् । तच्च न, यतोऽभिहितमसमानजातीयजन्मापि ॥२२५३॥ उक्करिसावकरिसता ण समाणाए वि होति जातीए । सरिसग्गाहे जम्हा दाणातिफलं विधा तम्हा ॥२२५४॥ उक्क० गाहा । किञ्च, न यतः समानग्राहे सति समानजातावप्युत्कर्षापकवीश्वरदरिद्रकुलीनतादयः सम्भवन्ति, तस्माद्दानादिफलविघातप्रसङ्गः । अथोत्कर्षापकर्षों पुण्यापुण्यकृतावभ्युपगम्येते किमसमानजातीयतां न प्रतिपद्यते, तत्साधनप्रकर्षापकर्षभेदात् ? ॥२२५४॥ जं च सियालो 'वइ एस जायते वेतविहितमिच्चादि । सग्गीयं जैण्णफलं तदसंबद्धं सरिसताए ॥२२५५॥ जं च गाहा । यत्तु "शृगालो वै एष जायते यः सपुरीपो दह्यते” तथा "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः," तथा "अग्निष्टोमेन यमराज्यम भिजयते' इत्यादि वेदविहितं तद्विघातः । न च देवतादिविशेषाणां दानदयाध्ययनब्रह्मचर्यादिक्रियानुष्ठानमस्ति यतः पुनर्देवेषूपपधेरन्निति ॥२२५५।। छिण्णम्मि संसर्यम्मि जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पन्च[१४८-९-०]इतो पंचहिं सह खण्डियसएहिं ॥४६०॥२२५६॥" १ पर्यायश्च इति प्रतौ । २ सावकरिसा न को हे त। ३ वि जेण जा त को हे । ४ जम्हा जे । तस्मात् तृथा-इत्यर्थः । ५ इव जे। जच फ को हे त । ७ तम त हे। ८ °म्मी त दी हा म को। ९ जरा हे । °म्मी जाइजरा' म । १० इति पञ्चमो गणधरवाद : समाप्तः त । पञ्चमो गणहरो सम्मत्तो-को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४६१ते पव्यइते सोतुं मंडिओ आगच्छती जिणसगास । बच्चामि णं वन्दामि वन्दित्ता पज्जुवासामि ॥४६१।२२५७।। आभहो य जिणेणं नाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोतेण य सवण्णूसव्वदरिसीणं ॥४६२॥२२५८॥ किं मंण्णे वन्धमोक्खों अस्थि व णत्थि त्ति संसयो तुझं । वेतपताण य अत्थं ण याणसी तेसिमो अत्थो ॥४६३।।२२५९॥ तम्मण्णसि जति बन्यो जोगो जीवस्स कम्मणा समयं । पुव्वं पच्छा जीवो कम्मं व समं व तो होज्ज ॥२२६०॥ छिण्णम्मि गाहा । ते पव्वइते गाहा । आभट्ठो गाहा । किं मण्णे गाहा । तम्मण्ण० गाहा । आयुष्मन् मण्डिक भवतोऽभिप्रायोऽयम्-'यो बन्धः स यदि जीवकर्मणोः संयोगोऽभिप्रेतस्ततः स ख-वादिमानादिरहितो वा ? यद्यादिमान् ‘कल्प्यते तहिं पूर्वमात्मा [पश्चात् कर्म अथवा पूर्व कर्म पश्चादात्मा, युगपद्वा संप्रसूये याताम् ! सर्वथा च दोपः ॥२२५६-६०॥ ण हि पुचमहेतूतो खरसिंगं वाऽऽतसंभवो जुत्तो । णिकारणजातस्स य णिक्कारणतो च्चिय विणासो ||२२६१॥ __ण हि गाहा । तत्र न तावत् पूर्वमात्मसम्भृतिः सम्भाव्यते, निहेतुकत्वात् खरविषाणवत् । अकारणप्रसूतस्य वाऽकारणत एवोपरमः स्यात् ॥२२६१॥ अधवाऽणाति च्चिय सो णिक्कारणतो ण कम्मजोगो से । अर्ह णिक्कारणतो सो मुक्कस्स वि होहिति स भुज्जो ॥२२६२॥ अधवा गाहा । अथवाऽनादिः एवासो, अतोन्यकारणत्वान्न कर्मणा योगो नभोवत् । अथवाऽकर्मणोऽपि कर्मणो योगः, स मुक्तस्यापि स्यात् ।।२२६२।। होज्ज व स णिच्चमुक्को बंधाभावम्मि को व से मोक्खो । ण हि मुक्काव्यवादसो बंधाभावे मतो णभमो ||२२६३।। होज्ज व गाहा । अथवा स नित्यमुक्त एव । किमिह मोक्षजिज्ञासया ! बन्धाभावेऽपि वा मुक्तव्यपदेशाऽभाव एव आकाशवत् ॥२२६३।। १ मी त ह को। "मि दी हा। मन्नि त दी हा। : 'कना गति न संनि निको है। खो संति न संति नि त। क्यो अन्थि नस्थि ति म। कक्षा अस्थि ण अन्थि लि दी हा । ४ कम्मुणा को ह त ५ ते त को हे । ६ मान् कस्ये पि हि पूर्व-इति प्रतौ । ७ °णउ च्चिय को हे । ८ अवि जे ९ होउजस हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४६३ ] गणधरवादे बन्ध-मोक्षसिद्धिः । कम्मस्स विपुवं कत्तुरभावे समुभवो जुत्तो । णिक्कारणतो सोविय तथ जुगनुष्पत्तिभावो य || २२६४ ॥ गाहा । न च कर्मणोऽपि प्राक् प्रमृतिरनुरूपा कर्नरभावात् । न चाक्रियमाणस्य कर्मव्यपदेशोऽभिमतः । अकारणप्रसूतेश्वाकारण एवोपरमः । युगपदुत्पत्तिरप्यकारणत्वादेवासती, तत्संयोगश्च पूर्ववत् ॥ २२६४॥ युक्तरूप गोविषाणवत् ॥ २२६५॥ ण हि कत्ता कज्जं ति य जुगप्प [ १४८-४९ - द्वि० ]त्तीय कम्मजीवाणं । जुत्तो ववदेसोयं जब लोए गोविसाणाणं ||२२६५॥ हि गाहा । न च युगपदुत्पत्तौ सत्यामयं कर्त्ता, कर्मदमिति व्यपदेशो 6 होज्जाsणातीय वा संबन्धो त विण घडते मोक्खो । जोडणाती सोऽणतो जीव णभाणं व संबन्धी || २२६६|| होज्जा गाहा । स्यान्मतिः– अनादिरेवात्मकर्मसंयोगः । तथाप्यनादित्वान्नात्मकर्मवियोगः स्यात्, आत्माकाशसंयोगवत् । अथवा देहकर्मसन्तानानादिवादनन्तः संसारो यतः खलु अतोऽपि न मोक्षः ॥ २२६६॥ इय जुत्तीयं ण घडते सुव्वतिय सुतीर्मु बन्धमोक्खी' ति । तेण तु संसयोऽयं ण य कज्जोऽयं जधा सुण || २२६७॥ ४०१ इ गाहा । इत्येवं युक्त्या जिज्ञास्यमानो न घटते । अनुश्रूयते च श्रुतिषु बन्धो मोक्षश्चेत्यतः संशयोऽयं भवतः । न चायं कार्यों यथानुश्रूयताम् ॥ २२६७॥ संताणोऽणातीओ परोप्परं हेतुफलभावातो । देहस् य कम्मरस य मण्डिय ! वीयंकुराणं व ॥ २२६८ ॥ संताणो गाहा । तत्र तावत् किमात्मकर्मणोः प्राक् पञ्चादित्यादिष्वयमा श्रीयतेऽनादिरात्मकर्मसंयोगसन्तानः । कथम् इह देह कर्मणोरन्योन्य हेतुफलभावादनादिसन्तानो बीजाङ्कुरसन्तानवत् ||२२६८|| अस्थि स देहो जो कम्मकारणं जो य कज्जमण्णस्स । कम्मं च देहकारणमत्थि य जं कज्जमण्णस्स ॥ २२६९॥ १ भावत को हे । २ तीइ जीवकम्माणं त । तीए जीवकम्माण जुत्तीए त को हे । ४ घडइ को हे त । ५ सुईए को । ६ क्वा हे । प्रतौ । ८ हेतुहेउभा' को हे त । हेनुहेयभा ९ पश्चादिप्रयमा - इति प्रती । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only को । ३ नुरूपताम्-इति Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४६३ अस्थि गाहा। कथम् ? इह अस्ति स देहो योऽन्यस्य कर्मणः कारणमन्यस्य च कार्यम्-अतीतस्य कार्यमेष्यतश्च कारणम, वं कम्यतीतदेहकार्यमेष्यतश्च कारणमित्येवमनादिः सन्तानः ।।२२६९|| कत्ता जीवो कम्मस्स करणतो जध घडस्स घडकारो । एवं चिय देहस्स वि कम्मकरणसंभवातो त्ति ॥२२७०॥ कत्ता गाहा । कर्ता चात्मा कर्मणः, करणसद्भावाद्, घटस्य दण्डादिसमेतकुलालवत् । करणं चास्य कर्मनिवृत्तौ देहोऽधिक्रियते । तथा देहस्यापि कर्ताऽयमात्मा करणसद्भावात्, पूर्ववत् । करणं चात्र कर्माधिक्रियते ॥२२७०॥ कम्मं करणमसिद्धं 4 ते मती कज्जतो ये तं सिद्धं । किरियाफलदो य पुणो पडिवज्ज तमग्गिभूति व्व ॥२२७१॥ कम्मं गाहा । स्यान्मतिः-कर्म करणमसिद्धमस्मान् प्रति । न, कार्यतस्तत्सिद्धेः । इह विद्यमानकारणं शरीरादि, कार्यत्वाद् घटवत् । यच्चास्य कारणं तत् कर्म । तस्मादस्ति कर्म । अथवा विद्यमानकारणमात्मशरीरद्वयं कर्तृकार्यसद्भावात् , कुलालघटपिण्डादिवत् । यच्च कर्तुरात्मनः शरीरनिवृत्तो कारणतामापद्यते तत् कर्म । तस्मादस्ति कर्म । तथा, फलवन्तो दानादयः, चेतनाक्रियारूपत्वात् कृष्यादिवत् । यच्चैषां फलं तत् कर्मेति प्रतिपद्यस्व अग्निभूतिवत् ॥२२७१॥ जं संताणोणाती तेणाणतो वि णायमेगंतो । दीसति संतो वि जतो कत्थति बीयंकुरादीणं ॥२२७२॥ अण्णतरमणिव्वत्तितफज्ज बीयंकुराण जं विहितं । [१५०-५०] तत्थ हतो संताणो ‘कुक्कडिअण्डातियाणं च ॥२२७३॥ जं [गाहा, अण्ण ०] गाहा । यच्चापदिश्यते-यस्मादात्मकर्मयोगोऽनादिरतोऽनन्तोऽप्यात्माकाशसंयोगवत्, देहकर्मसन्तानो वाऽना दित्वादनन्तो यतस्तस्मादमोक्ष इति । तन्नायमेकान्तो यत् सन्तानः संयोगो वानादिरतोऽनन्तोऽपि, यतः क्वचिदन्तवानपि सन्तानो दृष्टो यथा बीजाङ्कुरयोः" यत्र तयोरन्यतरं स्वकार्यमनिर्वृत्त्योपरतं तत्र तत्सन्तानोच्छेदः । १ एव इति प्रतौ । २ भवाउ त्ति को हे । ३ निवृत्तौ इति प्रतौ । १ च को । द्ध ते त । ५ 'ओ तयं सि को हे। ६ कार्य तत्स्वसिद्धः इति प्रतौ। ७ वद्यस्वैपा-इति प्रतो । ८ कुरा को हेत। रतोऽपि इनि प्रतौ । १. पि रष्टो इति प्रती । ११ 'रयोः स्व इति प्रती । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४६३] बन्ध मोक्षसिद्धिः। तथा, कुकुट्यण्डकयोः, पितापुत्रयोर्वा । तथा देहकर्मणोरपि यदि स्यात् को दोषः ? संयोगोऽपि हि तयोरेव बीजाङ्कुरवद् अनादिसन्तानमयस्तदुच्छेदादुच्छिद्यते ॥२२७२-७३ जध वेह कंचणोवलसंजोगोऽणातिसंततिगतो वि । 'वोच्छिज्जति सोवायं तध जोगो जीवकम्माण ॥२२७४॥ जध वेह गाहा । यथा चेह काश्चनोपलयोः संयोगोऽनादिसन्ततिगतोऽप्यग्निमारुतद्रव्यसंयोगोपायाद्विघटते, तथा यद्यात्मकर्मणोः ज्ञानक्रियोपायोऽन्तः, भदोषः । तो कि जीव-णभाण व जोगो अध कंत्रणोवलाणं व । जीवस य कम्मस्स य भण्णति दुविधो वि ण विरुद्धो ॥२२७५॥ तो किंगाहा । आह-अर्थ यथा आकाशसंयोगो न विनिवर्त्तते तथाऽऽमकर्मणोः, अथ यथा काञ्चनोपलयोरपायोति किमत्र प्रतिपा(प)द्यामहे ? उच्यते-द्विविधोऽप्यविरुद्धः ॥२१७५॥ कथम् ? 2 . पढमोऽभव्वाणं चिय भव्वाणं कंचणोवलाणं व । जीवत्ते सामण्णे भव्योऽभन्यो त्ति को भेतो ॥२२७६॥ पढमो गाहा। इहात्माकाशसंयोगवदभव्यानामात्मकर्मसंयोगोऽनपायी, भयानां केषाञ्चित् । आह-जीवत्वे सामान्येऽभव्य इति कुतोऽयं विकल्पः ? ॥२२७६।। होतु व जति कम्मकतो ण विरोधी णारगातिभेदो 'व्व । भणध य भव्वाऽभव्वा सभावतो तेण संदेहो ॥२२७७॥ होतु गाहा । अस्तु वा यदि कर्मकृतो नारकादिभेदवत् । न चायं कर्मजो भवद. भिप्रायात् । किं तर्हि ? स्वभाव एवायमिहेत्यतः सन्देहः ॥२२७७|| दव्वातित्ते तुल्ले जीव-णभाणं सभावतो भेतो । जीवाजीवातिगतो जध तथ भव्वेतरविसेसो ॥२२७८॥ दव्वा० गाहा । उच्यते-यथेह द्रव्यादिसामान्ये सत्यात्माकाशयोः स्वभावतो भेदोऽभिमतो जीवाजीवादिकृतस्तद्वज्जीवसामान्ये सति भव्याऽभव्यभेदो यदि योग्यायोग्यत्वविशेषात् को दोषः ? ॥२२७८॥ एवं पि भव्वभावो जीवत्तं पिव सभावजातीतो । पावति णिच्चो तम्मि य तदवत्थे णस्थि ‘णेवाणं ॥२२७९॥ १ जे । वुत। २ जीवनि त। ३ व अह जोगो के को हे त। ततः इति प्रतौ । ५ 'मो वाभव्वा जे। ६ ‘मेव्व को हे। ५ ग्यतवि' इति प्रतौ । ८ णिव्वा को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४६३ एवं गाहा । आह-एवमपि भव्यता अनपायिनी प्रसजति, स्वभावजातीयत्वात, जीवत्ववत्, तदवस्थानाच्चामोक्ष इति ॥२२७९।। जध घडपुन्याऽभावोऽणातिसभावो वि सणिधणो एवं । जेति भव्वत्ताऽभावो भवेज्ज किरियाय को दोसो ॥२२८०॥ जध गाहा । उच्यते-यथेह घटस्य प्रागुत्पत्त्यभावोऽनादिस्वभावजातीयोऽपि संस्तदुत्पत्तावुपरमन् प्रतीतः, तद्वद्भव्यत्वस्यापि ज्ञानक्रियोपायादुपरतिरिति को दोषः ॥२२८०॥ अणुदाहरण[१५०-द्वि]मभावो खरसंग पिव मती ण तं जम्हा । भावो च्चिय स विसिहो कुम्भाणुप्पत्तिमेत्तेणं ॥२२८१।। अणु० गाहा । स्यान्मतिः-तदनुदाहरणमिदम् , अभावत्वात् खरविपाणवत् । तच्च न, यतो भाव एवासो घटानुत्पत्तिमात्रविशिष्टः, पुद्गलविशेषात् ॥२२८१॥ एवं भव्बुच्छेतो कोट्ठागारस्स वाऽवचयतो' त्ति । तण्णाऽणंतत्तणतोऽणागतकालंवराणं व ॥२२८२।। एवं गाहा । आह ---एवमपि सर्वभव्योच्छेदप्रसङ्गोऽपचयात् कोष्टा गारवत् । उच्यते-न, भव्यानामनन्तत्वादनागतकालवत् । यथाऽनागतः कालोऽनुसमयमपचीयते, न चोच्छिद्यते । यथा वाऽऽकाशमपचीयमानमपि 'बुद्धया नोच्छिद्यते, अनन्तत्वात् , तद्वद्भयानामनुच्छेदः ।।२२८२॥ जं चातीताणागतकाला तुल्ला जतो य संसिद्धो । एक्को अणंतभागो भव्याणमतीतकालेणं ॥२२८३।। 'एस्सेण तत्तियो' च्चिय जुत्तो जं तो वि सव्वभव्याणं । जुत्तो ण समुच्छेदो होज्ज मती 'किधमिणं सिद्धं ॥२२८४॥ भव्वाणमणंतत्तणमणंतभागो व किट व मुक्को सिं। कालादयो व मंडिय ! मह वयणातो यँ पडिवज्ज ॥२२८५॥ सम्भूतमिणं गेहेमु मह वयणातोऽवसेसवयणं व । सवण्णुतादितो वा जाण य" मज्झत्थवयणं व ॥२२८६॥ १ तह त । २ 'याइ को त। . याए को को हे। ३ °सिगं त । ४ अवचयंति त्ति को । अवचउ त्ति हे। ५ युद्धघाइ-ति प्रतौ । ६ एसेण को । ७ तत्तिउ को। तत्तिउ जुत्तो हे । ८ कहमिणं त हे को। किध मतं जे। ९ व त को हे। १० व त को हे । ११ गिह को हे। १२ ताके । १३ जाणमु म को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ मि० ४६३ ] बन्ध-मोक्षसिद्धिः । मण्णसि 'विध सव्वण्णू सव्वेसि सव्वसंसयच्छेत्ता । दिहंताभावम्मि वि पुच्छतु जो संसयो जस्स ॥२२८७॥ ___जं चा० गाहा । एस्सेण गाहा । भवाण० गाहा । सम्भूत० गाहा । मण्णसि गाहा । यतश्च यावानतीतस्तावानेष्यन्नपि कालः । अतीतेन चानन्तभागमात्रं भव्यानां सिद्धम्, अतस्तावतैवानागतेनाप्यनन्तभागमात्रमेवे सम्भाव्यते भव्यानामपर्वगः । तेन न सर्वोच्छेदः । स्यान्मतिः-कथमिदमवसीयते भव्यानामानन्यम्, अनन्तभागमात्रापवर्गश्च । उच्यते-यथेह कालाऽऽकाशादयोऽनन्तास्तद्धदात्मनामानन्त्यादं । अस्मद्वचनाच्च प्रतिपद्यस्व ॥२२८३-८७।। भव्वा वि ण सिज्झिस्संति केइ कालेण जति वि सम्वेण । णणु ते वि अभव्य च्चिय किं वा भव्वत्तणं तेसि ॥२२८८॥ भव्या गाहा । आह-यदि भव्यत्वेऽपि सति न सर्वसिद्धिरतो ये न सेत्स्यन्ति तेषामप्यभव्यतैवास्तु । को वा विशेषस्तेषामभव्येभ्यः ? ॥२२८८॥ भण्णति भयो जोग्गो[१५१-प्र०ण य जोग्गत्तेण सिज्झते सव्वो। जध जोग्गम्मि वि दलिए सबथं ण कीरते पडिमा ॥२२८९॥ भण्णति गाहा । उच्यते-मोक्षसाधनविनेयतायोग्यो यः स भव्योऽभिधीयते । न च योग्य एवेति स सिध्यति । यथेह न प्रतिमायोग्यादारुणोऽवश्यमेव प्रतिमाप्रसूतिः । किं तर्हि ? यस्यैव कारणसामग्री तत्रैवासौ सम्भाव्यते । न च तदसंपत्तावप्यभव्यता सम्पद्यते, किन्तु यदा च यत्र च प्रतिमायोग्यादेव प्रसूति - योग्याद् । एवमेव हि न भव्य एवेत्यवश्यंभाविनी सिद्धिः । किं तर्हि ? यस्यैव तत्साधनसामग्री तस्यैवासौ सम्भाव्यते । न च तदसम्पत्तावप्यभव्यता सम्पद्यते । किन्तु यदा च यत्र च भव्यस्यैवापवर्गो नाऽभव्यस्य ॥२२८९॥ जध वा स एव पासाणकणगजोगो वियोगजोग्गो वि। ण विजुज्जति सव्वो च्चिय स विउज्जति जैस्स संपत्ती ॥२२९०॥ जध वा गाहा । यथा वा स एव हेमाश्मसंयोगो वियोगयोग्योऽपि सन्न सर्व एव हि वियुज्यते ॥२२९०॥ किं पुण जी संपत्ती सा जोग्गैस्सेव ण तु अनोग्गैस्स । तथ जो मोक्खो णियमा सो भव्याणं ण इतरेसिं ॥२२९१॥ १ कध त। २ च्छेया त को हे। ३ कालोतीततेन-इति प्रतौ । " मेवं इति प्रतौ । ५ वर्गो येन सर्वो' इति प्रतौ । ६ जोग्गा तेण जे । ७ °ज्झई को। ८ सव्वम्मि त हे । ९ विजुत को हे। १० सव्वसं त । ११ जो हे । १२ जोग जे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४६३किं पुण गाहा । किं पुनर्यदा च यत्र च या सम्पत्तिरसौ योग्यस्यैव, नायोग्यस्य । तद्वत् यदा च यत्र च या सिद्धिरसौ भव्यराशेरिति ॥२२९१।। कतकादिमत्तणातो मोक्खो णिच्चो ण होति कुंभो छ । णो पद्धंसाभावो भुवि तद्धम्मा वि जं णिच्चो ।।२२९२॥ कत० गाहा । आह-अनित्यो मोक्षः, कृतकत्वात्, प्रयत्नानन्तरीयकत्वाच्च, घटवत् । उच्यते-कृतकाद्यनित्यमिति नायमेकान्तः, विपक्षेऽपि दर्शनात्-इह यस्माद् घटादिप्रध्वंसाभावः कृतकादिस्वभावोऽपि सन्नित्यः प्रतीयते ॥२२९२॥ अणुदाहरणमभावो एसो वि मती ण त जतो णियतं'। . कुम्भविणासविसिट्ठो भावो चिय पोग्गलमयो ये ॥२२९३।। अणु० गाहा । स्यान्मतिः-अनुदाहरणमिदमभावत्वात्, खरविषाणवत् । तच्च न, यतो भाव एवासौ घटपर्यायोपरतिमात्रेविशिष्टः, पुद्गलमयत्वात् ॥२२९३॥ किं वेगतेण कतं पोग्गलमेतविलयम्मि जीवस्स । किं णिवत्तितमधियं णभसो घडमेतविलयम्मि ॥२२९४॥ किं वेगं० गाहा । इहात्म-कर्मपुद्गलवियोगो मोक्षोऽभिप्रेतः । तत्र किमेकान्तेनात्मनो निर्वर्त्यते यत् कृतकत्वादनित्यत्वाभिप्रायः स्यात् ? नन्वयमेवात्मकर्मविभागो निर्वय॑ते, द्विष्टश्चायम् । अतः कर्मणोऽनित्यत्वादनित्य इति । तच्च न, यतो न हि घटमात्रविलये सति आकाशविनाशः, घटाकाशविनाश(घटविनाशे आकाश)विभागाऽभावात् । आकाशविभागाऽभावेऽपि सुतरां कपालाकाशसंयोगोऽविनिवृत्त एव तद्वदात्म-कर्म विभागाभावेऽपि कर्मपुद्गलसंयोगाविनिवृत्तिः, तल्लोकव्याप्तेः, तच्च न। ॥२२९४॥ यतः सोऽणवराधो व्व पुणो ण बज्झते बंधकारणाभावा । जोगो य बंधहेतू ण य सो तस्सासरीरो ति ॥२२९५॥ सो गाहा । तत् पुद्गलसंयोगेपि नासौ बध्यते, बन्धकारणाऽभावादनपराधपुरुषवत् । योगत्रयं च बन्धहेतुरभिधीयते । न च तत्तस्य, अशरीरत्वात् ,अतो न बध्यते । विशिष्टश्चेह बन्धनामकर्मप्रत्ययो बन्धोऽधिक्रियते, न कर्मयोग्यपुद्गलसंयोगमात्रम् ॥२२९५॥ ण पुणो तस्स पसूति बीजाभावादिहंकुरस्सेव । बीयं च तस्स कम्मं ण य तस्स तयं [१५१-द्वि०] ततो णिच्चो ॥२२९६॥ १ नियओ को हे त । २ योयं जे को। ३ माच्च वि इति प्रतौ । ४ तच्च यतो इति प्रतौ । ५ जोगा को। ६ यते त को हे। ७ गोपिइति प्रतौ। ८ कारिणोइति प्रतौ। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४६३ ] बन्ध-मोक्षसिद्धिः । ण पुणो गाहा । न तस्य भूयो भवप्रसूतिरस्ति, बीजाभावादङ्कुरप्रसूति न च तत् तस्य, अतो नित्य विद् । भवाङ्कुरप्रसूतिबीजं चास्य कर्मापदिश्यते । इति ॥२२९६ ॥ दव्वामुत्तत्तणतो णभं व्व णिच्चो मतो स दव्वतया । सव्वगतत्तावत्ती मति ति तं णाणुमाणातो || २२९७|| दव्वा० गाहा । इतश्च नित्यो मुक्तः, द्रव्यामूर्त्तत्वादाकाशवत् । स्यान्मतिःइष्टबाधनाद् विरुद्धोऽयं यस्माद्' । अत एव सर्वगतत्वादिप्रसङ्गोऽपि । तद्यथा - सर्वगतो मुक्तः द्रव्यामूर्त्तत्वादाकाशवत् । तच्च न, अनुमानसद्भावात् - नाऽयमात्मा सर्वगतः, कर्तृत्वात् कुलालवत् । एवं भोक्तृत्वादिति ॥२२९७॥ को वा णिच्चग्गाहो सव्वं चिय विभवभंगंधितिमतियं । पज्जायंतर मे त्तप्पणादै णिच्चातिववदेो ॥ २२९८॥ को वा गाहा । को वेह नित्यग्राहो यतः सर्वमेवोत्पाद-व्ययध्रौव्यस्वभावम् । किं तर्हि ? पर्यायान्तरमात्रार्पणादनित्यादिव्यपदेशो वस्तुनः । यथा पिण्डपर्यायेणोर्वैरमन् घटपर्यायेणोत्पद्यते, मृदूपादिभिरवतिष्ठते घटः । तद्वदयमपि संसारितयोपरमन् सिद्धयोत्पद्यते जीवद्रव्योपयोगादिभिरवतिष्ठत इति किमस्य सर्वथोत्पन्नं विनष्टमास्ते वा ? तथैकसमयसिद्धादिपर्यायैरपि व्ययोत्पादस्थितयः समायोजनीयाः ॥ २२९८ || मुत्तस्स कोवकास सोम्म ! तिलोगसिहरं गती कि से । कम्मलहुता तधागतिपरिणामादीहिं भणितमिदं ॥ २३९९॥ मुत्तस्स गाहा । आह- मुक्तस्य कोऽवकाशः ? सौम्य ! लोकाग्रम्। अथ कथमै - कर्मणो गतिरनुप्रवर्त्तते ? उच्यते - कर्मापगमात् लघुत्वात् पूर्वप्रयोगात्, असङ्गत्वाद्, बन्धनच्छेदात्, तथागतिपरिणामाच्च । यथैवासावशेषकर्मपरिक्षयादपूर्वपरिणामं सिद्धतामापद्यते तथोर्ध्वगति परिणाममपीति ॥ २२९९ ॥ 1 ४०७ " किं सक्aिरियमरूवं मण्डिय ! भुवि चेतणं च किमरुवं । जध से विसेसधम्मो चेतण्णं तथ मता किरिया || २३०० ॥ किं गाहा । आह- किमिह सक्रियमरूपमुपलभ्यते यथाऽयमपि स्यात् उच्यते-चेतनं वा किमरूपमत्यात्मानमेकं विहाय ? अतो यथाऽस्याsरूपत्वे सति वैशेषिको धर्मश्चैतन्यमेवं यदि क्रियावत्त्वमपि स्यात्, को दोषः १ ॥२३००॥ Jain Educationa International १ दात - इति प्रतौ । २ ठिति त । ठिह को । ठिइ हे । ३ णादिति । 'णा हिणि' जे । ४ पट इति प्रतौ । ५ 'तम्मि जे । ६ सो जे । For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये कत्तादित्तणतो वा सक्किरियोऽयं मतो कुलालो व्व । देहरफण्डेणतो वा पच्चक्खं जन्तपुरिसो व्व ॥ २३०१ ॥ ४०८ कत्ता० गाहा । अथवा क्रियावानात्मा, कर्तृत्वात्कुलालवत् । तथा भोक्तृत्वादित्यादि । अथवेह साक्षात् शरीरस्पन्दनात, यन्त्र पुरुषवत् ॥२३०१॥ देहरकंण्डणहेतू होज्ज पयत्तो त्ति सो वि णाकिरिए । होज्जाsदि व् मती तदरूवित्ते णणु समाणं ||२३०२ || [नि० ४६३ देह० गाहा | स्यान्मतिः- शरीरपरिस्पन्दहेतुरस्य प्रयत्न इति । सोपि न, अक्रियत्वादेव, आकाशवत् । प्रयत्नस्य चामूर्तस्य क्रियाहेतुत्वे हेतुरभिधेयः । न चेत् ; आत्मन्यपि समानमेतत् । स्यान्मतिः- अदृष्टः क्रिया हेतुरस्य । तदमूर्त्तत्वे समान मात्मनः, विशेषहेतुर्वाभिधेयः || २३०२ || वित्तम्मि स देहो बच्चो तप्फन्दणे पुणो हेतू । पतिणियतपरिप्पन्दणमचेतणाणं ण वि य जुत्तं ॥ २३०३|| रूवित्त० गाहा । अथ मूर्त्तिमानेवादृष्टः । स देह एव कर्मविशिष्टः । तत्परिस्पन्दहेतुत्वेऽपि च समाधिरभिधेयः, यदि न स्वभाव एवाङ्गीक्रियते । न च प्रतिनियत स्पन्दनमचेतनानामनुरूपम् ||२३०३ ॥ होतु किरिया भवत्थस्स [१५२ - प्र० ] कम्मरहितस्स किंनिमित्ता सा । णणु तग्गतिपरिणामा जब सिद्धत्तं तथा सी त्रि ।। २३०४ || हेतु० गाहा । आह-अस्तु संसारिणो गतिः, अकर्मणः किंनिमित्तासौ । उच्यते- ननूक्तं तथागतिपरिणामात् सिद्धत्व परिणामवदिति ||२३०४ || किं सिद्धालयपरतो ण गती धम्मत्थिकायविरहातो । सो गतिउग्गहकरो लोगम्मि जमत्थि णालोए || २३०५ || किं गाहा । आह— किमिति सिद्धालयात् परतो न परतो गत्युपग्रहकारिणो धर्मास्तिकायस्याभावात् । स यस्माल्लोक ॥२३०५ ॥ लोगस्सfor faarat सुद्धत्तणतो घडस्स अघडो च्व । स घडाति च्चेय मती ण णिसेधातो तदणुरुवो || २३०६ || Jain Educationa International १ फंदण त को है । २ 'याना' इति प्रतौ । ३ पद को हे त । ४ व हे । ५° त हे को । ६ रूवत । ७ णामो जे । ८ सो जे । ९°स्येत्यतो गरौं - इति प्रतौ । For Personal and Private Use Only गतिरस्येतिं ? एव न परतः Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४६३] बन्ध-मोक्षसिद्धिः। लोगस्स गाहा । स्यात्-कथं पुनरिदमनुमीयते-अस्त्यलोक इति ? उच्यतेविपक्षमा(वा)न् लोको व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वात् । इह यद्वयुत्पत्तिमता शुद्ध पदेनाभिधीयते तद्विपक्षो दृष्टो यथा घटस्याघटः । यश्च लोकस्य विपक्षः सोऽलोकः । तस्मादस्त्यलोक इति । स्यान्मतिः-न लोकोऽलोक इति । स घटादीनामेवान्यतमो भविष्यति । किमिह तद्वस्वन्तरपरिकल्पनया ? तच्च न, यतो निषेधसद्भावान्निपेध्य. स्यैवाने नानुरूपेण भवितव्यम् । निषेध्यश्च लोकः । स चाकाशविशेषो जीवादिद्रव्य भाजनम् । अतः खवलोके नाप्याकाशविशेपेणैव भवितव्यम् । यहापण्डित इत्युक्ते विशिष्टज्ञानविकलचेतन एव गम्यते, न घटादिरचेतनः । तद्वदलोकेनापि टोकानुरुपेणेति । यस्मादाह "नयुक्तमिवयुक्तं वा यदि कार्य विधीयते । तुल्याधिकरणेऽन्यस्मिन् लोकेऽप्यर्थगतिस्तथा ॥" ॥२३०६॥ तम्हा धम्माऽधम्मा लोगपरिच्छेतकारिणो जुत्ता। इधराऽऽगासे तुल्ले लोगो'ऽलोगो ति को भेतो ? ॥२३०७॥ तम्हा गाहा । तस्मादलोकास्तित्वादवयं धर्माऽधर्माभ्यां तपरिच्छेदकारियों भवितव्यम् । अन्यथाऽऽकाशसामान्ये सति लोकोऽलोक इति विशेपो न स्यात ॥२३०७॥ लोगविभागाभावे पडिघाताभावतोऽणवत्थातो । संववहाराभावो संबंधाऽभावतो होज्जा ॥२३०८॥ लोग० गाहा । यदि हि धर्माधर्माभ्यां लोकविभागो न स्यात् , अतः खल्ववि शिष्ट एवाकाशे गतिमतामात्मनां पुद्गलानां च प्रतिघाताऽभावादनवस्थानम् । अतः सम्बन्धाभावात् सुखदुःखसम्बन्धमोक्षसंसारप्रक्रियासंव्यवहारो न स्यात् ॥२३०८।। णिरणुग्गहत्तणातो ण गती परतो जलादिव झसस्स । जो गमणाणुग्गहिता सो धम्मो लोगपरिमाणो ॥२३०९।। णिर० गाहा । अतो न लोक विभागपरस्ताद्गतिरात्मनः, निरनुग्रहत्वात् , मत्स्यस्येव जलात् परतः । यश्च गमनानुगृ(ग्रहीता स धर्मास्तिकायो लोकतुल्यमानोऽभिहितः ॥२३०९॥ अत्थिं परिमाणकारी लोगस्स पमेयभावतोवस्सं । णाणं पिव णेयस्साऽलोगत्थित्ते य सोऽवस्सं ॥२३१०॥ १ लोगालो त । २ 'मन्तः इति प्रतौ । ३ °हितो जे। ४ अत्थ त। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४६३ अस्थि गाहा। अस्ति हि लोकपरिमाणकारी, प्रमेयत्वात् , ज्ञेयज्ञानवत् । अथ. वात्मानः पुद्गलाश्च लोकोऽभिधीयते । तस्य परिमाणकार्यस्ति, प्रमेयत्वात्, स्थालिप्रस्थवत् । यश्चास्य परिमाता स धर्मास्तिकायः । स चावश्यमलोकास्तित्वे युक्त इति ॥२३ पैडणं पसत्तमेवं थाणातो तं च णो जतो छट्ठी । इध कत्तिलक्ख[१५२-द्वि०]णेयं कत्तुरणत्यंतरं थाणं ॥२३११॥ पडणं गाहा । आह-पतनधर्मा युक्तः, स्थानात, फलवत् । उच्यते -न, षष्ट्याः कर्तृलक्षणत्वादिह मुक्तस्थानमिति मुक्तोऽवतिष्ठत इत्युक्तं भवति । न तदर्थान्तरस्थानपरिकल्पनमिष्टम् ।।२३११॥ णभणिच्चत्तणओ वा थाणविणासपतणं ण जुत्तं से । तध कम्माभावातो पुणक्कियाऽभावतो वा वि ।।२३१२॥ णभ० गाहा । तदर्थान्तरस्थानतायामपि चाऽऽकाशनियावान्न पतनमनुरूपम् । कर्म चात्मनः क्रियाकारणम् । अकर्मा चासाविति न तद्धर्मा । न चास्य पूर्वप्रयोगादिकियाहेतुभिावसितप्रयोजनवाद भूयः : यननोदनाऽऽकर्षणगुरुत्वादिक्रियाकारणमस्ति यतः पतेत् ।।२३१२॥ णिच्चत्थाणातो वा बोमातीणं पडणं पसज्जेज्जा। अध ण मतमणेगंतो' थाणातोऽवस्सपतणं ति ॥२३१३।। णिच्च० गाहा । किञ्च स्थानात् पतनमिति विरुद्धमुच्यते । युक्तं तावदवस्थानात् पतनम्-एवं च नित्यस्थानादाकाशादीनां नित्यं पतनप्रसङ्गः । न चेत्, अने. कान्तः स्थानात् पतनमिति ॥२३१३॥ भवतो सिद्धो त्ति मती तेणातिमसिद्धसंभवो जुत्तो। कालाणातित्तणतो पढमसरीरं व तदजुत्तं २३१४॥ __ भवतो गाहा । स्यान्मतिः-यतो भवात् सिद्धिप्रसूति रतोऽवस्यमादिमत्वात् सर्वसिद्धानामादिमत्त्वसम्भूतिरन्वेषितव्या । तच्च न, अनादित्वात् कालस्यादिशरीरवत् । यथेह सर्वशरीराणामादिमत्त्वम् , अथवाऽनादित्वात्कालस्याऽनादिशरीरमस्ति, तद्वदादिसिद्ध इति ।।२३१४॥ परिमितदेसेऽणंता किध माता मुत्तिविरहितत्तातो। "णेयम्मि व णाणाई दिट्ठीओ वेगवम्मि ॥२३१५।। १ 'त्वाच्छालि' इति प्रतौ ।२ पयणं को हे। ३ तं न उ ज त। १ युक्तो-इति प्रतौ । ५ ज्ज जे । ६ गता हे को। ७ पडणं त को हे। ८° नामादिसर्वस' इति प्रती । ९ तवृत्ततच्च-इति प्रतौ । १० मादिसव्वमथ” इति प्रतौ । ११ णिय हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४६४] बन्ध-मोक्षसिद्धिः। ४११ परि० गाहा । आह-परिमिताकाशं निर्वाणमनुश्रयते, अनादिकाले च सिद्धसम्भूतिः । अतोऽनन्तत्वात् कथमवतिष्ठरस्त इति । उच्यते-नायं दोषोऽमूर्त्तत्वात् । तेषामेव प्रतिव्यमनन्तकेवलज्ञानदर्शनसम्पातवन्नर्तकीनयनविज्ञानसम्पातवद्वेति ॥२३१५।। ण हवइ ससरीरस्स प्पियऽप्पियावहतिरेवमादीणं । वेतपदाणं च तुमं ण सदत्थं मुणसि तो संका ॥२३१६॥ तह बंधे मोक्खम्मि य सा य णं कजा जतो फुडो चेय । ससरोरेतरभावो णणु जो सो बन्धमोक्खो त्ति ॥२३१७॥ ण ह वद गाहा । सौम्य, "न ह वै [स]शरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्त्यशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" इत्येषां च वेदपदानां न वाक्यार्थमवत्रुप्ते भवान् । अतः संशेते-किमिह बन्धमोक्षो स्यातां न वेति । न चेह संशयोऽनुरूपस्ते, यतो विस्पष्टमेवेदमुच्यते-सशरीरस्येति बाह्याध्यात्मिकानादिशरीरसन्तानमयो बन्धस्तथा, अशरीरं वा वसन्तमित्यशेपशरीरापगमस्वभावो मोक्ष इति ॥२३१६-१७॥ छिण्णम्मि संसयम्मि जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पाइतो अटे[१५३-०]हि सह खण्डियसतेहि ॥४६४||२३१८॥ छिण्णम्मि गाहा । ॥२३१८॥ ___ [पाठगणधरविवरणं समाप्तम् । ) [आचार्यश्रीजिनभद्रकृतं विवरण मितः परं नास्ति ।] १ वे जे। म त । चेव त को हे । ४ भवानन्तः-इति प्रती । , ढहिं को। “दिहिं हे। ६ इति पष्ठो गणधरवादः समाप्तः ।। त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ नमो वीतरागाय ॥ श्रीकोटयार्यवादिगणिकृतसंपूर्तिरूपेण विवणेरणेन सहित श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितं विशे षा व श्य क भा ष्य म्। निमय षष्ठगणधरवक्तव्यं किल दिवंगताः पूज्याः । अनुयोगमार्गदेशिकजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणाः ॥छ।। तानेव प्रणिपत्यातः परमवि(व)शिष्टविवरणं क्रियते । कोटयार्यवादिगणिनां मन्दधिया शक्तिमनपेक्ष्य ॥१॥ सङ्घटनमात्रमेतत् स्थूलकमतिसूक्ष्म विवरणपटस्य । शिवभक्त्युपतलुब्धकनेत्रवदिदमननुरूपमपि ॥२॥ सुमतिस्वमतिस्मरणाऽऽदर्शपरानुवचनोपयोगवेलायाम् । मददुपयुज्यते चेत् गृह्णन्त्वलसास्ततोऽन्येऽपि ॥३॥ अथ सप्तमस्य भगवतो गणधरस्य वक्तव्यतानिरूपणसम्बन्धनाय गाथाप्रपञ्चःते पवइते सोतुं मोरिओ आगच्छती जिणसगासं । बच्चामि ण वन्दामि वन्दित्ता पज्जुवासामि ॥४६५।।२३१९॥ आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरण विप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सबसन्बदरिसीणं ॥४६६॥२३२०॥ किम्मण्णे' अस्थि देवो' उदाहु णत्थि त्ति संसयो तुझं । वेतपताण य अत्यं ण याणसी तेसिमो अत्थो ॥४६७॥२३२१॥ तं मण्णसि णेरइया परतंता दुखसंपतत्ता य । ण तरंति इहागंतुं सद्धेया मुबमाणा वि ॥२३२२॥ सच्छन्दचारिणो पुण देवा दिनप्पभावजुत्ता य । जंण कताइ वि दरिसण वेन्ति तो संसयो तेसु॥२३२३॥ १ कि म को हे म । किं मन्नसि संति देवा उयाहु न सन्तीति संसओ तुझं । हा दी । २ देवा हे त म। ३ नुज्झ को हे। ४ संपउत्ता को है । ५ रितीहा को हे। ६ च्छंद को हे। ७ वेंति को हे। ८ तेसुं को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ विशेषावश्यकभाष्ये नि० ४६७ते पव्वइते सोतुं । आभट्ठो य। किम्मण्णे अत्यि देवो । तं मण्णसि णेर- . इया । सच्छन्दचारिणो पुण । गाहा । हे मौर्य पुत्र ! आयुष्मन् ! काश्यप ! त्वं मन्यसे नारकाः संक्लिष्टासुरपरमाधार्मिकायत्ततया कर्मवशतया [च] परतन्त्रत्वात्, स्वयं च दुःखसंतप्तत्वात् इहागन्तुमशक्ताः, अस्माकमप्यनेन शरीरेण तत्र गंतुं कर्मवशतयैवाशक्तत्वात् प्रत्यक्षीकरणोपायाऽसम्भवादागमगम्या एव श्रुतिस्मृतिग्रन्थेषु श्रूयमाणाः श्रद्धेयाः भवन्तु, ये पुनरमो देवाः, ते स्वच्छन्दचारिणः कामरूपाः दिव्यप्रभावाश्च किमिति दर्शनविषयं नोपयान्ति-किमिह नागच्छन्तीत्यभिप्रायः । अवश्यं न सन्ति, येनास्मादृशानां प्रत्यक्षा न भवन्ति । अतो न सन्ति देवाः, अस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वात् खरविषाणवत् । श्रूयन्ते च श्रुत्यादिषु । तत आगमप्रामाण्यादनुमानगम्यवाद्वा परमाण्वादिवत् कि सन्तीति एवं भवतो देवेषु संशयः । ॥२३१९-२३२३॥ मा कुरु संशयम् । अथादृष्टाश्रुतनामंगोत्राभिभाषण-हृदयस्वार्थप्रकटीकरणविस्मापनानन्तरं देवाभावप्रतिपादक हेतोरसिद्धतोद्भावना[/] प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धतां प्रकाशयन् भगवानाह मा कुरु संसयमेते 'मुद्रमणुयादिभिण्णजातीए । पेच्छसु पच्चक्खं चिय चतुविधे देवसंघाते ॥२३२४।। मा गाहा । मा काः संशयं देवसद्भावं प्रति संशयबीजहेतोरपक्षधर्मत्वात्, हेतुहेत्वाभासानां प्रायः प्रत्यक्षधर्मत्वात् ! अस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वं च देवानां धर्मों न भवति, यतः सम्प्रत्येव ममाग्रतश्चक्षुष्प्रत्यक्षसिद्धान् एतान् सुदूरमनुजादिभिन्नजातीयान्'-मनुजा(ज,तिर्यग्नारकाः, मनुजादयः, मनुजादिभ्यो भिन्नजातीया मनुजादिभिन्न जातीयाः सुदृरेण मनुजादिभिन्नजातीयानेतान् सुदूरमनुजादिभिन्नजातीयान् पश्य आयुष्मन् ! मौर्यपुत्र ! काश्यप : प्रत्यक्षमेव मुदितांश्चतुर्विधानापि 'देवसंघातान्' भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकान् । तवाप्येते प्रत्यक्षा इति असिद्ध हेतुत्वम् । ततश्चानैकान्तिकाभावः ॥२३२४॥ अथ मन्यसे सम्प्रत्येव मम चक्षुर्विषयमापन्नाः, पूर्वकालं तु नैवमिति तदनी संशयो युक्तरूप आसीदिति तन्निराकरणायापि भगवानाह पुव्वं पि ण संदेहो जुत्तो जं जोतिसा सपच्चक्खं । दीसंति तकता वि य उवधाताणुग्गहा जगतो ॥२३२५।। १ मगात्र-इति प्रतौ। २ ते दूरं म जे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४६७ ] देवसिद्धिः। पुर्व पि ण संदेहो जुत्तो गाहा । पूर्वमपि तदवस्थ(स्थि)तैवासिद्धतेति प्रदर्शयति-यतः ज्योतिष्काः प्रत्यक्षं दृष्टाः दृश्य[]ते च । ते च 'सन्ति, अनुग्रहोपघातकारित्वाद्राजादिवत् । तस्मात् पूर्वमप्ययुक्तः संशयः कर्तुम्, सर्वप्रत्यक्षत्वादेवजात्येकदेशस्येति अस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वमपक्षधर्मः । ततश्चानैकान्तिकाभावादयुक्तः संशय इति ॥२३२५॥ अथ चैवं भवतो बुद्धिः स्यात्-नैव ते ज्योतिष्का देवाः प्रत्यक्षमुपलभ्यन्ते, किन्तु विमानान्येतानि, आलयमात्रप्रत्यक्षत्वात्, न तन्निवासिनो देवाः प्रत्यक्षा भवन्तीत्यभिप्रायः । तत इयं गाहा-. आलयमेत्तं च मती पुरं व तव्यासिणो तध वि सिद्धा । जे ते देव त्ति मता ण य णिलया णिच्चपरिमुण्णा ॥२३२६॥ आलयमेत्तं च मती इत्यादि । आलयमात्रप्रत्यक्षसिद्धेरपि तन्निवासिप्रत्यक्षत्वं सिद्धमेव । तद्यथा-य एते प्रत्यक्षा आलयाः-यान्येतानि विमानानीत्यर्थः, ते कदाचित् कस्यचित् प्रत्यक्षाधिष्टातृकाः, विद्यमानाधिष्ठातृकाः, सस्वामिका वा इत्यादयः साध्यधर्माः, आलयत्वात्, पाइलिपुत्रादिपुरवत् । आलय इति सम्बन्धिशब्दत्वाद्वा, शकुन्ताद्यालयवत् । एवमालयमात्रत्वात् साकाङ्क्षायां तदालयवासिनः 'तद्वासिनः' तथापि सिद्धाः । आलयमात्रप्रतिपत्त्यैव 'ये' च ते तद्वासिनस्तदधिष्ठायिनः सामान्य मात्रसिद्धत्वात् 'ते' एवं 'देवाः' इति 'मताः' अभ्युपगताः । शून्यपुरेणानै कान्तिकत्वमाशङ्कमानः स्वयमेवाचायों विशेषणमुपादत्तेऽर्थतः, यस्मादेवमाह-"ण च णिलया णिच्चपरिसुण्णा" नित्यशून्या न भवन्ति निलया इत्यर्थः । कदाचिद् कस्यचिद् प्रत्यक्षाधिष्ठातृका इति (विशेषणान्नानैकान्तिकः ॥२३२६॥ अथ सन्दिग्धासिद्धत्वं हेतोश्चोघेतको जाणति - किमेतं ति भोज्न णिसं[१५३-द्वि]सयं विमाणाई । रतणमय-णभोगमणादिह जध विज्जाधरादीणं ॥२३२७॥ को जाणति व इत्यादि । अथैवं यात्-को जानाति किमेतदिति भवेत् । आलय इति पुंल्लिङ्गे प्रक्रान्ते सन्दिग्धासिद्धचोदनाख्यापनार्थमव्यक्ते गुणसन्देहे नपुंसकलिङ्गं प्रयुज्यते । तस्मात् किमेतदित्युक्तम् । किमेते आलयाः चन्द्रसूर्यबिम्बादयः, आहोस्वित् सूर्योऽग्निमयो गोलकः, चन्द्रोऽम्बुमयः, स्वभावतः स्वच्छ इति गोलकावेतौ, आहो १ च सत्त्वानु-इति प्रतौ । २ व जे। ३ य त । ४ होज को हे। ५ जाणदि-इति प्रतौ । ६ गोलब्धश्चन्द्रो-इति प्रती । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४६७ स्विन् मायैव । सन्दिग्धासिद्धश्च न दूषणमेव, पुनः साधनापेक्षत्वादिति साधनमभिधीयतेनिःसंशयं विमानान्येतानि गोलका दिपरिकल्पितानि रत्नमयानि, [रत्नमयत्वे सति ] नभोगमनात् । रत्नमयत्वे सति नभोगमनादिति वाध्वभ्रादिनाऽनैकान्तिकत्वव्यावृत्त्यर्थं सविशेषणो हेतु । यथा प्रसिद्ध विद्याधराद्याश्रयाः - विद्याधरतपः सिद्धादयः आदिग्रहणात् । यथा तेषामाश्रयाः विमानानि पुष्पकै त्रिपुरादीनि तथैतान्यपीति ॥ २३२७॥ अथान्यतरासिद्धत्वमाशङ्क्येत परेण - होज्ज मती माएयं तथा वि तकारिणो सुरा जे ते । णय मायादिविकारा पुरं व णिच्चोवलंभांतो ||२३२८|| होज्ज मती माएयमित्यादि । नैवैते आलया इत्यसिद्धः । किं तहिं ? मायेयं मायाविदा केनापि प्रयुक्तेति । 'तथापि ' अभ्युपगम्य ब्रूमः मायात्वेऽपि सिद्धेsपि । माया सकर्तृका, भावत्वात् दृश्यत्वात् कुम्भवत् । ये च ते मायाकारिणः साधितास्त एव सुरा इति प्रतिपत्तव्याः । एवंविधवैक्रियकरणसामर्थ्यात् प्रसिद्धमेव तत्कारित्वमिति सामर्थ्यवादाभ्युपगमः । अथ परमार्थचिन्तयोच्यते नैते मायाविकारा आलयाः, सर्वेण सर्वदा सहश्य(शमुपलभ्यमानत्वात्-नित्योपलम्भादित्यस्यार्थः, प्रसिद्धपुरवत् । गन्धर्वनगरादिव्युदासार्थं नित्यशब्दोपादानम् ॥ २३२८|| अथ तदभ्युपगतनारकदृष्टान्ते [न] देवास्तित्वप्रतिपादनार्थमुच्यते गाथाजति णारगा पत्रष्णा पैकि पार्वफलभोगिणो तेणं । सुबहुगपुण्णफलभुजो पवज्जितव्त्रा सुरगणा वि ॥ २३२९॥ जति णारगा पवण्णा इत्यादि । यदि स्वयं कृतप्रकृष्टफलपापभोगिनः स्वयं पक्को (क्वौ) दनवर्द्धितकभोगि पुरुषवत् 'नारकाः त्वया प्रतिपन्नाः । नन्वेवमनयैवोपपत्त्या तद्विपर्ययः सुबहुपुण्यफलभुजः सुरगणा अपि प्रतिपत्तव्याः, स्वकृत कर्मफलभोगित्वात्, नारकवत् ॥ २३२९॥ एवं विद्यमानाः किमिह नागच्छन्तीत्य नागमनकारणमुच्यन्ते (ते) - संकेतदिव्वेपेम्मा विसयपताऽसंमत्तकत्तव्या । अणधीणमणुअकज्जा णरभवमहं ण एन्ति सुरा ||२३३०॥ १ कतृपु - इति प्रत । २ विगारा को हे। ३ 'लम्भाओ हे । ४ व्युपदा' इति प्रतौ । ५ पग को है । पडिक त । ६ पावकफ को । जदि इति प्रतौ । ८ कारिकाः इति प्रतौ । ९ व्वपिम्मा हे । १० 'पसत्था Jain Educationa International 2 त । ११ सुभं णं हे को। For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४६७] देवसिद्धिः। संकंवदित्वपेम्मा इत्यादि । इह नागच्छन्ति सुरगणाः, संक्रान्तदिव्यप्रेमत्वात् , विषयप्रसक्तत्वात्, प्रकृष्टरूपगुणा(ण)विज्ञानस्त्रीप्रसक्तविशिष्टदेशान्तरगतमनुष्यवत् । असमाप्तकर्तव्यत्वात् , बहुकर्त्तव्यताप्रसाधनप्रयुक्तविनीतपुरुषवत् । अनधीनमनुजकार्यत्वान्नारकवत् । अभ्युपगता मोक्षस्य सिद्धवत् । द्वीपान्तरस्थतिर्यगादिवत् । मनुजैः कार्य मनुजकार्य अनधीनं मनुजकार्य येषां ते अनधीनमनु जकार्या इति समानाधिकरणपदो बहुवीहिः-मनुजानधीनकार्यत्वादित्यर्थः । एवमशुभत्वान्नरभवस्य, तद्गन्धाऽसहिष्णुतया 'सुरा' सुरगणा नागच्छन्ति, कडेवरमिव हंसाः ॥२३३०॥ अथ कादाचि काऽऽगमनकारणनिरूपणाय गाथाणवरि जिणजम्म-दिक्खा केवल-णेव्वाणमहणियोगेणं । भत्तीय सोम्म ! संसयवोच्छेतत्थं व एज गहुँ ॥२३३१॥ ‘णवरि जिण० इत्यादि । नवरमिति निपातसंघातो रूढिशब्दः सम्भावनायामर्थे । बहून्यनागमनकारणानि, नवरं सम्भाव्यताऽऽगमनं भगवदहद्भक्त्या सुरेन्द्राणां तदनुवृत्त्यधीनतया जिनानां जन्ममहनियोगेन लोकस्थित्यनुभावप्रवर्तितेन । तथा जिनानामेव दीक्षामहनियोगेन । एवं केवलमह-निर्वाणमहनियोगेनेति । जिनशब्दो महशब्दश्च प्रत्येकं सम्बन्धनीयाः(यः)। सौम्येत्यामन्त्रणं मौर्यपुत्रस्य । मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयसम्बन्धिनां तेषु जीवादिपदार्थविचारेषु ज्ञानावरणोदय-दर्शनमोहनीयोदयवशात् संशय उत्पन्ने संशयव्यवच्छेदार्थ वा केवलमनःपर्यायावधिप्रकृष्टातिशयश्रुतज्ञानसम्पन्नानगारसमीपमागच्छेयुरिति आशंसायां सम्भावनायां लिट् ॥२३३१॥ अथवा कश्चित् पुरुषविशेष तिर्यञ्चं नारकं वा प्रतीत्यपुव्वाणुरागतो वा समयणिवेन्धा तवोगुणातो वा । णरगणपीडाणुग्गहकंदप्पादीहि वा केयि ॥२३३२।। पुवाणुरागतो वा इत्यादि । पूर्वस्मिन् भवे रागः प्रीतिः पूर्वानुरागः, तस्माद्वा कारणात् पूर्वानुरागवशतः । 'समयः' संकेतः. तेन निबन्धनं निबन्धः व्यवस्था समयनिबन्ध उच्यते । सोऽपि पूर्वभव एवेति पूर्वशब्दोऽनुकृप्यते । पूर्वसमयनिबन्धनात् कारणात् । तपसो गुणः प्रभावः तपःप्रभावाद्वा समाकृष्टा आगच्छेयुः । पीडा १ मा ग' इति प्रतौ । २ तिर्युगा इति प्रतौ । ३ °ल-निव्वा को हे। ५ भत्ती, को, भत्तीए हे। '५ 'यविच्छे को हेत। ६ स्थं च एजण्हु त । ७ एजण्हा को, एजहण्हा हे । ८ णवर जिणस्स इति प्रतौ । ९ °बद्धा जे । १० रगुण त । ११ पाईहिं को हे। १२ केई को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४६७चानुग्रहश्च कन्दर्पश्चेति द्वन्दः-नरगणानां पीडानुग्रहकन्दर्पाः । आदिग्रहणात् कौतुकलौल्यादीनि । तेभ्यो वा कारणेभ्यः केचिदागच्छेयुरिति सम्बन्धनीयम् ॥२३३२॥ अथ देवास्तित्वानुमानप्रतिपादनोपपत्तिसमूहप्रदर्शनाय गाथायुगलम्जातिस्सरकवणातो कासइ पच्चक्खदरिसणातो य । विज्जामंतोवायणसिद्धीतो गहविकारातो ॥२३३३॥ उक्किहपुण्णसंचयफलभावातोभिधाणसिद्धीतो। [१६४-०]सव्वागमसिद्धीतो य सन्ति देव त्ति सद्धेयं ॥२३३४॥ . जातिस्सरकधणातो इत्यादि । उक्किटपुण्णसंचय० इत्यादि । सन्ति देवा इति श्रद्धेयमेतद्वाक्यमिति अन्तदीपकं प्रतिज्ञावचनम् , जातिस्मरकथनादयोऽर्थ(त्र) हेतवः । क्रमेण यथायोगं अत्र 'प्रतिज्ञा हेतू विरचय्य दृष्टान्ता अनूध प्रयोगा वक्तव्याः । अत उच्यते-सन्ति देवा इति श्रद्धेयमेतत्, जातिस्मरा दिप्रत्ययितपुरुषकथितत्वात् , नानादेशविचारिप्रत्ययितदृष्टकथितालक्षितमत्स्यमनुजनगरदेवदेवकुलादिसद्भाववाक्यवत् । तथा कस्यचित्तपःप्रभावादिमतः प्रत्यक्षेण दृष्टत्वात् सिद्धादेशफलवत् । तथा विद्यामन्त्रोपयाचनसिद्धेः फलेनानुमितत्वात, राजादिप्रसादीकृतफलदर्शनानुमितराजादिसम्भववत् । तथा ग्रह विकारादिति प्रयोगः- अस्त्ययं ग्रहाधिष्ठितपुरुषः तज्जोकव्यतिरिक्तादृश्याधिष्ठातृकः, पुरुषाऽसम्भाव्यक्रियाविकारित्वात् , यन्त्रयतिरिक्ततक्रिया कारिपुरुषवत् । द्वितीयगाथायाः प्रयोगवाक्यम्-दानदमदयादि क्रियासंचितोत्कृष्टपुण्यसञ्चयफलं विशिष्टमाहात्म्यभोक्तृकं, फलत्वात् राज्यादिफलवत् । विशिष्ट माहात्म्याश्च भोक्तारः पुण्यसञ्चयफलस्य सन्ति देवा इति प्रमाणफलम् । तथा देवा इत्यभिधानसिद्धेरनुमानमनन्तरगाथायां व्यक्तीकरिष्यते । ततश्च न सन्ति देवा इत्यनुमानविरोधः । सर्वागमसिद्रितश्च देवसद्भावात् न सन्ति देवा इत्यागमविरोधः । ते चागमा वेदवादिनः श्रुतिस्मृतिसंवादिनः सांख्यवैशेपिकादयः प्रमाणम् ॥२३३३-३४॥ तथाभिधानसिद्धेरित्यस्य गाथावयवस्य प्रसङ्गःदेव त्ति सत्थयमितं सुद्धत्तणतो घडाभिधाणं व । अधव मती मणुओ च्चिय देवो गुणरिद्धिसंपण्णो ॥२३३५॥ १ तोपाय त । २ विगार' को हे । ३ 'सिद्धीउ हे । ५ संति को हे । ५ करणा इति प्रतौ । ६ प्रयोगहे-'इति प्रतौ । ७ प्रयोगोस्यायं-इति प्रतौ । ८ मिदं को है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४६७ देवसिद्धिः । देव त्ति सत्थयमित इत्यादि । देवा इतीदं पदं धर्मि । सार्थकमिति साध्यधर्मः । शुद्धत्वादिति हेतुः । समासतद्धितवृत्तिविरहाच्छुद्धपदत्वं हेतुः पक्षधर्मः । घटाभिधानवदिति साधर्म्यदृष्टान्तः । ततश्च देवशब्दः स्वर्गनिवासिविशिष्टपुण्यफलभोजिजीवार्थेन सार्थक इति । एतावता न सिध्यतीत्याशङ्कां परकीयामुत्प्रेक्ष्याचार्य एवाभीप्टार्थसिद्धसाधनाभिप्रायेण परवचनमुपन्यस्यति-अथवा भवतो बुद्धिः-दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारयुतिस्तुतिगतिपु, दीव्यतीति देवः प्रतिविशिष्टैश्वर्यक्रीडादिगुणर्द्धिसम्पन्नः कश्चिन् मनुज एव राजादिदेवशब्दाभिधेयोऽस्तीति तेन सार्थकत्वात् देवशब्दस्य सिद्धसाधनमिति प्रमाणफलाभावात् असाधनमिद मिति ॥२३३५।। तप्रतिविधानाय सविशेषणसाध्यधर्मोपन्याससूचनी गाथातं ण यतो तच्चत्थे सिद्धे उपयारतो मता सिद्धी । तच्चत्थसिंह सिद्ध माणवे सिंघोवयारो व ॥२३३६।। तंण यतो तच्चत्थे इत्यादि । सत्यम् , राजादयः क्रीडादिगुणदर्शनादेवा उच्यन्ते । अन्यांस्तथ्यार्थपरमार्थे वयद्युतिक्रीडागुणातिशययुक्ताम(न)भिसमीक्ष्य किश्चित् साधा त्] देवा इव राजादय उपचारात् । यथा परमार्थसिंहे सिद्धे शौर्यक्रौर्यगुणमभिसमीक्ष्य तत्साधान् मनुजेऽपि कस्मिंश्चित् सिंहशब्दो लोकेन प्रयुज्यते, तयेहापि तथ्यार्थ सिने परमार्थदेवे औपचारिक राजादिषु देव-वमिति । अनुपचरितविज्ञानमात्रं व्यतिरिच्य बाह्यार्थनाऽर्थवान् देवशब्द इति सविशेषणसाध्यधर्मत्वान्न सिद्ध. साधनम् । अथवाऽन्यदेव प्रमाणं-मुख्येनार्थनार्थवान् देवशब्दः, न तुल्ये कचित् , उपचर्यमाणत्वात् शौर्यादिगुणयोगात् माणवके सिंहशब्दवत् ॥२३३६।। न सन्ति देवा इति प्रतिज्ञायाः परस्याभ्युपगमविरोधं दर्शयन्नाहदेवाभावे वे फलं जमग्गिहोत्तादियाण किरियाण । सग्गीय जण्णाण य दाणातिफलं च तदयुत्तं ॥२३३७।। जम-सोम-सूर-सुरगुरुसारज्जादीणि जयति जंण्णेहि । मंतावाहणमेव य इन्दादीणं विधा सव्वं ॥२३३८।। देवाभावे वै फलमित्यादि । जम-सोम इत्यादि च गाथायुगलं देवाभावे वा देवनास्तित्वप्रतिज्ञायाम् । वाशब्दः पूर्वविकल्पान्तरप्रदर्शनार्थः । “अग्निहोत्रं जुहुयात् १ मिदं-इति प्रतौ। न जओ त को । न जर त हे । ३ सीह को हे त। ४ वसीहोव' को हे त । '५ विफल हे त। बि फल को। ६ 'याणं हे को। ७ 'ग्गीयज' को। ८ दजुत्त को हे । ५. जण्णेहिं को हे। १. इंदा' को हे। ११ चार्फइति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४६८स्वर्गकामः' इत्येतच्छ्रतिवाक्यं देवास्तित्वे सफलं भवति । न च वेदवादिनः श्रुतिरप्रमाणम्, स्वर्गीयफलानामग्निहोत्रा दिक्रियाणां नियमेनानुष्टीयमानत्वात् । तत्फलं देवास्तित्वं सूचयति । तथा यज्ञानां च दानादिफलं देवाभावप्रतिज्ञायामयुक्तम् । परस्य वेदवादिनः यत्तदिदं वाक्यं श्रूयते "स एष यज्ञायुधी यजमानोजसा स्वर्गलोकं गच्छति" इति, तथा "काश्यैश्च क्रतुभिः यमराज्यमग्निष्टोमेन यजति", तथा "उक्थं पोडशप्रभृतिक्रतुभिर्यथाश्रुतिसोमसूर्य मुरगुरुस्वाराज्यानि जयति” । “सयूपो यज्ञः क्रतुः, विना यूपेन दानादिक्रिया भिर्यज्ञ एव" । एवमादीनि श्रुतिवाक्यानि देवास्तित्वसूचकानि । तथा मन्त्रैराह्वानमिन्द्रादीनां देवास्तित्वे भवति-"इन्द्र आगच्छ नखि आगच्छ मेधातिथे मेपवृषण" इत्यादि । अन्यथा देवनास्तित्वाभ्युपगमे वृथा-अकृतार्थ सर्ववेदवाक्यं भवतीत्यभ्युपगमविरोधः । तस्मात् सन्ति देवा इत्येतदभ्युपगम एव श्रेयान् ।।२३३७-३८॥ एवं चोपपत्तिभिरागमेन चछिण्णम्मि संसयम्मि जिणेण जरमरणविप्पमुक्कणं । सो समणो पाइतो अहि सह खंडियसएहि ॥४६८॥२३३९॥ एवं सप्तमस्य गणधरस्य मौर्यपुत्रस्य वक्तव्यता निणीता ॥२३३९।। अथाष्टमगणधरवक्तव्यतानिर्णयार्थ सम्बन्धकथनगाथा---- ते पवइते सोतुं अकंपिओ आगच्छती जिणसगासं । बच्चामि णं वन्दोमि वन्दित्ता पज्जुवासामि" ॥४६९॥२३४०॥ आभट्ठो य जिणेणं जाति जरामरणविप्पमुक्केणं । णागेण य गोत्तेण य सव्यण्णसव्वदरिसीणं ॥४७०॥२३४१॥ किं मण्णे णेरइया अतिधे [व] णथि त्ति संसयो तुझं । वेतपताण य अत्थं ण याणसी तेसिमो[१५४-द्वि०] अत्यो॥४७१॥२३४२।। तं मण्णसि पच्चक्खा देवा चन्दातयो तधण्णे वि । विज्जामंतोवायणफलाईसिद्धीएँ गम्मति ॥२३४३।। १ सूत्रनानि-इति प्रतो । २ रेवीतषो-इति प्रती । ३ नंमि हा म दी । ५ यम्मी को दी हे त । यमी हा म ५ जाइजरामरण म । ६ अहि को। छुट्टहिं हा म । धुहिं दी। ७ टेहि ख म । ८ पवइए को। ९ छइ को म। १० वचमि को। ११ वंदामी को हे त हा म दी। १२ वंदि' को हे हा म दी । १३ °सामि को हे त हा म दी। १५ आभट्टो य जिणेणं-इत्येवांशो जेप्रती । 1. अन्थी म । १६ न अस्थि हा दी। १७ फलायं जे। १८ 'द्वाएँ को। द्धाइ त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ नि० ४७१] गणधरवादे नारकसिद्धिः। ते पव्वइते गाहा । आभट्ठो य० । किं मण्णे णेरइया । तं मण्णसि पच्चक्खा । हे अकंपित आयुष्मन् गौतम ! त्वं मन्यसे प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धाश्चन्द्रादयोऽन्ये वाऽदृष्टा अपि विद्यामन्त्रोपयाचनफलदर्शनानुमानसिद्धा देवाः सन्तीति गम्यते ॥२३४०-४३।। जे पुण मुतिमेत्तफला णेरइय त्ति किध ते गहेतव्या । सक्खमणुमाणतो वाऽणुवलंभा भिण्ण जातीया ॥२३४४॥ जे पुण मुतिमेत्तफला गाहा। ये पुनर्नारका इत्यभिधानमात्रश्रुतिरेव फलं येषां न शब्दव्यतिरिक्तार्थस्ते कथं सन्तीति ग्राह्याः ? अतस्तदभावप्रतिपादनाय प्रमाणम्-न सन्ति नारकाः, साक्षादनुमानतो वाऽनुपलभ्यमानहेतुत्वादित्यर्थः । सामान्यपुरुपेन्द्रियकप्रत्यक्षानुपलभ्यमानत्वादित्यभिप्रायः ॥२३ ४४॥ अथैत घणं विरुद्धाव्यभिचार्यनैकान्तिकत्वेनासिद्धत्वोद्भावनेन चेति गाहामह पञ्चक्खत्तणतो जीवादीए य णारए गेहै । किं जं सप्पच्चवखं तं पच्चक्खं णवरि एक्कं ॥२३४५॥ मह गाहा | भगवानाह-विद्यमानानुपचरितबाह्यार्थो नारकशब्दः, मया प्रत्यक्षदृष्टत्वात् जीवाजीवादिशब्दवत् । एवं नारका स्तित्वसाधनं प्रति प्रमाणेनानेन विरुदाव्यभिचारिता । पूर्वप्रमाणस्यासिद्धादिदोषदुष्टवादसाध्यसाधनत्वादनेनैवानुमानविरोधः । अथवा साक्षादनुपलभ्यमानत्वात् खपुष्पवत् भिन्नजातीया देवेभ्य इति । देवेति [वै]धर्म(H)दृष्टान्तः । साक्षादनुपलभ्यमानत्वादित्यन्यतरासिद्धहेतुता ममैते केवलज्ञानप्रत्यक्षत्वान्नारकाः प्रत्यक्षाः, भवतस्त्वप्रत्यक्षाः नारकाः । अयं च ते दुरभिप्रायो कंपित ! सौम्येति काका प्रश्नेनैव परपक्षनिराकरणम् । किं यत् स्वप्रत्यक्षं तदेव नवरमेकं प्रत्यक्षम् , अन्यस्य प्रत्यक्षं न भवतीति दुष्टच्यते ॥२३४५॥ यतः जं कासइ पच्चक्खं पच्चक्खं तं पि घेप्पते लोए । जध सीहातिदरिसणं सिद्धं ण य सव्वपच्चक्खं ।।२३४६॥ जंकास० गाहा। यत् कस्यचित् प्रत्यक्षं तदपि लोके प्रत्यक्षमेव, केनचिद् दृष्टत्वात् , दूरदेशवर्तिसिंहादिवत् । तस्माद् भवदादीनामप्रत्यक्षा अपि नारकाः मम प्रत्यक्षा इति सिंहादिनिदर्शनेन भवतामपि प्रत्यक्षा इत्युभयाऽसिद्धः प्रत्यक्षतोऽनुपलभ्यमानत्वहेतुः ॥२३४६॥ १ वाईय व्य णा' को हे त । २ गिण्ह हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४७१अथवा इन्द्रियातीतकेवलप्रत्यक्षस्यासिद्धत्वोद्भावनदुरभिप्रायज्ञापनाय काक्वा प्रश्नगाहा अधवा जमिन्दियाणं पञ्चक्खं किं तदेव पच्चक्खं ।। उवयारमेत्ततो तं पच्चक्खमणिन्दियं तच्चं ॥२३४७॥ अथ यदिन्द्रियाणां प्रत्यक्षं किं तदेवैकं प्रत्यक्षम्, अन्यदतीन्द्रियं प्रत्यक्षमेव न भवतीति दुरभिप्रायोऽयम् । नानेनासिद्ध तोद्भावयितुं शक्या । उपचारप्रत्यक्षं हीन्द्रियप्रत्यक्षमित्यस्यार्थस्य साधयिष्यमाणत्वात् । परमार्थप्रत्यक्षं त्वनिन्दियं तत्त्वं केवलज्ञानमेव, यत इन्द्रियाण्यनुपलम्भकानि मूतादित्वात् , आदि ग्रहणादचेतनत्वात्, कुम्भवत् । उपलम्भद्वाराणि तु जीवस्योपलव्धुर्गवाक्षवत् , गेहस्थपुरुषस्येति ॥२३४७॥ तत्प्रतिपादिनी गाथा-- मुत्तातिभावतो णोवल द्धि मन्तिन्दियाइ कुंभी व्य । उपभदाराणि तु ताई जीवो तदुवलद्धा ॥२३४८।। मुत्ताति गाथा गतार्था ।।२३४८॥ अथवा अन्य प्रमाणम्-इन्द्रियेभ्यो भिन्नो ज्ञाता जीवः, तदुपरमेऽपि तद्द्वारोपलब्धार्थस्मतत्वात्, तद्व्यापारेऽपि चान्यमनस्कस्यानुपलम्भात् पञ्चगवाक्षद्वारोपलब्धि(धा) पुरुष इव गवाक्षेभ्यः । एतत्प्रतिपादनीयं गाथा--- तदुवरमे वि सरणतो तव्यावारे विणोवलंभातो । इन्दियभिण्णो णाता पंचगवक्खोवलद्धा वा ॥२३४९॥ तदुवरमे गाथा भावितार्था ।।२३४९॥ अथानिन्द्रियज्ञानप्रकाशनाय गाथाजो पुण"अणिन्दियो च्चिय जीवो सापिधाणविगमातो। सो सुबहुअं विजाणति अवणीतघरो जघा दट्ठा ॥२३५०॥ जो पुण गाहा । यः पुनरनिन्द्रिय एव क्षायोपशमिकभावेन्द्रियापर्गमात् क्षायिकभाववर्ती जीवः शुद्धः सर्वावरणप्रक्षयात् स सेन्द्रिय जीवात् सुबहु विजानाति यावत् ज्ञेयमित्यर्थः, विगतसर्वापिधानत्वात् । अपिधानमावरणमित्यर्थः । पञ्चगवाक्षगृहस्थ १ मिदि' को हे। २ णिदि' को हे । ३ तत्थं हे । ४ याजमि-इति प्रतौ । ५ मंतिदियाई को हे । ६ कुम्भो को। ७ उ को। नोपलभ्यत हेप्रती । ८ अथ बाह्यत्प्र इति प्रतौ । १. लब्धत्वात्- इति प्रती। १० इंदि' को हे। १३ 'अणिदि' को । 'अणिदिउ हे। १२ सव्वपि' को हे। सव्वपित । १३ पुनरिन्द्र' इति प्रतौ । १४ गमा च इति प्रतौ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४७१] गणधरवादे नारकसिद्धिः । ४२३ पुरुषादपनीतगृहाकाशस्थद्रप्टपुरुषवत् । निरावरणत्वादसौ सर्वदिग्विदिक्संस्थितार्थान् सुखेनैव पश्यति, सुबहूश्च पूर्वस्मात् सावरणात् पुरुषादिति । इन्द्रियाण्यन्तरेणापि ज्ञानसम्भव इति लोकेऽपि दृष्टम् , स्वप्ने निरुद्धाक्षमनःक्रियाणां ज्ञानं स्फुटं स्वानुभवेन सिद्धम् ॥२३५०॥ आत्मा न चेत्तत्परिणामहेतुः स्वान्नेन्द्रियार्थ न च तत्कुतोऽस्तु (?) । अथवा न प्रत्यक्षमिन्द्रियज ज्ञानं धर्मान्तरेणानेकरूपज्ञेयस्य विशिष्टमात्रग्राहित्वात् कृतकत्वसामान्यधर्मानुमित कुम्भानित्यत्वमात्रसामान्यधर्मज्ञानवत् । एतदर्थमियं गाथा-- [१५५-५०]ण हि पच्चक्खं धम्मंतरेण तद्धम्ममेत्तगहणातो । कतर्कत्ततो वे सिद्धी कुम्भाणिवत्तमेत्तस्स ॥२३५१॥ ण हि पच्चक्खं । इन्द्रियाणि हि परप्रवादिनां केषाञ्चित् प्रकृतिविकाराहंकारनिष्पन्नानि, केषाञ्चिद् पस्कन्धस्य कश्चित् प्रतिविशिष्टः प्रसादः, सर्वेषां मूर्तानि, आत्मनः पृथग्भूतानि, अचेतनानि । तानि च करणानि स्वविषयपरिच्छेदात्मकानि । विषयाश्चक्षुरादीनां रूपादयः । तज्जं च प्रत्यक्षलक्षणमनेकधा--"इन्द्रियार्थसन्निकर्षोंत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमयभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्" [न्या० १. १. ४ । तथा "श्रोत्रादिवृत्तिः प्रत्यक्षम्" वार्षगण्यः । “सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षम्' [मी० १. १. ४] । तथा "यद् ज्ञानमर्थे रूपादौ विशेषेणाभिधायकाभेदोपचारद्वारेणाविकल्पकं तदसाधारणकारणत्वादक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षम्" । अक्षाणि चेन्द्रियाणि केनचिदंशेन शक्तिरूपेण धर्मेण स्वविषयं परिच्छिन्दन्ति, न सर्वधर्मैः सत्त्वद्रव्यत्वभौतिकत्वादिभिर्विद्यमानैरपि । रूपादेरनेकधर्मणः किञ्चिदेकं धर्ममव्यपदेश्यमसाधारणं केषाञ्चित् कल्पनापोढत्वादविकल्पकम्, स्वरूपविकल्पेन स्वसंवेद्येन विकल्पकम् , परिच्छिन्दन्ति, न सर्वैर्धमै : सर्वव्यत्वादिभिर्यत उक्त "अनेकधर्म गोऽर्थस्य नेन्द्रियात् सर्वथा मतिः । स्वसंवेद्य[म निर्देश्यं रूपमिन्द्रियगोचरः ॥१॥" [प्रमाणसमुच्चय-१. ५] तस्माद्धर्मान्तरेण शक्या(शौक्ल्या)दिना रूपादेरसाधारणधर्ममात्रस्य ग्राहीणीन्द्रियाणि तज्ज्ञानं चेति पक्षधर्मः, धर्मान्तरेण तद्धम्ममेत्तगहणाओ । पश्चाईन दृष्टान्तः कृतकत्वादिवत् कुम्भानित्यत्वमात्रस्य या सिद्धि: उपलब्धिः, सा यथा न प्रत्यक्षम् , एवमिन्द्रियजज्ञानमित्युपसंहारः ॥२३५१॥ अथवा १ णाम-इति प्रतौ। २ अत्र ‘हेतुः स्यादिन्द्रियार्थज्ञानं कुतोऽस्तु' इति वाच्यं स्यात् ३ कतगत्त को हे । ४ व्य को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाप्ये [नि० ४७१पुचोवलद्धसंबंध सरणतो वाऽणलो व्च धृमातो । अधव णिमित्तंतरतो णिमित्तमक्खस्स करणाई ॥२३५२॥ 'पूर्वोपलब्ध' इत्यादि । न प्रत्यक्षमिन्द्रिय नं पूर्वोपलब्धसम्बन्धस्मरणादुपजायमानावात् , धूमादनलज्ञानवत् अन्यनिर्दिष्ट हेतुजमिति । अनुमानं द्विविधं यच्चानुमेये तदवधारणं ज्ञानं प्रत्यक्षज मानुमानिकं वा । यच्च तस्यैव साध्येनाविनामावित्वस्मरणम् । तदेवं साक्षात् पारम्पर्येण वानुमितिकारणत्वादुभयमप्यनुमानम् । एवं च साध्यसाधनधर्मानुगमः प्रदर्शितो भवति । ननु धर्मिणीन्द्रियजज्ञाने पूर्वोपलब्धसम्बन्धस्मरणादुपजायमानत्वमसिद्धत्वादपक्षधर्मः । उच्यते - न, वस्तुस्वरूपानवधारणात् । यथावस्थितवस्तुस्वरूपं ह्येकान्तवादिभिर्नावगम्यते, यतश्चक्षुरादिद्वारेणापि भवति घटो नामैवविध इति पूर्वविदितेनैव समयेन अपि च घटमध्यवस्यति । न ह्यनभिज्ञो घटमवैति । एवं रूपग्रहणेऽपि पूर्वविदितेनैव समयेन तासम्बन्धस्मरणोत्तरकालं रूपमिदमिति परिच्छेदः, स्वरूपकल्प. नायाः अप्रतिषिद्धत्वात् । बालदारको हि जातमात्रः चक्षुःप्रणिधानेऽपि रूपमिदमिति वा न परिच्छिनत्ति, अविदितसमयत्वात् , पूर्वोपलब्धस्मरणाभावात् । अतः चक्षुरादिज्ञानेऽपि पूर्वोपलब्धस्मरणमेव कारणमिति सिद्धः पक्षधर्मः । शंषं दृष्टान्तस्वरूपं भावि. तमेव । अथ चान्यत् प्रमाणं गाथापश्चाद्धेन प्रकाश्यते-न प्रत्यक्षमिन्द्रियजज्ञानं आत्मनो निमित्तान्तरादुपजायमानत्वात्, धूमानिमित्तादग्निज्ञानवत् । आत्मनश्चाक्षशब्दवान्यस्य निमित्तान्तरमिन्द्रियाणि करणानि । तेभ्यो ज्ञानस्योपजायमानत्वादिति पक्षधर्मः । अग्निज्ञानादपि धूमो निमित्तान्तरमेवेति साध्यसाधनानुगमनम्, एवमिन्द्रियप्रत्यक्षस्याप्रत्यक्षत्वात् ॥२३५२॥ केवलमणोधिरहितस्स सव्वमणुमाणमेत्तयं जम्दा । णारगसब्भावम्मि य तदस्थि जं तेण ते संति ॥२३५३।। केवलमणोधिरहितस्सेत्यादि । केवलमिति सर्वप्रकारं निरावरणज्ञानम् । मनोग्रहणेन मनःपर्यायज्ञानम् । अवधिग्रहणेनावधिज्ञानम् । एतत्त्रितयविरहितस्याभिनिबोधिकश्रुतज्ञानिनः परोक्षज्ञानस्य सर्वज्ञानमनुमानमात्रकमेव यस्मात् , तस्मादनुमानेनैव प्रायो लोकव्यवहार इति । नारकसद्भावे च तदस्त्यनुमानम्, तस्मादनुमानपरिच्छेद्यस्वात् प्राक्प्रतिज्ञायामनुमानानुपलभ्यमानत्वमसिद्धो हेतुः, अनुमानसद्भावाच्चानुमानविरोधिनी प्रतिज्ञा, नास्तित्वप्रतिज्ञालोपाच्च ते सन्ति नारकाः ॥२३५३॥ तच्चेदमनुमानम् - १ संबद्धमर जे । २ पूर्वविदितितेन स- इति प्रती । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ नि० ४७१] गणधरवादे मारकसिद्धिः। पावफलस्स पेकिट्ठस्स भोइणो कम्मतोऽवसेस व्व । संति धुवं तेऽभिमता णेरइया अध मती होज्नं ॥२३५४॥ अच्चत्यदुक्खिता जे तिरियणरा णारगं त्ति तेऽभिमता । तं ण जतो सुरसोक्खप्पगरिससरिसं ण तं दुक्खं ।।२३५५।। पावफलस्स गाहा । अत्यन्तप्रकृष्टपापफलं विद्यमानभोक्तकम् , कर्मतः--कर्मफलत्वादित्यर्थः, : अवशेषवदिति दृष्टान्तः । नारकेभ्योऽन्ये स्वकर्मफलभोगिनः सन्ति तद्वन्नारका इत्यर्थप्रेदर्शना दृष्टान्तफलम् । प्रयोगदृष्टान्तस्तु साध्यसाधनानुगतः प्रकृष्टपुण्यफलवत् । विद्यमानभोक्तकं प्रकृष्टपुण्यफलमिति दृष्टान्तसिद्धया प्रकृष्टपापफलं विद्यमानभोक्तकं चैतत् । ततोऽस्मात् सामान्यतोदृष्टादनुमानान्नारकसिद्धिरिति । ___एतद्विघातयन् कश्चिदाशङ्केत-एवमपि न नारकसिद्धि, साक्षान्नारकास्तित्वधर्मानन्वयात् , केचित् प्रकृष्ट पापफल भुन इति सामान्यसिद्धेः सिद्ध साधनमिदम् । प्रकृष्टपापस्य फलभुजस्तिर्यञ्चो मनुष्याच सन्तीति सिद्धं प्रसाध्यते । ततः साधनवैफल्यादननुमानमिति एवं परमतमाशङ्कयाचार्य आह-अधव मती होज-अच्चत्यदक्खिता जे तिरियणरा णारग त्ति तेऽभिमता । अत्यर्थदुःस्विता प्रकृष्टपापफलभुजः तिर्यङ्मनुप्याः एव यदि नारका अभिमता मनुजसंज्ञामात्रे विप्रतिपत्तिः । तेषामेव नारकसंज्ञायां सिद्धसाधनमित्युच्यते । गाथापश्चार्द्धम्- तं ण जतो सुरसोक्खपर्गरिससरिसं ण तं दुक्खं । ग(न) ते तत्सिद्धसाधनम्, यस्मात्तियेङ्मनुष्याणां प्रकृष्टपापाभावः, यस्मादुक्तम् -- ___ "जं अतिदुक्खं लोए जं च सुहं उत्तमं तिभुवणम्मि । तं जाण कसायाणं वुद्धिक्खयहेतुयं सव्वं ॥" तच्चातिदुःखं नारकेश्वेव अतिसौन्यं चानुत्तरविमानवासिदेवेषु । यत एवमागमः "सततानुबन्धयुक्तं दुःखं नरकेषु तीत्रपरिणामम् । तिर्यक्षु भयक्षुत्तडादिदुःखं सुखं चाल्पम् ॥ - सुखदुःखे मनुजानां मनःशरीराअ(श्र)ये बहुविकल्पे । सुखमेव तु देवानां दुःखं स्वल्पं तु मनसि भवं ॥" तस्मादेव सुरसौख्यप्रकर्षात् , दृष्टान्तसाधर्म्यान्नारकदुःखप्रकर्षाधिगतिरिवशब्दादेव भवति । यत एवमुच्यते । १ पगिट्ठ को हे। 'झुम्सा त । २ होज्जा को हे । ३ 'रगु त्ति त। ४ मतं त । ५ इत्यर्थः-इति प्रतौ । ६ पकरि -इति प्रतौ। ७ बुद्धि-इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४७१"नयुक्तमिवयुक्तं वा यद्धि कार्य विधीयते । तुल्याधिकरणेऽन्यस्मॅिल्लोकेऽप्यर्थगतिस्तथा ॥१॥" एवं शब्दार्थानुगमात् दृष्टान्तसाधर्म्याच्च तिर्यङ्मनुष्याणां साधारणसुखदुःखानुभावित्वात् प्रकर्षाऽभाव एवेति । तस्मात् प्रकृष्टपापफलभुजस्तिर्यङ्मनुष्या न भवन्ति । अनुमानाच्च प्रकृष्टपापफलभोगिन आपद्यन्ते । तत एव सुरनरतिर्यगतिरिक्ताः नारकाः भविष्यन्तीति न सिद्धसाधनं किन्तु स्फुटमेवानुमानमिति ॥२३५४-५५॥ अथवान्यथानुमानप्रदर्शनी गाथा-- सच्चं चेतमकंपिय ! मह वयणातोऽवसेसवयणं व । सव्वण्णुत्तणतो वा अणुमतसव्वण्णुवयणं व ॥२३५६॥ सच्चं चेतमकंपिय मह वयणातो इत्यादि । हे अकम्पित ! नारकाः सन्तीत्येतद्वचनं सत्यम्, मदचनत्वात् अहिंसालक्षणधर्मवचनवत् । अथवा नारकाः सन्ती. त्येतद्वचनं सत्यम्, सर्वज्ञवचनत्वात्, उभयानुमतसर्वज्ञवचनवत् ।।२३५६॥ अथवा भयरागदोसमोहाभावातो सच्चमणतिवातं च । . सव्वं चिय मे वयणं जाणयमज्झत्य[१५५-द्वि० वयणं व ॥२३५७॥ __ भयरागद्वेषमोहाभावादित्यादि । अनन्तरगाथायां मदचनत्वादिति हेतुरुपात्तः । अहिंसालक्षणधर्मवचनं सत्यत्वे साध्ये दृष्टान्तः साध्यविकल इत्याशङ्किते दृष्टान्तप्रसाधनप्रमाणमिदम्-सर्वमेव मद्वचनं सत्यं, भयरागद्वेषमोहासम्बन्ध(द्ध)त्वात्, उभयसिद्धज्ञमध्यस्थवचनवत् । द्वितीयप्रमाणे सर्वज्ञवचनत्वादित्युपन्यस्तो हेतुः ॥२३५७॥ तस्याऽसिद्धत्वाकाङ्क्षायां सर्वज्ञसाधनप्रमाणमिदं तस्मिन्नेव काले-- किध सव्वण्णु ति मती पच्चक्खं सव्यसंसयच्छेत्ता । भयरागदोसरहितो तल्लिंगाभावतो सोम्म ! ॥२३५८॥ विध सव्वण्णु त्ति मती इत्यादि । सर्वज्ञोऽहं प्रत्यक्षं भवतः सर्वसंशयोच्छेदात् । तथा भयरागद्वेषमोहविरहितश्चायं(हे) तल्लिङ्गाभावादित्यर्थः(र्थ)प्रदर्शनमात्रमेतत् । प्रयोगावेवम्-सर्वज्ञोऽहम्, अशेषज्ञेयस्य मदीयज्ञानविषयत्वात् । भयरागद्वेषमोहरहितोऽहं अभूततल्लिङ्गत्वात् , उभयसिद्धमध्यस्थपुरुषवत् । तेषां भयरागादीनां लिङ्गं आकुलत्ववेपथुस्मितप्रहर्षाक्षिभूविकारवैमुझ्याऽकार्यकरणादिकं तल्लिङ्ग[म्] । अभूतं तल्लिङ्गं यस्य १ वाई को हे । २ सिद्धत्वासाका-इति प्रतौ। ३ च्छेया त । ५ 'रोग' हे। ५ प्रयोगवाभ्यन्तु अशेषज्ञेयं-इति प्रती। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४७५ गणधरवादे पुण्य-पापसिद्धिः । सोऽहमभूत तल्लिङ्गः तद्भावस्तस्मादभूतत ल्लिङ्गत्वात् भयरागादिरहितोऽहमिति [ प्रति] - पद्यस्व सौम्येत्यामन्त्रणमकम्पितस्य || २३५८ ॥ एवं च छिण्णेमि संसयम्मि जिणेण जर मरण विप्यमुक्केणं । सो समणो पव्वतो तीहिं समं खण्डियसतेहिं ॥ ४७२||२३५९॥ * एवमष्टमगणधरवक्तव्यताऽभिहिता ॥ २३५९॥ नवम गणधर वक्तव्यतासम्बन्धार्थं गाथासमूहः ते पव्वते सोतुं अलो आगच्छती जिणसगासं । वच्चामि णं वन्दा वन्दित्ता पज्जुवासामि ॥४७३||२३६०॥ ་ आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सन्वष्णू सव्वदरिसीणं ॥ ४७४।२३६१।। किं मण्णे पुण्णपात्रं अस्थि वें स्थि ति संसयो तुझं । वेतपताण य अत्थं ण याणसी तेसिमो अत्थो ||४७५ || २३६२॥ मण्णसि पुण्णं पावं साधारणमधव दो विभिण्णाई | होज्ज ण वा कम्मं चिय सभावतो भवपवचोऽयं ॥ २३६३ ॥ ४२७ ते पव्वते । आभो । किं मण्णे पुण्णपावं । मण्णसि "पुण्णमित्यादि । हे अचलनातः ! हारीत सगोत्र ! किं मन्यसे पुण्यं पापं वा यद्वोभयमस्ति नास्त्ययं सन्देहः । बीजमपि - वेदवाक्यानामन्योन्यविरुद्धानामाम्नायात्, वेदवाक्यानुसारिणां च प्रवादिनां मतभेदात्, कालनियतिस्वभावप्रधानपुरुषेश्वर यदृच्छादिकारणैकत्वश्रुतेः सन्देहः । ततः केषाञ्चिदर्शनेन मन्यसे पुण्यमेव केवलं पदार्थः, न पापपदार्थोऽस्ति, यस्मात् पराभिमतपापफलं पुण्यापकर्षमात्रं तदेवाशुभफलमुच्यते । परमपुण्यप्रकर्षापन्नशुभफलः स्वर्गसुखाद्यनुभवः । ततः किञ्चिदपकर्षात् मनुष्यतिर्यङ्नारकादिभेदाख्याः । सर्वथैव पुण्याभावा (वे) मोक्षः | अतः पुण्यमेवेदं विभागशोऽवस्थितमिति, न पापं नाम । १ मि दी हा । नमिम । यम्मी को हे त । यमी दी हा म । ३ जाइजरामर म । ४ तिहिं च सह खंडि को । तिहि ओ सह खंडि है । तिहि उ सह खत । तिहि उ सह खंडि° दी हा । निहिं तु सह खंडि म । ५ इति अष्टमो गणधरवादः समाप्तः-त । ६ अयलभाना आ जे त । अयलभाया आ० को हे दी हा । ७ च्छइ दी को हा । ८ वंदामी वंदिता को हे दी हा म । वन्दामी त । ९ सामि को हे दी हा म १० मन्नि दी हा । ११ अन्धी नत्थि म । १२ न दी हा । नास्ति को हे तत्रतिपु । १३ अस्थि दी हा । १४ तुझ है । १५ पावमि इति प्रतौ । ५४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४७५अन्येषां पुनर्मतेन मन्यसे--पापमेवैकं पदार्थः, तस्य परमप्रकर्षान्नारकः । तस्यैव किञ्चित् किञ्चिदपकर्षात् तिर्यग्मनुष्यदेवाः । सर्वापचये मोक्ष इति । एवं पुण्यमेव पापम् , पापमेव पुण्यमिति सिद्धान्तद्वयम् । ____ अथवान्यः सिद्धान्तः-साधारणमेतदुभयम् , उभयानुविद स्वभावत्वात् , सुखदुःखानुभाविजीवलोकदर्शनात् कार्यानुरूपकारणसिद्धेः पुण्यमपुण्यानुविद्वस्वरूपमिति । यतोऽत्य न्तसुखी न कश्चित् संसारी, न चात्यन्तदुःखितः। एवं प्रकर्षापकर्षभेदात् सुखदुःखान्विता एव संसारिण उपलक्ष्यन्त इति साधारणपुण्यपापवादः केषाञ्चित् सिद्धान्तः । अथवा पुण्यमिति शुभस्य कारणम्, अन्यदेव पापमिति च पदार्थान्तरमेवाशुभफलस्य कारणमिति प्रविविक्त कार्यानुमे यमुभयं विविक्तस्वरूपमेवेत्युभ या स्तित्ववादः । ___ अथ चोभयमपि पुण्यं पापं वा शुभाशुभफलं कर्म कम्प्येत, तस्याचेतनेष्वपि घटादिष्वेककुम्भकार कमृत्तिका चक्रायपकरणेकपाकनिष्पन्नत्वसामान्ये कश्चिद् घटः क्षीरघृतमध्वादिभाजनं प्रशस्तवारिपूर्णविकचपैमापिधानराज्याभिषेककलशश्च भवति, कश्चित् पुनरशुचिमद्यादिभाजनं शोकाश्रुवारिधारापूर्णखण्डमल्लकापिधानश्मशानकलशश्च भवतीति विनापि पुण्यपापकर्मसम्बन्धाच्छुभाशुभफलप्राप्तेश्चेतनेष्वपि शुभाशुभफलप्राप्तिरकर्मकैव भविष्यतीति किं पुण्यपापपरिकल्पनया युक्तिवियुक्तया, सर्वथा स्वभावकृत एवायं विचित्रशुभाशुभफलपरिणामो भवप्रपञ्च इति केषाञ्चित् सिद्धान्तः । तथा चाहुः -- "केनाञ्जितानि नयनानि मृगाङ्गनानां कोऽलङ्करोति रुचिराङ्गाहान्मयूरान् । कश्चोत्पले पु दलसंनिचयं करोति को वा दधाति विनय कुलजेषु पुंसु" । एवमचलस्य गणधरस्य नामगोत्रामन्त्रणपूर्वकं हृदयस्थार्थसूचकं मण्णसिगाहाकृतं सूत्रमात्रेण ।।२३६०-६३।। अथेदानी भाष्यगाथाभिर्विवरणं क्रमश उद्घट्टितसिद्धान्तानां क्रियते । पुण्णुक्क रिसे सुभता तरतमजोगाकरिसतो हाणी । तस्से खए मोक्खो पच्छाहारोवमाणातो ॥२३६४।। पुण्णुक्करिसे सुभता इत्यादि । यत्तदादावुल्लिङ्गितं पुण्यमेव पदार्थः, न तत् प्रतिपक्षः पापं नामास्ति; ननु च पुण्यस्य शुभमिति, अशुभफलोपलव्धेः पापास्तित्वमित्याशना(का)यामिदमुच्यते यत् परं प्रकृष्टं शुभमेतत् पुण्योत्कर्षस्य कार्य, यत् पुनस्तस्मात् १ 'पद्माभिधाभिधानरा इति 'प्रती। : 'रिस्से है। : 'वगरि' को हे । ५ 'स्सेय जे। ५ पत्था को हे। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपापसिद्धिः । ४२९ नि० ४७५ फलमवकृष्टतरमवकृष्टतमं च तत्पुण्यस्यैव तरतमयोगोऽपकर्षभिन्नस्य यावत् परमप्रकर्ष हानिः परमापकर्षहीनस्य परमापकृष्टतमं शुभफलम् या काचिच्छुभमात्रेत्यर्थः । तस्यैव च परमावकृष्टपुण्यस्य सर्वात्मना क्षये पुण्यात्मके फलाभावात् मोक्ष इति सिद्धान्तः । यथाऽत्यन्तपथ्याहारसेवनात् परमारोग्यमुखं, तस्यैव च किञ्चित् पथ्याहारपरिवर्जनादपथ्याहारपरिवृद्धेः आरोग्यसुखहानिः सर्वथैवाहारपरिवर्जनात् मोक्ष इति पथ्याहारोपमानं पुण्यमिति।। २३६४ ।। एतद्विपर्ययात् द्वितीयपक्षः- पापमेवैकं विद्यते पदार्थः, न पुण्यं नामास्ति यत्तत् पुण्यफलं सुखमुच्यते तत् पापस्यैव तरतमयोगादवकृष्टस्य फलम् । यतः - पावुक्करिसेऽहंमता तरतमजोगार्नकरिसतो सुभता । तस्से खए मोक्खो अच्छतोवमाणातो ||२३६५॥ साधारणत्रणादिव अध साधारणमगमत्ताए । उक्क रिसावकैरिसतो तस्सेव य पुण्णपावक्खा || २३६६|| 1 पावुक रिसेऽहमता इत्यादि । पापस्य परमोत्कर्षेऽत्यन्ताधमफलता । तस्यैव तरतमयोगापकर्षभिन्नस्य मात्रा परिवृद्धिहान्या, यावत् पापस्य प्रकृष्टोऽपकर्षः, या काचित् पापमात्राऽवतिष्ठते तस्यामत्यन्तशुभफलता, पापापकर्षात् । तस्यैव च पापस्य सर्वात्मना क्षयो मोक्षः । यथात्यन्ताऽपथ्याहारसेवनादनारोग्यं, तस्यैवापथ्यस्य किञ्चित् किञ्चिदपकर्षाधावत् स्तोकापथ्याहारत्वं आरोग्यस्य करं शुभफलमित्यर्थः । सर्वाहारपरित्या गाच्च मोक्ष इति । अथवा तृतीयः पक्षः - पुण्यपापमुभय स्वरूपानुविद्धत्वात् साधारणं साधारणवर्णकवत् । अथ तदपि चक्रया मात्रया हीयते वर्द्धते च यावती मात्रा पुण्यस्य हीयते तावत्येव मात्रा पापस्य वर्द्धते । एवमुत्कर्षापकर्षतः साधारणरूपस्य तस्य पदा र्थस्य पुण्यपापाख्या नरसिंहस्वरूपवदित्येकेषां मतमिति ॥ २३६५-६६ ॥ अथवाऽन्येषां [ १५६ - प्र० ] एवं चिय दो भिण्णाई होज्जं होज्ज व सभावतो चेअ" । भवसंभूती भण्णति ण संभावातो जतोऽभिमतं ॥ २३६७॥ एवं चिय दो भिष्णाई होज्ज सुखदुःखयोर्यौगपद्येनानुभवाभावात् क सुखदुःखसंवेदनफलानुमानात, कार्यानुरूपकारणसिद्धेः पुण्यं पृथक् सुखकारणम् पापं च पृथक् दुःखकारणमिति भिन्नमेवैतद् द्वितयमपि क्रमभाविपर्यायफलमिति द्वैतवादिसिद्धान्तः । १ मकः पक्वाभा इति प्रतौ । २ से व मता जे । ३ वगरि' को है । ४ तम्सेव जे ।" पथ' को हे। च्छन्नोव त । ७ 'वर' को है । ८ पावित । ९ दा हो' को । १० चैत्र को हे त । ११ संभवात । १२ 'मओ को हे त । ज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४७५ अथवा 'होज्ज व सभावतो चेअ भवसम्भूती' भवेद् वा स्वभावत एव भवस्य संसारस्य सम्भूतिरुत्पत्तिरिति स्वभाववादिसिद्धान्तः । ४३० अथ तस्मिन् सर्वपाश्चात्ये सिद्धान्तोद्घट्टके भण्यते प्रत्युत्तरं कर्मवादिना-न स्वभावात् संसारसम्भूतिः, उपपत्य सहिष्णुत्वात्, उन्मत्तवाक्यवत्, यतोऽभिमतस्तव ॥ २३६७॥ होज्ज सभावो वत्युं णिक्कारणता व वत्थुधम्मो वा । जति वत्थं णत्थि तओऽणुवलद्धीतो खपुष्कं व || २३६८।। होज्ज सभावो वत्थुमित्यादि । स स्वभावः परिकल्स्यमानो वस्तु वा स्यात्, अवस्तु वा ? कर्मेश्वरपुरुषादीनि कारणानि संसारस्य । निष्कारणता स्वभाव उच्यते । अथवा कश्चिद् वस्तुधर्मः स्वभाव उच्यते । तद्यदि वस्तु स्वभावः, ततो वस्तूनि कर्मपुरुषप्रधानेश्वरादीनि परिगणितान्येव । तेषां मध्ये स्वभावो न भणितः । अतो नास्त्येवासौ स्वभावः अनुपलभ्यमानत्वात् खपुष्पवत् ||२३६८॥ अथ मन्येथाः- अनुपलम्यमाना अपि परमाण्वादयः सन्तीत्यनैकान्तिकः । कर्मनास्तित्वसाधनमप्येवमेवानैकान्तिकमिति कर्मनास्तित्वाभावादप्रतिषिद्धत्वाद्वा कर्मसद्भावः किमिति नाभ्युपगम्यते ? यो वानुपलब्धौ सत्यां स्वभावास्तित्वे हेतु:, स एव कर्मास्तित्वेऽपि भविष्यतीत्येवमर्थमियं गाथा - अच्चतमणुवलद्धो वि अघ त अत्थि णत्थि किं कम्मं । हेतू व तदत्थित्ते जो णु कम्मस्स वि स एव ॥ २३६९॥ अच्चंत ० ० गाहा । गतार्था ||२३६९ ॥ अथवा यत्तत् कर्मति शुभाशुभफलमस्माभिरिष्यते तस्यैव कर्मणः स्वभाव इति त्वया नाम कल्प्यते भवतु । न कश्चिद्दोषः । किन्तु सर्वं चेतनाचेतनरूपं जगत् स्वभावकर्तृकमिति विरुध्यते, एकरूपत्वात् स्वभावस्य । जगद्धि पृथिवीसमुद्रगिरिसरिविमानप्रस्तारादिकं स्वभाव जनितं न भवति, प्रतिनियताकारत्वात्, कुम्भकारकर्तृ[क]घटवत् । कर्म तु विचित्रं विचित्रस्यैव जगतः कारणमिति प्रयुज्यते । तत 1 इयं गाथा - कम्मस्स वाभिघाणं होज्ज सभावो त्ति होतु को दोसो । पतिणियताकारातो ण य सो कत्ता वडस्सेव || २३७० ॥ १णतो व जे । २ ज व हे । ३ मणु त । तागारा को है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४७५ पुण्यपापसिद्धिः । ४३१ कम्मस्स । भावितार्था ॥२३७०॥ अथवा तस्य स्वभावस्य स्वरूपं चिन्त्यते-- मुत्तोऽमुत्तो वै तो जति मुत्तो तोऽभिधाणतो भिण्णो । कम्म ति सभावो ति य जति वाऽमुत्तो ण कत्ता तो ॥२३७१॥ देहाणं वोमं पिव जुत्ता कज्जातितो य मुत्तिमता । अध सो णिक्कारणया तो खर्रसंगादयो होतु ॥२३७२॥ मुत्तोऽमुत्तो व तओ इत्यादि गाथाद्वयम् । यदि मूर्तिमतां स्वभावः, कर्माऽपि मृतिमदेव, जगतश्च कारणमिति नाममात्रं भिद्यते, न कश्चित् पदार्थभेदः । अथ पुनरमूर्तः स्वभावः ततोऽसावकर्ता देहादीनाम्, अमूर्त्तवात् , 'व्योमवत् । कर्मणश्च मूर्तिमत्ता युक्ता क्रियाकार्यत्वात्, घटवत् । कार्यादित्वादिति-आदिशब्दोपादानात्देहानां कारणत्वात, शुक्रशोणितवदित्यादि योजनीयम् । अथासौ स्वभावः कारणभावमात्रं निष्कारणता भण्यते । एवमपि खरशृङ्गादयः सन्विति वक्राभिधानात्नास्ति स्वभावः, निष्कारणत्वात् खरशृङ्गादिवदिति-प्रमाणोपन्यासः ॥२३७१-७२॥ अथवा वस्तुधर्म[:] स्वभावो नाम कश्चित् परिणामविशेष उच्यतेअध वत्थुणो स धम्मो परिणामो तो स जीवकम्माणं । पुण्णेतराभिधाणे' कारणकजाणुमेयो सो ॥२३७३।। किरियाणं कारणतो देहातीणं च कज्जभावा[१५६-द्वि०]तो । कम्मं मदभिहितं ति य पडिवाज तमग्गिभूति न ॥२३७४॥ अध वत्थुणो स धम्मो इत्यादि । किं 'किरियाणं कारणतो' इत्यादि । वस्तुधर्मत्वे स्वभावस्य जीववस्तुनो वा स परिणामो भवेत् "संरम्भसमारम्भयोगकृतकारितानुमतिकषायविशेपैत्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः" तत्त्वार्थ ६. ८.] इत्यष्टोत्तरपरिणामशतम् । तच्च कर्मेव । अथवा कर्मण एव वस्तुरूपस्य धर्मः कश्चित् परिणामः शुभाशुभाख्योऽध्यवसायः पुण्येतराभिधानः “शुभः पुण्यस्य विपरीतः पापस्य" [तत्त्वार्थ ६. ३]" इति वचनात् । स चैवं प्रकारो वस्तुधर्मः स्वभावः कमैव कारणानुमेयः कार्यानुमेयश्च । स तत्र कारणानुमेयः-दानादिक्रियाः सर्वाः फलवत्यः, क्रियात्वात्, घटाद्यर्थकियावत् अतः क्रियाभिः कारणभूताभिरनुमीयते-- तो अमु हे त । २ य जे । व्य त । मुत्ता जे । ', म्म ति को हे। ', 'तो जे। : 'रसिंगा को हे त । ७ तनो भाव-इति प्रती। ८ व्यासवत् इति प्रतौ। २. स कम्मजीवाण को हे। १० धाणो को हे त। ११ 'अशुभः पापस्य' इति तत्त्वार्थमुद्रिते । १२ यस्य सः-इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४७५ "समास्वतुल्यं विपमासु तुल्यं सतीप्वसच्चाप्यसतीषु सच्च । फलं क्रियास्वित्यथ यन्निमित्तं तदेहिनां सोऽस्ति तु कोऽपि धर्मः ॥१॥" अतः क्रियाणां कारण वात् कर्मणः कार्यस्यानुमानम् , अथ कार्यानुभेयतादेहादीनां च कार्य भावात् कर्मणः कारणस्यानुमानम् । देहादेः कार्यस्य शुक्रशोगितादिदृष्ट कारणसमवायेऽप्यसम्भवो दृष्टः इत्यदृष्टमचक्षुर्माह्य किमपि कारणमस्तीति प्रति जानोमहे कारणत्वात् मृद्दण्डचक्रसूत्रादिसमेतसमर्थकुम्भकारान्यघटस्येव प्रयत्नः । उक्तं च "इह दृष्टहेत्वसम्भविकार्यविशेषात् कुलालयत्न इव । हेत्वन्तरमनुमेयं तत् कर्भ शुभाशुभं कर्तुः ॥१॥" अतः कार्यानुमेयत्वादपि प्रतिपद्यस्व कर्म । अपि च त्वमपि प्रतिपद्यस्व कर्म अग्निभूतिवत् ॥२३७३-७४॥ तं चिय देहादीणं किरियाणं पि य सुभासुभत्तातो । पडिवज्ज पुण्णपावं सभावतो भिण्णजातीयं ॥२३७५॥ तं चिय गाहा । देहादीनां कार्याणां शुभाशुभत्वात्, क्रियाणामपि च कारणानां शुभाशुभत्वात् , कार्यानुरूपकारणतया कारणानुरूपकार्यतया च स्वभावभिन्नजातीयं द्विविधं पुण्यपापाख्यं कर्म प्रतिपद्यस्व ॥२३७५।। तथा चैतदर्थमुपपत्तिगाथा--- मुहदुक्खाणं कारणमणुरूवं कज्जभावतोऽवस्सं । परमाणवो घडस्स व कारणमिद पुण्णपावाई ॥२३७६॥ मुहदुक्खाणं कारण मित्यादि । सुखदुःखयोः भिन्नजातीयकार्ययोः स्वानुरूपं कारणमवश्यं भावि, कार्यत्वात्, पार्थिवघटस्य पार्थिवपरमाणुवत् । ते च द्वे कार्यानुरूपे कारणे पुण्यपापे इति सिद्धम् ।।२३७६।। सुहदुक्खकारणं जति कम्मं कज्जस्स तदणुरुवं च । पत्तमरूवेत्तं पि हु अध रूवि गाणुरुवं तो ॥२३७७॥ सुहदुक्खकारणं जति कम्मं इत्यादि । आत्मपरिणामत्वात् सुखदुःखयो. रमूर्तत्वम् , कार्यानुरूपं कारणमिति सुखदुःखयोः कारणस्य कर्मणः प्राप्तम् , अमूर्तयोः कारणत्वादात्मवत् । अथ रूपिमूर्तकर्माण्यतः सुखदुःखयोः कारणं न भवति, अननुरूपत्वात् , अमूर्तत्वाद्वा, घटवत् ॥२३७७।। १ रूवं तं पि को हे त ! २ रूवं त । ३ मुहदुक्स्वाणं जइ कम्म-इति प्रतो । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३३ नि० ४७५ ] पुण्यपापसिद्धिः । अस्याऽप्यसिद्धतोड़ावनार्थमाह-- ण हि सव्वधाणुरूवं भिण्णं वा कारणं अध मतं ते । कि कज्जकारणत्तणमधवा वत्थुत्तणं तस्स ॥२३७८॥ न हि सर्वथाऽनुरूपं कारणं कार्यस्य, कार्य वा कारणस्येति । सर्वथानुरूपत्वे [अ]द्वयमेव कार्य वा कारणं वा] स्यात् । अनयोरभिधानभेदस्तावत् स्फुट एव दृष्टः कार्य कारक[ग] मिति च। सर्वथानुरूपत्वे एकस्यास्तित्वात् द्वितीयस्य नास्तित्वेन भवितव्यम् । अत एकमेव, न तद् द्वितीयं वस्तु विद्यते इति कार्यकारणत्वाभावो वस्तुवाभावश्च ।।२३७८॥ एवं तर्हि सव्वं तुल्लातुल्लं जति तो' कज्जाणुरूवता केयं । जं सोमै ! सपज्जायो कन्जं परज्जयो सेसो ॥२३७९।। सव्वं तुल्लातुल्लं जति इत्यादि । सर्वमेव केनचित् तुल्यातुल्यमिति व्यवस्थायां केयं कार्यानुरूपता नाम, अननुरूपत्वस्यापि सम्भवात् ? उच्यते-हे सौम्य ! हारीताचलभ्रातः : स्वपरपर्यायविवक्षावशादनुरूपानानुरूपाच्च वस्तुन इति । कारणस्य कार्य स्वपर्याय इत्यनुरूपत्वम् , अन्यः परपर्याय इत्यननुरूपत्वमित्युभयमविरुद्धम् । कर्मणो मूर्तस्य कारणस्यात्मनोऽन्यस्य सतः कार्य सुखदुःग्वे । आत्मपरिणाम यात् परपर्यायत्वादमूर्नवं मुखदुःखयोः । कार्यत्वव्यपदेशमात्रं स्वपर्यायः । ततश्च शुभाशु. भाख्या कर्मणः । सवेद्यासवेद्यत्वे अनुरूपत्वं मूर्त्तामूत्ते वे अननुरूपत्वम् ॥२३७९।। अतः पृच्छति किं जध मुत्तममुत्तस्स कारणं तध मुहातिणं कम्मं । दिटुं सुहातिकारणमण्णाति जधेह तध कम्मं ॥२३८०॥ कि जध गाहा । अमूर्तस्य कार्यस्य मूर्त कारणमयुक्त(मुक्त)मित्यत्र प्रमाणं मूर्त कर्म सुखदुःखकारणत्वादन्नादिवत् ।।२३८०॥ एवं तहिं --- होतु तयं चिय किं कम्मणा ण जं तुल्लसाधणाणं पि । फलभेतो सोऽवस्सं सकारणो कारणं कम्मं ॥२६८१॥ होतु गाहा । मुखदुःखकारणत्वं कर्मण इत्यसिद्धो हेतुः । अन्नाद्येव सुखदुःखयोः कारणम् । तच्च मूत्तं किं कर्मणा कल्पितेन ? तन्न, यतोऽन्नादितुल्यसाधनानामपि पुरुषाणां विसदृशफलवं कारणान्तरसापेक्षं दृष्टम् । यच्च तत्कारणं तत् कर्मेति ॥२३८१॥ १ ते त। २ सोम्म को हे त। ३ पन्ज जे । कम्मं त । ४ रमज्ज त । ५ सव्वं तुलं जइ-इति प्रती । 'हाईणं हे । ७ कम्मुणा त। ८ भोतो जे । भेदभो हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये (नि० ४७५एत्तो च्चिय त मुत्तं मुत्तवलाधाणतो [१५७-६०] नधा कुंभो । देहातिकज्जमुत्तातितो ये भणिते पुणो भणति ॥२३८२॥ ___ एत्तो च्चिय इत्यादि । अत एव च तत् कर्म मूर्तम् , मूर्तस्याऽन्नादेर्बलाधा. नकारित्वात् । अथवा मूर्त कर्म, मूर्तस्य देहादेः कारणत्वात् । यन्मूः तद् मूर्तस्य कारणं दृष्टं यथा कुम्भस्य मृत् । एवमुक्ते पुनरपि ब्रवीति ॥२३८२॥ तो कि देहादीणं मुत्तत्तणतो तयं हरतु मुत्तं । अध सुहदक्खातीणं कारणभावादरूवं ति ।।२३८३॥ तो कि देहादीणं इत्यादि । इहोभयमुपालवते देहादिमूर्तकारणत्वात् मूर्तत्वं कर्मणः, सुखदुःखाद्यमूर्त्तकारणत्वाच्चामूर्त्तत्वमिति किमत्र युज्यते ? सुतरां न चोभयमेकस्यैकदा एकपर्यायेण परस्परविरुद्ध प्रतिपत्तुं शक्यम् ॥२३ ८३।। तस्मादेवं प्रविभज्यते ण मुहातीणं हेतू कम्मं चिय किंतु ताण जीवो वि । होति समायिकारणमितरं कम्मं ति को दोसो ? ॥२३८४॥ __ण सुहा० गाहा । इह कार्यस्य त्रिविधं कारणम्-निवर्तकं निमित्तं पारिणामिकं चेति । तत्र सुखादीनां परिणामकारणममूर्तमेव जीवः, समवायिकारणमिति यत्परैरुच्यते । इतर दिति निवर्तककारणं कर्म । तच्च मूर्तम् । अन्नादि निमित्तकारणमेव, मुर्त च । ततः को दोपः-अमूर्तस्य अमृत, मूर्त च कारणमिति ? ॥२३८४॥ इय रूवित्ते सुहृदुक्खकारणत्ते य कम्मणो सिद्धे । पुण्णावकरिसमेत्तेण दुक्खबहुलत्तणमजुत्तं ॥२३८५।। इय रूवित्ते मुह दक्खकारणत्ते य इत्यादि । एवं रूपित्वे सुखदुःस्वकारणत्वे च कर्मणः सिद्धे तदिदानी कर्मसामान्यं-पुण्यमेव, पापमेव, परस्परानुवेधसाधारणरूपं वा, भिन्नं वा द्वयमपि पुण्यं पापं च जात्यन्तरवत्-विचारणीयमिति । पुण्यमात्रवादिनो दोषः -यस्य पुण्यमेवात्यन्ताशुभफलं प्रतिपक्षो नास्तीति पुण्यापकर्षमात्रेणैव दुःखबहुलत्वमयुक्तम् , तत्कारणस्य पापपदार्थस्याभावात् ॥२३८५।। उच्यते कार्यात् कारणानुमानम् ---- कम्मप्पकरिसजणितं तदवस्सं पगरिसाणुभूतीतो । सोक्खप्पगरिसभूती जध पुण्णप्पगरिसप्पभवा ॥२३८६।। १ • व्व को हे त। २ हवइ को हे त । : किन्तु हे । १ वायका त । ५ कम्मुणो को हे । कम्मुणा त । ६ वगरि को हे । ७ पगरिसं को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४७५ ] पुण्यपापसिद्धिः । ४३५ कम्मप्पकरिस० गाहा । यत्र दुःखबहुलत्वं प्रकर्षदुःखानुभूतिरूपं तत् 'स्वानुरूपकर्मप्रकर्षजनितमिति पक्षः प्रकर्षानुभूतिवत् । यथा हि सौख्यप्रकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपुण्यकर्मप्रकर्षजनितेति त्वयाभ्युपगम्यते तथेयमपि प्रकर्षानुभूतिरिति स्वानुरूपपापकर्मप्रकर्षजनिता भविष्यतीति प्रमाणफलम् ॥२३८६॥ तथ बज्झसाधणप्पगरिसंगभावादिहण्णधा ण तयं । विवरीतवज्झसाधणवलप्परिसं अवेक्खेज ॥२३८७॥ तघ वज्झसाध० इत्यादि । तथा उपपत्त्यन्तरमपि-तत् दुःखम् अन्तरङ्गकेवलपुण्य मात्रजनितं न भवति, आहारादिबाह्यसाधनकारणान्तरसापेक्षत्वात् । यत् कारणान्तरसापेक्षं तदेकनिर्वर्तकं न भवति, यथा निरुपकरणकुम्भकारः कुम्भनिर्वृत्तौ । दृष्टं च दुःखितहस्त्यादिदेहे विपरीताहारादिबाह्यसाधनसापेक्षत्वम् । तस्माद्दुःखितहस्त्यादिदेहे पुण्यापकर्षे पापकर्मप्रकर्षजनितत्वमप्यनुमीयते । अन्यथा नैव बाह्यसाधनप्रकर्षमपेक्षेत ॥२३॥ अपि च देहो णावचयकतो पुण्णुकरिसे व मुत्तिमत्तातो । होज्ज व स हीणतरओ कधमसुभतरो महल्लो य ॥२३८८॥ देहो णावचयकतो इत्यादि । इतश्च दुःखितहस्त्यादिदेहः केवलपुण्यापचयमात्रकृतो न भवति, मूर्तिमत्त्वात् , मत्यन्तपुण्योत्कर्षजनितानुत्तरौपपातिकदेवदेहवत् , मनुष्य लोके वा चक्रवर्तिदेहवत् । यच्च पुण्यापचयमात्रकृतम् इति कल्प्येत तत्र मूर्तिमत्त्वमपि नास्ति यथा न कुत्रचित् वैधHदृष्टान्ते धर्म्यसिद्धिः प्रत्युतेष्टतरा । अथ कल्पनया वा भवेदपि - पुण्यापचयमात्रकृतत्वं दुःखितादिहस्त्यादिदेहे । तत्रेदमसि प्रष्टव्यः -कथमसौ पुण्योपचयजनित एवं न स्यात् ! अशुभतरत्वं तु युज्यते । महत्त्वं चाऽशुभत्वं चेति कथमेककारणजनितमुभयं स्यात् ? इति तन्महत्त्वं कारणान्तरजनितमिति स्वानुरूपपापप्रकर्ष सूचयति नारकदेहवत् । तस्मादेवमुपपत्तिभिः केवल. पुण्यपक्षस्य निराकरणं कृतमिति ॥२३८८॥ संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहायाचार्यः केवलपापपक्षनिराकरणमि(म)तिदिशन्नाह'एतं चिय विवरीतं जोएज्जा सन्चपावपक्खे वि । ण य साधारणरुवं कम्मं तकारणाभावा ॥२३८९॥ १ स्नानु' इति प्रतौ। २ यतं त । ३ पगरिसं को हे। क्खेजा को हे। ५°रिस व त। 'रिसे व्व को । ६ एव म स्यात् इति प्रतौ । ७ तस्या देवमु-इति प्रतौ । ८ एवं को हे त । ९ इजा त । १० क्खेसु इति टीकायाम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४७५ एतं चिय विवरीतं जोएज्जा सव्वपावपक्खे वि । अथ साधारणोभयरूपैकत्वपक्षनिराकरणाय गाथापश्चाई-ण य साधारणस्वं कर्म, तत्कारणाभावात् । नास्त्यु. भयरूपं कर्म अभूतैवंविधकारणत्वात्, वन्ध्यापुत्रवत् ॥२३८९।। कदाचित् कश्चिदस्य हेतोरसिद्धत्वमाशङ्केत तत्प्रसाधनाथ गाथा [१५७ -द्वि.०] कम्म जोगणिमित्तं मुभोऽसुभो वा स एगसमयम्मि । होज्न णे तूभयरूवो कम्मं पि तो तदणुरुवं ॥२३९०।। कम्मं जो० गाहा । "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा बन्धहेतवः" [तत्वाथ०८.१] इति पर्यन्ते योगाभिधानात् सर्वेषु मिध्यादर्शनादिप्वपि योगाऽविनाभावाद(द) बन्धहेतुमि(रि)ति कर्म योगनिमित्तमुच्यते । स च योगो मनोवाक्कायात्मकः एकस्मिन् समये शुभोऽशुभो वा भवेदेकरूपरतस्मात् कारणानुरूपकार्यत्वात् कर्मापि शुभमशुभं वा, नोभयरूपमिति । तस्मादभूतैवंविधकारण वादिति सिद्धः पक्षधर्म: २३९०॥ एवमप्यभिहिते योगानां कर्मकारणभावानां कार्येण द्रव्येण शुभाशुभरूपेण दृष्टेन कारणानां योगानां शुभाशुभत्वमुभयसिद्धमिति स्मारयन्नाह णणु मणवइकाययोगा सुभासुभा वि समयम्मि दीसंति । दव्वम्मि मीसभावो भवेज्ज ण तु भावकरणम्मि ॥२३९१॥ णणु मणवइकाययोगा इत्यादि । एकस्मिन् समये मनोवाक्काययोगानां प्रकर्पापकर्षवैचित्र्यात् सर्वनिकृष्टसर्वोत्कृष्टयोरन्तराले शुभाशुभत्वमुपलभ्येत इति शुभाशुभोभयरूपं कर्मणः कारणमस्तीति पुनरप्यभूतैवंविधकारणत्वमसिद्धो हेतुः । एत. दप्यन्यविषयं शुभाशुभत्वमिति सिद्धत्वमेव हेतोरिति दर्शयति-द्रव्यात्मके योगे शुभाशुभत्वमिश्रत्वं भवेत् , न तु भावकारणे भावात्मके योगे कर्मकारणे कदाचिदपि शुभाशु. भत्वं मिश्रं भवेत् , अवश्यमेकरूपेण शुभेन वाऽशुभेन वा भवितव्यमिति ॥२३५१॥ तस्यैव ज्ञापकमुपचयकारणमाहझाणं सुभमसुभं वा ण तु मीसं जं च झाण विरमे वि । लेस्सा सुभासुभा वा मुभमसुभं वा ततो कम्मं ॥२३९२।। झाणं सुभममुभं वा इत्यादि । एवं कर्मणो बन्धपरिणामकाले योगानां ध्यानकाले ध्यानोपरमे वा शुभत्वमशुभत्वं वैकरूपमेव, न मिश्रता सिद्देति कर्मणोऽपि तद्वदेव कार्यस्य भविष्यति ॥२३९२।। अथवा पुव्वगहितं व कम्मं परिणामवसेण मीसतं णेज्ज । इतरेतरभावं वा सम्मामिच्छादि ण तु गहणे ॥२३९३।। १ न उ उभ' हे । २ लेसा को हे। ३ च को हे । ४ नेजा को हे । च्छाई को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४७५ ] पुण्यपापसिद्धिः। ४३७ पुचगहितं व कम्ममित्यादि । यत् पूर्वबद्ध कमैकरूपं यथा मिथ्यादर्शनं तत् परिणामवशाजीवः सम्यग्मिध्यारूपं मिश्रतां नयेत् , मिथ्यादर्शनं वा अशुभं सम्यग् दर्शनं शुभत्वं प्रापयेत् । न तु ग्रहणे कर्मबन्धनकाले इत्यर्थः ॥२३९३॥ तथा चागमं दर्शयति मोत्तूण आउअं खलु देसणमोहं चरित्तमोहं च । सेसाणं पगंडीणं उत्तरविधिसंकमो भज्जो ॥२३९४॥ सोभणवण्णातिगुणं मुभाणुभावं च जं तयं पुण्णं । विवरीतमतो पावं ण वातरं णातिसुहुमं च ॥२३९५॥ मोत्तूण आउअं खलु इत्यादि । सोभणवण्णातिगुणमित्यादि । मूलप्रकृत्यभिन्नासु वेद्यमानासु सङ्कमो भवतीत्युत्सर्गस्यापवादोऽयम् -आयुष्कस्योत्तरप्रकृतीनां चतसृणां परस्परसङ्क्रमो निवायेते, मोहनीयमूलप्रकृत्यभेदेऽपि दर्शनमोहचारित्रमोहयोः सङ्क्रमो निषिध्यते, शेषाणां प्रकृतीनामुत्तरभेदसङ्क्रमो भवतीति शोभनवर्णगन्धरसस्पर्शशुभानुभावं च यत्कर्म पुण्यमिन्युच्यते एतद् विपरीतं पापं भिन्नजातीयमेव । एतच्च नातिबादरं शिलादिवत् , नातिसूक्ष्म परमाणुवत् ॥२३९४-९५।। गेण्हति तज्जोग चिय रेणुं पुरिसो जधा कतभंगो । एगक्खेत्तोगाढं जीवो सव्वप्पदेसे हिं ॥२३९६।। गेहति तज्जोगं चिय इत्यादि । एकक्षेत्रावगाढं स्थितिपरिणतं जीवः सर्वप्रदेशैस्तद्योग्यमेव कर्म गृह्णाति, कृताभ्यङ्ग इव पुरुषो रेणुं स्वेदेनेवाऽऽवध्यते नाति), के(ते) त्वणवः शर्कराश्य, तथा एतत् स्वाभाव्यात् ॥२३९६।। अविसिट्ठपोग्गलघणे लोए थूलतणु [१५८-प्र०] कम्मपं विभागो । जुज्जेज्ज गहणकाले सुभामुभविवेचणं कत्तो ॥२३९७।। अविसिटं चिय तं सो परिणामासयसभावतो खिप्पं । कुरुते मुभममुभं वा गहणे जीवो जधाहारं ॥२३९८॥ अविसिट्ठपोग्गलवणे इत्यादि । ग्रहणकाले हि स्थूलसूक्ष्मकर्मविभाग एव युज्येत । तद्ग्रहणकाले शुभाशुभविवेचनं कुतस्तस्य ! अविशिष्ट ग्रहणोत्तरकालं च कर्म परिणामाशयवशात् स्वभावत एव जीवशुभाशुभत्वेन विभज्यते प्रयोगपरिणामवत् आहार इव ॥२३९८॥ १ गईणं को हे । २ गिण्ह' हे । ३ 'जोगं त । ४ थूण हे । ५ ‘म्मयवि जे For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४७६परिणामासयवसतो घेणूये जेध पयो विसमहिस्स । तुल्लो वि तदाहारो तध पुण्णापुण्णपरिणामो ॥२३९९॥ परिणामासयवसतो इत्यादि । इहाविशिष्टमपि कर्म नानापरिणाम प्राप्स्यते, आशयविशेषापेक्ष्यत्वात् , गोधेनु-सर्पाभ्यवहृताहारवत् ॥२३९९॥ जध वेगसरीरम्मि वि सारासारपरिणामतामेति । अविसिट्ठो आहारो तध कम्मसुभासुभविवागो ॥२४००॥ जध वेगसरीरम्मि इति । अथ ध (क)मै सारासारपरिणामद्वयं प्राप्स्यति, प्रयोगपरिणामितत्वात् । यथा विशिष्टोऽप्याहारः पुरीष-मूत्रादि-रस-रुधिरादिपरिणाममिति । तत्र सारपरिणामः पुण्यं, असारपरिणामः पापम् ॥२४००॥ तदेव गाथया विविच्यते सातं सम्म हासं पुरिसरतिसुभायुणामगोत्ताई । पुण्णं सेसं पावं णेयं सविवागमविवागं ॥२४०१॥ सातं सम्मं इत्यादि। सात-सम्यक्त्व-हास्य-रति-पुरुषवेद शुभायुर्नाम गो. त्राणि पुण्यम् शेषं पापमिति । सह विपाकेन सविपाकम् । विपाकः-अनुभावः, अविद्यमानविपाकमविपाकम् । यथाबद्धविपाकाविपरीतपाकं मन्दानुभावीकृतं वा प्रदेशकमेति ॥२४० १॥ असति व हि पुण्णपावे जमग्गिहोदि सग्गकामस्स । तदसंबद्ध सव्वं दाणातिफलं च लोगम्मि ॥२४०२॥ ___ असति हि पुण्य-पापे वेदवाक्याऽऽगमप्रामाण्याच्च पुण्य-पापास्तित्वं प्रतिपत्तव्यम्, अन्यथा “अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः" इत्येतदपार्थकं स्यात् । अथ यस्य नास्ति पुण्यं पापं वा वेदवादिनस्तस्यागमविरोधिनी प्रतिज्ञा, तथा पुण्यपापसद्भावे दानादि क्रियाप्रवृत्तिलोकस्येति, लोकविरोधे प्रतिज्ञादोषः ॥२४०२॥ एवं बहुशः उपपत्तिबलात्छिणम्मि संसयम्मि जिणेण "जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पव्वइतो "तोहि तु सह खैण्डियसतेहिं ॥४७६॥२४०३॥ एवं नवमगणधरवक्तव्यताऽऽस्याता ॥२४०३।। दशमगणधरवक्तव्यताव्याख्यानसम्बन्धार्थ गाथा १ जधा जे त । जहा हे । २ हिसस्स त । ३ वाहा को हे त। ४ 'विभागो हे त । ५ तत्त्वार्थ ८. २६ । ६ ताई को हे। ७ णाई फ° को। ८ णमि हा म। णंमी दी। ९ यम्मी को हे त । 'यंमी दी हा म। १० जाइजरामर म। ११ तिहि त। तिहि उ हा दी। तिहिं को। तिहि भो सह हे। तीहिं उ म । १२ खंडि' को हे दी हा म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३९ नि० ४७९] परलोकसिद्धिः। ते पव्वइते सोतुं मेतज्जो आगच्छती जिणस[१५८-द्वि०]गासं । वच्चामि णं वदामि' वंदित्ता पज्जुवासामि ॥४७७॥२४०४॥ आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सवण्णूसव्वद रिसीणं ॥४७८।।२४०५॥ कि मण्णे परलोगो अस्थि णे अत्यि त्ति संसयो तुझं । वेतपताण य अत्थं ण याणसी तेसिमो अत्थो ॥४७९॥२४०६॥ ते पाइते । किं मण्णे इत्यादि । हे आयुष्मन् कौण्डिन्य मेतार्य ! परलोकास्तित्वे भवतः सन्देहः, सन्देहकारणं च लोकवेदयोरुभयथा प्रतिपत्तेः । केचिल्लोकिकाः "इन्द्रियप्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम्" इति वदन्तः परलोकं जीवं वा प्रत्यक्षाविषयत्वात् नेच्छन्ति, "एतावानेष पुरुषो यावानिन्द्रियगोचरः" इति । अन्ये लौकिकाः “आध्यात्मिकाः सहाताः सर्वे परार्थाः, सङ्घातत्वात् बाह्यशयनादिसङ्घातवत्" [ ] इत्याद्यनुमानैः .. “किमत्राहं किमनहं, किमनेकः किमेकधा ।। विदुषां चोद्यतं चक्षुरत्रैव च विनिश्चयः ॥१॥" इत्यादिभिश्च जीवास्तित्वमभीप्सन्ति । वेदोऽपि “विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति" इति परलोकनास्तित्वमनुवदति । तथा “अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः" "स एष यज्ञायुधी यजमानोऽअसा स्वर्गलोकं गच्छति" [ ] इति परलोकास्तित्वमाह ॥२४०६।। ___एवमुभयथा श्रुतेः सन्देह इत्येतदर्थरूपप्रकाशनाय गाथाप्रपञ्चः-- मण्णसि जति चेतण्णं मज्जंगेमतो न भूतधम्मो त्ति। तो णयि परों लोगो तण्णासे जेण तण्णासो ॥२४०७॥ मण्णसि । भूतधर्मश्चैतन्यम् , तत्समुदायभावित्वात्, मद्याङ्गमदवत्, भूतविनाशे भूतविभागे वा चैतन्यविनाशेन भवितव्यम्, तध(द्ध)र्मत्वात् , मद्याङ्गमदवत्, तस्मान्नास्ति परलोकः, एकस्य संसत्तुरभावात् , गन्धवेनगरवत् ॥२४०७|| अह वि तयत्यंतरता ण य णिच्चत्तणमओ वि तदवत्थं । अणलस्स वे अरणीओ भिण्णस्स विणासधम्मस्स ॥२४०८॥ अह वि तयत्यंतरता इत्यादि । अथापि तच्चैतन्यं भूतेभ्योऽर्थान्तरमेव, विसदृशधर्मत्वात, तथापि तदनित्यं चैतन्यम्, विज्ञानमात्रत्वात्, तस्य चानित्यत्वात् परलोकसं , 'दामी को हे त दी हा म । २ नस्थि त्ति को हे त दी हा भी । नत्थि म । ३ तुझ को हे त। ४ जह को। ५ मज्जगमउ को। गमउ हे। ६ नत्थी त । ७ पर हे त । ८ तद को हे। ९ वाऽर को हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४७९सरणं नास्तीति तदवस्थमेव परलोकनास्तित्वमिति । यथाऽरणितः समुत्पन्नस्यानलस्यारणितश्च भिन्नस्य विनाशधर्मणः स्वरूपाभावे न कचिद् गमनमेवं चैतन्यस्यापीति ||२४०८॥ ___ अथैत दोपपरिहारेण बहूनि विज्ञानात्मकानि चैतन्यान्यपास्यैक एव तदाश्रयः कश्चिद्धर्मी सर्वगतो निष्क्रियोऽभ्युपगम्येत अह एगो सव्वगो णिकिरिओ तह वि णत्थि परलोगो। संसरणाभावाओ वोमस्स व सबपिण्डेसु ।।२४०९॥ अइ गाहा । एवमपि नास्ति परलोकः, संसर्तुरभावात् । न संसरत्यात्मा नित्यत्वात्. निष्क्रियत्वात् सर्वगतत्वाच्च, व्योमवत् ॥२४०९॥ इधलोगातो व परो सुरादिलोगो ण सो वि पच्चक्खो । एव पि ण परलोगो मुवति य मुतीमु तो संका ॥२४१०॥ इधलो० गाहा । इहलोकात् परलोकः सुर-नारकादिलोकः । सोऽपि नास्ति अप्रत्यक्षत्वात् , खरविघाणवत् । श्रुति-स्मृति-लोकप्रवादेषु च श्रूयते परलोकः, तस्मादाश. का परलोकं प्रति भवत इति एवं भगवता हृदयस्थस्तस्य संशयः प्रकटीकृतः ॥२४१०॥ तदपनोदार्थमाह'भूतिन्दियातिरित्तस्स चेतणा सो य दव्यतो णिच्चो । जातिस्सरणातीहि पडि वज्जमु वायुभूति व्व ।।२४११॥ भूतिन्दियातिरित्तस्स चेतणा । भूतेन्द्रियातिरिक्तस्य कस्यापि चेतना धर्मः, भूतेन्द्रियेषु कदाचिद् भावात् , सुखदुःखवत् । यस्यासौ चेतनाधर्मः स दव्यार्थतो नित्यः पर्यायार्थतश्चानित्यः सक्रियश्च । ततः संसरति । जातिस्मरणादिभ्यश्च विहितोपपत्तिभ्यः प्रतिपद्यस्व वायुभूतिवत् तृतीयगणधरवक्तव्यतानिर्देशमाह लाघवार्थम्, ता एवोपपत्तय इहापि योज्या इति ॥२४११।। ण य एगो सव्वगतो णिक्किरियो लक्खणातिभेतातो । कुंभा[१५९-०]तओ व्व बहवो पडिवज्ज तमिन्दभूति व्य ॥२४१२॥ ___ण य एगो इत्यादि । न चैक आत्मा सर्वगतो निष्क्रियश्च । किं । तर्हि ? बहवः आत्मानः, भिन्नलक्षणादित्वात्, कुम्भादिवत् । इन्द्रभूतिवदिति प्रथमगणधरवक्तव्यतातिदेशोऽत्र द्रष्टव्य इति ॥२४१२।। _पिंड को हे। २ धपरलो त । ३ पुरो त । ४ परो लो को। ५ भूइंदि° को हे । ६ यंता चा• इति प्रतौ । ७ दउ को हे । ८ मिंद को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४७९) परलोकसिद्धिः। इधलोगातो य परो सोम्म ! सुरा णारगा य परलोगो । पडिवज्ज मोरियाकंपिये व विहितप्पमाणातो ॥२४१३॥ इथलोगातो य इत्यादि । इहलोकात् परलोकः सुरनारकाः । ते च प्रमाणैः प्रतिपादिता मौर्याकम्पितवक्तव्यताद्वये । तदिहापि सर्व योज्यमित्यादि ।।२४१३॥ अपि च--- जीवो विण्णाणमयो त चाणिच्चे ति तो ण परलोगो । अध विण्णाणादण्णो तो अणभिण्णो जधागासं ॥२४१४॥ जीवो विण्णाणमयो । जीवो विज्ञानमयः । तच्च विज्ञानमनित्यम् । अनित्यत्वात् गमनं नास्ति । ततः परलोकाभावः । अथासो विज्ञः नादनित्यादन्यः स्वयं नित्यः । अभिन्नादन्योऽनभिन्नः । द्विप्रतिपेधः प्रकृतिं गमयति- अनभिन्नो भिन्न एव । नित्यत्वाच्चाकाशवत् न कचिद् गच्छति । ततोऽपि परलोकाभावः ॥२४१४॥ एत्तो च्चिय ण स कत्ता भोत्ता य अतो वि णत्थि परलोगो । जं च ण संसारी सो अण्णाणामुत्तितो खं च ॥२४१५॥ एत्तो गाहा । नित्यत्वादेव च न कर्त्ता न भोक्ता, आकाशवत् । न चासौ संसारी, अज्ञत्वादमूर्तत्वाच्च, आकाशवत् ॥२४१५॥ एवमभिहिते पूर्वपक्षे उत्तरमाह - मण्णसि विणासि चेतो उप्पत्तिमदादितो जधा कुंभो । णणु एतं' चिय साधणमविणासित्ते वि से सोम्म ! ॥२४१६॥ मण्णसि गाहा । विनाशित्वे चेतनाया[:] कोपपत्तिः ! इति . भवतोऽभिप्रायः । चेतो विनाशि, उत्पत्ति-विगमवत्त्वात् कुम्भवत् । नन्वयमेव हेतुनित्यत्वे हे सौम्य कौण्डिन्य मेतार्य ! धर्मस्वरूपनिराकरणोऽयं विरुद्धः, साध्यधर्मविकलश्च दृष्टान्तः, कुम्भस्यापि नित्यत्वात् ॥२४१६॥ अथवा वत्युत्तणतो विणासि चेतो ण होति कुम्भो व्य । उप्पत्तिमतातित्ते कधमविणासी घडो बुद्धी ॥२४१७॥ अधवा गाहा । अथवा प्रतिप्रमाणे विरुद्धाव्यभिचारी हेतुः । अविनाशि चेतः वस्तुत्वात् कुम्भवत् । ननु चोत्पत्तिमत्त्वमनित्यत्वानुगतं कथमविनाशित्वं चेतसो घटस्य वाऽऽपादयति ! इति इयं बुद्धिः, भवतोऽयमभिप्रायः, इयमाशङ्केति यावत् ॥२४१७॥ १ पिउ को हे। 'पिओ त । २ °च्चन्ति को । ३ इत्तो को हे। ४ व को हे त। ५ कुम्भो को । ६ एवं त । ७ कुभो हे । ८ 'मदादित्ते हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४७९तत्प्रतिपादनार्थमुच्यते--- रूवरसगंधफासा संखासंठाणदवसचीओ । कुम्भो ति जतो ताओ पसूतिविच्छित्तिधुवधम्मा ॥२४१८॥ रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-सङ्ख्या-संस्थान-द्रव्यशक्तयः कुम्भ इत्युच्यते, द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वाद वस्तुनः । ताश्च रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-संस्थानद्रव्यशक्तयः प्रसूतिविच्छित्तिध्रुवधर्माणः, उत्पत्ति-व्यय-ध्रौव्यरूपत्वा(रूपा)त्मिका इत्यर्थः। तस्माद विनाभावात् उत्पत्तिमत्त्वादविनाशित्वा त्व)मव्यभिचारीति ॥२४१७।। __एतदेव विस्तरतो भाव्यते । इध पिण्डो 'पिण्डागारसत्तिपज्जायविलयसमकालं । उप्पज्जति कुम्भागारसत्तिपज्जायरूवेणं ॥२४१९|| इध पिण्डो पिण्डागार इत्यादि । घटस्योत्पत्तिमत्त्वादिति यदुच्यते सा का घटोत्पत्तिः ? ननु पिण्डो विनश्यति घटश्चोत्पद्यत इति । तत्रापि पिण्डस्य न सर्वात्मना विलयः, न च घटस्य सर्वात्मनोत्पादः । किं तर्हि ? पिण्डः पिण्डाकारशक्तिपर्यायविलयसमकालं कुम्भाकारशक्तिपर्यायरूपेणोत्पद्यते इति घटोत्पत्तिरुच्यते ॥२४१९ । यस्मातरूवातिदव्बताए [१५९-द्वि०]ण जाति ण य वेति तेण सो णिच्चो । एवं उप्पातव्वयधुवस्सभावं मतं सव्वं ॥२४२०॥ ख्वातिदन्वताए । यस्माद्रूपरसगन्धस्पर्शमृव्यस्वरूपेण नोत्पद्यते, पूर्वोत्पन्नत्वात्, नापि व्येति, तेनात्मना तस्य सर्वदोपलब्धेरनपायित्वात् , तस्मात्तेन रूपेण नित्यम् । यथा च कुम्भः एवमुत्पादव्ययध्रुवस्वभावं सर्वमेव वस्तु । यथा वाऽचेतने वस्तुनि भावनैषा एवं चेतनेऽपि नित्यत्वाभिमते आत्मनीति ॥२४२०॥ घडचेतणया णासो पडचेतणया समुन्भवो समयं । संताणावत्था तधेहपरलोगजीवाणं ॥२४२१॥ घडचेतणया णासो इत्यादि । घटचेतना घटविज्ञानम् , पटचेतना च पटविज्ञानम् । यदा घटविज्ञानानन्तरं पटविज्ञानोत्पत्तिस्तदेवं भावना-घरचेतनया जीवस्य नाशः, पटचेतनया समुद्भवः, समकमेव जीवसन्तानेनावस्थानं ध्रुवत्वम् । तथैव परलोकजीवानाम् ॥२४२१॥ १ पिंडो को । २ पिंडा को। ३ कुंभा हे । ३ ति कुंभाइरू त । ४ स्वाई हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४८१] परलोकसिद्धिः । ४४३ मणुएहलोगणासो सुरातिपरलोगसंभवो समयं । जीवतयावत्थाणं णेहभवो णेय परलोगो ॥२४२२॥ मणुएहलोग० इत्यादि । मनुज इतीहलोकः तेन मनुजेहलोकतया जीवस्य नाशः, सुरपरलोकतया उत्पादः, समकमेव जीवत या चावस्थानम् , ध्रुवत्वमित्यर्थः । तस्यामवस्थायां नेहलोको न परलोकः । पर्यायाणां द्रव्यमाने अविवक्षेति ॥२४२२।। ___ इयं चोपपत्तिर्यस्मात्असतो णस्थि पमूती होज्ज व जति होतु खरविसाणस्स ण य सव्वधा विणासो सम्वुच्छेदप्पसंगातो ॥२४२३।। तोऽवस्थितस्स केणयि विलयो धम्मेण भवणमण्णेणं । वत्थुच्छेतो ण मतो संववहारोवेरोधातो ॥२४२४॥ असतो णत्थि पमूतीत्यादि । तोऽवस्थि० गाहा । अत्यन्तासतो नास्ति प्रसूतिः. असत्त्वात् , खरविषाणस्येव । घटश्चोत्पद्यते, तस्मादत्यन्ताभूतो नोत्पद्यत इति । विनश्यदपि न सर्वथा विनश्यति, सर्वोच्छेदप्रसङ्गात् , खरविषाणतुल्यतैव मा भूदिति । तस्मादवस्थितस्य केनचित् पर्यायेण विलयः, न सर्वपर्यायैः, यस्मात् सर्वोच्छेदो नाभिमतः । न च सर्वोत्पत्तिः, लोकसंव्यवहारोपरोधात् ॥२४२३-२४॥ इतश्चागमविरोधित्वमपि परलोकनास्तित्ववादिनः लोकविरोधित्वं चेतिअसति व परम्मि लोए जमग्निहोत्ाति सग्गकामस्स । तदसंबद्धं सव्वं दाणातिफलं व लोअम्मि ॥२४२५॥ असति व परम्मि लोए गतार्था ॥२४२५॥ एवं वर्णितोपपत्तिभिःछिण्णम्मि संसयम्मि जिणेण जरमरण विप्पमुक्केणं । सो समणो पव्वइतो तिहिं तु सह खण्डियसतेहिं ॥४८०॥२४२६॥ दशमो गणधरः ॥२४२६॥ एकादशगणधरवक्तव्यताव्याख्यानसम्बन्धनाय गाथासमूहः-- ते पन्चइते सोतं पासो आगच्छई जिणसगासं । बच्चामि [१६०-५०]णं वंदामि वन्दित्ता पज्जुवासामि ॥४८१॥२४२७॥ १ नेव को। नेह त। २ समुजः इह-इति प्रतो । ३ णवि को हे त । ४ सव्वुच्छे हे त । ५ हाराव जे । ६ ताई को हे। ७ च को हे त । ८ परलोए जे । ९ इति दशमो गणधरवादः समाप्तः-त । १० पभास म । ५६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४८२आभट्ठो य जिणेणं जाति जरामरणविप्पमुक्केणं । णामेण य गोत्तेण य सव्यण्णूसव्वदरिसीणं ॥४८२॥२४२८॥ किं मण्णे णेव्वाणं अत्थि [व] णत्थि त्ति संसयो तुझं । वेतपताण य अत्थं ण याणसी तेसिमो अत्थो ॥४८३॥२४२९॥ मण्णसि किं दीवस्स व णासो 'णेव्वाणमस्स जीवस्स । दुक्खक्खयादिरूवा किं होज्ज व से सतोऽवत्था ॥२४३०॥ ते पव्वइते सोतुं । आभट्ठो गाहा । किं गाहा । मण्णसि गाहा । हे आयुष्मन् कौण्डिन्य प्रभास : निर्वाणास्तित्वगतो भवतः संशयः । स च वेदवाक्यानामुभयथा दर्शनाज्जातः, यत इंदं वेदवाक्यम् "जरामय वा एतत् सत्रं यदग्निहोत्रम् ।". शत०१२. ४. १.१] क्रिया भूतवधभूतोपकाररूपत्वाच्छबलाकारा, जरामर्यवचनाद् यावज्जीवं नित्यक्रिया, सा चाभ्युदयफला, न चान्यः कश्चित् कालोस्ति, यस्मिन्नपवर्गप्रा पणक्रियारभ्येत । तस्मान्नास्ति मोक्षः, साधनाभावात् , कारणविरहितघटवत् । तथाऽन्यद्वेदवाक्यं मोक्षास्तित्वे “सैषा गुहा दुरवगाहा" तथा "द्वे बा(ब्रह्मणी वेदितव्ये, परमपरं ब्रह्म ।" मोक्ष इति तस्याभिधानम् । तस्मादुभयथा विप्रतिपत्ति(त्तेः) संशयः । तत्र निर्वाणाभावपक्षं निराकरिष्णुः पूर्वपक्षं ग्राहयति-कर्मवियोगानन्तरं जीवस्य स्वरूपाभावात्, तेन रूपेण विनष्टत्वात् , विध्यातप्रदीपवत् । एवं चेन्मन्यसे मोक्षाभाव इति । अथवा अत्यन्तदुःखक्षयात् स्वाभाविकाव्याबाधसुखस्वरूपा जीवस्य स्वेन रूपेण स्वत एवावस्था मोक्ष इति ॥२४२७-३०॥ अहवाऽणातित्तणतो खस्स व किं कम्मजीवजोगस्स । अविजोगातो ण भवे संसाराभाव एवंन्ति ॥२४३१॥ अहवाऽणातित्तणतो इत्यादि । अथवाऽनादिकारणश्च जीवकर्मसंयोगः, अनादित्वात् , जीवाकाशसंयोगवत् । अतश्च संसार एव सर्वदा, न मोक्ष इति ॥२४३१।। विप्रतिपताविदमुच्यते-- पडिवज्ज मेंण्डिओ इय वियोगमिह "जीवकम्मनोगस्स । तमणातिणो वि कंचणधातूण व णाणकिरियाहि ॥२४३२॥ पडि० गाहा । मण्डिकवक्तव्यताऽतिदेशाद् ग्रन्थलाघवमाचार्यस्य । यत् तत्रोक्तं तदिहापि योजनीयम् । अपि च यदुक्तमपर्यवसानो जीवकर्मसंयोगोऽनादित्वादिति, अय १ निव्वाणं को हे दी हा म । २ अत्थी नत्थि म । ३ तुज्झ को हे त म । ४ याणसि दी हा । .. निव्वा को हे। ६ वि त । ७ क्रिया स्य चा'-इति प्रतौ। ८ विभोगा को हे। ९ वत्ति को हे। १० मंडि को। ११ 'मिह कम्मजीवजों को हे त। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४८३] निर्वाणसिद्धिः। मनैकान्तिको हेतुः । धातु-काञ्चनयोरनादिः संयोगः । स च सपर्यवसानो दृष्टः, क्रियाविशेषात् । एवमयमपि जीवकर्मसंयोगः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रैः सपर्यवसानो भविष्यति । जीवकर्मवियोगश्च मोक्ष इत्युच्यते ॥२४३२॥अथ मन्येथाः-- जं णारेगातिभावो संसारो णारेगातिभिण्णो य । को जीवो तो मण्णसि तण्णासे जीवणासो त्ति ॥२४३३॥ जणारगातिभावो इत्यादि । अपि च संसारः क उच्यते ! ननु नारका(क). तिर्यग्यौन-मनुष्य-देवत्वानि, नान्यः संसारः । तेभ्यश्च नारकादित्वेभ्यो भिन्नः को नाम जीवः ? नारकादय एव पर्याया जीवः, तदनन्तरत्वात् । संसाराभावे जीवाभाव एवेति असत्पदार्थों मोक्षः ॥२४३३।। अत्रापि प्रतिविधीयते ण हि णारगातिप॑ज्जायमेत्तणासम्मि सवधा णासो । जीवदव्वस्स मतो मुद्दाणासे व हेमस्स ॥२४३४॥ .. ण हि गाहा । यदुक्तम्-नारकादिसंसाराभावे सर्वथा जीवाभाव एव, अनर्थान्तरत्वात् , नारकादिपर्यायस्वरूपवदिति । अयमप्यनैकान्तिको हेतुः-हेम्नो मुदिकायाश्च अनर्थान्तरत्वं सिद्धम् , न च मुद्रिकाऽऽकारनाशे सर्वथा हेमविनाश इति । यद्वा नारकादिपर्यायमात्रनाशे [न] सर्वथा जीवनाशो भविष्यति । ॥२४३४॥ एतदेव भावयति-- कम्मकतो संसारो तण्णासे तस्स जुज्जते णासो । जीव[१६०-द्वि०]त्तमकम्मकतं तण्णासे तस्स को णासो ॥२४३५॥ कम्मकतो संसारो इत्यादि । संसरणं संसारो नारकादिपर्यायानुभवनम् । तस्य कर्मणो नारकादिपर्यायकारणस्याभावे युक्त एव नारकपर्यायविनाशः, कारणाभावात् कार्याभाव इति । यत् पुनर्जीवत्वमेतत् कर्मकृतं न भवति, अनादिपारिणामिकभावत्वाज्जीवत्वस्य । ततस्तत् कर्मविनाशेऽपि न नदयति । नारकपर्यायमात्रेण तु विनश्यति, न सर्वात्मना जीवः । तस्मात् संसाराभावेऽपि मुक्तात्मना जीवोऽवतिष्ठत इति मुक्तसद्भावः ॥२४३५।। १ गागराति त । २ नारया को, गागराति त । ३ जीवो तं को हेत। जीवा तो-जे । ४ गायपत। ५ तत्तो से त ६ अस्स को । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ विशेषावश्यकभाष्ये (नि०४८३इतश्च नित्यो जीवः, अत्रानुपलभ्यमानविकारत्वात् , आकाशवत्, यश्च नित्यो न भवति तस्यावश्यं विकार उपलभ्यते, यथा घटस्य कपालानि शर्करिका 'पांश्वादि वा, पटस्य तन्तवः तद्भेदप्रभेदा वा । एतदर्थप्रदर्शिनी गाथा-- ण विकाराणुवलंभादागासं पिव विणासधम्मो सो । इह णासिणो विकारो दीसति कुंभस्स वावयवा ॥२४३६।। ण विकाराणुवलं भा० इत्यादि । गतार्था ।।२४३६।। अथवाऽभिप्रायो भवतःकालंतरणासी वा घडो व्य कतकादितो मती होज्जा । णो पद्धंसाभावो भुवि तद्धम्मा वि जं णिच्चो ॥२४३७॥ कालंतरणासी वा इत्यादि । यद्यपि न क्षणप्रध्वंसी घटस्तथापि कालान्तरविनाशी दृष्टः एवं कालान्तरविनाशी जीवो भविष्यति, सुर-नारकादिपर्यायैः कृतकत्वाद् , घटवत् । एवं मोक्षोऽप्यनित्यो भविष्यति, कृतकत्वाद् , घटवदेव । अयमनैकान्तिको हेतुः-प्रध्वंसाभावो न विनश्यतीति नित्यः, अथ च तत्रापि कृतकत्वं दृष्टमिति । कपालानां मुद्गराधभिघातात् कृतकत्वमिति । ननु चायुक्तमिदमुच्यते, प्रध्वंसाभावः कृतक इति । अय)स्मादुक्तम्--- "हेतुर्यस्य विनाशोऽपि तस्य दृष्टोऽङ्करादिवत् । विनाशस्तु विनाशस्य नास्ति तस्मादहेतुकः" ॥१॥ अहेतुकत्वाद् विनाशस्य कृतकत्वं नास्ति,अभावत्वात्, खरविषाणस्येव ॥२४ ३७॥ अत इयं गाथा-- अणुदाहरणमभावो खरसंग पिव मती ण तं जम्हा । कुम्भविणासविसिट्ठो भावो च्चिय पोग्गलमयो सो ॥२४३८॥ अणुदाहरणमभावो इत्यादि । 'अकृतकः प्रध्वंसाभावः, अभावत्वात् , खरविषाणवत्' इति यदुक्तं तस्यापक्षधर्मत्वं हेतोः-भाव एव प्रध्वंसाभावः, पुद्गलमयत्वात् प्रागभावमृत्पिण्डवत् । तत् किमुच्यते प्रध्वंसाभाव इति ? आह-कुम्भविनाशोपलक्षितत्वात् कपालानां भावरूपाणामेवाऽपरापेक्षयाँऽभावत्वात् । यथा कुम्भानुत्पत्तिमात्रविशेषणान् मृत्पिण्डस्य प्रागभावत्वं भावस्यैव, तद्वत् प्रध्वंसाभावस्येति अभावत्वमसिद्धम् । ततश्च कृतकत्वं नित्यत्वं च सिद्धं भवति ॥२४३८|| । 'कायांस्वादि-इति प्रतौ। २ इत्यनन्तरं अन्नशोमीमहस्मादि'-इति वर्तते । तस्य तुसंगतिर्न ज्ञायते । ३ विगा को हे। ४ विगा' को हे। ५ वाहिप्रा इति प्रतौ। ६ कयगा को हे। ७-८ प्रतौ - श च-इति पाठः । ९ सिंगं को त । १० यात्माभा' इति प्रतौ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४८३] निर्वाणसिद्धिः। अथवा यदुच्यते नारकादिपर्यायेण कृतकत्वं जीवस्य, संसाराभावात् कर्मापगमात् मुक्तात्मना वा मोक्षस्य कृतकत्वमिति तदसिद्धत्वप्रकाशनायाह-- किं वेगंतेण कतं पोग्गलमेत्तविलयम्मि जीवस्स । कि णिवत्तितमधियं णभसो घडमेतविलयम्मि ॥२४३९॥ किं वेगंतेण · कतमित्याह । कर्मपुद्गलसंयोगविनाशे जीवस्तदवस्थ एव नित्योऽकृत कश्च, द्रव्यरूपत्वात् , संयोग(गि)घटविनाशे आकाशवदिति ॥२४३९।। अपि च प्रमाणं नित्यो जीवः द्रव्यार्थ(ा)मूर्तत्वादाकाशवत् । एतदर्थ गाथापूर्वार्द्धम्-- दन्वामुत्तत्तणतो मुत्तो णिच्चो णभं व दव्वतया। दव्यामुत्तत्तणतो इत्यादि । अयमेवेष्टविघातकृद् विरुद्ध इति पश्चार्द्धन दर्शयति । णणु विभुतातिपसंगो एवं सति णाणुमाणातो ॥२४४०॥ णणु विभुतातिपसंगो इत्यादि । तद्वदाकाशवत् सर्वगतत्वमपि जीवस्य प्राप्नोति । तच्चाहतानामनिष्टम् । तस्माद्विरुद्धः । एवं सति ‘णाणुमाणातो' सर्वगतत्वमनुमानविरुद्धमिति निराक्रियते-न सर्वगतो जीवः, त्वक्पर्यन्त'मात्रशरीरख्याप्येव, तत्रैवोपलभ्यमानगुणत्वात् घटवत् । त(अ)तश्च न सर्वगतो जीवःबध्यमानत्वाच्च, अपराधिबद्धमुक्तदेवदत्तवत् , काष्ठभारकवद्वा । यच्च सर्वगतं तन्न बध्यते, आकाशवत् । एवमनुमानादिष्टविघातकृद्विरुद्धाभावः ॥२४४०॥ अथवा कोऽयमेकान्तग्राहः-सर्वथा नियमेवानित्यमेव वा, कृतकमेवाऽकृतक. मेव वा, यस्मात् सर्ववस्तु पर्यायान्तरमात्रार्पणात् नित्यमप्यनित्यम् , अनित्यमपि नित्यं भवति, कृतकमकृतकं च, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूपत्वाद् , घटाङ्गुलिद्रव्यादिवत् । तदर्थप्रदर्शिनी गाथा को वा णिच्चग्गाहों' सव्वं चिय विभवभंगद्वितिमइयं । पज्जायंतरमेत्तप्पणा हे णिच्चातिववदेसो ॥२४४१॥ को वा णिच्चग्गाहो इत्यादि । विविधो भवो विशिष्टो वा विभव उत्पादः। भञ्जनमामईनमन्यथा भवनं भङ्गो विनाशः । स्थितिरवस्थानं ध्रौव्यमित्यर्थः । विभवभङ्ग-स्थितिभिर्निर्वृत्तं विभवभङ्गस्थितिमयम् । अत एव 'त्रितयमयस्य वस्तुनः पर्यायमात्रविवक्षावशात् येन येन रूपेणाऽर्यते तत्सम्भविना तत्तद्वयपदेशं प्रतिपद्यते, इतरख्यपदेशानविवक्षितान्न(न्ना)पनयत्येव, न चोपादत्ते । अपरित्यक्तानुपात्तरूपास्ते १ जीवः स्वकार्य त मात्र-इति प्रतौ । २ नापदिष्टंविघात-इति प्रतौ । ३'च्चगा को। १ प्पणादिणिच्चा को प्पणादनि' हे। ५ एव तृत-इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ नि० ४८३ , व्यपदेशास्तत्र संनिहिता एव सम्बन्ध्यन्तरसम्बन्धविशेषापेक्षित्वात् पितृपुत्रनप्त्रादिसम्बन्धविशेषण विशिष्ट पुरुषवत् । नित्यवस्तु मृत् पिण्डरूपविवक्षान्तरप्राप्तत्वादनित्यम्, शिबकादिरूपेण जायमानत्वात् पूर्वरूपपरित्यागात् । अनित्यं शिबकादि विवक्षान्तरप्रापणान्नित्यम्, मृद्द्रव्यस्वरूपानतिरिक्तत्वात् । केऽन्ये शिबकादयोऽन्यत्र मृद्रव्यात्, सुवर्णकटकाङ्गदादिवत् ॥२४४१॥ કેટ विशेषावश्यकभाष्ये यच्चोक्तम्-कर्मवियोगानन्तरं जीवस्वरूपनाश एवं अनुपलभ्य तद्विकारत्वात्, प्रदीपानलवदिति । तदूषणाय गाथा- णय सव्वधा विणासोऽणलस्स परिणामतो पयस्सेव । कुंभस्स कवालाण व तथा विकारोवलंभातो ॥२४४२॥ णय सव्वधा विणासो इत्यादि । न सर्वथा विनाशः प्रदीपानलस्येति साध्यधर्मशून्यताऽपि दृष्टान्तस्य, परिणामित्वात् पयस इव । तथा कुम्भ (म्भ ) कपालदर्शनेवदुपलभ्यमानविकारत्वात् साधनधर्मशून्यतापि प्रदीपानलदृष्टान्तस्याख्यायते ॥२४४२| 1 अपर आह [१६१ - प्र० ] जति सव्वधा ण णासोऽणलस्स किं दीसते ण सो सक्खं । परिणाममुहुमयातो जलदविकारंजणरयो' व्व || २४४३॥ जति सव्वधा ण णासो इत्यादि । यदि सर्वथा नैं नश्यति प्रदीपानलः, ततः किमिति कपालयत्तद्विकारः प्रत्यक्षं नोपलभ्यत इति । अतो नास्त्येव तद्विकारः, प्रत्यक्षेणानुपलभ्यमानत्वात्, खरविषाणवत् । अयमनैकान्तिक इति दर्शयति- जलदादीनां पुतलात्मकत्वात् संघातविशेषादैन्द्रियकत्वम् तेषामेव सूक्ष्मपरिणामात् पुनरदृश्यत्वम्', न परमाणवो विनश्यन्ति । तस्माज्जलदविकारः सन्नपि प्रत्यक्षेण नोपलभ्यत इत्यनैकान्तिकहेतुत्वम् । अञ्जनरजोवदिति दृष्टान्तबाहुल्यं सुखप्रतिपत्त्यर्थम् । संघातात् परिणामाच्चैन्द्रियकं बादरं भवतीति ॥२४४३॥ एतत् प्रपञ्चेन दर्शयन्नाह - होतूर्णमिन्दियंतरगज्झा पुनरिन्दियन्तरग्गहणं । खन्धा एन्ति ण एन्तिं य पोग्गलपरिणामता चित्ता ॥ २४४४ || "एगेगिन्दियगज्झा जध वायव्वादयो तथऽग्गेया । होतुं चक्खुग्गज्झा घाणीतिग्गज्झतामेन्ति || २४४५ ॥ Jain Educationa International १ नबहुप इति प्रतौ । २ विगारं को हे । ३ सु को है । ४ न कस्येति- इति प्रतौ । ५ जलदानात्पु - इति प्रतौ । ६ त्वम्-इत्यनन्तरं 'न परदृश्यत्वम्' इत्यधिकम् । ७ ऊणं इन्दि को | 'ऊ इन्दि' हे । ८ °रिदियं को हे । ९ खंधा एंति न एंति को हे । १० गेगेंदि को है । ११ घाणिदियगज्जं को हे त । For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४८३] निर्वाणसिद्धिः। ४४९ होतूणमित्यादि । एगेगिन्दियगज्झा इत्यादि'। होतूणमिति भूत्वेति संस्कृतस्य प्राकृतरूपसिया होतूणेति भवति । कचिदभूतस्याप्यनुस्वारस्य प्रयोगो देशीपदच्छन्दोनुवृत्तिवशात् । होतूणमिदियंतरगज्झा विवक्षितादिन्द्रियादन्यदिन्द्रियं इन्द्रियान्तरं तस्मादपीन्द्रियत्वेन विवक्षितात् पूर्वमिन्द्रियान्तरमिति । विचित्रपरिणामता पुद्गलानां लोकप्रसिद्ध्या । बादरं सूक्ष्मं भवति, सूदममपि बादरं भवति दीनारेषु स्थूलमपि रूप्यकं ताम्रकं च प्रयोगपरिणामविशेषात् सूक्ष्मीभवति, दीनारादपकृष्यते, तपश्च दीनारोऽवतिष्ठते । पुनश्च सूक्ष्मरूप्यकं ताम्रकं च भस्मनिलीनं प्रयोगविशेषादग्निपाकाद्विवेच्य स्थूलं चक्षुःस्पर्शग्राह्य पिण्डीभूतं च प्रदर्श्यते । लवणं च चक्षु-स्पर्शग्राह्य धन-कर्कशं भूत्वा अप्सु सूपे वा चक्षु-स्पर्शविषयं न भवति, रसनघ्राणेन्द्रियान्तरग्राह्यतां प्राप्नोति । एवमेकैकेन्द्रियग्राह्या वाय्वग्न्यादयो भूत्वा पुनस्तस्येन्द्रियस्याविषयत्वं यात्वा इन्द्रियान्तरविषयतामनुभवन्तीति चित्रता पुद्गलपरिणामस्य । एवं प्रदीपानलोऽपि सूक्ष्मधूममषीपरिणामात् सूक्ष्मतामुपगच्छति, नाभावो भवतीति ॥२४४४-४५|| तद्वज्जीवोऽपि कर्मफलशरीरादिसम्बद्धत्वात् स्थूलः स कर्मविगमात् स्वाभाविकाऽमूर्तपरिणाममनाबाधसुख[म]दुःखलक्षणं सूक्ष्मपरिणाम प्राप्तः परिनिर्वाण उच्यते इति । एतदर्थदर्शनी गाथा जध दीवो णिव्वाणो परिणामतैरमितो तधा जीवो । भण्णति परिणेव्याणो पत्तोऽणावाधपरिणामं ॥२४४६॥ जय दीवो गतार्था ॥२४४६॥ तस्य चैवं परिनिर्वृतस्यानाबाधलक्षणं सुखमस्तीत्युच्यतेमुत्तस्स परं सोक्खं गाणाणाबाधतो जघा मुणिणो । तद्धम्मा पुण विरहादावरणाबाघहेतूणं ॥२४४७॥ मुत्तस्स परं सोक्खं इत्यादि । मुक्तस्य कर्मभिर्जीवस्य परं सौख्यमस्ति ज्ञानित्वात् , अनाबाधत्वाच्चैर्व प्रज्ञानोत्पत्तिः, निःसङ्गस्य मुनेरिव । उक्तं च "नैवास्ति राजराजस्य तत् सुखं नैव देवराजस्य । यत् सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥" [प्रशम० १२८] यदि वा कश्चित् ज्ञानित्वमनाबाधत्वं चाऽसिद्धं मन्येत तत्प्रसाधनार्थम-तद्धर्मा पुनः स्वाभाविकेन प्रकाशेन प्रकाशवान् जीवः प्रकाशावरणरहितत्वात् , चन्द्रांशुवत् ।। १ दिवत्-इति प्रतौ। २ 'बन्धत्वान्-इति प्रतौ। ३ दिव्वो ४ 'मन्तर' हे । ५रिनिव्वा को हे। ६ त्वाच्चावाप्र-इति प्रतौ । जीवरहितप्रकाशावरणत्वात् इति प्रतौ । द्रष्टव्या को वृत्तिरत्र । तत्रापि 'रहित'पदस्य विपर्ययो: दृश्यते । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४८३ "स्थितश्चन्द्रांशुवज्जीवः प्रकृत्या भावशुद्धया । चन्द्रिकावच्च विज्ञानं तदावरणमभ्रवत् ॥१॥" [ योगदृ० १८१] अनाबाधसुखसम्बन्धी जीवः विरहिताबाधहेतुत्वात् ज्वरापगमस्वस्थनरवत् अपि चोक्तम् "व्याबाधाभावाच्च स सर्वज्ञत्वाच्च भवति परमसुखी । व्याबाधाभावोऽत्र स्वस्थस्य ज्ञस्य नेनु सुसुखम् ॥२॥" ॥२४४७॥ अथवा कश्चिदाहमुत्तो करणाभावादण्णाणी खं व णणु विरुद्धोऽयं । जमजीवता वि पावति एत्तो च्चिय भणति तं णाम ॥२४४८॥ मुत्तो करणाभावादित्यादि । अज्ञानी मुक्तः, अकरणत्वादाकाशवत् । नन्वेवं धर्मिस्वरूपविपर्ययसाधनाविरुद्धः-आकाशवदजीवोऽपि मुक्तः प्राप्नोति एतस्मादेव हेतोरिति । एवमाचार्येणोक्त परः विल प्रत्याह-भवतु तन्नाम । नामेत्यनुज्ञायाम्अजीवो नाम मुक्तो भवतु, न कश्चिद्दोषः । एषोऽस्याभिप्रायः-विरुद्धोऽसति बाधने, तन्नामाऽजीवत्वमिष्टमेवेति सिद्धसाधना द्विरुद्धाभाव इति । ननु चैवाहतस्य ब्रुवाणस्य स्वतोऽभ्युपगमविरोध इति बाधने सति कथं विरुद्धता चोद्यते ? सर्वत्र च विरुद्धानैकान्तिकत्वेषूभयसिद्धस्य परिग्रह इति न्यायलक्षणात्, मा वा ॥२४४८॥ अत्र परिहारगाथा-~ दव्यामुत्तत्तसभावजातितो तस्स दूरविवरीतं । ण हि जच्चंतरगमणं जुत्तं णभसो वे जीवत्तं ॥२४४९॥ इयमप्यसम्बद्धा । यतः परेणैवं चोदिते एषा युज्यते वक्तम्, न स्वयं चोदिते विरुद्धे, तत् कथमेतद् गमनीयम् ! पूज्यक्षमाश्रमणपादानामभिप्रायो लक्षणीयः । उच्यते-परस्यापि जीवपदार्थश्चाऽजीवपदार्थश्चेत्युभयं विद्यते । जीवः संसारी मुक्तश्चेति द्वेधा । तस्य मुक्तस्याऽजीवत्वापादनमनिष्टमेव । परस्यैकान्तवादिनः पदार्थसङ्करापत्ति भयात् तस्याऽजीवत्वम(त्वा)भ्युपगम एव विरोध एव, न सिद्धसाधनं भवति । यत्तु तेनाभ्युपगम्यते भवतु तन्नामेति सा मूढता तस्य । तन्मूढताप्रदर्शनार्थ परिहारगाथा युज्यते दवाऽमुत्तत्तसभावजातितो इत्यादि । आर्हतानां तु सर्वविषयाऽनेकान्तवादिनां मुक्तस्यापि जीवाजीवोभयधर्माभ्यनुज्ञानात् केनचिदंशेन नयवादान्तरविवक्षाव १ 'स्य परमसुख हे. । २ तन्नाम को हे। ३ बाधने नन्नामो जी -इति प्रतौ । ४ वमाहा।। तस्याबुवा' इति प्रतौ । ५ व्य हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४८३] गणधरवादे निर्वाणसिद्धिः। शात् अजीवत्वमिष्टमेवेति नाभ्युपगमविरोधः । ततश्चासति बाधने विरुद्धचोदनेति युक्तमेवाचार्येण भण्यते , स्वयमाहतस्याभ्युपगमविरोधाभावात्, परस्य च जीवपदार्थस्याजीव[त्व प्राप्तेरनिष्टापादनात् । कदाचित् सर्वात्मगुणहाने सिद्धत्वप्राप्तावजीवत्वमेवेत्येभ्युपगच्छेत् पर इति । तन्निवारणार्थमियं गाथा युज्यते-दव्यामुत्तत्तसभावजातितो। द्रव्यं चामूर्तवं चेति द्रव्याऽमूतत्वे ताभ्यां द्रव्यामूर्तत्वाभ्यां स्वभाव जातिरात्मपदार्थश्चेतनः । अजीवपदार्थेभ्योऽन्येभ्य आकाशादिभ्यो द्रव्यत्वामूर्तत्वसामान्येऽपि न स्वभावजात्येकत्वं भवति, जात्यन्तरगमनमेव, नभस इवाचेतनस्य सतो जीवत्त्वगमनमिति, दूरविपरीतजात्यन्तरत्वात् । तस्मात् मुक्तस्याऽजीवत्वमनिष्टं सर्वप्रवादेवात्मपदार्थाभ्युपगमेषु । तच्चाजीवत्वमापद्यमानं हेतुफलाद् विरुद्धमिति स्फुट एव विरुद्धः ॥२४ ४९॥ ततश्च करणाभावादज्ञानी मुक्त इत्येतदसाधनम्, करणानां ज्ञानस्य चात्यन्तव्यतिरेकात् । कथमिति तदर्थं गाथा मुत्तातिभावतो गोवलद्धिमंतिन्दियाइं कुंम्भो व्व ।। उवलंभद्दाराणि तु ताई जीवो[१६१-द्वि०] तदुवलद्धा ॥२४५०॥ मुत्ताति० गाहा । नोपलब्धिमन्तीन्द्रियाणि इति पक्षः। मूर्त्तादि[मत्त्वात् । मूर्तत्विं च पुद्गलसंघातरूपत्वात् अचेतनत्वादिति । आदिग्रहणादनेक हेतुत्वम्. यत्तु ज्ञानं अनुभवसिद्धं दृष्टं तदात्मस्वरूपम् । इन्द्रियाणि तु तस्योपलब्धिद्वाराणि । [तत्र] चोपलब्धा जीवः ॥२४५०॥ __ न चेन्द्रियाण्यात्मा । कुतः ? यस्मादियं गाथा--- तदुवरमे वि सरणतो तव्यावारे वि णोवलंभातो । इंदियभिण्णो आता पंचगवक्खोवलद्धा वा ॥२४५१॥ तदुवरमे वि गाहा। अत्र प्रमाणद्वयं यथाक्रमेण-इन्द्रिये योऽय आत्मा 'ज्ञाता, तदुपरमेऽपि तद्द्वारोपलब्धार्थस्मर्तृत्वात् पञ्चगवाक्षेभ्य इव देवदत्तः । अथवा इन्द्रियेभ्योऽन्यः आत्मा ज्ञाता, तद्व्यापारेऽप्यनुयुक्तस्यानुपलब्धृत्वात् , विवृतगवाक्षे इवान्यमनस्कदेवदत्तः । तस्मादात्मा ज्ञानस्वरूपः सर्वदा, [न] ज्ञानरहितः कदाचिदपि । आवरणापगमसम्बन्धात्तु शुद्धाऽशुद्धज्ञानत्वं विशेषः ॥२४५१॥ १ मेवेत्युपर-इति प्रतौ। । द्धिमिति त ३ 'तिदि को हे । ५ कुंभो हे। ५ णाता जे । ६ ज्ञानात्तदु'- इति प्रतो । ७ 'रणाप्रथमस'--इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४८३यस्य पुनर्ज्ञानरहितोऽसौ मुक्तः, तस्य जीव एवासौ न भवति, ज्ञानरहितत्वे नाभ्युपगतत्वात्, परमाणुवत् । तस्माद् विरुद्धमेतत् मुक्तिभावेन सिद्धत्वेन विद्यतेऽसौ जीवः, ज्ञानरहितश्चेति, परमाणुरपि सिद्धः प्राप्नोति । तदर्थमियं गाथा णाणरहितो ण जीवो सरूवतोऽणु व्व मुत्तिभावेणं । जं तेण विरुद्धमितं अस्थि य सो णाणरहितो य ॥२४५२॥ ___णाण० गाहा । भाविता ॥२४५२।। किधे सो णाणसरूवो णणु पच्चक्खाणुभूतितो णियए । परदेहम्मि वि गज्झो स पवित्तिणिवित्तिलिंगातो ॥२४५३।। कथं पुनरात्मा ज्ञानस्वरूप इति ? ज्ञानस्वरूप आत्मा, स्वात्मविज्ञानानुभवप्रत्यक्षसिद्धेः, परदेहे च इष्टानिष्टप्रतिपत्तिभ्यां स्वात्मवदित्यनुमानात् ॥२४५३॥ यदि चैवमेकदेशज्ञानावरणापगमात् किञ्चिदज्ञः, ततोऽसौ निःशेषावरणक्षयात् शुद्धतरो भविष्यत्यनावरणत्वात्, विगताभ्रावरणसूर्यवत् । प्रकाशमयत्वस्य भावादज्ञानत्वं न युक्तमिति गाथोच्यते - सव्वावरणावगमे सो सुद्धतरो ईवेज्ज सूरो ब्व । तम्मयभावाभावादण्णाणितं ण जुत्तं से ॥२४५४॥ सवावरणावगमे इत्यादि गतार्था ॥२४५४॥ एवं संसार्यवस्थायां सर्वज्ञावस्थायां सिद्धावस्थायां च प्रकाशक एव जीवः आवरणापगमविशेषात्त किञ्चिन्मात्रावभासनं सर्वावभासनं च, प्रदीपस्येव गवाक्षान्तरस्थितपुरुषस्येव वा भवतीति गाथाद्वयम् - एवं पयासमइओ जीवो छिद्दावभासयत्तातो । 'किंचिम्मत्तं भासति छिद्दावरणप्पैदीवो व्य ॥२४५५|| सुबहुँअतरं वियाणति मुत्तो सप्पिधाणविगमातो । अवणीत बरो व्व णरो विगतावरणो" पदीवो व्य ॥२४५६॥ एवं पयासमइओ इत्यादि । सुबहु • गाहा । किञ्चिन्मात्रावभासकः संसारी छिन्ना[छिन्ना]वरणत्वात् छिन्ना[छिन्ना]वरणप्रदीपवत् । उत्पन्नकेवलज्ञानः सिद्धश्च १ ज्ञानरहितेत्वेनोभ्यु-इति प्रतौ । २ कध । त। ३ विय' को। ५ भवे हे । ५ तम्स त । ६ सो त । ७ स्यैव इति प्रतौ। ८ पगास को हे। ५. किंचि जे त । १० म्मेत्त को हे त । ११ णपई हे। १२°हुयरं को हे त १३ मुत्ता जे । १४ सव्या पि जे १५ णीध त । १६ रणप्प को हे त। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४८३ ] गणधरवादे निर्वाणसिद्धि: । ४५३ सर्वावभासको निःशेषापगतावरणत्वात् अपनीतगृहकुड्यपुरुषवत्, विगतावरणप्रदीपवत् । एवं हि ज्ञानप्रकाशात्मकत्वं सिद्धस्याख्यातम् ॥ २४५५-५६॥ अथ सांसारिक सुख दुःखानुभवाभावादत्यन्तानाबाधलक्षण सुखस्वरूपता प्रकाशनीयेति पुण्णा पुण्णकताई जं सुहदुक्खाई तेण तणीसे । तण्णासो तो मुत्तो णिस्सुहदुक्खो जधागासं ॥२४५७|| पुण्णा पुण्णकता | निःसुखदुःखः सिद्धात्मा, सुखदुःखकारणपुण्यापुण्यात्मककर्मवियुक्तत्वात् ।।२४५७॥ raat freerat णभं व 'देहिंदियादि भावातो । [१६२ - प्र० ] आहारो देहो च्चिय जं सुहदुक्खोवलीणं ॥ २४५८ || अथवा गाहा । अथवा यथा प्रमाणम् - निःसुखदुःखः सिद्धात्मा, देहेन्द्रियरहितत्वात्, आकाशवत् । सुखदुःखोपलब्धीनां देहेन्द्रियाण्याधारः । तस्याधारस्याभावे सुखदुःखयोराधेययोरप्यभाव इति || २४५८ || पुण्णफलं दुक्खं चिय कम्मोतयतो फलं व पावस्स । णु पावफले वि समं पच्चक्ख विरोधिता चैवें ॥२४५९॥ पुण्ण० गाहा । यदेव तत् पुण्यफलं सुखत्वाभिमतं दुःखमेवेति प्रतिपत्तव्यम्, कर्मोदयत्वात् । ननु चैवं विपर्ययसाधनमपि शक्यं वक्तुं पापफलं दुःखत्वाभिमतं सुखमेवेति प्रतिपत्तव्यम् कर्मोदयत्वात् पुण्यफलवत् । अत्र प्रत्यक्षविरोधः स्वसंवेद्यः, दुःखानुभवस्य सुखत्वेना संवेद्यत्वात् ॥ २४५९ ॥ " जत्तो च्चिय पच्चखं सोम्म ! सुहं णत्थि दुक्खमेवेतं । पडिकारविभत्तं तो पुण्णफलं पिं दुक्खं ति || २४६०॥ जत्तो च्चिय पच्चक्खं गाहा । यत एव प्रत्यक्षं सुखं नास्ति, अत एव सौम्य कौण्डिन्य ! सर्व दुःखमेवेदं संसारचक्रमस्माभिः प्रपञ्च्यते । किन्तु दुःखप्रतीकाररूपत्वात् पुण्यफलं दुःखमेव सत् सुखमिति व्यपदिश्यते, गण्डच्छेदन | दिचिकित्सावत् ॥२४६० ॥ अतश्च विसयहं दुक्खं चि दुक्खप्पडिगारतो तिमिच्छे न । तं सुमुयारातो योवयारो विणा तैच्चं ॥ २४६१॥ १ तन्नासे को हे । २ ण्णासाओ मु को हे त । ३ दुक्खं त । ४ देहेन्दि को देहेंदि हे । ५ 'यादामा को हे त । ६ खाः इति प्रतौ । चेव को हे । ८ ति हे त । ९ 'डियर' को हे । १० 'गिच्छि त । ११ न य उव को न उ' हे । १२ तित्थं त । ७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४८३विसयसुहं दुक्खं गाहा । विषयसुखं संसारानुबन्धि दुःखमेव, दुःखप्रतीकारत्वात्, अशोरोगप्रतीकारवदेहछेदवत् । नन्वेवं सुखशब्देस्तत्रानर्थकः प्रयुज्यते । सत्यम्, अनर्थकः, परमार्थसुखं प्राप्य तत् पुनः सुखमुपचारात्, सिंहवत् । न चोपचारः परमार्थमन्तरेण भवतीति उच्यते-परमार्थसुखं सत्पदार्थः, कचिदुपचर्यमाणत्वात्, सिंहवत् ॥२४६१॥ तम्हा जंमुत्तमुहं तं तच्चं दक्खसंखएऽवस्सं । मुणिणोऽणावाधस्स व णिप्पडिकारप्पसूतीतो ॥२४६२॥ तम्हा जं मुत्तमुह इत्यादि । मुक्तसुखं तत्त्वं परमार्थः, निप्प्रतीकारप्रसूतिस्वात् परित्यक्तसर्वलोकयात्रावृत्तान्ता(तानाम् ,) निःसङ्गयतिसुखवत् । उक्तं च "निर्जितमदमदनानां वाक्कायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ॥" [प्रशम० २३८] २४६२॥ अथवान्यथा परमार्थसुखस्वरूपत्वमात्मन आरयायतेजधु वा णाणमयोऽयं जीवो णाणोवघाति चावरणं । करणमणुग्गहकारि सव्वावरणक्खए सुद्धी ॥२४६३॥ तध सोक्खमयो जीवो पावं तस्सोवघातयं णेयं ।। पुण्णमणुग्गहकारि सोक्खं सव्यवखए सयलं ।।२४६४॥ जध वा णाणमयोऽयं जीवो इत्यादि । स्वाभाविक गुणोऽयं जीवस्य मुक्तसुखम्, स्वप्रतिबन्धकाविनाभाव्यशुभकर्मोदये उपहन्यमानत्वात् । तथा स्वप्रतिबन्धका विनाभावि देवगत्यादि, शुभकर्मोदयेऽनुगृह्यमाणत्वात् , स्वप्रतिबन्धकसर्वक्षये चात्यन्तशुद्धिपरिपूर्णत्वात् , ज्ञानगुणवत् । यथा ज्ञानावरणोदये सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तावस्थासु प्रथमसमये एकेन्द्रियजात्याद्यविनाभाव्यशुभकर्मसु च सत्स्वत्यन्तमुपघातः, तस्यैव च देवगत्याद्यविनाभाविशुभकमोदये चक्षुरादिकरणैरनुग्रहोऽत्यन्तमनुत्तरौपपातिकेषु, सर्वप्रतिबन्धक्षये चात्यन्तशुद्धे सकलज्ञेयप्रकाशनात् परिपूर्णत्वम् । तच्च ज्ञानमात्मनः स्वाभाविको गुणः। एवं मुक्तसुखमत्यन्तानाबाधलक्षणं स्वप्रतिबन्धकोदये असāद्याशुभपुरःसरनरकगत्यादिकोदयेऽत्यन्तमुपहन्यतेऽधःसप्तमीनारकेपु, तदेव सवेद्यपुरःसरशुभगत्याद्यविनाभाविकमोंदयेऽनुगृह्यतेऽनुत्तरोप(पातिके पु, स्वप्रतिबन्धकाभावाऽ] विनाभाविमनुजगत्यादिसर्वकर्मक्षये चात्यन्तशुद्धेरपरिमाणसौख्यत्वात् परिपूर्णम् । यत आगम एवमुक्तम् "सुरगणसुहं समत्तं सम्वद्धापिण्डियं अणंतगुणं" इत्यादि ॥२४६३-६४॥ १ °ब्दसूत्रा इति प्रतौ । २ मुत्ति जे । ३ तत्थं त । ४ अह को । ५ कारी को ६ सिद्धी त । ७ घाइयं को हे त । ८ कादिना इति प्रतौ । ५ एकेत्तिय' इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४८३] . निर्वाणसिद्धिः। . जधे वा कम्मक्खयतो सो सिद्धत्तादिपरिणतिं लभति । तध संसारातीतं पावति तत्तो चिय सुहं पि ॥२४६५॥ जध वा कम्मक्ख० गाहा। संसारातीतं सुखं मुक्तस्य ध(क)मक्षयसम्बन्धित्वात् सिद्धत्वादिधर्मवत् ॥२४६५|| सातासातं दुक्खं तन्विरहम्मि य [१६२-द्वि०] मुंह जतो तेणं । देहिन्दिएमु दुक्खं सोक्खं देहिन्दियाभावे ॥२४६६।। सातासातं दुक्खमित्यादि । सातं पुण्यफलम्, असातं पापफलम्, एतदुभयमपि देहेन्द्रियाधारप्रतिबद्धं देहेन्द्रियाभावे च उभ[यमपि न भवति] निराधारस्वात्, । अपगतकुड्यचित्रवत् । यत् पुनरिदं जीवाधारमेव संसारातीतमनाबाधसुखमेतजीवे आधारे विद्यमाने किमिति न भविष्यति, सदाश्रयत्वात्. घटरूपादिवत् ? ॥२४६६॥ यो वा देहेन्द्रियजमेव सौख्यमिच्छति, तं प्रत्ययं दोषः--[निः]सुखो मुक्तः प्राप्नोतीति । अस्माकं त्वयमदोषः शरीरेन्द्रियाभावे संसारातीतमन्यदेव धर्मान्तरं सिद्धसुखमिति कृत्वा । एतदर्थमियं गाथा-- जो वा 'देहिन्दियनं सुहमिच्छति तं पडुच्च दोसोऽयं । संसारातीतमितं धम्मेंन्तरमेव सिद्धेमुहं ॥२४६७।। जो वा देहिन्दिय० गतार्था ।।२४६७॥ तत् पुनरेवंविधं सौख्यमस्तीति कथं प्रतिपत्तव्यमिह ? अनुमानात् । किमनुमानमित्युच्यते - कधमणुमेयं ति मती गाणाणावार्धेतो त्ति णणु भणितं । तदणिच्चं गाणं "पि य चेतणधम्मो त्ति रागो न ॥२४६८॥ कधमणुमेयं ति मतीत्यादि । ननुक्तं प्रागनुमान सिद्ध सौख्यधर्मसम्बन्धी(धि)ज्ञानाबाधत्वात्, एवंविधमुनिवत् ॥ नन्वेवं धर्मविशेषविपरीतसाधनो विरुद्धः प्राप्नोति-यथा मुनेः सौख्यमनात्यन्तिकमेवं सिद्धस्यापि भविष्यति । अथवा पृथगेवानुमानविरोधवद् भाव्येते - 'अनित्यं ज्ञानं, सौख्यं च, चेतनधर्मत्वात् रागादिवत् ॥२४६८॥ कतातिभावतो वा णावरणावाधकारणाभावा । उप्पातद्वितिभंगस्स" भावतो वा ण दोसोऽयं ॥२४६९॥ । अह को । २ ति को हे । ३ य जओ सुहं ते को। ५ देहि' को है। ५ देहिको हे। भावो त । ७ सापाय दु इति प्रतौ । ८ सिद्धसुद्धमि-इति प्रती। ९ देहिको हे। १० धम्म को हे । १३ सिद्धि को हे। १२ कह नणु मे हे। १३ वा हउ को हे। १४ वि को । १५ कयगा को हे । १६ भङ्ग को हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४८३कतकाति० गाहा । अनित्यं ज्ञानं सौख्यं च, कृतकवादित्वात् , घटादिवत् । अत्र कृतकत्वादित्वमपक्षधर्मः, ज्ञानस्य स्वाभाविकगुणत्वात् , ज्ञानप्रतिपक्षावरणाभावात् स्वयमेव ज्ञानप्रकाशोद्भूतः, अभ्रापगमे स्वयं ज्योत्स्नाऽऽविर्भावात्], कर्माभावाच्च स्वयं सौख्यस्वरूपाविर्भावात् । प्रमाणमपि-सिद्धस्य ज्ञान सौख्ये न प्रतिपक्षमलयोगिनी भविष्यतः, क्षीणप्रतिपक्षत्वात् , अत्यन्त शुद्ध कनकवत् ।। एवं तावत् सिद्धस्यावरणकारणाभावाद् बाधककारणाभावाच्च नित्ये ज्ञानसोख्ये-कृतकत्वादेश्चा. पक्षधर्मत्वात्-उक्त्वा तन्निराकरणे स्याद्वादप्रक्रियासमाश्रयात् सामर्थ्यवादं पुरस्कृ. त्याह-अनित्ये ज्ञानसुखे सिद्धस्येति सिद्ध[साध्यतामुपदर्शयन पश्चार्द्धमुपन्यस्यतिउप्पात द्वितिभंगस्स भावतो वा ण दोसोऽयं । सर्वस्यैव वस्तुनः आत्माकाशघटपटादेरुत्पादस्थितिभङ्गस्वभावत्वात् नित्यानित्यत्वे व्यपेक्षाप्रापिता(त)सांनिध्ये अविरुद्ध इति कृत्वा नैवायं दोषः धर्मविशेषविपरीतसाधनं विरुद्धत्वादिरनुमानविरुद्धादिश्चेति ॥२३६९॥ __ अथ वेदवादिनोऽभ्युपगमविरोधमुद्भावयन्नाहण ह वे ससरीरस्स प्पियप्पियावहतिरेवमादि चं जं । तदमोक्खे णासम्मि व सोक्खाभावम्मि व ण जुत्तं ॥२४७०॥ . ___ण ह वे ससरीरस्सेत्यादि । यदेतद् वेदवाक्यम् - "न ह वै शरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" [छान्दो०८. १२.१ इति । एतदभ्युपगच्छतः कथं मोक्षाभावप्रतिज्ञा, प्रदीपोपशान्ति सदृशे वा मोक्षे जीवनाशप्रतिज्ञा ? अथवा विद्यमानस्वरूपस्य सिद्धस्य सर्वात्मगुणहानिः नेः) सुखदुःखस्य [हानिरिति प्रतिज्ञायां कथमेतानि वेदपदानीति । एतेषां चार्थों व्याख्यास्यते । तस्मादभ्युपगमविरोध इति ॥२४७०॥ ___ अथासौ पक्षे जीवनाशेऽभ्युपगमविरोधं परिहरन्नाहणट्ठो असरीरो च्चिय मुहक्खाई पियप्पियाइं च । 'ताई ण फुसंति णडं फुडमसरीरं ति को दोसो ॥२४७१॥ ___णट्ठो असरीरो च्चिय इत्यादि । यस्मादशरीरं प्रियाप्रिये न स्पृशत इति नष्टपक्षे अभावादशरीर एवासौ तमभार्वभूतं प्रियाप्रिये न स्पृशत इति सिद्धमेव वेदवाक्यम् । कोऽत्र दोष इति ? ॥२४७१॥ १ त्वादिवत्-इति प्रतो । २ उक्ता यन्नि इति प्रतौ । ३ न ह वइ को हे। न ह वै त । १ व को हे। य त । ५ मोक्खा त । ६ ताइ जे । ७ स्मृत-इति प्रतौ । ८ भागभू इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४८३) निर्वाणसिद्धिः । ४५७ ___ अथ पक्षत्रयेऽप्यक्षरव्याख्यानादभ्युपगमविरोधस्थापनम्वेतपताण तमत्थं ण सुट्ट जाणसि इमाण तं सुणसु । असरीरव्यवदेसो अधणो व्व सतो णिसेधातो ॥२४७२॥ वेतपताण तमत्थं ण सुटु जाणसि । हे आयुष्मन् ! कौण्डिन्य ! प्रभास ! वेर्दैपदानामेषां अर्थ न सुष्टु जानासि त्वम् , अधुनैतेषामर्थं शृणु। ने]ति निपातः प्रतिषेधार्थः । ह-वैनिपातद्वयं हिशब्दार्थे हेतौ द्रष्टव्यम्-यस्मादित्यर्थः । सह शरीरेण सशरीरस्तस्य देहवतः प्रियमिष्टं सुखमित्यर्थः । तद्विपरीतमप्रियं दुःखमित्यर्थः । तयोः प्रियाप्रिययोरपहतिरुपघातो विनाश इत्यर्थः । शरीरं हि प्रियाप्रिययोराधारस्तस्मिन् सति ते प्रियाप्रिये आधेये अवश्यमेव पर्यायेण भवत इति कथं तयोरभावः ? प्रियाप्रिययोरभावो नास्ति सशरीरस्येति । वावशब्दो निपातस्तस्मादर्थे । तस्मादशरीरं सन्तं विद्यमानं देहरहितममूर्त आत्मानं प्रियाप्रिये न स्पृशतः । तस्य प्रियाप्रियाभ्यां योगो नास्तीति । एवमशरीरव्यपदेशोऽस्य सत एव शरीरवियोगावस्थानव्याख्यानात् नाभावरूपप्रकाशकः । अत्र प्रमाणम्-अशरीर इति व्यपदिश्यमानः सन् पदार्थप्रतिषेधसम्बन्धित्वात् , अधनवत् । ततश्चाशरीरं सन्तं विद्यमानं प्रियाप्रिये न स्पृशत इति मोक्षावस्थायां सत्पदार्थवादभावं मोक्षं ब्रुवतो निःसुखं वा, तदवस्थ एवाभ्युपगमविरोध इति ॥२४७२॥ लौकिकशब्दार्थव्यवहाराच्च सम्यग् पदार्थ एवासौ । नजिव युक्तमन्यसदृशाधिकरणे तथाह्यर्थः' इति परिभाषार्थ प्रकाशयन्नाह णणिसेधतो य अण्णम्मि तविधे चेव पच्चयो जेण । तेणासरीरगहणे जुत्तो जीवो ण खरसिंगं ॥२४७३॥ णणिसेधतो येत्यादि । अ-मा-नो-नाः प्रतिषेधार्था इति बहुत्वात् प्रतिषेधवाचिनां सम्भवव्यभिचारयोर्विशेषणविशेष्यसमासः । नश्वासौ निषेधश्च स इति ननिषेधस्तस्मात् 'ननिषेधात्', 'अन्यस्मिंस्तद्विध एव' सत्पदार्थे 'प्रत्ययो' 'येन', 'तेन' कारणेन 'अशरीरग्रहणे प्रतिषिध्यमानशरीरतुल्येऽर्थे जीवे संप्रत्ययो भवति, न खरशङ्गेऽतुल्ये अभावे इति ॥२४७३॥ इतश्च कारणात् जं च व[१६३-प्र०संतं तं" संतमाह वासदतो सदेई पि । ण फुसेज्न वीतरागं जोगिणमिटेतरविसेसा ॥२४७४॥ १ य अन्थं को हे । २ जाणासि को । ३ ताण को ४ °सदेवप इति प्रतौ । ५ °वस्थानाव्याख्या - इति प्रतौ। ६ सह पदा-इति प्रतौ । ७ जेणं को। ८ 'रग्ग' हे । ९ जीवे जे । १० व हे। ११ तं संतं तथाह को त । सतं तमाह हे। १२ 'सेसो जे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४८३ जं च वसंतमित्यादि गाथा । अथ वाशब्दो विकल्पार्थः । अशरीरं वसन्तं कापि तिष्ठन्तमित्यर्थः । ततश्च वसनाद् वसन्तमाह । वाशब्दात् सदेहमपि सशरीरमपि सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः । कः पुनः सशरीरोऽपि प्रियाप्रियाभ्यां न स्पृश्यते ? अत आह--ण फसेज्ज वीतरागं जोगिणमिटेतरविसेसा-इष्टं प्रियं तस्मादितरमप्रियम् , इष्टेतरयोर्विशेषाः इष्टेतरविशेषाः, प्रियाप्रियभेदा इत्यर्थः । ते न स्पृशेयुः वीतरागपं योगिन मिति । एकत्ववितर्कशुक्लध्यायी वीतरागश्च स एवोच्यते । अतस्तं योगिनं शुक्रध्यायिनमित्यर्थः । अतो वाशब्दो विकल्पार्थों घटितः ॥२४७४॥ अथवा नायं वाशब्दो विकल्पार्थः । किं तर्हि ? वावेति'वावेति वा णिवातो वासदत्थो भवंतमिह संतं । बुज्झाऽव त्ति व संतं णाणातिविसिट्ठमधवाह ॥२४७५॥ वावे इत्यादि । वावेति निपातो वाशब्दार्थ:-विकल्पार्थ इत्यर्थः । अशरीरं वां सन्तं विद्यमानं भवन्तमित्यर्थः । तमेवंविधं प्रियाप्रिये न स्पृशतः, कारणाभावात् । विकल्पार्थत्वात् सशरीरं वा वीतरागमिति । अथवा अशरीरं वा अव बुद्धचस्व, 'अव रक्षण गति-प्रीत्यादिपु' गत्यर्था धातवो ज्ञानार्था अपि भवन्तीति । सन्तं ज्ञानादिविशिष्टं सत्पदार्थ प्रिया प्रिये न स्पृशत इति एवं चाह व्याख्याता ॥२४७५|| ननु चैवमक्षर कुहिरन्यथाऽपि शक्या वक्तुम् - अशरीरं वा अवसन्तं 'वस निवासे' इति नपूर्वः वसनप्रतिपेधेन वाऽभावे व्याख्यातो भवति । अवसन्तमतिष्ठन्तमविद्यमानमित्यर्थः । एवं चेत् कस्यचिन् मतिः स्यात्', तन्निवारणार्थमुच्यते ण वसंतं अवसंतं ति वा मती णासरीरगहणातो । फुसणाविसेसणं 'पिच जतो मतं संतविसय ति ॥२४७६॥ ण वसंतमित्यादि । तत्र अशरीरग्रहणादेवैतत् सिद्धं किं पुनरुच्यते । अथैवं मन्येथाः-तस्यैवाऽशरीरत्वप्रतिपादितस्याऽभावस्य समर्थनार्थमवसन्तमित्युध्येताऽनुवादार्थम् । न चानुवादे पुनरुक्तदोप इति । तदपि च न। प्रियाप्रिये न स्पृशत इति स्पर्शनप्राश्यपकर्पस्सत्पदार्थविषय इति ॥२४७६॥ एवं पि होज्ज मुत्तो णिस्मुहदुक्खत्तणं तु तदवत्थं । तण्णो पियप्पियाई जम्हा पुण्णेतरकताई ।।२४७७॥ १ वावत्ति को हे त। २ बज्झा जे। ३ वाशब्दो वि इति प्रतौ। ५ 'ता'-इति प्रतौ । ५ वासावे एवा-इति प्रतौ । ६ स्यात्तं नि इति प्रतौ । ७ पुस जे । ८ पि य को हे त । ९ तं नो को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ४८६] गणधरवादे निर्वाणसिद्धिः। ४५९ एवं पि गाहा । एवमपन्याख्यानमपाकृत्यापि पूर्वव्याख्यानैर्मुक्तः सन् पदार्थ इत्येतावद्भवेत्, निःसुखदुःखत्वं तदवस्थो दोष इति । तदपि च न, मुक्तसुखस्य प्रतिपादितत्वात् । ये तु [प्रिया]प्रिये पुण्यापुण्यकृते, ताभ्यां न स्पृश्यते मुक्तः, पुण्यापुण्यकर्माभावात् । अन्यत्तु मोक्तं सुखमव्याबाधमस्त्येवेति । तच्च प्राक् प्रतिपादितम् ॥२४७७॥ णाणाबाधत्तणतो ण फुसंति ण वीतरागदोसस्स । तस्स 'पियमप्पियं वा मुत्तसुहं को पसंगो त्य ॥२४७८॥ णाणाबाधत्तणतो इत्यादि । ज्ञानाऽनाबाधत्वात् वीतरागद्वेषस्य प्रियाप्रियाभावः, तद्वत् सांसारिकसुखदुःखाभावः सिद्धस्य, मुक्तसुखाभावे कः प्रसङ्गः ? इति तद् मुक्तसुख स्वाभाविकं स्वप्रतिबन्धविगमात् स्वयमेवाविर्भवतीत्युक्तं यत् ॥२४७८।। छिण्णम्मि संसयम्मि जिणेण जरमरणविप्पमुक्कैणं । सो समणो पव्वइतो तिर्हि तु सह खण्डियसतेहिं ॥४८४॥२४७९॥ ॥ गणधरा समत्ता॥ छिण्णम्मि संसयम्मि। एवमेकादशो गणधरः छिन्नसंशयत्वात् सम्यग्ज्ञानप्रभासं अधिगम्य प्रभासः श्रमणो भूतनिभिः सह खंडिकशतैरिति । गणधरप्रतिपादनं प्रवाजनं प्रव्राजनवक्तव्यता समाप्ता ॥२४७९|| अथेदानीमेतेषामेव गणधराणामविनाभाविकारणानि निवर्तक निमित्ताऽपेक्षा-परिणामीनि वस्तुसद्भावप्रतिपादनाय यथायोगमनुयोगाङ्गानि सम्भवत एकादशामूनि भण्यन्ते खेत्ते काले जम्मे 'गोत्तमगार छतुमत्थपरियाए । केवलिय आयु आगम परिणेव्वाणे तवे चेव ॥४८५।।२४८०॥ द्वारगाथा ॥२४८०॥ एतेषां द्वाराणां यथानुक्रममेव प्रतिनिर्देशः ॥ क्षेत्रं जनपद-ग्राम-नगरादिमगधा गोवेरगामे जाता तिण्णेव गोयमैसगोत्ता । [१६३-द्वि०] कोल्लोगसण्णिवेसे "जातो वियत्तो सुधम्मो य ॥ ४८६ ॥ ॥२४८१॥ १ प्पिय हे। २ यम्मी को है त । ३ तिहि ओ स हे। ४ छ॥५३॥ ४७६ गणधर वादात् पूर्व १५४९ उभयं २०२५ इत्येकादशगणधरवादः समाप्तः तत्समाप्तौ च समाप्ता सर्वाऽपि गणधरवादवक्तव्यता ॥छ। त। ५ खित्ते म । ६ गुत्तम म । . 'रिनिव्वा हे म। ८ इतः परं तप्रतौ 'इत्येवमेता अष्टादशनियुक्तिगाथाः' इत्येवं निर्दिष्टम् । गाथाः नोवृताः । हेप्रतावपि नोद्धृताः । ९ गोब्बर' को दी हा। गुब्बर म । १० गोयमा जे त हे । ११ कुल्लागौं म । १२ जाउ म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० विशेषावश्यकभाष्ये [नि०४८७'मोरीयसण्णिवेसे दो भातुंग मंदिमोरिया जाता। अयलो य कोसलाए मिधिलाए अप्पिओ जातो ॥४८७॥२४८२।। तुंगीयसण्णिवेसे मेतज्जो बच्छभूमिए जातो। भयवं विय भासो रायगिहे गणधरो जातो ॥४८८॥२४८३॥ मगधा गोवरगामे इत्यादि गाथात्रयेण ॥२ ४८१-८३॥ कालो नक्षत्र-चन्द्रयोगोपलक्षितःजेट्टा कैत्तिय साती समैणो हत्युत्तरा महाओ य । रोहिणि उत्तरसाहा मैयसिर तथ अस्सिणी पूसे" ॥४८९॥२४८४॥ जेहा कत्तिय साती इत्यादि । एतदुभयमपेक्षाकारणम् ॥२४८४॥ अथ निमित्तकारणं परिणामिकारणं वा मातापितरौ, निर्वर्तककारणं कर्म नाम गोत्रं च । एतत् त्रितयं गाथात्रयेण वसुभूती धणमित्ते" धम्मिल धणदेव मोरिए देवे"। "वसुदेवे तह दत्ते वले य पितरो गणधराणं ॥४९०॥२४८५ ॥ पुधवी य वारुणी भट्टिली य विजयदेवा तथा जयंती य । णन्दा य वरुणदेवा अतिभद्दी [य] मातरो ॥४९१॥२४८६॥ तिण्णि य गोतमगोता भारदा अग्गिवेस वासिहा। कासव गोतम हारित कोंडिण्णदुगं च गोत्ताई।।४९२॥ २४८७॥ दारं वसुभूती इत्यादि ॥२४८५-८७|| अथवा परिणामिकारणं जीवः छद्मस्थकैवल्यायुष्कागमपरिनिर्वाणपसां पर्यायाणाम् । तानि चानुक्रमेणैव पण्णा छातालीसा वाताला पण होति पण्णाय । [१६४-५०] तेवण्ण पंचैसट्ठी अडतालीसा य छायोला ॥४९३॥२४८८॥ १ मोरिय को। २ संनिवेसे म । ३ भायरो को दी हा । भायर म। ४ मण्डिमो को। मंडमो दी। मंडिमो' हा म । ५ महिलाए दी हा। ६ अपि को दी हा म । . 'संनि म । ८ मेयज्जो को । ९ पि को दी हा म । १० पभासो म । ११ कित्तिय दी हा । १२ सवणो म । १३ मिगसि को दी हा म । १५ पुस्सो को म। पूसो दी हा । १५ 'मित्तो म। १६ चेव को दी हा म । १७ देवे वसू य दत्ते ब° को दी हा म। १८ भद्दिला को दी हा म । १९ जयन्ती को। २० गंदा को दी हा म। २१ अईभद्दा य मा म। 'भट्टा जे । २२ ‘मगुत्ता म। २३ भरद्दा जे । २४ कोडिल्लदु को। कोडिण्ण° दी हा म । २५ गुत्ताई म। २६°तएसौ प-इति प्रतौ। २७ होइ पण्ण पण्णा दी हा म। होति पण्ण पण्णा को हे। २८ पण्णसट्टी को। २९ छायत्ता जे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५०२ ] गणधराणां परिचयः । छत्तीसा सोलेसगं अगारवासो भवे गणधराणं । छतुमत्थैपरीयागं अधक्कमं कित्तइस्सामि ||४९४॥२४८९ ॥ तीसा वारस दसगं वारस बायोल चोसदुगं च । वर्ग वारस दस अयं च छतुमत्थपरियाओ ||४९५ || २४९० || दारं छतुमर्त्यपरीयागं अगारवासं च वोगसित्ताणं । सव्वास्स सेसं जिणपरियागं वियाणीहि ।। ४९६॥२४९१॥ बारस सोलस अहारसेव अहारसेव अद्रेव । सोलस सोलेंस त एकवीस चोइस सोले य सोले य ।। ४९७।। २४९२ बाणउती चतुसेतरि सत्तरी तत्तो भवे असीति य । एगं च सतं तत्तो तेसीती पंचणउती में || ४९८ ॥२४९३॥ अत्रं च वासा तत्तो बावतारं च वासाई । ast चत्ता खलु सव्वगणधराउअं एतं ॥ ४९९॥२४९४॥ सव्वे य माहणा जच्चा सव्वे अज्झावया विदू । सव्वे दुबालसंगी" सव्वे चोईस पुव्विणो ||५०० || २४९५ ।। दारं परिणिता गण[१६४ - द्वि०] हरा जीवंते जातैए पत्र जणा तु । सुम्मो इन्देभूती य रायगिहे णिव्बुते वीरे || ५०१ || २४९६ ॥ दारं मासं पाओगता सवे वि य सव्वलद्धिसंपण्णा । वज्जरिसभसंघतणा समचतुरंसा य संद्वाणे ॥ ५०२ || २४९७|| दारं || पण्णा छातालीसा० इत्यादि गतार्था || २४८८- ९७॥ जिणगणधरणिग्गमणं भणितमतो खेत्तैणिग्गमात्रसरो । कालंत रंगदरिसहेतुं तु विवजओ त वि ॥ २४९८॥ जिणगणधर णिग्गमणं भणितमतो इत्यादि । उपोद्घातनिर्युक्तिद्वारावसरे निर्गमो जिण- गणधराणामभिहितस्तदनन्तरं क्षेत्रद्वारावसरे प्राप्ते कालाभिधानं "दव्वे उगस्स १ सा ( तह) सोलस अ' को । २ स्थपरिं जे त। त्थं परि म । त्थयपरि दी हा । स्थपरि' को । ३ बायत्त जे । ९ चउदस म । ५ गं च दी हा मग छउम को । ६ त्थप्परिया को म । ७ बुक्कसि म । ८ दी हा । ९ णाहि दी । १० सोल तहेकवीस चोद्द सोले दी हा । सोलस इगवीस चउदस सोले म । ११ चहत्तर दो हा म। १२ आ म । १३ अदत्त को । १४ बावट्ठी दी हा म । १५ संगीय दी हा । संगीआ म । १६ चउदस म । १७ णायते को । १८ इंदभूती सुहम्मे य को । १९ इंद्रभूई सुहम्मो य दी हा म । २० संठाणे को । संठाणा दी हा म । २१ खित को है । २२ हेओ हे । Jain Educationa International ૪૬ For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દૂર विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५०२ अद्ध अधाउय०”[गा० २५०२] किमर्थम् ? इति क्षेत्रात् कालोन्तरङ्ग इत्येतद् दर्शयत्याचार्यः–“कालंतरंगदरिसणहेतुं' तु विवज्जओ तध वि" कालान्तरङ्गदर्शनहेतोस्तु विपर्ययाभिधानम् ॥२४९८॥ कालस्यान्तरङ्गत्वे उपपत्तिगाथा जं वत्तणातिरूवो वत्तुरणत्थंतरं मतो कालो । आधारमेत्तमेव तु खेत्तं तेणंतरंगो सो ।। २४९९ ॥ 1 जं वत्तणाविरूत्र इत्यादि । "वर्त्तना परिणाम क्रियाः पराऽपरत्वे च कालस्य " [ तत्त्वार्थ०५. ५. २२] उपग्रहः उपकार इति आदिग्रहणेन परिगृह्यते, वर्त्तना आदिरेषामिति वर्त्तनादीनि रूपाणि यस्य सोऽयं वर्त्तनादिरूपः । वर्त्तना च "वृत् वर्त्तने" स्वयं सद्भावेन वर्त्तमानमर्थं या प्रचोदयति वर्त्तस्व वर्त्तस्व मा न ( नि ) वर्तिष्ठः । “न्या (ण्या) सश्रन्थो युच्” [पाणिनि० ३-३- १०७ ] इति भावप्रत्ययः स्त्रीलिङ्गे वर्त्तना , क्रिया, साच- - 'व[[त्तिं ]र्तुरनर्थान्तरं' वर्तितुर्भावादनर्थान्तरम् - कालस्तत्परिणामत्वात् । क्षेत्रं पुनराधार मात्रमेव । तस्मात् कॉलोऽन्तरङ्ग इति ॥ २४९९ ॥ अथ कालशब्दस्य व्युत्पत्तिः क्रियाकारकभेदपर्यायकथनवाक्यान्तरैः । तत्र क्रियाकारकभेद: कलणं पज्जायाणं कलिज्जते तेण वा जतो वत्युं । कलयंति तयं तमिव समयातिकलासमूहो वा ।। २५००॥ कलणं पैज्जायाणं इत्यादि । " कल शब्द संख्यानयोः " कलनं काल इति भावे प्रत्ययो घञ् । कल्यते वा तेन यस्माद् वस्तु "अकर्त्तरि च कारके संज्ञायाम् ” [पाणिनि० ३-३-१९] इति घञ् । कलयन्ति वा समयादिपर्यायास्तमिति काल:, तस्मिन् वा स्थिताः कलयन्ति, समयादीनां कलानां समूहः काल इति । यद्यपि कापोतं मायूरमिति च सामूहिकप्रत्ययो नपुंसकाभिधायी प्रायेण, तथापि शिष्टप्रयोगाद् रूढेश्च “लिङ्गमशिष्यम्, लोकाश्रयत्वात्” इति परिहारः [ महाभाष्ये म०' ५ । पा० ३ । आ० २ । सू० ६६ । रूपप्रत्ययाधिकरणे पृ० ३८९ ] ॥२५०० ॥ सो वत्तणातिरूवो कालो दव्वतं चैव पज्जाओ । किंचिमेत्त विसेसेण दव्वकालादिववदेसो || २५०१ ॥ १ " हेतु इति प्रत्यन्तरे" - इति टिप्पणं प्रतौ । २ 'रमित्त' हे । ३ रंग हैं । ४ अन 'देहमणिवि' - इति भधिकं प्रतौ दृश्यते । ५ 'लोऽनंतर इति प्रतौ । ६ पञ्जावणं - इति प्रतौ । ७ कालयति इति प्रतौ । ८ दवस्स जे त । ९ 'चिम्मेत्त' हे । 'चिम्मित त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५०४] उपोद्धाते कालद्वारम् । ४६३ सो वत्तणा० गाहा। स च वर्तनादिरूपः काल इति द्रव्यस्यैव पर्यायः, किश्चिन्मात्रविशेषोत्तु विवक्षावशाद् द्रव्यकालादिव्यपदेशः, द्रव्यकालः अद्धाकाल: अथायुष्काल इत्यादि व्यपदेशः ॥२५०१॥ स चायं भण्यते दव्वे अद्ध अधाउय उवक्कमे देस काल काले य । तध य पमाणे वण्णे भावे पगदं तु भावेणं ॥५०३।२५०२॥दारगाधा चेतणमचेतणस्स व दबस्स ठिती तुं जा चतुविर्कप्पा । सों होति दव्वकालो अध[१६५५०]वा दवियं तु तं चेव ॥५०४॥२५०३॥ दवे अद्ध । चेतण । द्रव्यकाल इति षष्ठीसमासो भेदविवक्षायाम् ॥२'.०२।। दबस्स बत्तणा जा स दव्वकालो तदेव वा दव्यं । ण हि वत्तणाति भिण्णं दव्यं" जम्हा जतोऽभिहितं ॥२५०४॥ दव्वस्स वत्तणा जा स दव्वकालो इत्यादि । द्रव्यमेव काल इति कर्मधारयः समासः द्रव्यार्थाऽभेदविवक्षायाम् । न हि वर्तनादिक्रियातो भिन्नं द्रव्यमस्ति यस्मादभिहितम् ॥२५०४॥ क्वेति चेत्तत इयं गाथामुत्ते जीवाजीवा समयावलियादयो पवुच्चैन्ति । दव्वं पुण सामण्णं भण्णति दचट्ठतामेत्तं ॥२५०५॥ मुत्ते । सूत्रे एकस्यापि समयस्य प्रतिद्रव्यमभेदेन वृत्तत्वादानन्त्यम् । द्रव्यं च द्विविध, जीवाजीवात्मकत्वात् । तस्माज्जीवाऽजीवाः समयावलिकादयो भेदाः प्रोज्यन्ते । द्रव्यं पुनः सामान्यं द्रव्यार्थतामात्रमेकमभिन्नं सर्वस्यापि । तस्माच्चेतनद्रव्यस्य या स्थितिवेतना, अचेतनद्रव्यस्य वा सादिसपर्यवसितादिभेदेन चतुविकल्पा स(सा) द्रव्यस्य कालः । वर्त्तनैव वा समयादिरूपा अभेदेन चेतनद्रव्यमचेतनं वा ॥२५०५॥ तस्याश्चतुष्प्रकारायाः अपि स्थितेर्जीवविषयायाः, अजीवविषयायाश्च यथासयेनोदाहरणगाहा मुरसिद्धभव्यऽभव्वा सातिसपज्जवसितादयो जीवा । खंधाणागतऽतीता णभातयो चेतणारहिता ॥२५०६॥ १ पास्तु-इति प्रतौ । २ °माणं म । ३ य हे त म । ४ ठिइ दी हा । ५ उ दी हा म। ६ विगप्पा कोहे । ७ सा दी हा। • ये तयं चे को हे .त।९ गाविमिको हे। ९ पातिरितं त । १० जम्हा दवं को हे त । ११ च्चंति को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५०४सुरसिद्ध । तत्र जीवाः सुराश्च सिद्धाश्च भव्याश्चाभयाश्च मुरसिद्ध[भत्र्याऽ]. भव्याः । सुरग्रहणमत्र [उप]लक्षणताप्रदर्शनमात्रम् । चतसृष्वपि गतिष सुरा मनुष्यास्तिर्यञ्चो नारकाश्च प्रत्येकं सादयः सपर्यवसिताश्च, सिद्धाः प्रत्येकं सिद्धपर्यायेण सादयः अपर्यवसानाः, भव्या भव्यत्वेनाऽनादयः सपर्यवसानाः, अभव्या [अ]भव्यत्वे[न] अनादयः अपर्यवसानाः, न कदाचिदमव्यावं जहतीति । एवं तावज्जीवाः स्थितिकालं प्राप्य चतु । अथाऽजीवा ये चेतनारहितास्तेऽपि चतुर्धेव-खंधाणागतऽतीता णभातयो चेतणारहिता। स्कन्धा द्विप्रदेशिकाद्यनन्तप्रचयाः पुद्गलाः सादयः सपर्यवसानाश्च, अनागताद्धा सादिरपर्यवसाना, अतीताद्धा अनादिसपर्यवसाना, नभोधर्माधर्मास्तिकाया अनादिर(द्य)पर्यवसानाः । एष द्रव्यसम्बन्धी द्रव्यकालः । ननु च "चेतणमचेतणस्स व दव्वस्स ठिती तु जा चतुविकप्पा" [गा० २५०३]इति सूत्रस्य चतुर्दशपूविस्थाविरहब्धस्य कोयं निर्देश: चेतणमचेतणस्स व दव्वस्स ? चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्येति वक्तव्ये चेतनमित्ययुक्ताभिधानम् । यदि वा प्राकृतव्याकरणरूपसिद्धया परिहार उच्यते-प्राकृतशब्दसमासोऽयं चेतणं चाऽचेतणं चेति, ततः चेतणाचेतणमिति प्राप्ते अभूतोऽनुस्वार आगमः क्रियते । “णीया लोवमभूया य आणिया दो वि बिंदूभावा । अत्थं वहति तं चिय जो च्चिय सिं पुवणिदिवो ॥" इत्यादि सत्यमेव-समासपदात् षष्ठीति चेतणस्सेति-समाहितम् । एवं हि वाशब्दो विकल्पार्थो न घटते । चेतणस्स अचेतणस्स वा दबस्सेति भिन्नपदे वाशब्दो घटते, न समासपदे, एकपदत्वात् । न चेदमघटमानकमेवेति शक्य वक्तुम् , आप्तोपदिष्टत्वात् । अतोऽत्राभिप्राय उन्नीयते-समासपदं तावदभूताऽव्याहृतबिन्दुसमाहितमभेदविवक्षां दर्शयति-द्रव्यमेव काल इति । वाशब्दो भिन्नपदविषयस्तस्यैव भेदविवक्षां दर्शयतीति-द्रव्यस्य काल: स्थितिरित्यर्थः । अतो युक्त एव निर्देशः । "विचित्रा च सूत्रस्य कृतिः" इति ॥२५०६॥ अद्धाकालोपवर्णनार्थम्सूरकिरियाविसिट्ठो गोदोहोतिकिरियामु णिरवेक्खो। अद्धाकालो भण्णति समयक्खेतम्मि समयाती ॥२५०७॥ १ °रवृद्धस्य -इति प्रतौ । २ चेतनस्या वा-इति प्रतौ। ३ गोदाहा त । १ यखें है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५०६] उपोद्धाते कालद्वारम् । सूरकिरियाविसिट्ठो इत्यादि । सूर्यस्य ग्रहणमयो(त्रो)पलक्षणमात्र(त्रं)। पश्चप्रकारा ज्योतिष्काः सूर्यचन्द्रग्रहनक्षत्रप्रकीर्णताराः मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके तत्कृतः कालविभाग इति । तेषां गमनादिक्रियाविशिष्टः समयावलिकादिरद्धाकालः । यद् आकाशखण्डमादित्येन स्वयं किरणैश्च संयुक्तम् , तस्याहरिति नाम । यदन्यत् , सा रात्रिरिति । तस्याहोरात्रस्य परमसूक्ष्मोऽत्यन्तविच्छेदः कश्चिदविभागी भागः समय उच्यते गोदोहादिक्रियानिरपेक्षः। परिणामवती क्रियैव काल इति येषां दर्शन कालद्रव्यापलापिनां तन्निषेधार्थ गोदोहादि क्रियानिरपेक्ष इति । सोऽयमद्धाकालः समयादिः समयक्षेत्रप्रतिबद्रः ॥२५०७॥ समयादिरित्यादिग्रहणस्य फलम्समयाऽऽवलिये मुहुत्ता दिवसमहोरत्तपक्खमासा य । संवच्छर-जुग-पलिता सागर-ओसप्पि-परियट्टा ॥५०५॥२५०८॥दा।। ___ समयाऽऽवलिय-मुहूत्ता इत्यादि । समयाऽऽवलिकादिसंवत्सरपर्यवसानं परिभाषितमेव । पञ्च संवत्सराणि युगम् । असंख्येयानि युगानि पलितोवमम् , उत्तरपदलोपात् पलितं । एवं सागरोपमं सागरः । उत्सर्पिण्यवसर्पिणीयुगमेव कल्पः उत्सपिणीशब्देन गृहीतः । मनन्ताः कल्पाः पुद्गलपरिवर्तः, पूर्वपदलोपात् परिवर्तः ॥२५०८॥ । अयमेवाद्धाकाल: आयुष्ककर्मविशिष्टः सर्वजीवानां वर्तनादिमयः अथायुष्क काल उच्यते, यो जीवो यावत् कालं येन वर्तते आउअमेत्तविसिहो स एव जीवाण वत्तणादिमयो । मणति अधायुकालो वत्तति जो जचिरं जेणं ॥२५०९॥ ___ आउअमेत्तविसिट्ठो इत्यादि ॥२५०९। णेरइयतिरियमणुयादेवाण अधाउयं तु जं जेणं । णिव्वत्तितमणंभवे पालेन्ति अधाउकालो तु ॥५०६॥२५१०॥ णेरिइयतिरिय० इत्यादि गतार्था ॥२५१०॥ अथोपक्रमकाल:-"क्रमु पादविक्षेपे" उपक्रमणमुपक्रमः, अभिप्रेतस्यार्थस्य सामीप्यानयनमुपक्रमणकालः भूयिष्ठक्रियापरिणामः १ 'लिकाद्विकालः इति-प्रतौ । २ 'समयावलियमुहुत्ता' इत्यस्याः पूर्व एषा नियुक्तिगाथा दीहामप्रतिषु अस्ति गह सिद्धा भवियाया अभविय पोग्गल अणागयद्धा य । तीयद्ध तिन्नी काया जीवाजीवहिई चउहा ॥ पुग्गल म । ३ °लिमु हे। ५ °स अहो म । ५ मासो म । ६ पलियट्टो को। पलिय' हे। ७ जेण को हे। ८ ‘गुस्सदें म । ९ मत्तम त । १० °लेंति को दी हा। लंति हे म। ११ काले ति को। १२ सो दी हा म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०५०७जेणोवक्कामिज्जति समीवमाणिज्जते जतो जं तु । [१६५-द्वि०] स किलोवेक्कमकालो किरियापरिणामभूइट्ठो ॥२५११॥ - जेणोवकामिज्जति इत्यादि ॥२५११॥ दुविधोवक्कमकालो सामायारी अधाउगं चेव । सामायारी तिविधा ओहे दसधा पदविभागे ॥५०७॥२५१२॥ दुविधोवक्कमकालो इत्यादि । द्विविधश्चासावुपक्रमकालश्चेति समानाधिकरणः समासः-द्विविधोपक्रमकालः । समाचरणं समाचारः-विशिष्टाचरितक्रियाकलापः, तस्य भावः "गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च"पाणिनि० ५. १. १२४] सामाचार्य नपुंसके भावे पित्करणसामर्थ्यात् स्त्रीलिङ्गे भावे स्त्रियां टीषु(डीए) सामाचारी, तस्या उपक्रमणं उपरिमश्रुतादधस्तादिहानयनम् ; यथायुष्कचोपक्रमः दीर्घका. लभोग्यस्य लघुतरेण कालेन भोग इति । . सामाचारी त्रिविधा ओघः सामान्यम् । ओघसामाचारी सामान्यतः संक्षेपाभिधानम् । ओघनियुक्तिरस्मिन् स्थाने वक्तव्येति । दशधा सामाचारी इच्छाकारादि । पदविभागसामाचारी छेदसूत्राणि ॥२५१२॥ अथायुष्कोपक्रमस्य भेदाः-- अज्झवसाण-णिमित्ते आहारे वेतणा पराघाते । फासे आणापाणू सत्तविधं भिज्जैते आयुं ॥५०८॥२५१३॥ अज्झरसाण-णिमित्ते । अतिहर्षातिविषादाभ्यामधिकमवसानं चिन्ता अध्यवसानम् । ततो हृदयसंरोधाद् मरणम् । निमित्तं कारणं दण्ड-क[शा]-शस्त्रादि बहुप्रकारम् । अतिमात्रया आहारो मरणाय । वेदना शूलादि । पराघातो योऽन्यतो घातः प्रहारः । स्पर्श उरगादिः(देः)। आन-प्राणयोर्निरोधः । इत्येतानि सप्ताऽऽयुर्भेदस्य कारणानि ॥२५१३॥ निमित्तम् - दण्ड कस सत्थ रज्जू अग्गी उदग पडणं विसं वाला । सीतुण्डं अरति भयं खुधा पिवासा य वाधी य ॥५०९॥२५१४॥ मुत्त-पुरीसणिरोधे जिण्णाजिण्णे य भोअणे बहुसो। . घसणघोलणपीलणया आयुस्स उवक्कमा एते ॥५१०॥२५१५॥ १ किलाव' जे। २ स्तादिनायन-इति प्रतौ। ३ कस्यापक' इति प्रतौ। ५ °पाणु दी हा । ५ झिज्झए को। झिजए दी हा। जिज्झए म । ६ दंड को हे म दी हा । . जिण्णेऽजि० को। जिन्नजि हे । 'जिण्णं म । ८ भोयण को म। ९ घण त । १० चालण आको। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५१० ] उपोद्घाते कालद्वारे सामाचारी । पूर्वस्मिन् ४६६ पृष्ठे मुद्रितायाः २५१२ गाथाया अनन्तरं निम्नलिखिता नियुक्तिगाथा: सन्ति इच्छा मिच्छा तहाकारो आवैसिया य निसीहियाँ | आपुच्छणा य पडिपुच्छा छंदणी य निमंतणा ॥ उपाय काले सामायारी भवे दसहा | एएसि तु पयाणं पत्तेय परूवणं वोच्छं || दारगाहाओ || जड़ अब्भत्थेज्ज परं कारणजाए करेज्ज से कोई । तत्थ वि इच्छाकारोन कप्पई बलाभिओगो उ ॥ अभुवगमंमि नज्जइ अभत्थे ण वह परो उ । अणि विलविरिण साहुणा तात्र होयव्वं ॥ जड़ हुज्ज तस्स अणलो कज्जस्स वियाणती णवा वाणं । गिलाणाइहिं वा हुज्ज वियावडो कारणेहिं सो ॥ राइणियं वज्जेत्ता इच्छाकारं करेइ सेसाणं । एयं मज्झं कज्जं तुभे उ करेह इच्छाए || अहवाऽवि विणासेंतं अभत्तं च अण्ण दणं । अण्णो कोइ भणेज्जा तं साहुं णिज्जरडीओ || अयं तुभं एयं करेमि कज्जं तु इच्छकारेण । तत्थवि सो इच्छं से करेइ मज्जायमूलियं || अहवा सयं करेन्तं किंची अण्णस्स वावि दहूणं । तस्सवि करेज्ज इच्छं मज्झं पि इमं करेहित्ति ॥ तत्थवि सो इच्छं से करे दीवेइ कारणं वाऽवि । EET अणुत्थं कायव्वं साहुणो किच्चं ॥ अहवा णाणाईं अट्टाए जड़ करेज्ज कचाणं । वेयावच्चं किंची तत्थ वि तेसिं भवे इच्छा ॥ आणावलाभियोगो णिग्गंथाणं ण कप्पई काउं । इच्छा पउंजियव्या सेहे राईजिए [य] तहा || जह जच्चवाहलाणं आसाणं जणवएसु जायाणं । सयमेव खणिगहणं अहवा वि बलाभिओगेणं ॥ ५९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ४६७ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये पुरिसज्जाएऽवि तहा विणीयविणयंमि नत्थि अभियोगो । सेसंमि उ अभिओगो जणत्रयजाए जहा आसे || अन्मत्थणाए मरुओ वानरओ चेव होइ दिहंतो । गुरुकरणे सयमेव उवाणियगा दुष्णि दिता || संजमजोए अन्भुट्ठियस्स सद्धाए काउकामस्स । लाभो चैव तवस्सिस्स होइ अक्षीणमणसस्स | संजमजोए अन्भुट्टियस्स जं किंचि वितहमायरियं । मिच्छा एतं ति त्रियाणिऊण 'मिच्छत्ति कायव्वं ॥ जइ य पडिक्कमियन्वं अवस्स काऊण पावयं कम्मं । तं चैव न कायव्वं तो होइ पए पडिकंतो ॥ जं दुक्कडं ति मिच्छा तं भुज्जो कारणं अपूरेंतो । तिविहेण पडिक्कतो तस्स खलु दुकडं मिच्छा ॥ जं दुक्कडं ति मिच्छा तं चेव निसेवए पुणो पावं । पच्चक्खमुसावाई मायानियडीपसंगो य ॥ ४६८ 'मि'ति मिउमदवत्ते 'छ'त्ति य दोसाण छायणे होइ । 'मिति य मेराए ठिओ 'दु'त्ति दुर्गुछामि अप्पाणं ॥ 'क'त्ति कडं में पावं 'ड'त्ति य डेवेमि तं उवसणं । एसो मिच्छादुक्कडपयक्खरत्थो समासेणं ॥ कप्पाकप्पे परिणिडियस ठाणेसु पंचसु ठियस्स । संजम - तवढगस्स उ अविकप्पेणं तहाकारो ॥ वायणपडि सुणणाए उवएसे सुत्तअत्थकरणाए । अहिमेयं ति तहा पडिसुणणाए तहक्कारो || दारं ॥ जस्स य इच्छाकारो मिच्छाकारो य परिचिया दोऽवि । तइओ य तहक्कारो न दुल्लभा सोग्गई तस्स || आवस्सियं च र्णितो जं च अतो निसीहियं कुणइ । एयं इच्छं नाउं गणित्रर ! तुब्भंतिए णिउणं ॥ आवस्सिय च र्णितो जं च अतो णिसीहियं कुणइ । वंजणमेयं तु दुहा अत्थो पुण होइ सो चेव || Jain Educationa International For Personal and Private Use Only [ नि०५१० Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५१०] उपोद्घाते कालद्वारे सामाचारी। एगग्गस्स पसंतस्स न होंति इरियाझ्या गुणा होति । गंतव्वमवस्सं कारणंमि आवस्सिया होइ ॥ आवस्सिया उ आवस्सएहिं सव्वेहि जुत्तजोगिस्स । मणवयणकायगुतिंदियस्स आवस्सिया होइ ॥ सेज्जं ठाणं च जहिं चेएइ तर्हि निसीहिया होइ । जम्हा तत्थ निसिद्धो तेणं तु निसीहिया होइ । सेज्ज ठाणं च जदा चेतेति तया निसीहिया होइ । जम्हा तदा निसेहो निसेहमइया च सा जेणं ॥ आवस्सियं च गितो जं च अईतो निसीहियं कुणइ । सेज्जाणिसीहियाए णिसीहियाअभिमुहो होई ।। [ भाष्यम् ] जो होइ निसिद्धप्पा निसीहिया तस्स भावओ होइ । अणिसिद्धस्स निसीहिय केवलमेतं हवइ सद्दो ॥ आवस्सयंमि जुत्तो नियमणिसिद्धो त्ति होइ नायव्यो । अहवाऽवि णिसिद्धप्पा णियमा आवस्सए जुत्तो ॥ दारम् ॥ [ भाष्यम् ] आपुच्छणा उ कज्जे पुधनिसिद्धेण होइ पडिपुच्छा । पुव्वगहिएण छंदण णिमंतणा होअगहिएणं ॥ उवसंपया य तिविहा णाणे तह दंसणे चरिते य । दंसणणाणे तिविहा दुविहा य चरित्तअट्टाए । वत्तणा संधणा चेव, गहणं मुत्तत्थतदुभए । वेयावच्चे खमणे, काले आवकहाइ य ॥ संदिट्ठो संदिहस्स चेव संपज्जई उ एमाई । चउभंगो एत्थं पुण पढमो भंगो हवइ मुद्धो । अथिरस्स पुव्वगहियस्स वत्तणा जं इहं थिरीकरणं । तस्सेव पएसंतरणहस्सऽणुसंधणा घडणा ।। गहणं तप्पढमतया मुत्ते अत्थे य तभए चेव । अत्यग्गहणंमि पायं एस विही होइ णायव्यो । मज्जगणिसेज्जअक्खा कितिकम्मुसग्ग बंदणं जेट्टे । भासंतो होई जेट्ठो नो परियारण तो वन्दे ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० - विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५१०ठाणं पमज्जिऊणं दोण्णि निसिज्जाउ होंति कायव्या । एगा गुरुणो भणिया वितिया पुण होति अक्खाणं ।। दो चेव मत्तगाइं खेले तह काइयाए वीयं तु । जावइया य मुणंती सम्वेऽवि य ते तु बंदंति ।। सव्वे काउस्सग करेंति सव्वे पुणोऽवि वंदंति । णासण्णे गाइदारे गुरुवयणपडिच्छगा होति ।। णिदाविगहापरिवज्जिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्तिबहमाणपुव्वं उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ।। अभिकंखंतेहिं मुहासियाई वयणाइँ अत्थसाराई । विम्हियमुहेहिं हरिसागएहिं हरिसं जणंतेहिं । गुरुपरिओसगएणं गुमभत्तीए तहेव विणएणं । इच्छियसुत्तत्थाणं खिप्पं पारं समुवयंति ।। वक्खाणसमत्तीए जोगं काऊण काइयाईणं । वंदंति तओ जे] अण्णे पुठ्वं चिय भणन्ति ।। चोएति जइ हु जिट्ठो कर्दिचि मुत्तत्थधारणाविगलो । वक्खाणलद्धिहीणो निरत्ययं बंदणं तंमि ।। अह वयपरियाएहिं लहुणोऽवि हु भासओ इहं जेहो । रायणियवंदणे पुण तम्स वि आसायणा भने ! ॥ जइवि वयमाइएहिं लहुओ मुत्तत्वधारणापडुओ। वक्खाणलद्धिमंतो सो चिय इह घेप्पई जेहो ॥ आसायणा वि णेवं पड़च्च जिणवयंणभासयं जम्हा । वंदणयं राइणिए तेण गुणेणं पि सो चेद ॥ न वओ एत्थ पमाणं न य परियाओऽवि णिच्छयमएणं । ववहारओ उ जुज्जइ उभयनयमयं पुण पमाणं ॥ निच्छयो दुन्नेयं -- को भावे कम्मि बट्टई समणो ? । वहारओ उ कीरइ जो पुवठिओ चरितमि ।। ववहारोऽवि हु बलवं जं छउमत्थं पि वंदई अरहा । जा होइ अणभिण्णो जाणतो धमयं एयं ।। (भाष्यम्) एत्थ उ जिणवयणाओ मुत्तासायणवत्तदोसाओ। भासंतगजेट्ठगस्स उ कायव्यं होइ किइकम्मं ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५१०] उपोद्घाते कालद्वारे आयुष्कोपक्रमः । ४७१ दण्ड कस सत्यादिगाथाद्वयेन शेषं गतार्थमिति ॥२५१४-१५॥ अथ सामाचारी कथं उपक्रमकाल इति ? तव्याख्यानाय भाष्यगाथा -- जेणोवरिमसुतातो सामायारिमुतमाणितं हेट।। ओहाति तिविध एसो उवक्कमो समयचज्जाए ॥२५१६। जेणोवरिमसुतातो इत्यादि । ओघसामाचारी, दशविधा सामाचारी, पदविभागसामाचारी यस्माच्च ओघादिस्त्रिविध एष उपक्रमकालः, समयचर्यमा(या) सिद्धान्तमर्यादया उच्यते ॥२५१६ ॥ अथाऽऽयुष्कोपक्रमव्याख्यार्थ भाष्यगाथा-- जं जीवितसंवट्टणमज्झवसाणादिहेतुसंजणितं । सोवक्कमाउयाणं स जीवितोवक्कमणकालो ॥२५१७॥ जं जीवितसंवणमित्यादि । प्रसारितस्य सङ्कोचनं संवर्तनमुच्यते । तत अध्यवसान निमित्तादिसप्तविधहेतुसञ्जनितं जीवितसंवर्तनं सोपक्रमायुषां जीवानामा युष्कोपक्रमणकाल उच्यते । निरुपक्रमायुषां बद्धायुष्कनिहितनिकाचितचतुष्करणसगृहीत. कर्मणामुपक्रमाभावार्जीवितसंवर्तनाभावः ॥२५१७|| दुविहा य चरित्तंमी वेयावच्चे तहेव खमणे य । णियगच्छा अण्णंमि य सीयणदोसाइणा होति ।। इत्तरियाइविभासा वेयावच्चंमि तहेव खमणे य । अविगिट्टविगिरमि य गणिणो गच्छस्स पुच्छाए । उवसंपन्नो जं कारणं तु तं कारणं अपूरेतो । अहवा समाणियमी सारणया वा विसग्गो वा ॥ दारं ॥ इत्तरियं पि न कप्पइ अविदिन्नं खलु परोग्गहाईमुं। चिहित्तु निसिइत्तू व तइयव्ययरक्खणहाए । एवं सामायारी कहिया दसहा समासओ एसा । संजम तवइयाणं निग्गंथाणं महरिसीणं ।। एयं सामायारिं झुंजता चरणकरणमाउत्ता। साहू खवंति कम्मं अणेगभवसंचियमणंतं ।। दी० ६६७.७२४ । म० ६६६-७२३ । हा० ६६६-७२३ । १ पञ्चमोघा इति प्रतौ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ विशेषावश्यकभाष्ये इदमन्यत् प्रासङ्गिकमुच्यते - सव्वपयतीणमेवं परिणामवसादुवक कमो होज्जै | पायमणिकाइताणं तत्रसा तु णिकाइताणं पि ।। २५१८ ।। सव्वपयतीणमेवमित्यादि । प्रसारितस्य सङ्कोचनं संवर्तनमुच्यते । तदध्यवसान निमित्तादिविशेषात् संवर्त्तनाख्य उपक्रमो भवेत् । सोऽप्यनिका चितानां प्रायशः । प्रायोग्रहणान्निकावितानामपि तपोविशेषान्निर्जरणकालेऽपीति । उक्तं हि - " पुव्वं खलु भो ! कडाणं क्रम्माणं वेदइत्ता मोक्खो नत्थि, अस्थि वेभइत्ता तवसा वा झोसइत्ता"" इति अतस्तपो ध्वंसकं कर्मणां भवति || २५१८ | > अत्र चोद्यम् कम्मोवक्का[१६६-प्र०] मिज्जति अपत्तकालं पि जति ततो पता । अकतागम - कतणासा मोक्खाणासासदा दोसा ||२५१९ ।। मिज्जति इत्यादि । यद्युपक्रमवशादप्राप्तकालमपि कर्म परिपाच्यते ततो नियतकालादारद् विना कर्मणा फलप्राप्तेः 'अकृतस्य कर्मणस्तत् फलम्' इत्यकृतागमः । ' यच्च तस्मिन् काले परिपाटीलग्नं कर्म तन्निन्न) ष्टम्' इति कृतनाशः । एवं यदि कृतं नश्यति अकृतं चाऽऽगच्छत्यकस्मात् ततः कस्यचिदपि न मोक्ष इत्यमोक्षदोषः, मुक्तो वा कथञ्चिदकृतागमात् पुनरपि बध्येत, ततश्चानाश्वासदोषः || २५१९ || यत्तु प्रमाणमुपक्रमवादिनः ‘कृतं कर्म नश्यति, अकृतं चाऽऽगच्छति अप्राप्तकाले अपि भुज्यमानत्वाद्, बालदारक वृद्धत्ववत, दत्तदण्ड बन्धनवत्, अनपराधबन्धवच्च' - एतदनैकान्तिकख्यापनाय - -- हिदीहकालियस्स वि णासो तस्सानुभूतितो खिप्पं । बहुकालाहारस्स व दुर्तमग्गियरोगिणो भोगो || २५२०॥ [नि०५१० ण हि दीहकालियस्स इत्यादि । इह दीर्घकालिकं वर्षशतभक्तं कोष्ठागारीकृतं अत्यग्नित्र्याघिना शीघ्रकालभुक्तं न नश्यति, नाप्यभूतमागच्छति । तत्र चाप्राप्तकाल - भोगो दृष्टः इत्यनैकान्तिकः । एवं दीर्घकालिकं कर्म परिणामविशेषात् भस्मकव्याधिसदृशात् शीघ्रतरानुभूतेर्न नश्यति नाभूतमागच्छति || २५२०॥ अपि च चतुर्द्धा कर्मणो विभागः - प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशैः । तत्र प्रदेशकर्म सर्वमुपभुज्यते, अनुभावकर्म तु भजनया - तथा चान्यथा चेति । तस्मात् प्रदेश४ तभ को हे त । १ सा उब को । २ होज्जा को है । ३ भगव० १. ४. सू० ४० ५ तसो त । ६ दुवम त । ७ तच्च चाप्रा इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ नि० ५१०] उपोद्घाते कालद्वारे कर्मोपक्रमः । कर्म प्राप्याऽवस्याऽनुभवे के नाम दोषाः कृतनाशादयः ? नैव भवन्तीत्यभिप्रायः । तत इयं गाथा सव्वं च पतेसतया भुज्जति कम्ममणुभावतो भइतं । तेणावस्साणुभवे के कतणासादयो तस्स ? ॥२५२१॥ सव्वं च प० गाहा गतार्था ॥२५२१॥ यस्माच्च सिद्धान्ते - उदय-क्खय-क्खयोवसमोवसमा जं च कम्मणोऽभिहिता । दव्वातिपंचयं पति जुत्तमुवरकामणमतो वि ॥२५२२।। उदय-क्खय० इत्यादि । उदयोऽनुभवः, क्षयो निर्जरा, देशक्षय-देशोपशमौ क्षयोपशमः, अनुदयावस्था विद्यमानस्योपशमः । एते भावाः कर्मणोऽभिहिताः द्रव्यादिपञ्चकं प्रति द्रव्यं क्षेत्रं कालं [भवं] भावं च प्रतीत्य यथासम्भवमुद[यादयश्चत्वारोपि भवन्तोति युक्तमुपक्रामणं कर्मण इति । प्रमाणम्-उदयक्षयक्षयोपशमोपशमाः कर्मणो यथाकालमयथाकालं च भवन्ति, बाह्यद्रव्यादिपञ्चकापेक्षत्वात् , यथा प्रपश्चितदीर्घकालिकाहारकवत् । अथवा पुण्यापुण्यकृतसातासातोदयादिवत् ॥२५२२॥ एतदृष्टान्तभावनार्था गाथापुण्णापुण्णकतं पि हु सातासातं जयोदयातीए । बज्झबलाधाणातो देति तथा पुण्ण पावं पि ॥२५२३॥ पुण्णापुण्णकतं पि हु इत्यादि । तथा पुण्यपापमपीति दान्तिकोऽर्थः प्रदयते कर्मेत्यर्थः ॥२५२३॥ कोपक्रममनभ्युपगच्छतो दोषख्यापनं गाथाद्वयेन--- जति वाणुभूतितो च्चिय खविज्जते कम्ममण्णधा ण मतं । तेणासंखभवज्जितणाणागतिकारणत्तणतो ॥२५२४ णाणाभवाणुभवणाभावादेम्मि पज्जएणं वा । अणुभवतो बंधातो मोक्खाभावो स चाणिट्ठो ॥२५२५॥ जति वाणुभूतितोच्चिय । णाणामाणुभवणा इत्यादि च । यदि वा अनुभवादेकैकस्मात् क्षिप्येत कॅर्म, नोपक्रमादपि, तेनासङ्ख्येयभवार्जितकर्मणो नानागैतिकारणभूतस्य एकस्मिन् भवे नानाभवानुभवनाभावात, पर्यायेणानुभवात् , पुनश्च तेषु १°म्मयणु त। २ °यखयखयों हे। ३ कम्मुणो त । ४ भणिया को हे त । ५ पुण्ण इति प्रतौ । ६ ताणु त । . भूइउ को हे। ८ देक्कम्मि को हे त। ९ सोक्खा जे। १० कर्मतोप' इति प्रतौ । ११ गच्छतिका इति प्रतौ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५१०भवेष्वनेककर्मोपचयात्तादविवादे च सर्वदा बेन्ध एव, न मोक्षो नाम कस्यचि. दिति मोक्षाभाव एव सर्वदा । स चानिष्टः । तस्मादुपक्रमेण नानागति कारणस्य कर्मणोऽनुभवादेकेनापि भवेन क्षीयमाणत्वात् मोक्षसद्भाव इत्युपक्रमकालः प्रतिपत्तव्य इति ॥२५२४-२५॥ ___ पुनराह चोदकः-उपक्रमेऽप्यकृतागमादयो दोषाः कथं परिद्भि(हि)यन्ते । णणु तं ण जधोवचितं तधाणुभ[१६६-द्वि०]वतो कतागमादीया । तप्पायोग्गं चियं तं चितं सज्झरोगो व्व ॥२५२६॥ णणु तं ण गाहा । ननु तत् कर्म यथोपचितं बन्ध काले, अनुभवकाले च तथा नानुभवतः अकृतागमादय इति भवतोऽभिप्रायस्तन्न, यस्मात् तत् कर्म बन्धकाल एव तदनुभवप्रायोग्यमुपचितं अनुभवकाले तथैवानुभूयते साध्यरोगवत् ।।२५२६॥ अणुवक्कमतो णासति कालेणोवक्कमेण खिप्पं पि । कालेणेवासँज्झो सज्झासझं तथा कम्मं ॥२५२७|| अणु० गाहा । साध्यरोगो हि अनुपक्रान्तः कालेन नश्यति, उपक्रमेण तु क्षिप्रतरम् । यः पुनरसाध्यः, स औषधोपक्रमागम्यः कालेनैव मारणान्तिकेनेति । एवं कर्मापि द्विप्रकारं [साध्यम]साध्यं च ॥२५२७॥ . सज्झासज्झं कम्म किरियाए दोसतो जघा रोगो।। सज्झमुवकामिज्जति एतो चिय सज्झरोगो ब्व ।।२५२८।। सज्झासज्झमित्यादि । साच्यासाध्यं कर्म, दोघापेक्षत्वात् , रोगवत् । साध्यमुपक्रम्यते, दोषापेक्षत्वात् , साध्यरोगवत् । असाध्यमुपेक्ष्यते, दोषापेक्षत्वादसाध्य. रोगवत् ।।२५२८॥ सज्झामय हेतूतो सज्झणिदामो तथा सज्झं । सोवक्कमणमयं पित्र देहो देहादिभावातो ॥२५२९।। सज्झा० गाहा । अथवा सोपक्रमणं साध्यं कर्म, साध्याऽऽमयहेतुत्वात् साध्यनिदानाश्रयत्वात्, देहादी भावात् , दृष्टान्तोऽयमेव प्रत्यासन्नो देह इति ।२५२९। किंचिदकाले वि फलं पाविज्जति पचते ये कालेणं । तह कम्मं पाविज्जति कालेण वि पच्चते चऽण्णं ॥२५३०॥ १ बन्धन एव इतिप्रतौ । २ गोनानु' इति प्रतौ । ३ 'गं तं चिय जेण चियं को हे, 'य त तेण चित। ४ लेण वा हे। ५ एते २५२७-२८ गाथे त प्रतो म स्तः । ६ णासओ को हे त। ७ हवा त को हे।.८ सा ये इति प्रतौ। ९ देहस्यादिमा इति प्रतौ। १० व को। ११ पाएण त। १२ वणं को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५ नि० ५११] उपोद्घाते कालद्वारे देशकालः। किंचिद० गाहा । अकालेऽपि पच्यने कर्म, विशिष्टप्रयत्नापेक्षत्वात् , आम्रादिफलवत् । यथोपचितपाककालादुपरि विधार्यते कर्म प्रयत्नापेक्षवादाम्रफलवदेवेति ॥२५३०॥ जध वा दीहा रज्जू देज्झति कालेण पुंजिता खिप्पं । विततो पडो ये मुस्सति पिण्डीभूतो य कालेणं ॥२५३१॥ भागो वे गिरोअट्टो हीरति कमसो जधण्णधा खिप्पं । किरियाविसेसतो वा समे वि रोगे "तिगिच्छाए ॥२५३२ ।। जध गाहा । एकरूपमेव वा कर्म दीर्घकालदाह्य शीघ्रकालदाह्यं च भवति, प्रयत्नविशेषापेक्षत्वात् , दीर्घावस्थितपुनितरज्जुवत, पिण्डीकृतदिसतपटशोषणवत, निरपवर्तन-सापवर्तनभागहारक्रियावत् , क्रियाविशेषापेक्षरोगचिकित्सावत् ॥२५३१-३२॥ भिण्णो जधेह कालो तुल्ले वि पधम्मि गतिविसेसातो। सत्थे दे गहणकालो मतिमेधा१ि६७ प्रकाभेततो भिण्णो ॥२५३३॥ भिण्णो गाहा । गतिविशेषापेक्षबह्वल्पकालगम्यपैथवत् मेधा-धारणाविशेषापेक्षा(क्ष)शास्त्रग्रहणकालवत् ॥२५३३॥ तध तुल्लैम्मि वि कम्मे परिणामातिकिरियाविसेसातो । भिण्णोऽणुभवणकालो जेट्ठो मज्झो जहण्णो य ।।२५३४॥ भावितार्था ॥२५३४॥ अथ देशकालनिरूपणार्था गाथा । जो जस्स जतावसरो कज्जस्स सुभासुभस्स "सोवायं । भण्णति स देसकोलाऽऽदेसोऽवसरो त्ति थक्को त्ति ॥२५३५।। णिद्धमयं" च गामं महिलातित्थं" च मुंग्णयं दहें । णीअं च काका "ओलेन्ति जाता भिक्खस्स हरेहरा ॥५११॥२५३६॥ जो जस्स आदेशोऽवसरः प्रस्तावो भाग इति पर्यायाः । यो यस्य यदावसरः प्रस्तावः स तस्य देशकाल इति भण्यते । यथा भिक्षाचरस्य भिक्षावेला प्रस्तावः १ डज्झ को हे त । २ व को हे त। ३ पिंडी' को हे। ४ य हे त । ५ 'रोवड्ढो त। ६ साम वि रामो विमिच्छाए त। ७ चिगि को हे। ८ २५३१-२५३२ एते गाथे कोहेतप्रतिषु २५३४ गाथायाः पश्चादनुवर्तिन्यौ। ९ वि त । १० धाभावतो त। ११ पव्ववत् इति प्रतौ। १२ तुल्लंमि को। १३ सोपायं को हे त । १४ कालोदें को हे त। १५ निधू दी। १६ लाथूभं को हे त दी हा म। १७ थुण्ण त । १८ वोलेंति को। भोलिति हे म। १९ हारा त। ६० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५१२रन्धनपरिसमाप्तौ निर्दूमको ग्रामः, पानीयवाहिकाशून्यं च जलनिपानम् , नीचैः काकनिलयनं च दृष्ट्वा भिक्षादेशकालः इमे हरन्तीत्येवं क्रियाभ्यस्त्वं हरहर ॥२५३५-३६॥ णिम्मच्छियं मधुं पायडो णिधी खज्जयोमणो मुण्णो। जा अंगणे पसुत्ता पउत्थपतिया ये मत्ता य ॥५१२॥२५३७॥ णिम्मच्छियं मधु गाहा । ग्रहणदेशकालो वर्तत इति ॥२५३७॥ अथ काल:-कालनिरूपणम्-कलनं कालः इत्येकः कालशब्दः प्राग् निरूढः, द्वितीयः कालशब्दः पारिभाषिकः समयनिबद्धः, कालो मरणमुच्यते तस्य मरणस्य कलनं क्रिया कालकालः - कालो ति मतं मरणं जधेह मरणं गतो त्ति कालगतो। तम्हा स कालकालो जो जस्स मतो" मरणकालो ॥२५३८॥ कालो गाहा गतार्था ॥२५३८॥ अस्यैव कालशब्दस्यानेकार्थतां रूढिगतां गीतिकया दर्शयति - कालेण कतो कालो अम्हं सज्झायदेसकालम्मि । तो णेणं हतो कालो अकाले कालं करेन्तेणं ॥५१३॥२५३९॥ कालेण । कालो वर्णः कृष्ण इत्युच्यते । तेन 'कालकेन' कृष्णवर्णेन 'कृतः कालः' इति कालशब्दो मरणवाची देशीपदानुवृत्त्या संज्ञायां कन् । 'अस्माकं स्वाध्यायदेशकाले' स्वाध्यायप्रस्तावे ततस्तेन कालकेन 'अकाले' अभागे 'कालं कुर्वता' मरणं गच्छता 'हतः कालः' स्वाध्यायकालविघातः कृतः, अस्वाध्यायिकं कृतमिति ॥२५३९॥ अथ प्रमाणकालनिरूपणार्था गाथा - अद्धाकालविसेसो पत्थयमाणं व माणुसे "खेत्ते । सो संववहारत्थं पमाणकालो अहोरत्तं ॥२५४०॥ अद्धा० अद्धाकाल: सूर्यक्रियाविशिष्टः समया दिरुक्त एव । तस्यैवाद्धाका. लस्य विशेषः कश्चिद्भेदः, प्रस्थकमानवत् । समयक्षेत्रे सिद्धान्तपदार्थमानसंव्यवहारनिमित्तं प्रमाणकालः अहोरात्रमुच्यते ॥२५४०॥ १ उजगावणो को हे, यावो त । २ पोत्थ त। ३ पमत्ता त । १ गउ त्ति को हे। ५ मओ स मर' को हे। ६ तेण को हे त दी हा म। ७ कालि को म। काल त दी। ८ कालयं को। ९ करं को हे । करें दी हा । करतेण म । १० खित्ते को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५१५) उपोद्घाते कालद्वारे प्रमाणकालादिः । ४७७ तद्विशेषणार्थमाह - [१६७-द्वि०] दुविधो पमाणकालो दिवसपमाणं च होति 'रत्ती य । चतुपोरिसिओ' दिवसो रत्ती चतुपोरिसी चेव ॥५१४॥२५४१॥ पोरिसिमाणमणियतं दिवसणिसावेड्ढिहाणिभावातो। हीणं तिणि मुहुत्तद्धपंचमा माणमुक्कोसं ॥२५४२।। वड्ढी बावीसुत्तरसतभाओ पतिदिणं मुहुत्तस्स । एवं हाणी वि मता अयणदिणविभागतो णेया ॥२५४३॥ दुविधो गाहा । दिवसप्रमाणं चतस्रः पौरुष्यः । रात्रिरप्येवमेव । पौरुषीशब्देन च सिद्धान्ते याम उच्यते । पुरुषः प्रमाणमस्याः छायायाः सेयं पौरुषी । एकत्र लक्षणतया दृष्टेति सर्वत्र रूढिः कृता । गमनाद् गौरिति तिष्टतो गोत्वं भवत्येवेति । यद्यपि दिवसस्य रात्रेश्च [चतुर्थो भागः पौरुषी तथापि दिवसरात्रिवृद्धि हानिभ्यामनियतं पौरुषीप्रमाणम् । सर्वलघुपौरुषीप्रमाणं त्रयो मुहर्ताः, सर्वोत्कृष्टं अर्द्धपञ्चमा मुहूर्ताः द्वादशकाष्टादशके अहोरात्रप्रमाणे । पौरुष्याश्च प्रतिदिनं मुर्तद्वाविंशतिशतभागो वर्द्रते हीयते वा । अस्याश्च वृद्धहोनेर्वा कथमनुगमनमिति ? तदाहअयनदिनविभागतो ( ने )या ज्ञातव्या, ज्ञेया वा ज्ञातव्येत्यर्थः ॥२५४१-४३॥ भयनस्य च दिनानि त्र्यशीतिशतम् , तेभ्यः परिज्ञानं त्रैराशिकेन । यदि त्र्यशीत्यधिकशतेन जघन्योत्कृष्टपौरुषीप्रमाणयोरंशाओं मुहर्तस्तत एकदिवसेन किमिति अनुपाते लब्धं फलं मुहूर्तस्य द्वाविंशशतभागः । त्रैराशिका) गाथा चेमा - उक्कोसजहण्णाणं जदंतरालमिह पोरिसीणं तं । तेसीतसतविभत्तं वेइिंढ हाणि च जाणाहि ॥२५४४॥ उक्कोस० गतार्था ॥२५४४॥ वर्णकालनिरूपणाय - पंचण्डं वण्णाणं जो खलु वैण्णेण कालओ वण्णो । सो होति वण्णकालो वणिज्जति जो व जं कालं ॥५१५।।२५४५॥ पज्जायकालभेतो वण्णो कालो ति वण्णकालोऽयं । णणु एस णामतो" च्चिय कालो गाणियमतो तस्स ॥२५४६॥दा।। १ राईअ दी हा म को हे त । २ 'रिसीमो जे त । ३ राई को हे त म दी हा । ४ 'सावुड्ढी को हे। ५ तिण्ण त । ६ वुड्ढी को हे त । ७°सगभात। ८ °दिणमा है । ९ बुड्ढि को हे। १० णि जा जे। ११ वन्नेण त । १२ वणिज दी । १३ नामउ को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.८ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५१६[पंचण्डं], पज्जाय० गाहा । कलनं कालः, पर्यायाणां कलनं परिमाणं पर्यायकालः, तस्य भेद एकांशः, कोऽसौ वर्णः ? रूपमित्यर्थः । वर्णश्चासौ कालश्चेति वर्ण कालः कृष्णरूपमित्यर्थः । ननु च लोकप्रसिद्धत्वात् कालो वर्ण एवेति गम्यते । तच्च न, यस्मादनियमेनाऽन्यत्रापि समयाद्यर्थे, मरणार्थे च कालशब्दो वर्तत इति तद्वयवच्छेदार्थ वर्णकालः ॥२५४५-४६॥ अथ भावकालनिरूपणार्थ भावा औदयिकादयस्त्रिपञ्चाशत् , तेषां कालो भाव. कालः । स च चतुर्दा ~~ साती सपज्जवसितो चतुभंगविभागभावणा 'एत्थं । ओदेइयादीयाणं तं जाणसु भावकालं तु ॥५१६॥२५४७॥ साती सपज्जवसितो इत्यादि । सादिसपर्यवसितादीनां चतुर्णा भङ्गानां विभागः । अनन्तरगाथायाः भावना च इत्थं वक्ष्यमाणा नारकादिभावादि ॥२५४७॥ साती संतोऽणंतो एवमणाती वि एस चतुभंगो । ओदइयादीयाणं हो २६८-०]ति जधाजोगमायोज्जो ॥२५४८॥ साती गाहा । सादि: सान्तश्चानन्तश्चेति भङ्गद्वयं लभ्यते । एवमनादिरपि सान्तश्चानन्तश्चेति भङ्गद्वयम् । एप चतुर्भङ्गका(कः), एष चौदयिकादीनां यथायोगमायोज्य इत्यादेशः ॥२५४८|| स चायम् ---- जो णारगातिभावो तब मिच्छत्तायो ये भव्वाणं । ते चेवाभवाणं ओदैयियो बितियवज्जोऽयं ॥२५४९॥ जो णारगातिभावो। औदयिकादिभावः गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाऽज्ञानाs. संयताऽसिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्रयेकैकैकैकषड्भेदा इत्येकविंशतिविधः । तत्र गतिर्नारकादिरौदयिकः सादिसपर्यवसानश्च । मिथ्यादर्शनादिर्भव्यानां अनादिः सपर्यवसानः, मिथ्यादर्शनादिरभव्यानामनादिरपर्यवसानः, एवमौदयिको द्वितीयभगवर्जस्त्रिभङ्गः । न हि कश्चिदौदयिकस्सादिरपर्यवसान इति ॥२५४९॥ तथा - सम्मत्तचरित्ताई साती संतो य ओवसमिओऽयं । दाणातिलद्धिपणयं चरणं पि य खाइयो होति ॥२५५०॥ १ इत्थं म। २ उदईआ म। ३ सादी पज्ज० इति प्रतौ । ५ जोग्गमाउज्जा को। माउज्जो हे, । माओज्जा त । ५ ताइओ को । ६ वि हे त । ७ उदईओ त। ८ उपसमीभो त। ९ भावो को हेत। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५१९] उपोद्घाते कालद्वारे जिनदेशनाकालः । सम्मत्तणाणदंसणसिद्धत्तारं तु सातिओऽणंतो । णाणं केवलवज्जं साती संतोखयोवसमो ॥। २५५१ ॥ मतिअण्णाणादीया भव्वाभव्वाण ततियचरिमोऽयं । सन्वो पोग्गलधम्मो पढमो परिणामिओ होति ।। २५५२ ॥ भव्वत्तं पुण ततिओ जीवाऽभव्वाति चरिमभंगो तु । भावाणमयं कालो भावावस्थाणतोऽणणो ॥२५५३॥ ० सम्मत्तचरित्ताई। संमत्तणाणदंसण | मतिअण्णाणादीया । भव्वत्तं पुण । गाहा । औपशमिको भावो द्विविधः सम्यक्त्व चारित्रे । तस्य प्रथमभङ्गः --- सादिस्सातश्च । क्षायिको नवभेदः । तत्र दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि लब्धिपञ्चकं क्षायिकचारित्रं च प्रथमभङ्ग एव सादिः सान्तश्च । क्षायिकं सम्यक्त्वं ज्ञानदर्शनसिद्धत्वानि द्वितीयभङ्गः सादिरपर्यवसानः । क्षायोपशमिकोऽष्टादशभेदस्तत्र केवलवजे ज्ञानचतुष्टयं सादिः सान्तः प्रथमभङ्गः । मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं च भव्यानां तृतीयभङ्गः अनादिः सान्तश्च । एतदेव त्रितयमभव्यानामनादिरनन्तश्चतुर्थभङ्गः तथा पारिणामिकः "जीवभव्या भव्यत्वादीनि च " [ तत्त्वार्थ० २.७.] इति । आदिग्रहणादपरिसंख्यानः । तत्र यावान् पुद्गलधर्मपरमाण्वादिः स सर्वः सादिः सान्तश्च प्रथमभङ्गः । भव्यत्वं तृतीयभङ्गः अनादिः सान्तश्च । तस्मादवश्यं सर्वे भव्याः सेत्स्यन्ति । यदि पुनः केचिद् भव्या अपि न सिद्धे (ध्ये ) युस्ततश्चतुर्थभङ्गानुज्ञाऽपि स्यादेव । चतुर्थभङ्गः पारिणामिकः अभव्यत्वम् अनादिरपर्यवसानः । जीवत्वं चतुर्थभङ्ग एव । भावानामयं कालो भावावस्थानादनन्यः, तत्पर्यायवत् || २५५०-५३॥ ४७९ एत्थं पुण अधिगारो पमाणकालेण होति जातव्वो । खेतम्मि कॅम्मि कॉलम्मि भासितं जिणवरिंदेणं ।।५१७||२५५४।। वइसाहसुद्ध कारसीयं पुव्व देसकालम | महसेणवणुज्जाणे अणतैरपरंपरं से || ५१८ || २५५५।। खम्म वमाणस्स भगवतो णिग्गतं जिर्णेवरस्स । भावे योत्रसमिम्मि वट्टमाणे " हि तं गहितं ॥५१९॥२५५६॥ १ चरमों हे त । २ 'चरम' हे त । ३त्थो त । ४ खेत्तंमि दी हा । ५ कंमि दी हा म । ६ काले दी हा । ७ देण को हे म । ८ 'इक्का' को हे म त । 'एक्का' दी हा । ९ सीए हे। सीइ त म । १० लंमि दी हा । ११ तरं पहा हे । पर दी । १२ मि दी हा । १३ स निग्गयं भयवओ जिं° हा म । १४ जिदिस्स दी हा म को हे त । १५ यंमि दी हा । १६ हिं को हे दी हा म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० विशेषावश्यकभाष्ये [ नि० ५१९एत्थं पुण गाहा । वइसाहगाहा । खयियम्मि गाहा ।।२५५४-५६॥ अत्र चोद्यम् - कि'ध[२६८-द्वि०] पगतं भावेण किंधमधिकारो पमाणकालेणं । खाइयकालेऽरुहता पमाणकालम्मि जं भणितं ॥२५५७।। ___ मूलसूत्रे उक्तं कालो नवविधः" दव्वे अद्ध अधाउय" [गा० २५०२] इत्यादि । नवमो भावकालः । “पगदं तु भावेण" [गा० २५०२] भावकालेनात्र प्रकृतमुपयोग इत्यर्थः । पुनश्चोच्यते एत्थं पुण अधिगारो पमाणकालेण [गा० २५५४] त्ति कथमेतद् विरुद्धमेकेन प्रकृतमन्येनाधिकार इति ? तमविरोधमाहाचार्य:-क्षायिक काळे अर्हता भाषितं सामायिकम् , प्रमाणकाले च पूर्वाहे इत्यविरुद्ध मुभयम् अथवा नैवेदमुभयम् । कि तर्हि ? एकमेवेदं प्रमाण-भावकालश्चेति ॥२५५७|| तदर्शयति - अधवा पमाणकालो वि भावकालो त्ति जं च सेसो वि। किंचिम्मतविसिट्टा सव्वे 'चिय भावकाल त्ति ॥२५५८॥ अधवा पमाण० गाहा । प्रमाणकालपूर्वाह्नः, स एव भावकालः, अद्धाकालस्वरूपत्वात् । न केवलम यमेव भाव कालः किन्तु शेषा अपि किञ्चिन्मात्रविशेषाद् भिद्य मानाः भेदमुपयान्ति । परमार्थतस्तु तेऽपि भावकाल इति । तस्मादेकमेवेदं प्रकृत. मधिकारश्चेति ॥२५५८|| आधिक्केणं” कज्जे पमाणकालेण जमधिकारो ति। सेसा वि जधासंभवमायोज्जा" णिग्गमे काली ॥२५५९।। दारं ।। आधिक्केणं गाहा । आधिक्येन कार्य प्रमाणकालेनेति अधिकारवाचोयुक्त्या भण्यते । निर्गमद्वारेऽस्मिन् शेषा अपि द्रव्यकालादयो यथासम्भवमायोज्याः ॥२५५९॥ अथावसरप्राप्त क्षेत्रमुच्यते, बहिरङ्गत्वात्--- खेत्तं मतमाकासं सचदेवावगाहणा लिंग । तं दव्वं "चेय णिवासमेत्तपज्जायतो खेत्तं ॥२५६०॥ खेत्तं मतमाकासं "क्षि" निवास-गयोः" इति खे(क्षे)त्रमाकाशमिति मतमिष्टम् । । "आकाशस्यावगाहः" [तत्त्वा० ५. १८] इति सर्वव्यावगाहना लिङ्गम् तदपि द्रव्यमे सत् निवासपर्यायस्य [धारणमात्रेण क्षेत्रमुच्यते ॥२५६०॥ १ कध त। २ कधम त, कहम को हे। ३ 'यभावेऽ को हे त । ४ 'काले य जं को त । कालेग जं हे। ५ भाग का जे। ६ 'काल त्ति को। ७ सेसा को हे। ८ 'चिम्मेत्त को हे। चिम्मित्त त । ९ वि य त ।१० फेग कज्जेणं प त । ११ °माउज्जा को हे। १२ काले त। १३ वदवा हे। ११ चेव को हे त १५ स्त्रि नि० इति प्रतौ । १६ व तानि इति प्रतौ । १७ °स्य मात्र इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५२०] उपोद्धाते क्षेत्र-पुरुषद्वारे । ४८१ तं च महेसेणवणोवलक्खितं जत्थ णिग्गतं पुवं । सामाइयमण्णेसु तु परंपरविणिग्गमो तस्स ॥२५६१॥ दारं ॥ तं च महसेणवणो० इत्यादि । तच्च क्षेत्रं महासेनवनोपलक्षितमनन्तरनिर्गम प्रति सामायिकस्य । अन्येष्वपि क्षेत्रेषु भगवता भाषितमेव, तत् परंपरनिर्गमः सामायिकस्य ॥२५६१॥ अथ पुरुषस्वरूपवर्णनायदव्वाभिलावचिंधे वेते धम्मत्थ भोग भावे य । भावपुरिसो तु जीवो भावे पगतं तु भावेणं ॥५२०॥२५६२॥ दव्वाभि०गाहा । द्रव्यपुरुषादिरष्टधा पुरुषः । भावपुरुषेणात्र शुद्धेन भगवता तीर्थकरेणाधिकारः ॥२५६२॥ आगमतोऽणुवयुत्तो इतरो दयपुरिसो तिधी ततिओ । एगभवियाति तिविधो मूलुत्तरणिम्मितो वा वि ॥२५६३॥ आगमतो गाहा । द्रव्यपुरुषो द्वेधा-आगमतो नागमतः । मागमतः पुरुषपदार्थज्ञोऽनुपयुक्तः । इतरः इति [व्यतिरिक्तो द्वेधा-मूलगुणनिर्मितः, उत्तरगुण. निर्मितश्च ॥२५६३॥ अथाभिलापपुरुषःअभिलावो पुलिंगाभिधाणमेत घडो व्व चिंधे तु । भत्त पुरिसागिती णपुंसो वेदो वा [१६९-०] पुरिसवेसो वा ॥२५६४॥ अभिलावो गाहा। अभिलापः शब्दः पुंलिङ्गाभिधानमात्रम्-घट इति पट इति वा-अभिलापपुरुषः । चिह्नपुरुषस्तु अपुरुषोऽपि स्वयं पुरुषचिह्नोपलक्षितः नपुंसकः श्मश्रुचिह्नः, पुरुषवेदो वा चिह्नपुरुषः, तेन चिह्नयते पुरुष इति । पुरुषवेषो वा यः स्त्र्यादिः ॥२५६४॥ वेदपुरुषनिरूपणायाह - वेतपुरिसो तिलिंगो वि पुरिसवेताणुभूतिकालम्मि । धम्मपुरिसो तदज्जैणवावारपरो जधा साधू ॥२५६५।। १ महासे' जे । २ पुवि त । ३ य को हे । ४ महा इति प्रतौ। ५ सत् प० इति प्रतौ। ६ तहा को हे । ७ पुलि' त । ८ षो वस्त्रादेरपि इति प्रतो । ९ 'वेसाणु त । १० "ज्जयण त। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५२१. ___वेतपुरिसो गाहा । त्रिष्वपि लिङ्गेषु तृणवालोपमवेदानुभवकाले वेदपुरुषः, धर्मपुरुषस्तु साधुधर्मार्जनव्यापारः । २५६५॥ अत्थपुरिसो तदज्जणपरायणो मम्मणो व णिधिपालो । भोगपुरिसो समज्जितविसयसुहो चक्कट्टि व्व ॥२५६६॥ अत्यपुरि० इत्यादि । अर्थाऽर्जनपरोऽर्थपुरुषः, मम्मणनिधिपालवत् । समा(म) र्जितसमस्तविषयसुखः स्वयं भोगसमर्थश्च भोगपुरुषश्चक्रवर्त्तिवत् ॥२५६६॥ भावपुरिसो तु जीवो सरीरपुरि सयणतो णिरुत्तेवसा । अधवा पूरणपालणभावातो सव्वभावाणं ॥२५६७॥ भावपुरिसो इत्यादि । पूं: शरीरं पुरि शेते इति निरुक्तिवशात् पुरुषो जीवः संसारी, शरीरशयनात् , सत्सर्वभावपूरणपालनसामाद्वा सर्व एव जीवः पुरुषः शुद्धः स्वभावावस्थानात् ॥२५६७।। दवपुरिसादिभेदा वि जं च तस्सेय होन्ति पजाया । तेणेह भावपुरिसो मुद्धो जीवो जिणिन्दो व्व ॥२५६८।। दव्व० गाहा । येऽपि च द्रव्यपुरुषादयो भेदास्तेऽपि तस्यैव शुद्धद्रव्यस्य पर्याया इति भावपुरुषः शुद्धो जीवस्तीर्थकरवत् ॥२५६८॥ पगतं विसेसतो तेण वेतपुरिसेहि गणधरेहिं च । सेसी वि जधासंभवमायोज्जा उभयवग्गे वि ॥२५६९॥ पगतं विसेसतो इत्यादि । 'प्र'शब्दोऽतिशये, यद्यपि सर्वे कथञ्चियथायोगमुपपद्यन्ते, तथापि तेन भावपुरुषेण, वेदपुरुषैश्च गणधरैरत्रातिशयेन विशेपेणाधिकार इति । शेषा अपि यथायोगमायोज्या धर्मपुरुषाऽभिलापपुरुषवत् उभयवर्गेऽपि तीर्थकरे गणधरेषु चेति ॥२५६९।। णिक्खेवो” कारणैम्मि चतुविधो दुविधो" होयि दवम्मि । तद्दव्यमण्णदव्वे अधवा वि णिमित्तणेमित्ती ॥५२१॥२५७०॥ समवायि असमवायी छविध कत्ता य करणे कम्मं च । तत्तो य संपताोवताण तध सण्णिधाणे य ॥५२२॥२५७१॥ १ रुत्तिव' को । २ पुंसः श-इति प्रतौ। ३ 'सेव को हे त । " होति को हे। ५ णिदो को हे। ६ °सेहि को हे । ७ विसेसा हे। ८ 'माउज्जा को हे । ९ 'मुपद्यतेइति प्रतौ । १० क्षेबु म। ११ °णंमी दी हा। णम्मी त को हे म । १२ विह को। १३ 'विहो य को, विहु हे दी हा। विह म । १४ य कम्म करणं दी हा त । १५ णापता दी म हा को हे त । १६ सान दी हा को हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ नि० ५२२] उपोद्घाते कारणनिक्षेपः। निक्खेवो कारणम्मीत्यादि । करोतीति कारणं कर्तरि कारके स्वात्मानं कार्य निवर्तयतीत्यर्थः । 'कारणस्य निक्षेपः' इति वक्तव्ये 'कारणे निक्षेपः' इति अधिकरणनिदेशः पर्यायाणां घटपटादीनां मृत्-तन्त्वादिद्रव्यं कारणमाधार इत्येवं प्रकाशनार्थः । स च कारणे वकव्ये निक्षेपश्चतुर्विधः पूर्ववन्नामादि-नामकारणं स्थापनाकारणं च निर्दिष्टार्थम् , द्रव्यकारणं द्विविधमागमतो नोआगमतश्च । एतदपि पूर्वेण समानम् । यस्तु विशेषः स उच्यते-ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं नोआगमतो द्विविधं द्रव्यकारणम् । तव्यमन्यद्रव्यं चेति । अथवा अन्यथा द्विविधत्वं निमित्तकारणं नैमित्तकारणं च । ___अथवा द्विविधं समवायिकारणमसमवायिकारणं चेति । अथवा षड्विधम्नोआगमतो द्रव्यकारणम् षड्विधमित्यनुस्वारोऽत्र प्राकृतशैल्या लुप्तो निर्दिष्टः । कर्त्ता कारणम् , करणम् कारणम् , एवं सम्प्रदानम् , अपादानम् , तथा सन्निधीयतेऽस्मिन्निति सन्निति(धिः) सन्निधानं अधिकरणमुच्यते ।।२५७०-७१॥ एषां विकल्पानामेकैको(कैकस्य) विवक्षावशादर्थनिगमी(म)सम्भवप्रदर्शनार्थम् , अनेकपर्यायख्यापनार्थ च वस्तुनः प्रपञ्चशोऽनेकभेदाभिधानं अर्थक्रमेण व्याख्यानमिति भाष्यगाथा तहकार(१६९-द्विणं तंतवो पडैस्सेह जेण तम्मयता। दारं । विवरीतमण्णकारणमिह वेमादयो तस्स ॥२५७२॥ दारं॥ · तद्दव्वकारणमित्यादि । तस्यैव द्रव्यं तद्र्व्यम् , तच्च तत्कारणं च 'तव्यकारणम्' यथा तन्तवः पटस्य । 'येन तन्मयता' तच्छब्देन तन्तवोऽभिसम्बन्ध्यन्ते, तैनिर्वृत्तस्तन्मयस्तस्य भावस्तन्मयता । तन्तुमयपट इति तस्यैव पटस्य कार्यस्य द्रव्यं कारण तन्तवः । तद्विपरीतमन्यद्रव्यकारणं वेमादयः । विपरीतता अतन्मयत्वम् , अन्यस्यापि कार्यान्तरस्य शॉटक-शाटिकादेमादयः साधारणं कारणमित्यन्यद्रव्यकारणम् । यैः पुनः पटो निर्वृत्तस्तन्तुभिस्ते तस्यैवासाधारणं कारणं नान्यस्यापीति ॥२५७२।। यद्येवं तस्यैव ते नान्यस्य। ततः कार्यकारणयोरेकत्वं प्राप्तम्-तन्तवः पट एवेति, असाधारणत्वात् , पटस्वरूपवत् । ततस्तदर्थप्रदर्शनी गाथा जति तं तस्सेय मतं हेतू णणु कज्जकारणेगत्तं । ण य तं जुत्तं ताई जतोभिधाणातिभिण्णाई ॥२५७३॥ १ तं दव्व जे । २ पदस्से' जे । ३ तम' को, । ५ वेसाद' जे । ५ शादकशादि. कादेगर्वमा' इति प्रतौ । ६ स्सेव को हे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५२२ जति गाहा । यद्येवं ततो न तन्तवः पटस्य कारणम् , अभिन्नत्वात् , तन्तुस्वरूपवत् । कार्यकारणव्यपदेशाभावश्च । न चैतद्युक्तमेकत्वम् , उपपत्तिविकलरवात् । प्रतीपं चोपपत्तिरस्ति-नाना कार्य-कारणे, भिन्नाभिधानत्वात् , गवाश्ववत् ॥२५७३॥ अत्र दूषणमुच्यतेतुल्लोऽयमुवालंभो भेते वि ण तंतवो घेडस्सेव । कारणमेगत्ते वि य जतोभिधाणादयो भिण्णा ॥२५७४॥ तुल्लो गाहा । कार्यकारणभेदवादिनोऽप्ययमुपालम्भः समानः । भिन्नमपि नैव कस्यचित् कारणं कार्य वा भवितुमर्हति-न तन्तवः पटस्य कारणम् , भिन्नत्वात् घटस्येव । ननु चैवं दृष्ट-लोकविरुद्धः उच्यते । न विरोधः । सत्यं दृष्टास्तन्तवः पटस्य कारणत्वेन लोके, न च प्रतिपन्नास्ते तन्तवः एवंप्रतिपत्त्या भिन्ना अभिन्ना इति चैकान्तेन निश्चिताः । भिन्नाभिन्नरूपत्वात् कारणमिति वक्ष्यामः स्याद्वादनिरूपणायाम् । यदपि चोक्तं नाना कार्य-कारणे, भिन्नाभिधानत्वात् , गवाश्ववदित्ययमनैकान्तिकः, एकत्वेऽपि 'यतोऽभिधानादयो भिन्नाः' इति भिन्नाभिधानत्वमिति-एकत्वेऽपि शकपुरन्दरवत् दृष्टमिति ॥२५७४॥ तस्माद्भिन्नाभिन्नपक्षयोर्दोष इत्येकान्तपक्षमवधूय उभयदोषनिराकरणादुभयगुणौ. पसंग्रहाच्च वस्तुस्वरूपस्था[पनी स्याद्वादप्रक्रियैवाश्रयणीयेति गाथा जं कज्जकारणाई पज्जाया वत्थुणो जतो ते य । अण्णेऽणण्णे य मता तो कारणकज्जभयणेयं ॥२५७५।। जं गाहा । कार्य-कारणमिति वस्तुनः पर्यायो, विवक्षावशोपनयात् । तौ च पर्यायौ वस्तुनः पर्यायिणः कथञ्चिद्भिन्नौ संज्ञा-स्वालक्षण्य-स्वतत्त्व-प्रयोजन-मितिभेदादिभिः; कथञ्चिदभिन्नौ, ज्ञेयसद्व्यपृथिवीमृदादिसामान्यपर्यायैरविनाभाविभिः । तस्मादन्यानन्यौ मताविति । कार्यकारणभजना चेयं विवक्षाजनिता। पृथिवी कारणम् , मृत् कार्यम् । पुनश्चोत्तरविवक्षाभेदात् मृत् कारणम् , पिण्डः कार्यम् , तत उत्तरभेदापेक्षया पिण्डः कारणम् , शिवकः काम्, एवं कार्यकारणरूपत्वमे कस्य वस्तुनोऽपेक्षावशादिति।।२५७५।। अन्याऽनन्यत्वमेकवस्तुविषयं सिद्धान्तप्रसिद्धोदाहरणेन भाव्यते - णत्थि पुढवी विसिट्ठो घडो ति जं तेण जुज्जति अणण्णो । जं पुण घडो त्ति पुव्वं ण आसि पुढवी ततो अण्णो ॥२५७६।। दारं॥ १ पड' त । २ मेगते को हे। ३ 'नातेत्तुनैव प्रतिपत्त्यत्त्या सिन्ना अभि इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५२२] उपोद्घाते कारणनिक्षेपः । ४८५ त्थ गाहा । पार्थिवो घट इति पृथिव्या विकारः, पृथिव्या निर्वृत्तः, पृथिव्या अयमिति वा पार्थिवः । विकार - विकारिणोश्च ययन्यत्वं ततः पृथिवी विकारवती प्राक् प्रत्यक्षप्रसिद्धा दृष्टा, ताम् विरहय्य 'मुंज (जे) सीकावत् पृथग्भूतो विकारो घटाख्यः कश्चिन्नास्ति-पृथिव्येवा कारान्तरविशिष्टा लक्ष्यते । तस्मात् 'पृथिवी विशिष्टः' पृथिवीतो भिन्नः पृथग् घटो नास्तीति कृत्वा तेन कारणेन युज्यते अनन्यः पृथिवीतो घट इति । यथैवं घटाकरोत्पत्तेः प्राक् पृथिवी विद्यमाना घट इति किं न भण्यते ? ब्रूयाद्- घटाकारस्तदा नास्तीति । एवं तर्हि घटाकारः पृथिवी न भवति, येन विना पृथिवी घटव्यपदेशं न लभते तस्मादन्यो घटः पृथिवीतः । एतदर्थं पश्चार्धम् जं पुण घडो ति पुव्वं ण आसि पुढवी ततो अण्णो । एवमेकं द्वैतं गतम् ||२५७६|| द्वितीयं द्वैतं निमित्तनैमित्तिकम्- जध तंतवो णिमित्तं पडस्स । दारं । वेमातयो तथा तेसिं । जं चेद्वातिणिमित्तं तो ते पडयस्स मित्तं ॥२५७७॥ दारं ॥ ज तव णिमित्तं पडस्स इत्यादि । तन्तून्निमित्तमाश्रित्य पटो भवतीति तन्तवो निमित्तकारणं पटस्य । यथा च तन्तुभिर्विना पटो न भवतीति तन्तवः कारणम्, तथा तन्तूनामातानवितानादिचेष्टामन्तरेण पटनिष्पत्तिर्न भवति । तस्याश्रेष्टायाः शलाका कुकुट्टिकाहस्तोत्क्षेपाङ्गुलिसमाक्रमण देशतिर्यगादानत प्रक्षेपानुसारतप्रचयलेखनीविघट्टितादिकारणमिति वेमादयो नैमित्तकारणं नै (नि) मित्तस्येदं नि ( नै) मित्तमिति वेमाद[यः] सम्बन्ध्यन्ते । तद् वेमादि नैमित्तं कारणम् || २५७७॥ अथ तृतीयं द्वैतं समवाय्य समवायिकारणमिति निरूपणीयम्, तदर्थं गाथा - समवायि कारणं ततवो पडे जेण ते समवयंति । दारं । ण समेति जतो कज्जे वेमाति ततो असमवायी || २५७८ || दारं ।। समवायि गाहा । समेकीभावे, अव अपृथग्भावे 'इण् गतौ', 'अय गतौ' वा, एकीभावेनावृथग्गमनं समवायः संश्लेषः, स येषां विद्यते ते समवायिनः । पटस्तेषु तन्तुषु समवैतीति । समवायिनश्च ते कारणं चेति समवायिकारणम् । आर्हतानामेतदेव परिणामिकारणमुच्यते तद्व्यकारणमिति यावत् । वैशेषिकाणां च नैगमनयानुवादिनां समवायः पृथग्पदार्थ एव - सामान्यविशेषभूतानाम्, सत्ताद्रव्यादीनाम्, गुणिगुणभूतानां वा घटरूपादीनाम्, कारणकार्यभूतानां वा तन्तुपटादोनामाश्रयिभूतानां चापृथग्वर्त्तिनां द्रव्यकर्मादीनां इहबुद्धिहेतुः । इहेति यतः कार्यकारणयोः १ मुजेषीका को । २ यन्ति को । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮૬ विशेषावश्यकभाष्ये [ नि० ५२२ समवाय इति तन्तुषु कारणद्रव्येषु कार्यद्रव्यं पटाख्यं समवैति । अस्यां च गाथायामेतदेव विपरीतमुपवर्ण्यते- 'समवायि कारणं तन्तवो पडे जेण ते समवयंति' तत् कथमेतदुत्सिद्धान्तमाचार्येणोच्यते इति । अत्र समाधिः- नैवाचार्येण परमतमुपजीव्य तेनो ( ० क्य उ)क्तमिति, नैगमनयस्य प्रत्याख्यानमेव । दुःश्लिष्टत्वात् । वस्तुस्वभावगत्याचार्येण व्याख्यानं क्रियते। न चान्यत्वमेव कार्यकारणानाम्, कारण नित्यत्वात्तदनन्य भाविकार्यनित्यस्वात् पेटाख्ये कार्यद्रव्ये तन्तवः समवयन्ति तन्तूनामौत्तराधर्येण पटदर्शनात् । तस्मात् सुष्टुच्यते 'पडे जेण ते समवयन्ति' । अत्रैवाऽसमवायिकारणं वेमादयः - 'ण समेति जतो कज्जे वेमाति ततो असमवाय' कार्यद्रव्येति वृत्तेः पटाख्ये । यथा तन्तवः समवायेनो (न) दृश्यन्ते न तथा वेमादय इति अतोऽसमवायिकारणमुच्यते ॥२५७८ ॥ एतदप्यसिद्धान्तमेवेति आचार्य एव पराभिप्रायं प्रकाशयन्नाह - वेमातयो णिमित्तं संजोगा असमवायि केसिंचि । ते जेण तंतुधम्मा पडो य दव्वंत [ १७० - प्र० ]रं जेण ॥ २५७९ ॥ माय गाहा । काणादानां हि सिद्धान्तः समवायिनः कार्यद्रव्यस्य कारणं तन्त इति समवायिकारणम्, तन्तुगुणाः 'तन्तुधर्माः' तन्तुसंयोगाः । कारणद्रव्यान्तरधर्मत्वात् परस्य कार्यव्यान्तरस्य दूरवर्त्तित्वात् असमवायिनः इत्यसमवायिकारणं तन्तुसंयोगाः - इत्येष परेषां सिद्धान्तः । वेमादयस्तु संयोगनिमित्तभूतत्वात् निमित्तकारणमुच्यन्ते । न पुनः समवाय कारणमिति, द्रव्यान्तरसमवायित्वापत्तेः || २५७९॥ उपपत्तिगाथा दव्वंतरधम्मस्स य ण जतो दन्तेरम्मि समवायो । समवायमि वै पावति कारणकज्जेगता जम्हा ||२५८० || दव्वंतरधम्मस्स य गाहा । यान्तरधर्मस्य अप्सु शीतादेः तेजसि द्रव्यान्तरे समवायो नास्तीत्युपपत्तिप्रदर्शनमात्रम्, प्रमाणं तु-संयोगाः पटे न समवेष्यन्ति, द्रव्यान्तरधर्मत्वात्, शीतादय इव तेजसीति । अथाभ्युपगमात्तन्तुसंयोगाः पटेन समवायिन इष्येरन्। ततोऽयं गाथापश्चार्द्धेन दोष उच्यते - तन्तुपटादिकारणकार्य - योरेकत्वं भविष्यति, परस्परं गुणसमवायित्वात्, तन्तुस्वरूपवत्, पटस्वरूपवद्वा ॥ २५८०|| आर्हतानां तु स्यादन्याऽनन्यत्ववादिनां गुण एवायमन्यत्वं परेण प्रतिपन्न एव, तदनन्यत्वमप्रतिपन्नमिति तत्तदीयोपपत्तिभिरेव प्रतिपाद्यते १ पयख्ये इति प्रतौ । २ई है । ३ तन्तु' हे । ४ 'व्वन्त' को । ५ य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५२२] उपोद्घाते कारणनिक्षेपः । जध तंतूणं धम्मा संजोगा तध पडो वि सगुणो व्य । समवायादित्तणतो दबस्स गुणादयो चे ॥२५८१॥ जध तंतूणं गाहा । पटोऽपि तन्तूनां धर्म एव, तेपु समवायित्वात् , तन्तुसंयोगवत् , युक्ततादिगुणवद् वा। अत्राशङ्कयते परवचनम् -धर्मत्वापादनेऽपि नैवानन्यत्वं सेत्स्यति, किन्तु इष्ट. विघातकृद्धर्मविशिष्टविपरीतसाधनो विरुद्धोऽयं समवायित्वादिति । यथैव तन्तुसंयोगानां शुक्लादीनां च धर्मत्वात् पटस्य तन्तुधर्मत्वमापादयति, एवमनन्यविपर्य येणान्यत्वेन व्याप्तत्वादन्यत्वविशिष्टधर्मत्वमप्यापादयतीति नैवानन्यत्वमिष्टं सिद्धमिति । उच्यतेनायं विरुद्धः । कथमिति ? न्यायलक्षणात् विरुद्धे सति साधने । इह च विरुद्धा. भिधायिप्रमाणस्य अन्यत्वविशिष्टधर्मत्वापादनस्य तन्तुसंयोग-वस्तु-शुक्रत्वादिदृष्टान्तस्यानुभवसिद्धत्वात् , अन्यतरसाध्यविकलदृष्टान्तयोगाद्विरुद्धो नै सः । न ह्याहतानां तन्तुसंयोगाः शुक्लतादयो वा गुणास्तन्तुभ्योऽन्ये । अत्राप्यन्याऽनन्यत्वोभयधर्मविषयस्यावादावलम्बनात् । दर्शयत्याचार्यः-"दबस्स गुणादयो चे" द्रव्यस्य तन्त्वादेगुणादयः । आदिग्रहणात् संयोगकार्यद्रव्यसामान्यविशेषधर्माः सम्बव्यन्ते । तेऽप्यन्यानन्यरूपा इति नैकान्तवादः ॥२५८१॥ अथ कश्चिदत्राशङ्केत काणादः-द्रव्यादन्ये गुणा:-बुद्धयभिधानलक्षणादिभिन्नत्वात् , गवाश्ववत् । एतदनेकान्तिकत्वप्रख्यापनाय, अनुमानविरुद्धप्रतिज्ञादोषकथनाय वा गाहा अभिधाणबुद्धिलक्खण भिण्णा वि जघा सदस्थतोऽणण्णे । दिक्कालादिविसेसा तध दव्वातो गुणातीया ॥२५८२॥ __ अभिधाण. अभिधानबुद्धिलक्षणभिन्नत्वं हि विपक्षे अनन्यत्वे सदादि(दि)कालादिषु दृष्टमित्यनैकान्तिकः । अथवाऽनुमानमेवेदम्-पृथक् स्वतन्त्रा द्रव्यादनन्ये गुणाः, अभिधानबुद्धिलक्षणभिन्नत्वे सति परिणामित्वात् , विशेषणविशेष्यरूपत्वात् , सदादि(दि)कालादय इव । सदर्थः सत्ताशब्दवाच्यः सामान्यपरिणामः । दिक्कालाकाशादयस्तस्य विशेषाः पर्यायाः इत्यर्थः । यदि दिक्कालादयः सदर्थादन्ये, असन्तस्तहि खरविषाणवत् । अथाऽनन्ये, सदर्थमात्रम्, न नाम केचिदिकालादयस्तद्वयतिरिक्ताः । तम्मान्नैकान्तेनान्यत्वमिति । सदर्थश्च सामान्यपर्यायः दिक्कालादयो विशेषपर्यायाः । एवं द्रव्य-गुणादयोऽप्यन्यानन्यत्वसामान्यविशेषरूपेण द्रष्टव्याः ॥२५८२॥ १ गुणव्व को, गुणा व्व हे । २ चैव त । ३ तवशिष्टं - इति प्रतौ । ५ द्धो स सः--इति प्रतौ । ५ वादय इति प्रतो । ६ मारमे-इति प्रती । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮૮ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५२२यद्यनन्ये सदा दिक्कालादयो द्रव्यगुणादयश्च । ततोऽयन्ताऽभेदादेकत्वाद् 'दिगियम्' 'कालोऽयम्' इति को विशेषः ? उच्यते-.. उवयारमेत्तभिण्णा ते चेव जघा तधा गुणादीया । तध कज्जं कारणतो भिण्णमभिण्णं च को दोसो ? ॥२५८३॥ उवयारमेत्तभिण्णा इत्यादि । उपचारो व्यवहारः । तेन संव्यवहारमात्रेण भिन्नास्तथा विवक्षितत्वात् दिकालादयो विशिष्टा भण्यन्ते । अन्यथाऽस्तित्वमात्रमेव सर्व द्रव्यार्थतो वस्तु । तथा द्रव्यगुणादयोऽपि चक्षुरादीन्द्रियशेपकरणा(ण)विशेषान्नानात्वं लभन्ते । अन्यथा द्रव्यमेव गुणा इति । तथैव यदि पटादिकं तु कारणात् भिन्नमभिन्नं च भवेत्ततः को दोष इति तुल्यतापादनात् पूर्वदोषपरिहार इति । उक्तं द्विविधत्वं कारणस्य ॥२५८३॥ इदानीं षविधत्वं कारणस्योच्यत इति गाथाकारणमधवा छद्धा तत्थ सतंतो ति कारणं कत्ता । फज्जप्पैसाधकतमं करणम्मी पिण्डदण्डैादी ॥२५८४॥ कारणं । करोतीति कारणं कर्तरि व्युत्पत्तेः पडपि कारकाणि कारणं कार्यस्य, स्वेन स्वेन व्यापारेणावश्यमुपयुज्यमानत्वात् , सर्वेषां च स्वव्यापारे स्वतन्त्रत्वादविनाभावित्वम् , यथाविवक्षं च तस्य तस्य कारकस्याभीष्टव्यपदेशात् । यथैकस्य धनुषः कारकत्रयव्यपदेशः। दृढत्व-स्वाकारत्व-बद्धत्व-गुणवत्त्वादिभिः कारणैः स्वातन्त्र्यात् धनुरि(रे)व विध्यतीति कर्तृवं धनुषः । तथा तस्मादेव तद्विधगुणाद्धनुषोऽपादानात् बाणम् , निष्कृतेन बाणेन करणभूतेन देवदत्तो विध्यति । अथवा तस्य देवदत्तस्य कर्तुः सर्वमेव संबाणं धनुः । धनुषा विध्यतीति । एवमन्यान्यपि योज्यानि इति । तत्र कार्ये निर्वत्यै स्वतन्त्रः कतैति स्वातन्त्र्येणोपयोगात् कर्ता कारणं कार्यस्य, तेन, विना तस्याभावादिति । तथा साधकतमं करणमिति अतिशय साधनयोगात् कार्यप्रसाधकतमं सन्निपत्योपकारित्वात् करणं मृत्पिण्डदण्डादि ॥२५८४॥ __ अथ कर्मकारणम्-क्रियते निर्वय॑ते तदिति कर्म कार्य सत् कथं कारणमिति गाथा कम्म किरिया कारणमिह णिच्चेही जतो ण साधेति । अधवा करणं कुम्भो स कारणं बुद्धिहेतु त्ति ॥२५८५।। १ पटादितंतुकारणभिन्नमभिन्नत्व च-इति प्रतौ । २ जस्स साहगत को ज्जपसाहगत हे। ३ गम्मि उ को हे त । ४ पिंडदं को। 'डाइ त, पिंडदंडाई हे । ५ सपाणं को। ६ य वचनयों को । ७ चिट्ठो को हे । ८ कम्मं कुम्भो को हे । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५२२] पविधकारणनिरूपणम् । कम्मं । कर्म च कारकं चेति व्यपदेशात् कारणम् । कस्य ? कार्यस्येति । ननु कार्य कर्म चेत्, कमैव वस्तु । तत् कथं स्वात्मन एव कारणं भवति ? कारण स्वयं लव्धात्मलाभम् । अलब्धात्मलाभस्य कार्यस्य निर्वर्तनाय क(का)रणं भवतीति । तत् पुनः स्वयमलब्धात्मलाभं कथं स्वस्यैव कारणतां प्रतिपत्स्यत इति ? न हि सूच्यग्रं स्वमात्मानं विध्यति, स्वात्मनि क्रियाविरोधादिति । ___ अथ आहाचार्यः- सत्यम् , साक्षात् कर्म कर्तुरीप्सितत कार्यस्य कारणं न भवति, पारम्पर्येण भवतीत्युपचारात् कर्म कारणं कार्यस्य । यासौ कर्तुः क्रिया कार्यनिर्वर्तनक्षमा, तस्याः क्रियायाः कारणं कर्म वा कर्माधारा सा क्रियेति कृत्वा । सा च क्रिया कर्मेत्युपचयते, तया निवर्त्यमानत्वात् । कर्म तु कार्यम् , यत एव निर्वयं वा विकार्य वा प्राप्यं वा तत् क्रियाफलं । तदृष्टादृष्टसंस्कारं कर्म कर्तुर्यदीप्सितम् ॥ अथ ब्रूयात् कश्चित्-कर्म कार्यस्य कारणमिति निर्मातव्ये क्रिया कर्मकारणमुच्यते इति अप्रस्तुताभिधानसम्बन्धमिव लक्ष्यते । आचार्यः-क्रिया हि चेष्टा कर्तुः, तया चेष्टया कर्ता कर्भ निष्पादयतीति क्रियैवात्र प्रधानम् , यतो निश्चेष्ट आकाशवन्न किञ्चित् साधयति । अथवा किमुपचारेण ? मुख्यमेव कर्मास्तु कर्तुरीप्सिततमम्-कुम्भकारः कुम्भं करोति कर्मण्युपपदे अल्प्रत्यय इति कुम्भ एव कर्म । तदेव तस्य कार्य निवर्त्यमिति स एव कुम्भः कारणं कुम्भस्य कार्यस्य । कथमिति ! यस्माल्लोके मृत्. पिण्डमईनचक्कारोपणदण्डग्रहणकाले कुम्भकारः पृष्टः किं करोषीति । प्रत्याह कुम्भं करोमीति । न ब्रवीति मृदं मृद्नामि, चक्रे आरोपयामि, दण्डकं गृह्णामीति वा । तस्मादेवं लक्ष्यते-कोऽपि बुद्धिस्थोऽर्थः कुम्भाख्यः कर्मास्य, येनोच्यतेऽस्यामवस्थायां कुम्भकार इति । स च बाह्योर्थ उत्पत्स्यमानो वर्तमानस्य विज्ञानस्वरूपस्य कुम्भस्य तदालम्बनत्वात् कारणम् , कुम्भवुद्धेहेतुत्वादिति । अत एव लोकव्यवहारः सर्वत्र भाविनि भूतवदुपचार इति ॥२५८५।। ततः(त्)समर्थनी गाथाभव्यो ति व जोगो ति व सक्को ति व सो सरूवलाभस्स । कारणसणेज्झम्मि वि जं णागासत्थमारंम्भो ॥२५८६।। भव्वो त्ति । भविष्यतीति भव्यः, भवनयोग्यः शक्यो वा भावयितुम् । एवं बुद्धिस्थोऽसौ स्वरूपलाभस्य कारणम् । यतश्च कारणसन्निधानेऽपि यावन्न बुद्धयाऽऽलो. १ न तर्हि सू-इति प्रतौ। न हि को। २ स्यानव-इति प्रतौ । ३ जोग्गो को हे। ४ संनेज्झ को। संनिज्झ हे। ५ 'रंभो को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभध्ये [नि० ५२२ चितं 'कार्यमिदमेवंविधमनेन क्रियाकलापेन निष्पाद्यम्' इति तावदभीष्टकार्यनिष्पत्तिरेव न भवति । न चैवं कश्चिज्जिज्ञासनार्थमेव सर्वकार्याणि करोति । एवं क्रियमाणे [न] किमपि भविष्यतीति । न च कश्चिदाकाशनिर्वर्तनार्थमारम्भं करोति, कारणानि वा सम्पादयतीति ॥ २५८६ ॥ तस्मात् वस्तुस्वभावगत्या लोकक्रिया संवादाच्च - वझणिमित्तावेक्खं कज्जं चिये कज्जमाणकालम्मि । होति सकारणमिधरा विवज्जयाभावेतो होज्जा ।। २५८७ || बज्झ० गाहा । दण्डचकादिवाहानिमित्तापेक्षं विज्ञानमन्तरङ्गं कार्य 'क्रियमाण काले' मृन्मर्दनचकारोपादिकाले कारणं भवति तस्य स्वस्यैवात्मन इत्यर्थः । ' इतरथा ' अन्यथा निरूपणायां विपर्ययो भवेत् - कुम्भे मारब्धे शरावो निष्पाद्येत, पटो वा अभाव एव वा स्यात् । कथमभावभवनमाशङ्केत ! एतदुक्तं भवति - कुम्भ आरब्धे नैव किञ्चिदपि कार्ये निष्पाद्येत, तान्यपि कारणानि नश्येयुरिति । न चैतदुभयमिष्टं कदाचिद् भूतपूर्वमिति । तस्माद्यथोक्तमेव कर्म कारणं कार्यस्य कर्मण एव सिद्धमिति ३ ॥ २५८७॥ अथ सम्प्रदानं कारणम् - सम्यक् सत्कृत्य वा प्रयत्नेन दानं सम्प्रदानं अन्वर्थसंज्ञा, महत्त्वात् । अत एव च रजकस्य वस्त्रं ददातीति न सम्प्रदाने चतुर्थी । तदपि सम्प्रदानं कार्यस्य कुम्भस्य प्रस्तुतस्य कारणम्, तेन विना तस्याऽभूतत्वात्तेन सह तस्य जायमानत्वात्, मृदादिवत् कर्तृ- करण- कर्मवद्वा प्रसाधितत्वात् । तदर्थनिरूपणी गाथा - ४९० देयोस जस्स तं संप[ १७० - द्वि० ] दाणमिह तंपि कारणं तस्स । होति तदत्थित्तातो ण कीरते तं विणा जं सो || २५८८ || देयोस जस्स । यस्येति प्राकृतशैल्या चतुर्येव पष्टीरूपेण प्राकृते परिण मति । शेषं भावितमेव गाथासम्बन्धे ४ || २५८८ ।। अथापादानं कारकं कारणं कार्यस्येति निरूप्यते । भूपिण्डावायातो पिण्डो वा सक्कदवायातो । चक्कधावागो वावादाणं कारणं तं पि ॥ २५८९ || दारं || भूपिण्डा० गाहा । 'दो अवखण्डने ' दानम् अपसृत्य मर्यादया खण्डनम्, यस्मादपगम्यते । गतिमता गतिमाश्रित्यान्याधारा क्रियावस्थान्तरासंक्रामणी । पूर्व स्वेन क्रियारूपेण युकमप्यविवक्षितत्वादक्रियमगतिर्ध्रुवं निश्चलमित्यर्थः । अन्यस्यापाये सति १ विय हे त । २ भावया को है । ३ भूर्ति को हे । ४ पिंडो को है । ५ वाsपा को त हे । ४ तम्पि को । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५२३] उपोद्घाते कारणद्वारम् । ४९१ पूर्वं ध्रुवमपादानसंज्ञं भवति । एवं च सिद्धं पुरुषपतनक्रियया वक्तुर्विवक्षितया स्वल्पयापि पुरुषोऽपायवान् - गतिमान् चल इत्यर्थः । तया पुरुषाधारया क्रियया वैस्त्वन्तराश्रितया एकद्रव्यं कर्मेति धावन्नव्यश्वो निष्क्रियो ध्रुवः, अश्वक्रियाया अविवक्षितत्वात्, 'धावतोऽधात् पतितः' इति अश्वस्यैव ध्रुवस्यापादानसंज्ञा “विवक्षातः कारकाणां प्रवृत्ति:" [ ] इति न्यायात् । अत एव च विवक्षाधीनं ध्रुव - चलत्वमित्यनेकमपादानं प्रदशितमाचार्येण । पिण्डापायात् पिण्डापगमाद्विवक्षिताद्भुवो ध्रुवत्वादपादानसंज्ञा 'भुवः पिण्डो निष्पद्यते ' इति । अथवा पिण्डो ध्रुवः 'पिण्डाच्छर्करादयः', चक्रं वा चलमपि विवक्षावशात् ध्रुवं चक्रात् कुम्भोऽवतार्थते । आपाको ध्रुवः 'आपाकात् कुम्भः उच्छ्रि ()ि यते । एतदपि विचित्रमपादानं कारणं कुम्भस्य, तद्भावे भावात् तदभावे चाऽभावात् मृदादिवदिति भावितमेव ५ || २५८९ ॥ अथाधिकरणं कारकम् - आधिक्येन करणं अधिकरणम्, स चाधारः, आधारेण विना सर्वकारणकार्याण्ययोग्यानि भवन्तीत्याधारस्याधिक्यम् । तदपि तद्भावभावित्वादभावेऽभावित्वात् कार्यस्य कारणं यथाविवक्षितम्- वसुधागा चक्कं सरूवमिच्चादि सैणिधाणं जं । कुंभस्स तं पि कारण संभावतो तस्स जर्मसिद्धी || २५९० ॥ वसुधाऽऽगासं चक्कमित्यादि । कुम्भकार्यमाधेयं तस्याधारश्चकम्, चक्रस्यापि वसुधा, वसुधाया आधार आकाशम्, आकाशस्यान्य आधारो नास्ति, स्वरूपप्रतिष्टमाकाशम् तस्मान्निश्चयनयस्य वस्तु । वस्तुत्वात् कुम्भोऽपि स्वरूपाधार इति कार्थमेवाधारः कारकमधिकरणम्, कार्यमेव चाssधेयं कर्मविचारवत्, कार्यकारणयोरेकत्वमथ च नानावं षट्कारक [व्य ] प्रदेशादिति द्रव्यकारणमनेकधाऽभिहितम् ।। २५९० ॥ अथ भावकारणम्--भावात्मकं कारणं भावकारणम् । भावाच पट् औपशमिकादयः सान्निपातिक पर्यवसानाः । तेऽपि केचित् संसारकारणत्वादप्रशस्ताः, केचिद् मोक्षकारणत्वात् प्रशस्ताः । प्रशस्त मावेनाधिकारः, मोक्षशास्त्रस्य प्रस्तुतत्वात् । तत्प्ररूपणाय गाथात्रयम्- भावम्मि होति दुविधं अपसत्य पसत्ययं च अपत्यं । संसार संकेविधं दुविधं तिविधं च विधं ॥ ५२३ । २५९१ ।। १ वस्तूतरासृतया - इति प्रतौ । २ धातवोश्वोलरित इति इति प्रतौ । ३ सुधा । ४ 'मासं जे । ५ संनि को है । ६'मा को हे त । जदमि को है, जह सिं त । नायव्यं को हे त दी हा म । ७ चावयें - इति प्रतौ । ९ ६२ Jain Educationa International 5 दुविहं च होइ भावे दी हा म । १० For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाये [ नि० ५२४ अस्संजमो य ऐक्को अण्णाणं अविरती य दुविधं तुं । मिच्छत्तं अण्णाणं च अविरती चेव तिविधं तु ॥ ५२४|| २५९२ || होति पसत्थं मोक्खरस कारणं एग दुविध तिविधं वा । तं चैव विव अधिकारो पत्थरणेत्थं ॥ ५२५.॥२५९३॥ ४९२ भावम्मि होति । अप्रशस्त संसारकारणमेकमेवाऽसंयमः अवतरतीत्यर्थः । साक्षादनन्तरकारणत्वात् असंयमः प्राधान्यादेक एव निर्दिश्यते । अन्यदस्यैवोपबृंहणत्वादुपकरणमिति पारम्पर्येण संसारकारणम् । तद् व्यवहारनयापेक्षयोच्यते । ज्ञानस्वभावो जीवः । स च ज्ञानसामर्थ्यादक्रियायां न प्रवर्त्तते । तत्र ज्ञानावरणच्छादितत्वादज्ञानमविरतौ जीवं प्रवर्तयति । तस्मादविरतिकारणमज्ञानमपि संसारकारणमिति द्विविधत्वम् । ज्ञानमपि च मिथ्यादर्शनोदय साहचर्यादज्ञानमुच्यते तस्मादज्ञानकारणं मिथ्यादर्शनमपि संसारकारणमिति त्रिविधत्वम् । यत् पुनर्मोक्षकारणं तत् प्रशस्तम् । एतद्विपर्ययेण एकविधः संयम [ : ], द्विविधं ज्ञानसंयमौ, त्रिविधं सम्यग्दर्शनज्ञानसंयमा इति । इह च प्रस्तुतसामायिकव्याख्याने प्रशस्तभावकारणेनाऽधिकारः, मोक्षाङ्गत्वात् ॥२५९१-९३॥ व्यस्य च सामायिकस्यार्थं भागते तीर्थकरः । स पुनः कृतार्थत्वात् किं कारणं भाषत इति वक्तव्यम् । तदर्थं गाथा - तित्थकरो किं कारणे भासति सामाइयं तु अज्झयणं ? | तित्थकरणामगोत' वैद्धं मे वेदितव्वं ति ॥ ५२६॥२५९४॥ तं च कथं वेतिज्जति अगिलाए धम्मदेसणादीहि" । बज्झति तं तु भगवतो ततियभवोसकइत्ताणं ||५२७|| २५९५ || [१७१ - ५०] गोतममाती सामाइयं तु किं कारणं णिसामेन्ति ? | णाणस्स तं तु सुंदर मंगुलभावाण उवलद्धी ॥५२८॥२५९६॥ त १ एक जे । २ च को हे, वात । ३ अण्णा भवि को हे त म । ५ मुक्ख म ६ मेगाविह हे ८ अहिगारु को म, कारा त, अहिगार हे । ९ एत्थ त प्रतौ । ११ कारणं हे । १२ मकम्मं को, मगुत्तं म । १३ कम्मं दी हा म । १४ णाईहिं को हे दी हा म । १५ एतद्वाथायाः पश्चात् को हे त दी हा म प्रतिषु इयं गाथा अस्तिनियमा मणुयाईए इत्थी पुरिसेयरो व सुहलेसो । आसेवियबहुलेहिं• बीसाए अण्णयर एहि १६ °ति को हे म, मिन्ति दी हा । १७ सुन्दरमङ्गुलं हे । Jain Educationa International मिच्छत्तं दी हा म । ४ ●णाणं णं एगविह को। ७ च हे । एत्थि म १० णमपि - इति For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५३१ ] उपोद्घाते कारणद्वारम् 1 होति पविति णिवित्ती संजमे तव पावकम्म अग्गहणं । कम्मविवेगो य तथा कारणमसरीरता चेव ॥ ५२९||२५९७॥ कम्मविवेगो असरीरयाइ असरीरता अणावाचं । होतणवाधणिमित्तं अवेत मणाउलो णिरुयो ||५३०॥२५९८॥ णिरुत्ताए अयलो अयलत्ताए ये सासतो होति । सासतभावमुवगतो अन्नावा सुहं लभति ॥ ५३१ ॥। २५९९।। तित्थकरो किं कारण गाहा षट् । अयं गोत्रशब्दः संज्ञायां वर्त्तते लोकप्रसिद्धेः । तथा च गोत्रस्खलित नायकस्य नायिकायाः प्रतिपक्षसंज्ञानात् विपर्यास इत्यर्थः । एवमत्रापि तीर्थकरनामेति यस्य संज्ञा तत् तीर्थकरना मगोत्रं कर्म - तीर्थ करनामसंज्ञमित्यर्थःतदनेन सामायिकभाषणेन वेद्यते क्षिप्यते । तीर्थकर नामकर्मक्षयस्य कारणमिदं सामायिकाभिधानम् । गौतमादयस्तु किं कारणं तत्सकाशे निशामयन्ति ? - शृण्वन्तीत्यर्थः । उच्यते-तं भगवदर्हदुच्चरितं सामायिक शब्दं श्रुत्वा तदर्थविषयं ज्ञानमुत्पत्स्यत इति सामायिकशब्दश्रवणं सामायिकज्ञानकारणमिति । एतद् गौतमादीनां प्रशस्तं भावकारणम् । तदपि च ज्ञानं "सुन्दरमं गुलभावाण उवलद्धी" । इयं चतुर्थी विभक्तिर्द्रष्टव्या । सुन्दरं शुभं मंगुलमशुभम् । ते शुभेतरग्रहणे[न] व्याख्याते || २५९४-९९॥ तित्थकरणामक मक्खयरस कारणमिण " जिणिन्दस्स | सामाइयाभिधाणं णाणस्स तु गोतमादीणं || २६००॥ तं पि सुभेतरभावोवलद्धिए सा पत्रित्ति-नियमाणं । एवं पेयं कमसो पुत्रं पुवं परणिमित्तं ॥ २६० ॥ शुभेतराश्च भावाश्च शुभेतरभावाः, तेषामुपलब्धिः शुभेतरभावोपलब्धिः । तदर्थं तन्निमित्तं तदर्थे चतुर्थी शुभेतरभावोपलच्यै, सा च सुन्दरमंगुलभावोपलब्धिः प्रवृत्तिनिवृत्तौ कारणम्- ज्ञात्वा सुन्दरे भावे प्रवृत्तिर्भत्रेत् मङ्गलाच्च भावान्निवृत्तिरिति यथासंख्यं निर्देशः । ते च सुन्दर-मङ्गुलप्रवृत्ति-निवृत्ती संयम-तपसोः कारणम्, संयम - तपसी पापकमग्रहणस्य कारणम्, कर्मविवेकस्य च यथासंख्येन । उक्तं च "संयमे अणण्यफले तवे घोदाणफले” । [व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक २ उद्देशक ५ तुङ्गिकानगरी श्रावकसूत्रम् ] अणण्यो अनास्नवः - अनाश्रवः - कर्मानुपादानम् । वोदाणं "दो अवखण्डने " १ "जय जे । २ रीरता जे त, रयाय हो हा । ३ ऽणबाहाए को हे म, बाहा दी हा । ४ वेयणोऽगा' को 'वेयणु भणा हे म । ५ यत्ता को हे त दी हा म । ६ए साजे । होई त । ८ ह्राज्ञावि - इति प्रतौ । ९ 'मिदं को हे त । १० 'दि को हे । ७ Jain Educationa International و ४९३ For Personal and Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ - विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५३२ व्यपदानमवखण्डनम् - कर्मनिर्जरणम्-कर्मविवेकः-जीवात् पृथकरणमित्यर्थः । कर्मविवेकः अशरीरतायाः कारणम् । अशरीरता हि अनायाधकारणम् । अशरीरं हि न प्रतपन्त्युपद्रवाः । अनाबाधत्वमवेदक (न त्वस्य कारणम् । अवेदनत्वम नाविलत्वस्य अनाकुलस्येत्यर्थः । अनाविलत्वं निरुजत्वमचलत्वस्य कारणम् , अचलत्वं शाश्वतत्वमव्याबाधसुखस्य-एवं ज्ञेयं क्रमशः पूर्व पूर्व परस्यापरस्य निमित्तम्-कारणमित्यर्थः । एवं कारणपदार्थो निरूपितः ॥२६००-२६०१॥ प्रत्ययनिरूपणार्थमुच्यते । पच्चयणिक्खेवो खलु दब्यम्मी तत्तैमासगोंदीओ । भाम्मि ओधिमादी तिविधो पगतं तु भावेणं ।५३२॥२६०२।। केवलणाणि ति अहं अरेहा सामाइयं परिकंधेन्ति । तेसि पि पच्चयो खल[१७१-द्वि०] सवण्णु ती णिसामन्ति ॥५३३।। ॥२६०३॥ पच्चयणिखेवो गाहा । केवलगाणि गाहा । प्रत्याययति विवक्षितपदार्थमिति प्रत्ययः, प्रत्यायनं वा प्रत्ययः, प्रतीयतेऽनेनास्मिन्निति वा प्रत्ययः, प्रतीयते वाऽस्मादिति प्रत्ययः, यथायोगम् ॥२६०२-३॥ नामादिषु प्रत्यये पु नाम-स्थापने पूर्ववत् । व्यतिरिक्तद्रव्यप्रत्यये विशेष उच्यते - दव्यस्स दव्यतो वा दम्वेण ये दव्वपच्चयो णेओ । तबिवरीतो भावे "सोऽवधिणाणादिओ तिविधो ॥२६०४॥ दव्यस्स गाहा । प्रत्ययो हेतुः समयः अवष्टम्भो लिङ्गं सम्प्रत्यय इति यावत् द्रव्यस्य प्रत्ययः प्रत्याय्यपुरुषस्य प्रतीतिरुत्पादनीयति सत्यमेतदित्यक्वोधः द्रव्यप्रत्ययः । अपकृ(हृ तद्रव्यैकदेशरिक्थप्रदर्शनात् द्रव्येण प्रत्ययः, कोशफालधरोदकविषादिना बाह्यलोकप्रतीतेन वा तप्तमाषकादिना त्रिसत्योच्चारणादिना येन प्रतीतिः प्रत्याय्यस्य भवति स द्रव्यप्रत्ययः । तद्विपरीत इति द्रव्यालम्बनं मुक्त्वा बाह्यलिङ्ग करणनिरपेक्षः आत्मस्वरूपावबोधः विविधोऽवधि-मनःपर्याय-केवलारख्यो भावप्रत्ययः । प्रकृतं सामायिकमुररीत्य भावप्रत्ययो व्याप्रियते ॥२६०४॥ केन प्रत्ययेन केन चावष्टम्भेन भाषतेऽन्निति आह.-.. १ व्यमी दी हा म । २ तन्नमा त। । गादो दी है। । ४ भावंमी दी हा म। ५ अरिहो को, अरिहा है । ६ कहेइ को हे त म, कहे ई दी हा । . पण तो हे त दी हा म । ८ मेति को मिति हे दी हा. मंति म । ९ व को हे त । १० सो वि हु नाणः हे । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५३३] उपोद्घाते प्रत्ययद्वारम् । केवलणाणित्तणतो अप्प चिय पच्चो जिणिन्दस्स । तप्पच्चक्खत्तणतो तत्तो च्चिय गोदमादीणं ॥२६०५॥ केवलप्रत्ययात् सर्वत्राप्रतिहतज्ञानोऽहमिति केवलज्ञानादेव तस्य प्रत्ययः, प्रत्याय्यजीवलोकस्य च यथार्थप्रतीत्युत्पादनात् , केवलज्ञानानन्यरूपत्वादात्मैव प्रत्ययोऽर्हतः । स च भगवान् गौतमादीनां सर्वसंशयपरिच्छेदादवि(धि)गतसर्वज्ञत्वः प्रत्यक्ष इति तत्प्रत्ययादेव केवल प्रत्ययादेव सामायिकार्थशब्दश्रवणमिति ॥२६०५॥ ननु चावबोधसामान्ये सति मति-श्रुतज्ञनाप्रत्ययत्वं सामायिकस्य प्राप्तम् । तत् किमिति नोच्यते ? आहाचार्य: जेणाणि दियमिटै सामइयं तोऽवधाति विसयं तं । ण तु मति-मुतपचक्यं जं ताई परोक्खविसयाई ॥२६०६॥ जेणा० गाहा । अपसृतानीन्द्रियाणि यस्मात् सामायिकमतीन्द्रियम्, रूपिद्रव्य. निबन्धनानीन्द्रियाणीति । सामायिकं चामरूपत्वादमूर्तम् , मनोऽपीन्द्रियसहचारिस्वात् परोक्षविषयत्वात् , तस्मादपनीयत एव । प्रत्यक्षप्रमाणं चाऽविसंवादित्वात् प्रत्यय इष्यते । न तु परोक्षम् । मति-श्रुते च उभये अपि परोक्षज्ञाने । तस्मात्तयोः सम्प्रत्ययो नास्तीति अवध्यादि विषय एव प्रत्ययः ॥२६०६।। एवं तर्हि सामायिकं प्राप्य केवलज्ञानमेव प्रत्ययो युक्तः सर्वद्रव्यपर्यायविषयत्वात् केवलस्य । सामायिकं चात्मपरिणामत्वादरूपम् । रूपिद्रव्यनिबन्धके चावधि-मन:पर्यायज्ञाने । तस्मात्तयोरविषयः सामायिकमिति । त्रिविधश्चावध्यादिप्रत्ययः सूत्रे वर्णितः । स कथमित्युच्यते. जुत्तमिह केवलं चे पच्चयो णोधि-माणसं गाणं । पोग्गलमेत्तविसयतो सामइयारूवता जं च ॥२६०७॥ जं लेस्सापरिणामो पायं सामाइयं भवत्यस्स । तप्पच्चक्खत्तणतो तेसिं तो तं पि पच्चक्खं ।।२६०८॥ जुत्तमित्यादि । जं लेस्सा० गाहा । इह सामायिक जीवस्य-भवस्थस्येति वचनात्-सव्यलेश्यापरिणामसंग्रहार्थम् --प्रायेण लेश्यापरिणामो विशुद्धः । प्रायोग्रहणादात्मस्वरूपमपि सामायिकम् । यदा च लेश्यापरिणामः सामायिकलेश्या १ गिद' को हे । २ प्रन्ययाति । स-- इति प्रतौ । ३ 'गाइदि' को हे त । ४ यनिहूँ त । '५ °स्य च सा--इति प्रतौ । ६ चेव को हे त.। ७ लेसा को हे। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५३३द्रव्याणि च पुद्गलात्मकत्वाद्रपाणि, तानि चावधि-मनःपर्याययोः प्रत्यक्षाणि । अतस्तयोः प्रत्यक्षत्वात् 'तत्प्रत्यक्षत्वात्' 'तेसि' तयोरवधि-मनःपर्याययोः सामायिकमपि लेश्यापरिणामित्वात् प्रत्यक्षमिति युक्तः एवं त्रिविधः प्रत्यय इति ॥२६०७-८।। एवं तर्हि---- ओधातिपच्चयं चिय जति तं ण सुतेम्मि पच्चयो पत्तो । पच्चक्खणाणिवझस्स तेण वयणं ण सद्धेयं ॥२६०९॥ प्रोधाति गाहा । अवधिमनःपर्यायप्रत्ययमेव यदि सामायिकम् , ततः श्रुतज्ञानप्रत्ययता तस्य हीयत इति । हीयताम् , को दोष इति चेत् , अतो दोषप्र. दर्शनम्-प्रत्यक्षज्ञानिनं मुक्त्वाऽन्यस्य श्रुतज्ञानवतो वचनमश्रद्धेयं प्राप्नोति । इप्यते चाप्तानां त्रयाणां गणधर-प्रत्येकबुद्ध-स्थविराणां श्रुतज्ञानप्रत्ययत्वमिति ॥२६०९॥ एतत्परिहारगाथा--- मुतमिह सामइयं चिय पच्चइयं त जतो य ते वयणं ॥ पच्चक्खणाणिणो च्चिय पच्चायणमेत्तवावारं ॥२६१०॥ सुतमिह इत्यादि । सामायिकं श्रुतज्ञानमेव प्रत्ययोऽस्यास्तीति प्रत्ययिक तत् । न स्वयं प्रत्ययः। अवध्यादिप्रत्यक्षज्ञानप्रत्ययात्तत् प्रतीयते । अथवा सामायिकं यस्माद्वचनं 'प्रत्यक्षज्ञानिनः' केवलिनः, तत् केवलज्ञानमेव परप्रत्यायनमात्रव्यापारम्, यस्मात् केवलज्ञानप्रणयनात् द्रव्यश्रुतमपि प्रमाणम् ॥२६१०॥ ___ यत एव च [१७२-०] ओधातिपच्चओ ति य मणिते तो तं पि पच्चयोऽभिहितं। ओधातितिगं व कधं तदभावे पच्चयो होज्ज ॥२६११॥ ओधातिपच्चयो ति य इत्यादि । अवध्यादिप्रत्यय इत्युक्ते, तदपि श्रुत. ज्ञानप्रत्ययादुक्त एव भवति, श्रुतज्ञानाभावे अवध्यादिप्रत्ययस्वरूपमेव न ज्ञायत इति ॥२६११॥ अथवाऽन्यथा प्रत्ययत्रयं वर्ण्यते-- आता 'गुरवो सत्थं ति पच्चया वाऽऽदिमो च्चिय जिणस्स । सप्पच्चक्खत्तणतो सीसाण तु तिप्पयारो वि ॥२६१२॥ १ सुमि को, सुयं पि हे त । २ °णिवज्जस्स को हे त । ३ पर्याय एवं प्रत्यय यदि इति प्रतौ । ४ जं ततो त । ५ तव्व को हे। ६ तम्पि को। ७ च को हे। ८ होज्जा को हे । ९ गुरुवो त । १० त्ति य त। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५३४] उपोद्घाते प्रत्यय-लक्षणद्वारे । ४९७ आता गुरवो इत्यादि । आत्मा गुरवः शास्त्रमिति च प्रत्ययास्त्रयः । वाशब्दो विकल्पार्थः । तत्राऽऽदिम एवात्मप्रत्ययः 'जिनस्य' तीर्थकरस्य, स्वप्रत्यक्षत्वात, स्वसंवेद्यत्वादित्यर्थः । तच्छिष्य-प्रशिष्याणां तु त्रिप्रकारोऽपि प्रत्ययः ॥२६१२॥ मात्मा तावत्तेषां स्वसंवेद्यज्ञानत्वात् । गुरवः कथं प्रत्यय इति तदुच्यते-- एस गुरू सवण्णू पच्चक्खं सव्वसंसयच्छेत्ता । भयरागदोसरहितो तल्लिंगाभावतो जं च ॥२६१३॥ अणुवगतपराणुग्गहपरो पमाणं च जं तिभुवणस्स । सामाइओवंदेसे तम्हा सद्धेयवयणो त्ति ॥२६१४॥ एस गुरू सवण्णू इत्यादि, अणुवगतपराणुग्गह ० इत्यादि च गतार्थम् ॥२६१३-१४। अथ शास्त्रं कथं प्रत्यय इत्युच्यते-- सत्थं च सव्वसत्तोवकारि पुब्बावरा विरोधीदं । सव्वगुणादाणफलं सैन्वं सामाइयज्झयणं ॥२६१५॥ सत्थं च सब० इत्यादि । प्रमाणमेतच्छास्त्रम्, सर्वसत्त्वोपकारित्वात, पूर्वापराऽविरोधित्वात् , सर्वगुणादानफलत्वात्, केवलज्ञानवत् । २६१५।। अथात्मप्रत्ययता शिष्याणामित्यत्रोपपत्तिः प्रमाणम् -- बुज्झामो णं णियमिव विष्णाणं संसयादभावातो । कम्मक्खयोवसमतो य होति सप्पच्चयो तेर्सि ॥२६१६॥दारं।। 'बुद्ध्यामहे' इत्यादि । सामायिकज्ञानं स्वप्रत्ययमिति विगतसंशय-विपर्ययाऽनध्यवसायत्वात्, कर्मक्षय-क्षयोपशमहेतुकत्वात्, निर्जविज्ञानवत् ॥२६१६॥ प्रत्ययानन्तरं लक्षणस्वरूपनिरिणायेदम् उच्यतेणाम ठवणा दविए सरिसर्यसामण्णलक्खणागारे । गतिरागतिणाणत्ती णिमित्तउप्पातविगती य ॥५३४॥२६१७॥दारगाधा।। १ च्छेया को हे त । २ 'इयउर्व को हे। ३ देसो त । १ 'रावरों त । ५ सच्चं को। ६ °ण इत्यादि बुद्धयामहे ॥सा -इति प्रतौ । ७ ‘शयो विपर्ययोऽनध्य-इति प्रतौ । ८ 'निजावि' इति प्रतौ । ९ रिसे साम को हे त दी हा म। १० गत्ते म। ११ विगमे को दी हा म। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५३५वीरियभावे य तथा लक्खणमेत्तं' समासतो भणितं ।। अथवा वि भावलवस्ख[१७२-द्वि०]ण चतुविधं सदहणमादी ॥५३५।। ॥२६१८॥ सदहण जाणणा खेलु विरती मीसं च लक्खगं कधए ।। ते वि णिमिन्ति तथा चतुलक्खणसंजुतं चेव ॥५३६॥२६१९॥ णामं ठवणा दहिए इत्यादि गाथात्रयम् ३ । नामादिदशधा लक्षणनिक्षेपः ॥२६१७-१९॥ तत्र नामलक्षणम्लक्खण मिह ज णामं जस्स व लक्खिज्जते व जो जेणं । . टवणाऽऽगारविसेसो विण्णासो लक्खणाणं वा ॥२६२०॥ लक्खणमिद जं इत्यादि । लक्षगमित्येपा वर्गानुपूर्वी-नाम चेदं लक्षणं चेति नामलक्षणम्, नाम्नो वा लक्षणम्-संज्ञायाः प्रकृतिप्रत्ययादिव्युत्पत्त्याऽऽन्यानम्-नामलक्षणम्, लक्ष्यते वा येन नाम्ना यः कश्चित्तस्य नामलक्षणम् । स्थापनालक्षणमाकारविशेषः- अकारादिवानाम्, अथवा लक्षणानां विन्यासः स्वस्तिक-श्रीवत्सादीनां रेखा-वर्णकादिभिः ॥२६२०॥ लविखज्जति जं जेणं दव्वं तं तस्स लक्खणं तं च । गच्चुवगारातीयं बहुधा धम्मत्थिकादीणं ॥२६२१॥ लक्खिज्जति जं जेणं यद् द्रव्यं येनान्यतो व्यवच्छिद्य लक्ष्यते, स्वरूपेऽवस्थाप्यते, तद् द्रव्यलक्षणमिति बहुधा 'गत्युपकारादि' धर्मा स्ति] कायादीनाम् ।।२६२१॥ अथैतदेव द्रव्यलक्षणम् किञ्चिन्मात्रविशेषात् सादृश्य-सामान्य-आकार-गत्यागतिनानात्व-निमित्त-उत्पाद-विगम-वीर्य-भावलक्षणतां प्रतिपद्यते, द्रव्यवर्ग:वात् भाव लक्षणत्वात् । अत आह "किंचिम्मत्त विसिटुं देवं चिय सेसलक्खणविसेसा । जं दव्वलक्खणं चिय भावो वि स दव्यधम्मो त्ति ॥२६२२॥ किंचिम्मतविसिह दव्यं चिय सेसलक्खणविसेसा इत्यादि गतार्था ॥२६२२।। अथ किञ्चिन्मात्रविशेषप्रदर्शनार्थ गाथा -- १ मेयं को हे त दी हा म । २ ऽभिहियं त । ३ विय को। ४ मंस त, मीसा दी हा म । ५ कहइ त म । ६ मेति को, मिति हे दी हा। मात म। • °स्स लविख जे । ८ 'शेषो अका-इति प्रतौ । ९ गच्छुच त । १० किचि' जे, 'चिम्मित्त हे त । ११ एयं को हे, एवं त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९९ नि० ५३६] उपोद्घाते लक्षणद्वारम् । तुल्लाकारदरिसणं सरिसं दव्वस्स लक्खणं तं पि । जध घडतुल्लागारो घडो त्ति तध सव्वमुत्तीसु ॥२६२३।। तुल्लाकारदरिसणं सरिसमित्यादि । तुलया सम्मितं तुल्यं समपरिणामित्वात् । आकरणमा कृतिराकारः संस्थानविशेषः । तुल्य आकारो यस्य तत् तुल्याकारम् । दर्शनं प्रत्ययः प्रतीतिः । तुल्याकारस्य प्रतीतिः-तुल्याकारस्य दर्शनं सदृशमुच्यते । समानदृक्त्वं यत्र द्रष्टणां तत् सदृशम्- यथा-घटतुल्याकारोऽन्यो घट इति सदृशाकारता द्रव्यलक्षणम् । एवं सर्व मूत्तिंपु आकारवत्त्वात् ॥२६२३॥ अमूर्तेषु सामान्यलक्षणं वक्ष्यते । तच्चेदम्सामण्णमप्पितमणप्पितं च तत्थंतिमं जधा सिद्धो । सिद्धस्स होति तुल्लो सब्बो सामण्णधम्मेहिं ॥२६२४॥ सामण्णमप्पितमणप्पितं चेत्यादि । 'ऋ गतौ' इत्यस्य धातोर्णिजन्तस्य प्रयोज्यकर्तरि अर्पितम्-उपनीतम्-विवक्षितम्-आमृष्टम्-विशेपितमित्यर्थः । तद्विपर्ययादैनर्पितम् । एतद्वयोः प्रक्रान्तयोः 'अन्तिमम्-यथा सिद्धः' इत्येवं सामान्यधर्मार्पणात् यथाविवक्षितानर्पितोदाहरणम् । सद्-द्रव्य-जीव-मुक्तामूर्त-ऽक्षायिकसम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-भव्यत्वविगमसिद्धत्वादिसामान्यधर्मेः सिद्धः सिद्धस्य सर्वस्य तुल्य इति सामान्यलक्षणम् ॥२६२४॥ एगसमयातिसिद्धत्तणेण पुणरप्पितो स तस्सेव । तुल्लो सेसाऽतुल्लो सामण्णविसेसधर्म त्ति ॥२६२५॥ योऽसावनर्पितनयस्य(श्च) सिद्धस्य(श्च) द्रव्यामूर्तत्वादिभिः सामान्यधर्मेः सर्वसिद्धानामन्येषां तुल्यः, स एव पुनरर्पितः-एकसमयसिद्धवेन अथवा द्विसमयसिद्धत्वेन संख्येयसमयसिद्धत्वेन अनन्तसमयसिद्धत्वेनेत्यादि, आदिग्रहणस्यैतत् फलम्स एकसमयसिद्धत्वेनार्पितो विशेषधर्मण तस्यैव तुल्यः । कस्येति चेत् ? प्रकृतत्वादनन्तरविशेषधर्मेणार्पितस्यान्यस्य एकसमयसिद्धस्यैव, न द्विसमयादिसिद्धस्य । अत एव आह-'सेसाऽतुल्लो' एकसमयसिद्धत्वविशेषधर्माप्तिादन्यः शेषः द्विसमयादिसिद्धः । ते चानन्ताः शेषास्तेषां शेषाणामतुल्यः शेषातुल्यः । कुत एतदिति चेत् ? अत उपपत्तिमाह-'सामान्यविशेषधर्मत्वात्' सामान्यविशेपा धर्मा यस्य स सामान्यविशेषधर्मा, तद्भावः सामान्यविशेषधर्मत्वम्, तस्मात् सामान्यविशेषधर्मत्वात् । यथा सिद्धस्तथा सर्वे पदार्थाः । एवमुक्तं सामान्यलक्षणम्, तदविनाभावि विशेषलक्षणमपि, सा १ तादुच्य ल'-इति प्रतौ । २ दनिपि इति प्रतौ। ३ तर्पित इति प्रतौ । ४ 'द्रव्याजी इति. प्रतौ । ५ सेसोऽतु को त । ६ धम्मो को हे त । . क्षणात्मतद-इति प्रतौ । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५३६मान्यस्यैवाऽर्पणविशेषाद् विशेषत्वम् , विशेषस्य वाऽर्पणविशेषादेव सामान्यरूपत्वम् , नैतदत्यन्तभिन्नजातीयम्, न चैकमेवैकान्ततो वस्तु स्याद्वादसामर्थ्यात् ॥२६२५॥ वाहिरचेढागारो लविखज्जति जेणे माणसागृतं । [१७३-०] आहारादिच्छा हत्थ-णेत्त वत्तादिसण्णाहिं ॥२६२६॥ वाहिरचेट्ठागारो इत्यादि । आक्रियतेऽनेनाभिप्रेतं गृह्यते-ज्ञायते-इति यावत् , स अगकारः आकूतं येन लक्षणेन [लक्ष्यते परस्य, तदाकारलक्षणं बाह्यचेष्टा । कुतो बाह्यत्वम् ? मनसाऽकृतत्वात् । स च-बाह्या चेप्टा-हस्त-वदन-नेत्रादिव्यापारः । अभ्यन्तरचेष्टा आहारादीच्छा, तद् आन्तरमाकूतं हस्तसंज्ञया बाह्यया लक्ष्यत इति आकारः लक्षणम् ॥२६२६।। गत्यागतिलक्षणमिदानीम् - अपरोप्परं पदाणं विसेसणविसेसणिज्जता जत्थ । गच्चागती य दोण्इं गच्चांगतिलक्खणं तं तु ॥२६२७॥ अपरोप्परं पदाणं इत्यादि । द्वयोर्द्वयोः पदयोर्विशेषणविदोग्यता-अपरस्परशब्दः पदद्वयविषयः, प्राकृते द्विवचनस्याभावात् द्वित्वेऽपि बहुवचनं 'पदानाम्'इति तयोईयोरपि पदयोर्गत्यागती-गतिरनुकूलगमनम् , तस्यैव प्रत्यावृत्या प्रातिकृत्येन गमनमागतिरुच्यते । गतिश्चागतिश्च गयागती, ताभ्यां गत्यागतिभ्यां लक्षणं गत्यागतिलक्षणम् ॥२६२७॥ तत् पुनश्चतुर्दापुव्यावरोभयेमुं वाहतमव्वाहतं च तं तत्थ । जीवो देवी देवो जीवो त्ति विकप्पणियमोऽयं ॥२६२८॥ पुव्वापरो गाहा । व्याघातो व्यभिचारः । पूर्वमाद्यमित्यर्थः अपरमुत्तरपदमित्यर्थः । [पूर्व पदव्यभिचारः], उत्तरपदव्यभिचारः, उभयपदव्यभिचारः, अव्यभिचार इति । तत्रोदाहरणानि आह -जीवो देव इति पूर्वपदव्यभिचारः, देवो नियमादवधारणाजीवः उत्तरपदमव्यभिचारि, जीवस्तु स्यादेवः स्याददेवो मनुष्यादिरिति पूर्वपदव्यभिचारः । देवो जीवः इत्येव विशेष्यताप्रक्रमे 'देव'पूर्वपदमव्यभिचारि, 'जीव'उत्तरपदं व्यभिचारीति स्याइव: स्याददेव इति विकल्पाद् व्यभिचारः । नियमोऽवधारणमव्यभिचार इत्यर्थः । जीव १ स्यैवालक्षणार्पणं विशे-इति प्रतौ। २ रचिट्ठा' को हे । ३ उजए हे । ४ तेण हे त । ५ हत्थव यणनेत्ता को, हे हत्थवयणेत्ता त ६ कृतं इति प्रतौ । ७ गच्छाग जे । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५३६ ] उपोद्घाते लक्षणद्वारम् । एव देवः इति पूर्वपदव्याघाते उत्तरावधारणं यत एव कारकाणां ततोऽन्यत्रावधारणमिति लक्षणात् । तथा अपव्याघाते देवो जीव एवेति पूर्वपदावधारणं पूर्वपदनियम इत्यर्थः । उत्तरपदं तु जीवशब्दः प्राणधारणोपलक्षिते संसारिणि तद्वियुक्ते च सिद्धे दृष्टः इति व्यभिचारित्वात् विकल्पः || २६२८ ॥ एवमेव - जीवति जीवो जीवो जीवति नियमो मतो विपय । देवो भव भव्वो देवो त्ति विकप्पसो दो वि ॥ २६२९ ॥ जीवो जीवते (ती) ति उत्तरपदावधारणम्, पूर्वपदव्यभिचारः । अतो विकल्पनियम* चेति भावना | यदि पुनर्जीवशब्दः क्रियाकारक - उत्पत्तिसमाश्रयणात् क्रियाशब्द उच्यते तदा उभयपदाव्यभिचारः । प्राणधारणयुक्त एवार्थी जीवः, न सिद्ध:, प्राणधारणाभावात् । तदा नियम एवोदाहरणम् । यो जीवति, स जीवति यश्च जीवः स जीवति नान्यः इत्युभयाव्याघातः । तथा "देवो भव्वो, भव्वो देवो त्ति विकप्पसो दो वि" देवः स्याद् भव्यः स्यादभव्य इति व्यभिचारः, भव्योऽपि स्याद्देवः स्याददेव इति व्यभिचार एवेत्युभयत्रापि व्याघात इत्युभयपदव्यभिचारः || २६२९|| अथास्यैव प्रपञ्चार्थमिदं व्याख्याप्रज्ञप्तिगदितोदाहरणं विवरणार्थं च'जीवो जीवो जीवो जीवो ति देंगे वि गम्मते नियमो । जीवो जधोवयोगो तधोत्रयोगो वि जीवो ति ॥ २६३०॥ जीव जीवो जीवो जीवो ति दुगे हि गम्मते नियमो इत्यादि । अत्रैको जीवशब्दः आत्मवाची रूढिशब्दः, द्वितीयो जीवशब्द: 'उपयोगलक्षणो जीवः' इति लक्ष्यलक्षणैक्या ुपयोगवचनः तदा भिन्नार्थत्वात् पदद्वयमेतत् समानश्रुति विशेषणविशेष्यभावेनोपात्तम् । अक्षाः पादाः, माषा इति यथा अन्ययैव पदे विशेषणविशेध्यत्वाभावात् विकल्प-नियमयोरभाव एव । तस्मात् पदद्वयेऽव्यस्मिन्नुभयाव्याघातःउभयपदावधारणादव्यभिचार इत्यर्थः । तमेव गाथापश्चार्धेन व्याचष्टे - 'जीवो जधोवयोगो धोवयोगो वि जीवो त्ति' । जीवो जीव एवेति पूर्वपदावधारणम्- यो जीवः आत्मा स जीवो जीवोपयोगस्वरूप इत्यर्थः । अथवा जीव एव जीवो इति उत्तरपदावधारणम्य उत्तरपदे नीवाख्य उपयोगः स जीवात्मैवेत्यर्थः । एते पूर्वपदोत्तरपदावधारणे सुखप्रबोधार्थ पृथक् पृथग्दर्शिते । युगपत्तूभयत्रैव कारश्रवणात् उभयपदावधारणं स्फुटम् जीव एव जीव एवेति एवं तावल्लोकोत्तरोदाहरणम् ॥ २६३०॥ " ५०१ १ व्याख्याप्रज्ञप्तौ षष्ठे शतके दशमे उद्देश के "जीवे ण भंते ! जीवे ? जीवे जीवे ?" इत्यादिरूपेण इयं चर्चा समागता । २ दुगविगपणे णि को । ३ य को हे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५३६- अथ सर्वव्यापित्वप्रदर्शनार्थ लौकिकोदाहरणम् - ख्वी घडो त्ति चूतो दुमो त्ति णीलुप्पलं ति जंगम्मि । जीवो सचेतणो ति य विकप्पणियमादयो सिद्धा ॥२६३१।। रूबी घडो त्ति चूतो दुमो तीत्यादि । रूपी घटः-मूर्तो घट इत्यर्थः । उत्तरपदावधारणादुत्तरपदे नियमः-घटस्तावन्नियमादपी, रूपी पुनर्घटो वा स्यादघटो वा अनवधारणाद्विकल्पः । चतो द्रुमः इति एतद्विपर्ययेण पूर्वपदावधारणात् पूर्वपदनियमः । द्रुम एव चूत इति चुतो नियमाद् द्रुमः, द्रुमस्तु "चूतो वा स्यादन्यो वा अनवधारणादुत्तरपदे विकल्पः, नीलोत्पलमिति उभयार्थानवधारणादु. भयत्र विकल्पः-नीलमुत्पलं चानुत्पलं च, उत्पलमपि नीलं चाऽनीलं चेति । जीवः सचेतनः इत्यव्यभिचारात् उभयत्रावधारणादुभयत्र नियमः-जीव एव सचेतनः, सचेतनो जीव एवेति लोकेऽपि विकल्प-नियमादयः सिद्धाः । पूर्वत्र व्याहतमपरत्र व्याहतमुभयत्र व्याहतमिति गत्यागति लक्षणद्वारम् ॥२६३१॥ णाण त्ति विसेसो सो दव्य-क्खेत्त-काल-भावेहि । असमाणाणं णेयो समाणसंखाणमविसेसो ॥२६३२॥ णाण त्ति विसेसो इत्यादि । नानाभावो नानात्वम्-विशेषः-पृथक्वम् । स घ विशेषश्चतुर्दा---द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैः । द्रवति दूयते होर्विकारो द्रव्यं द्रव्यपरिणामार्पणात् प्रायशः पुद्गलद्रव्यम् , विचित्रपरिणामत्वात्, सिद्धान्ते बाहुल्येन व्यवहारसिद्धेः धर्माधर्माकाश-जीव-कालानां परिणामान्तरसमर्पणान्न तदन्तर्भाव:-तद्यथा-धर्माधर्माकाशानां निवासगतिस्थितिलक्षणपरिणामसमर्पणात् द्रव्यत्वे सत्यपि क्षेत्रव्यपदेशः । तेन द्रवणपरिणामस्य निवासगतिपरिणामस्य नानास्वादसमानत्यम् । ततो नानालक्षणम् । तथा कलनपरिणामान्तरसमर्पणात् कालः पृथग् द्रव्य-क्षेत्र-भावेभ्यः। तथा तद्भावभवनसमर्पणाज्जीवाः तदुपयोगो वा गुण-पर्याया वा पृथग् द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावेभ्यः । तथा द्रव्यत्वेऽपि समाने क्षेत्रे कालत्वे भावे वा तुल्येऽपि संख्यानानात्वं लक्षणम् । समानसंख्यानां द्रव्याणां द्रव्यत्व-संख्याभ्यां समानत्वादविशेष इति नानात्वलक्षणाभावः ॥२६३२।। तत्रोदाहरणगाथापरमाणु-दुअणुयाणं जध णाणत्तं तधावसेसाणं । असमाणाणं तध खेत्त-काल-भावप्पभेदाणं ॥२६३३॥ १ च लोयम्मि को हे त । २ भूतो-इति प्रतौ। ३ णाणिनि त । ४ भावम्मि त वहि को हे। ५ मन्तिरजी इति प्रतौ । ६ द्रव्यः क्षेत्र कालभा' इति प्रतौ । ७ धाविसे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ नि० ५३६ ] उपोद्घाते लक्षणद्वारम् । परमाणुरेक संख्यः, द्व्यणुको द्विसंख्यः इति भिन्नसंख्यत्वाद् नानालक्षणम् । परमाणोः परमाण्वन्तरस्य च द्रव्यत्वैकसंख्याभ्यामविशेषात् परमाणुः परमाणुरिति च सर्वत्र परमाणुत्वपरिणामान्वयादेकजातित्वमिति नानात्वलक्षण ( णा ) भावः । यथा परमाणोर्दशितमेवं शेषाणामपि त्र्यणुक-संख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तागुकानाम् असमानानां संख्यया नेतव्यम् । यथा च द्रव्यभेदानाम्, तथा क्षेत्र - काल-भावभेदानामपि एकप्रदेशिक - द्विप्रदेशादीनामेकसमय- द्विसमयादीनाम् एकगुण-द्विगुणेकृष्णत्वादीनामिति नानात्वलक्षणं गतम् ॥२६३३॥ इदानीं निमित्तलक्षणम् लक्खिज्जते सुभासुभमणेण तो लक्खगं णिमि [ १७३ - द्वि०]नं पि । भोम्माति तदद्वविधं तिकालविसयं जिणाभिहितं ।। २६३४ || लक्खिज्जते गाहा । 'भौमादि तदष्टविधं' निमित्तम्- भौमम्, अन्तरीक्षम्, दिव्यम्, अङ्गम्, स्वरः, व्यञ्जनम्, स्वप्नः, उत्पात इति । एकैकमतीतानागत- वर्तमानकालविषयं सर्वज्ञैर्जिनैरभिहितत्वात् ॥ २६३४॥ निमित्तलक्षणानन्तरमुत्पादो लक्षणम्- णाणुपपन्नं लक्खिज्जते जतो वत्थुलक्खणं तेणं । उप्पातो संभवतो व चेय विगच्छतो विगमो ॥ २६३५|| णाणुपपन्नं गाहा | यस्मात् नानुत्पन्नं वस्तु लक्ष्यते, तेनोत्पादोऽपि लक्षणम् । कस्य ! संभवतो-वस्तुनः उत्पद्यमानस्येत्यर्थः । तथैव च विगमोऽपि लक्षणम् । कस्य : विगच्छतः- वस्तुनः विनश्यतः इत्यर्थः || २६३५।। 'तथैव' इत्युपमानादुक्ताऽप्युपपत्तिः विगमस्य च प्रपञ्चेनोच्यतेलक्खिज्जति जं विगतं विगमेण विणा व जण संभूती । विगमोऽवि लक्खणमतो विगच्छतो वत्थुणोऽणणो ॥ २६३६ || 1 लक्खिज्ज० ० गाहा । यथोत्पन्नं वस्तु उत्पादन लक्ष्यते तथा विगतमपि विगमेन लक्ष्यते । यो वाऽसावुत्पादो लक्षणमिष्यते सम्भूतिरुत्पादपर्यायः, सा सम्मूतिर्यस्मान्न विना विगमेन भवति, तस्माद्वस्तुलक्षणस्योत्पादस्याङ्गत्वाद् विगमोऽपि लक्षणम् बिगच्छतो वस्तुनोऽन्यत्वात् ॥ २६३६॥ १ कृष्टत्वा – प्रतौ । २ ज्जइ हे, ज्जई त । ३ ति को है । ४ लोमाद को है. भोमाइय भद्भु त । ५ चेव को हे त । ६ जंन को हे । ७ वस्तुनो नान्य इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ विशेषावश्यकभाष्ये - एतदेव भावयन्नाह - अंगुलिरियुता निययप्पभूतिवक्केत्तणासतो समयं । लक्खिज्जति णेतरथा तथ सव्वद्दव्वपज्जाया || २६३७|| | पा० ४ । अंगुलि० गाहा । अङ्गुलिश्च द्रव्यम्-ऋजुता च तत्पर्यायः - अङ्गुल्यृजुते, नित्यत्वं च प्रसूतिश्च नित्यत्व-प्रसूती, अङ्गुल्यृजुतयोर्नित्यत्व-प्रसूती च वक्रत्व-नाशश्च अमृता नित्यत्वप्रसूति वकत्वनाशमिति - "द्वन्द्वश्च" [ पाणिनीय भ० २ । सू० २] इति योगविभागादेकवचनम्, नपुंसकलिङ्ग च - तस्मादङ्गुल्यृजुता नित्यत्वप्रसूतिकत्वनाशतः समकमेव वस्तु लक्ष्यते, नेतरथा अङ्गुलिनित्यत्वाभावान्निराश्रयादुत्पाद- विगमौ कस्य ऋजुता वकले अङ्गुलेरभावात् खरविषाणस्य भविष्यतः, ऋत्वपर्यारहिता वा का नामाङ्गुलिरपर्यायत्वात् । एतत्रितययोगे तु वस्तुलक्षणम्, नान्यथा । यथाङ्गुलिः ऋजुत्ववत्वानुगता, तथा सर्वद्रव्य पर्यायाः || २६३७॥ अत्राह कश्चित् - उप्पातस्स हि जुत्ता लक्खगता णासतो विणासस्स | सोवलक्खितं वा वत्थुमभावो खपुष्कं व ॥ २६३८॥ उत्पातस्स हि जुत्ता इत्यादि । उत्पादो वस्तुलक्षणमिति युज्यते सत्वात् ध्रुवत्ववत् । यत् पुनरिदं नाशो लक्षणमिति तदयुक्तम्, स्वयमसत्त्वात् वन्ध्यापुत्रवत् । त्वन्मतेन वा तदेवंप्रकारं वस्तु अभाव एव नाशोपलक्षितत्वेन त्वयाभ्युपगतत्वात् खपुष्पचत् । अभावो नाश इति पर्याय: । अत एतदुक्तं भवति - अभावोपलक्षितत्वात् [अभावो नाश इति स कथं लक्षगं स्यात् ] || २६३८ ॥ अत्रोच्यते--.. णासो भावो संभूतिहेतुतो वत्थुणो धुवत्तं वा । अव समुप्पातो व वत्थुष्पभवादिभावातो ॥२६३९|| १ वर्षकंत त । २ सवे दव्व' को हे । ३ हे पोसोब । ५ सभा से 'धु न भा' हे । ६ 'वर्धमानं प्रति प्रतौ ९ ततोऽपि क्ष- इति प्रतौ । १० < Jain Educationa International " णासो भावो इत्यादि । भाव एव नाश उत्पादहेतुत्वात् ध्रुवत्ववत् । ततश्च पूर्वप्रमाणे नाशोपलक्षितत्वेनाभ्युपगतत्वादित्यस्याऽसिद्धत्वं हेतोः । भाव एव नाश इति कृत्वा । अथवा प्रमाणान्तरोपन्यासः - कस्यचिद् वादिनः- ध्रुवत्वं नारत्येव । उत्पाद व्ययाबेव केव, तदर्थमिदं भाव एवं नाशः, वस्तु प्रभवादिभावात् उत्पादवत् । को हेत्वर्थः ? इति चेत्, उध्यते प्रकर्षेण भवनं प्रभवः - जन्म, अनन्तरं स्वरूपास्तित्वपरिणामः, ततो विपरिणामः, ततो वर्द्धनम्, ततोऽपेक्षयः, ततो विनाशः, ततः पुनरपि जन्मेति षड्भावविकारचक्रकस्यापरिसमाप्तेर्वस्तुनः प्रभवोऽयमीदृशः, तस्य वस्तुप्रभवस्याऽऽदिभावत्वात् विनाशो भाव एव समुत्पादवदिति सिद्धम् || २६३९|| [ नि० ५३६ यरिजु - इति प्रतौ । ४ नासोव को हेऊओ हे । ७ व को हे वतिकार' इति प्रतौ । वविकार' को । च त । For Personal and Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५३६ ] उपोद्घाते लक्षणद्वारम् । ५०५ एवं नाशस्य भावत्वेऽपि सिद्धे नैव तन्नाशोपलक्षितं भावो भवति, किं तर्हि ? अभाव एव । इत्थं तत्परिणामस्वभावत्वाद् अन्यथा नाशपरिणामात्, अन्यथा उत्पादेन धौव्येण चोपलक्षितं तद् वस्तु अभावो भवतीत्येतदर्थप्रदर्शनी इयं गाथा - णासोवलक्खियं 'पि य तदभावो च्चिय तदण्णवाभावो । आह णणु पत्तमेवं भावाभावोभयसभावं || २६४०॥ णासो० ० गाहा । पूर्वार्द्ध भावितार्थमाचार्यस्य । उत्तरार्द्धमपि चोदकपक्षाश्रयम् । एवं तर्हि विलक्षणद्वयाद्भावाभावोभयस्वभावं वस्तु प्राप्तम् | अनिष्टं च विरुद्धधर्मद्वयानुभवनमेकस्यैकैकालमिति दोषः || २६४० ॥ तत आचार्य आह एवं चि तं वत्युं सच्चाभावेव तं खपुष्कं व । भावे सवधा सव्वसंकरेगत्तणिच्चादि || २६४१ ॥ एवं चि तं वत्युं । एवमेव तद् वस्तुतां लभते यदि केनचित् पर्यायेण भवनावेशाद् भवति, केनचित् पर्यायेण नाशान्न भवति, ततः स्वरसत एव भावो [भावा]भावोभयस्वभावः । यस्य पुनरेकान्तेन नाशान्न भवत्येव सर्वथा, तस्य तद्वत्वेव न भवति, सर्वथा अभावात् खपुष्धवत् । यस्य चिकान्तेन सर्वथोत्पत्तेर्भवत्येव सर्वथा, तस्यापि तत् तत्त्ववदिति वस्तु न भवति, सर्वथैव भावात् सामान्यास्तित्ववत् । ततश्च सर्वसंकर- एकत्व- नित्यत्वादिदोषः । घटस्य पटाद्यात्मना पटादेर्घटात्मना निर्विशेषणास्तित्वपरिणामादिति संकरः, घटस्यैकस्य सर्वत्रैलोक्यरूपापत्तिरेकत्वम् । नित्यत्वं तेनैव रूपेण सर्वदावस्थानम् । तस्मादुभयत्राप्येकान्ते दोषदर्शनादनेकान्ताश्रयणाद् भावाभावरूपत्वं वस्तुनः सिद्धम् ।। २६४१ ।। नन्वेवं व्यवहाराभावः प्राप्य [तः ] - उत्पन्नमप्यनुत्पन्नम् विनष्टमप्यविनष्टम्, उभयस्वभावत्वात् किं कदा वक्तुं शक्यमिति उच्यते - अर्पितानर्पित सिद्धेरस्त्युपायः । अर्पितं विशेषितं स्वपर्यायैः । सामान्यरूपेण विशेषस्यानिराकृताऽनुपाकृ []त्वं सामान्यं द्रव्यमात्रम्, तथैव विशेषानर्पणात् । तदेव द्रव्यमुत्पन्नं विगतं वा तेन विशेषेणार्पितमुपनीतं उत्पन्नमिति वा विगतमिति वोच्यते, तत्पर्यायसमावेशात् तद् द्रव्यं सामान्यरूपमपहाय विशेपेणावस्थिते:, विवक्षितस्य सामान्यस्य तदा न (ना) सद्भाव:, नात्यन्ताभाव एवेति वस्तुस्वरूपं च व्यवहारसिद्विश्चेति । एतदर्थप्रदर्शनी गाथा --- 1 " 1 १ चित्र हे त २ स्यैव का इति प्रतौ । ३ व अभा को । ४ वित । ५ च्चाई को, च्चाई है त । ६ तद्वस्येव - इति प्रतौ । ७ वस्तुनः भ° इति प्रतौ । ८° मुपेत- इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५३६उप्पण्णं विगतं' वा[१७४-०]ऽणप्पितमविसेसितं सधम्महि । तं चिय पज्जायंतरविसे सितमिहेप्पितं णामं ॥२६४२॥ उप्पण्णं विगतं वा-इत्यादि गतार्था ।।२६४२॥ अथ वीर्यलक्षणार्थम्विरियं ति बलं जीवस्स लक्खणं जं व जस्स सामत्थं । दव्वस्स चित्तरूवं जध 'विरियमहोसधादीणं ॥२६४३॥ विरियं ति वलमित्यादि । उत्तानार्था ॥२६४३॥ भावलक्षणार्थम्-- जमिहोदइयादीणं भावाणं लक्खणं त एवऽधवा । तं भावलक्खणं खलु तत्थुदयो पोग्गलविवागो ॥२६४४॥ जमिहोदइयादीणं इत्यादि । भावशब्देनात्र औदयिकादयः पञ्च भावाः। तेषां भावानां लक्षणं पुद्गलविपाकादि। अथवा समानाधिकरणसमासः-त एव भावाः लक्षणम् , नान्यत् तेभ्यो व्यतिरिक्तम्, भावाश्च ते लक्षणं च तदिति । कस्य ते लक्षणम् ? जीवस्येति । 'खलु'शब्दो लक्षणद्वारपरिसमाप्त्यर्थः । तत्रोदयस्य लक्षणं पुद्गलविपाकित्वं गति-कपाय-लिङ्गादि ॥२६४४॥ उदए सति जो तेण व णिबित्तो उदय एव वोदइओ। उदयविधातउवसमो उत्सम एवोवसमियेत्ति ।।२६४५॥ उदये सतीत्यादि । उदये सति भवतीति । उदये भवः औदयिकः, उदयेन वा निर्वृत्त: उदय एव वा औदयिक इति स्वार्थिकष्टक् । उपशमलक्षणम् उदयविधातः । उपशम एवौपशमिकः ॥२६४५|| खयमिह कम्मोभावो तब्भावे खाइओ स एवऽहवा । उभयस भावो मीसो खोवसमिभो तधेवायं ।।२६४६।। खयमिहेन्यादि । कर्माभावः क्षयः, तस्मिन् भवः । क्षय एव क्षायिकः । क्षयश्चोपशपश्चेत्युभयस्वभावो मिश्रः । क्षयोपशमाभ्यां निर्वृत्तः, क्षयोपशमयोर्भवःक्षयोपशमापेक्षा(क्षः) क्षायोपशमिकः । तथैवायमिति पूर्वव्युत्पत्त्यतिदेशः ॥२६४६|| १ गर्म त । २ °म्मेहिं को हे । ३ सियमह हे।। नाम हे को। ५ वीरि हे । ६ वीरि हे । ७ निव्वत्तो को डे त । ८ ओद' हे । ९ 'मिउ को हे। 'मिओ क। १० °य इह को हे। ११ °म्म अभा को । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ नि० ५३६] उपोद्घाते लक्षणद्वारम् । सव्वत्तो इंर णामो परिणामोऽभिमुहता स एवेह ।। परिणामिओ त्ति सुद्धो जो जीवाजीवपरिणामो ॥२६४७।। सव्यत्तो इर णामो इत्यादि । 'परि' इत्युपसर्गः- समन्ततो भावेन नेतं नामप्रताऽभिमुखता, सर्वतो नमन्न क्वचिद् व्याहन्यते इति -परिणामः । 'इर' इति प्राकृतवचनम् किलशब्दापभ्रंशः परोक्षास्त(स्तु) वचनसंसूचनार्थोऽयम् । सोऽयं परिणामः सर्वप र्यायानुभवनाभिमुखता ‘स एव'इत्यनेन स्वार्थिक प्रत्ययख्यापनम्-परिणाम एव पारिणामिकः । स द्वेधा-शुद्धो मिश्रश्च । तत्र शुद्धः 'जो जीवाजीवपरिणामो' जीवत्वमजी वत्वम् भव्यत्वमभव्यत्वमित्यादि ॥२६४७॥ जीवत्वे सति तद्गुणश्चतुर्विध सामायिकम्-सम्यक्त्वसामायिकादि । तत्र भावलक्षणमवधार्यते सम्मत्त चरित्ताई मीसोबसम क्खयस्सभावाई । सुत-देसविरतीओ खओवसमभावरुवाओ ॥२६४८॥ सम्मत्त० गाहा । सम्यक्त्वसामायिकम् चारित्रसामायिकं च भावत्रयेण लक्ष्यते, मिश्रोपशम-क्षयस्वभावत्वात् । एतद् द्वितयम् क्षायोपशमिकं औपशमिकं क्षायिकम् । [श्रुतसामायिकम्], देशविरतिसामायिकं च क्षायोपशमिकभावलक्षणमेव ॥२६४८॥ सामाइएमु एवं संभवतो सेसलक्खणाई पि । जोज भावतो वा वैसेसियलक्खणं [१७४-द्वि०] चतुधा ॥२६४९॥ सामा० गाहा । यथैतद्भावलक्षणं सामायिकेषु चतुर्ववतारितमेवं यथासम्भवं शेषलक्षणान्यपि नाम-स्थापना-द्रव्य-सदृश-सामान्याऽऽकार-गत्यागति-नानात्वनिमित्तोत्पाद-विगम-वीर्याख्याणि योजनीयानि ॥२६४१।। भावतो लक्षणमिदमन्यदपि वैशेषिकं चतु ----- सदहणातिसभा जध सामइयं "जिणो परिकधेति । तल्लक्षणं चिय तयं परिणमते गोतमादीणं ॥२६५०॥ सदहणा० गाहा । औदयिकादिभावपञ्चकलक्षणं सामान्यविषयम् , अन्येष्वपि जीवाजीवगुणेषु वृत्तमिति । श्रद्धानादिलक्षणं सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनमित्यर्थः । अव १ किर को हे त । २ °मिउ को हे । ३ जीवो जी त । ४ मृतम्-इति प्रतौ । ५ °देसोवर को हे त। ६ जोइज्ज त । ७ वइसे' को ह त । ८ 'सियं त । ९ सामाई' हे। १० जिणे को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [ नि० ५३७ बोधलक्षणं श्रुतसामायिकं श्रुतज्ञानमित्यर्थः । चारित्रसामायिकं विरतिलक्षणं संयम इत्यर्थः । चारित्राचारित्रसामायिकं विस्त्यविरतिलक्षणं देशसंयम इत्यर्थः । यथैतच्चतुर्विधं सामायिकं केवलज्ञानेन ज्ञात्वा जिनः कथयति तल्लक्षणमेव तच्छ्रोतॄणां गौतमादीनां परिणमते श्रुतज्ञानतया || लक्षणद्वारं गतम् || २६५० ॥ इदानीं नयद्वारम् । तत्र नयलक्षणगाथा - एगेण वत्थुणोऽणेrधम्मैणो जमवधारणेणेव । णयणं धम्मेण तओ होति णओ सत्तधा सोय ।। २६५१ ।। एगेण वत्थुणो गाहा 1 नयनं नीतिर्नय इति शब्दव्युत्पत्तितः पुनर्नयनं केन प्रकारेण इति आह - एकेन धर्मेण नित्यत्वादिना वस्तुनोऽनेकधर्मणः सतो य[दवधारणेनैव निदर्शनम् - नित्यमेव, अनित्यमेव वा स नय इति ] कथं पुनरेकं वस्त्वनेकधर्मकमिति । तत्रोपपत्तिः - सर्वमेव वस्तु सपर्यायम् । पर्यायाश्च द्वेधा- केचिद्युगपद्भाविनः केचित् क्रमभाविनः । उभयेषामपि केचिद् व्यञ्जनपर्यायाः केचिदर्थपर्यायाः । तेषामपि सर्वेषां केचित् स्वपर्यायाः केचित् परपर्यायाः । तेषामपि केचित् स्वाभाविकाः केचिदापेक्षिकाः । तेषामेकैकः अतीताऽनागत-वर्त्तमानकालविशेषित इत्यनन्तधर्मत्वम् । तस्यानन्तधर्मणो वस्तुन एकधर्मावधारणे शेषधर्मनिरसनेन सद्भाकयाघातो भवतीत्ये कनयप्रस्थानमपरमार्थः, नयसमुदायः परस्परापेक्षः परमार्थः ॥२६५१ ॥ " ५०८ स च नयः सप्तधा गम संगह वहाज्जुसुते यावि होति बोर्द्धव्वे | स य समभिरू एवंभूते य मूलणया ||५३७||२६५२॥ गेहिं माणेहिं मिणति ती णेगमस्स णेरुत्ती । १२ सेसाणं पि णयाणं लक्खणमिणमो सुँणध वोच्छं ||२३८ || २६५३॥ संगर्हितपिण्डितत्थं संगहवयणं समासतो 'वैन्ति । वच्चैति विणिच्छेयत्थं ववहारो सव्वदव्वे ॥ ५३९||२६५४॥ पच्चुप्पण्णरगाही उज्जुसुतो णयविधी मुणेतव्वो । इच्छति विसेसिततरं पच्चुप्प गयो सहो ||५४०||२६५५|| १ धम्मुणोत को हे । २ हार उ' हे त दी हा । ३ चेव को हे दी हा '७ सुइ दी हा । ८ पिंडिय म त । ४ बोधव्वो हे । ५ स् य णे को । ६ तुम । को हे दी हा म । ९ बिति हे, बेति दी हा म । त दी हा । १२ व्वेसुं दी हा १३ पण्णो म । १० इच्छति त ११ णिच्छिय' हे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि०५४१] उपोद्घाते नयद्वारम् । वैत्यूतो संकमणं होति अवत्थु णए समभिरूढे । वंजण अत्य-तदुभयं एवंभूतो विसेसेति ।।५४१॥२६५६॥ णेगम० गाहा । णेगेहिं० गाहा । संगहित. गाहा । पच्चुप्पण्ण. गाहा । वत्थूतो गाहा । सूत्रगाथा: पञ्च ॥२६५२-५६॥ _अथ आसां क्रमेण भाप्यगाथा:णेगाई माणाई सामण्णोभयविसेसीणाई । जं तेहि मिणति [१७५ प्र०] तो णेगमो णयो णेगमाणो त्ति ॥२६५७॥ णेगाई गाहा । न एको नैक इति प्रकृत्या 'नशब्दावस्थानम् , नैरुक्तविधानात् । नैकेन मानेन मिनोतीति नैकमः इति नैरुताः । किं पुनस्तदनेकमानमिति ? उच्यते - सामान्यमुभयं विशेष इति एतानि त्रीणि ज्ञानानि, जातितस्तिस्रो बुद्धय इत्यर्थः । सर्वत्रानुप्रवृत्ति हेतुः सामान्यम् , व्यावृत्तिबुद्धि हेतुविशेषः, अनुप्रवृत्ति-व्यावृत्तिबुद्धि हेतुः सामान्यविशेषः । आदौ महासत्ता सामान्यमेव, पर्यन्तपरमाणुप्वन्त्यविशेषा अन्यत्वबुद्धि कारिणो विशेषा एव , मध्ये सामान्यविशेषाः । एतैर्मानैः परस्परनिरपेक्षमिथ्येति परिछिनत्ति स्त्विति, विचित्रमानवान्नैकमः ॥२६५७|| लोगत्थणियोधा वा णिगमा तेसु कुसलो भवो वाऽयं । अधवा जं णेगगमो णेगपधो गमो तेणें ॥२६५८॥ "लोगत्थ० गाहा । लोकेऽर्थाः जीवादिपदार्थाः, तपां निबोधाः परिच्छेदाः, निश्चयगमकत्वात्, तेषु निगमेघु ज्ञानविपेषु कुशलः, तेषु भवो वा तत्र कुशलस्तत्र भव इति वा तद्वितप्रत्ययान्नैगमः । अथवा तृतीया व्युत्पत्ति:-नैगम इति प्राकृते कैकारस्याश्रवणात् गमनं गमः पन्था:-नै[क]गमो नैकपथः अनेकमार्गः, सामान्यादिमार्गानेकत्वात् ।।२६५८॥ सो कम विसुद्धभेतो लोगपसिद्धिवसतोऽणुगंतव्यो । विधिणा णिलयण पत्थय-गामोवम्मातिसंसिद्धो ॥२६५९।। सो कम गाहा । स नैगमः क्रमविशुदै भेदः यावदादिसामान्यं तावद विशुद्धः, पश्चात् क्रमेण विशेपसामान्यावतारी विशुद्धो भवति, विशेपेऽभिप्रेतेऽवस्थानाद्विशुद्ध इति क्रमविशुद्धा भेदा यस्य ‘स क्रमविशुद्धभेदः' लोकप्रसिद्धिवत् अनुगन्तव्यः । 'विधिना' सिद्धान्ताभिहिताचारेण निलयनं वसतिः, प्रस्थकः कुंडवो मानविशेषो दारवः, १ गा० २६५३-५६ । एताश्चतस्रोऽपि गाथा अनुयोगद्वारसूत्रे मूल पाठे द्रष्टव्याः पृ. १६ । २ वत्थु भो हे । ३त्यु, हे त दो हा म । ५ णमय दी हा त। ५ भए को हे म । ६ समाणा' त । ७ °णाई को हे। ८ तेहिं को हे । ९ वस्थिति-इति प्रतौ । १० गागमा त । ११ तेणं को हे । १२ अहवा इति प्रतौ । १३ नकार इति प्रतौ । १४ विवुद्धि' प्रतौ । १५ कुटयो प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५४१ ग्रामो जनसन्निवेशः, उपमा उपमानं दृष्टान्तः, उपमायाः भाव औपम्यम्, निलयनप्रस्थक-ग्रामा एवौपम्यानि 'निलयन-प्रस्थक-ग्रामौपम्यानि' । आदिशब्दः प्रकारार्थे, एतदाद्या अन्येऽपि दृष्टान्ता द्रष्टव्याः । तैः [सं]सिद्धः' प्ररूपितः । तद्यथा-अनुयोगद्वारे वचनम् "दुविहो णेगमो सव्वसंगाही देससंगाही य । तस्सेतस्स दुविधस्मावि परूपणं कासामो वसहीदिलुतेगं, पत्थयदिटुंतेण य त्ति' इत्यादिः अविशुद्ध-विशुद्धानुगमः प्रपञ्चशः कर्तव्यः ॥२६५९॥ सामान्य-विशेषयोविवक्षानिगमी नैगमः इति । सामान्य विशेषश्चान्यः सामान्यात् भिन्ननिमित्तत्वात् , भिन्नकार्यत्वाच्च, घट-पटवत् । एतन्निरूपणायाह --- सामण्णमण्णदेव हि हेतू सामण्णबुद्धि वयणाणं ।। तस्स विसेसो अण्णो विसेसमति-वयणहेतु ति ॥२६६०॥ सामण्ण० इत्यादि । न हि निर्णिमित्ता सामान्यबुद्धिर्वचनं वा प्रवर्तत इति तयोः सामान्यबुद्धि-वचनयोहे तुः प्रवर्तकं कारणं सामान्यमिति, विशेषबुद्धि-वचनहेतु. विशेषः निमित्तेन भिद्यन्ते(ते), कार्येण चेति अन्यत् सामान्यम्, अन्यो विशेष इति ॥२६६०॥ अथवा सामान्य विशेषयोः परस्परं भेदोऽस्तीति सिद्धम् । तदाधाराद् द्रव्यात् किमर्थान्तरं सामान्य-विशेषाविति ? अर्थान्तरत्वप्रतिपादनायाह - सदिति भणितेऽभिमण्णति दव्वादत्थंतरं ति सामण्णं । अविसेसतो मतीए सव्वत्थाणुप्पवित्तीतों ॥२६६१।। सदिति गाहा । सदिति यतो द्रव्य-गुण-कर्मसु सा सत्ता । द्रव्य-गुण-कर्माणि स्वलक्षणेभिन्नानि । तेषु भिन्नेष्वपि सर्वत्र सत्प्रत्ययानुप्रवृत्तरेकस्याः 'सत्'वुद्धेहे तुरेकैव सत्ता समवेता | सा च तेभ्योऽर्थान्तरभृता, एकत्वादेव । अनर्थान्तरत्वे सत्यैक्यवद् द्रव्य-गुण-कर्मणामप्यैक्यप्रसङ्गात् । अतो द्रव्य-गुण-कर्मभ्योऽर्थान्तरं सत्तेति ॥२६६१॥ एवमेव गोत्वादयो गवादिपु अनुप्रवृत्तिलक्षणं सामान्यम्, व्यावृत्तिलक्षणो विशेष इत्युभयरूपदर्शनाच्च - गोत्तातयो गवातिसु णिययाधाराणुवित्तिबुद्धीतो । परतो य णिवित्तीतो सामण्णविसेसणामाणो ॥२६६२।। १ अनुयोगद्वारे नैवरूपः पाठः उपलभ्यते । तत्र “से किं तं नयप्पमाणे ? नयप्पमाणे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा-पत्थगदिटुंतणं"-इत्यादिरूपलम्यते-द्रष्टव्यम् अनु० सू० १४८ । महावीर विद्यालयद्वारा प्रकाशिते अनुयोगद्वारे पाठान्तरमत्र द्रष्टव्यम्-अनु० सू० ४७३ । २ 'यणेर्ण त । ३ त्तीए को हे । ४ गातात जे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५४१] उपोद्धाते नयद्वारम् ।। गोत्वादयो निजाधारेषु गवादिषु 'गोर्गोंः' इत्यनुप्रवृत्तिबुद्धिहेतुत्वात् परतश्चाश्वादिभ्यो व्यावृत्तिहेतुत्वादुमयस्वभावाः सामान्यविशेषाख्याः ॥२६६२।। तथा -- तुरकिति गुण किरिएगदेसऽतीताऽऽगतेऽणुव्वम्मि । अण्ण तबुद्धिकारणमंत विसेसो ति से बुद्धी ॥२६६३॥ तुल्ला० गाहा । आकृतिः संस्थानम् । परिमण्डलसंस्थानाः सर्व एव परमाण इति तुल्याकृतित्वं पार्थिवानाम् । पार्थिवाणुभिः सर्वेः समानगुणत्वम् । 'अणु-मनसोश्चायं कर्म वैशेषिकसत्रे अध्याय५, आह्निक२, सूत्र १४] इति अदृष्ट कारितक्रियावत्वं सर्वेषां समानमिति, आधारोऽप्येकाकाशदेशः, तस्मादाकाशदेशात् कश्चित् परमाणुरतिक्रान्तः कश्चिच्च तत्समकालमेव तत्रायातः, तत्र 'अयमन्यः पूर्वस्मात्' इति अन्यप्रत्ययो निर्णिमित्तः परमपरपि न भवति, दृष्टश्चान्य प्रत्ययः-तस्यान्यप्रत्ययस्य यो हेतुः सोऽन्त्यविशेषःतस्मात् 'परमाणुद्रव्यादन्यः' इत्येवं नैगमनयस्य 'बुद्धिः' मतमभिप्रायोऽध्यवसाय इति यावत् ॥२६६३॥ ___ एवं ब्रुवन्नाचार्य एतद् दर्शयति-एतस्य नयस्यैत मतं मिथ्यादर्शनम् , नायं परमार्थ इति । अतश्चोदक आह-गमः सम्यादृष्टिरेव, द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकमतावलम्बिस्वात् , जैनसाधुवत् । अतः किमिति मिथ्यादर्शनभेदोऽयमित्युच्यते ? एतदर्थप्रदर्शनी गाथा - णणु दव्यपज्जये टियमतावलम्बि ति गमो चेत्र । सम्मदिही साधु व्य कीस मिच्छत्तभतोऽयं ।।२६६४।। णणु दव्व० गाहा। भाविता ।।२६६४॥ अत्र प्रतिविधीयते --- [१७५-द्वि] जं सामण्णविसे से परोप्परं वत्थुणों य सो 'भिण्णे । मण्णति अच्चन्तमतो मिच्छदिट्टी कणादो ३ ॥२६६॥ जं सामण्ण • गाहा । यदेतत् प्रमाणमुक्तम् 'सम्यादृष्टिरेव नैगमः, द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकमतावलम्बित्वात्' इत्यथं हेतुरपक्षधर्मः, यद्वा साधनशून्यो दृष्टान्त इति दूषणद्वयमनया गाथया चोद्यते, यस्माद् न्यायशास्त्रे न वा(व)चनमात्रं हेतुः, किन्त्वों ज्ञानं चेति । तत्र नैगमनयः-द्रव्यार्थिकमतम् अत्यन्तभिन्न सामान्यम्, पर्यायार्थिकमतमपि-विशेषमत्यन्तभिन्नं परस्परतः, आधाराच्च वस्तुनोऽत्यन्तभिन्नमेव-मन्यत इति । १ लागई' हे । २ अवटि को हे त । ३ यनयाव को है । " "त्थुओ को हे त । ५ भिन्नो त । ६ अच्च को हे । ७ करणा त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०५४१एवमाऽऽकारकमुभयमतावलम्बित्वं साधौ नास्तीति साधनधर्मासिद्धो दृष्टान्तः । अथ ... यत् साधौ परस्परापेक्षद्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकमतं कथञ्चिद्वेदाभेदरूपम् , तदवलम्बित्वं नैगमनये नास्तीत्यपक्षधर्मता हेतोः । तस्माद् दुषणद्वयात् पूर्वपक्षप्रमाणं दुष्टमिति न सम्यदृष्टिगमः । किं तर्हि ? मिथ्यादृष्टिरेवेति विशेष्य पक्षः क्रियते, अत्यन्तभिन्नद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकमतावलम्बित्वात् , कणादवदिति ॥२६६५॥ ____ एतदृष्टान्तव्याख्यानार्थ गाथा - 'दोहि वि णएहि सत्यं' णीतमुलूएण तथ वि मिच्छत्तं । जं सविसयप्पधाणतणेण अण्णोण्ण णिरवेक्खा ॥२६६६।। ___ दोहि विगाहा । 'सामान्यम् विशेषः इति बुद्ध्यपेक्षम्" भवति [इति] सिद्वान्तः । ततश्च सामान्यमर्थान्तरभूतं विशेषात् , विशेषश्च सामान्यादर्थान्तर मिति न युज्यते वक्तु. मिति नैगमनय उपालन्यते उत्तरण संग्रहनयेन, “समनन्तरानुलोमाः पूर्वविरुद्धा निवृत. निरनुशयाः' इति लक्षणात् ।।२६६६॥ अनिष्टापादनप्रमाणमपि-विशेषोऽपि सामान्यमिति भवतु, सामान्यवुद्धिहेतुत्वात् । कथं सामान्यबुद्धि हेतु विशेषस्य ! इति चेत् - जति सामण्णं सामण्णबुद्धि हेतु ति तो विसेसो त्ति । सामण्णमण्णसामण्णबुद्धिहेतु ति को भेदो ? ||२६६७।। जति सामण सामष्णबुद्धिहेतु त्ति । गोत्वमश्वादिभ्यो व्यावर्त्तमानत्वाद् विशेषः । तदेव खण्ड-मुण्ड-शावय-बाहुलेयादिषु सामान्यबुद्धि हेतुरिति दृष्टम् । तथा मनुष्यत्वं गवादिव्यावृत्तेविशेषः ब्राह्मणादिष्वन्वयात् सामान्यबुद्धिहेतुः । तथा पुनः ब्राह्मणत्वं विशेषः, क्षत्रियादेविर्तमानत्वात्, माठर कौण्डिन्यादिप्वनुप्रवृत्तिबुद्धि हेतु. स्वात् सामान्यबुद्वि हेतुत्वं सापेक्षिकमिति सामान्यमेव । विशेषश्च सामान्यं चावश्यमभ्यु. पगन्तव्यम्, भवताऽपि स्वसिद्धान्ते प्रणयनादिति । एवं सामान्य-विशेषयोरभेद एवेति ॥२६६७॥ पुनरप्यभेदप्रतिपादनायाह -- जति जेण विसे सिज्जति स विसेसो तेण जं पि सामगं । तं पि विसेसोऽवस्सं सत्तातिविसेसयत्तातो ॥२६६८॥ जति गाहा । विशेष्यतेऽनेनेति विशेषः । एवं तर्हि सामान्यमपि विशेषत्वं प्राप्नोति, अन्यसामान्यविशेषत्वात् , अन्त्यविशेषवत् । सत्तासामान्य गोत्वं न भवति । १ दोहिं हे । एषा गाथा सन्मती (३. ४९) द्रष्टव्या । २ नएहिं को हे । ३ नोयं सत्थमु को हे त । ४ एतद्वचनं वैशेषिकसूत्रे प्रथमाध्याये द्वितीयाहिके समागतेन तृतीयसूत्रेण तुलनीयम् । ५ वि को हे त । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५४१] उपोद्घाते नयद्वारम् । गोत्वं च सत्तासामान्यं न भवतीति विशेषत्वम् । एवं तावत् परस्परतः सामान्यविशेषयोरभेदः प्रतिपादितः ॥२६६८॥ अथ वस्तुनोऽप्याधारात्)ि तद[भेद प्रतिपादनायोच्यतेसत्ताजोगादसतो सतो व सत्तं हवेज्ज दव्वस्स । असतो ण खपुप्फरस व सतो व किं सत्तया का ? ||२६६९।। सत्ताजोगादसतो गाहा । सदिति यतो द्रव्य-गुग-कर्मसु द्रव्य-गुण-कर्मभ्योऽर्थान्तरं सत्तेति त्रिपदार्थसत्करी सत्तेति । अतो द्रव्यस्य सत्तायोगात् सत्तासमवायात् स्वयं सतो विद्यमानस्य सत्त्वं भवति, आहोस्विदविद्यमानस्य ? इति । तद् अविद्यमानस्य तावन्न भवति सत्तायोगात् सत्वम् . अविद्यमानत्वात् , खपुप्पस्य व] । अथ विद्यमानस्य सत्ता, एवं तर्हि अनर्थकं सत्त्वम् , प्रागेव विद्यमानत्वात् , प्रकाशितप्रकाशवत् ॥२६६९॥ पतिवत्, सामण्णं जति तो गं ण यावि सामण्णं । अध सव्वेसु तदेगं तध वि सदेसं ण सामण्णं ॥२६७०। पतिवत्थु गाहा । अथ सत् तत् सामान्यम् , तत् स्वाधारे प्रत्येक परिसमाप्त चेत, ततः सामान्यमेव न भवति, प्रतिवस्तु समाहत्वात् , प्रतिवस्तुस्वरूपवत् । अनेकं च सामान्यम्, प्रतिवस्तुवृत्तत्वात् , प्रतिवस्तुस्वरूपवत् । अथ तेपु भिन्नेव. प्येकं तत् ,भूत कण्ठे गुणवत् , ततः सदेशम् , ततः सावयवं प्राप्तम् बहुप्वेकस्य वृत्तत्वात्, स्रक्सूत्रवत् । ततश्च न सामान्यम, सावयवत्वाद, गोपिण्यक्तिवत् ।।२६७०॥ अध पंडिवत्थुमिहेगं च तध वि तं णस्थि खरविसाणं व । ण य तदुवलक्खणं तं सवगतत्तणओ खं व ॥२६७१।। अध पडि गाहा । अथ प्रतिवस्तु च वर्तते एकं च तदिति । एवं तहिं नास्त्येव, अनुपपद्यमानवृत्तित्वात् , वपुष्पवत् । मभ्युपगम्याप्युच्यते तत् सामान्यं द्रव्यस्योपलक्षणं न भवति, सर्वगतत्वात्, आकाशवत् ॥२६७१।। सामण्ण विसेसकतं जति णाणं तेसु किंणिमित्तं तो । अध तत्तो च्चिय तम्हा [१७६-०] तं परहेतुं ति गंतो ॥२६७२।। सामण्णगाहा । यदि च द्रव्यादिष्वन्तरनिमित्तकृता साम न्यबुद्धिर्विशेषवुद्धिर्वा, ततः सामान्ये या सामान्यबुद्धिः,सामान्यविशेपे वा सामान्यविशेषबुद्धिरपाऽप्यन्तरनिमि १ अपि च पति त । २ तया त । ३ दव्वे' को हे त । ४ पइव' को हे । ५ गयत्तओ हे । ६ व को हे । ७ हेउ त्ति को है । परिहे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ विशेषावश्यक भाष्ये [ नि० ५४१ तजनिता भविष्यति, सामान्यबुद्धित्वाद् द्रव्यादिष्विव । अथ ब्रूयात्- सामान्यविशेषेषु सामान्यविशेषाऽभावात्तत एव ज्ञानमिति, द्रव्यादिष्वप्येवं भविष्यति सामान्यविशेषवत् ॥ २६७२ ॥ तम्हा वत्थूणं चिय जो सरिसो पेज्जयो स सामण्णं । जो विसरिसो विसेसो स मेतोणत्यंतरं तत्तो || २६७३|| 1 म्हात्थूणं गाहा । तस्मान्नैकान्तेनार्थान्तरभूतं निमित्तम्, न चानर्थान्तरभूतमेव । किं तर्हि ? वस्तुनः एवान्यानन्यभूतोऽयं सदृशपर्याय [:], तत् सामान्यम्, यस्तु विसदृशपर्यायः स विशेष इति परमार्थः । ननु च नैगमनयस्य संग्रहेणानन्तरत्वात् व्याघाते कृते परपक्षनिवर्त्तनं भवतु, स्वपक्षस्थापनं वा तदुभयमपि गिध्यादर्शनम्, किमिदमस्थाने स्याद्वादपरमार्थवचनमिति ? उच्यते - लाघवार्थमनन्तराभिधानं नयपर्यन्तेSवश्यम्, एतच्च संस्कारव्यवधानात् धारणप्रतिपत्तिमादध्यादिति ॥२६७३ || नैगमनयवक्तव्यतानन्तरं संग्रहनयः । तस्य लक्षणम् - संग्रहणं संगिण्हति संगिज्झते व तेण जं भेता । वो संगहो ति संगहित' 'पिण्डितत्थं वयो जस्स || २६७४ || संगणमित्यादि । संग्रहणं संग्रह इति भावसाधनः संगृह्णातीति कर्तृसाधनः संगृह्यन्ते तेन भेदाः इहेति संग्रहः करणसाधनः संगृह्यन्त इति संग्रहः कर्मसाधनः संगृहीतपिण्डितार्थं 'वची' वचनं यस्य || २६७४ || अथ संगृहीत- पिण्डितयोः को # विशेष इति ? गाथा - संगै हितमा गिहीतं संपिण्डितमेगजातिमाणीतं । संगहितमणुगमो वा वतिरेओ " पिण्डितं भणितं ॥ २६७५ || १० ५ संगहितमा गिद्दीतमित्यादि । 'सं' शब्द आभिमुख्ये । आभिमुख्येन गृहीतं सामान्यानुकूल्यम्, तदेव सामस्त्येन पिंण्डितम् 'एकजातिमानतिम्' सङ्गृहीतं च तत् संपिण्डितं च तदिति समानाधिकरणः समासः, स सङ्गृहीतपिण्डितोऽर्थो यस्य संग्रहवचनस्य तत् 'संगृहीतपिण्डितार्थम् ' समासत इति संक्षेपात् ब्रुवते सर्वविदः । अथवा संगृहीतमनुगमोऽन्वयः, पिण्डितं व्यतिरेकः । एतदुक्तं भवति - अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यस्य वचः परमतभेदव्यतिरेकात् स्वमतसामान्यानुगमादिति ॥ २६७५ ॥ अथवा शतभेदत्वात् संग्रहस्य प्रकारान्तरैरभिधानमिति सर्वसामान्यसंग्रहात् - १ 'ज्जवो को हे । २ समओ को है । मताण' जे । ३ नाधावनप्र - इति प्रतौ । ४ 'ज्झतं त । ५°हितं त । ६ पिंड कोहे | ७ हियं आगहियं को । ८ मागही हे त । ९ पिंडि को हे । १० पिंड को है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५४१] उपोद्घाते नयद्वारम् । अधव महासामण्णं संगहितं' 'पिण्डितत्थमितरं ति । सव्वविसेसाणण्णं सामण्णं सव्वधा भणति ॥२६७६।। अधर महा० गाहा । महासामान्यं सत्ता संगृहीतशब्देन, अपान्तरालसामान्यम-इतरत् पिण्डितग्रहणेन सर्वथा संक्षेप[:], सर्वविशेषाः अनन्ये यस्य तत् सर्वविशेषाऽनन्यं सामान्यं संग्रहनयस्येति ॥२६७६॥ तत्स्वरूपोपवर्णनम्एक णिच्चं हिरवयवमक्किय सव्वगं च सामण्णं । णिस्सामण्णत्तातो पत्थि विसेसो खपुष्फ व ॥२६७७॥ एक्कं णिच्चं गाहा । एक विशेषणाभावात् , नित्यं कालभेदाभावात् , निरवयवं प्रदेशाभावात् , सर्वगतमक्रियत्नात् । तदेवंरूपं सामान्यमस्ति । तद्विपरीतविशेषाः-अनेकानित्यसावयवसक्रियाऽसर्वगताः परेणाभ्युपगताः न सन्ति, सामान्यरहितत्वात्, सामान्यादर्थान्तरत्वात्, खपुष्पवत् ॥२६७७।। उपपत्तिरपिसदिति भणितम्मि जम्हा सव्वत्थाणुप्पवत्तते बुद्धी । तो सव्वं तम्मत्तं णत्थि तदत्थंतरं किंचि ॥२६७८॥ सदिति गाहा । सर्वत्र द्रव्यगुणकर्मादावन्त्यविशेषपर्यन्ते वस्तुनि सत्सदित्यनुप्रवर्तते बुद्धिः । नैगमस्याप्येतदभिमतम् । एतस्मात् सर्वत्र तन्मात्रमेव तत् , सदनान्तरत्वात्, यत् सतोऽर्थान्तरं नास्त्येव, सतोऽर्थान्तरत्वात, खपुष्पवत् ॥२६७८॥ तदेवं प्रपञ्चेनाहकुंभो भावाणण्णो जति तो भावो अधऽण्णधाऽभावो । एवं पडादयो वि हु भावाणण्ण त्ति तम्मत्तं ॥२६७९॥ कुंभो गाहा। यदि 'सतोऽर्थान्तरत्वात्' इत्यसिद्धं मन्येथास्ततः कुम्भो भावमात्रमेव, सदनन्तरत्वात् , सत्स्वरूपवत् । अथाऽर्थान्तरं सत्तायाः, ततोऽसन्. सतोऽर्थान्तरत्वात् , खपुष्पवदित्येवं घ(प)टादयोऽपि सर्वे भावाः सन्मात्रम् ॥२६७९।। अथवा-- सम्मत्तमिह बिससी सामष्णं पिर्व पमेयभावातो।। [१७६-द्वि०] सम्बत्थसम्मतीतो वभिचाराभावतो वा वि ॥२६८०॥ १ हियपि है । २ पिडि' को। ३ भणियं को हे त । " 'न्यमितिरपि'-इति प्रतौ । ५ ऐयं को हे। ६ प्रवृत्तिते-इति प्रतौ । ७ तम्म हे । ८ सेसो हे । ९ पिय त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५४१सम्मत्त० गाहा । सन्मात्रं विशेषाः, प्रमेयत्वात् , सर्वत्र चानुप्रवृत्ति(त)सदबुद्धेर्व्यभिचाराभावात् , सत्सामान्यवत् ॥२६८०॥ 'चूतो वणस्सति च्चिय मूलातिगुणो ति तस्समूहो व्य । गुम्मातयो वि एवं सव्वे ण वणस्सतिविसिट्ठा ॥२६८१॥ चूतो वण० गाहा । चूतो वनस्पतिभेदः, स वनस्पतिरेव सामान्यम् , मूलादिगुणत्वात्, चूतादिसमूहवत् : एवं चूतवद् गुल्मादयोऽपि वनस्पतिरेव, मूलादिगुणत्वात् , तत्समूहवत् । इदमुक्तमपि कुम्भादिगाथया सर्वत्र विशेषत्र्यापिताख्यानाय प्रपञ्चार्थम् ॥२६८१॥ सामण्णातो' विसेसो अण्णोऽणण्णो न णथि जति अण्णो । णिस्सामण्णतणतोऽणण्णो सामण्णमेत्तं सो ॥२६८२॥ सामण्णतो गाहा । भावितार्था । एवं सङ्ग्रहनयः ॥२६८२।। तदनन्तरं व्यवहारनयस्तस्य शब्दव्युत्पत्तिःववहरणं ववहरते से तेण ववहीरते व सामण्णं । ववहारपरी ये जतो विसेसतो तेण ववहारो ॥२६८३।। वहरणं गाहा । व्यवहरणं व्यवहार इति भावसाधनः । स च व्यवहरतीति कर्तृसाधनः, “कृत्यल्युटो बहुलम्" [पाणि०३-३-२२३] इति योगविभागात् । तेन वा व्यवहियते इति व्यवहारः कर्मसाधनः । विशेषेण वा अवहारः ॥२६८३।। सदिति भणितम्मि गच्छति विणिच्छयं सदिति किं तदण्णं ति । होज्न विसेसेहितो संववहारादवेतं जं ॥२६८४॥ सदिति गाहा । न हि यदुक्तस्तदस्तितां प्रतिपद्यते किन्तु "वच्चइ विणिच्छयत्थं ववहारी सबदब्वेसु" विनिश्चयं गच्छति विचारयति-सदित्युक्तं नाम, तत्पुनर्विशेषा एव, व्यवहारानुपातित्वात्, यतु तेभ्योऽन्यत् तत् सन्नाम नास्त्येव, व्यवहारापेतत्वात्, खपुष्पवत् ।।२६८४॥ हेतुबहुत्वप्रख्यापनं मुखप्रति प्रत्यर्थम्-अनुपल यमानत्वात् , अभूतव्यवहारत्वात् निर्विशेष वात् । विशेषाः पुनरुपलभ्यन्ते प्रत्यक्षादिभिरिति "उवलंभव्यवहाराभावातो णिबिसेसभावातो । तं णत्थि खपुष्फ पिव संति विसेसा सपच्चक्खं ॥२६८५।। उवलंभववहारा गाहा । गतार्था ॥२६८५।। १ भूतो त । २ सामन्नतो त, गाउ को । ३ ण्णताओ को हे । ४ ‘रते तेण । त । ५ व को हे। व्व त। ६ गिच्छियं त । ७ अपि च उवलं त।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५४१] उपोद्घात नयद्वारम् । ५१७ जं च विसे सेहिं चिय संववहारो वि कीरते सक्खं । तेम्हा तम्मत्तं चिय फुडं तदत्यंतरमभावो ॥२६८६॥ जं च विसे से० गाहा । विशेषैरेव घटादिभिर्व्यवहारः साक्षात् क्रियमाणो दृष्टः । स्यात्-विशेषमात्रमेव सर्वम्, व्यवहारानुपातित्वात् सामान्यविशेषवत् । विशेपार्थान्तरमभाव एवेत्युक्तम् ।।२६८६ ।। 'अण्णमणणं व मतं सामण्णं जति विसेसतोऽणणं । तम्मत्तमण्णमधवा णत्थि तयं णिव्विसेस ति ॥२६८७।। ___अण्णमणणं गाहा । अनन्यं चेद् विशेपेभ्यः सामान्यम्, तदभ्युपगम्यते । एवं तर्हि विशेषमात्रंत त्, विशेषानन्तरत्वात, विशेषस्वरूपवत् । अथाऽन्यत्तद्विशेपेभ्य इत्यभ्युपगमः, ततो नास्त्येव सामान्यम्, निर्विशेषत्वात् , विशेपाथान्तरत्वात् , खपुष्पवत् ॥२६८७॥ तध चूतातिविरहितो अपणो को सो वण[१७७ प्र०स्सती णाम । अवणस्सति च्चिय तओ घडो व चूतादभावातो ॥२६८८।। तध गाहा । वनस्पतिस्त्येिव, चूतादिविरहितत्वात्, खपुष्पवत् । अथवाऽवनस्पतिरसौ चूतादिव्यतिरिक्तत्वात् ॥२६८८॥ तो वहारो गच्छति विणिच्छयं को वणस्सती चूतो । होज्ज बँउलातिरुवो तध सव्वईव्वभेतेसु ॥२६८९।। तो ववहारो गाहा । घृत एव वनस्पतिर्बकुलो वा, चूतादेरेव तथाभिधीयमानत्वात् , घृतादिवदेव ॥२६८९॥ अथ विनिश्चियशब्दार्थव्युत्पत्तिमधिकृत्याह-- अधिको चओ'' त्ति वा णिच्छओ ति सामण्णमस्स ववहारो । बच्चति विणिच्छयत्थं जाति विसामण्णभावं ति ॥२६९०।। अधिको गाहा । निराधिक्ये, चयन चयः, अधिकश्चयो निश्चयः, सामान्यमुच्यते । अस्य व्यवहारः विशेषेणाप(व)हारस्तदभाव इत्यर्थः । विगतो निश्चयो विनि १ जम्हा को हे । २ किं च--अण्ण त । ३ गमात्-इति प्रतौ । ४ ‘पमान-इति प्रतौ। ५ अथानन्तदि-इति प्रतौ । ६ °यादऽभा को त । ७ भूता इति प्रतौ। ८ उज व बउ को हे। ९ व्यव्य हे। १० चर ति क हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ विशेषावश्यकभाष्ये [ नि० ५४१ श्चयः, विगता सामान्यता विसामान्यभाव इति । तदर्थं सामान्याभावाय गच्छतिविनिश्चयार्थ व्रजतीति ॥ २८९० ॥ भमराइ पंचवण्णाई णिच्छए जत्थ वा जणवतस्स । अत्थे विणिच्छयो सो विणिच्छयत्थो त्ति जो गज्झो || २६९१|| भमराइ० गाहा । अथवा विशेषेण निश्चयः - प्रत्ययः, स च यः सकलजनपदेन आगोपालं प्रतीयते स प्रत्ययो विनिश्चयः, न कतिपयविपश्चित्परिग्रहः पञ्चवर्णो भ्रमर इति, बहुतरलोकप्रतीतेः कृष्णो भ्रमर इति । अर्थत इत्यर्थो ग्राह्यः, स लोकविनिश्चयोऽर्थो यस्य विनिश्चितार्थ इति ॥२६९१॥ बहुतओ ति तं चिय गमेति सन्ते वि से सँए मुति । संववहारपरतया ववहारो लोगमिच्छंतो || २६१२॥ बहु० गाहा । पञ्चवर्णसम्भवेऽपि यो बहुतरो वर्णः स एवार्यमाणत्वात् प्रकटत्वादर्थः, स एवेति निश्चयोऽर्थोऽस्येति बहुव्रीहित्वादद् विनिश्चयार्थः, शेषमल्पं वर्णगणं मुञ्चति व्यवहारपरतया लोकमन्विच्छन् व्यवहारनयस्तृतीयः || २६९२॥ अथ 'पच्चुप्पण्णग्गाही' [ नि०५४०] गाहा । अस्याः भाष्यगाथा - उज्जुं "रिजुं सुतं णाणमुज्जुसुतमस्स सोऽयमुज्जुसृतो । सुतयति वा जमुज्जुं वत्युं तेणुज्जुमुत्तोति ॥२६९३॥ १० उज्जुं रिजुं गाहा " । [ उज्जु त्ति प्राकृते] संस्कृते ऋजुः वक्रविपर्ययादभिमुखमुच्यते । श्रुतं ज्ञानम् तत् ऋजु श्रुतं यस्य अभिमुखं श्रुतमस्येति ऋजुश्रुतः, शेषज्ञानाभ्युपगमात् । अथवा ऋजु वर्त्तमानम् अतीतानागतवऋपरित्यागात्, सर्वमेव बस्तु ऋजु तत् सूत्रयति गमयति तस्माद् ऋजुसूत्रम् । यद्वा वर्तमानग्राही ऋजु सू तदधिकं [तदधीनं ?], सूत्रं श्रुतं ज्ञानमस्य शेषसूत्राणां परमार्थ इति ऋजुसूत्रः ॥ २६९३॥ पच्चपणं संपतमुप्पण्णं जं व जस्स पत्तेयं । तं रिजै तदेव तस्सत्थिं वक्कमण्णं ति जमसेंन्तं || २६९४ || पचपणं गाहा | प्रत्युत्पन्नवस्तु साम्प्रतं वर्त्तमानमुच्यते, तत् प्रत्युत्पन्नं गृह्णातीति प्रत्युत्पन्नग्राही तदभ्युपगम उच्यते । प्रत्युत्पन्नं प्रत्येकं प्रत्येकमुत्पन्नं १०णाई णिक हे । २ णिच्छियो त । ३ ५ र को है । ६ य को हे त । ७ सेसिए त । १० उजुमुउत्ति - इत्यधि कमत्र प्रतौ । ११ रुजु को । १२ को । १४ गमः उत्पद्यते स उत्पन्नं प्रत्ये- प्रतौ । Jain Educationa International णिच्छित । ४ सो को हे त । यए हे । ९ रुजु हे । उज्जु त । स्थिउक्क हे । १३ संत For Personal and Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५४१] उपोद्घाते नयद्वारम् । यद्यस्य तदेवास्य नयस्यास्ति, ऋजुत्वात् । यदन्यद् वक्रं तदसदेवेति एप नयविधिःनयप्रकार इत्यर्थः ॥२६९४।। अतीतानागतवक्रस्याभावत्वप्रतिपादनार्थमाह ---- ण विगतमणागतं वा भावोणुवलंभतो सपुप्फ व । ण य णिप्पयोयणातो परकीयं परधणमिवस्थि ॥२६९५।। __ण विगत० गाहा । विगतमनागतं वा न भावः, अनुपलभ्यमानत्वात्, खपुष्पवत् , परकीयं वा न भावः निष्प्रयोजनत्वात् , खपुष्पवत् ॥२६९५॥ जति ण मतं सामण्णं संववहारोव[१७७-द्वि०लद्धिरहितं ति । णणु गतेमेस्सं च तधा परक्कमवि णिप्फलत्तणतो ॥२६९६।। जति ण गाहा । नन्वतीतमेष्यद्वक्रं च अभाव एवाभिमतः, संव्यवहारोपलब्धिरहितत्वात् ; एवमेव परकीयमप्यभाव एव, निष्फलत्वात् , सामान्यवत्, खपुष्पवत्, अतीतानागतवद्वा ।।२६९६।। तम्हा णिययं संपतकालीणं लिंगवयणभिण्णं पि । णामातिभेतविहितं पडिवजति वत्थुमुज्जुसृतो ॥२६९७॥ तम्हा णिययं । तस्मान्निजमात्मीयं यद्यस्य साम्प्रतिकं वर्तमानमित्यर्थः । तद् यदपि लिङ्गभिन्नं तटस्तटी तटमिति, वचनभिन्नं वा आपो जलमिति, नामस्थापनाद्रव्यभिन्नं वा तदेकमेव वस्तु प्रतिपद्यते ऋजुसूत्रः ॥२६९७।। __ अथ ऋजुसूत्रानन्तरं शब्दनयस्तस्य व्युत्पत्तिःसणं सर्वति स तेणं व्व सप्पते वत्थु जं ततो सदो । तस्सत्थपरिग्गहतो गयो वि सदो त्ति हेतु व्य ।।२६९८|| सपणं इत्यादि । 'शप् आक्रोशे' शपनमाहानं शब्दः भावसाधनः, शपतीति वा कर्ता शब्दः, तेन वा शप्यते करणसाधनं शब्दः, तस्यार्थपरिग्रहादभिधेयपरिग्रहादभेदोपचारान्नयोऽपि शब्द एवोच्यते । यथा कृत कशब्दस्याओं हेतुर्न वचनमात्रम्, तथापि प्रतिज्ञोच्चारणानन्तरं हेतुरुच्यतामिति पर्यनुयोगे कृतकत्वादिति वचने हेतुरुपचर्यत इति ॥२६९८॥ अस्य च शब्दनयस्य लक्षणं "इच्छति विसेसिततरं पच्चुप्पण्णं नयो सदो" (नि० ५४०] तस्येयं भाष्यगाथा - १ मेसं को। २ प्यं च वहारमतमभाव एस-इति प्रतौ । ३ 'पइका हे। ४ कोप्रतौ एषा गाथा नोपलभ्यते टीका तु विद्यते । ५ सवणं हे त । ६ स पति त । ७ तेण व को । णं व हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये तं चि रिजुमुत्तमेतं पच्चुप्पण्णं विसेसिततरं सो । इच्छति भाववडं "च्चिय जेण तु णामातयो तिणि ॥२६९९ ॥ तं चिय इत्यादि । तदेव ऋजुसूत्रमतं प्रत्युत्पन्नं विशेषिततरमिच्छति शब्दः, भाववटमेवैकं वस्त्विच्छति, न नामस्थापनाद्रव्यवटांस्त्रीनपि ।। २६९९ | किमिति ? स्त्रोपपत्तिमाह णामातयो ण कुम्भा तक्कज्जाकरणतो पडाति व्व । पच्चखविरोधातो तलिंगाभावतो यावि || २७००॥ ५२० णामातयो गाहा । नामस्थापनाद्रव्यकुम्भाः कुम्भा न भवन्ति, कुम्भकार्य - स्थानिर्वर्त्तकत्वात्. पटादिवत् । अथवा प्रत्यक्षविरुद्धत्वान्नामादिकुम्भानां कुम्भत्वेनादर्शनात् । घट चेष्टायामिति घटस्य स्वानुरूपचेष्टा लिङ्गम्, तस्याभावान्नामादिकुम्भे-इत्यनुमानविरोधादपि ॥ २७०० || अवा--- जति विगताणुष्वण्णा पयोयणाभावतो ण ते कुंभा । णामातयो किमिट्ठा पयोयणाभावतो कुंभा ॥ २७०१ || [ नि० ५४१ जति गहा । नामादयः कुम्भा न भवन्ति, कुम्भप्रयोजनाऽकरणात्, विगतानुत्पन्न कुम्भवत् ॥ २७०१ ॥ अथवा पच्चुप्पण्णो रिजुमुत्तस्साविसेसितो चेअ । कुम्भो विसेतितरो सम्भावांदीहि सदस्स || २७०२॥ अथवा पच्चपणो गाहा । अथवा प्रत्युत्पन्नकुम्भः सत्यं ऋजुसूत्रेणाविशेषित एवं प्रतिपन्नस्तस्य पुनरर्पणविशेषात् सद्भावादिभेदैः शब्दनये महान् विशेषः ||२००२ ॥ ते चामी -- सन्भावासम्भावोभयप्पितो सपरपज्जैवोभयतो । कुम्भा कुम्भावत्तव्योभयरू[ १७९ - म० ] वातिभेतो सो || २७०३|| सद्भाव॒दयोऽर्पणभेदाः सद्भावाऽसद्भावोभयादि । स्वपर्यायैः सद्भावार्पणाद् ग्रीवाकुदयादितिः (भिः) कुम्भः, परपर्यायैस्त्वैक्त्राणादिभिरसद्भावार्पणाद कुम्भः, स्वपरपर्यायैः युग afa २ चिय को हे । ३ जंन को हे । ४ मादए को । ५ कुंभा को है । ६ वावि को हे त । ७ पु स्तु नामविरुद्धोपि इति प्रतौ । ८ नाकार- इति प्रतौ । ९ वादि को हे । १० 'ज्जओ' को हे ! ११ स्वकाणा - इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५४१ ] उपोद्घाते नयद्वारम् ५२१ पद् ग्रीवाकुक्षित्वक्त्राणादिभिः सद्भावासद्भावाभ्यामर्पितः सन कुम्भ इति, अकुम्भ इति वा वक्तुमशक्यत्वात् मेचका कारार्थाऽभावादवक्तव्यः । अथवा पृथग् भिन्नकालाभ्यां देशभेदेन वा स्वावयवेषु स्वपरपर्यायाभ्यां स्वतन्त्राभ्यामर्पणादुभयप्रधानत्वात् कुम्भचाकुम्भश्चेति भङ्गः । अथवैकदेशः स्वपर्यायैः सद्भावेनाऽर्पितः, एकदेशचोभयोपसजनतया युगपत् सद्भावासद्भावाभ्यामर्पित इति कुम्भश्चाववतव्यश्च भवति । अथ चैकदेशः परपर्यायैरसद्भावेनार्पितः, एकदेशश् चोभाभ्यामेककालेऽर्पित इति अकुम्भश्चावक्तव्यश्चेति [भवतीति । अथवैकदेशः स्वपर्यायैः सद्भावेनार्पितः एकदेशश्च परपर्यायैरसद्भावेनार्पितः, एकदेशश्चीभाभ्यामेककालेऽर्पितो ] भवतीति कुम्भा कुम्भाऽवक्तव्योभयरूपादिभेदोऽसौ इत्यादि ग्रहणात् सप्तभङ्गी । एतस्यां सप्तभङ्ग्यां शब्दनयो यथाविवक्षं कञ्चिदेकं भङ्गमिच्छति, नयत्वात् । स्याद्वादस्तु सर्वनयसामग्र्यात्मकः सप्तभङ्गी मिच्छति । एवं तावत् प्रत्युत्पन्नमविशेषितमृजुसूत्रस्य तदेव विशेषिततरं शब्दस्येत्युक्तम् ॥२७०३॥ इदानीं लिङ्गवचनाऽविशिष्टं वस्तु ऋजुसूत्रमतं शब्दस्य विशेषिततरं समानलिङ्गसमानवचनपर्यायं शब्दस्येत्याख्यायते— वत्थुमविसेसतो व जं भिष्णाभिष्णलिंगवयणं पि । इच्छति रिजुमुत्तणयो विसेसिततरं तयं सदा ||२७०४|| वत्थु० गाहा । गतार्था ||२७०४ ॥ घणिभेतातो भेतो "थी पुंलिंगाभिप्राणवचाणं | कुंभाणं व जतो तेणाभिष्णत्थमिद्धं तं ॥ २७०५ ॥ धणिता ० गाहा । एका स्त्री दारा इति पुंल्लिङ्गेन बहुवचनेन ऋजुसूत्रस्यैक एवार्थः, शब्दनयस्य तु भिन्नार्थमेतदुभयम् भिन्नलिङ्गशब्दत्वात्, स्त्री कुम्भवत्, पटकुम्भवत् । तेनाभिन्नार्थमिष्यते घट - कुट-कुम्भवत् समानलिङ्गत्वात् ॥ २७०५ ।। तो भावो च्चिय वत्थं विसेसितमभिण्णलिंगत्रयणं च । बहुपज्जायं पि मतं सत्यवसेण सदस्य || २७०६॥ तो भावो च्चिय वत्युं गाहा । बहुपर्यायमेव वस्तु अभिन्नलिङ्गवचनत्वात् इन्द्रशक पुरन्दरवत् एवं शब्दनयः || २७०६ ॥ • 'तो जे जे । २ वैसे जे पुल्लित । ५ कुम्भा । ६ भा Jain Educationa International त । ३ सद्धो हे । ४ स्थपुंलिङ्गा' हे । त्थी को । हे । For Personal and Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ विशेषावश्यकभाष्ये. [नि० ५४१ एतदनन्तरं समभिरूढनय उच्यते । तस्य व्युत्पत्ति:---- जं जं सणं भासति तं तं चिय समभिरोहते जम्हा । __ सणंतरत्थविमुहो ततो गयो' समभिरूढो त्ति ॥२७०७॥ जं जं सणं गाहा । यां यां संज्ञां भाष्य(प) ते तामेव यस्मात् समभिरोहति समन्तादाभिमुख्येन रोहति समध्यास्ते, नान्यत् किञ्चिदपेक्ष्यते, यच्छन्द आह तदेव प्रमाणमिति संज्ञान्तरार्थविमुखः, यद्यनभिहितमपि तदानीं शब्देन गम्यते, एवमेकैकेन शब्देन सर्वशब्दार्थाभिधानं स्यादिति अनर्थकमन्यशब्दोपादानम् । न च गम्यते, प्रत्यक्षादिदुष्टत्वात् । तस्मादन्वर्थोऽयं समभिरूढ इति संज्ञाशब्दो नयस्य ॥२७०७॥ दव्वं पज्जाओ वा वत्थु वयणंतराभिधेयं जं । ण तदण्णवत्थुभावं संकमते संकरो मा भू ॥२७०८।। दव्वं गाहा। गत ॥२७०८।। शताधा ण हि सतरवच्चं वत्थं सदंतरत्थतामेति । संसयविवज्जएगत्तसंकरातिप्पसंगातो ॥२७०९।। ण हि गाहा । स्पष्टार्था ॥२७०९॥ घडकुडसंहस्थाणं जुत्तो भेदोऽभिधाण भेतादो। घडपडसइत्याण व ततो ण पज्जायत्रयणं ति ॥२७१०॥ घडकुड० गाहा । घट-कुटशब्दो भिन्नार्थों, स्वयं भिन्नत्वात्, घट-पटशब्दादिवत् । तस्मान्न पर्यायवचनमेकस्यार्थस्य, प्रत्यर्थं शब्दनिवेशात, प्रतिशब्दमर्थ इति ॥२७१०॥ धणिभेदातो भेदो]मतो जति लिंगवयणभिण्णाणं । घडपडवच्चाणं पिव घडकुडवच्चा[१७८-द्वि०]ण किमणि ॥२७११॥ धणिभेदा० गाहा । समभिरूढनयः शब्दनयमुपालभते-यदि लिङ्गवचनभेदादर्थभेद इष्यते त्वया, ननु शब्दभेदेऽप्यर्थभेदो युक्तः प्रतिवक्तुम् , तथा च प्रमाणम् - घटकुटशब्दो भिन्नार्थी, भिन्नस्वरूपत्वात्, स्त्रीरिङ्ग पुल्लिङ्गशब्दत्वात् ।। सूत्रं चास्य "वत्थूओ." [नि० ५४१] गाहदम् ॥२७११॥ १ तओ हे । २ डकुम्भत्था त । ३ भेयाण को । ४ मेए त । ५ जह को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५४१] उपोद्घाते नयद्वारम् । ५२३ तस्माद् वसति-प्रस्थक-प्रदेशदृष्टान्तप्ररूपणाऽन्यथा नैगमादीनाम्, अन्यथा चाऽस्येति निरूप्यते आकासे वसति ति य भणिते भणति कधमण्णमण्णम्मि । मोत्तणायसभावं वसेज्ज वत्थं विधम्म पि ॥२७१२।। वत्थु वसति सभावे सत्तातो चेतणा व जीवम्मि। ण विलक्खणत्तणातो भिण्णे छायातवे चेव ॥२७१३।। आकासे वसति त्ति येत्यादि । वत्थु वसति सभाव इत्यादि । आकासे वसति देवदत्त इति शब्दनयेन यदुच्यते तन्ने घटते वस्तुसंक्रमाभावात् । कथमन्यदेवदत्तजीवद्रव्यं अन्यस्मिन्नैव वस्तुन्याकाशे वसेतू, विधर्मत्वात्-अनयोर्वस्तुनोश्वेतनाचेतनधर्मत्वात् । अतः सर्व वस्तु स्वात्मनि स्वभावे वसति, न परभावे, स्वामाधारं यथाकाशम् । एवं वस्तुत्वात् सर्ववस्तूनीति । प्रमाणमपि-सर्व वस्तु स्वभावे वसति आधाराधेययोरनन्तरत्वात, यथा चेतना जीवे वसतीति । यत् यस्मिन्न वसति तत्राऽनन्तरत्वमपि नास्ति, यथा छाया आतपे, आतपो वा छायायामिति वैधात् दृष्टान्तः ॥२७१२-१३॥ तथा प्रस्थकः काष्ठमयं भाजनं मानमिनि विरुध्यते, सामानाधिकरण्याभावात्माणं पमाणमिटूढं णाणसभावो स जीवतोऽणण्णो । 'किंध पत्थयातिभावं वयेज्ज मुत्तादिरूवं सो ॥२७१४॥ ण हि पत्थातिपमाणं घडो व्वं भुवि चेतणातिविरहातो । केवलमिव तण्णाणं पमाणमिट्ठं परिच्छेदो ॥२७१५॥ पत्यादयो वि तक्कारणं ति माणं मती ण तं तेसु । जमसंतेसु वि बुद्धी कासति संतेसु वि ण बुद्धी ॥२७१६॥ तकारणं ति वा जति पमाणेमिटं ततो पमेयं पि । सव्वं पमाणमेवं किमप्पमाण पमाणं च ॥२७१७॥ माणं पमाणमिटुं इत्यादि गाथाचतुष्टयम् । मीयतेऽनेनेति मानं प्रमाणं ज्ञान(नं) विनिश्चय इत्यर्थः । तच्च जीवादनन्यत्वा द] मूर्त कथमिव मूर्तेन दारुमयेन प्रस्थकेन सह सामानाधिकरण्यं प्रतिपद्येत प्रस्थको मानमिति, वस्त्वसंक्रमात् । १ किह अन्न को हे। २ वत्थू को। ३ 'म्मि मि को हे त। ४ शन्देनयेन-इति प्रतौ । ५ तेन-इति प्रतौ । ६ कह को हे त । ७ व को । ८ 'मिध जे। ९ तन्ना' को हे। १० पच्छाद त । ११ गसिद्धं हे । १२ मेयं त । १३ वा को हे। ६६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ विशेषावश्यकभाष्ये नि० ५४१अयं प्रयोगः-अयमतीतनयानां प्रस्थादि च मानं न भवति, चेतनारहितत्वात् घटवल्लोष्टवद्वा, वैधhण केवलज्ञानं मानम्. सर्वनयाभिमतत्वादेकान्तपरिच्छेदसामर्थ्यात् । अथ यात्-प्रस्थादयो मानम्, मानकारणत्वात् , जीववत् । तच्च न यतः प्रस्थके सत्यपि पूर्व परिकल्पिते तज्ज्ञानं न भवति, असत्यपि च कस्यचिद्भवतीत्यव्यापकत्वादव्यापकासिद्धः । अथवाऽभ्युपगम्यापि तत्कारणत्वम् - अनैकान्तिको हेतुः, अमानेऽपि प्रमेये तत्कारणत्वं दृष्टमिति । तस्मात् सर्वमेव त्रैलोक्यं मानमिति न किञ्चिदुक्तमिति ॥२७१४-१७॥ देसी चेव य देसो णो वत्थु वा ण वत्थुणो भिण्णो । भिण्णो व ण तस्स तओ तस्स व जति तो' ण सो भिण्णो ॥२७१८॥ देसी गाहा । धर्मास्तिकायादीनां देशकल्पनया समभिरूढनयस्य द्वन्द्वसमासो वा कर्मधारयसमासो वाऽभीष्टसंज्ञान्तरेऽप्युपात्तस्येति वचनात्, पर्यायशब्दानामपि द्वन्द्वसमासोऽनान्तरत्वात् , तत्पुरुषसमासं व्यधिकरणत्वान्नेच्छति । तस्मादेशिनो देश इति अपप्रयोगः । देशव्यतिरेकेण देशस्याऽभावाद्देशमन्तरेण च देशिनोऽभावात् एकमेवेदं वस्तु देशी देशश्चेति । अथ पुनर्भेदोऽभ्युपगम्यते देशिनो देश इति । एवं न 'तस्यासौ' इति युक्तं वक्तुम्, भिन्नत्वात् , आकाशस्येव रूपम् । अथ 'तस्यासो' इति भण्यते तर्हि [न] भिन्नः 'तस्य' इति व्यपदिश्यमानत्वात्, आकाशावगाहवत् जीवोपयोगवदित्यादि । ननु च देवदत्तस्याश्वः, राज्ञः पुरुष इत्यादिनाऽनैकान्तिकः । उच्यते-सर्वमेतदस्य नयस्य प्रतिज्ञान्तर्गतमेवेति नाऽनैकान्तिकः ॥२७१८॥ एत्तो च्चेय समाणाधिकरणता जुज्जते पदाणं पि । णीलप्प[१७९-०]लातियाणं ण राजपुरिसातिसंसग्गा ॥२७१९॥ ___एतो च्चेय गाहा । अत एव सर्वपदानां समानाधिकरणमे मिष्यते, नीलोत्पलादिपदवत्, न व्यधिकरणता, राजपुरुषवदित्यादि संसर्गाभावादिति ॥२७१९|| घडकारविवक्खाए कत्तुरणत्यंतरं जतो किरिया । ण तदत्यंतरभूते समवाओ तो मतो तीसे ॥२७२०॥ कुंभम्मि वत्थुपज्जायसंकरादिप्पसंगदोसातो । जो जेण जं च कुरुते तेणाभिष्णन्तयं सव्वं ॥२७२१॥ १ ते त । २ "मासान -इति प्रतौ । ३ स्यानावा -इति प्रतौ । ४ प्रतिज्ञाते भूतेगंतमेभेति-इति-प्रतौ । ५ चेव को हे त । ६ राइपु त । ७ 'सग्गो को हे त। ८ व को हे । ९ 'भिन्न त° को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२५ नि० ५४१] . उपोद्घाते नयद्वारम् । घडकारविश्वखा० इत्यादि । कुम्भं करोतीत्येतस्यां विवक्षायां कर्तुः कुम्भकारादनन्तरं क्रियेति तक्रियासमाविष्टेन तक्रियासमवायिनि कर्तरि कारक इत्येव व्यपदेशो युक्तः कुर्दन् कर्ता कारक इति । कुम्भनाच्च कुम्भो भवतु मा भूत् कुम्भकारः, अर्थान्तरभूते कुम्भे तक्रियासमवायाभावात् । यदि पुनः कुम्भेऽपि सा क्रिया, कतैर्यपि, ततो वस्तुपर्यायसंकरादिदोषाः स्युरिति । अतो यः करोति, येन करोमि, यच्च करोति, तत् सर्वमेकम्, एकक्रियाऽऽविष्टत्वात् । समभिरूढो नयः ॥२७२०-२१॥ एतदनन्तरमेवंभूतनय उच्यते । तस्य सूत्रं "वंजणअत्थ तदुभयं एवंभूतो विसेसेइ' [नि० ५४१] अस्य भाष्यम् एवं जध सहत्थो संतो भूतो तदेण्णधाभूतो । तेणेवंभूतणयो सहत्थपरो विसेसेणं ॥२७२२॥ एवं जध सहत्थो गाहा । एवंशब्दो यथाशब्दस्यार्थे द्रष्टव्यः । भूतशब्दः सत्पर्यायव चनः । एतन्मतादन्यथा असंज्ञैव प्राप्नोति । एवम्भूतो विद्यमानोऽन्यथा अभूत एवेति शब्दार्थपरो विशेषेण ॥२७२२॥ वंजणमत्थेणत्थं च वंजणेणोभयं विसेसेइ ।। जध घडसई चेट्टावता तथा तं पि तेणेव ॥२७२३।। वंजण गाहा । व्यज्यतेऽनेन व्यनक्तीति वा व्यञ्जनं शब्दः । तद् व्यञ्जनमर्थन विशेषयति, अर्थ च व्यञ्जनेनान्वर्थत्वात् , घट चेष्टायामिति । यथा चेष्टा(ष्ट)या घ.शब्दं विशेषयति, एवं घटशब्देनापि चेष्टां न स्थानभरणादिक्रियामिति ॥२७२३।। यतः-- सवसाद भिधेयं तप्पच्चयतो पदीवकुम्भी व्य । संसयविवज्जयेगत्तसंकरादिप्पसंगो वा ॥२७२४॥ सदवसा० गाहा । शब्दो व्यञ्जनं प्रकाशनमिति शब्दशादर्थः तत्प्रत्ययत्वात् प्रदीपवत् कुम्भवद् वा, अन्यथा संशय-विपर्ययैकत्व-सङ्करादयः प्रसज्येरन् । यदि दीपनक्रियारहितोऽपि दीप उच्यते, दीपशब्द उच्चरिते घटे दीपे वा प्रत्यय इति संशयः, घ2 एव वा न दीप इति विपर्ययः, घट इत्युक्ते दीप इति, दीप इत्युक्तेऽपि घट इति एकत्वम् , अतश्च सङ्करोऽपीति ॥२७२४॥ १°क्षा क' इति प्रतौ । २ तहण्ण त । ३ णेवं त । । "कुंभो को। ५ °संगाओ हे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५४१ अपि च त्वन्मतेनापि-- सद्दपरिणामतो जति घडकुडसत्यभेदपडिवत्ती । तो णिच्चेट्टो वि कधं घडसदत्यो घडोभिमतो ॥२७२५॥ सहपरिणाम गाहा । चेष्टारहितस्तिष्ठन् घटः पटो न भवेत, तच्छन्दार्थरहितत्वात्, कुटशब्दवाच्यार्थवत् ॥२७२५॥ जति वत्थुसंकमी वा 'गिट्ठो चेहावतो वि संन्ती । __तो ण हि 'णिच्चेट्टतया जुत्ता हागी व समतस्स ॥२७२६॥ जति वत्थु० गाहा । निश्चष्टो न स्यात् , चेष्टातो वस्त्वन्तरत्वात्, आकाशवत् । अथाचेष्टोऽपि चेष्टया भण्येते(त), एवं तर्हि स्वमतहानिः अभ्युपगमविरोध इत्यर्थः, "वत्थूओ संकमणं होइ अवत्थु णए समभिरूढे [नि० ५४१] ॥२७२६॥ एवं जीवं जीवो संसारी पाणधारणाणु[१७९-द्वि०] भवो । सिद्धो पुणर्रज्जीवो जीवणपरिणामरहितो त्ति ॥२७२७॥ एवं जीवं जीवो गाहा । स्फुटायी ॥२७२७|| यच्चोच्यते प्रौढवादिना त्वया देशिदेशयोः कर्मधारयः समास इति अभेदा. तयोरिति, तत्रापि बहुतरदोषप्रसङ्ग इति जति देसि चिय देसो पत्ता पन्जायवयणपडिवत्ती । पुणरुत्तमंणत्थं वत्थुसंकमो वा ण ये? ते ॥२७२८॥ जति देसि च्चिय गाहा । देशी चाऽसौ देशवेति ययेकमेवेदं वस्तु पर्यायवच. नत्वं प्राप्तम् , घटकुम्भवत् , पुनरुक्तं वा, अनर्थकं वा, वस्तुसंक्रमो वा, न चैतदिष्टम् । तस्माद्भेदोऽभ्युपगन्तव्यः ॥२७२८॥ ___ स चापि सदोष एव-- अध भिण्णो तस्स तओ ण होति ण य वत्थुसंकमभयातो । देसी चेव य देसो ण वा पतेसी पदेसो त्ति ॥२७२९।। अथ भिण्णो इत्यादि । देशिनो देशो न स्यात् , अत्यन्तभिन्नत्वात् , गवाश्ववत् । न च वस्तुसङ्क्रमादिभयाद[न]न्यत्वभिप्यते । तस्मादेशिमात्रं देशमात्रं वा वस्तु, समासो नेष्यत एव । यथा देशयोरेवं प्रदेशयोरपीति, तुल्यविचारत्वात् । एवं तर्हि संव्यवहारार्थमवश्यं वाक्प्रयोगः कर्तव्य इति नोदेशी नोदेश इति वा भवतु | १ नेहा को । २ चिट्ठा हे । ३ य को हे त। ५ संकंती को । ५ निच्चिद्व हे ६ रजीवो हे । ७ वर्ष हे त । ८ °हिउ को हे । ९ °त्तमाण हे । १० चेटुं को हे चिटुंतो त। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५४२] उपोद्घाते नयद्वारम् । ५२७ अवश्यं हि समस्तोपनीतानां देशविशेषकल्पनया भवितव्यमिति 'नो' त देशविशेपे, प्रतिपेधोऽन्यः, स्वपरयोगादपि(दिति) ॥२७२९।। तदपि न, यस्मात्-- गोसदो वि समत्तं देस व भणेज्ज' जति समत्तं तो । तस्स पयोगोऽणत्थो अध देसो तो ण सो वत्थु ॥२७३०॥ णोसदो वि गाहा । यदि नोशब्दः समस्तं वस्त्वभिदध्यात् , तस्य प्रयोगोऽनर्थकः, तेनैव स्वाभिधानेनाभिहितत्वात् । अव(थ) देश ब्रूयात् ततस्तदवस्तु, असं. पूर्णत्वात् , तदेकदेशवत् ॥२७३०॥ ___ एवमेव च कर्मधारयसमासवादिनः-- णीलुप्पलादिसदाधिकरणमेगं च जं मतं तत्थ । णणु पुणरुत्ताणत्थयसमयविधाता पुधत्तं वा ।।२७३१।। ___णीलुप्पलादि गाहा । अत्रापि त एव दोषाः पुनरुक्तत्वादय इति ।।२७३१॥ तो वत्थुसंकरातिप्पसंगतो सब्वमेव पडिपुण्णं । वत्थु सेसमवत्थु विलक्खणं खरविसाणं व ॥२७३२॥ तो वत्थु० गाहा । सर्वमेव सम्पूर्ण वस्तु, सम्पूर्णलक्षणत्वात् , जीवोपयोगवत् । अन्यदसम्पूर्णम् अवस्तु, विलक्षणत्वात् , खरविषाणवत् ॥२७३२।। अत्थप्पवरं सदोवसज्जणं वत्युमुज्जसुतंता । सद पधाणमत्थोवसज्जणं सेसया 'बेन्ति ॥२७३३॥ ___ अत्थप्पवर गाहा । गतार्था ॥२७३३।। इय णेगमातिसंखेवलकखणं मूलजातिभेतेणं । ऐतं चिय वित्थरतो विष्णेयं तप्पभेदाणं ॥२७३४॥ इय णेगमाति० गाहा । गतार्था ॥२७३४।।। एक्केको य [१८०-०]सतविधो सत्तणयसता हन्ति एमेते । अण्णो "विय आदेसो पंचसता होति तु णयाणं ।।५४२॥॥२७३५॥ एकेको य सतविधो गतार्था ॥२७३५।। जावं तो वयणपधा तावन्तो वा णया विसातो । ते चेव य परसमया सम्मत्तं समुदिता सव्वे ॥२७३६।। १ भणिज्ज हे । २ वत्त्थु को। ३ मुज्जुसु को हे त । ४ वेंति को, बिति हे। ५ एवं को हे। ६ भेएणं को हे। ७ इकिको हे। ८ हति है दी हा म। ९ °मेव त हे दो हा, एव तु म। १० चिय जे । ११ पंचेव सय नयाणं तु दी हा को हे त । १२ हुति म। १३ वन्तो को हे । १४ तावन्त को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावकभाष्ये [नि० ५४२ 1 जावतो वयण० गाहा । " अण्णो वि य आदेसो ।" [ नि०५४२ ] इत्यत्र - अपि शब्दान्न सप्तैव नयशतानि न वा पञ्चैव परिमितानि अपि शब्दादेतदुक्तं भवतियावन्तो वचनमार्गाः तावन्न एवं नयाः यावन्तश्च नयाः तावन्त एव परसमयाः । तत्र सर्वेऽपि परमया समुदायात् सम्यात्वं भजन्ते स्याद्वादशासनमित्यर्थः ॥ २७३६॥ 1 ५२८ एतदसहमानः कश्चिदाह ण समेति ण य समेता सम्मतं विय वत्थूणो गंगा । विधाता य णया विरोधतो वरिणो वेअ || २७३७॥ ण समेन्तीत्यादि । न समवयन्ति नया इति प्रतिज्ञा, परस्परविरुद्वत्वात्, वैरिण इव । समवायमभ्युपगम्यापि समत्रेता अपि न सम्यक्त्वं भजन्ते, न वा वस्तुनो गमकाः, वस्तुविघातायैव नया त्रयाणामपि पक्षाणां तावेव हेतुदृष्टान्तौविरुद्धत्वात् वैरिण इति ॥२७३७|| एतदनैकान्तिकख्यापनायाह - सच्चे समेन्ति सम्मं वेगवसातो गया विरुद्धा वि । भिच्चत्रवहारिणो इव रायोदासीणवसवत्ती ॥२८३८॥ देसगमणत्तणातो गर्मेये चिचयवत्थूणां सुतादि व्य । सव्वे पत्ता केवलमिव सम्मभावम् || २७३२९ ।। सच्चे समेन्तीत्यादि । न समयन्ति नया इति को विपक्षः ? येषां समवायोऽस्ति । तयथा व्यवहारदर्शि राजसमीपे अर्थव्यवहारिगां समवायोऽस्ति तेषु चविरुद्रत्वमदृष्टमित्यनैकान्तिकः । ते च तेन राज्ञा उदासीनेन वा सम्यग्व्यवहारदशनाद् भूतार्थं प्रतिपद्यमानाः सम्यक्त्वमपि भजन्त इति । द्वितीयप्रतिज्ञायामप्यनैकान्तिकात्याबा परस्परविरुद्वा अपि राज्ञा वशित्यति कार्यन्ते तवान्तिकः । इहापि न येषु दान्तिकोऽर्थोऽपनयः - राजा ( राज्ञः इवोदासीनत्वात् स्याद्वादः, अर्थिप्रत्यर्थिन इव नयाः, राः सेवकवत् भृत्यवद्रा | ईवी - " अथ तृतीय प्रतिज्ञायाः प्रतिवचनं" विरुद्धाऽव्यभिचारितया प्रत्यनुमानम् -- वस्तुनो गमकाः नयाः, वस्तुदेशगमकत्वात् श्रुनादिवत् । यथा चत्वारि Jain Educationa International १ °ति को । २ तं नेव व को हे त । ३ मंगो त । ४ वेरिं को हे त । ५ यैव धान पात्र इति प्रतौ । ६ मेंति को, समयंति हे । ७ वेग त । ८ वा त । ९ विभिच्च त । १० 'मग' हे त । ११ मंग को हे त । १२ संम को, म्रम्म त । १३ “गमा त । १४ त्वाप्रीति का इति प्रतौ । १५ राजामेक नृत्य - इति प्रतौ । For Personal and Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૨૨ नि० ५४२] उपोद्घाते नयद्वारम् छमस्थज्ञानानि देशगमकत्वेऽपि वस्तुपरिच्छेदकानि, तथा नया इति । सर्वे समस्तवस्तुगमकाः, अपाकृतप्रतिबधत्वात , वे वलदत् । नयानामितराऽपेक्षाऽभावो दोष इति ज्ञानप्रतिबन्धः । समस्तसमुदाये तदितरसापेक्षत्वात् प्रतिबन्धाभावः । स्वमतसम्भवाच्च सर्वगुणोपसंग्रहः । अपाक्ष(कृतप्रतिबन्धत्वं च सम्यक्त्वमिति ॥२७३८-३९।। अयैवं देशगमकत्वे सति कथं प्रत्येकं मिथ्यादृष्टयो नया इत्युच्यन्ते -- जमणेगधम्मणो वत्थूणो तदंसे वि सव्वपडिवत्ती। अंध व्व गयावयवे तो मिच्छदिहिणो वीमुं ॥२७४०।। जमणेग० गाहा । विश्वग् मिथ्यादृष्टयो न्याः, अनेकधर्मणो वस्तुनोऽशेऽपि सकलवस्तुप्रतिपत्तेः, गजैकावयवस्पर्शनोपजातसमरतहस्तिविज्ञानान्धवत् ॥२७४०॥ ____एतद्वैपरीत्येन च सम्यक्त्वम् -- .. जं पुण समत्तपज्जायवत्थुगमयन्ति समुदिता तेण । सम्मत्तं चक्खुमतो सव्वगयावयवगहणे व ॥२७४१।। जं पुण गाहा । त एव समुदिताः नयाः सम्यग्दृष्टयः, सकलपर्यायसंग्राहित्वात् समस्तरा(ग)जावयवग्रहणपूर्वक समस्तगजविज्ञानचक्षुप्मापुरुषवत् । पुनरपि दृष्टान्तिा]न्तरप्रदर्शनं सुखप्रतिपत्त्यर्थम् । स्याद्वादस्य च सर्वस्यापि(सर्वस्वामित्वदर्शनार्थम् ॥२७४१॥ ण समत्तवत्थुगमया वीमुं रतणावलीऐ मणेयो व्व ।। सहिता समत्तग[१८०-द्वि०]मया मणयो रतणावली, व्य ॥२७४२।। ण समत्त० गाहा । न समस्तवस्तुगमकाः पृथग्भूताः नयाः, परस्परनिरपेक्षत्वात् पृथस्थितरत्नावलीव्यपदेशाऽनर्ह मणय इव । त एव च समुदिताः समस्तलाभिनः, यथास्थानविनियोगपरस्परसापेक्षत्वात् , एकसूत्रप्रतिब-धरचनावस्थितरत्नावलीमणय इव ।।२७४२॥ अस्यैवोपसंहारगाथा । एवं सविसयसच्चे परविसयपरम्मुहे णेए णातुं । जेएसु ण सम्मुज्झति ण य समयासादणं कुणति ॥२७४३।। एवं सविसय० गाहा । स्फुटार्था ॥२७४३।। १ ने, नोमितरपे-इति प्रतौ। २ धम्मुगो त । ३ च हे । ४ अन्ध हे । ५ वीस हे। ६ °मगनित्त को हे, मगन्ति त । ७ तेणं को हे । ८ "हणि त । ९ ले ण त । १० मणउ को हे, त । ११ महि त । १२ लीओ। १३ मण वयवत इति प्रतौ । १४ परंमु को परंमुह हे । १५ तए हे। १६ संमु को है। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० विशेषावश्यकभाष्ये अत्थं जो ण समेक्खति णिकखेवणयप्पमाणतो विधिणा । तस्माजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं व पडिभाति || २७४४॥ अत्थ जो गाहा । निक्षेपैर्नामस्थापनादिभिः, प्रमाणैर्मतिज्ञानादिभिः, विधिना निर्देशः- सदाद्यनुयोगद्वारैश्च योऽर्थान् समीक्षते स सम्यग्वादी, सकलवस्तु संप्राहित्वात् । यः पुनरेवं न समीक्षते स विपरीतग्राहित्वान्मिथ्यावादी । यस्मात्तस्य 'अयुक्तम्' एकान्तनयमतं युक्तवत् प्रतिभाति, युक्तं च सर्वनयापेक्षस्याद्वादरूपमयुक्तं प्रतिभाति पित्ताभिभूतस्य क्षीरकटुकत्ववत् ॥२७४४॥ परसमए गणयमतं तप्पडिवक्खणयतो णियत्तेज्ज । समए व परिग्गहितं परेण जं दोसबुद्धीए || २७४२ ।। [अस्या गाथाया व्याख्या प्रतौ नोपलभ्यते । ] । २७४५॥ एते हि दिविते परूवणा सुत्तअत्यधणाय । इह पुण अवगम अधिकारो "तीहि उस्सैणं ।। ५४३ || २७४६ || एते हि दिट्टि० गाहा । एतैर्नैगमादिभिः सप्तभिः प्रभेदैः दृष्टिवादे सर्ववस्तुप्ररूपणा, सूत्रार्थकथनं च । इह पुनः कीलिकसूत्रे नाभ्युपगमो नावश्यं नर्यैरेव सूत्रव्याख्या कर्त्तव्या, किन्तु संमूढमेव यथा सुखमवतारयितव्याः श्रोत्रपेक्षं, तत्रापि प्रायस्त्रिभिरेवाधैरधिकार आदर इत्यर्थः । उत्सन्नशब्दः प्रायशः शब्दार्थे ॥२७४६॥ एतस्यैवार्थस्य भाष्यगाथा - पायं संववहारो ववहारंतेहि तीहि ' जं लोए । तेण परिकम्मणत्थं कालियसुत्ते तदधिकारो ॥२७४७|| पायं संववहारो इत्यादि गतार्था || २७४७॥ किं पुनरेवं प्र[त्या]ख्याय नयाधिकारं पुनस्त्रिनयपरिग्रहः ! उच्यते । यस्मात् - णत्थि एहि विणं सुत्तं अत्थो ये जिणमते किंचि । आसज्ज तु सोतारं गए णयविसारतो या ||५४४|| २७४८|| [नि० ५४३ 10 णत्थि गाहा । नयविरहितं सूत्रमर्थो वा नैवास्ति जिनमते । सर्वनयानुयो - गाव्याख्यानं सामस्त्येन सम्प्रतिकाले वक्तुमशक्यमाचार्येण न वा शिष्येण प्रहीतुं Jain Educationa International १ 'मिवख को हे त । २ निवत्तेज्जा को हे । ३ एएहि को हे दी हा म । ४ कहा ए को है । ५ तहि त, तीहिं को हे म, तीहि उ दोहा । ६ भोस को हे म दी हा त । ७ कालोनस इति प्रतौ । ८ तेहि को । ९ तिद्दि य को, तिहि य है, तेहि यत । १० एहि को हे । ११ व दो हा म । १२ छूया त । For Personal and Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५४५ उपोद्घाते समवतारद्वारम् । यथार्थं शक्येत, तस्मात् नयत्रयपरिग्रहेणाचार्यः प्रवक्तुं शक्तः, शिष्योऽयवधारयितुम् , लोक-शास्त्रान्तरसंवादात् ॥२७४८॥ कदाचित् पुनर्विचित्रक्षयोपशमविशेषापेक्षः कश्चित् सर्वनयमतपरिणमनसम. र्थोऽपि स्यात् , तं प्रति---- - भासेज्न' वित्थरेण वि णयमतपरिणामणासमत्थम्मि । तदसत्ते परिकम्मणमेगण एणं पि वा कुज्जा ।।२७४९॥ भासेज्ज गाहा । असमर्थे पुनः श्रोतरि नावश्यं नयत्र[य]परिग्रह एव, किन्तु नयबुद्धिपरिकर्मणमात्रमेकनयेनापि प्रज्ञापनां कुर्यात् । नयद्वारं समाप्तम् ॥२७४९।। नयद्वारानन्तरं समवतारद्वारस्यावसर इति कै(क्वै)तेषां नयानामवतारः, क्व वाऽवताराऽसंभवः ? इति विभागेन दर्यते मूढणइयं सुतं कालियं तु ण [१८१-प्र०]णया समोतरंतीधं । ' अपुत्ते समोतारो णत्थि पुर्धत्ते समोतारो ॥५४५॥२७५०॥ अविभागत्या मूढा णय त्ति मूढणइयं मुतं तेण । ण समोतरंन्ति संता" वि पैडिपदं जैण्ण भण्णन्ति ॥२७५१॥ मूढणइयं गाहा । अविभाग० गाहा । मूढाः नया यस्मिंस्तद् मूढनयम् , “अल्पे" "हस्वे" "संज्ञायाम्" । [पाणि० ५।३।८५-८६-८७] कनि मूढनयकम् । अथवा मूढाः-अविभागस्थिताः सम्मुग्धा इत्यर्थः-मूढनयाः, ते यस्मिन् विद्यन्ते “अत इनि-टनों" (पाणि० ५।२।११५] मूढनयिकं श्रुतम् । कालि कमिति काल(ले)-पौरुपीद्वये कालग्रहणविधिना शुढे-पठ्यत इति कालिकम् , काटः प्रयोजनमस्येतिवत् । यस्मिन्नया न समवतरन्ति-प्रतिपदं न भण्यन्त इत्यर्थः ॥२७५० - ५१।। क पुनरवतार एषाम् ? इत्याह-अपृथक्त्वे । किं पुनरपृथक्यम् ! इत्यतो गाथाअपुर्धत्तमेगभागो" सुत्ते सुत्ते सवित्थरं जत्थ । भण्णंतणुयोगा चरण-धम्म-संखाण दव्याणं ।।२७५२।। १ भासिन हे । एषा गाथा कोटीकायां न मुदिता किन्तु तस्याः प्रतीक तु टीकायामस्त्येव । २ रन यस्या इति प्रती । ३ रब्धवाव' इति प्रतौ। ५ तु नया हे। ५ ति इहं को हे दी हा म । ६ पुहुत्ते को दी हा, पुति म । ७ पुहुने को हे दी हा म। ८ तेणं को। ९ रंति हे। १.ताप को हे। ११ पहा को हे । १२ जं न को हे । १३ भण' हे । १४ पुदुत्त' को। १५ भावो को हे त। १६ तभोणु त। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५४५अपुधत्त० गाहा । पृथगिति निपातो विभागेवाची । तस्य नत्रा प्रतिषेधाद् अपृथग्भावः एकत्वम् --अविभाग इत्यर्थः । केषामविभागः ! इति चेत् , उच्यतेचरण-धर्म-संख्या-द्रव्यानुयोगानां चतुर्णामपि प्रतिसूत्रमविभागेन-विस्तराभावात्-सर्वमेव सूत्रं चतुरनुयोगात्मकम् , लक्षण-विधानाभ्यामवबद्धत्वात् । लक्षणं सामान्य-विशेपाभ्याम् । सामान्य लक्षणं सर्वत्रानुप्रवृत्तेर्नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतः द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैर्वा निक्षेपात् , निर्देश-स्वामित्व-साधनाऽधिकरण-स्थिति-विधानैः, सत्-संख्या-क्षेत्रस्पर्शन-कालाऽन्तर-भावाऽल्पबहुवैश्च । सत्पदं गतीन्द्रिय-काय-योग-वेद-कषायलेश्या-सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-संयमोपयोगाऽऽहारक-भाषक-परीत्त-पर्याप्त-सूक्ष्म-संज्ञि-भव्यचरमादिभिः । एवमनेक विध] सामान्यलक्षणम् । विशेषलक्षणं क्रिया-कारक-व्युत्पत्तिपर्यायकथन-वाक्यान्तरैः । एवं सर्वस्य सूत्रस्य सर्वात्मकत्वाद् दृष्टिवादेऽनुयोगानां पृथक्त्वम् व्यामिश्रत्वमेव वा चतुणामपि ॥२७५२।। तत्थेव णयाणं पि हु पतिवत्थु वित्थरेण सव्वेसि । 'देसेन्ति समोतारं गुरवो भयणा पुर्धत्तम्मि ॥२७५३॥ तत्थेव णयाणं गाहा । तत्रैव नयानां विस्तरेण विरोधाविरोधसम्भववचनविशेषादिना प्रपञ्चः समवतारः । सम्प्रति पृथक्त्वे तु भजनया पुरुषविशेषापेक्षमभिधानम् ॥२७५३॥ एगो चिय देसिज्जति जत्थणुयोगों ण सेसया तिण्णि । संता वि तं पुधत्तं तत्थ गया पुरिसमासज्ज ॥२७५४।। एगो च्चिय गाहा । यत्रैक एवानुयोगः प्राधान्येन निर्दिश्यते, सन्तोऽपि शेपास्त्र नो नाभिधीयन्ते महार्थ(थ)तया दुर्ग्राह्यत्वात्, तदनुयोगविभागकरणात् पृथक्वम्, तत्र नयानाम[न वतार: “ण णया समोतरंतीध" (नि०५४५] इति वचनात् 'इध' इति अस्मिन् पृथक्वे । ननु पश्चार्द्ध गाथायाः पुनरभिधानम्-“तिथ पुधत्ते समोतारो।" [नि ०५ ४५]त्ति किमर्थमुच्यते ? सम्यग्दर्शनरत्नात्यागार्थं कुदृष्टिविटहासात् । आदरार्थं पुनरुक्तमदोपाय । उक्तं च "अनुवादाऽऽदर-वीप्सा-भृशार्थ-विनियोग हेत्वसूयासु । ईषत्सम्भ्रम-विस्मय-गणना-स्मरणेप्वपुनरुक्तम्" [ ] ॥२७५४।। १ विभागभावी-इति प्रतौ । २ देसिति को हे । ३ पुहुर्त को। ५ °णुभोगे को। ५ सन्ता हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५४६] उपोद्घाते समवतारद्वारे अनुयोगपृथक्करणचर्चा । ५३३ जावन्ति अज्जवेरा अपुर्धत्तं कालियाणुयोगस्स । तेणारेण पुधत्तं कालियसुते दिडिवाते य ॥५४६॥२७५५।। अपुधत्तमासि "वेरा जावन्ति पुर्धत्तमारतोभिहिते । के ते आसि कता वा पसंगतो तेसि उप्पत्ती ? ॥२७५६।। "तुम्बवणसण्णिवेसातो णिग्गतं पिउसमैग्गमल्लीणं । छम्मासि छसु जतं मातूय समण्णितं वन्दे ॥५४७॥२७५७।। जो गुज्झएहि" वालो" [१८१-द्वि०]णिमंतितो" भोयणेण वासंते । णेच्छति विणीतविणतो तं वइरिसिं णमंसामि ॥५४८॥२७५८॥ उज्जेगीए जो जमएहि आणैक्खि ऊग थुतमहितो। अक्खीणमहाणसियं सीहगिरिपसंसित वन्दे ॥५४९।।२७५९।। जस्स अणुण्णाते वायगत्तणे दसपुरैम्मि णगैरे म्मि । देवेहि कता महिमा पदाणुसारि णमंसामि ।।५५०।२७६०॥ जो कगाये धणेण य णिमन्तितो "जोव्वर्गम्मि गवतिणा । णगरम्मि कुसुमणामे तं वइररिसिं णमंसामि ॥५५१॥२७६१॥ जेणुद्धरिता विज्जा आगासगमा महापरिणातो। वन्दामि अज्जवइरं अपच्छिमो जो सुतघराणं ॥५५२।।२७६२॥ भणति य आभिण्डेजा जंबुद्दीवं इमा, विज्जाए । गंतूण माणुसणगं विज्जाए एस में" विसयो ॥५५॥२७६३।। १ वंति को हे दी हा, वंत म। २ वइरा को हे दी हा म त । ३ पुहुत्तं को दो हा म । ४ पुहुत्त को दी हा म। ५ 'सुइ म । ६ पुहुत्त को। ७ वइरा को हे । ८ पुहुत्तं को। ९ सिमुष्प को, त, 'सिमुप्पपत्ती हे। १. "तुम्बवण.''इत्यादिका नियुक्तिगाथाः सुगमास्ताश्च तावन्ने या यावदियमनन्तरवक्ष्यमाणा [२७६६] गाथा' इत्युल्लेखः तप्रतावस्ति । तथा "तुम्बवण." इत्यादि । एतच्चरितगाथाश्च सुगमाः...सभावार्थाः समव सेयास्तावत् यावदियं गाथा-"अपुहत्तेऽणु भोगो" मलधा. वृ० गा० २२८६ । तथा को मुद्रित पुस्तके अस्याः २७५७ गाथातः २०६५ पर्यन्ता नव गाथा भाष्यरूपा मुद्रिताः। ११ साउ म । १२ सगासम को दी हा म। १३ माऊइ म । १४ वंदे को दी हा म । १५ एहिं को दी हा म। १६ बालो को दी हा म। 19 मन्ति को। १८ जम्भगेहिं को, भगेहिं म । १९ आलक्खि० मु. नियुक्तौ पृ. १३७ । २० पुरमि दी हा। २१ रमि दी हा। २२ वहिं को दी म। २३ °णाइ को दी हा म। २४ मन्ति' को। २५ जुन्य को दी हा म। २६ मि दी हा। २७ गिह को दो हा म। २८ 'रमि हा । २९ वंदा को दी हा म। ३० आहिडिज्जा को दी हा म। ३१ माइ को दी हा म। ३२ गन्तुं च को दी हा म। ३३ विसभो मे दी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ४५४ भणति य वारयन्या ण हु दातव्या इमा मए विज्जा । अपिहिया ये मणुया होहिं न्ति अतो परं अण्णे ॥५५४॥२७६४।। माहेस्सरीतो सेसापुरियं णीता हुतासणगिहातो । गगणतलमतिवतित्ता वइरे[१८२-०]ण महाणुभागेगे ॥५५५।२७६५। अपुर्वत्त अणुयोगो चत्तारि दुबार भासती एक्को । पत्ताणुयोगकरणे ते अत्य ततो तु "वोडिण्णा ।।५५६॥२७६६।। किं वइरेहि "पुधत्तं कतभैध तदगंतरेहि भणितम्मि । तदणंतरेहिं तदभिहितगहितमुत्तत्थसारेहिं ॥२७६७।। "देविन्दवंदितेहि महाणुभागेहि रक्खितज्जेहि"। जुगमासज्ज विभत्तो अणुयोगो तो" कतो चतुधा ।।५५७।२७६८॥ जाता य रुइसोमा पिता य णामेण सोमदेवो ति। भाता य फग्गुरक्खित तोसलिपुत्ता य आयरिया॥५५८॥२७६९।। णिज्जभण भदगुत्ते वीमुं पढणं च तस्स पुधगतं । पच्यावितो य भाता रक्खितखमणेहि जणी य ॥५५९।।२७७०॥ णातूण रक्खितज्जो मतिमे हौधारणासमग्गं पि । किच्छेण धरेमाणं सुतण्णवं पूसमित्तं ति ॥२७७१।। अतिसयकतोवयोगो मतिमेधाधारणादिपरिहीणे । णातूणमेस्सैपुरिसे खेतं कालाणुभावं च ॥२७७२।। सागुग्गहोऽगुयोगे वीमुं कासी य सुतविभागणं । [१८२-द्वि०] सुहगहणादिणिमित्तं णए य सैणिगृहितविभाए ।।२७७३॥ १ धारे' को दी हा म। २ उ को दी हा म। ३ 'हिति को दी हा म। एषा २७६४तमा गाथा को प्रती भाप्यरूपा। ४ हसरी उ दी हा म । ५ 'गण दी हा म । इयं गाथा को प्रत्यां नास्ति । ६ पुहुत्ते को दो हा म। अणि को। ८ °सए को । ९ एगो को दी हा म । १, पुहुत्ता त । पुहुयाणु को म, पुहता हा। ११ यि त । १२ वोच्छि को, बुन्छि दी हा म, विच्छित । १३ रेहिं का हे । १४ पुहुत्तं को। १५ तमिध त १६ रेहिं का हे । १७ रेहिं को है। १८ दविंद को हे दी हाम। १९ 'दिएहि हा । २० भावेहि को है । भावहिं म । भावेहि त । भागेहि दी । २१ जेहिं को हे दी हा म । २२ ता म। २६ दवुत्ति को दी हा। एषा गाथा हे म प्रत्योर्नास्ति । २४ °ऊ नवग को। उजव ग दी हा। २. हि को, गहि हा, “खवहिं दी । एषा गाथा हे म प्रत्योनास्ति।२६ मेगा । २७ सुर्यको हे त । २८ तम्मि को दी हे त। २९ °ण सेस त। ३० गुरूयं को हे त । ३१ सुणि को हे त । ३२ भागो को त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६०] उपोद्घाते समवतारद्वारे निववादः । ___ ५३५ सविसयमसद्दहती णयाण तम्मत्ततं च गेण्हंता । मण्णंता य विरोधं अपरिणामातिपरिणामा ॥२७७४॥ गच्छेज्ज मा हु मिच्छं परिणामा य मुहुमातिवहुभेता । होज्जाऽसत्ता घेत्तुं ण कालिए तो णयविभागों ॥२७७५।। कालियसुतं च इसिभासिताई ततिया य "मुरपण्णत्ती ।। सव्वो य दिट्टिवातो चउत्थओ होती अणुयोगो ॥२७७६"। जं च महाकप्पसुतं जाणि य सेसौणि छेयमुत्ताणि । चरणकरणाणुयोगै ति कालियत्थे उवगताणि" ॥५६०॥२७७७॥ जावन्ति गाहा । गाथाश्चतुर्विशैतिराख्यानकतोऽत्र प्रतिबद्धाः स्फुटार्थाः ॥२७५५-७७॥ एवं विहितपुधत्तेहि रक्खितज्जेहि पूसमित्तम्मि । ठविते गणम्मि किर गाहमाहिला पडिणिवेसेणं ॥२७७८।। सो मिच्छत्तोदयतो सत्तमओ णिण्हओं" समुप्पण्णो । के अण्णे छ भणिते पसंगतो णिण्वुप्पत्ती ॥२७७९।। __एवं विहितपुधत्तेहि गाहा । निहवोत्पत्तिः तन्मतविचारनिराकरणप्रपञ्चोऽतः । निद्भुते भगवद्भापितमर्थमिति निवः-पवाह्य पचायच् ) कर्तरि-स च मिथ्यादृष्टिः । यत उक्तम्----- "सूत्रोक्तस्यै कस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः ।" मिध्यादृष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाज्ञा च ॥ [ ॥ २७७८-७९ ।। अधवा चोतेति णयाणुयोगणिण्हवणतो कथं गुरवो । ण हि णिण्हये ति ? भण्णति जतो ण “जति णत्थि ति ॥२७८०॥ ण य मिच्छभाव[१८३-०]णाएऽवणेन्ति, जो पुण पतं पि णिण्हवति । मिच्छाभिणि वेसातो स णिण्हओ बहुरतादि व्य ॥२७८१॥ १ हन्ता को। २ गिण्हं है। ३ 'हन्ता को । ५ भपरि' को हे, अपरीणा' त । ५ सुहुम त। ६ भेए को हे । ७ सत्ते हे, मुत्ते त । ८ °भागे को । ९ तइओ को हे म दी हा । १० मुर' दी। ११ एषा गाथा हे को प्रत्योः नियुक्तिरूपा । दीपिकादिपु भाष्यत्वेन संमता । १२ साई को। १३ ताई को। १५ योगो नि को हेदी हा त। १५ ‘यछे भो त । १६ गयाई दो हा । १. अत्र जे मूले त्रयोविशतिः सन्ति, को प्रती द्वाविंशतिः सन्ति । १८ तहि हे, “पुहुनेहिं को। १. जहिं को हे । २० तम्मि को हे त । २१ गणिम्मि को हे । २२ °हिलो प° को हे म । २३ °ण्हवो को हे। २४ हप्प हे त । २५ प्यपरों प्रतौ। २६ वओं को। २. गुरु वो त । २८ हव त्ति को, हव ति हे । २२ जम्मन्ति को । ३० वयंति को हे, वयन्ति त । ३१ वयं को। ३२ ति जे ।। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ विशेषावश्यकभाग्ये [नि० ५६१अधवा चोतेति गाहा । एवं तर्हि आर्यरक्षितस्वामिप्रभृतयो गुरवो मिथ्यादृष्टयः स्युः सूत्रोक्तान्यथाप्ररूपणात्, जमालिप्रभृतिनिह्नववत् । उच्यते-अन्य या प्र] रूपणादित्यपक्षधर्मो हेतुः । यस्माद् गुरखो नेवमभिदधति-सम्प्रति सूत्रेपु न सन्येव नयाः, न च शेषानुयोगत्रयं नास्त्येव, विपरीतार्थ वा । कि तहिं ! मन्दमेधसामन्यसत्त्वानामनुग्रहार्थ युगकालानुरूपं शिष्याणामेकानुयोगविषयै कनयाभिधानं सुखग्रहणाय सोपानपदिकान्यायेन देश यन्ति । तद्ग्रहणोत्तरकालं विशेष(घेणार्थग्रहणा(ण) योग्यो भवेदिति । न तदपहनुवते, न च न श्रदधत तदर्थ सूत्र वा गुरव इति । सम्यग्दृष्टय एव गुरवः, सूत्रोक्तार्थश्रद्धाने सति शेषार्थसापेक्षेकदेशप्ररूपणात् , स्यानित्य इत्याद्यभिधायिस्याद्वादवादिवत् । जमालिप्रभृतिनिह्नवास्तु मिथ्यादृष्टय एव, सूत्रोक्तार्थाश्रद्धाने मिथ्याभिनिवेशिनः, तद्विपर्ययप्ररूपणात् , शिवभूत्यादिवत् ॥२७८०-८१॥ ते पुनरमी निगवाः सः स्वमतप्राहनिर्वृत्त नामान एकान्तन यप्रस्थानात, सप्तव च सिदान्तास्तैस्तदा प्ररूपिता इति-- बहुरत-पतेस-अव्यत्त-समुच्छ-दुभ-तिग-अवद्धियाणं च । एते सिं णिग्गमणं वोच्छामि अधागुपुवीए ।।५६१।।२७८२॥ बहुरत जमालिपभवा, जीवपदेसा य तीसगुत्तातो। अव्वत्तासाढातो, सामुच्छेताऽऽमित्तातो ॥५६२॥२७८३॥ गंगातो दो किरिया, छलुका तेरासियाण उप्पत्ती । थेरा य गोईमाहिल पुट्ठमयदं परूवेन्ति ॥५६३।२७८४॥ बहरत गाहा । बहुभिः समयैः क्रियापरिसमाप्तिः, क्रियापरिसमाप्तौ चेष्टा प्रयो. जनसिद्धिरिति प्रत्येकं समये कियाव्यपदेशाभावात् , क्रियमाणमेकसमये न किञ्चित् कृतं नाम, ततो बहुपु समयेषु रताः सक्ताः बहुरताः, बहुकालं वा रतं येषां ते बहुरताः य(ज)मालिप्रभवाः दीर्घकालद्रव्यार्थ[प्रसूति]प्ररूपिणः । तथा प्रदेशाः' इति पूर्वपर(द)लोपादुच्यते, यथा महावीरो वीरः, महासेनः सेन इति । जीवः प्रदेशो येषां ते जीवप्रदेशिकाः निवाः तिप्यगुप्तप्रभवाः अथवा जीवः प्रदेशो यस्य स जीवप्रदेशः, स नयो येषामस्ति “अत इनि ठनौ" पा० ५।२.११५] इति जीवप्रदेशिका उच्यन्ते । १ सामु है, मुन्थ त, मुन्छ। जे को हे हा । २ द्धिया चेव को हे दी हा म त । ३ सत्ते! जिहग खलु तिमि उ वद्धमाणस्स दी हा म । ४ जहाणु' को । ५ ता असमि हे । ६ गुट्ट म । ७ वेंति को, "विति हे दी हा म। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६४] उपोद्घाते समवतारद्वारे निह्नववादः । व्यक्तं स्फुटमसंदिग्धम्, न व्यक्तमव्यक्तं संदिग्धमनिश्चितमित्यर्थः । अव्यक्तं मतं येषां तेऽव्यक्तमताः अथवा उत्तरपद दोपाद्यथा भीमसेनो भीमः, भव्यसिद्धिर्भव्य इति वा अव्यक्ता आपादप्रभवाः । उत्पत्त्यनन्तरं सर्वस्यैव तत्पर्यायतिरोभावात् सामस्त्येन प्रकर्षच्छेदो विनाशः । समुच्छेदमभिधी (दमधीयते विदुर्वा - " तदधीते तद्वेद" [ पाणि० ४ |२| ५९ ] इति अण्प्रत्ययःसामुच्छेदाः अभ्यमित्रप्रभवाः । एकस्मिन् समये [हे] क्रिये समुदिते द्विक्रिया, द्विक्रियमधीते विदुर्वा वै किया गङ्गप्रभवाः । ५३७ जीवराशिरजीवराशिनजीवराशिरिति त्रयो राशयः समाहताः त्रिराशि तत् प्रयोजनं येषां ते त्रैराशिकाः पटुलुकप्रभवाः उलूकगोत्राभिधानादुद्भकः षट्पदार्थप्रज्ञापनात् षडुळूकः । स्पृष्टं जीवेन कर्म, न पुनः स्कन्धबन्द (न्ध ) वद् बद्धमित्यचद्धम् अबद्धमेषामस्तीत्यबद्धिकाः अबद्धं विदन्तीति [वा] अबद्धिका गोष्टामाहिलप्रभृतयः । एतेषां निर्गमादि वक्तव्यमिति ॥ २७८२-८४॥ सावत्थी उस पुरं सेविया मिधिल उल्लुगातीरं । " पुरिमंतरंज दसपुर रवीरपुरं च नगराई || ५६४ ||२७८५।। चोस सोलस वासा चोदी वीसुत्तरा य दोणि सता । अट्ठावीसा यदुवे पंचैव सता 'तु चोताला || ५६५ ।।२७८६॥ पंचसता चुलसीता छ च्चेव सता णवुत्तरा 'होन्ति । णाणुष्पत्ती " दुवे उपण्णा णिव्वुते सेसा || ५६६ ॥२७८७।। सावत्थी गाहात्रयं उद्देशार्थम् । तस्यानुक्रमेण प्रतिनिर्देशः ॥ २७८५-८७|| चोस वास तदा जिणेण उप्पाडितस्स णाणस्स । तो बहुरताण दिट्ठी सावत्थीए समुप्पण्णा ||२७८८॥ १४ [१७३ द्वि०] जेहा " सुदंसण जमालि" णोज्ज सार्वत्थि "तेन्दु गुज्जाणं" । पंचसता यें सहस्सं ढंकेण जमालि "मोतूणं ॥ २७८९ ।। १ सेअम्बिभा हे । २ पुरमं हे । ३ चउदस म ४ चोद्दस को दी हा, चउदस त म। ५ दुण्गि को हे म । ६ य को हे हा म त । ७ सीओ को हे । ८ नवोत दी हा । ९ हुति को हे म, होति दी हा । १० सीए को हे, तीय दी हा, तीइ म त । ११ चउदस म । ९२ साणि को हे दी हा म त । १३ दीपिकादिषु भारयत्वेन संमता । हे प्रतौ नियुक्तित्वेन संमता । १४ जिट्टा हे म १५ °लि गुज्ज म । १६ बन्थी को है। १७ बिंदु को हे त म तेंदु दी हा । १८ उजाणे को हे त दी हा म । १९° त । २० मुत्तु म, मोत को हे । २१ हेप्रतौ नियुक्तिगतत्वेन संमता, दीपिकादिषु च भाष्यगतत्वेन । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६ चोइस गाहा ॥२७८८-८९॥ नमालिहिज्वराभिभूतः ‘संस्तारकं कुरुत' इत्यादिश्य शिष्यान् वाक्समकमनिप्पन्नं दृष्ट्वा रुपितः सिद्धान्तवचनं "क्रियमाणं कृतम्" इत्येतद वितथम्, प्रत्यक्षविरुद्धत्वात् , अश्रावणशब्दवचनवत् । प्रत्यक्षविरुद्धत्वस्य पक्षधर्मवप्रतिपादनाय गाथा-- सक्खं चिय संथारो ण कन्जमाण। कतो त्ति मे जम्हा । वेति जमाली सव्वं ण कज्जमाणं कतं तम्हा ॥२७९०॥ सक्खं गाहा । संस्तारकोऽयं प्रत्यक्षं क्रियमाणश्च कम्बलग्रस्तरणच्यापारादेशात् न चास्मिन् समये कृतः । पुनरपि वस्तुप्रस्तरणसापेक्षत्वात क्रियमाण एव, न कृतः तस्मात् क्रियमाणस्य धर्मिणः क्रियमाणत्वमेव प्रत्यक्षमिदम् , न कृतत्वम् , अनिष्पन्न स्वात् । ततः क्रियमाणत्वेन प्रत्यक्षमिद्धेन कृतत्वं धर्मोऽपनीयत इति प्रत्यक्षविरुद्ध त्वम् । तस्मात् सर्वमेव वस्तु क्रियमाणं न कृतमेव, क्रियापरिसमाप्तौ नः कृतम् , नाऽऽरात ॥२७९०॥ जस्सेह कज्जमाणं कतं ति तेणेह विज्जमाणस्स । करणकिरिया पवण्णा तथा य बहुदोसपडिवत्ती ॥२७९१।। जस्सेह गाहा । इह यस्य वादिनः क्रियमाणं कृतं तेन वादिना विद्यमानस्य वस्तुनः परिनिष्पन्नस्य करणाय क्रिया प्रपन्ना भवति । तथा च बहुदोपाभ्युपगमः कृतो भवति ॥२७९१॥ तं च दर्शयत्याचार्यः-- कतमिह ण कज्नमाणं सम्भावातो चिरंतण घडो व्य । अधवा कतं पि कीरति कीरतु णिच्चं ण य समत्ती ॥२७९२।। कतमिह गाहा । स्वमते तं) तावज्जमालिदर्शयति-कृतं वस्तु न क्रियमाणमिति प्रतिज्ञा, विद्यमानत्वात् , चिरन्तनघटवत् । अयं कृतमपि क्रियमाणभ्युपगम्यते केनचित् ततः सर्वदा क्रियमाणावस्यैव भवतु, क्रियमाणत्वात् , प्रथमसमय कृतवत् । न च क्रियापरिसमाप्तिः, सर्वदा क्रियमाणत्वात् , आदिसम यवत् ॥२७९२।। किरियावेफल्लं पिय पुव्यमभूतं व दीसते होन्तं । दीसति दीहो य जतो किरियाकालो घडातीणं ॥२७९३॥ १ 'त्यादेशावग-इति प्रतौ । २ कउ त्ति को हे । ३ ति हे. चि' त। १ च को हे । ५ होतं को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि०५६६] जमालिनिह्नवः । ५३९ किरिया० गाहा । विफला च क्रिया, सर्ववस्तूनां कृतःवान्निप्पन्नघटवत् । तस्मादकृतमविद्यमानं च क्रियते, प्रागभूतं भवद् दृष्टमिति । अन्यथा किमिति दीर्घेण कालेन घटनिष्पत्तिः ? एतच्च भवताऽपि प्रतिपन्नमेव ॥२७९३॥ णारंभे चिय दीसति ण सिवादद्धाय दीसइ तदंते । तो ण हि किरियाकाले जुत्तं कज्जं तदंतम्मि ॥२७९४॥ णारंभे च्चिय गाहा । क्रियमाणतावस्थाया आरम्भसमये, शिवकायद्धायां च घटादर्शनात् सर्वस्याश्च क्रियायाः अन्तेऽभीष्टकार्य घटादि दृश्यते । तस्मात् क्रियाकाले क्रियमाणावस्थायां न युक्तं कृतत्वम् , कार्यम्यादर्शनात् . आरम्भकाल ए(इ)व । यत्र च युक्त कार्यस्य कृतवं तत्रादर्शनमपि नास्ति, यथा क्रियापर्यन्ते तत्क्रमलभ्यत्वात् घटनिष्पत्तिकाले ॥२७९४॥ अथवा आचार्याणां मतमाख्यायते--- थेराण मतं गाकतमभावतो कीरते खपुष्पं व । अहव अकतं पि कीरति कीरतु तो खरविसाणं पि ॥२७५९॥ णिच्चकिरियातिदोसा जणु तुल्ला अ[१८४-०]सति कहतरया वा । पुवमभूतं च ण ते दीसति किं खरविसाणं पि? ॥२७९६।। थेराण गाहा । स्थविराः श्रुतज्ञाना-ताः । तेषां मतम्-नाकृतं क्रियते, अभाक्वान्, खपुष्पवत् । अथ तस्य जन्माभ्युपगमः--पूर्वमभूतमकृतमेव क्रियते । ततोऽनिष्टाऽऽपादनम्-खरविषाणमपि क्रियताम् , क्रियमाणं भवतु, अकृतत्वात्, त्वदिष्टघटवत् । यच्च त्वया दोपजालमुपक्षिप्यते विद्यमानस्य करणे, तत् सर्वमविद्यमानकरणेऽपि तद वस्थम्-सर्व तत्रापि दोपाः, असति अविद्यमाने क्रियमाणे कष्टतरा वा दोषा भवेयुः मत्यन्तासम्बद्धत्वादयः । दृश्यतां वा-क्रियते स्वर विपाणं पूर्वमभृतत्वादिष्ट कार्यवत् । यदा(द)ऽभूतप्रादुर्भावे भवतोपपत्तिरुच्यते क्रियाकालद्वाघीयस्वम्, तन्नवास्ति दीर्घकालकरणं घटस्य, यस्मादन्यदीय एवा सौ दीर्घकालो न घटस्येति ।।२७९५-९६॥ पतिसम उप्पण्णाणं परोप्परविलक्खणाण' मुबहणं । दो हो किरियाकालो जति दीसति किं थे कुंभस्स ।।२७९॥ पतिसमउप्पण्णाणमित्यादि । इह प्रतिसमयं पिण्ड-शिवक-स्थासक-कुशूलादय उत्पद्यन्ते परस्परविलक्षणा ववश्च । तेषां बहुत्वाद्यपि(दि) क्रियाकालो दी? भवति, ततः किमायातं कुम्भस्य ! तदासौ नैवारब्ध इति ॥२७९७॥ १ 'द्धाए को हे त । न्यायारम्भ-इति प्रतौ । : तस्मिन-इति प्रतौ । ४ जनातेरभ्यु० इति प्रतौ । ५ वलण हे । ६ य को हे, व त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६अण्णारेम्भे अण्णं ण दीसते जथ घडो पडारम्भे ।। सिवगादयो ण कुम्भो "विध दीसत मो तददाए ॥२७९.८।। "अन्ते चिय "आरद्धा जति दीसति तम्मि "चेभको दोसो ? । अकतं व संपति फेते "किय "तीए कि व एस्सैम्मि ? ॥२७९९॥ अण्णारम्भे इत्यादि । अन्ते च्चिय इत्यादि । अन्यारम्भे अन्यन्न दृश्यते, अन्यत्वात् , पटारम्भ इव घटः । कथमन्यत्वमिति चेत् ? शिवकादीनां कुम्भस्य चान्यस्वम्, परस्परविलक्षणत्वात् , पटवत् । तस्माच्छिवकाद्यवस्थायां शिवकाधारम्भे कथमिव घटो दृश्यत इति ? अत एवासौ आरब्धो यद्यन्त एव दृश्यते स्वारम्भकाले, ततः को दोपः ? दीर्घकालत्वाभाव इत्यर्थः । तस्मादारम्भकाल एव क्रियमाणं तस्मिन्नेव च वर्तमाने सम्प्रतिकाले कृतं तद्भवति । यस्य च वादिनः सम्प्रतिकाले क्रियमाणतायां न कृतम् , तस्य कथमतीते काले क्रियाव्युपरमे, कथं चैष्यति काले क्रियाऽनारम्भसमये कृतं भवेत् , अविद्यमानत्वात् खरविषाणवत् ! ।।२७९८-९९॥ अथ ब्रूयास्त्वं-न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम । दृष्टो हि घटस्य दीर्घक्रियाकाल:पान्सुआ(पांश्वा)हरण-पानीयानयन-तीमन-मईन-करीषभस्मसन्मिश्रपिण्डीकरण-चक्रदण्डाधुपकरणसंग्रह-चक्रमूर्द्धारोपण-भ्रमण-शिवक-स्थासक-कुसूलायाकारनिवर्तनानन्तरमुत्पत्तेः स कथमपलप्यते ? इति । तत आह-~ पतिसमयकजकोडीणिरवेक्खो घडगताभिलासो सि । पतिसमयकज्जकालं थूलमति ! घडम्मि लाएसि ॥२८००।। पतिसमयकज्ज० इत्यादि । 'कोटी' शब्दो बहुत्वदर्शनार्थः । प्रतिसमयमसंख्येयान्यविज्ञान(त) पदनिबन्धनानि कार्याण्युपप(ण्युत्प)यन्ते विनश्यन्ति च । तान्यविवक्षितानि, अनभिप्रेतत्वात् । अतस्तन्निरपेक्षः घटस्य गतोऽभिलाप इच्छेति घटगताभिलाषः, तदर्थ हि केन तानि बन्यप्यारभ्यन्ते, तद्भावभावितत्वात, तत्कमलन्यत्वात् । अतः कार्यकोटोकालमपि स्वाभिप्रेतकार्य स्थूलमतित्वादविचारक्षमबुद्धिवाद् घटकार्ये लगयसि स्वाभिप्रायः(यम्) । से कि मसिदान्तदोपः । त्वबुद्धिदोष एवासावियुपालम्भः ।।२८००॥ इतरः१ रंभे को हे । २ य त । ३ कह त, किह को हे । ५ गट को हे त। ५ रंभे को हे । ६ कुंभो को हे । ७ कध त । । ८ 'सए हे। २. दट्ठाए त । १० अंते को हे । ११ रद्धो को हे त । १२ चेव को हे त । १३ गए को हे त । १४ कह को हे त । १५ कीरउ को हे त । १६ कह को हे त । १७ एसम्मि त । १८ मई हे । १९. स किमःसत् सि०-इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६ ] जमालिनिवः । को चरि'मसमयणियमो पदमे च्चिय तो ण कीरते कज्जं । णाकारणं ति कज्जं तं 'चेवंतम्मि से समये ॥२८०१॥ को चरिम० इत्यादि । भवतोऽपि घटार्थ एव मृन्मनारम्भः । स किमर्थ मृन्मात्र एव प्रथमसमये घटो नारभ्यते, चरमसमय एव प्रतीक्ष्यते तदीयकालः ? चरमसमयप्रति(ती क्षणादेव दीर्घक्रियाकालत्वमित्यभिप्रायः। उच्यते-विपरीतकारणमपरकारणं च कार्य न भवतीति घटकार्यस्य कारणं तदुपान्त्यसमये यत् कार्यम्, अतः तदवश्यं प्रतीक्षितव्यमिति चरमसमयनियमः कार्यस्य ॥२८०१॥ तेणेह कज्जमाणं णियमेण क कतं तु भयणिज्ज । किंचिदिह कज्जमाणं उवरतकिरियं व्वे 'होज्जाहि ॥२८०२।। तेणेह कज्जमाणं इत्यादि । तेन तस्मात् इह नये ऋजुमूत्रे क्रियमाणं नियमात् कृतं तावन्मात्रनिप्पत्तेः । कृतं तु वस्तु भजनीयं द्विधा सम्भवित्वात्-स्यात् क्रिय. माणमाविष्टक्रियम् , स्यादुपरतः(त)क्रियमभिलपितकार्यनिप्पत्तेः कृतार्थत्वात् ।।२८०२॥ अथ दान्तिकार्थनिरूपणाय प्रकृतः संस्तारकवस्तूपनयःजं जत्थ णभोदेसे [१८४-द्वि०] अत्थुवति जत्थ जत्थ समयम्मि । तं तत्थ तत्थमत्युतमत्थुव्वंतं पि तं 'चेअ ॥२८०३॥ जं जत्थ णभोदेसे इत्यादि । यद्य(यद) आकाशदेशे वस्त्रमास्तीर्यते यत्र तत्र समये तत् तत्र वस्त्रमास्तर्ण भव-यास्तीर्यमाणं च, तदेवं यावत् सर्व पाश्चात्यवस्त्रान्त(स्त). रणमन्त्यसमये, तदास्तीर्णमेवोपरतास्तरणक्रियम् ॥२८०३।। बहुवत्थेत्थुरणविभिण्णदेस किरियादिकज्जकोडीणं । मण्णसि दीहं कालं जति संस्थारस्स किं तत्थ ! ॥२८०४।। बहुवत्थ० गाहा। एवं बहुवस्त्रास्तरण विभिन्नदेशक्रियादिसूक्ष्मकाल कार्यकोटीनां यदि त्वं दीर्धकालं मन्यसे किं तत्र संस्तारकस्योपान्त्यसमयारब्धस्यान्त्यसमयनिष्पन्नस्येति ? ॥२८०४।। पतिसमयकज्ज कोडीविमुद्दो संथारयाधिकतकज्जो । पतिसमयकज्जकालं कि संस्थारम्मि लाएसि ॥२८०५।। पतिसमय० गाहा । गतार्था ॥२८०५।। १ चरम हे । २ पडमु त । ३ 'रई को। १ चोवं° जे । ५ व को, चहे। ६ हुज्जा हे । ७ वाय को। ८ चंव को हे त । ९ वन्युत्तर त, थायर को, थत्तर हे। १० संथा को हे त । ११ तस्स हे। १२ कार्यनोदीनां - इति प्रतौ । १३ कथं हे, वह त । ११ संथा को हे त । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये सो उज्जुसुतणयमतं अमुगंतो ण पडिवज्जते जाये । are मा 'विसंपण्णा जिणं चेअ || २८०६ || पियदंसणा वि पंतिणोऽणुरागतो तम्मतं चिय पवण्णा । ५४३ कोवहिताऽगणिदद्भवत्यैदेसा तयं भणति ।। २८०७॥ सावय ! संघाडी मे तुमए दइति सोविय तमाह । णणु तुम्भ उज्झमाणं दहन्ति मतोऽवसिद्धंतो ||२८०८ || डड्ढ ण देज्झमाणं जति वि गतेऽणागते व का संका । काले तदभावात संघाडी कम्मिते दड्ढा ? ।।२८०९ ॥ सो उज्जुसुत० गाहा । पियदंसणा विगाहा । सावय ! संघा० गाहा । डद्दट्ठ गाहा । यदा प्रतिपद्यमानोऽपि जमालि: ऋजुसूत्रनयमतमश्रदधद् भगवद्वचनं न प्रतिपद्यते, तदा शेषप्रत्रजिताः सम्बुद्धाः भगवन्तमुपसम्पन्नाः । प्रियदर्शना तु तद्भायां भर्तृ (र्तुः) अनुवृत्त्या जमालिदर्शनं प्रतिपन्ना सती दंकश्रावको पहिताग्निदश्व (घ) वस्त्र देशा श्रावकमुपालभमाना 'संघाडी मे दग्धा' इति ब्रुवती ढकेन पर्यनुयुक्ता आर्ये ! दद्यमाना सङ्घाडी दग्धेति भवता मायं सिद्धान्तः कथम् उच्यते ? नन्वयमभ्युपगमविरोधः आर्यायाःयदि दह्यमानं न दग्धम्, विगते दाहकालेऽनागते वा का दग्धाशङ्का, अतीतानागतयोरभावाद, वर्तमाने च दग्धाभावात् कस्मिन् काले तव सङ्घाडी दग्धा ! ।।२८०६-९॥ तमेव वाभ्युपगमं कस्य दृढयन्ति अध वाण देज्झमाणं दड् दाह किरि[ १८५ प्र० ]यासमत्ती यें । किरियाभावे दड् जति दड् किंण तेलोक्क ? ॥२८१० ॥ [ नि० ५६६ अथैवमार्यायाः अभिप्रायः- दह्यमानं दग्धं न भवति किन्तु दाह किया परिसमाप्तौ दग्धं भवति, एवं तर्हि त्वन्मते त्रैलोक्यमपि दग्धं भवतु, अविद्यमानदाहक्रियत्वात्, परिसमाप्तदाहाभिप्रेतकार्यवत् ॥ २८१० || उज्जुसुतणयमतातो वीरजिणेन्देव यणावलम्बीणं । १६ जुज्जेज्ज डज्झमाणं "डडं वोत्तु ण "तुभं ति ॥ २८११॥ १ केई को हे त । २ चेव को हे त । ३ पो त । ४ देव को हे त । ५ वत्थु त । ६ इदं ति को हे। ७न को है । ८ दडूडं को हे त । ९ उज्झ को हे त । १० समय - इति प्रतो । ११ उज्स को हे त । १२ तीए को हे त । १३ १५ 'लंबों को हे । १६ दर्द को है । तेलुक हे । को, तुझ १४ 'जिद' को हे । हे । १८ १७ तु । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६] तिष्यगुप्तनिवः । उज्जुसुत० गाहा । एतदस्माकं जिनेन्द्रवचनावलम्बिनां ऋजुसूत्रनयमतेन युक्तं वतुम्, न युष्माकं निव जमालिमतानुसारिणाम् ॥२८११॥ यस्मात्-- समए समए जो जो देसोऽगणिभावमेति डझस्स । तं तम्मि दैज्झमागं दैड्ढं पि तमेव तत्थेव ॥२८१२॥ समए समए इत्यादि । यस्माद् दाह्यस्य वस्तुनः समये समये यो यो देश अग्निसाद् भवति स स देशस्तस्मिन् काले दह्यमानो भवति, दग्धश्च स एव ।।२८१२।। णियमेण देज्झमाणं दड्दं दन्ति होति भयणिज्नं । किंचिदिह दैज्झमागं उवरतदार व होज्नाहि ॥२८१३।। णियमेण दज्झमाणं गाहा । भावितार्था ।।२८१३॥ इच्छामो संबोधणमज्जो ! पियदसणादयो दकं । वोत्तुं जमालिमेग” मोत्तूण गता जिणसगासं ।।२८१४।।" इच्छामो संबोधग० गाहा । स्फुटार्था ॥२८१४॥ ॥प्रथमनिहववक्तव्यता ॥ अथ द्वितीयस्य वक्तव्यतासोलस वासाइं तया जिणेण "उप्पादितस्स णाणस्स । जीवपदेसियदिट्ठी तो" उसभरे समुप्पण्णा ॥२८१५॥" रायगिहे गुणसिलए वसु चोसपुचि तीसगुत्तोय। आमलकप्पा णगरी मित्तसिरी कूरपिउ"दाती ॥२८१६॥" आतप्पवातपुत्वं अधिज्नमाणस्स तीसगुत्तस्स । णयमतमयानुमाणस्स दिहिमोहो[१८५-द्वि०] समुप्पण्णो ॥२८१७।। एकातयो पतेसा णो जीवो णी देसहीणो वि। जं तो स जेण पुण्णो स एव जीवो पतेसो त्ति ॥२८१८॥ १ झमाणस्स हे। २ डउझ को हे त । ३ दळं हे। ४ ‘स्माद्वाद्यस्य-इति प्रतौ । ५ डझ' को हे त । ६ 'झं तु को हे, हन्तु त। ७ डउझ को हे त । ८ च हे । ९ हुज्जा हे । १० 'मेकं हे । ११ ॥३२५।। इति बहुरताख्यः प्रथमा जमालिनिह्नवः ॥ त । १२ 'साणि को हे दी हा म त । १३ पाडियस्स को हे दी हा म त । १४ 'देसीय त। १५ दी हा म प्रतिषु नास्ति । १६ 'सपुरे त, 'पुरम्मी म, पुरंमी दी हा । १७ हेसम्मता एपा नियुक्तिगाथा । दीसम्मता एषा भाध्यगाथा । १८ दस्स को, चउदस हे म। १९ गुत्ते हे त, गुत्ताओ दी हा म। २० उडाई को हे त, उडाइ दी म, 'पिंजाई हा । २१ हेसम्मता एषा निथुचि गाथा । दीसमता एष। भाष्यगाथा । २२ “याणुमा त । २३ न य को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६सोलस वासाई। रायगिहे । आतप्पवातपुत्वं । एकातयो पतेसा इत्यादि । इह व्याख्याप्रज्ञप्तौ प्रश्नः- “एगे जीवप्पएसे जीवे ति वत्तवं सिया ! णो इण२ समटे । एवं बे जीवपएसा, तिन्नि, संखेजा, असंखिग्जा वा जाव एगेणावि पएसेण ऊगो णो जीवे त्ति वत्तवं, जम्हा कसिणे पडिपुण्णे लोगागासतुल्लप्पदेसे जीवे त्ति वत्त वं-"[] अत एव सूत्रमूरीकृत्य तिष्यगुप्तो व्युत्थितः-योकादयो जीवप्रदेशा नोजीवः-'नो' शब्दः सर्वप्रतिषेधे 'न जीवः' इति-जीवाख्यां न लभन्ते, यावदेकेनापि प्रदेशेन न्यूनो न जीवः, सम्पूर्णस्तु जीवः, स ह्यजीवः सन् येन प्रदेशेन पूणों जीवाल्यां प्राप्तः स एवैकः प्रदेशो जीव इति वक्तव्यम् , शेषप्रदेशा अजीवा एवेति ॥२८१५-१८॥ अस्य प्रत्युत्तरम् - गुरुगाऽभिहितो जति ते पदमपतेसा ण सम्मतो जीवो । तो तप्परिमाणो च्चिय जीवो कधमन्तिमपदेसो ॥२८१९॥ गुरुणा गाहा । त्वदभिमतोऽन्यप्रदेशो न जीवः, आद्यप्रदेशेन तुल्यपरिमाणत्वात्, प्रथम-द्वितीयादिप्रदेशवत् ॥२८१९॥ अथवा भवतोऽप्यनिष्टापादनम्-प्रथमप्रदेशोऽपि ते जीवः, शेषप्रदेशैस्तुल्य वात्, अन्त्यप्रदेशवत् । तदर्थमियं गाथाअधव स जीवो कि ध णातिमो वि को वा विसेस हेतू ते । अध पूरणो त्ति बुद्धी एक्केको पूरणो तस्स ॥२८२०॥ __ अधव स जीवो गाहा । विशेषहेतोरभावात् सर्वप्रदेशानां तुल्यतेति पक्षधर्मत्वमा चष्टे । अथ ब्रूयास्त्वम्-साधनधर्मविकलो दृष्टान्तः, अन्त्यप्रदेशः परिणः, असंख्येयसंख्यापूरणः, प्रथमादयो न तथेति अन्त्यप्रदेशस्य शेषप्रदेशैस्तुल्यत्वमिति । 'अध परणो त्ति बुद्धी' एवंप्रकारोऽपि बुद्धिरबुद्धिरेव, एकैकस्य प्रदेशस्य तत्सं. ख्यापूरणत्वात् । न ह्येकेनापि विना सा संख्या पूर्यत इति ॥२८२०॥ एवं जीववहत्तं पतिजीवं सम्बधा व तदभावो। इच्छा विवज्जओ वा विसमत्तं सव्यसिद्धी वा ॥२८२१॥ १ "आत्मप्रवादनामकं पूर्वमधीयानस्य तिघ्यगुप्तस्यायं मूत्रालापकः समायातः-तद्यथाएगे भंते ! जीवपएसे जीव ति" इत्यादि । अत्र मलधारिवृतौ अस्मिन् पाठेऽपि पाठमेदःम. वृ० पृ. ९४६ । व्याख्याप्रज्ञप्तौ अयं विषयश्चर्चितः परन्तु तत्र प्रधानतया धर्मास्तिकाय समुद्दिश्य प्रश्नोत्तराणि संजातानि। तेषामन्ते "एगपएसणे वि यण धम्मस्थिकाये 'नो धम्मस्थिकाए' ति वत्तवं सिया ।......एवम् अहम्मस्थिकाए वि, आगासत्थिकाए वि, जीवशिकाय-पोग्गलथिका वि एवं चेव-शतक द्वितीय. उरेडाक १०।। तोत्र | anमो न को हे त। ४ संम' को हे। ५ 'रिणामो को हे त। ६ मंति' को हे। ७ कह हे त। ८ त्ति को हे त।९ पूर्णासं-इति प्रतौ । १० वि त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६] तिष्यगुप्तःनिह्नवः । एवं जीवबहुत्तं गाहा । एवमुपपत्त्या सर्वप्रदेशानां जीवत्वे एकस्मिन्नेव जीवबहुत्वं प्राप्तम् । अथ ते प्रदेशा जीवा न भवन्त्यतो जीवाभाव एव प्राप्तः । अथ जीवपदार्थापलापोऽशक्य इति इच्छा-द्वितीय-तृतीयादयः प्रदेशा जीवो भवतु । विपर्ययो वा प्रथमप्रदेश एव जीवो नान्त्यप्रदेशः । विषमत्वं वा कश्चिज्जीवः कश्चिदजीवोऽस्तु । सर्वसिद्धिर्वा यद् यदभिप्रेतमिच्छा-विपर्ययादीनाम्, सर्वेऽपि वा इच्छादयः समुदिताः सिध्येयुरिति ॥२८२१॥ जं सव्वधा ण वीमुं सम्वेसु वि तं ण रेणुतेलं व । सेसेसु असम्भूतो जीवो कधमन्तिमपतेसो ॥२८२२॥ जं सव्व० गाहा । सर्वेष्वपि प्रदेशेषु जीवत्वं मा भूत् , प्रत्येकमभूतत्वात् , सिकतारेणुतैलवत्, अन्त्यप्रदेशेऽपि केवले नैवास्ति जीवत्वं बहुषु तत्तुल्येप्वभूतत्वात् , एकसिकतातैलवत् ॥२८२२॥ अध देसतोऽवसेसेसु तो वे किध सव्वधंतिमे जुत्तो । "अंतम्मि व जो हेतू स एव सेसेसु वि समाणो ॥२८२३।। ___ अध देसतो गाहा । अथैतद्दोषभयादन्त्यप्रदेश मुवत्वाऽवशेषदेश मात्रया जीवत्वम्, अन्त्यप्रदेशे तु सर्वात्मना जीवत्वमिति कल्पना चेत्, अन्येऽपि प्रदेश सर्वात्मना जीवत्वमयुक्तम्, प्रदेशत्वात् , अवशेषप्रदेशवत् । यो वाऽन्त्ये पूरणादित्वं हेतुः स सर्वेषु समान इति ॥२८२३॥ ___ अत्र दोषोपक्षेपपरिहारं प्रदर्शयितुकामः प्रमाणमाहणेह पदेसत्तणतो अंतो जीवो जधांतिमपदेसो।। आह सुतम्मि "णिसिद्धा सेसा ण तु अंतिमपदेसो ॥२८२४।। णेह पदेस० गाहा । इहान्न्यः प्रदेशो जीवो न भवति, प्रदेशत्वात्, आद्यप्रदेशवत् । एवमाचार्यणानुमाने कृते पर माह-अन्त्यप्रदेशो जीवो न भवतीति भवतामागमविरोधः, यस्माजीवत्वेन सर्वप्रदेशान्निपिध्य सूत्रेणाऽन्त्यप्रदेशस्य जीवत्वम नुज्ञातमिति ॥२८२४॥ __ अत्राचार्यः सूत्रमेव प्रमाणीकुर्वन्नाह - गणु एगो त्ति णे सिद्धो सो वि सुते जति सुतं[१८६-०]पमाणं ते । सुत्ते सव्वपतेसा भणिता जीवो ण चरिमो ति ॥२८२५॥ १ 'संभु को। २ मंति' को है । ३ पएसे हे । ५ बहुश्व इति प्रतौ । ५. तो त । ६ वि को हे त । ७ अह त हे त, तमि को । ८ शेन मा-इति प्रतौ । ९ भन्तो . हे। १० न सि त । ११ उन्तिम हे। १२ णिसिद्धो को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०५६६जणु गाहा । ननु सूत्रे जीवत्वनिषेधनमपरिपूर्णत्वादवशेषदेशानाम्, तत एवापरिपूर्णत्वादन्यप्रदेशोऽपि निषिद्ध एव । सूत्रे वृत्स्नः परिपूर्णसर्वप्रदेशसंघातो जीवः उक्तः, न चरमप्रदेश एव केवलमिति नैवास्माकमभ्युपगमविरोधः । सूत्रप्रमाणकस्य भवत एवाभ्युपगमविरोधोऽन्त्यप्रदेशस्य जीवत्वं निषिद्धम युपगच्छतः ॥२८२५॥ अपि च प्रमाणम् - तंतू पडोवकारी ण समत्तपडो य समुदिता ते तु । सव्वे समत्तपडओ सव्यपदेसा तथा जीवो ॥२८२६॥ ___ तंतू गाहा । एकस्तन्तुः समस्तपटो न भवति, पटोपकारित्वात् , तन्त्वेकदेशवत् । एवमेकप्रदेशो जीवो न भवति, तदुपकारित्वे तदेकदेशत्वात् , एकतन्तुपटत्ववत् । सर्वप्रदेशा जीवः तदुपकारित्वे परिपूर्णत्वात् , समस्ततन्तुपटत्ववत् ॥२८२६।। एवंभूतणयमतं देसपतेसा ण वत्युणो भिण्णा । तेणावत्थु ति मता कसिणं चिय वत्थुमि से ॥२८२७।। एवंभूत० गाहा । एवम्भूतनयस्य देश-प्रदेशा वस्तुनो न वि(भि)द्यन्ते, वस्त्वेव कृत्स्नं परमार्थः तद्देश-प्रदेशास्तदतिरिक्ताः अभावः, तदव्यतिरिक्तित्वात्तदेव वस्तु, कि तैः कल्पितैरिति ? ॥२८२७॥ जति तं पमाणमेवं कसिणो जीवो अधोक्याराती । देसे वि सव्ववुद्धी पवन सेसे वि तो जीवं ॥२८२८|| जति तं पमाण० गाहा। यद्येवम्भूतनयमतं प्रमाणम्, ततः कृत्स्नो जीवः प्रपद्यताम् । अथोपचारादन्त्यप्रदेशो(शे) जीवत्वमवोपेप्वप्युपचारादेव जीवत्वं प्रतिपद्यस्व ॥२८२८॥ जुत्ती व तदुक्यारो देसोणे ण तु पदेसमेत्तम्मि । जध तंतूणं व पडे पडोवयारो ण तंतुम्मि ॥२८२९।। जुत्तो व गाहा । युक्ततरो वा तदुपचारः, एकदेशोनबहुवात् । न तु देशमात्रे, एकत्वात् । एकप्रदेशोने वा जीवे जीवोपचारो युक्तः, तःकार्याभिव्यक्तेः, एकतन्तूने पटे पटोपचारक्त् ।।२८२९।। इय पण्णवितो जाधे ण पवज्जति सो ततो कतो वझो । तेत्तो आमलकप्पाथै मित्तसिरिणा सुहोवायं ॥२८३०॥ १ "त्थु त्ति को हे। २ °न्धु सिद्धं त । ३ संप त । ४ जत्तो हे । ५ देसूणे को है। ६ मि त, णम्मि को । ७ ननु इति प्रतौ। ८ शोने वा जीवे वा जोवो इति प्रतौ । ९ कतो ततो हे त । १० ततो हे । ११ ए हे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६ ] तिष्यगुप्त निह्नवः । भक्खेऽण्ण- पाण- वंजण वत्थं तावयवलाभितो भवति । सावय ! विहम्मिता मो कीस त्ति ततो भणति सड्ढी || २८३१|| सिद्धंतो पज्जंतावयवमेऽवयवी । णणु तु जति सच्चमिणं तो की वि[ १८६ - द्वि० ]धम्मणा मिच्छमिधरा मे || २८३२ || इय गाहा | भक्खऽण्ण गाहा । णणु तुम्भ इत्यादयः स्फुटार्थाः ॥ २८३०-३२॥ अन्तावयवो ण कुणति समत्तकज्जं ति जति ण सोऽभिमतो | संववहारातीते तो तम्मि कतोऽवयविगाहो ? || २८३३ || अन्तावयवो गाहा | अन्यावयवोऽवयवी न भवति, समस्तावयविकार्याकरणात, तःसंव्यवहारातीतत्वात्. आदिमावयववत् अवयवा (व्यन्तर कुम्भादितत्वात् (दिवा ||२८३३|| अन्तिमतंत्र ण पडो तकज्जाकरणतो जधा कुंभो । अध तदभावे व पड़ो तो किं ण घडो खपुष्कं व ॥ २८३४ ॥ अंतिम ० • गाहा | अन्त्यतन्तुर्न पटः पटकार्यास (श कत्वात् कुम्भवत् । अथ तत्कार्याकरर्णेऽपि तन्तोश्चेत् पटत्वमिष्यत्वे (ते), कुम्भोऽपि तर्हि पट एवास्तु, खरविपाणं वा पटः, पटकार्यास (श)कत्वात् अन्त्यतन्तुवत् ||२८३४|| अथवा -- उवलंभव्ववहाराऽभावातो णत्थि में खपुष्कं व । "अन्तावयवेऽवयवी दिताभावतो आऽवि ॥ २८३५|| १२ ५४७ उपलंभ० गाहा | अन्यावयवेऽवयवी नास्ति, अनुपलभ्यमानत्वात्, व्यवहा राभावात् खपुष्पवत् । एकावयवे अवयवी तिष्ठतीत्युभय (या) सिद्ध:, दृष्टान्ताभावाच्चानन्वयः ॥ २८३५॥ १२ पच्चक्खतोऽणुमाणादागमतो वा पसिद्धिरत्थाणं । सव्वपाणविसयातीतं मिच्छत्तमेतं मे ॥ २८३६॥ १४ पच्चखतो गाहा । 'एकावयवेऽवयवी जीवः' इत्येतद वाक्यं मिध्यार्थं वा सर्वप्रमाणविषयातीतत्वात् खरविणवत् ॥२८३६|| 1 १ हे । २ भाइ को हे त । ३ म्हे को हे । ४ तुझ को हे ५ 'मित्तिओ को, 'वमित्त ' । ६ वह त । ७ अंतोव' हे, 'अन्तोव' त । ८ सो को हे त । ९ अत्यंतं त इति प्रतौ । १० मे को, ते हेत । ११ अंता को है । १२ वावि को हे त । १३ सिद्धी अत्था हे । १४ मे को हे त । ६९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागामा इय 'वातितसंबुद्धो खामित पडिलाभितो पुणो विधिणा । गंतु गुरुपादमूलं ससीसपरिसो पडिकतो ॥२८३७।। इय गाहा । गतार्था ॥२८३ ॥ ॥ इति जीवप्रदेशवादी तिप्यगुप्तनामा द्वितीयो नियः॥ 'चोदा दो वाससता तइया सिद्धिं गतस्स वीरस्स । तो अव्यत्तयदिट्ठी सेतवियाए समुप्पण्णा ॥२८३८॥ सेतवि पोलासाढे 'जोग्गे तदिवस हितयमूले य । सोधम्मे णलिणिगुम्मे रायगिहे मुंरिय बलभद्दे ॥२८३९।।" गुरु[१८७-०]णा देवीभूतेण समणरूवेण वाइता सीसा । सम्भावे परिकधिने अव्वनयदिद्विणो जाता ।।२८४०॥ को जाणति किं साधु देवो वा तो ण वन्दणिज्जो" त्ति । होनाऽसंजतणमणं होज्ज मुसावायमसुओ त्ति ॥२८४१।। चोदा दो गाहा । सतवि गाहा । गुरुणा देवी० । को जाणति गाहा। न होतत् ज्ञातुं शक्यं साधुरयमसाधुरयम् , साधुवेपक्रियायुक्त वात , अहमिव । अस्मद्गुरुणा आषाढसाधुना देवीभूतेनाने कान्तिकः, पण्माससाधुवपक्रियायुक्तत्वं देवे. ऽप्यसाधौ दृष्टमिति । तस्मात् साधुत्वाऽनिश्चयवदेव्यक्तत्वादेवाज्ञानिकपक्षाश्रयः । एकत्रासंयतनमनादविरत्यनुमतेदोपः, अवन्दनेऽपि 'अयममुकः' इति कदाचिन्भृपावादाद मुख्यगुणघात इति तूणीभाव एव श्रेयान् ॥२८३८-४१॥ तथा सर्वसाधुक्रियाकलापलोप इत्यनिष्टमापद्यते । ततः स्थविरवचन तत्सम्बोधनार्थम् --- थेरवयणं जति परे संदेहो कि सुरो ति साधु ति । "देवे कधं ण संका किं सो देवो ण देवो त्ति ॥२८४२॥ थेरवयणं गाहा । यद्ययमेवं साधावनेकान्तः, देवे कथं निश्चयः--सोऽपाटो देव एवेति ? ॥२८४२॥ तेण फेहिते त्ति व मती देवो हं रूबदरिसणातो य । साधु त्ति अहं कधिते समाणरूबैंम्मि का संका ? ।।२८४३।। १ चोति को है त । २ गंतु को हे। ३ पामू को।। ४ अयं पाठः त प्रतौ । ., च उदम हे त म । ६ अव्वत्नयाण दिही दी हा म । ७ एषा हे सम्मता निर्यक्ति गाया । ८ ओंग की हे दी हा मत। .. सोहम दी हम म । १. गरि" हे । ११ एषापि हे सम्मता नियुक्तिगाथा । १२ णिज्ज त। १: ममुओ को हे त १५ सर्वत्या इति प्रतौ । १५ च यावदव्य-इनि प्रतौ । १६ देवो जे । १. हियं ति को हेत । १८ स्वं पि जे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६ आपाढनिह्नवः । ५४९ तेण कहिले नि । देव एवासाविति निचितं सत्यमेतत् , तेनायातत्वात् 'दया धर्मः' इति यथा । नन्वेवं प्रतिप्रमाणमपि-साधुर हमिति सत्यमेतत, तेनाख्यातत्वात् , दयाधर्मवाक्यवत् । तथा साधुरेवाहम् , साधुरूपवेषधारित्वात् , प्रसिद्ध. साधुवत् ॥२८४३॥ देवस्स व किधै वयणं सच्चन्ति ण साधुरूबधारिस्स । ण परोप्परं पि बंदध नं जाणता वि जतयो त्ति ॥२८४४॥ देवस्स व गाहा । देवस्य वचनं सत्यम् , न साधोः-साधुरूपधारिण इति विशेषहे तोरभावात् कथमिदं प्रतिपत्तव्यम् ? यतश्च भवतां स्वसंवेद्येऽपि परस्परं यतित्वे परस्परावन्दनात् सन्देहः ॥२८४४॥ तेषां हि कथम् --- जीवादिपतत्थेमु अ सुहुम-व्यय हित-विकिटरूवेर्मु । अच्चन्तपरोक्खमु अ किय ण जिणादीमु में संका ? ॥२८४५।। जीव० इत्यादि । जीवादि पदार्थ 'त्पन्नसूम-व्यवहित-विप्रकृष्टप्वयन्तपरोक्षेषु किं न सन्देहः स्यात् ! तत्सन्देहे सर्वमेव दीक्षादिविफलमिति मुच्यतामसद्ग्राहः ।।२८४५॥ तव्वयणातो व मती णणु तव्ययणे सुसाधुवित्तो त्ति । आलयविहारसमितो समणोऽयं वन्दणिज्जो त्ति ॥२८४६॥ तब्धयणातो गाहा । स्यादेपा बुद्धि:---तद्वचनाजीवादिपदार्थषु न संदेहः । एवं तर्हि तद्वचने इदमप्यस्ति 'आलयविहारसमितो समणोऽयं वन्दणिज्जो' त्ति ॥२८४६॥ जय वा जिणिन्दपडिमा निणगुणरहित त्ति जाणमाणा" वि । परिणामविमुद्भत्थं [१८७-द्वि०]वंदध तध किं ण साधू पि ? ॥२८४७॥ जध वा गाहा । अथवा आलयविहारसमिताः सर्वणापि वन्दनीयाः, परिणामविशुदिहेतुत्वात् , जिनगुणहितजिनेन्द्रप्रतिमावत् ।।२८४७।। एतत् - प्रमाणान्वयप्रदर्शनार्थ गाथेयम्होज्ने ण वा साधुत्तं जतिरूवे णस्थि चेव पडिमाए । सा कीस बंदणिज्जा नतिरूवे कीस पडिसेधो ? ॥२८४८॥ १ कि हे त । २ सच्चंति को हे । ३ वन्द हे । ५ गन्ता हे । ५ जयउ को हे त । वि को। , व्यविहित ८ वेमु को हे त । ९च्चंत को। १० गिद को हे । १। 'दिम को हे त । १२ हियं ति को हे। १३ 'माणो जे । १४ हुज्ज है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [ नि० ५६६ होज्ज ण वा गाहा । प्रतिमायां निःसन्दिग्धं जिनगुणरहित] [व] मचेतत्वात् । यदि [ति] रूपे कदाचित् संयमगुणसम्भवोऽपि । ततस्तत्र किं प्रतिषेधः : - 'किमिति क्षेपे'- न युक्तः प्रतिपेध इति काक्वाऽभिधानम् ||२८४८|| ५५० इतर आह---- 'अस्संजतजतिरुवे पावाणुमती मती ण पडिमाए । णणु देवाणुगताए पडिमा वि होर्जे सो दोसो ||२८४९|| अस्संजत० गाहा । अत एव कदाचित् सम्भवात् कदाचिदसम्भवात् यतिरूपे युक्तः प्रतिषेधः, असंयतयतिरूपे सावयक्रियानुमोदनात् प्रतिमायां तदोपासम्भवादेकान्तेन वन्दनीयत्वमिति । ननु प्रतिमायामपि सन्निहितदेवनायाम् असंयतपापानुमतिस्तुल्येति तत्रापि प्रतिषेधः प्राप्तः, नेप्यते ||२८४९| तत्प्रतिसमाधानार्थमाह अथ पडिमा ण दोसो जिणबुद्धीय णमतो विशुद्धस्स । तो जतिरूवं णमतो 'जतिबुद्धीए करें दोसो ? ॥२८५०॥ अध पडिमा गाहा । यतिरूपमसंयतमपि गुणवदबुद्धचा नमस्यतो न दोपः प्रत्युत निर्जरागुणप्राप्तिरपि विशुद्धभावत्वात्, सन्निहितासन्निहितदेवता [म्) जिनप्रतिमामिव ॥ २८५० ॥ --साध्यधर्मविकलो दृष्टान्तः, जिनप्रतिमायामपि दोष एव देवता अथात्र ब्रूयात् शङ्कयेति अत आह अथ पडिमं पि ण बंदध देवासंकाय तो ण 'बेतवा | आहारोवधिसेज्जा मा देवकता "हवेज्ज पहु ||२८५१ ।। को जाणति किं भत्तं किमयो किं पाणयं जलं मज्जं । किमलाबु माणिक्कं किं सप्पो चीवरं हौ ||२८५२॥ को जाति किं सुद्धं किमसुद्धं किं "सजीव - णिज्जीवं । किं भक् किमभक्खं पत्तमभक्खं ततो सव्वं ॥ २८५३ || अथ पडिमं पि गाथात्रयम् । दृष्टान्तप्रसाधनमिदम्-जिनप्रतिमायां गुणबुद्धचा न दोषः, भावविशुद्धिग्रहणात्, आहारोपधिशय्यादिष्विव । अथाहारादिष्वपि 1 १ असं हे । २ माएको हे त । ३ हे । प्रत्यां नास्ति ४ होज्ज को, हुज्जत । ५ ए को हे, 'माइ त । ६ 'डीए को हे त । ७ का को, 'काइ हे त । ८ तो घेत जे । ९ °धिसज्जा हे । १० भव' को है । 'वेज त । ११ दोरो को । १२ वमज्जी को । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५१ नि० ५६६] आपाढनिवः । शकैव-किं भक्तम् ? किं कृमयः ? कि पानम् ? आहोस्वित मद्यम् ? किम् अलावु ? किं माणिक्यम् ? चीवरमपि किं सर्पः ? किं हारः ? इति सर्वत्र संशयात् सर्वव्यवहारलोपाल्लोकागमविरोधौ । एवमेवान्येऽपि दोषाः इति अभ्युपगमविरोधं सूचयति ।। २८५१-५३॥ जतिणा वि ण सहवासो सेओ पमयाकुसीलसंकाए । होज्न गिही वि जति त्ति य तस्सासीसा ण दातव्या ॥२८५४॥ ण य सो दिक्खेतव्यो भन्योऽभव्यो त्ति जेण को मुणति । [१८८-०] चोरो तिचारियो त्ति य होज्न व परदारगामि त्ति ॥ २८५५।। को जाणति को सीसो को व गुरू तो ण तबिसेसो वि । गज्झो ण योवदेसो को जाणति सच्.मलियं ति ॥२८५६।। किं बहुणा सव्वं चिय संदिद्धं जिणमतं जिणिन्दा" य । परलोगसग्गमोक्खा दिक्खाये किमत्थमारम्भो ? ॥२८५७॥ जतिणा गाहा ४ भावितार्थाः । अध संति जिणवरिन्दो तव्ययणातो य सव्वपडिवत्ती। तो तव्वयणाती"च्चिय जतिन्दणयं कधं ण मतं? ॥२८५८॥ जति जिणमतं पमाणं मुणि त्ति तो बज्झकरणपरिसुद्धं । देवं पि चन्दमाणो विसुद्धभावो विसुद्धोतु ॥२८५९॥ अध सन्ति गाथाद्वयम् । अथ लोकाभ्युपगम-विरोधौ मा भूतामिति जिनेन्द्रा जिनप्रवचनं [च] निःसन्दिग्धम् । तदुक्तावादेव यतिवन्दनमपि गुण बुद्धया कर्त्तव्यम् , [भग]वद्भिरक्तत्वात्, आहारादि ग्रहणवत् , गुरूपदेशादिवद्वा । अवि. धात्राशङ्कव न युक्ता कर्त्तम् . अन्यस्य देवस्य यतिवेषधारिणः कचिदप्यदृष्टत्वात् , योऽन्यदषाढशरीराच्छरीरमधिष्टास्यति ॥ २८५४-५९॥ अत इयं गाथा-- जध वा सो जतिवेसो" दिट्ठो तो" "केत्तिया सुरा अण्णे । तुब्भेहि दिट्टपुव्वा सव्वत्थापच्चयो जंभे ॥२८६०॥ १ °माहोस्समलाबुद्धिमाणिव यम्- इति प्रतौ। २ संवा हे त । ३ त्ति तस्सा जे । ५ चोह को हे त । ५ रिउ को हे। ६ व त। ७ होइ हे । ८ तओ हे । ९ चौव त हे। १. च्चमिलि त । ११ जिंदा को हे । १२ °क्खाइ त । १३ क्खाए को हे त । १४ °रिंदा को हे। १५ गाउ को हे। १६ वंद° को हे १७ 'वंद को। १८ सुद्ध त । १९ त्ति हे त । २० तिरूवो हे त। २१ त ह को हे त । २२ कित्ति हे । २३ भेहि को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६जध वा सो यतिवेषधारित्वं सविशेषणं यत्तत्रैवापाढदेवे दृष्टम् , तत्रैव संयम कारिणं आपाढसाधुशरीराधारयतिवेपधारित्वादेवोपमिति तिः, नैवान्यत्र साधौ देवत्वं गमयति असाधारणत्वाद् दृष्टान्ताभावात् ॥२८६०॥ अथोपसंहारगाथा निगमनाय - छतुमत्थसमयचज्जा ववहारणयाणुसारिणी सव्वा । तं तध समायरंतो सुज्झति सव्यो वि सुद्धमणो ॥२८६१॥ संववहारो वि वली जममुद्धं पि गहितं सुतविधीए । कोवेति ॥ सपण्ण बन्दयि य कतायि छतुमत्थं ॥२८६२॥ णिच्छयववहारणओ[१८८-द्वि०]वणीतमिह समाणं जिणिन्दागं । एकतरपरिच्चाओ मिच्छं संकातयो जे य ॥२८६३॥ . छतुमत्थसमयेत्यादि गाथात्रयम् । सर्वत्र छमस्थकालिकी चर्या व्यवहारनयानुसारिणीति । प्रमागमत्र-मस्थस्य भावशुद्धया असंयतयतिरूपवन्दनं न दोषाय सूत्रानुसारित्र्यवहार नया नुवति वान्, सूत्रविधिगृही सर्वज्ञानुमतसदोषाऽऽहारपरिभोगवत् , अथवा के बलिनः छद्मस्थवन्दनवत् । तस्मान्निश्चयव्यवहारद्वयोपसंगृहीत शासने. ऽस्मिन्ने कतरपरित्यागो मिथ्या दर्शन मिति शङ्का न कार्या ॥२८६१-६३॥ जति जिणमतं पयज्जध तो मा ववहारणयमतं मुयध । ववहार रिच्चाए तित्थुच्छेतो जतोऽवस्सं ॥२८६४॥ जति जिण. गाहा । व्यवहारनयो न परित्याज्यः, जिनेन्द्रानुमतत्वान्निश्चयनयवत् । व्यवहारनयपरित्यागाच्च तीर्थीच्छेदोऽवश्यं भावो। सम्प्रत्यपि संयमक्रियानुष्टानात् दुः(१)पम दुःपमायामिव ।।२८६४।। इय ते णासग्गाहं मुअंति जाधे बहुँ पि भणन्ता ।। तो संघपरिच्चत्ता रायगिहे णिवतिणा णातुं ॥२८६५।। बलभदेणग्याता भणंति ते सावयं तवस्सि त्ति । मा कुरु संकमसंकारुहेमु भणिते भणति राया ॥२८६६।। को जागति के तुभे किं चोरा चारिया अहिमर ति । संजतरूपच्छण्णा सज्जम भे विवादेमि ॥२८६७।। १ गिंदा को ह । २ ता को । ३ रनिच्छए को । ४ रन उनए को । ५ °णता को हे । ६ मावय को हे त । ७ वयं को त, वं हे । ८ 'हिरम त । ९ अज्ज" को हे त। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५३ २3 नि० ५६६] अश्यमित्रनिह्नवः । णाणचेरियाहि णज्जति समणोऽसमणो व कीस जाणंतो । तं सावय ! संदेहं करेसि भणिते 'णिवो भणति ॥२८६८।। तुभं चिय ण परोप्पर वीसंभो साधयो त्ति 'किध मज्झं । णाणचरियाहि जायतु चौराण व किणे ता संति ॥२८६९।। उवत्तितो भयातो य पवण्णो सच्.मयसमैग्गाहो" । णिक्खामिताभिगंतुं गुरुमूलं ते पडिक्ता " ॥२८७०"। ___ इय ते इत्यादिसर्वाः स्फुटार्थाः ।।२८६५-७०॥ ॥ इति तृतीयोऽव्यक्ताभिधाननिह्नववादः ॥ वीसा दो वास[१८९-०]सता तइया सिद्धिं गतस्स वीरस्स । सामुच्छेइयदिट्ठी मिधिल पुरीए समुप्पण्णा ।।२८७१।। मिधिलाए लच्छिघरे महगिरि कोण्डिण्ण आसमित्ते य । णेउणियेणुप्पवाते रायगिहे खण्डरक्खा य ॥२८७२।। णेउणमणुप्पत्राते अधिग्जितो वत्थुमासमित्तस्स । एक्कसमयातिवोच्छेतमुत्ततो णासपडिवत्ती ॥२८७३।। वीसा दो वाससता गाहा । मिधिलाए । णे उणमणुप्प वाते गाहा । अश्वमित्रस्यानुपवादपूर्वमधीयानस्य नैपुणं नाम वस्तुसूत्रम् तत्र एकसमयाद्युत्पाद. विनाशप्रबन्धात् सर्ववस्तुविनाश इति प्रतिपत्तिरुपजाता ।।२८७१-७३।। तस्याश्चोपपत्ति:उप्पाताणंतरतो सव्वं चिय सव्वधा विणासि त्ति । गुरुवयणमेगणयमतमेतं मिच्छं ण सव्यमतं ॥२८७४॥ उप्पाताणंतरतो गाहा । सत्यम , उत्पादानन्तरं विनाशो भवति । एतदेकनयमतमेकान्तेन मिथ्यादर्शनेन, [न] सर्वपां नयानां मतम् ॥२८७४।। ण हि सव्वधा विणासो अद्धापज्जायमेत्तणासम्मि ।। "सपरप्पज्जायाणंतधामणो वत्थुणो जुत्तो ॥२८७५।। १ किरि' को त। २ याहिं को हे । ३ °रेमि त । ५ पुणो त । '. परापरं हे । ६ कह हे । ७ णकिरि' को त। ८ याहिं को हे । ९ यद हे त । १. वि को हे त। ११ कि न को हे। १२ वउत्ति है। १३ पव्वण्णा हे त । पव्वणा को । १४ पव्यम° त, सव्वम हे। १५ यमसग्गाहा को, यमसग्गाहे हे । १६ गाहे त । १६ वकता ॥ १८ अयं पाठः त । १९ एसा हेसम्मता नियुक्ति गाथा । २० कोडि को हे त म दी हा । २१ "णियाणु' हे दो हा । एपापि २८७२ संख्यावती हेसम्म ता नियुक्तिगाथा । २२ अहिज्जओ को हे त । २३ एगस को हे त । २५ °सोऽद्धा हे । २', रपज्जा जे त हे । २६ धम्मिणो जे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६ण हि गाहा । योऽपि चासावुत्पादानन्तरं विनाशः, सोऽपि न सर्वथा छेद एव किन्तु अद्वापर्यायमात्रना[शोऽ]सौ, यतो द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव-पर्यायावनद्धस्वपरपर्यायानन्तधर्मकं वस्तु, तस्यैकेन समयमात्रविशेषणेन नाशात् सर्वथा विनाशो वक्तुं न युक्त इति ॥२८७५|| एवं गुरुणाऽभिहितेऽश्वमित्रः' पुनराह-आगमप्रमाणा गुरवः वयं च । ततो यत्सूत्रेऽभिहितं तत् कथमप्रमाणं भविष्यतीति आगमविरोधः किलाचार्यस्येति । तत उच्यते - अध सुत्तातो त्ति मती गणु सुत्ते सासतं पि णिदिनें । वत्थु दव्वट्ठाए असासतं पनवहाए ॥२८७६॥ अध सुत्तातो गाहा । ननूक्तमस्माभिः-एकनयमतमेतत् यतो द्वितीयनयमतमपि सूत्रेऽस्ति-द्रव्यार्थतः शाश्वतं वस्तु, पर्यायार्थात्(द)शाश्वतमिति ॥२८७६।। एत्य वि ण सव्वणासो समयादिविसेसणं जतोऽभिहितं । इधरा ण सव्वणासे समयातिविसेसण जुत्तं ॥२८७७।। एस्थ वि गाहा । अत्रापि च पर्यायनयमतेन सर्वनाशः किन्तु एकसमयोत्पादादेकसमयविनाशात् स्वसमयविशेषणान्न सर्वप्रकारोत्पाद-विनाशौ ॥२८७७|| तदुदाहरतिको पढमसमयणारगणासे वितिसमयणारगो णाम । ण सुरो घडो अभावो व होति जति सम्वधा णासो ॥२८७८॥ को पढम० गाहा । प्रथमसमयोत्पन्नो नारकः 'प्रथम समयः' इत्युच्यते । स एव तेन प्रथमसमयविशिष्ट नारकत्वेन विनश्यन् द्वितीय समयस्थितिविशेषणात् 'द्वितीयसमयनारकः' इति व्यपदिश्यते । समया उत्पते(यन्ते) विनश्यन्ति च, नारकत्वं तु असंख्येयकालस्थिति भवान्तकालमवतिष्ठते । तेन द्वि(हि) प्रथमसमयादिकालपर्यायेणोत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति तदुत्पादविगमान्न सर्वथा विनाशः । तस्य प्रथ समयनारकविनाशे सर्वात्मना नारकोच्छेदः (दे) कोऽसौ द्वितीयसमये नारको नाम पूर्वस्माद् अत्यन्त भिन्न जातीयः कि देवः ? आहोस्विद् घटः ? किमभाव एव सर्वथा नाशात् ? उन्यते च भवता 'नारकः' इति । तस्मान्नारकपर्यायाऽव्ययी स स्थिति कालावस्थायी न विनष्ट इति तेना(न) व्यपदिश्यते ॥२८७८।। १ तश्वमियः पु-इति प्रतौ । २ ताउ को हे । ३ सुत्ते नणु को हे । ४ 'जयहा हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६ ] उपोद्घाते सामुच्छेदिकदृष्टिनिहवः । अधव समाणुप्पत्ती समाणसंताण[१८९-द्वि०]तो मती होज्जा । को सव्वधा विणासे' संताणो किं व सामण्णं ॥२८७९।। अधय गाहा । सेनानग(सेनावन)सन्ततिवासनातः समानरूपोत्पत्तिरिति सादृश्यभ्रान्त्या स एवेति व्यपदेशः । तत् तु अत एवायुक्तम् । सर्वथा विनाशे निरवये कः सन्तानः, कि वा सामान्यम् ? ॥२८७९।। अपि चसंताणिणो ण भिण्णा जति संताणो ण णाम सन्ताणो । अध भिण्णो ण क्खणियो खणियो वा जति ण सन्ताणो ॥२८८०॥ संताणिणो गाहा । नासौ सन्तानः, सन्तानिभ्यः सकाशाद[न]न्यत्वात् , सन्तानिवत् । अथायं दोषो मा प्रापदिति भिन्नत्वमभ्युपगम्यते, ततः सन्तानोऽक्षणिकः प्राप्नोति, क्षणिकेभ्यः सन्तानिभ्योऽन्यत्वात् , आकाशवत् । ततश्च क्षणिकं सर्वमिति पूर्वाभ्युपगमविरोधः । अथैतस्यापि क्षणिकत्वमभ्युपगम्यते । ततोऽसौ सन्तानो न भवति, क्षणिकत्वात् , सन्तानिवत् ॥२८८०॥ पुव्वाणुगमे समता होज्ज ण सा सव्वधा विणासम्मि । अध सा ण सव्वणासो तेण समं वा गणु खपुप्फ ॥२८८१॥ पुन्वाणुगमे गाहा । यदि पूर्वमुत्तरत्रानुगच्छति, ततः समता सादृश्यं भवेत् । सर्वथा विनाशयुक्तं तदभ्युपगम्यतेऽनुगमाऽभावात्। पूर्व विज्ञानस्य च सविषयस्य नष्टत्वात् उत्तरक्षणवस्तु कस्य समानम्, कस्य वा समबुद्धिरुभयोनिरन्वयनष्टयोः । अथ सा समता अभ्युपगम्येत, न तर्हि सर्वथा नाशः, कस्यचिदंशस्यान्वयिनो नित्यस्याभ्युपगमात् । अथ सर्वथा विनाशेऽपि सभागसंततेः समताऽभिमन्यते । ततः खपुष्पमपि पूर्वेण समानमस्तु, निरन्वयात्, उत्तरक्षणवत् ॥२८८१।। अपि चानिष्टप्रसङ्गःअण्ण विणा से अण्णं जति सरिसं होति होतु तेलोक्कं । तदसंबद्धं च मती सो – कतो सव्वणासम्मि ॥२८८२।। अण्णविणासे गाहा । पूर्वस्मिन्निरन्वयेऽपि नष्टे त सदृशं सर्वं त्रैलोक्यमुत्पद्यताम्, निरन्वयत्वात् , तदुत्तरक्षणवस्तुबत् । न च त्रैलोक्यं तत्सदृशमुत्पद्यते, दृष्टेष्टविरोधात् । १ णासो त । २ तत्त्व एवायुवतं सं-इति प्रती। हुज्ज हे । ५ पुव्वणुभंग इति प्रतौ । ५ तेलुक्कं हे । : वि को हे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६अथ पूर्वेण सह सम्बन्धोऽस्ति प्रत्यासन्नि(त्ति)रुत्तरस्येति युक्तं तत्र सादृश्यम्, न त्रैलोक्यस्य, असम्बद्धत्वादिति । आचार्य आह-सोऽपि सम्बन्धो नैव सर्वनाशे युज्यत इत्यभिप्रायः ॥२८८२॥ अपि चासौ क्षणिकवादी पर्यनुयुज्यते-- किधे वा सव्वं खणियं विण्णातं जति मती सुतातो ति । तदसंखसमयसुत्तत्थगहणपरिणामतो जुत्तं ॥२८८३॥ विध गाहा। कथमेतत् त्वया विज्ञातं सर्व क्षणिकमिति ? क(का)दाचिद्रूपाच्छूतज्ञा. नादिति । ततः असंख्येयसमयमूत्रार्थग्रहणपरिणामपरिसमाप्तेः असंख्येयकालावस्थानं युक्तम् ॥२८८३॥ ण तु पतिसमयविणासे 'जेणेक्के कक्खरं चिय पदस्स । संखातीतसमइयं 'संखेजाई पदं ताई ॥२८८४॥ *संखेजपतं वक्कं तदत्थरोहणपरिणामतो होना। सव्वखणभंगणाणं तदजुत्तं समयणगुस्स ॥२८८५।। ण तु पतिसमय० गाहा । नैव प्रतिसमयविनाशे श्रुतज्ञानोपयोगः, यस्मात् पदस्यावयवा अक्षराणि, तथैकै कमक्षरमसंख्येयसमयम् , संख्येयान्यक्षराणि पदम्, संख्येयानि पदानि वाक्यम्, वाक्यात्तदर्थग्रहणपरिणामः-सर्वं जगत क्षणिकमिति एतावन्तं कालमवस्थितस्यैकस्याऽक्षणिकविज्ञाने युज्यते वक्तुम, न तु समयमात्रनष्टस्य ॥२८८४८५॥ न केवलमेतदेवायुक्तमन्यदपि क्षणभङ्गवादिनो न युःयते-- तेत्ती" समो किलामो" सारिक्ख विवेकखपच्चयादीणि । अज्झयणं [१९०-५०] ज्झाणं भावणा का सव्वणासम्मि ॥२८८६।। तेत्ती समो गाहा । तेत्ती तृप्तिः "धाणिरित्यर्थः, श्रमः खेदः, “किलामो" क्लमो ग्लानिरित्यर्थः, सादृश्यं साधयं, विपक्षो वैधवें, प्रत्ययः प्रतीतिरवबोधः, अध्ययन ग्रन्थाभ्यासः, ध्यानमे कालम्बनस्थैर्यम्, भावना वासना-पुनः पुनः क्रियान्यावृत्तिःएतानि सर्वनाशे सर्वाणि न युज्यन्ते । ततश्च लोकागमविरोधौ ॥२८८६॥ ___एतान्येव भावयन्नाह१ कध त । २ सुयाउ को हे । ३ पयस त । ४ जेणिविक हे । . 'साम हे। ६ संखिज्जा को हे। ७ संखिजा हे । ८ यग्गह है। यगाह त। ९ हुज्जा को हे। १० तित्ती को हे। बत्ती त । ११ लासो त । १२ 'विरक्ख त । १३ य को हेत। तृप्तिः गिरि -इति प्रतौ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६] उपोद्घाते सामुच्छेदिकदृष्टिनिह्नवः । अण्णोणो पतिगासं भोत्ता अंते ण सो वि को तेत्ती । गंतादयो वि एवं इय संववहारंवोच्छित्ती ।।२८८७॥ अण्णोण्णो पतिगासं । "प्रसु ग्लसु अदने" प्रसनं ग्रासः कवलप्रक्षेपः, प्रासं प्रासं प्रति प्रतिग्रासं भोक्ता देवदत्तः अन्यश्चान्यश्च क्षणिकवादे भवति, अन्ते पुनः क्रियायाः भुजो जे)रभावः, भोक्ताऽपि नास्ति, ततोऽन्त्यमासे क्षिप्ते का तृप्तिः, कस्य वा ? एतन्न युज्यत एव । तथा च न गच्छतो गन्तुः श्रमो भवतीति । गन्ताऽप्येवम्-प्रथमपादो . द्वारे गन्ता यः स द्वितीयपादो द्वारे नष्ट इत्यन्यो गन्ता, पुनरप्यन्यः पुनरप्यन्य इति अन्त्यपादो द्वारे गतेरभावाद्गन्तैव नास्ति, कः श्रमो नाम ! कस्य वासौ ! एकस्य खेदाभावात् । एवं सर्वेषु भावना । ततश्च लोकशास्त्रव्यवहारोच्छेदः प्राप्त इति क्षणिकवादस्त्याज्यः ॥२८८७।। अथाश्वमित्रः प्रत्यवतिष्ठते - जेणं चिय पतिगासं भिण्णा तेत्ती अतो चिय विणासो । तित्तीए तित्तस्स य एवं चिय सव्वसंसिद्धी ॥२८८८।। जेणं गाहा । प्रतिग्रासमिति वीमा प्रथम प्रासभोक्ता द्वितीयग्रासभोक्तुरन्यः, भिन्नविशेषणत्वात , भोक्तृस्नातृवत् । प्रथमग्रासश्च द्वितीयमासे न भवःयतो प्रासभेदादेव तद्रोक्तुरन्यत्वमिति भोक्तारो भिन्नाः, तृप्तयोऽपि च भिन्ना एवेति ग्रासस मुत्कर्षात् । येनैव कारणेन भोक्तृभेदस्तृप्तिभेदश्च तेनैव कारणेन पूर्वविनाशादुतरो. पादात् क्षणभङ्ग इति । एवमेव तृप्तितृप्तयोविनाशसिध्या सर्वेषां गन्तृश्रमादीनां विनाशसिद्धिरिति ॥२८८८॥ __ आचार्यः प्रत्युत्तरमाहपुबिल्लसन्मणासे "वढी "तेत्तीए कि णिमित्तातो"। अध सा वि तेऽणुवत्तति सबविणासो"कधं जुत्तो ॥२८८९॥ पुधि० गाहा । पूर्वप्रासस्य सर्वथा नाशे तृप्तेर्वृद्धिदृष्टा सा कि निमित्ताऽ. भावतः क्षणभङ्गवादिनः ? अथासौ वासनाऽपेक्षेति पूर्ववासनामनुवर्तते । नन्वेवं न सर्वात्मना नाशः पूर्ववासनान्वयत्वात् ॥२८८९।। दिक्खा बि सव्वणासे किमत्थमधवा मती विमोक्खत्थं । सो जति णासो सबस्स तो तओ"किन्थ दिक्खाए ॥२८९०॥ १ अण्णण्णो को हे त । २ भुत्ता हे । ३ अन्नेण त । १ को को। ५ तित्ती को हे। ६ गंतोदए त । ७ रवुच्छि हे। ८ तित्ती को हे । ९ चिय हे । विय त । १० वुड्ढी को हे त । ११ तित्ती य को हे त । १२ ता भे को। १३ °णासे हे । १४ व को हे त । १५ किथ को, कि व हे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ विशेषावश्यकभाप्ये [नि० ५६६दिक्खा वि सव्वणासे गाहा । प्रत्रच्या दीक्षाप्यफला सर्वथा नाशे अभावफलत्वात् वन्ध्याप्रवाहनवत् । अथैषा बुद्धिर्मोक्षार्थ दीक्षेति । असिद्धो हेतुः । अत्रोच्यतेमोक्षो यदि भावः, न तर्हि सर्वनाश:- इत्यभ्युपगमविरोधः । अथाभावो मोक्षः ततः सिद्ध एव हेतुः, सर्वस्यापि च प्रयत्नमन्तरेण नाशस्यावश्यं भावित्वाद्विनैव 'दीक्षया मोक्षप्राप्तिरिति विफला दीक्षा ॥२८९०॥ अप णिच्चो ण क्खणि तो सव्वं अध मती स संताणो । णे हतो त्ति ततो दिक्खा णिस्सन्ताणस्स मोक्खो त्ति ॥२८९१।। अध णिच्चो गाहा । अथ नित्यो मोक्षः सर्वस्यावश्यं भाविवाद्भावश्च । ततः सर्व क्षणिकमिति प्रतिज्ञाहानिः । अथवा दीक्षा प्र(म तिदीर्थसन्तानविच्छेदाय, निःसन्तानस्य मोक्ष इति ॥२८९१।। एवमपिछिण्णेणाछिण्णेण व किं संताणेण सव्वणहस्स । किं वाऽभावीभूतस्स सपरसन्ताणचिन्ताए ॥२८९२॥ छिण्णेण गाहा । सर्वथानष्टस्य सर्वस्यैव सन्तान:] छिन्न इति न दीक्षादि. यत्नेनार्थः । किं वा तस्याभावीभूतत्वात् स्वपरसन्तानविच्छेदचिन्तया, वन्ध्यापुत्रस्येव सन्तान इति न दीक्षादियत्नेनार्थः ॥२८९२॥ यदुक्तं ' सर्व क्षणिक [इति ] प्रतिज्ञाहानिः प्राप्ता' इति तासमाधानार्थमाहसव्यं पयं व खणियं पज्जते णासदरिसणातो" ति।। णणु ऐतो च्चिय ण "क्ख[१९०-द्वि०]णियमंतणासोवलद्धीतो ।२८९३। सव्वं गाहा । सर्व क्षणिकं पर्यन्तेऽवश्यम्भाविनाशवात् । आचार्य आह. अनु एव न क्षणिकं सर्व, पर्यन्तेऽवश्यम्भाविनाशत्वात् पयोवदिति धर्मस्वरूपविपरीतसाधनो विरुद्ध इत्यभिप्रायः आरादविनष्ट मने विनश्यतीति ॥२८९३।। इधेरादितो च्चिय तओ "दीसेज्जते 3 कीस व समाणे । सव्वविणासे" णासो दीसति "अंते ण सोणत्थ ।।२८९४॥ इधरादितो च्चिय गाहा । यस्य सर्व क्षणिकं तम्यादित एवं नाशेन भवितव्यं क्षणिकत्वात्तदन्तवत् । किमिति सर्वनाशे समाने पर्यन्त एव दृश्यते नाशः, १ दीक्षायया इति प्रतौ । २ अह' त, भहउ हे । ३ संता को हे । ४ मुवः। हे । ५ दीर्घः-इति प्रतौ । ६ णेण अछि' को। ७ कि अभा को, किं चाभा हे। ८ संता को हे। ९ 'चिंता को हे। १० गाउ को हे । 11 इत्तो को हेत । १२ खणि को हे। १३ मंते नासो को हे त। १५ नष्टं मग्रेवि इति प्रतौ। १५ ‘राइउ को हे, रातो त। १६ दोसज्ज त । १७ व को । १८ माणो हे त । १९ °णासो त । २० अन्नो ण त । २१ त्तदंभवत्-इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६] उपोद्घाते सामुच्छेदिकदृष्टिनिहवः । नान्यत्रादौ मध्ये वा ? ॥२८९४॥ अंते व सव्वणासो पडिवण्णो केण जतुवलद्धीतो । कप्पेसि ग्वणविणायं णणु पज्जायंतरं तं पि ॥२८१.५।। अंते व सव्व० गाहा । अन्ते वा केन सर्वनाशः प्रपन्नः पर्यन्तेऽवश्यं. भाविनाशत्वादित्यन्यतराऽसिद्धः । ततश्च सर्वक्षणिकसाध्यधर्मविकल्पनाऽपगता, यथैवायो नाशः पर्यायान्तरमेवमन्त्योऽपि नाशः पर्यायान्तरमेव, दीपादेर्मपीपरिणामापत्त्यादिवत् ॥२८९.५।। जेसिं च ण पज्जते विणासदरिसणमिहवरातीणं । तं णिच्चभुवगमतो सव्वखंणविणासमनहाणी ॥२८९६।। जेसिं च गाहा । अथवान्युपगम्य पर्यन्ते नाशं आकाशवैधर्म्यदृष्टान्तसद्धा वादक्षणिकत्वमम्बरादीनाम् । अतः सर्वक्षणिकप्रतिज्ञाहानिः तदवस्था ॥२८९६।। पज्जायणयमतमिणं जं सव्वं विगमसंभवसभावं । दबट्टियस्स णिच् एगतरमतं च मिच्छत्तं ।।२८९७।। पज्जाय. गाहा । एतच्च क्षणिकत्वं पर्यायनयमतम् । सर्व हि वस्तु परमार्थतः विगमसम्भवपर्यायद्योपगृढं पर्यायनयमतम् । द्रव्यार्थिक नयस्य मतम् सर्वमेव ध्रुवं नित्यम् । एकतरपरित्यागादेकतरपरिग्रहो मिथ्यादर्शनमि युभयसङ्ग्रहः कार्यः ॥२८९७|| जमणंतपज्जयमयं वत्थु भुवणं व चित्तपरिणामं । 'थितिविभयभंगरूवं णिच्चाणिच्चातितोभिमतं ।।२८९८।। जमणंतपर्यायं स्थितिविभवर्भङ्गरूपैश्चित्रपरिणामं वस्तु, अनन्तपर्यायत्वात् , नित्यानित्योभयरूपवक्रवर्जुत्वविगमसम्भवाङ्गुलिद्रव्यवध(त्) सकलभुवनवत् । यदेव किञ्चिदिष्टं स एव दृष्टान्त इत्यर्थः ॥२८९८॥ मुहदुक्खवंधमोक्खा उभयण यमदाणुवैत्तितो जुत्ता। एगतरपरिच्चाए सव्वव्यवहारविच्छित्ती ।।२८९९।। सुह• गाहा । सुखदुःखबन्धमोक्षभाक् स्याहादी संसारी पुरुषः, द्रपपर्यायोभयरूपत्वात् , राजापराधिकृतं(त)प्रसाददेवदत्तवत् ।।२८९९।। १ खण' हे । २ °णासो त । ३ व हे। ४ °हचरा त । ५ तन्निच्च को है। ६ व्वक्ख' को हे । ७ णासिम हे । ८ ठिइवि' को हे त । ५ वसङ्ग इति प्रतौ । १० धमुक्खा हे। 11 वित्तिगो त, वट्टिगो हे, "तिमा को। १२ 'वोच्छि' को हे, 'बुटि त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६ण मुहाति पज्जयमते णासातो सव्वधा मतस्सेव । ण य दवट्टियपरखे णिच्चतणतो णभस्सेव ।।२९००॥ ___ण सुहाति गाहा । पर्यायनयपरिकल्पितपुरुषः मुखदुःखबन्धमोक्षभाग न भवति, क्षणभङ्गनाशिस्वात. मृतपुरुषवत् । दयार्थन यकल्पितपुरूषोऽपि न सुखादिभाक्, एकान्तं नित्यत्वात् , आकाशवत् ।।२९००॥ जति जिणमतं पमाणं तो मा दबढियं परिच्चयसु । [१९१-प्र०]सकस्स व होति जतो तण्णासे सेव्यणासो ते ॥२९०१॥ जति जिणमतं । अपि च, जिनप्रवचनप्रमाणको भवान् । जैन एवं न भवति, पर्यायमात्रग्राहित्वात्, शाक्यवत् , द्रव्यार्थनाशात् द्रव्यार्थपरित्यागात्, पर्यायमात्र सर्वनाश एव ते भवतीति ॥२९०१॥ इय पण्णवितो वि जतो ण पज्जति सो नेतो कतो बज्यो । विहरंतो रायगिहे णान तो खण्डरक्वेहि ।।२९०२॥ गहितो सीसेहि समं एतेऽहिमर त्ति जपमाणेहिं । संजतवेसच्छण्णा सज्ज सव्वे समाणेध ॥२९०३।। अम्हे सावय जतओ कन्युप्पण्णा कर्हि व पचइता । अमुगत्थ "न्ति सड्ढा ते योच्छिण्णा तदा चेों ॥२९०४॥ तुम्भे तव्वेसवरा भणिते भयतो सकारणं च त्ति ।। पडिवण्णा गुरुमूलं गंतृण ततो पडिक्कता" ॥२९०५॥ इय पण्णवितो । गहितो सीसहि समं । अम्हे । सावयजतो वयं, श्रावकयतिवे. पाचारयुक्त वात, स्वभिमतयतियत् । श्रावक उवाच -- अस्मदभिमतयतयः आचार्यसकाशे वतोच्चारण पूर्व भगवढे पक्रियाधारिणः संयता भवन्ति । ननु भवतः-युष्माकं पिता माता त-पुत्रः यपदेशः, आचार्यस्तदुपदेशः, तपक्रिया कलापश्च-सर्व क्षणध्वंसिवादच्छिन्नम् . सम्प्रतिकाले भवनिरभिमरभूत्वा वेपो गृहीत इति अन्य एव भवन्तः पूर्वस्मात् प्रत्रज्या कालादित्यसिद्धो हेतुः । अनः पक्षधर्मत्यप्रतिपत्त्यर्थ भयादुपपत्तितश्च द्रव्या स्थितिरन्युपगता. सम्यक्त्वमुपजातं, गुरुपाद मूलं गत्या प्रतिक्रान्ताः । इति सामुच्छेदिक दृष्टिश्चतुर्थी निवः समासः ॥२९.२-५॥ १ 'हायप' त । २ ना त । ३ सकस्सबौद्धम्य-टि०। ४ जुतो त। ५ दव० त । ६ त्ति को हे त । ७ को तओ को हे। ८ °सेहिं को हे । ९ 'छणा को । १० सज्झं हे । ११ वेति को हे। १२ वोच्छ' हे । १३ चेव को हे त । १४ बि त । १५ °क्कन्ता हे । १६ ता ॥३५॥४१६॥ इत्यश्वमित्रनामा चतुर्थः सामुच्छेदिकनिह्नवः त ॥ १७ द्रव्यवच्छित्तिर-इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६] उपोद्घाते द्विक्रियनिह्नवः। ५६१ 'अट्ठावीसा दो वाससता तइया सिद्धिं गतस्स वीरस्स । दोकिरियाणं दिट्ठी उल्लुगतीरे समुप्पण्णा ॥२९०६।। णति खेड जणवतुल्ल महगिरि धणगुत्त अज्जगंगे य । किरिया दो रायगिहे महातकोतीरमणिणाएं ॥२९०७।। णतिमुल्लगमुत्तरतो सरते सीतजलमज्जगंगस्स । सूराभितत्तसिरसो सीतोसणवेतणोभयतो ।।२९०८॥ [१९१-हि]लग्गोऽयमसग्गाहो जुगवं उभय किरियोवयोगो नि । जं दो वि समयमेव य सीतोसिणवेतणाओ मे ॥२९०९॥ ___ अहावीसा दो वाससता इत्यादि गाथाश्चतस्रः । आर्यगङ्गस्य लानोऽयं असग्राहः- सर्वोऽपि युगपत् वे विरुद्धक्रिये बंदयते. एक.काटे उभयोदयितृत्वात, अहमिव पादशिरोगतशीतोष्णवेदनयोः ॥२९०६-९।। अत्र गुरुवचनम् तरतमजोगेणायं गुरुणाभिहितो तुमं ण लक्खेसि । । समयादिसुहुमतातो मणोऽतिचलमुहुमतातो य ॥२९१०॥ ग तरतमजेगेणायं । एककाले उभयोर्वेदायितृत्वमसिद्ध म्. यस्मात्तरतमयोगेन कमेणेत्यर्थः, समयत्रुटिलवादीनां सूक्ष्मत्वात् , मनसोऽपि सूक्ष्मवादाशुचरस्वात् दुर्लक्षः काल इति क्रमं न लक्षयति भवान् । ततश्चापक्षधर्मः ॥२९१०॥ एतदेवायुगपद् वेदनमुपपत्त्या दर्शयन्नाहसुहुमासु चरं चितं इंदियदेसेण जेण जं कालं । संबज्झति तं ते' मन्तणाणहेतु त्ति णो “तेणं ॥२९११।। उबलभते किरियाओ "जुगवण्णो दुरभिण्णदेसाओ । पातसिरोगतसीतुण्हवेतणाणुभवरुवाओ ।।२९१२॥ उवयोगमओ जीवो उवउज्जति जेण जम्मि जं कालं । सो तम्मयोवयोगो होति "जहिन्दोवयोगम्मि ॥२९१३।। सो तदुवयोगमेत्तोवउत्तसत्ति त्ति तस्समं चेौं । अत्यंतरोवयोगं" जातु कधं केण वंऽसेणं" ॥२९१४।। १ एषा हेसम्मता नियुक्तिगाथा । २ ल्लुग को हे त दी हा म । ३ °णाओ दी म । एषापि हेसम्मता नियुचि गाथा। ४ नईमु को। ५ लुग को है । ६ मज्झगं त । ७ सिण को त । सीउसिण हे । ८ सीउसि हे । ९. लग्नेयं-इति प्रतौ । १० यदोसे त। ११ तम्मत्तमाण° को हे, तस्सत्तगा' त । १२ तणे को हो । १३ जुगव दो दू' को हे । १४ जहिंदो को हे । १५ चेव को हे। १६ योगे त । १७ °सेण हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ विशेषावश्कभाष्ये [नि० ५६६समयातिमुहुमतातो मण्णसि जुगवं च भिण्णकालं पि। उप्पलदलसतवेधं व जध व तमेलातचक्कन्ति ॥२९१५।। चित्तं पिणेन्दियाई समेति सममध य [९२-०]खिप्पचारि त्ति । समयं व सुक्कसक्कुलिदसणे सव्वोवलद्धि त्ति ॥२९१६॥ 'सव्विन्दियोवलंभे जति संचारो मणस्स दुल्लक्खो । एगिन्दियोवयोगंतरम्मि किह होतु मुल्लक्खो ॥२९१७॥ अण्ण विणि उत्तमण्णं विणि योगं लभति जति मणो तेण । हत्थि पि 'थितं पुरतो किमण्ण चित्तो ण लक्खेति ॥२९१८॥ विणियोगतरलाभे व किं थे णियमेण तो समं चेयें । पतिवत्थुमसंखेज्जाऽणंता वा जैण्ण विणियोगा ॥२९१९।। बहुबहुविधातिगहणे णेश्योगबहुता मुतेऽभिहिता । तमणेगग्गहणं चिय उवयोगाणेगता णत्थि ॥२९२०।। मुहमासु० गाहा । गाथाप्रबन्धसंलग्ना एव यावद् वयह विधाति० गाधा । इह मनःसंज्ञकमन्तःकरणं चित्तम् । तच्च ममम, मनोवर्गणाग्रचितमूक्ष्मद्रव्यत्वात्, सर्वशरीरव्यापित्वेऽपि सूक्ष्म म] चक्षुप्रायम् , न लौकिकानामणुमात्र वात् सूक्ष्ममुच्यते । आशुचरमिति शीघ्रचारि, मनसो देशान्तरगमनप्रतिपधात स्वशरीर पाव प्रतीन्द्रियं उपयोगगमनात् , येन येन निवृत्त्युपकरणद्रव्येन्द्रियदेशेन यकालं सम्बध्यते तं कालं तन्मात्रज्ञानहेतुरिति, तेन कारणेन नोपलभते क्रियाद्वयं युगपत् पाद-शिशेगतशीतोष्णवेदने एकेन नानुभूयेते, दूरभिन्नदेशत्वात् हिमवद्-विन्ध्यशिवरस्पर्शनवेदनाद्वयवत् । यस्मादुपयोगमयो जीवः, स येनेन्द्रियेण यस्मिन् काल उपयुःयते यस्मिन् अर्थ ज्ञानोपयोगात् तज्ञानमय एव तत्रालं भवति उपयोगमय वात इन्द्रज्ञानोपयुक्तेन्द्रवत् । स च तदुपयोगमात्रोपक्षीणशक्तिरिति तासमकमेवाथान्तरोपयोग कथमिव यायात् ? तस्मिन् काले पूर्वेणापियोगेन परिणतत्वात् अन्तरानवकाशः । १ तदला हे। २°क्कंति को हे । दि को हे । ४ सयदि को हे । ५ एगेंदि' को हे । ६ सुल' हे त । गवि हे। ८ तेणं हे । ९ ठियं को त, ट्रियं हे । १० गन्त' हे । ११ त्थ को हे, च त । १२ चेव त । १३ जं न को है । १४ नणुव' हे। १५ तत्थालं-इति प्रती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६ ] द्विक्रियनिह्नवः । उपयुज्यमानश्च सर्वात्मनोपयुज्यत इति अंशाभावादंशेनाप्यर्थान्तरोपयोगासम्भव इति मत्वा ब्रवीति-केन वांशेनेति । समयादिश्च कालोऽतिसूक्ष्मत्वात् भिन्नोऽपि लक्षयितुमशक्यः, उत्पलदलव्यधनकालमेदवत्, अलातचक्रभ्रमणकालवत् । कदाचिच्चित्तं युगपद् सर्वाणीन्द्रियाणि प्राप्नुयादित्याशङ्का । तन्निवारणमपि -नेन्द्रियाणि समकं युगपत् समेति संप्राप्नोति; अथ च सूक्ष्मत्वात् कालस्य युगपत् प्राप्तिरिव लक्ष्यते, शुष्कशष्कुलीदशने रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-शब्दोपलब्धिवत्।। ___ यदि च सर्वेन्द्रियेषु बहुना भिन्नेन कालेन सञ्चरतो मनसः कालभेददुर्लक्षता किमु नैकस्मिन् स्पर्शनेन्द्रियोपयोगे भिन्नार्थविषये स्तोकतरत्वात् कालस्य ! दुर्लक्ष्य एकेन्द्रियोपयोगकालभेदः, सूक्ष्मत्वात्, पञ्चेन्द्रियोपयोगकालभेदवत् । अपि च शोतवेदना विनियुक्तं मनस्तस्मिन्नेव काले उष्णवेदनोपयोगं न यास्यति, अर्थान्तरोपयुक्तत्वात् , अर्थान्तरोपयुक्तविचित्र(त्त)क पुरुष इव पुरा स्थितहस्त्युपयोगम् । अथ चैकस्मिन् काले एक.. मन्नर्थोपयोग(गे) प्रतिवस्तु असंख्येया अनन्ता उपयोगाः स्युः, अर्थान्तरातिक्रान्तिः(न्तः), एकक्रियोपयोगे द्वितीयक्रियावत् । किमर्थ नियमत एव द्वे किये वेद्येते ? क्रियासहस्राण्यपि तद्वद्वेद्यन्तामित्यर्थः । __ अत्राह परः--अनेकोपयोगताऽपीटैवेति सिद्धसाधनम् , यस्माद् बहु बहुविधादिभेदा अर्थावग्रहादयोऽनुज्ञाताः । आचार्य आह-एकस्मिन्नुपयोगेऽनेकोपयोगता साध्यत्वेन प्रतिज्ञाता, बहुविधादयस्त्वावग्रहास्तेष्वेककालमेक एवोपयोगो नानेकोपयोगता । ग्रहणमुपयोगः । अनेकस्मिन् ग्रहणमने कमणमिति समासः । ततश्च न सिद्धसाधनम् । शीतोष्णवेदनयोस्तु एकस्मिन् काले भिन्नमेवोपयोगद्वयम्, विरुद्धार्थत्वात् ॥२९११-२०॥ पुनश्चोदक एवाहसमयमणेगग्गहणं जति सीतोसिणदुगम्मि को दोसो ? । केण व भणितं दोसो उवयोगदुगे वियारोऽयं ॥२९२१॥ समयमणेगग्गहणं एगाणेगोवैओगभेतो को ?।। सामण्णमेगजोगो खंधावारोक्योगो व्व ॥२९२२।। खंधारोऽयं सामण्णमेत्तमेगोवयोगता :समयं । पतिवत्थुविभागो पुण जो [१९२-द्वि०]सोऽणेगोवयोगातो ॥२९२३॥ १ यस्ता यहास्त- इति प्रतौ । २ हणे को हे त । ३ °णेगाव जे । ४ धावारो' त । ५ 'वोग त्ति को हे, वोगो ति त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये नि० ५६६ते च्चिय ण संति समयं सामण्णाणेगगहणमविरुद्धं । एगमणेगं पि तयं जम्हा सामण्णभावेणं ॥२९२४॥ समयमणे० इत्यादि । य इस्थमेवैकस्मिन् काले शीतोष्णवेदनानुभवः [स] किं नानुज्ञायते ? भवत्वेवासौ अनेकार्थग्रहणत्वात् एककालः, अनेकार्थस्कन्धावारोपयोगवत् । आचार्य आह-केण व भणितं दोसो ? सिद्धसाधनमेवेत्यभिप्रायः । शीतोष्णार्थभेदेऽपि अनेकार्थविषय एकोपयोगी वेदनामात्रसामान्यानुभवः केन वार्यते ! उष्णवेदनेयं शीतवेदनानि च, एकस्मिन् काले उपयोगद्वयं नेष्यत इति विचारः । ____ स्कन्धावारोपयोगे तु युगपदनेकार्थग्रहणे एकानेकोपयोगभेदविचार एव नास्ति, सामान्यतः स्कन्धावारोपयोगे(ग) एक एवेति । ये पुनरमी प्रतिवस्तु भेदेन पटकुटीकुटीरकुर्व(ट)जहस्त्यश्वरथपदातिजयनशालाविचित्रापणपण्याद्युपयोगास्ते बहव एव, भिन्नकालाश्च प्रतिस्वम् , न हस्त्युपयोगः पदात्युपयोगतां लभते । त एव च भिन्नकालाः समकं न भवति(न्ति) शीतोष्णवेदनाद्वयवत् , सामान्यस्कन्धावारोपयोगस्तु अनेकात्मकैकत्वसामान्यरूपेण भवत्येवेति ॥२९२१-२४॥ उसिणोऽयं सीतोऽयं ण विभागेणोवयोगदुगमिहूँ । होज्ज समं दुगगहणं सामण्णं वेतणा मे त्ति ॥२९२५।। उसिणोऽयं इत्यादि गतार्था ॥२९२५।। जं सामण्णविसेसा विलक्खणा तण्णिर्वन्धणं जं च । णाणं जं च विभिण्णा मुदतोऽवग्गहावाया ॥२९२६।। जं च विसेसं गाणं सामण्णणाणपुवयमवस्सं । तो सामण्णविसेसं णाणाई णेगसमयम्मि ॥२९२७॥ जं सामण्णविसेसा इत्यादि । एवं च कृत्वा एकस्मिन् काले सामान्यविशेषोपयोगौ युगपन्न भवतः विलक्षणत्वादि(द्), भिन्नज्ञाननिबन्धनत्वात् , भिन्नावग्रहेहापायधारणत्वात् , पूर्वोत्तरकालभावित्वात्, वेदनासामान्यशीतोष्णवेदनाविभागज्ञानवत् ॥२९२६-२७॥ आर्यगङ्ग आह ---- १ तम्हा को हे त । २ वायौ मेकार्थत्वात् । पुनश्चोदक एवाह.........मेकार्थग्रहणस्वात्'- इति पुनः आवृत्त्या लिखितं प्रतौ । ३ सिणेयं को हे त । ४ सीययं को हे त। ५ भागो णो' हे त। ६ मित्थं हे। ७ णमेत्तं को, म त्ति त । ८ वध को हे। ९ ताणं त । १० °सन्नाणं को हे। ११ मन्नन्नाण' को हे। १२ सन्नाणा को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६] द्विफ्रियनिवः । होज्ज ण विलक्खणाई समयं सामण्णभेतणाणाई । वहुआण को विरोधो समयम्मि विसेसणाणाणं ॥२९२८॥ होज्ज गाहा । सामान्य-विशेषयोविलक्षणत्वं युक्तम् , अनाकार साकारोपयोगनहणभेदात् । शीतोष्णवेदनादीनां तु विशेषाणां बहूनामपि साकारोपयोगग्रहणाविशेषात् विलक्षणत्वं नास्तीति साधनधर्मासिद्धो दृष्टान्तः । ततश्च बहूनामपि विशेषाणामेककाले ग्रहणं युक्तम्, अविशेषग्रहणत्वात् एकोपयोगवत् ॥२९२८॥ आचार्य आह-. लक्खणभेतातो' चिय सामण्णं च जमणेगविसयं ति । तमधेत्तुं ण विसेसण्णाणाई "तेण समयम्मि ॥२९२९॥ लक्खणभेतातो च्चिय । एतदेव हि विशेषाणां विशेषत्वं यत्ते परतो विशिष्यन्ते एतदेव लक्षणं भेदानाम् , संज्ञास्वालक्षणा(ण्य स्वतत्त्वप्रयोजनमतिभेदात् । सामान्य चानेकविषयम् , अनेकत्वं च लक्षणभंदकृतमिति विशेषज्ञानानि विलक्षणान्येवेति सिद्धः पक्षधर्मः, त्वदीयप्रमाणे वा विलक्षणत्वादिति प्रत्युत उभयासिद्धो हेतुरिति, सामान्यमगृहीत्वा विशेषग्रहणमेव नास्तीति । तेनैकस्मिन् समये बहूनि विशेषज्ञानानि छद्मस्थस्य नेष्यन्ते ॥२९२९।। तो सामण्णग्गहणाणंतरमीहितमवेति तब्भेतं । इय सामण्णविसेसावेक्खा जावंतिमो भेतो ॥२९३०॥ तो सामण्णग्गहणा० इत्यादि । ततः सामान्यग्रहणानन्तरमीहाविशेषादीहितमवायेनाऽवैति तद्भेद म्],एवं तरतमयोगात् सामान्यविशेषापेक्षा, यावदन्यो भेदो विशेष एव, न सामान्यमिति ।।२९३०॥ इय पण्णवितो वि जतो ण पवज्जति सो ततो कतो वज्झो । तो रायगिहे समय किरियाओ दो प[१९३-०]रूवेन्तो ॥२९३१॥ मणिणागेणारद्धो भयोववत्तिपडिवोधितो वोत्तुं । इच्छामो गुरुमूलं गंतूण ततो पडिक्कतो" ॥२९३२।। इय पण्ण । मणिणागेण गतार्था ॥२९३१-३२॥ पंचसता चौताला तइया सिद्धिं गतस्स वीरस्स । पुरिमंतरंजियाए तेरासियदिहि उप्पण्णा ॥२९३३॥ १°भेयाठ हे । २ इं ण य समेतणजे । ३ वेक्खी है । ५ तमाचायेना इति प्रतौ । ५ जया को । ६ तो हे ' ७ भयवं त समय किरियातो। ८ स्वंतो हे, वेतो को। ९ 'त्तिओ पहे। १. 'तो ॥२७॥४४३॥ इति, गडाख्यः पञ्चमो निवः त । ११ इय पंचमोवि-इति प्रतौ । १२ दिट्टी हे दी हा, दिहिमुष्प त । १३ उववण्णा दी हा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६पुरिमंतरंजि भूतगुह बलसिरी सिरिगुत्त रोहगुत्ते य । . परिवायपोट्टसाले घोसण पडिसेर्वणावादे ॥२९३४॥ विच्चुय सप्पो मूसग मई वराही य काकि पोताई। एताहिं विज्जाहिं सो तु परिवायो कुसलो ॥२९३५।। "मोरी णउलि विराली सीही" वग्यो य उलुइ"ओवाती । एताओ विज्जाओ गेण्हें परिव्वायमधणीओ ॥२९३६।। जेतूण पोदृसालं छलैओ भणति गुरुमूलमागंतुं । वातम्मि मएऽसितो मुणध जघा सो सभामज्झे ॥२९३७॥ पंचसता गाथाः पञ्च स्फुटार्थाः ॥२९३३-३७॥ रासिद्गगहितपक्खो ततिय णोजीवरासिमादाय । "गिहलोलियादिपुच्छेछे तोदाहरणतोऽभिहिते ॥२९३८॥ रासिदुग० इत्यादि । परिवाज यादृशालम्बादे[व] जिव्वा(त्वा) रोहगुप्त आचार्य समीपमागत्य ‘एवं मया स पराजितः' इति प्रत्युच्चरति-तेन परिवाजेन 'राशिद्वयं जगत् सर्वम्' इति प्रतिज्ञातम् ‘जीवाश्चाजीवाश्च एतद्व्यतिरिक्तं तृतीयं वस्तु नास्ति, प्रमाणैरनुपलभ्यमानत्वाद्वन्ध्यापुत्रवत्' । अत्र मया सिद्धान्त[त] एव तद्बुद्धिं परिभ्य 'तृतीयो नोजीवराशिरस्ति' इति प्ररूपितं गृहकोकिलापुच्छच्छेदोदाहरणात् । गृहको. किलापुच्छ छिन्नमपि स्पन्दनादिक्रियया अजीवो न भवति, जीवोऽपि च न भवति, एकस्यां गृहकोकिलायामनेकजीवत्वप्रसङ्गात् । अत उच्यते 'नोजीवः' इति । तच्च प्रत्य. क्षानुमानादिप्रमाणविषय इति प्रमाणैरनुपलभ्यमानत्वमसिद्धो हेतुः । ततो मया जित इत्येवमभिहिते-॥२९३८॥ भणति गुरू सुटु [१९३-द्वि०]कतं किं पुण जेतूण कीस णाभिहितं । अयमवसिद्धंतो णे ततिओ णोजीवरासि त्ति ॥२९३९॥ १ गिह को हे त । २ °सिरि को दी हा म त । ३ पु म। सेहणा को हे दी हा म। ५ विच्छु' को त दी हा, विच्छू संम, विच्छू य हे । ६ सप्पे को दी हा म। ७ भिगी को हे त म, भिई दो हा । ८ काग को हे त हा । ९ य को हे त । १० °रिवाय' हे। ११ मोरिय म । १२ घग्घी सिही य को हे म, बग्धी सोही य. त, वग्घी सोही उ हा, सीहीयउल्लुगि दी। १३ उवा हे । १४ गिह हे म । २९३३३६ गाथाः उपर्यु काः चत्वारि हेसम्मतनियुक्तिगाथाः । १५ लूओ हे । १६ विजितो को हे त । १. "ह कोलि को, ह कोकिलाइपु हे त । १८ च्छच्छे को हे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६ ] राशिकनिह्नवः । भण० गाहा । गतार्था ॥२९३९॥ . एवं गते वि गंतुं परिसामज्झम्मि भणसु णायं णे' । सिद्धंतो किंतु मए बुद्धिं परिभूय सोऽसितो ॥२९४०॥ बहुसो स भण्णमाणो गुरुणा पडिभणति किमवसिद्धंतो ? । जति णाम जीवदेसो गोजीवो होज्ज को दोसो ? ॥२९४१॥ जं देसणिसेहेंपरो णोसदो जीवदव्वदेसो य ।। 'गिहिलोलियोतिपुंछ विलक्खणं तेण णोजीवी ॥२९४२॥ एवं गते वि । वहुसो । जं देसणिसेह० इत्यादि । गतार्थाः ॥२९४०-४२॥ धम्माति दसविधा देसतो 4 देसो वि जं पिधं वत्थु । अपिहब्भूतो किं पुण "छिण्णं गिहै लोलियाँपुंछं ॥२९४३।। धम्माति गाहा । आह रोहगुप्तः-नैवायमपसिद्धान्तः सूत्रेऽभिहितत्वात् , धर्मास्तिकायादिदेशप्रदेशवत् । अपि च-गृहकोलिका(किला) पुच्छं पृथक् पदार्थः, देशत्वाद्धर्मास्तिकायदेशवत् ॥२९४३॥ इच्छति जीवपदेसं णोजीवं जं च समभिरूढो वि । तेणत्थि तओ समए घडदेसो णोघडो" जध वा ॥२९४४॥ इच्छति जीवपदेसं । गृहकोकिलाजीवस्यैकदेशो नोशब्दोपपदं वस्तु, समभिरूढनयमतत्वात् , नोघटवत् ॥२९४४॥ आचार्य आहजति ते सुतं पमाणं तो रासी तेसु तेसु मुत्तेसु । दो जीवाजीवाणं ण सुते 'णोजीवरासि त्ति ॥ २९४५ ।। जति ते गाहा । यदि भवतः श्रुतं प्रमाणं ततो नोजीवराशिस्तृतीयः सूत्रे नोक्त इत्यसिद्धो हेतुः-सूत्रेऽभिहितत्वादिति । न च धर्मास्तिकायादिदेशा अत्यन्त. पृथग्भूता एवं विच्छिन्नाः, गृहकोकिलापुच्छमप्येवमेव ॥२९४५। यस्मात् १ 'सु णाएण त । २ धसि को, समिओ हे त। ३ णाजी जे। ४ हुम्ज है।४ "णिसेव जे । ५ गिहकोलि' को त । ६ पुच्छ को त, ७ गिहकोइलाइपुच्छं हे। ८ य को हे। ९ पिहुं को हे त । १. 'पिहुं हे त । ११ रिछन्नं हे। १२ 'हकोलि को हे त। १३ पुच्छं को हे त । ११ घडे त । १५ ते सुयं पं° को हे। १६ तो जीत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ विशेषावश्यकभाष्ये गिहेकोलियातिपुंच्छे छिष्णे वि' तदंतरालसंबन्धो । [१९४-५० ] सुतेऽभिहितो सहमामुत्तत्तणतो तदग्गहणं ॥ २९४६ ॥ freकोलिया० गाहा । गृहकोलिकाशरीरस्य छिन्नपुच्छस्य चान्तराले मृणालतन्तु [व] जीवप्रदेशा अविछिन्नसन्ताना एव सूत्रेऽभिहिताः । किं न गृह्यन्त इति चेत् ? सूक्ष्माऽमूर्त्तत्वादाकाशादिदेशवत् ॥ २९४६॥ अथवा संसारिणः सर्वस्य कर्माङ्गाङ्गीभावसम्बन्धात् मूर्त्ता एव ते प्रदेशाः शरीराद् बहिर्न दृश्यन्ते, सूक्ष्मत्वात्, प्रदीप रश्मिवत् । मूर्तशरीरस्थास्तु गृह्यन्ते, मूर्त्तत्वात् मूर्तकुड्यादिस्थप्रदीपरस्मिवत् । एतर्थदर्शनी गाथा - [ नि० ५६६ गज्झा मुत्तिमताओ णागासे जध पदीवरस्सीओ ! त जीवलक्खणाई देहे ण तदंतरालम्मि ||२९४७॥ झा मुगिताओ । भावितार्थाः ॥२९४७|| देहरहितं ण गेहति णिरतिसयो णातिसुहृमदेहं च । णय से होति विवाधा जीवस्स भवतेराले च्व ।। २९४८ ।। देहरहितमित्यादि । आगम एवाभिहितम् - निरतिशयः पुरुषः सिद्धं देहरहितं न गृह्णाति, सदेहमपि सूक्ष्मशरीरं निगोदजीवं, सूक्ष्मपरिणामपृथिव्यादिकार्यं वा, वैकियाहारकशरीरं वा । तस्माद् गृहें कोकिलाशरीर-पुच्छयोरन्तराले जीवप्रदेशदर्शनं नास्तीति । अथान्तरा तस्य जीवस्याऽग्नि-जल शस्त्रादिभिर्दाह-क्लेशछेदा न भवन्ति, सूक्ष्मकार्मणशरीरस्थत्वात् भवान्तरालवत् ॥ २९४८ ॥ अथ ब्रूयात्-पुच्छछेदे तस्य जीवस्य रूण्डं नष्टमेव, छिन्नत्वात्, पटदेशवत् । एतदूदूषणाय गाथाद्वयम्--- दव्यामुत्तताकत भावादविकारदरिसणातो य । अविणास कारणाहि य णभसो में ण खण्डसो णासो || २९४९ ।। णासे य सव्वणासो जीवस्सै ण सो य जिणमतच्चाओ । तो येँ अणिम्भोक्खो दिक्खावेफल्लदोसो" य ॥ २९५० ॥ १ इलोलि जे । २ 'तिपुच्छे को हे त । ५ बंधो को हे । ६ मासु त । ७ टीकायाः प्रतौ लोलिया' । ८ जक्ष को हे । ९ गिण हे । १० व हे इति प्रतौ । १३° तसेवा त । य हे । १७ ए त । १८ १४ व हे त । णिमु' हे त । १९ Jain Educationa International ३ निम्मित है । : वत । गृहोलिका - इति, जे प्रतौ 'गिह। ११ 'वन्त' हे । १२ गृहलोलिका१५ जोवनासे य को । १६ जीवस्स नासो दोसा को हे त । For Personal and Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६] त्रैराशिकनिहवः । ५६९ दव्यामुत्तत्त० । णासे य सव्व० इत्यादि । छिन्नत्वा दित्यसिद्धो हेतुः, न जीवः छिद्यते दह्यते वा, अमूर्तद्रव्यत्वात् , अकृतकत्वात् , अविकारत्वात् , अभूत विनाशकारणत्वात् आकाशवत् । अनिष्टापादानमप्येवम्-सर्वनाशोऽपि जीवस्य स्यात् खण्डशः भिद्यमानत्वात् , पटादिवत् । जीवश्च त्वया जिनमतप्रमाणकेनाभ्युपगत इत्यागमविरोधः । जिनमतत्यागाद्वा अनिर्मोक्षः, संसारिजीवाभावात् । ततश्च भवत्प्रपन्नदीक्षावैफल्यमिति ॥२९४९-२९५०॥ __ अथैवं कल्पेत-संघातभेदधर्मा जीवः, सावयवत्वात् , पुद्गलस्कन्धवत् । न । अत्रापि दोषा इति गाथाअध खंधो इव संघातभेतधम्मा सेतो वि सम्वेसि । अपरोप्परसंकरतो सुहातिगुणसंकरो पत्तो ॥ २९५१ ।। ___ अथ खंधो इव । एवं तर्हि खंधवत् संघातभेदाभ्यां परस्परं जीवानां संहन्यमानत्वात् भिद्यमानत्वाच्च सावयवत्वादेव स्कन्धगुणसंकरवत् तत्सुखादिगुणसंकरोऽप्यवश्यभावीति धर्मविशेषविपर्ययसाधनादिष्टविघातकृद् विरुद्धः ।।२९५१॥ अथैतदोषभयात् स्कन्धवदवयवविच्छेदो नाभ्युपगम्यते । किं तर्हि ? धर्माधर्मास्तिकायादिदेशवदविभागे तत्रस्व(स्थ) एव पुच्छजीवदेश[:] सकलजीवत्वाभावात् को(नो)जीव उच्यते । एवमपि दोष एव ते अध अविमुक्को वि तओ णोजीवो तो पतिप्पदेसं ते । जीवम्मि असंखेज्जा णोजीवा णत्थि जीवो ते ॥२९५२।। __ अध अविमुक्को वि तओ। अथाविमुक्तोऽपि जीवदेशो नोजीवः, एकस्मिस्तर्हि जीवे यावन्तः प्रदेशाः ते सर्वे नोजीवाः, जीवप्रदेशत्वात् , पुच्छदेशनोजीववत् । एवं च जीवो नास्ति कश्चित् , नोजीवसंघात त्रत्वात् , गृहकोकिलाजीववत् ॥२९५२॥ न केवलमेतावानेव दोपः किन्तु स्वसिद्धान्तप्ररूपितसर्वराश्यभाव एव प्राप्नोतीति गाथा एवमजीवो' वि पदिप्पतेसभेदेण णोअनीव त्ति । णस्थि अजीवो केई कतरे ते तिण्णि [१९४-द्वि०] रासि त्ति ॥२९५३॥ एवमजीवो वि। एवं नास्ति(अस्त्य)जीवराशिरपि, नोअजीवसंघातत्वात् , एकजीववत् । एवं राशित्रयाभावादभ्युपगमविरोधः ॥२९५३।। अथवा भवसिद्धान्ते अनिष्टापादनम् १ स तो हे । २ तो त । ३ जीवाजीव-इति प्रतौ। ४ कोलिका-इति प्रतौ । ५ 'जीवा को हे त । ६ ‘जीवा को हे त। ७ केई को, केइ हे। ८ पि नोनामजी'-इतिप्रती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६छिण्णो व होतु जीवो किध' सो तल्लक्खणो वि णोजीवो । अध एवमजीवस्स वि देसो तो णोअजीवों त्ति ।।२९५४॥ एवं पि रासयो तेण तिण्णि चत्तारि संपसज्जति । जीवा तथा अनीवा णोजीवा णोअनी ति ॥२९५५॥ . छिण्णो व होतु । अथवा पुच्छदेशनोजीवः जीव एव भवतु, जीवलक्षणत्वात् , सकलजीववत् । एवमजीवदेशो नोअजीवोऽपि अजीव एव भवतु, अजी. वलक्षणत्वात् सकल(ला)जीववत् । अथ चैकदेशत्वात् देशः सकलावं नार्हति-एको देश: नोजीवः, बहुतरा जीवदेशा जीव इति । एवमनीवेऽपि कल्पना प्राप्ताअजीवैकदेश एकः नोअजीवः, बहुतरा देशाः अजीव इति युक्तम् । एवं च त्रयो राशय इति अनृतम् । किं तर्हि ? राशिचतुष्टयमापद्यते-जीवाः अजीवाः नोजीवाः नोमजीवा इति ॥२९५४-२९५५॥ अथ ब्रूयात् अजीवाः नोअजीवा इति सामान्यजातिलक्षणात् एक एव राशिः, जीवाः नोजीवाश्च राशिद्वयमेवेति राशित्रयोपपत्तिः । आचार्य आहदुरुपपत्तिरेषा अध ते अजीवदेसो अजीवसामण्णजातिलिंगो' ति ।। भिण्णो वि अजीवो चियं ण जीवदेसो बिकिं जीवो ॥२९५६॥ अध गाहा । समानोपपत्ति वेऽपि जीव-नोजीवराशी द्वावपि एक एव राशिः, समानजातिलक्षणत्वात् , अजीवराशिवत् ॥२९५६॥ विशेष्याऽपि प्रमाणम्छिण्णगिहलोलिया वि हु जीवो तल्लक्खणाहि सयलो छ । अध देसो त्ति ण जीवो अजीवदेसो "वि णाजीवो ॥२९५७॥ छिण्णगिह० इत्यादि । छिन्नगृहलोलिकादेशो जीव एव, जीवलक्षणत्वात् सकलगृहचो(लो)लिकावत् । अथ देशत्वादेवा सौ सकलजीवो न भवति । नन्वेवमजीवा(व). देशोपि देशत्वादेव सकलो न भविष्यति, तदवस्थ राशिचतुष्टयम् ॥२९५७॥ ___ यदपि चोक्तं भवता नोजीवः सत्पदार्थः, समभिरूढनयमतत्वात् घटादिवदिति । तदपि न, यतः --- १ कह हे त । २ धत त । ३ दोसो त । । जीव त । ५ जीवा य हे त। ६ लिङ्गो हे । ७ स्थि(च्छि)य त । ८ व त। ९ णेहिं को हे, णेहि त । १० त्ति हे त । ११ नोऽत्री को हे त। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६ ] त्रैराशिक निह्नवः । णोजीवं ति ण जीवादण्णं देसमिह समभिरूडोवि । इच्छति वेति समासं जेण समाणाधिकरणं सो ||२९५८ ॥ जीवे य से प्रदेसे ये से पतेसे से एव णोजीवे । इच्छति ण य जीवदलं तुमं व गिहॅलोलियापुच्छं २९५९ ॥ णोजीव० गाहा । भवदर्शनादयमसिद्धो हेतुः । त्वदर्शनान्नोजीवोऽन्य एव जीवात् । समभिरूढस्तु समानाधिकरणसमासपरिग्रहा [त् ] जीव-देशयोरभेदमेवेच्छति - जीवश्च सः प्रदेशश्च इति जीवप्रदेश: - प्रदेशो जीवविशेषणः, जीवश्च प्रदे शविशेषण इति एकमेवेदं वस्तु, गौरखरवत् । जीवबहुत्वभयात् सप्रदेशमनन्यमेव सन्तं नोजीव इति समभिहो त्रवीति न पुनर्भिन्नं जीवदलम्, यथा त्वमिच्छसि गृहलोलिकापुच्छमिति ॥ २९५८-२९५९॥ णय रासिभेत मिच्छति तुमं व णोजीवमिच्छमाणो वि । अण्णो वि ण णेच्छति जीवाजीवाधियं किचि ||२९६० ॥ णय रासिभेतमिच्छति । न च समभिरूदस्य शतभेदत्वात् कश्चित् पर्यायनयविशुद्धः शुद्धभेदवादी पृथगपि जीवात् तद्देशं नोजीवमिच्छेत् ||२९६०॥ तदाशङ्कया ब्रवीत्याचार्य: इच्छतु व समभिरूढो दे, णोजीवमे [१९५ - प्र० ] गणइयं तु । मिच्छत्तं, सम्मत्तं सव्वणयमतावरोधेणं ।। २९६१ ॥ इच्छतु वा नोजीवं समभिरुद्र:, तथापि त्वया जैनदर्शनावस्थितेन एकनयवक्तव्यं मिथ्यादर्शनमिति न युक्तं प्रतिपत्तुम्, सर्वनयमतसङ्ग्राही स्याद्वादः प्रमाणमिति ॥ २९६१ ॥ तं जति सव्वणयमतं जिणमतमिच्छसि पवज्ज दो रासी । पदविपडिवत्तीये विमिच्छत्तं किंतु रासी ||२९६२ || १० तं जति गाहा । जिनमतप्रमाणकेन राशिद्वयं प्रतिपत्तव्यम्, न ततो न्यूनमधिकं वा, सम्यग्दृष्टित्वात्, गणचरादिवत् । यश्च ततो न्यूनमधिकं वा प्रपद्यते स मिध्यादृष्टि, जनमतविसंवादित्वात् बहुरतादिवत् || २९६२ ॥ एवं पि भण्णमाणो ण पवैज्जति सो जतो ततो गुरुणा । चिंतितमयं पणो णासहिति मा बहुं लोगं ।। २९६३॥ १ जीव को है । २ हेवत्यां नास्ति ३ जीवो को है त । को है त । ५ नाइम' इति प्रतौ । ४ कोलि जे "हिकालि ६पि हे त । हि मयोवहे । ८ रासि को । ११ पव्व हे १२ नासिट्टिई को, नासिहई हे त । ९ तीर है त । १० किं नु को हे । ७२ ५७१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭૨ विशेषावश्यकभाष्य [नि० ५६६तो णं रायसभाए णिग्गिण्हामि बहुलोगपच्चक्खं । बहुजणणातोऽवसितो होहि ति अग्गेझंवको त्ति ॥२९६४॥ तो बलसिरिणिवपुरओ वादं णाओवणीतमग्गाणं । कुणमाणाणमतीता सीसायरियाण छम्मासा ॥२९६५।। एको वि णावसिज्जति जाधे तो भणति णरवती णाई । सत्तो सोतुं, सीतंति रज्जकज्जाणि मे भगवं! ।।२९६६॥ गुरुणाभिहितो भवतो सुणावणत्यमितमेत्तियं भणितं । जति सि ण सत्तो सोतुं तो 'णिग्गिाहामि गं कल्लं ॥२९६७।। "बियियदिणे बेति गुरू गरिन्द ! जं मेतिणीय सैन्भूतं । तं कुत्तियावणे सव्यमत्थि सव्वप्पतीतमितं ॥२१६८॥ तं कुत्तियावणसुरो णोजीवं दे'ि जति ण सो णत्थि । [१९५-द्वि०] अध भणति णस्थि तो णस्थि किं थे हेतुप्पवंचेण?॥२९६९।। तं मॅग्गिज्जतु मोल्लेणे सव्ववत्थूणि किं थे कालेणं । इय होतु त्ति पवण्णे णरिन्द-पतिवादि-परिसाहि ॥२९७०॥ सिरिगुत्तेण वि' छलओ छमास विकड्डिनूण बौदि जितो । 'आहरण कुत्तियावणा चोतालसतेण पुच्छाणं ॥२९७१॥" एवं पि भण्णमाणो इत्यादिगाथाप्रपञ्च आख्यानकमात्रं यावत् आह. रण कुत्तियावणा चोतालसतेण पुच्छाणं ॥२९६३-७१।। कथं चतुश्चत्वारिंशदधिकं शतं प्रधानाम् ? इति गाथाप्रपञ्चःभू-जल-जलणाऽणिल-गह-काल-दियाऽऽयो मणो य दव्याई । भणति णवेताई सत्तरस गुणा इमे अण्णे ।।२९७२।। १ होही को हे त । २ उझपयखो को, अंगेज्झाक्खो हे । ३ ‘णीवम को। ५ णिगि त । ७ वीय त हे । ८ °रि' को हे । ९ जनाएँ को, णीइ त । १० संभू को। ११ देहि हे। १२ स्थ को, व हे त । ५३ पबवणं को हे त । १४ मगि को। १५ मुल्ले' हे। १६ रथ को हे, व त । १७ लेग को है। १८ °रिद को हे। १९ °साहिं को हे। २० 'त्तेणं हे त। २१ नास्ति को हे त प्रतोषु । २२ छलू को। २३ धम्मा' को दीम, छम्मासा हे. छम्मासे हा। २५ विकड्डि को दी म कडि हा, विकट्टिण हे । २५ वाएँ को, वाय दी हा म, वाए हे। २६ अह त हे। २७ इतः प्रभृति २९.७७ पर्यन्तं हेसम्मता नियुक्तिगाथा । २८ गालिल जे । २९ °साय त । ३०मण्ण को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६] त्रैराशिकनिहवः । रूवरसगंधफासा संखा परिमाणमधे पुधत्तं च । संजोगविभाग परापरत्त बुद्धी सुहं दुक्खं ।।२९७३॥ इच्छादेसैपयत्ता एत्तो कम्मं तयं च पंचविधं । उखेवणेऽवक्खेवण पसारणाऽऽकुंचणं गमणं ॥२९७४॥ सत्ता सामण्णं पि य सामण्ण विसेसता विसेसो य । समवायो य पत्थो छच्छत्तीसप्पभेदा य ॥२९७५॥ भू-जल-जलणाणिल । रूवरस० । इच्छादेसपयत्ता । सत्ता सामणं । औलुक्याभिप्रायेण सर्वमेव जगत् षट्पदार्थसङ्ग्रहम् । ते च पडपि पदार्था मूलभेदतः पत्रिंशत्प्रभेदाः । तत्र द्रव्यगुणकमसामान्यविशेषसमवायाः पट् पदार्थाः । द्रव्यं नवभेदं भूजलादि-पृथिव्यापः तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति । तथा रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्यापरिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परवापरत्वे बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्ना गुणा: सप्तदश । उत्क्षेपणमपक्षेपणमाकुचनं प्रसारणं गमनमिति पञ्च कर्माणि । एवं द्रव्यगुण कर्मत्रयं एकत्रिंशत्प्रभेदम् । सामान्य द्विप्रकारम्-महासामान्यं सत्ता, अपान्तरालसामान्यं चानुप्रवृत्तिलक्षणं द्रव्यगुणकर्मत्वं द्रव्यगुणकर्मगतम् दव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वम् सामान्यानि विशेषाश्चेति उभयरूपः सामान्यविशेषः । अन्त्यविशेषोऽन्त्यबुद्धिहेतुर्विशेष एव । इहबुद्विहेतुश्च कार्यकारणभूतानां गुणगुणि. रूपाणामाश्रयाश्रयिरूपसामान्यादीनां च समवाय इति । एतेऽपि पञ्च पदार्थाः एकत्रिशता पूर्वेः सह षट्त्रिंशद् भवन्ति ॥२९७२-२९७५।। एका(पा मेकै कस्मिन् प्रश्नाश्चत्वारः-- पयतीय अकारेणे' णोकारोभयणिसेधतो सब्वे । गुणिता "चोतालसतं पुच्छाणं पुच्छितो देवो ॥२९७६॥ पयतीय इत्यादि । प्रकृतिनिरुपपदं स्वरूपमेव, तया प्रकृत्या प्रथमः, आ(अ)कारेण नत्रा वा लुप्तनकारण पर्युदासवृत्तिना द्वितीयः, नोकारेण तद्देशविशेषप्रतिषेधार्थन तृतीयः, प्रतिपेधद्वयेन सहितेन चतुर्थः प्रश्नः। एवं पत्रिंशञ्चतुर्गुणाश्चतुश्चत्वारिंशदधिकं शतं प्रश्नानां पृष्टो देवः प्रतिवचनं वाचा प्रयच्छति ॥२९७६॥ १ गन्ध दी। २ ‘महमह हे । ३ पुडुत्तं को हे दी। ५ विजोग त । ५ ‘दोस' को हे दी त । ६ मणक्खें' जे । णपक्खें त। ५ पयथा को हे त दी । ८ छछ हे दी । ९ दिरूपं द्रव्यत्वं कर्मत्वं च । सा'-इति प्रतौ । १० पगईए को हे दी त। ११ रेण को हे दी त । १२ ओयाल हे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ विशेषावदराकभाष्ये [नि० ५६६वस्तुतश्च शक्यनिदर्शनं दर्शयति । तत्र द्रव्यभेदः प्रथमः पृथिवी । तस्यां प्रश्नचतुष्टयान्निन(र्ण)यः पुढवि त्ति देति लेल देसो वि समाणजा [१९६-प्र०]तिलिंगो त्ति । पुढवि त्ति सो अपुढविं देहि त्ति ये देति तोयादि ॥२९७७॥ पुढवि त्ति गाथा । पृथिव्य(वीं) प्रयच्छेति याचितः रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवीतिलक्षणान्वयाल्लोष्टोऽपि पृथिवीति लोकशास्त्रसंवादाल्लोप्टं दर्शयति । [भ]पृथिवीं प्रयच्छेति] पृथिवीपर्युदासनात् तोयादिवर्ग दर्शयति ॥२९७७॥ अथ नोपृथिवीं प्रयच्छेति याचितः - देसपडिसेधपक्खे णोपुढवि देति "लेलुदेसं सो । लेलुद्दव्वावेक्खो कीरति देसोवयारो से ॥२९७८॥ देशप्रतिषेधपक्षे नोशब्दं कृत्वा पूर्वदर्शितायाः पृथिव्या लोष्टस्यैकदेशं नोपृथिवीमिति दर्शयति पृथिव्येकदेशोऽयमिति । ननु च लोप्टोऽपि पृथिव्येकदेशत्वाति नोपृथिवीति भवतु । सत्यम्, प्रकृत्या(त्य,पेक्षमेतदेवं भवति-लोप्टद्रव्यस्य समानजातिलक्षणत्वेन सम्पूर्ण पृथिवीत्वमध्यारोप्य तदेकदेशस्य नोपृथिवीत्वसो(मौ)पचारिकम् ।।२५७८॥ इधरा पुढवि चिय सो लेल व्व समाण जातिलक्खगतो । लेलैदलं ति व देसो जति तो "लेल्लू विभू देसा ॥२९७९॥ देहि भुवं तो भणिते सव्याणेया ण यावि सा सव्वा । सक्का सक्केण वि ताणेतुं किमुताव से सेणं ? ॥२९८०॥ इतरथा परमार्थतः लोष्टदेशोऽपि पृथिवीसमानजातिलक्षणत्वात् लोष्टवत् । अथ लोप्टस्य खण्डमिति लोष्टदेशः नोपृथिवी । ननु लोप्टोऽपि भूमेरेकदेशत्वान्नो. पृथिवी । एवं सर्व देशानां नोपृथिवीत्वे जाते देहि भुवमिति प्रश्नप्रतिवचनं वाङ्मात्रमेव, प्रदर्शनमानयनं वा सर्वस्याः पृथिव्या न शक्यं शक्रेणापि, किमुतान्येन देवेन कुत्रिकापणव्यवहारिणा ? कुर्भूमिस्तासां कूनां तृ(त्रि)कं कुत(त्रि) तृ(त्रि)भूमिकगृहवत् जगत्त्रयमूर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकाः। कृत्रिको(के) स्थिताः पदार्थाः कुत्रिकं "तास्थ्यात्ताच्छन्द्यम्" कुत्रिका(क)मापणयतीति कुत्रिकापणः सर्वद्रव्यविक्रयी देवः पुण्यैराराधितो भाण्डागारिकवत् । अथवा धातु-जीव-मूलास्त्रयः, तेषु त्रिपु श(जा)तम् भूम्या(म्यां)-यावत् कि १ लेट्टुं को दी है, लिदछ त । २ लिङ्गो दी । ३ °डवी को, ऽपुढवी हे दी। १ 'हित्ति को हे दी । ५ नारित्त हेप्रत्याम् । ६ याइं को हे दी, 'याई त । ७ थानवत्-इति प्रतौ। ८ पक्खो त को हे। ९ ढवी हे। १० लेदे-को हे । ११ लेस्लुद्दे को हे। १२ ले १३ लेट को हे । १४ द्रष्टव्याः-वृ० का• गा० ४२१४-४२२३॥ का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६] त्रैराशिकनिहवः । ५७५ चित् त्रिजम् . तस्याऽऽपणः, श्रीन वा धातु-मूल-जीवान् कायति त्रिकम , को क्षितौ त्रिक तस्याऽऽपणः कुत्रिकापण:--पृथिवीमानमत्य(क्ष्य विशेषापादानेऽपि तदेकदेशानयनाद- कृती भवति, अर्थप्रकरणशक्त्यपेक्ष्य वात, घट(टा)नयनचोदनायामेकघटानंतृवत् ।।२९७९-८०॥ एतप्रमाणदर्शनाय गाथाद्वयम्जध घेडमाणय भगिते ग हि सव्वाणयण सभवो किंतु । देसादिविसिह चिय तमत्थवसतो समप्पति ।।२९८१॥ पुढवि ति तथा भणिते तदेगदेसे वि पगरणवसातो । लेलुम्मि जायति मती जया तथा लेखंदेसे वि ॥२९८२।। जध घडमाणय । पुढवि त्ति तथा । इत्यादिर्गतार्था ।।२९८१-८२।। लेलुद्दयावेक्खार्य तथ वि तदेसभावतो तम्मि । उवयोगे णोपुढवी पुढवि च्चिय जातिलक्खणतो ॥२९८३।। __लेलुइयावेखाय गाथा । लोष्टद्रव्यं यथोक्तप्रमाणेन सकला पृथिवाति लक्षणादवगम्य तदेकदेशो लोप्टावयवो लोटवद् 'नोपृथिवी इति व्यपदेदा उपचारात् सिद्धः पृथिव्या एव, तजातिलक्षणत्वाल्लोप्टावयवस्यापि । एवं 'पृथिवी' 'अपृथिवी' 'नोपृथिवी' इति प्रश्नत्रयं गतम् ।।२९८३॥ ___ 'नो अ]पृथिवी' इति चतुर्थः प्रश्न उच्यते - पडिसेघदुगं पर्यंती गमेति जं तेण णोअपुढवि त्ति । भणिते पुढवि ति गती देसणि सेहे 4 तदेसो ॥२९८४॥ पडि सेधदुगं । द्वौ प्रतिषेधौ प्रकृतिं गमयत इति नोअपृथिवी पृथिव्येव अथवा देशप्रतिपेधवादी 'नो' शब्द इति अपृथिव्या जलादीनामे कदेश उपचाराद् नोअथिवी' इति ।२९८४॥ एवं कुत्रिकापणदेवः पृथो(ष्टो) देशविशेषोपचारं प्राप्य[१९६-द्वि०]उवयारातो तिविधं भुवम भुवं णोभुवं । सो देति । णिच्छयतो भुवमभुवं तध सावयवाई सव्याई ।।२९८५।। उवयारातो तिविध । भुवं पृथ्वीम्, अभुवमपृथिवीम्-जलादि, नोभुवं नोपृथिवीम्- .. लोष्टैकदेशं प्रयच्छति । नोअपृथिवीं पृष्टः पुनरपि पृथिवीमेव । अथवा जलादीना १ प३ को।, २ टेलु को हे। ३ नास्ति तप्रत्याम् । ४ लेटर को है । ५ लेट्छुई हे लेटठुद हे। ६ खाए को हे। ७ "वयारो को हे त । ८ "ढवि हे । २ वयवो लो. इति प्रतौ । १० पगइ को हे त। ११ वि को हे। १२ च को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६मेक देशमुपचारात् । परमार्थतस्तु लोप्टैकदेशस्य जलायेकदेशस्य वा पृथिवीत्वजला. दिरूपत्वाच्च राशिद्वयमेव पृथिवीअ(या)दिषूपचारादेशकल्पनां कृत्वा प्रश्नचतुष्टयं भावनीयम् ।।२९८५॥ एवं चतुश्चत्वारिंशदधिकं प्रश्नशतं निदर्य दाष्टान्तिकमर्थं निगमयन्नाहजीवम जीवं' दातुं णोजीवं जातितो पुणरजी । देति चरिमम्मि जीवं ण तु णोजी सजीवदलं ॥२९८६॥ जीवमजीवं । प्रकृति(त)प्रश्नेऽयं किश्चिाजीवं शुक-शारिकादि दत्वा कृती, अजीवमिति लोष्टमपि दत्त्वा कृती, णोजीवमिति याचितः पुनरजीवमेव लोष्टं दर्शयति । नोअजीवमिति याचितः प्रतिपेधद्वयं प्रकृतिगमनाउजीवमेव शुकादिवत् दर्शयति, न पुननी जीवं तृतीय प्रश्न जीवदलं जीवैकदेशं प्रदर्शयति, तस्याभावात् । नोअजीवमिति वच अजीव कदे शं किं [न] ? न, द्विविप्रतिषेधात् जीवमेवेति राशियं सर्वथा, न तृतीयोऽस्ति राशिरिति । एवं प्रत्यक्षानुमानागमलोकप्रसिद्धि निः(भिः) परीक्ष्य राशिद्वयमवस्थापितमाचार्येण ॥२९८६॥ उलूकस्य प्रत्यक्षानुमानागमप्रसिद्धिभिः प्रतिज्ञाया बाधितत्वादवसेयःतो णिग्गहितो छलुओ गुरू वि सक्कारमुत्तमं पत्तो । धिद्धिक्कारोवहतो छलुओ वि सभाउ णिच्छूढो ॥२९८७।। वाते पराजितो सो णिव्विसओ कारितो गरिन्देणं । घोसावितं च णगरे जयति मिणो बदमाणो त्ति ॥२९८८॥ तेणाभिणिवेसातो समतिविकप्पितपतत्थमाताय । वइसेसियं पणीतं फातीकतमण्णमण्णेहिं ॥२९८९॥ . णामेण रोहगुत्तो ‘गोत्तेणालप्पते स चोलूओ । दव्वातिछप्पतत्थोवदेसणातो छलूओ ति" ॥२९९०॥ तो णिग्गहितो इत्यादि गाथाचतुष्टयं स्फुटार्थ त्रैराशिकदृष्टिनिषूदनम् ।। ॥२९८७-९०॥ अथ अवद्धिके(क)दृष्टिपरूपणा --- १ जीव दी । २ जायतो त । ३ एषा हेसम्मता नियुक्तिगाथा । " स बाहिं को भाहिं हे त । ५ °रिदेण को हे. 'रिंदे दी हा म । ६ माणु म । ७ एषा हे सम्मता नियुक्तिगाथा । ८ गुत्तेण ल हे । ९ चोलु भो त । १० छलूउ को है। ११ ति ॥५०॥५०१॥ इति रोहगुप्तनामा पष्ठनिह्नवः समाप्तः ॥छ॥ त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७७ नि० ५६६] अबद्धिकनिह्नवः । पंचसता चुलसीता तइता सिद्धिं गतस्स वीरस्स । तो अञ्चेद्धियदिट्ठी दसपुरणगरे समुप्पण्णा ।।२९९१।। दसपुरेणगरुंच्छुघरेऽज्जरक्खिते पूसमित्ततियगं च । 'गोट्ठामाहिलणवमट्ठमेसु पुच्छा य [१९७ प्र०]विझस्स ॥२९९२॥ सोतूण कालधम्मं गुरुणो गच्छम्मि पूसमित्तं च ।। ठविर्य गुरुणा ईल गोहमादिलो मच्छिरितभावी ॥२९९३॥ "वोसु वसहीए" ठितो छिद्दण्णेसणपरो य स कतायि" । विझस्स सुणति पासेऽणुभासमाणस्स वक्खाणं ॥२९९४॥ पंचसता चुलसीता इत्यादि गाथाचतुष्टयं स्फुटार्थम् ।।२९९१-९४॥ कम्मप्पवातपुव्वे बद्धं, पुढे णिकायितं कम्मं । जीवपते सेहि समं "सूइकलावोवमाणातो ॥२९९५॥ कम्मप्पवातपुत्रवे इत्यादि । कर्मप्रवादपूर्वे कर्मचिन्तायां जीवप्रदेशैः सह किञ्चित् कर्म बदमेव अकपायस्येर्यापथबन्धनवत् कालान्तरस्थितिमप्राप्यैव विघटते, शुष्ककुट्यपतितचूर्णमुष्टिवत् । किञ्चिद् बद्धं पुष्टं(स्पृष्टं)च आईलेपकुन्ये(इये) सस्नेहचूर्णवत् । किञ्चिद बद्धं पुष्टं(स्पृष्टं) निकाचितं च आर्दै कुड्ये श्लेपादिबद्धहस्तप्रतिलिप्तलेपनिकादिघट्टितकुड्यात्मसाद्भूतकटकशर्करादिवत् । अथवा सूचीकलापोपमानात् उपमानम् सूचोकलापदृष्टान्ताद्वा त्रिविधं कर्म द्रष्टव्यम्-तद्यथा-परस्परं संयोगमात्रपुत्रीकृतसूचीवत् बद्धं कम जीवप्रदेशसंयोगमात्रत्वात् । अथवा सुदृढलोहबन्धनकबद्धधनसूचीकलापवद् बद्धं पुष्टं(स्पृष्टं) च । अथवाऽग्निप्रभया दृढलोहबन्धनबद्धधनप्रबद्धानीतसूचीकलापवद् बद्धं पुष्ट(स्पृष्टं) निकाचितं चेति ॥२९९५॥ तत्राद्यस्यानिकाचितस्य बद्धपु(स्पृ)ष्टप्रकारस्य कर्मणः अमी व्यापारा भवन्ति - ओझेट्टणमुक्केरो "संछोभो खवणमणुभवी वा वि । अणिकाइतम्मि कम्मे णिकाइते पायमणुभवणं ॥२९९६॥ ओअट्टणमुक्केरो इत्यादि । कर्मणो जीवपरिगृहीतस्याप्टौ करणानि१ भब्बर्द्ध को, अबद्धि हे, भवद्धियाणदि दी हा, अब्बद्धिगाण दि म, व्वट्रिय त । एषा हे मता नियुक्तिगाथा । २ पुरे नहा। ३ रुत्थघ त । उजरक्खिय को हे दी हा म, विखय त। ५ तिगयं हे । ६ गुटा म । ७ वअट्ठ म, मद्धमे त । एषा हेसम्मता नियुकिगाथा । ८ वियं को हे त । ९. किल को हे त । १० मरि को हे त । ११ वीम को, हे । १२ हीऍ को। १३ बयाई को, कयाए । १४ मूई हे त। १५ उव्व को हे त । १६ संथोभो हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ विशेषावश्यकभाष्ये नि० ५६६ "बन्धणसंकमणोव(व्व)णा य उ(अव)वट्टणा उदीरणा य । उवसामणा निधत्ती निकायणा चेति करगाई ॥" [कर्मप्रकृति-२] तत्रापवर्तनं स्थितिहासः । 'उक्केरो' उद्वर्तनं स्थितिवृद्धिः । 'संछोभो' संक्रमकरणम् । क्षपणमन्यानुभावेन सह निर्जरणम् । अनुभवः स्वेनैवानुभावेन वेदयित्वा निर्जरणम् - एतान्यनिकाचिते कर्मणि । निकाचितेऽन्त्यमनुभवनमेवेति ||२९९६॥ सोतुं भणति स 'देसं वग्वाणमिणं ति पावति जतो भे। मोक्खाभावो जीवप्प देसकम्माविभागातो ॥२९९७।। सोतुं भणति गाहा । एवं श्रुता त्वा) गोप्टोमाहिल आह-सवं हि भवतां मोक्षाभावः प्राप्तः । तत्र प्रमा गम् --जीवात् कर्म न वियुज्यते, अन्योन्याविभागबद्ध त्वात् स्वप्रदेशवत् ॥२९९७॥ एतदनुवादिनी च गाथा----- ण हि कम्मं जीवातो अवेति अविभागतो पदेसो व्य । तद वगमार्दमोक्खो जुत्तमिणं तेण वक्खाणं ॥२९९.८।। ण"हि कम्मं भावितार्था ॥२९९८॥ न चेष्यते मोक्षाभावः । तत इदं व्याख्यानं युक्तम्--- पुढो जघा अबद्धो कंचुइणं कंचुभा समण्णेति । एवं पुट्ठमवद्धं जीवं कम्मं समण्णेति ॥२९९९॥ पुट्टो गाहा । जीवः कर्मणा स्पृष्टो न बध्यते, वियुध्यमानत्वात् , कञ्चुके. नेव कञ्चुकी ॥२९९९|| तथान्योऽप्यसदग्राहः तस्य ---- सोतूण भण्णमाणं पच्चक्खाणं पुणो णवमपुव्वे । सो जायज्जीवाए तिविधं तिविधेण साधणं ॥३०००॥ (१९७-द्वि०) जंपति पञ्चक्खाणं अपेरिमाणाय "होति सेयं ति" । जेसिं "ति संपरिमाणं तं दृटुं आससा होति ॥३०० १॥" १ सदोस को हे त । २ ‘म्मऽवि को । ३ गोष्टा -इति प्रती । ५ णहि जीवाओ इति प्रती । ५ भावातो जे। ६ दमुक्खो हे । ७ एषा हेसम्मता नियुक्ति गाथा । ८ उजीवविहियं को हे, ज्जीव वहियं त । ९ पच्चक्टवाणं दी हा म । १० सेयं दी हा म। ११ अपरि जे हे दीहा म, अपरी त। १२ णाए को है। णाइ त । माणेण दी हाम। १३ होइ काय व्यं । दी हा म । १५ तु को हे त । १. तु को हे त दी हा म । १६ परिं हे, परी ती द हा म । १७ एषा हेसम्मता नियुक्तिगाथा ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७९ नि० ५६६] अबद्धिकनिह्नवः । आसंसा जा पुण्णे सेविस्सामि त्ति' सितं तीये । जेण सुतम्मि वि भणितं परिणामातो असुद्धं ति ॥३००२।। सोतूण गाहा । जंपति गाहा । आसंसा गाहा । यावजीवकृतावधिप्रत्याख्यानमाशंसादोषदुष्टम्, परिमाणपरिच्छिन्नावधित्वात्, श्वः सूर्योदयात्परतः पारयिष्यामीत्युपवासप्रत्याख्यानवत् । एवं विधमाशंसादुष्टमशुद्धमित्युभयसिद्धो दृष्टान्तः ॥३०००-२।। विझपरिपूच्छितगुरुवदेसकधितं पि सोंण पडिवण्णो । एयधि जाधे ताधे गुरुणा सयमुत्तो पूसमित्तेणं ॥३००३॥ कि कंचुओ व्व कम्मं पतिप्पतेसमध जीवपज्जते। पतिदेसं सव्वगतं तदंतरालाणवत्थातो ॥३००४॥ विंझ० गाहा। किं कंचुओ गाहा । जीवः कर्मणा स्पृष्ट एव, न बद्ध इति प्रतिज्ञायां विचारः-स्पृष्टः किं प्रतिप्रदेशमाकाशेनेव, आहोस्वित् कञ्चुकेनेव जीवपयन्ते त्वङ्मात्रे एवेति ? प्रतिप्रदेशं स्पृष्ट इति साध्यते सर्वगतमाकाशवत् कर्म, न कञ्चुकवत् । ततः साध्यधर्मशून्यो दृष्टान्तः । सर्वगतत्वात् ॥३००३-३००४।। अध जीवबहिं तो णाणुवत्तते तं भवंतरालम्मि। तदणुगमाभावातो वज्झंगमलो व्व सुबत्तं ॥३००५।। अध जीवबहिं इत्यादि । अथ जीवाद् बहिः पर्यन्तमात्रे कर्म, एवं तर्हि भवान्तरालि(ले) तत्रा(न्ना)नुवर्तते, पर्यन्तमात्रवर्तित्वात, बाह्याङ्गमलवत् ।।३००५॥ एवं सव्वविमोक्खो णिक्कारणतो व्य सव्वसंसारो। भवमुक्काणं च पुणो संसरणमतो अणासासो ॥३००६॥ एवं गाहा । एवं च सर्वस्यैव मोक्षः कर्मानुगमविरहितत्वात्, उभयसिद्धमुक्तवत् । स च नेष्यते सर्वमोक्षः, संसारस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् । ततश्चास्याः प्रतिज्ञायाः प्रत्यक्षानुमानार्गमलोकविरुद्धत्वाद् न सर्वमोक्षः । एवं तर्हि सर्वस्यैव निष्कारणः संसार इति मुक्तानामपि संसारः स्यात् , निष्कारणत्वात् । संसारिणामपि ततश्चानाश्वासः, क्रियावैफल्यं च ॥३००६॥ देहंतो जा वियणा कम्माभावम्मिकिण्णि मित्ता सा ? । णिक्कारणा व जति तो सिद्धो वि ण वेतणारहितो ॥३००७।। १ ति को । २ तोए को हे । ३ तु को ह त । ४ ण पडिवण्णो सो को हे। ५ प्रति प्रति इति प्रतौ । ६ अत्र 'अतश्चान्तराठे कर्मणोनवस्थान' इत्यधिकं प्रती । ७ विमु हे। ८ णड़ को । ९ गमनलो इति प्रतो । १० किनि' को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६देहंतो जा गाहा । जीवदेहस्यान्तः कर्मसम्बन्धितास्ति, कर्मकार्यवेदनायुतत्वात . देहपर्यन्तवत् । अथ तस्या वेदनायाः कर्मकार्यत्वमसिदं मन्येथाः किं कारगैवासौ वेदना ? ततः सिद्धस्यापि वेदनावश्यं भाविनी निष्कारणत्वात्, जीवदेहान्तर्वेदनावत् ॥३००७॥ जति वा बन्झणि मित्ता सा तदभाण होऊन तो अंतो। दिहा य सा मुबहुसो वाहिं [१९८-०]णिव्वेतणस्सावि ॥३००८॥ ___ जति वा गाहा । यदि चैवं त्वया कल्पे(प्ये)त बाह्य वेदनानिमित्तैवासावन्तर्वेद नाऽपि । एवं तहिं अन्तर्वेदनाया बहिर्वेदन(ना) कारणम् । कर्म कारणं न भवति, तदभावेऽपि जायमानत्वात्, तन्तव इव घटस्य ॥३००८।। जति वा विभिण्ण देसं पि वेतणं कुणति कम्ममेवं ते। कधमण्णसरीरगतं ण वेतणं कुणति अण्णस्स ॥३००९।। जति वा वि० गाहा । यदि वा भिण्ण(न्न)देशमपि कर्म स्वपर्यन्ते वर्तमानमभ्यन्तरेऽपि वेदनां करोति, एवं भवतः प्राप्तम् - अन्यशरीरेऽन्यशरीरस्थं कर्म वेदनं(ना) करोति भिन्नदेशत्वात् बहिःस्थितकर्मवत् ।।३००९।। अथ तं संचरति मती ण वर्हि तो कंचुओ व्य णिच्चत्थं । जं च जुग पि वियणा सव्वम्मि वि दीसते देहे ॥३०१०॥ अध तं संचरति गाहा । अथैतदनिटं मा प्रापदिति बहि:स्थितमप्यन्तःसञ्चारित्वाद् वेदनां करिष्यति कर्मति। एवं कल्पनायामभ्युपगमविरोधस्ते - बहिः कञ्चुकवन्नित्यस्थं कर्मेति । अथवा न क्रमेण सच्चरति कर्म, युगपद् बहिरन्तरताकार्यवेदनासम्भवात् , हस्त-पादादिभिन्न देशबहिर्वेदनाकारिकर्मवत् ॥३० १०॥ ण भवंतरमण्णेति य सरीरसंचारतो तदणिलो छ । चलितं णिज्जरितं तिय भणितमकम्मं च जं समए ।।३०११॥ ण भवंतरमण्णेति गाहा । भवान्तरं नानुगच्छति कर्म गिरसञ्चारित्वात, वातादिवत् । ननु भवतोऽपि परलोकास्तित्ववादिनोऽभ्युपगमविरोध इति चेत् , तन्न, यत आह-आगमेऽस्माकमुक्तम्-'यच्चलितं कर्म तन्निजर्णिमकर्म च भवति' इति कुतस्तस्य वान्तरानुगमनम् ? 'अचलितमनुदीर्णं भवान्तरमनुगच्छति' इत्या गमात् ॥३०११॥ I fir१ हेस नास्ति । २ वे सा ण हे त । ३ हुज्ज हे। ५ बाह्यकर्मनि' इति प्रतौ । ५ तो हे। तर कर्मान्यत्र पर्य' इति प्रतौ। ७ वयगा जे। ८ सई हे त । ९ चि हे। १० कर्म देहशरी° इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६] अयद्धिकनिह्नवः । अंतो वि अस्थि कम्मं वियणा सम्भावतो तयाए' व्य । मिच्छत्तादि पच्चयसम्भावातो य सम्वत्थ ॥३०१२॥ अन्तो वि अस्थि । अभ्यन्तरवेदना सकारणा सत्त्वात् , स्ववेदनावत् । सर्वशरीरानुगतमिथ्यात्वादिप्रत्यया अपि सकारणाः, सर्वशरीरे विद्यमानत्वात्, वेदनावत् ॥३०१२॥ एवं कर्मणा जीवप्रदेशः सर्वैरैविभागे प्रतिपादिते दोपमा शटकेत पर:-जैवकर्मणोरविमोचनं प्राप्नोति, अविभागस्थत्वात् , ज्ञानादिगुणैरिव । तदाशङ्का निवारणार्थमनैकान्तिकमुद्भासयति अविभागत्थस्स वि से विमोयणं कंचणोवलाणं ३ । णाणकिरियाहि कीरति मिच्छत्तादीहि वाऽऽदाणं ॥३०१३॥ अविभाग० इत्यादि । काञ्चनपापाणकाञ्चनयोविमोचनमुपायतो दृष्टम(मे)व, अविभागस्थत्वं तयोरपि दृष्ट मिःयनैकान्तिकः । स चोपायो ज्ञान-चारित्राभ्यां तद्वियोगः क्रियते, मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगैः कर्मादानमिति ॥३०१३॥ "विध वादाणे किरिया साफल्लं णेह तबिघातम्मि । किं पुरिसकारसझं तस्सेवासज्झमेगंतो ॥३०१४॥ किध वा गाहा । जीवकर्मविभागकारिणी क्रिया सफला, क्रियात्वात् , मिथ्यादर्शनादिकर्मबन्धक्रियावत् । अथवा पुरुषकार माध्यो मोक्षः, क्रियाफलत्वात् संसारवत् ॥३०१४॥ असुभो तिव्वातीओ जध परिणामो तदज्जणेऽभिमतो। तध तस्वियो च्चिय मुभो कि जेट्टी तवियोगे वि ? ॥३०१५॥ असुभो इत्यादि । शुभः परिणामः स्वानुरूपफलप्रसाधनः परिणामत्वात् , अशुभपरिणामवत् । अथवा कर्मवियोगः स्वानुरूप कारणवान् , गुणत्वात् , कर्मसंयोगवत् ॥३०१५॥ __ अथ प्रत्याख्यानविचार:किमपरिमाणं सत्ती अणागतद्धा अधापरिच्छेतो । [१९८-द्वि०] जति जावदत्थि सत्ती तो णणु स च्चे परिमाणं ॥३०१६। याभो त । २ ताईप को हे त । ३ भाव भी है। ५ 'रपि भा' इति प्रती । ५ व को हे। ६ याहिं को हे । ७ ताइहिं को ह । ८ चायणं ह । ९ कह को हृ त । १० णत्वात्-ति प्रतौ । 11 चेव को । १२ रिणाम जे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [मि० ५६६किमपरिमाणं गाहा । यदुक्तम्-'अपरिमाणं प्रत्याख्यानं श्रेयः, आशंसारहितत्वात् तीरितादिविशुद्धोपवासादिवत्' । तत्र विचार्यते-अपरिमाणमिति कोऽर्थः ! किं यावच्छक्ति ? अथाऽनागताद्धा ? अथापरिच्छेद एव ? यावच्छक्तिरस्ति तावत् प्रत्याख्याममशक्तस्य सेवायामपि व्रतभङ्गाभाव इति । नन्वेवं सैव शक्तिः परिमाणम् ॥३०१६॥ सतिकिरियाणुमेयो कालो दरकिरियाणुमेयो म । णणु अपरिमाणहाणी आसंसा चेये तदवत्था ॥३०१७।। सत्तिकिरिया गाहा। शकनक्रिया काल एव, क्रिया वात् , सूर्ये गतिक्रियायत् । तथा चापरिमाणं प्रत्याख्यानमिति शक्तिक्रियापरिमाणपरिच्छिन्नत्वात् स्ववचनविरोधः, आशंसादोषश्च तदवस्थ एव 'शक्तरुत्तरकालं सेविष्यामि' इति ।।३०१७॥ अथ ब्रूयास्वं जीवतः शक्त्युत्तरकालसेवायां न व्रतभङ्गः, अप्रतिषेधचात् मृतस्येव । तत इयं गाथा जध ण वतभंगदोसो मतस्स तध जीवतो वि सेवाए । वतभंगणिन्भयातो पच्चक्खाणाणवत्था य ॥३०१८॥ जध ण वत० गाहा । एवं व्रतभङ्गाभाव एव प्रत्याख्यानानवस्था चेति ॥३०१८॥ ___ तद्वयाचष्टे गाथयाएत्तियमेत्ती सैत्ति त्ति णातियारो ण यावि पच्छित्तं । ण य सव्वन्धतणियमो एगेण वि संजतत्तं ति ॥३०१९|| एत्तियमेत्ती गाहा । एतावतो शक्तिरिति ब्रुवतः नाति चारः, न तत्कृतप्रायश्चित्तम्, न च सर्ववतनियमाः, शक्त्यपेक्ष्यत्वात् , एकेनापि च व्रतेन संयतः स्यादित्येतत् प्राप्नोति ॥३०१९॥ तस्मात् यावच्छक्तिपरिमाणवादिनो दोषसम्भव इति अपरिमाण मे(ए)वानागतद्धा परिगृह्येत अधमा सव्याणागतकालग्गहणं मतं अपरिमाणं । तेणापुण्णपतिण्णो मतो वि भग्गवंतो णाम ॥३०२०॥ अधवा सव्वा० गाहा । तस्य वादिनो भवान्तरेऽवश्यंभावितभङ्गादपूर्णप्रतिज्ञता मृतस्यापि, किमुत जीवतः ? गोष्ठामाहिलसमये भवान्तरेष्वपि भग्नवतो भवति स्व(अ)परिमाणादारात् प्रतिसेवित्वात् , यावज्जीवकृतप्रतिज्ञाजीवप्रतिसेवितवत् । न केवलं १ चेव को हे त । २ इत्तियमित्ती हे। ३ सत्ती ण याइयारो को।, 'जयस तिहे, तत्ति ति त । ५ °तिण्णा जे । ६ °ग्गव भो हे । . जीववत् प्रति इति प्रती । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६ ] अबद्धिकनिह्नवः । भवान्तरेषु, भवाभावे मोक्षेऽपि संयतः प्राप्नोति, अनागताद्धाऽभ्यन्तरवत्तित्वात्, यावज्जीवाभ्यन्तरवर्त्तिसंयतवत् ॥३०२० ॥ अत आह— सिद्धो वि' संजतो च्चिय सव्वाणागतद्धसंवरधरो ति । उत्तरगुणसंवरणाभावो च्चिय सव्वधा चैवं ||३०२१ ॥ सिद्धो वि संजतो गाहा । गतार्था ||३०२१ ॥ अथायमपि पक्षो दोषवानिति तृतीयं व्याख्यानमपरिमाणत्वस्य अपरिच्छेद इति । अत्राप्येत एव दोषाः - व्रतभङ्गादयः । अत इयं गाथा - अपरिच्छेते वि समाण एस दोसो जतो सुते तेणं । वतभंग भयातो "च्चिय जावज्जीवं ति णिद्दिहं ॥३०२२|| अपरिच्छेते । तस्मात् पक्षत्रये दोषान् दृष्ट्वा श्रुतज्ञाने निर्दिष्टं यावज्जीवं प्रत्याख्यानम् । तत्र व्रतभङ्गाभाव इति || ३०२२॥ यत् पुनरुच्यते आसं ( शं) सादोषदुष्टत्वं भवतीति तत्परिहार:णासंसा सेविसामि किंतु मा मे मतस्स वतभंगो | होहिति सुरेस को वावतावकासो विमुक्कस्स ||३०२३॥ नैवं प्रत्याख्यानं क्रियते— 'जीवनात् परतस्सेविष्यामि' इति । किं तर्हि ? 'यावज्जीवामि तावत् सेवां न करोमि तावतोवधिः स्वायत्तत्वात् परतो मृतस्य देवलोकेऽवश्यं भाविनी कर्मस्वाभाव्यादविरतिरिति अपरिमाणेन व्रतभङ्गो भवेत्, न यावज्जीवपरिच्छेदात् । एवं च कृत्वा सिद्धत्य व्रतावकाश (शा) भाव एवेति || ३०२३|| जो पुणरव्वतभावं मुणमाणोत्रस्तभाविणं भणति । वतमपरिमाणमेतं पच्चक्खं सो मुसावादी ||३०२४॥ जो पुण इत्यादि । भावितार्था ॥३०२४ ॥ यस्माच्च ५८३ भावो पच्चक्खाणं सो जति मरणपरतो व तो भगं । अध णत्थि ण णिदिस्सति जावज्जीवं ति तो कीस || ३०२५ || जति अण्णदेव भावो चेतंयतो वयणमण्णधा माया । किं वाभिहिते दोसो भावातो किं वयो गुरुगं ॥३०२६ ॥ १ व त । २णात । ३ चेव हे । ६ होही हे त । ७ मेव को हे, मेव त । ८ Jain Educationa International ४याउ को हे । ५ एव को 1 द्दिसति जें । ९ चंय हे, चत । For Personal and Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६ भावो पच्चक्खाणं गाहा । इह मनोगतो भावः प्रत्याख्यानम् , न वाग्व्यञ्ज. नमात्रम् . । यद्यसौ भावो मरणात् परतोऽपि स्यात् , स्यात्तर्हि व्रतभङ्गः । अथासो जीवकाल परिच्छिन्नपरिमाणस्ततः किमिति वाचा तथा न निर्दिश्यते ! निश्यितामेव भावानुवर्तित्वात् , उपवासादिवत् । यस्य पुनरन्यथा भावे अन्यथा वचनोपनिपातः, तस्य मायादोष एव । असावदुष्टस्य वाऽन्यथावचनेऽपि न दोषः, प्रतिपन्नभाव वात उपवासप्रत्याख्या ने ऽपि पौरुपीवचनवत् ॥३०२५-२६॥ एतदर्थानुवादिनी गाथा--- अण्णत्थ णिवेतिते वंजणम्मि जो खलु मणोगतो भावो । तं खलु पच्चक्खाणं ण पमाणं वंजणं छलणा ॥३०२७।। ___ अण्णय णिवतिते गाहा । गतार्था ॥३०२७|| इय पण्णवितो वि ण सो जाधे सददहति पूस मित्तेणं । अण्णगणत्थेरेहि अ कातुं तो संघसमवायं ॥३०२८।। आहृय देवतं वन्ति जाणाणा वि पच्चयणिमित्तं । वच्च जिणिन्दं पुच्छमु गतागता सा परिकथेति ॥३०२९॥ संघो सम्मावादी गुरू पुरोगा त्ति जिणवरी भणति । इतरो मिच्छावादी सत्तमयो णिण्हो य त्ति ॥३०३०॥ 'एतीसे सामत्थं कत्तो गंतुं 'जिणिन्दमूलन्ति । घेति' केतपूतणाए संघण ततो [१९९-द्वि.] कतो वझो" ॥३०३१।। इय पण्णवितो इत्यादि गाथाचतुष्टयं स्फुटार्थम् ॥३०२८-३१।। "छव्वाससताई णवुत्तराई तइया सिद्धिं गतस्स वीरस्स । तो बोडियाण दिट्ठी रधवीरपुरे समुप्पण्णा ॥३०३२॥ ऊहाए पण्णत्तं बोडियसिवभूतिउत्तरेहि" इमं । "मिच्छईसणमिणमो रधवीरपुरे समुप्पण्णं ॥३०३३।। १ वडिए को हे । २ जण च्छल त । ३ तेग को हे । ४ बेइ को हे, चेइ त । ५ माणो को हे त । ६ जिंदं को हे। ७ हवोऽयं ति को, निबोऽयं ति है। ८ एईस को हे । ९ "शिंद० को हे । १० लम्मि को हे त । ११ बेई को हे । १२ कडा को हे । १३ °उझो ।। ४ १।।५४२ इति गोष्ठामा हिलनामो सप्तमो निह्नवः-त । १५ एषा हेसम्मता नियुक्ति गाथा तथा कोप्रत्यां नास्ति । १५ त्तराहिं को म । त्तराहि दी हा । १६ च्छाद' को दी हा म । १७ एषा गाया तहेप्रन्योनास्ति । दीहामप्रतिषु च ३०३४ गाथातोऽनन्तरं भाप्यत्वेन प्राप्यते । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६] योटिकनिह्नवः। रघवीरपुरं णगरं दीवगमुज्जाणेमज्जकण्हे य । सिवभूतिस्सुवहिम्मी पुच्छा थेराण कधणा य ॥३०३४।। बोडियसिव ईओ बोडियलिंगस्स होति उत्पत्ती । कोण्डैिण्णकोहॅवीरा परंपर्रप्फासउप्पण्णा ॥३०३५।। छच्याससताई गाथा चतुष्टयं यावत् परंपरप्फासउप्पण्णा' ॥३०३२-३५।। पतस्य भाष्यगाथा । उवधिविभागं सोतुं सिवभूती अज्ज कण्ह गुरुमूले । जिणकप्पियातियाणं भणति-गुरूं कीस ताणि -॥३०३६॥ जिणकप्पोऽणुचरिज्जति "वोभि, णो त्ति भणि ते पुणो भणति । तदसत्तस्सोच्छिज्जत "वोच्छिज्जति कि समत्थस्स ? ॥३०३७।। 'पुव्यमणापुच्छच्छिण्णकंवलकसायकलुसितो चे। सोधेति" परिग्गहेतो कसायमुच्छाभयातीया ॥३०३८॥ दोसा जतो सुबहुआ [२००-५०] सुते य भणितमपरिग्गहत्तं ति । जमचेला य "निणिन्दा तदभिहितो जं च जिणक.प्पो ॥३०३९।। जं च "जिताऽचेलपरीसंहो मुणी जं च तीहि" ठाणेहि । वत्थं "धरेज्ज णेगंततो ततोऽचेलता सेआ ॥३०४०॥ उवधिविभागं इत्यादिगाथाः पञ्च । जिनकल्प इदानीमपि नि] व्युच्छिन्न एव, पुरुपकारसामात् , स्थविरकल्पवत् । ततश्च श्रमणेन सर्वथा वस्त्र पात्रादि त्या ग्यम , परिग्रहत्वात् , ग्रन्थत्वात् , धनकनकादिवत् । अथास्य परिग्रहवं अन्यत्वं चासिद्धमिति मन्येथाः, तत्प्रसाधनमपि क्रियते-- परिग्रहो ग्रन्थो वा वस्त्र पात्रादि, कपायहेतुत्वात् , मूच्छ हेतुत्वात् , भयहेतुत्वात् , धनकनकादिवदेव, । तस्मादपरिग्रहत्वं निर्ग्रन्थत्वं श्रेयः, सूत्राभिहितत्वात् , अहिंसावत् । अपरिग्रहाश्च श्रमणा निर्माः मोक्षगामिनः अचेलवाजिनेन्द्रवत् । निर्ग्रन्थश्रमणाश्च सम्प्रत्यमी जिनकल्पिकाः, जिनोक्तानुष्टायित्वात् . १°ाण अन हा। , वरिम्न जे । वहि मिन को हे, वहिम्मि य दी वहिमि य हा । एघा हे म्नता नियुक्ति गाय, अन्यत्र भाष्य वेन । ३ भुतिता जे। ४ कोडि को हे त दी हा म । ५ कुर म । ६ पराफासमुप्प को हे त म । ७ पणा दी हा । एषारि हेसम्मता नियुक्तिगाथा, अन्यत्र भाष्यत्वेन । ८ गुरुं को हे । ९ णो को । १० नोच्छि हे । १३ सोछि जे त । १२ बुन्छि' हे । १३ पुन्छस्स पुव हे त । १४ छछि हे । १५ चेत्र को हे त । १६ बेइ को हे, चेति त । १७ गहिओ त । १८ जिंदा को हे। १२ जियाचें को हे, जिणा चेत। जितो चे जे। २० परिस्स त। २१ तीहि को हे । २२ हि कोहे । २३ 'रिज्ज को हे। २१ वसुपा-प्रतौ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ विशेषावश्यकभाष्ये (मि. ५६१अव्युच्छित्तिकालजिनकल्पिकवत् । अचेलश्च सम्यगमुनिः, तत्परीपह सहिष्णुत्वात् , क्षुत्परीषहसहिष्णुषष्टाष्टमादिक्षमकवत् । सर्वथा चेलं न धारणीयमेव, स्थानत्रयातिरेकेण प्रतिषिद्धत्वात् , अलङ्कारवत् । तस्मादचेलता श्रेयसीति निगमनम् ॥३०३६-४०॥ ___ अस्य पूर्वपक्षस्य क्रमेण दृपणानि-- गुरुणाभिहितो जति जं कसायहेतु परिग्गहो सो ते । सो' तो देहो च्चिय ते सकसायुप्पत्तिहेतु त्ति ॥३०४१॥ अस्थि व किं किं वि जये जस्स व तस्स व कसायवीजं जं। वत्थू ण होज्ज एवं धम्मो वि तुमे ण 'वेत्तव्यो ॥३०४२॥ गुरुणा गाहा । यदि कषायहेतुर्ग्रन्थो भवति ननु भवतः स्वो देहः स्वकषायहेतुः सिद्धः । न चासौ ग्रन्थः परिग्रहो वा । तस्मात् 'परिग्रहो वस्त्रम् , कषायहेतुत्वात्' इत्यनैकान्तिकः । अथवा किमनेनातिस्तोकेन गदितेन ? न हि जगति किञ्चिद् वस्त्वस्ति यं(यत्) न कषायवाजमिति सर्वेणाप्यनैकान्तिकः । प्रवचनेन, यावताऽस्मदीयो धर्मोऽपि कषायहेतुरिति तेनैवानकान्तिकः ॥३०४१-४२॥ अथवा जेण कसायणिमित्तं जिणो वि गोसालसंगमादीणं । धम्मों धम्मपरा वि य पडिणीयाणं जिणमतं च ॥३०४३॥ जेण कसाय० गाहा । गोस(शा)लसङ्गमादीनां जिनोऽपि कषायहेतुः । प्रत्यनीकानां च धर्मो धर्मपराश्च । न चासौ परिग्रह इत्यनैकान्तिकहेतुत्वम् ॥३०४३।। अध ते ण मोक्खसाधणमतीए गंयो कसायहेतू वि । वत्यादिमोक्खसाधणमतीये सुद्धं कधं गन्यो ? ॥३०४४॥ अथ ब्रयास्त्वं देहादि मोक्षसाधनबुद्धया परिगृहीतमप्यपरिग्रहः । एवं च वस्त्राद्यपि अपरिग्रह एव, मोक्षसाधनत्वात् , देहादिवत् ॥३०४४।। एवं चाचे प्रमाणे य उक्तो हेतुः परिग्रहत्त्वादिति सोऽसिद्धः , “मूर्छा परिग्रहः" तत्त्वार्थ ७. १२] इति लक्षणत्वात् ! एवमेव मूछ हेतुत्वादिति तुल्यः प्रचोंऽनैकान्तिकादिः'मु हेतू गंथो जति तो देहातियो कधमगंयो । मुच्छावतो ? कथं वा गंधा वत्थादसंगस्स ? ॥३०४५।। १ सो तो त। २ ते कसायउप हे । ३ किंचि को हे । ४ यबीयं को है। ५ वत्थु को हे, वत्थं त । ६ घेतब्बो हे । ७ धम्मा त । ८ गंथो हे को । ९ हेतु: प्रमाणपरि-इति प्रतौ । १० गन्थो को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोटिकनिह्नवः । मुच्छाहेतू गाहा । नग्नश्रमणकानां शरीरादिः सर्वोऽपि ग्रन्थः, मूर्च्छाहेतुत्वात्, वस्त्रादिवत् ॥ ३०४५॥ अध देहाहारादिसु ण मोक्खसाधणमतीये ते मुच्छा का मोक्खसाधणें मुच्छा वत्थादिमुं ते ||३०४६|| अथ ब्रूयात् परः- निःसङ्गस्य मूर्च्छामिकुर्वतः शरीरं ग्रन्थो न भवति, मोक्षसाधनत्वात् दर्शनादिवत् । एवं तर्हि निःसङ्गस्य वस्त्राद्यपि ग्रन्थो न भवति, मोक्षमाधनत्वात्, देहवत् ॥ ३०४६॥ नि० ५६६ ] [२०० - द्वि०] अह कुणसि धूत्थातिए मुच् सरीरे वि । अज्जलभतरे काहिसि मुच्छं विसेसेणं || ३०४७॥ अह कुण० गाहा । अथ स्थूलवस्त्रादिपु सुलभेष्वपि मूर्च्छाऽवश्यं भाविनीति, तन्न । शरीरेऽपि ते मूर्च्छाऽवश्यंभाविनी दुर्लभत्वात् कम्बलरत्नादिवत् ॥ ३०४७॥ त्थादिगन्थरहिता देहाहारातिमर्त्तमुच्छाए । ५८७ तिरियस दयो णणु हति रियोवगा बहुआ || ३०४८ || अथ वस्त्रादिग्रन्थरहितो (ताः) देहाहारादिमात्रपरिग्रहाः मोक्षं साधयिष्यन्ति, अल्पपरिग्रहत्वात्, जिनकल्पिकादिवत् । एवं तर्हि को विपक्ष: : ये मोक्षं न साधयन्ति तिर्यक्-शख (ब) रादयस्तेषु चाल्पपरिग्रहत्वं दृष्टमित्यनैकान्तिकः || ३०४८ || अपि च अनिगृहीतात्मानो बोडिका: कर्ममलमनन्तमर्जयन्ति परकीयेष्वपि मूर्च्छाकषायदोषवत्त्वात् । एतदर्था -- अपरिग्गा वि पसंतियेमु मुच्छा कसायदोसेहिं । अविणिग्गतिप्पाणी कम्ममलमणन्तमज्जैन्ति ॥ ३०४९|| अपरिग्गहा विइत्यादि गतार्था ॥ ३०४९|| देहत्थवत्थमल्लाणुले वणाभरणधारैणा केयि । उवसग्गाति मुणयो णिस्संगा केवलमुवेन्ति ||३०५० || · देहस्थ गाहा । श्वेतपटास्तु केवलं साधयिष्यन्ति, निःसङ्गवे सति वस्त्रधारित्वात्, भरतचक्रवर्त्तिवत् उपसर्गादिषु वा यथाऽऽह (भ) रणधारिणो मुनयः ॥३०५०॥ , १ मई हे त । २ तो को हे । ३ धुल्ल' को है । जे, 'सर' त । ६ तिरियो त । ७ बहुसो हे त । जे । १० मज्जेति को । धारिणो को हे त । १२ विति है । ११ ७४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ४ मित्त' हे । ५ सपर ८ परि त । ९ 'दोदेहि केइ हे त, केई को । १३ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ विशेषावश्यय साध्ये नि० ५६६यत् पुनरेतदुक्तं प्रन्थो वस्त्रादिः, भयहेतुत्वात् , हिरण्यसुवर्णादिवत , तद्यभिचारार्थमुच्यते तिर्डि जति भगहेन गयो तो जाणावीण तदमागेह' । भयमिति ताई गन्यो देहस्स य सावतादीहि ॥३०५१॥ जति भयहेतू गाहा । ज्ञानदर्शनचारित्राणि ग्रन्थो भवति, तेषु च तदुपघाते भयहेतुत्वं दृष्टमित्यनैकान्तिकः । यत्नतो हि दर्शनादीनि रक्षणीयानि । श्वापदचौरादिभ्यश्च देहस्य भयमिति भयहेतुत्वं देहेऽपि दृष्टमित्यनैकान्तिकः ॥३०५१।। अध मोक्खसाधणमईए ण भय हेतू वि ताणि ते गंथो । वत्याति मोक्ख साधणमतीये मुद्धं कधं गंथो ? ॥३०५२।। अध मोक्ख० गाहा । ज्ञानादीनि मोक्षसाधनबुद्धया परिगृहीतानि न ग्रन्थ इति विपक्षाभावादनै कान्तिकाभावः । एवं तर्हि वस्त्रादीन्यपि नैव ग्रन्थः, मोक्षसाधनबुद्धया परिगृहीतत्वात् , ज्ञानादिवत् ।।३०५२॥ सारक्खणाणुबंधो रोदज्झाणं ति ते मती होजा । तुल्लमिणं देहातिमु पसत्यमध तं तधेहावि ॥३०५३।। सारक्खणा० गाहा । “हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौदें ध्यानम्" [तत्त्वार्थ ० ९-३६] इति वस्त्रादिपरिग्रहो ग्रन्थः, रौद्रध्यानविषयत्वात् , विषयसंरक्षणवत्' । देहादिष्वपि तुल्यमेतदित्यनैकान्तिकः । अथ देहादिपु प्रशस्तध्यानम्, मोक्षसाधकत्वात् । तद् वत्रादिपु तुल्यमिति विरुद्धाव्यभिचारि प्रतिप्रमाणम्-वस्त्रादि विशुद्धबुद्धि. परिगृहोतं प्रशस्तव्यानम्, मोक्षसाधनत्वादेहादिवत् ।।३ ०५३॥ अथवोभयसिद्ध आगमो ज्ञापकम् - जे जत्तियेप्पगारा लोए भयहेतवो अविरताणं । त चेव य वि[२०१ प्र०]रताणं पसत्थभावाण मोक्खाय ॥३०५४॥ जे जत्तिय० गाहा । स्फुटार्था । अन्यत्राप्येवम्-यथाप्रकाग यावन्तः संसारावेशहेतवस्तावन्तस्तद्विपर्यासात् निर्वाणावेशहेतवः ॥३०५४॥ अथ ब्रूयात् १ घाईहिं हे । २°मिय त । ३ वधार्दा त। ५ 'मती जे त । ५ त्याई को। ६ °णार त । ७ हुज्जा हे । ८ °मियं को हे त । ९ यमि हे त । १० तत्त्वार्थे "रौद्रम्” इति पाटः । ११ विषयसंसारक्ष-इति प्रतौ । १२ 'त्तिया पगा को हे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८९ नि० ५६६] बोटिकनिह्नवः । आहारो च ण गंथो देहत्यन्ति विसघातणत्थाय । कणगं पितधा जुवती धम्मंतेवासिणी मे नि ॥३०५५।। आहारो गाहा । निम्रन्थो देहः, उपकारित्वात् आहारवत् । एवमप्यनैकान्तिकस्तदवस्थः विषघातनार्थ कनकमपि देहस्योपकार्गति प्रन्येऽन्युपकारिवं वर्तत इति । तथा युवतिः धर्मान्तेवासिनी उपकारिणी, ग्रन्थश्चासौ ॥३०५५।। तम्हा किमस्थि वत्थु गंथोऽगंथो ब्य सम्वधा लोए । गंथोऽगंथो वे मतो मुच्छामुच्छाहि णिच्छयतो ॥३०५६।। तम्हा किमत्थि वत्थु गाहा । तस्मात् "मूर्छा परिग्रहः" तत्त्वार्थ ०७-१२] इति लक्षणात् मूर्छामूर्छाभ्यां तस्यैवैकस्य वस्तुनो [अन्यत्वम ग्रन्थत्वं च, न वस्तु. स्वभावतः ॥३०५६॥ वत्थाति तेण जं जं संजमसाधणमरागदोसस्स । 'तं तमपरिग्गहो चिय परिग्गहो जं तवघाती ॥३०५७।। वत्थाति गाहा । स्फुटार्था ॥३०५७|| किं संमोवकारं करेति वत्थाति जति मती मुणम् । सीतत्ताणं ताणं जलणतणगताण सत्ताणं ॥३०५८।। किं संजमो० गाहा । शीतार्तानां मन्दसंघ ह)ननानां स्वयं तत् प्रार्थितञ्च लनतृणगतसत्त्वानां च वस्त्र मुपकारकमिति संयमोपकारि वस्त्रम् , शीतार्तज्वलनतृणगतसस्वत्राणसमथत्वात् , अहिंसात्रतवत् ।।३०५८।। तध णिसि चातुकालं सज्झायज्झाणसाधणमिसीणं । महिमहियावासोसारयातिरक्खाणिमित्तं च ॥३०५९।। तध णि गाहा । संयमोपकारि वस्त्रम्, चतुष्कालं स्वाध्यायध्यानसाधनत्वात, उपाध्यायोपदेशवत् । अथवा संयमोपकारि वस्त्रम् , महिमहिकावीवस्य (श्या) यरजप्रभृति. सूक्ष्म जन्तुरक्षणसमर्थत्वात् , ईर्यासमितिवत् ॥३०५९।। तथामतसंवरुज्झणत्थं गिलाणपाणोवकारि चाभिमतं । मुह पुत्तियाति" चेवं परूवणिः जधाजोगं" ॥३०६०।। १ तथं हे । २ गटाए को हे त । ३ ब को हे । ५ ब को हे । ५ उममु हे त। ६ 'हिं को हे। ७ स्थाई हे। ८ तन्तम जे त । ९ °धाई' हे। १० कम्मं संप्रमो' जे, कं सं को। ११ स्थाइ हे । १२ यता हे । १३ वाभि हे। १४ य य त। १', 'जोगं त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० विशेषावश्यकभाष्ये (नि० ५६६ मतसंव० गाहा । संयमोपकारि वस्त्रम् , मृतसंवरणोम्झनविध्युपयोगित्वात, सहायसाधुवत् । तथा संयमोपकारि वस्त्रम्, ग्लानप्राणोपकारित्वात्, औषधवत् । मुखवस्त्रिकादि संयमोपकारि, भाषासमित्युपयोगित्वात् , मौनव्रतवत् । प्राणिरक्षात्मकस्वाद्वा अहिंसावतवत् ॥३०६०॥ संसत्तसत्तेगोरसपाणयपाणीयपाणरक्वत्थं । परिगलणपाणघातणपच्छाकम्मादियाणं च ॥३०६१॥ परिहारत्थं पत्तं गिलाण पालादवग्गहत्थं च । दाणम[२०१-द्वि०]यधम्मसाधणसमता चे परंप्परतो ॥३०६२।। संसत्तसत्तु ० गाथाद्वयम् । संयमोपकारि पात्रम्, संसक्तसक्तुगोरसपानकपानीयप्राणरक्षार्थत्वात् , परिगलनप्राणघातपश्चात्कर्मादिपरिहारार्थत्वात् , पिण्डेषणाध्ययनवत् । अथवा संयमोपकारि पात्रम् , ग्लानबालदुर्बलवृद्धानुग्रहार्थत्वात्, विधिविशुद्ध य. थायोग्याहारवत् । अथवा दानम यधर्मसाधनत्वात् , ज्ञान(ना)भयाहारप्रदानवत् । अथवा लब्धिकशक्ताशक्तप्राघूर्णकसाधुसमताहेतुत्वात् , सामायिकवत् कषायजयवा ॥३०६१-६२॥ अपरिगहेता सुत्ते ति जा य मुच्छा परिगहोऽभिमतो । सव्वदन्वेसु ण सा कातव्या मुत्तसम्भावो ॥३०६३।। अपरिग्गहता गाहा । यच्चोक्तं साधुना वस्त्रपात्रादिपरिग्रहो न कार्यः, सूत्रे प्रतिषिद्धत्वात् , प्राणातिपातादिवदिति । तत्र प्रत्युच्यते-सत्यम्, अपरिग्रहता सूत्रेऽभिहिता । परिग्रहलक्षणं मूळ । सा न केवलं वस्त्रपात्रादौ प्रतिषिद्धा, किन्तु सर्वद्रव्येष्वपि शरीराहारशिष्यपिछकादिप्वपीति सूत्रसद्भावः । ततश्च मूपिक्षे सिद्धसाधनम्-वस्त्रपात्रादिपु मूर्छा न कर्तव्यैव । किन्तु मूविरहितं वस्त्रपात्राद्युपादेयम् , संयमोपकारित्वात् , शिष्यादिवत् ॥३०६३॥ यच्चोक्तम्--'अचेलैः सर्वसाधुभिर्भवितव्यं जिनेन्द्रोपदेशवर्तिवात् जिनेन्द्रवत्' । तत्र प्रतिविधीयतेणिरुवमधितिसंघतणा चतुणाणातिसयसत्तिसंपण्णा । अच्छिद्दपाणिपत्ता जिणा 'जितपरीसहा सब्वे ।.३०६४॥ १ सत्तगों को। २ णस हे । ३ प को हे त । ५ 'हिता त । ५ 'मभो को हे त : मत्तो जे । ६ 'सत्त को हे त । ७ जन त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६] योटिकनिह्नयः । जेम्हा जधुत्तदोसे पावन्ति ण वत्थपत्तरहिता वि । तदसाधणं ति तेसिं तो तग्गहणं ण कुव्वंति ॥३०६५।। तध वि गहितेगवत्था संवत्थतित्थोवदेसणत्थं ति । अभिणिक्खमंति सव्वे तम्मि चुतेऽ चेलया होन्ति ।।३०६६॥ जिणकप्पियादयो पुण साधओं सव्वकालमेगंतो । उवकरणमाणमेसिं पुरिसावेक्खाय बहुभेदं ॥३०६७॥ अरुहंतो जमचेलो तेणाचेलत्तणं जति मंती ते । तो तव्ययणात।' च्चिय णिरतिसयो होहि माऽचेलो ॥३०६८॥ रोगी जधोवदेसं करेति वेजस्स होतरोगो य । [२०२-०]ण तु वेसं चरितं वा करेति ण य पउणति करेन्तो ॥३०६९॥ तध जिण वेज्जादेसं कुणमाणोऽवेति कम्मरोगातो । ण तु ते णेवच्छधरो तेमि आदेसमरेन्तो ॥३०७०।। ण परोवदेसवसगा ण य छ नमत्था परोवदेस पि ।। "देन्ति तध सीसवग्ग "दिकग्वन्ति जिणा जधा"सव्वे ॥३०७१।। तध सेसेहि वि" सव्वं कज्ज जति तेहि" सव्वसाधम्म । एवं च कतो तित्थं ण चेदचेलो त्ति को गाहो ? ॥३०७२।। जध ण जिणिन्देहि समं सेसातिसएहि सव्यसाधम्म । तध लिंगेणाभिमतं चरितेण वि किंचि साधम्मं ॥३०७३॥ णिरुवमधितिसंघतणा इत्यादिगाथासङ्घातः । अत्र दूषणमुच्यते-जिनेन्द्र. दृष्टान्ते जिनोपदेशवर्तित्वं हेतुनास्तीति सामनधर्मशून्यदृष्टान्तदोपः । जिनेन्द्रा भगवन्तः स्वयंबुद्धाः, न परोपदेशानुवर्तिनः । यद्यायनादिद्वादशाङ्ग श्रुतोपदेशपूर्वकमतिशयज्ञानेन प्रबध्याकालमाभोगयित्वा पूर्वतीर्थकराऽऽचरितमेव जीतकरूपन्यायेन तीर्थकरकल्पं प्रतिपद्यन्त इति जिनोपदेशवतित्वं दृष्टा. १ त को हे त । २ म त । ३ अ. जे । ५ हुति को हे । ', वहिणो को। ६ क्खाए को हे, ७ क्खाइ त । ८ अरहंता को हे त । ५ चला को हे त को हे त।१० गाउ को हे। 11 य को । १३ रतो १२ मयंहे । १३ तन्नेवस्थघ' को हे। १४ 'मिमाएस' को हे । १५ रतो हे । १६ दिति ह । १, न य को हे त । १८ क्खंति हे । ११. जिणा जहा को हे त । २० मि जे । २१ तहिं को है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये नि० ५६६न्ते सिद्धम् , तथाऽप्य[त्र] दृषणमुच्यते-जिनोपदेशवर्तित्वं हि हेतुर्यथा जिनेन्द्रदृष्टान्ते निरुपमतिसंहननचतुर्ज्ञानातिशयसत्त्वसम्पन्नाच्छिद्रपाणिपात्रजितपरीवहनच्छन्नाहारनीहारपरानभिभवनीयरूपातिशयत्वधर्माऽविनाभूताऽचेलत्वेन व्याप्तो दृष्टे स्तद्वत् पराभिमतसर्वसाधूनामचेलत्वसाध्यधर्म यथोक्तविशेषणसहितं साधयतीति अनतिशयाऽचेलत्वविपर्य येण धर्मविशेषविपरीतसाधनो नाम इष्टविघातकृविरुद्धः-पराश्चिक्षुरादयः संघातत्वाच्छयनासनाद्यङ्गवत्-इत्यत्र यथा । एवं च सातिशया जिनाः वस्त्रपात्रे न गृह्णन्ति, तद्विरहेऽपि तदोषासम्बन्धिस्वात् तद्गुणसम्बन्धित्वाच्च दण्डके इव । तद् वस्त्रपात्रादि तेषां संयम साधनं न भवति, तेन विनाऽपि तसिद्धेः, पुस्तकादिवत् । तथाऽपि च क(चाकि चित्करमपि संयम प्रति एकं वस्त्रं परिगृह्णन्ति प्रयोजनान्तरोपयोगित्वात् , कृतकृत्यप्रथमधर्मकथाप्रवर्तने तीर्थकरसंस्कारवत् । तच्च प्रयोजनान्तरं सवस्त्र तीर्थप्रदर्शनम् । तस्मिश्च निष्क्र. मणकालपरिगृहीतकवस्त्रे च्युते पुनरन्यथाप्रयोजनाभावान परिग्रहाभावे सातिशयाऽ. चेलका भवन्तीति तीर्थकराः, न पुनः पृथग्जनास्त कालमनुष्याः, किमङ्ग पुनरद्यकालसामान्यपुरुषाः सर्वदोषाकराः । तस्मादचेलको(का)ग्रहोऽनर्थकर इति त्यभ्यताम् । यचोक्तम् - 'अचेलकैर्जिनैर्जिनकम्पिका एवोपदिष्टाः' इति तदन्यथा, नैव सर्वे निरुपधयः, किन्तु सर्वेऽप्युत्सर्गतः सोपधयाः(यः)। उपधिपरिमाणं प्रति विशेषान्तरम्, स्तोकाल्पोपकरणत्वात् । पुरुषविशेषो(पा)नतिशयापेक्षमेतत्, तथापि सर्वेः सामान्यपुरुषकैः जिनकल्पो न प्रतिपत्तव्यः, तदयोग्यत्वात् , क्लीवादिभिरिव संयमः । यदपि चोक्तम्-'अचेला जिनास्तच्छिष्यैरपि सर्वेरचेलकैर्भवितव्यम्"जारिसयं गुरुलिङ्गं सीसेण वि तारिसेण होयत्वं । ण हि होइ बुद्धसीसो सेयपडो णग्गसमणो वा ॥" अत्र प्रमाणम् - स्वतीर्थकरवेप चरितानुविधायिभिस्तच्छिप्यर्भवितव्यम् , शिष्यत्वात् शाक्यबुद्ध शिष्यभिक्षुवत्' । अस्योत्तरम्-स्वतीर्थकरवेष चरितानुविधायिनः को विपक्षः? यः स्वतीर्थकरवेषचरितानुविधायी न भवति । तद्यथाई तो गोसा(शा)लका(कः), बुद्धस्य देवदत्तकः । तत्र च शिष्यत्वं हेतुर्वर्त्तत इत्यनैकान्तिक उभ या] सिद्धि (द्ध) इति दूषणम् । अथ यात् परः--तदाऽऽदेशकारिविनीत वे सति शिष्यत्वादिति हेतुः सविशेषणः । तौ च गोशाल-देवदत्तको तदादेशका रिविनीतो न भवत इति विपक्षाद् व्यावृत्त एव हेतुरित्यनैकान्तिकाभावः । एवमपि स्वतीर्थकरवेषचरितानुविधायिन्यः १ दृष्टान्तस्तद्वन्-इति प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६६ ] बोटिक निह्नवः । आर्यिका न भवन्तीति पक्षः, तत्र च तदादेशकारिविनीतत्वे सति शिष्यत्वं हेतुवर्त्तत इत्यनैकान्तिक एव । यदि च तदादेशकारित्वं प्रतिपद्यसे ततस्त्वया नग्नश्रमणकेन निरुपधिवृति संहननाद्यतिशयरहितेन अचेलकेन न भवितव्यं तदादेशकारित्वात्, आर्थिक (का) वत् । अपि कर्मरोगापनयनमिच्छता जिनेन्द्र वैद्योपदेशः स एव कर्त्तव्यो न तद्वेषाचरिते, आतुरत्वात्, वैद्योपदेशकारित्र्याधितातुरवत्, जिनवैद्यवेपचरितानुकारी च तदुपदेशमकुर्वन्न मुच्यते कर्मरोगात, अनधिगति (त, शास्त्रार्थकवे सति पिवेषचरिताऽवलम्बित्वात् अनधिगत। पुर्वेदसद्भाववैषानुकार्यातुरवत् । 1 1 " अपि च यत् प्रागुक्तं प्रमाणम् - 'स्वतीर्थकर वे पचरितानुविधायिभिः तच्छिष्यैः भवितव्यम्' इति, तत् किं सर्वसाधर्म्येण तदनुविधानं साध्यते, आहोस्वित् किश्चित् साधर्म्येति । यदि सर्वसाधर्म्येण ततस्ते जिनाः न परोपदेशवशगाः, न चानुत्पन्नकेवलज्ञानाः परोपदेशं कुर्वन्ति, न च शिष्यान् दीक्षयन्ति तथा सर्वसाधर्म्याद्भवद्भिरप्येवमनुष्ठेयं प्राप्नोति । न च तथानुतिष्ठते (नुष्ठीयते) इत्यभ्युपगमविरोधिनी प्रतिज्ञा । एवमनुष्टाने च तीर्थाभाव एव भवतामिति सर्वसाधर्म्यप्रतिज्ञानथिंका अशक्या च कर्तुमिति । किञ्चित्साधर्म्यं प्रतिज्ञायते । तथा च सिद्धसाधनं प्रतिज्ञादोषः, अस्माकमपि किञ्चिल्लिङ्गेन साधर्म्य लोचकरणादिना, किश्चिच्चरितेन साधर्म्यम् - सावद्ययोगवर्जनं नवकोट शुद्ध भैक्ष्याहारत्वमनित्य (नियत) वसतित्वमित्यादि ॥ ३०६४-७३ ॥ ५९३ यच्चोक्तम्-जिनाज्ञ्या सर्वेणापि जिनकल्पोऽनुष्ठेयः, जिनाभिहितत्वात्, सर्व सावययोगवर्जनवत् । तत्र प्रतिविधीयते - उत्तमधितिसंघतणा पुव्वैविदोऽतिसइणो पुरा कालं । जिणकपिया विकष्पं कतपडिकैम्मा पवज्जन्ति ॥ ३०७४ || उत्तमधितिसंवतणा इत्यादि । उत्तमधृतिसंहननैः पूर्वविद्भिरुत्पन्नातिशयैरेकत्वादिभावनापरिकर्मकृतयोग्यैरेव जिनकल्पोऽनुष्ठेयः, जिनैस्तथाभिहितत्वात्, प्रत्रजनार्हेण सता महात्रतारोपणवत् ॥ ३०७४|| तं जति जिणत्रयणातो पवज्जसि पवज्ज तो स द्विणोतु । अस्थि ति पमाणं किं 'वोच्छिष्णो त्तिण पमाणं ||३०७५ || Jain Educationa International १ "तानुचरन् जिं इति प्रतौ । २ 'विइति त । ३ सया को हे त । ४ परि' को हे त । ५ ल्पो नष्टे यः - इति प्रतौ । ६ति को, त्ति हे त । ७ कहं हे, कथ त । ८क हे त । ९. हे । For Personal and Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ विशेषावश्यकभाष्ये नि० ५६६___ तं जति जिणवयणातो इत्यादि । यदि जिनवचनं प्रमाणं तेन सम्प्रति दुःपमाकाले व्युच्छिन्नो जिनकल्प इति सत्यमेतत् तदिति प्रतिपत्तव्यं जिनाभिहितत्वात. जंबूनाम(म्नि) काले जिनकपास्तित्ववत् ।।३० ७.५।। एतदर्थज्ञापनायात्र गाया --- मण-परमोधि-पुलाए आहारग-खवग उवसमे कप्पे । संजमतिय-केलि -सिझणा य जंबुम्मि बोच्छिण्णा । ३०७६।। मणग्रहणाढे द्वा)क्यैकदेशानुकरणानमनःपर्यायज्ञानम्, परमावधि सस्कृष्टमवधिज्ञानम् . पुलाकलब्धिः आहारकशारीरकलब्धिः, क्षयोपशम श्रेणिद्वयम् कल्पग्रहणाम्जिनकल्पः, संयमत्रिकम्-परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसंपराय-अथारख्यातानि. केवलज्ञानम , सिद्धगमनं च । एतेऽर्थी जम्बुनाम्नि सुधर्मगणधरशिप्ये व्यवच्छिन्ना-तम्मिन मति अनुवृत्ताः, तस्मिन् परिनिर्वाणे व्यवच्छिन्ना इति ॥३०७६।। ___ यदपि चोक्तम् जिताचेलपरीपहो मुनिर्भवति, चेल यह गादजिनपरीषदः' इति । तत्रोच्यते-- जति चेलभोगमेत्तादजिताचेलयपरीसहो तेणं । अजितदिगिछादिपरीसहो वि भत्तातिभोगातो ॥३०७७।। जति चेलभोगमेत्ता इत्यादि । चेलाहणेऽपि विगुदबुद्धिजिताऽचेन्टपरीपह एवं मुनिः आगमविशुद्धपरिग्रहणात् विशुद्धाहारपरिग्राहि जितजिघांसापरीपह मुनिवत् । अथवा विशुद्धपिण्डभोक्ताऽपि अजितजिघांसापरीपह इति प्रामं परिभोगि वात् चेल. भोगिमुनिवत् ॥३०७७|| एतच्चानिष्टम्-जिनानामप्यजितपरीपहत्व प्राप्तरनिष्टापादनात--- एवं तुह ण जितपरीसहा जिणिन्दा वि सवधावणं । अधवा जो भत्तातिमु स विधी चेले वि किण्णेढा ॥३०७८॥ एवं नु हजितपरीसहादित्यादि गतर्था ॥३०७८॥ गताया जध भत्तातिविमुद्धं रागहोसरहितो णिसेवेन्तो” । विजितदिगिच्छादिपरीसहो मुणी सपडिगारो वि ॥३०७९।। जध भत्ताति विसुद्धं इत्यादि गतार्था ॥३०७१।। तध चेलं परिमुद्धं रागदोसरहितो मुतविहीयें । होइ "जिताचेलपरीसहो मुणी सेवमाणो वि ॥३०८।। १ वल हे। २ बुन्छि' हे। : वृत्तिकारः सर्वत्र टीकायां मलगाथा प्रतीकमेव निर्दिशति परन्तु अस्य ३०७६ गाथ! या वृत्ते केवलं तत्प्रतीकमनिर्दिश्य समनामेव गाथां निर्दिष्टवान् परन्तु पुनर्मुद्रणं गाथाया न स्याद् इति सा गाथा वृनौ न पुनरुद्धृता । ४ मित्रोऽचे त । ५ तेण को हे । ६ दिगं त । 'गिदा को हे । ८ धाचत्तं त । ९ किं नेट्रो को हे, पणटो त । १० वेंतो को वनो हे । 11 'गिछा को गिच्छा त । १२ हीए को हे त। १३ जहाचे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोटिकनिह्नवः । तध चेलं परिसुद्धमित्यादिर्गतार्था ॥ ३०८०॥ अथवा द्विविधमचेत्वं लोकप्रसिद्धम् - मुख्यमुपचरितं च । तत्र वर्त्तमानकाले विशिष्टधृति [ संहनना ] सम्भवे मुख्यमचेलवं संयमोपकारि न भवतीति उपचरिताचेलत्वेन अचेल परीषहजयः कर्तव्यः, अनशनाशके (क्तेः) एक द्वित्रिकेवलावमीभूतप्राप्तामौदा (द) र्याशनादपि जिघांसा (घत्सा परोपजयवत् ॥ ३०८० || अत आह— सतसंतचेलओऽचेलओ य जं लोग समयसंसिद्धो । तेणाचेला मुणयो संतेहि, जिणा असंतेहि ||३०८१|| परिसुद्धजुष्णकुच्छितथोवाणियतेऽण्ण भोग भोगेहि । मुणयो मुच्छारहिता संतेंहि अवेलया होंति ॥ ३०८२|| ज जलमवगाहंतो बहुचेलो वि सिरवेर्दितकडिल्लो | भणति णरो अचेलो तथ मुणयो संतचेला वि ॥ ३०८३ ॥ [२०३ - प्र० ] तथ थोवजुष्णकुच्छितचेलेहि वि भण्णते अचेलो त्ति । जैध तूर सालिय ! लहुं दो पोत्तीं णग्गिया "मिति ॥ ३०८४|| सतसंत० गाहाचतुष्टयम् ४ । सदसती चेले ययोस्तौ सदसच्चेलौ द्वावप्यचेलकौ लोकप्रसिद्धया परिशुद्धजीर्णकुत्सितस्तोकाऽनियताऽन्ये भोगमुक्तैः सद्भिश्चेलैर चेलका मुनयः । लोकप्रसिद्ध वस्तु कार्याविनि (कौपीन) योजिल्वा (त) निरावरण गुह्य बहु चेलावेष्टितशिरोमनुष्यवत्, परिजीर्णबहुच्छिशा टीवेष्टितकरी (र) स्त्रीवत् । एवं च वस्त्रेऽपि नाग्न्यशब्दप्रवृत्तेर्नागमविरोधः ॥३०८१-८४॥ नि० ५६६ ] यच्चोक्तं स्थानत्रये वस्त्रधारणानुज्या शेषकालमवस्त्रेण भवितव्यमिति आगमोक्तत्वाद् नाग्न्यमेव श्रेय इति । तत्र प्रतिविधीयते - स्थानत्रयधरणकालादारादपि निरतिशयेनावश्यं वस्त्रपरिग्रहः कार्य एव तत्कालपरिशुद्धाला सति पौरुप्यादिगृहीतप्रत्याख्यान वेलाया आरादपि गृहीततत्कालभो (भ)क्ष्यमाणविशुद्वाहारवत् । एतदर्थं चेयं गाथा - विहितं सुते च्चिय जतो घरेज्ज तिहिं कारणेहिं वति । तेणं चिय तदवस्सं णिरतिसरणं धरेतव्वं ॥ ३०८५।। विहितं गाहा । भावितार्था ||३०८५ ॥ ५९५ १ कपराधूतप्राप्ता इति प्रतौ । २ तह को है । ३ यतंभो० जे । ४ 'भोग्गे जे । तेहि को, हे । ते वित । ६ट्टि है । ७ जह तर हे । ८ दे को, त। मूलपाठगतं 'दो' इति तथा पाठान्तरगतं '' इति ( ' ददस्व' म० ०गा० २६०१ पृ१०३७ ) इत्येवं संस्कृत क्रियापदस्य प्रतिरूपकं रूपं दानक्रिया सूचकं क्रियापदम् । अधुनाऽपि हिन्दीभाषायाम् दानकियासूचकम् 'दे' अथवा 'दो' रूपं व्याप्रियते एव । ९ पोत्ति को हे त । १० मो को त । ११-" 'अन्नभोग भोगेहि' ति एवमपि योज्यते ततच लोकरूडकारान्यप्रकारेण भोगः आसेवनम् अन्यभोगः तेन अन्यभोगेन भोगः परिभोगो येषां नानि तथा तैः " म० हे० वृ० गा० २५९९ पृ० १०३७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५६६ तथा-- जिणकप्पाजोग्गाणं 'हि-कुच्छपरीसहा जतोऽवस्सं । ही' लज्जति एसो संनमो तदत्थे विसेसेणं ॥३०८६॥ . जिणकप्पा० गाहा । जिनकल्पायोग्यरेदंयुगीनपुरुषैः वस्त्रधारणं कार्यम् , ही-कुत्सापरीषहदोषनिवारणत्वात्, अनित्याऽशरणादिद्वादशानुप्रेक्षाधार[ण]वत, रतिवाक्यचूलिकाध्ययनबद्वा । अथवा गाथाश्चार्धम् –'ही लज्जा' इति संयमस्याख्या, तदर्थत्वात् -संयमार्थत्वाद् आचाराध्ययनवत् ।। ३०८६॥ जति जिणमतं पमाणं तुह तो मा मुयमु वत्थ-पत्ताई । पुव्वुत्तदोसजालं लम्भिसि मा समितिघातं च ॥३०८७।। जति जिण० गाहा । जिनमतप्रमाणकेन भवता वस्त्र-पात्रे न मोक्तव्ये पूर्वोक्तदोषजालपरिहारसमर्थत्वात् , समितिभङ्गनिवारणशक्तत्वाच्च, जिनमतवत् ।।३ ० ८७। कदाचिद् वस्त्र-पात्रयोः समितिभङ्गनिवारणशक्तत्वं नास्तीत्यसिद्धहेतुत्वं मन्येत परः, तत्प्रसाधनार्थमियं गाथा-- अणुपालेतुमपत्तो सत्तो ण समत्तमेसणासमिति । वत्थरहितो ण समितो णिक्खेवादाणवोसम्गे ॥३०८८।। अणुपाले० गाहा । पात्रविरहितः पाणिपुटभोजी एपणासमितिभङ्गमवश्यं लभते संसक्तसक्तुगोस ग्रहणेऽवश्यंभाविसप्राणातिपातत्वात्, खाडहिलामूषिकावत् । पात्रं तु संसक्तगोरसादिग्रहणेऽपि समितिभङ्गं निवारयति, प्राणातिपा. तरक्षणोपायत्वात् एपणासमितिज्ञानक्रियावत् । वस्त्रहितश्च निक्षेपाऽऽदानव्युत्सर्गसेमितिष्वसमितः, अनुत्पन्नातिश् यज्ञानत्वे सति निक्षे-याऽऽदेयव्यवसृस्व( ० यव्युत्सृज्य, द्रव्यरहितत्वात् ।।३०८८॥ इय पण्णवितो वि वढं सो मिच्छत्तोदयाकुलित भावो । जिणमतमसहिंतो छड्डितवत्यो समुज्जातो ।।३०८९।। तस्स भगिणी समुज्झितवत्था तध चेय तदणुरागणं । संपत्थिता णियत्था तो गणियाए पुणो मुयति ॥३०९०।। तीए "पुणो वि बद्धोर सेगवत्था" तयं पिछडन्ती । अच्छतु ते तेणं चिय समणु२०३-द्वि.णाता घरेसी य ॥३०९१॥ १-२ ही को हे त । ३ 'त्ति व सो त । ५ 'धं को हे त । ५ दशवै कालिकसूत्रे दशमाध्ययनसमाप्त्यनन्तरं 'रतिवाक्यचूडा' नामकमध्ययनं प्रथमचूलिकारूपं विद्यते । ६ अत्र प्रथमाङ्गरूपम् आचारनामकं सूत्रं प्रायम्। ७ लज्जिसि जे । ८°मसत्तो को ९ पत्तो हे । १. सग्गो त, सग्गा हे । ११ ग्रासमतिटमनितिः । भनु इति प्रती । १२ चेव को हे त । १३ वि पुगो त । १४ या पुगो विछ” को हे । १५ तया त । १६ छहिती को हे, छन्नन्ती त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५६८ ] निह्नवसामान्यम् । कोर्डिण्ण को दृवीरे पवावेसी य दोण्णि से सीसे । तत्तो परंपरप्फासतोऽवसेसा समुप्पणी ॥३०९२।। एवं एते मॅणिता ओसप्पिणिए तु णिण्हया सत्त । वीरवरस्स पश्यणे सेसाणं "पवयणे णस्थि ।।५६७।३०९३।। इय पण्णवितो गाहा । इत्यादि सर्वं स्फुटार्थमेव ॥३०८९-९३।। "मोत्तूर्णं अउ एक्कं सेसाणं जावजीविया दिट्टी । ऐक्केकस्स य एत्तो दो दो दोसा मुणेतव्या ॥५६८॥३०९४॥ मोत्तूण गोहमाहिलमण्णसिं जावजीवसंवरणं । कम्मं च बद्धपुढे "खीरोतं वऽत्तणा समयं ॥३०९५॥ मोतूण अउ एक्कं । अतोऽस्मात् सप्तकादेकं मुक्त्वा गोप्टामाहिलं शेषाणां षण्णां निवानां प्रत्याख्यानं प्रति यावजीविका दृष्टिः-यावजीवं प्रत्याख्यानमित्यर्थः । गोष्टामाहिलस्याऽपरिमाणम् । एकैकस्य परस्परविवादे दो दो दोपौ ॥३०९४-९५॥ कथमिति ! तद् दर्यतेमोत्तुं जमालिमण्णे वेन्ति कडं कज्जमाणमेवं तु । एक्केक्को एक्केरकं णेच्छति य अबद्धि भी दाणि ॥३०९६॥ अपरोप्परं समेता दो दोसे देन्ति एक्कमेक्कस्स । परमतसंपडिवत्ती" विडिवत्तिं च समतम्मि ३०९७॥ आवद्धियस्स दोसे देन्ति तओ सो वि तिणि अण्णस्स । तिप्पभिति" तु समेता दोसे तिप्पभितेओ देन्ति ।।३०९८॥ मोत्तं जमालिमपणे वेन्ति । अपरोप्परं समेता इत्यादि । जमालिनः क्रियमाणं न कृतमिति सिद्धान्तः, शेषाणां क्रियमाणं कृतमिति । यदा जमाली तिप्यगुप्तमन्यं १ कोण्डि' जे । २ कुट्ट त । ३ पज्जावे' हे । ४ सो को हे त । ५ 'पराफा' को त हे। ६ °णा ॥६०।६०२ इति वोटिकनामा अष्टमनिह्नववादः समाप्तः ।। छ॥ गणधरवादपर्यन्तं गाथा २०२६ । उभय २६२८॥ त । ७ कहिया दी। म । ८ उस' हे । ९ °णीए को हे दी हा। १० पव' हा । ११ मोत्तणमेसिमिती हा, मुत्तणमेसिमिकं म, मोतंगमेसिमिकं त । मोत्तणेओ जे। १२ °णेसो कोहे। १३ इकिल म । १४ इत्तो म । १५ खीरोदवदत्त' को हे । १६ अबु जे, अबको, अम्बदिओ त । १७ 'रसमे त। १८ वत्ति को हे। १९ विपडि हे । २० अब को हे, भग्न. ट्ठिय त । २१ भिई हे, भियं त । २२ भइए को हे, भिइओ त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ विशेषावश्यकभाष्ये (नि० ५६९चोपालभत्(त) तदैवं ब्रवीति-भवतो द्वौ दोषौ-यद् मदीयं सिद्धान्तं निदोषमपि नाभ्युपगच्छतोत्येष दोषः स्वमतिविप्रतिपत्तिः, यच्चात्मीय सदोषमपि प्रतिपद्यसे एप द्वितीयो दोषः परमतसम्प्रतिपत्तिरिति । गोष्टामाहिलस्य तु त्रीन् दोपानुद्भावयति एकैकः । सोऽपि चैषां त्रीनेव दोषान् ब्रवीति । यस्मात् गोष्टामाहिलस्याबद्धं जीवेन कर्म कञ्चुकवत् , शेषाणां बद्धपुष्टम्(स्पृष्टम् )जीवेन सहैक्यापत्तेः क्षीरोदकवत्। अतः पूर्वोक्तौ च द्वौ दोषौ, तृतीयोऽयम्-अबद्धं कर्मेति । सोऽप्याह-भवतामपि पूर्वोक्तौ दोषो, अयं तु तृतीयः-कर्म बद्ध. पुष्ट(स्पृष्ट)मात्मना सहेति एवं द्वयोर्विसंवादे । अथ त्रिप्रभृतीनां विसंवादे वस्तुतस्त्रिप्रभृतय एव दोषाः । गोष्ठामाहिलस्यैकवृद्धास्त एवेति ॥३०९६-९८।। सत्तेता दिट्टीओ जातिजरामरणगब्भवसधीणं । मूलं [२०४-०] संसारस्स तु हवंति' णिग्गंथरूवेण ः।।५६९॥३०९९॥ पवयणणीहूताणं जं तेसिं कारितं जहिं जत्थ । भज्जं परिहरणाए मूले तध उत्तरगुणे य ।।५७०॥३१००॥ जत्थ विसेसं जाणइ लोगो तेसिं च कुणइ भत्ताई । तं कप्पइ साहूर्ण सामण्णकयं पुणेरकप्पं ॥३१०१॥ मिच्छट्ठिीया णं जं तेसि कारियं जहिं जत्थ । सव्वं पि तयं सुद्धं मूले तह उत्तरगुणे य ॥५७१॥३१०२ ॥ भिण्णमतलिंगचरिता मिच्छदिहि त्ति बोडियाभिमता । जं त कतमुद्दिसितुं तं कप्पति जं च जति जोग्गं ॥३१०३।। सत्तेता दिट्टीओ इत्यादिगाथाः पञ्च स्फुटार्थाः ॥३०९९-३१०३॥ एवं समवतारप्रसङ्गागतनिह्नवः समाप्तः । ॥ समवतारद्वारं समाप्तमिति ॥ अथैतदनन्तरमनुमतद्वारविचारः । दर्शन-ज्ञान-चारित्रसामायिकत्रये कस्य किं सामायिक मोक्षमार्गः ! इत्यनुमतम् । अत्र सूत्रगाथा तवसंजमो" अणुमतो "णिग्गंथं परयणं च ववहारो। सदुज्जुसुताणं पुण णेवाणं संजमो चेव ॥५७२॥३१०४॥ कस्स णयस्साणुमतं किं सामइयमिह ? मोक्खमग्गो त्ति । भण्णति णेगम-संगह-ववहाराणं तु सव्वाई ॥३१०५॥ १ वन्ति को, भवं' हा दी। २ नगन्य को । ३ वेण हे । ४ निहू है। ५ पुण अक को। ६°च्छाद्दिढि हे। च्छादिढि दी महा। ७ जया म । ८ अत्र ३१.१ तथा ३१०२ इति गाथाद्वयं प्रत्यां नास्ति । ९ जोग को। १०°न्तरंऽनुम-इति प्रतौ । ११ 'मोऽणुम १२ नेग्गं हे । १३ निव्वा हे दी म हा । १४ सामा' हे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५७२] अनुमतद्वारम् । ५९९ तवसजेमो चरित्तै णिग्गं| पवयणं ति सुतणाणं । तग्गहणे सम्मत्तं चग्गहणातो ये बोद्धव्वं ॥३१०६॥ तिणि वि सामइयाई इच्छन्ता [२०४-द्वि०] मोक्खमग्गमाइल्ला । किं मिच्छद्दिट्ठीया वदंति जमसमुदिताई पि ।।३१०७।। उज्जुसुतादिमतं पुण णेव्वाणपधो चरित्तमेवेगं । ण हि गाणदंसणाई भावे वि ण तेसि जं मोक्खो ॥३१०८॥ जं सव्वणाणदंसणलाभे वि ण तक्खणं चिय विमोक्खो । मोक्खो य सव्वसंवरलाभे मग्गो स एवातो ॥३१०९॥ तवसंजमो अणुमतो इत्यादि । अस्य भाप्यगाथा: पञ्च-कस्स णयस्साणुमतं इत्यादि । तपश्च संयमश्च तपःसं यमौ प्राकृते द्विवचनाभावादेकवेन वा निर्देशो बहुत्वेन वा । तपःप्रधानो वा संयम इति तप: चारित्रसामायिकमेवं निर्दिष्टं भवति । नि(नै)न्य वचनमिति श्रुतसामायिकं परिगृह्यते । एपां च पूर्वस्य लाभ भजनीयमुत्तरम् उत्तरलाभ तु नियतं पूर्वलाभ इति । एतद्वितय परिग्रहात् सम्यग्दर्शनावश्यंभाव इति सम्यक्त्वसामा. यिकमिति(मपि) परिगृहीतमेवम् । अथवा 'च'शब्द:- अधिकवचन द्वितयादधिक-सम्यक्व. सामायिकं परिगृह्णाति । व्यवहारग्रहणेन द्रव्यार्थविषयं नैगम-संग्रह व्यवहारनयत्रिकं परिगृह्यते विस्तरग्रन्थानुसारात् । अतः सर्वाणि सामायिकानि नैगम-संग्रह व्यवहा. राणां मोक्षमार्ग इत्यनुमतानि ।। अत्राह कश्चित्-तिण्णि वि गाहा । नैगम-संग्रह-न्यवहारा: त्रयोऽपि सम्यगदृष्टयः प्राप्ताः, त्रिविधमोक्षमार्गाभिधायित्वात् , नयसमूहबचनवत् । एवं चानिष्टापादनमाहे तस्य क्रियते अभ्युपगमविरोध इति कृत्वा । अत्र प्रतिविधीयते-त्रिविधमोक्षमार्गाभिधायित्वादिति को हेत्वर्थः ! किं समुदितानि परस्परसापेक्षाणि त्रिफलावत् त्रीणि सामायिकानि मोक्षमार्गमित्यभिदधति एते नयाः ? आहोस्विद्यथा कथञ्चित् त्रीणि समुदितानि वा ? पूर्वस्मिन् पक्षे असिद्धे(द). हेतुत्वमपक्षधर्मत्वात् । द्वितीयपक्षे साधनधर्मशून्यो दृष्टान्तः, सर्वनयस तूहस्य परस्पर सापेक्षाण्येव त्रीण्यपि सामायि कानि मोक्षमार्ग इति । तस्मात् मिथ्या दृष्टयो नैगमाद. यस्त्रयः, असमुदितत्रितयमोक्षमार्गाभिधायित्वात् , वैशेषिकादिवत् । । अथ सूत्रगाथापश्चाईस्य भाष्यगाथा-°उज्जुसुतादि० । ऋजुसूत्रादीनां शेषनयानामुत्तरोत्तरविशुद्धया चारित्रसामायिकमेवैकं मोक्षकारणम् , तद्भावे भावात् , ज्ञानदर्शनभावेऽप्यभावात् , घटनिवृत्तौ कुम्भकारे(र)यत्नवत् । एतदन्वयप्रदर्शनाय वैधर्म्यप्र१ °जमा जे, जमो त्ति को हे । २ °रितं को हे । ३ गाथं को। ४ तग्ग' त । ५ व जे । ६ छंता को है । ७ निव्वा हे। ८ तास हे । ९ °लम्मे को, 'लभे हे त । १. लाभो जे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५७२दर्शनाय च गाथा-जं सव्वणाण० गाहा । क्षायिकसम्यादर्शन-सर्वज्ञाने न मोक्षमारणे, तत्सन्निधानेऽपि अभूतत कार्यत्वात् , यत्नरहितदण्डचक्रादिवत् । चारित्रमेव सर्व संवरक्रियारूपं मोक्षकारणम् , त सन्निधानानन्तरमेव भूत कार्यत्वात् , कुम्भनिर्वतककुम्भकारप्रयत्नवत् । तस्मात् सर्वः (स) एव सर्वसंवर एको मोक्षमार्गः ॥३१०४-९॥ अत्राह पूर्वनयवादीआह णणु णाणदंसणरहितस्सं ण सव्यसंवरो दिह्रो । तस्स पि तस्से तो तम्हा तितयं पि मोक्खपधो ॥३११०॥ आह णणु गाहा । ज्ञान-दर्शने संवरकारणे, तत्सद्भावे जायमानत्वात्, घटस्य मृदादिवत् । तस्मात् सर्वज्ञान-दर्शन-संवराणां कार्यों मोक्षः, तद्भावनावित्वात् मृदण्डचक्रप्रयत्नकार्यघटवत् ॥३११०।। अत्रोच्यतेजति तेहि विणा णस्थि त्ति संवरो तेण ताई तस्सेव' । जुत्तं कारणमिह ण तु संवरसज्झस्स मोक्खस्स ॥३१११।। जति तेहि विणा णथि त्ति। यदि ज्ञान-दर्शनाभ्यां विना सर्वसंवरो न भवति तयोश्च सतोर्भवति ततः किमायातं मोक्षस्य ? स एव सर्वसंवरस्तयोः कार्यमिति संवरस्यैव ते कारणे भवेताम् , न तु संवरसाध्यस्य मोक्षस्य, व्यवहितत्वात् , घटकारणमृदुपकारिजलवद् घटस्य ॥३१११॥ अध कारणोवकारि त्ति कारणं तेण कारणं सव्वं । भुवणं णाणादीणं जतिणो णेयातिभावेणं ॥३११२।। अध कारणोवकारि त्ति ज्ञान-दर्शने मोक्षकारणे तःकारि(२)गोपकारित्वात् घटकारि(र)णोपकारिजलवत् । एवं तनिष्ट मतिप्रसङ्गात्-सर्वमपि जगत् मोक्षकारणं प्राप्त भवन्मते कारि र णोपकारित्वात् , ज्ञान-दर्शनवत् । कथं जगत् मोक्ष कारणोपकारि ? इति चेत् , उच्यते-ज्ञेयभावेन यतेनि-दर्शनोपकारि वर्तत इति ।।३११२॥ तथ साधणभावेण वि देहातिपरंपराए वहभेतं । ‘णेव्वाणकारणं ते णाणातितियम्मि को णियमो ? ॥३११३।। तध गाहा । साधनभावेनापि ज्ञान-दर्शनयोश्च देहः उपकारे (वर्तते), देहस्याहारः, आहारस्य शाल्यादिः, शाल्यादेः पृथिव्यादिमहाभूतगण बलीवई-कर्ष कादिः, कालश्चेति १ धानेवंतर- इति प्रतौ । २ 'स्मेव सव्व हे। ३ सहियस्से को हो र जे । ५ तेहिं को हे । ६ °स्सेय जे । ७ राइ को हे । ८ नि' हे । ९ भावे विज्ञाइति प्रतो । १० 'ल्यादिम्पकारादिशा” इति प्रतौ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५७३] किमिति द्वारम् । ६०१ किमिति ज्ञान-दर्शन-चारित्रत्रयं मोक्षकारणमिति नियम्यते ? सर्वमपि जगत मोक्षकारणमित्यतिप्रसङ्गः ।।३११३।। अध पच्चासण्णतरं हेतु' णेतरमिहोवकारि पि । तो सव्वसंवरमयं [२०५-० चारित्तं चेय मोक्खपधो ॥३११४॥ अध पच्चासण्णतरं । अथै नदोषभयात् प्रत्यासन्नतरं कारणमिप्यते-नेतरदु. पकारपरंपरात्मकं तस्माद् दरम्-सर्व संवर एव मोक्षकारणं प्रतिपत्तुम् प्रत्यासन्नतरत्वात् , घटपर्यायानन्तरनिर्वर्तकावस्थावत् । तस्मान्निश्चयनयवक्तव्यं सर्वसंवरम यचारित्रमेव मोक्षपथः ।।३११४॥ अपि च - इट्टत्थसाधयाई सदहणादिगुणतो समेताई।। सम्मकिरियाऽऽतुरस्स व इह पुण णे व्याणमिट्टत्यो ॥३११५।। इट्टत्थ० गाहा । इष्टार्थसाधकानि ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि समेतानि; ज्ञानादेस्संवरस्वभावत्वात् आतुरस्येष्टार्थसाधनसम्यचिकित्सावत् । इहेप्टार्थः परिनिर्वाणम् ॥३११५|| || अनुमतद्वारं गतम् ।। अथ द्वितीया द्वारगाथा-- किं कइविहं ! गाहा [१४८३] । तस्यामनुक्रमेण किमिति प्रश्नहारम्कि सामइयं जीवो अज्जीवो दव्वमध गुणो होज्ने । कि "जीवमजीवमयं होज तदत्यंतरं व त्ति ॥३११६।। किं सामइयं जीवो अज्जीयो । किं सामायिकम ! इति सामायिकपदार्थ स्वरूपपरिप्रश्नः । सत्पदार्थत्वे निजाते द्वयोः सन्देहः जवानीववैविध्यात् । जीववे अजीवश्वे वा निर्धारित द्वितयमुपालवते-द्रव्यं गुणो वा अथवा द्वाभ्यामपि जीवाजीवाभ्यां निर्वृत्तं जीवाजीवमयं भवेच्छरीरवत् अथवा गीवाsजीवयतिरेकादर्थान्तरमेवाभाव एवं सामायिकम्, वन्ध्या पुत्रादिवत् स्यात्।.३११६।। एवं भावाभावविषयप्रश्नप्रतिवचनगाथा -- आता खलु सामइयं पच्चक्खायंतो हबति आता । तं खलु पच्चक्खाणं "आवाते सव्वदव्याणं ॥५७३॥३११७॥ सदहति जाणति जतो पच्चक्खायंतओ में जं जीयो । णाजीवो णाभावो सो चिय सामाइयं "तेणं ।। ३११८।। १ हेउ हे । २ चेव को हे त। ३ 'गाई जे को । ५ मि. हे । ', 'मित्वट्ठो को । ६ ज्ञानविसंचर-इति प्रतौ। ७ आतुरारष्टा-इति प्रतौ । ८ अजो हे । २ 'जा है । १० जीवाजी' को हे त । ११ आयाए हे। १२ जओ जी हे त। १३ णोऽजी' त । १४ तेण को हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५७४__आता खलु सामइयं । सदहति जाणतीत्यादि । आत्मा जीवः–'खलु' शब्दोऽवधारणे --जीव एवं सामायिकम् , न अ जीवः, न वा जीवाऽजीवो, न वा तदर्थान्तरमभाव इति । सोऽपि न सर्व एव जीवः सामायिकम् किन्तु विशिष्टगुण एव-प्रत्याचक्षाणः- प्रत्याख्यानं कुर्वन् , क्रियमाणं कृतमिति वर्तमानस्यैवातीतभावापत्तेः कृतप्रत्याख्यानोऽपि जीवः परिगृह्यते । स एव च परमार्थतः आत्म। स्वस्वभावाऽऽपत्त्यभिमुखत्वात् , शेषः संसारी आत्मैव न भवति घातिकर्मभिः स्वाभाविकगुणतिरस्करणात् । एतदर्थप्रतिपादनाय द्वितीयः 'आत्म' शब्द इति । ते च स्वाभाविका गुणाः श्रद्धानम् ज्ञानम् सावद्ययोगविरति चेति । तस्माच्छूदान ज्ञान-प्रत्याख्यानधर्मत्वाज्जीव एवं सामायिकम् । तं खलु पच्चकखाणं खलु शब्दो वाक्यालङ्कारेऽपि प्रयुक्तस्तद्भावपरिणत्यनन्यत्वज्ञापनार्थः, शब्दाधिक्या दाधिक्यं गम्यत इति ।।३११७-१८। तस्य भाष्यगाथा --- सामाइयभावपरिणतिभावानो जीव एव सामइयं । सद्धेयणेयकिरियोवयोगतो सव्वदाई ॥३११९।। सामाइय० गाहा । तत् प्रत्याख्यानं जीवादनन्यभावपरिणतेविषयरूपेण सर्वव्याणामापाते आभिमुह्येन समवाये संघाते निप्पद्यते, श्रद्धेय ज्ञेय-क्रियोपयोगित्वात् सर्व द्रव्याणाम् ॥३११९॥ ___ तदेव विभागेनाख्यायते-- पढमम्मि सचजीवा 'वितिये चरिमे य मवदव्याई । सेसा महन्वता खलु तदेकदेसेणं दवाणं ॥५७४॥३१२०॥ जं सबजीवपालगविसयं पाणातिवातेवेरमणं । मिच्छा मुच्छोवरमा सव्व्वे सु विणियुत्ता ।।३१२१॥ पढमम्मि सव्वजीवा । जं सव्वनीवपालण विसयं । यस्मात् त्रसस्थावरसूक्ष्मस्थूलसर्वजीवपालनविपयं प्राणातिपातविरतिवतं तस्मात् प्रथमे व्रते सर्वजीवा विषयत्वेन संगृहीताः । मिथ्या अनृतं मृषेति पर्यायाः । मूर्छा गृद्धिः परिग्रह इति पर्यायाः । मिथ्या च मूळ च मिथ्यामू: ताभ्यामुपरमो विरतिः मिथ्या-मूछों. परमो द्वितीये चरमे च व्रते । तयोः सर्वदयपरिग्रहः, सर्वव्यापलापान् अन्यथाप्ररूपणाद्वा मृषावाद विषयः, सर्वं ममेदं भुवनत्रयमिति लोभाविःकरणात् परिग्रहविषयः ॥३१२०-२१॥ १ कुवन्त-इति प्रतौ । २ 'भापत्त्यभिमुखत्वान्' अत्र आपत्तिः-आपादनम्-प्राप्तिः । ३ सामतिय जे । ५ 'यभेय त । ५ मंमि हा । ६ बीए त हे म। ७ देगदे हे, 'दिक्क म । ८ देसाण त । ९ वाइवे त । १. "व्यदव्व जे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०३ मि० ५७५] किमिति द्वारम् । रूवेसु सहगतेमु य वंभवतं गहण[२०५-द्वि०]धारणिज्जेस । ततियं छट्ठवतं पुण भोयणविणिवित्तिवावारं ॥३१२२।। एवं चरित्तैमेअं सव्वव्यविसयं तध सुतं पि । देसे देसोवेरती सम्मत्तं सबभावेमु ॥३१२३॥ ___ रूवेसु गाहा । ब्रह्मवतमब्रह्मचर्यविरतिश्चतुर्थ व्रतम् । तद् उपविषयम् , रूपम्-मूर्तिरित्यर्थः--न वर्णमात्रम्, मूतं च स्त्री-पशु-पण्डकादि । तत्सहगतं तदेकदेशस्तन-नयनादि तस्य प्रशंसा तदभिधानम् पूर्वरतानुकीर्तनं वा । ग्रहणधारणयोग्यं ग्रहण(णीय, धारणीयं मूर्तद्रव्यमेव । तस्यापहारविरतिस्तृतीयत्रतं ग्रहण(णीय धारणीयद्रव्यविषयम् । षष्ठवतं रात्रिभोजनविरति जननिवृत्तिव्यापारात्मकम् । एवं सर्वचारित्रं विनिवृत्त्या सर्वद्रव्यविषयमिति । चारित्रसामायिकस्य विषय उक्तः । श्रुतसामायिकमपि श्रुतज्ञानात्मकत्वात् सर्वद्रव्यविषयमेव । सर्वव्याणां एकदेशे देशोपरतिः चारित्राचारित्रसामायिकम् । सम्यक्त्वसामायिकं पुनः सर्वभावेषु भावग्रहणात् सर्वव्याणि सगुण पर्यायाणि अभिलाप्याऽनभिलाप्यपर्यायसहितानि श्रद्धेयानीति सम्यक्त्वविषयः । मृपावाद विरतिस्तु अभिलाग्यपर्यायविषयैव, वाग्गोचरत्वात् । अत इह सर्वभावग्रहणं युक्तम् ॥३१२२-२३॥ किं तं ति पत्थुते किं विसयचिंताएं भण्गति तओ वि । सामाइयंगभावं जाति जतो तेण तग्गहणं ॥३१२४॥ किं तं ति पत्थुते किं सामायिकम् ! इति प्रस्तुतेऽन्यदेवाऽप्रस्तुतं विषयनिरूपणमन्याय्यम्, अप्रस्तुत वात, बाह्य शास्त्रवत् । मप्यते आचार्येण-अप्रस्तुतस्वादियसिद्धो हेतुः । तथा चानुमानम् - सामायिकस्य विषयनिरूपणमपि प्रस्तुतमेव, सामायिकाङ्गभूतत्वात् , सामायिकात्मवत् । 'तओ वि' सोऽपि विषयः प्रस्तुत एवे. त्युक्तं भवति । एवं तावत् सामायिकम्-अजीवादिव्युदासेन एव-जीवः इत्युक्तम् ॥३१२४॥ दव्वं गुणो त्ति भइतं सामाइय सव्वणयमताधारं । तं दवपज्जवढियणयमतमंगीकरेतूणं ॥३१२५।। तच्च सामायिकं नयमतभेदाद् द्रव्यमपि गुणोऽपीति भजनाप्रापितं सर्वनयमताधार इति द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयमङ्गीकृत्य विभन्यते ॥३१२.५।। जीवो गुणपडिवण्णो णयस्स दवटि यस्स सामइयं । सो चेव पन्जवण यहि यस्स जीवस्स एस गुणो ॥५७५।।३१२६॥ १ °सु बं को, सु वं' है । २ चारित्तमिअंत, चारित्तम को है । ३ 'व्वद हे।। 'सोविर' त । ५ 'येवेवा-इति प्रतौ । ६ च त । ७ ताइ त । ८ सामइयं को है। ९ 'द्वियनयस्स को हे म दो । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्ये इच्छति जं दव्वणयो दव्वं तच्चमुवयारतो य गुणं । सामइयगुणविसिहो तो जीवो तस्स सामइयं ।। ३१२७|| पज्जायो चि वत्युं तच्चं दव्वं ति तदुवयारातो । पज्जयणयस्स जम्हा सामइयं तेण पज्जायो ॥३१२८ ॥ ६०४ जीवो गुण० गाहा । यस्माद्द्रव्यनयो द्रव्यार्थिको द्रव्यमेव तत्त्वं परमार्थमितीच्छति, गुणस्तस्य नयस्योपचारमात्रम् संव्यवहारमात्रमित्यर्थः, तस्मात् सामायिकगुणविशिष्टः- सामायिकगुणं प्रतिपन्नः तद्भाव परिणामाजीवद्रव्यमेव सामायिकमिति । द्वितीयस्य तु पर्यायार्थिकनयस्य पर्याय एवं सामायिकादिर्गुणः परमार्थः - वस्तुस्वरूपमित्यर्थः, गुगानां समुदायमात्रं द्रव्यमित्युपचारतः, तस्मात् सामायिक गुणः, न द्रव्यं नाम किञ्चित् ।। ३१२६ - २८॥ पज्जायणयमतमिणं पज्जायत्यैन्तरं कतो दव्वं । उवलंभव्ववहाराभावा [२०६ - प्र० ] तो खरविसाणं व ।। ३१२९ ॥ पज्जायण० गाहा | द्रव्यं परपरिकल्पितं नास्त्येव पर्यायार्थान्तरत्वात्, खरविषाणवत् । अथवा पर्यायव्यतिरेके गानुपलभ्यमानत्वात्, अव्यवहार्यत्वाद्वा खरविषाणवत् ॥३१२९॥ जध रूवातिविसिहो ण घडो सव्वप्यमाणविरहाती । तध णाणातिविसिद्धो को जीवो णामऽणक्खेयो || ३१३० ॥ [नि० ५७६ जध रुवाति० गाहा । ज्ञानादिगुणेभ्योऽर्थान्तरभूतो जीवो नास्त्येव, प्रमाणानुपलभ्यमानत्वात्, अनुपाख्यत्वात् रूपाद्यर्थान्तरभूतघटवत् । एवं च को जीवो नाम अनाख्येयः ! अभाव एवेत्यर्थः || ३१३०|| उपज्जेति वियंतिय परिणम्मन्ति य गुणा ण दव्वाई | दन्वभवा य गुणा ण गुगप्पभवाई दव्वाई ।। ५७६ ।। ३१३१ ।। उप्पात - विगमपरिणामतो गुणा पत्त- - णीलतादि व्व । रांति ण तु दव्यमिदं तत्रिरहातो खपुष्कं व ।। ३१३२ ॥ उप्पज्जेति वियंतिय । उत्पाद - विगमपरिणामतो गुणा एव च केवलाः सन्ति, उत्पाद - विगमपरिणामत्वात् पत्र- नीलतादिवत् । न नाम तत्र पत्रादि किश्चिद् द्रव्यमस्ति नीलादिगुणव्यतिरिक्तत्वात् खपुष्पवत् । द्रव्यं प्रभवो येषां ते द्रव्य १ णे हे त । २ च हे त । ३ ' या जे ४ स्थंत को दे । ५ वयं को हाम दो । चत । ६ "मं' को दे दी। णम्मं' हा 'णामं' म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५७६] किमिति द्वारम् । ६०५ प्रभवा न भवन्ति गुणाः, किन्तु गुणसमुदये द्रव्योपचारात् गुणप्रभवाण्येव द्रव्याणीति ॥३१३१-३२॥ ते जप्पभवा जं वा तप्पभवं होज्ज होज्ज तो दव्वं । ण य तं ते चेये जतो परोप्परं पच्चयप्पभवा ॥३१३३।। ते जयभवा० गाहा । ते गुणास्त्वदभिप्रायेण यत्प्रभवाः यद्वा द्रव्यं गुण प्रभवम् - गुणसन्द्रावो द्रव्यमिति । यद्येवं भवेत् , ततो द्रव्यमस्तीति सम्भाव्येत । न च तत् तथा, उभयथाऽपि-परमार्थतः, उपचारतो वा द्रव्यं पर्यायनयमते । किं तर्हि ! यतस्त एव परस्परं प्रतीत्यसमुत्पादात् प्रत्ययप्रभवा गुणा इति ॥३१३३॥ अत्राह परःआहाऽवक्खाणमिदं इच्छति दयामिह पज्जयणयो वि । किंतऽच्चन्तविभिण्णे मण्णति सो दव्व-पज्जाए ॥३१३४॥ आहाऽवक्खाणमिदं । आह-अव्याख्यानमिदम्-गुणमात्रं सर्वमिति । त(य)स्मात् पर्यायनयोऽपि द्रव्यमिच्छत्येव-गुणसन्तानं गुणप्रभवमिच्छन्नपि चात्यन्तभिन्न जातीयमिच्छति द्रव्यं गुणेभ्यः, परस्पर भिन्नस्वभावत्वात्, गजाश्वादिवत् ॥३१३४॥ भिन्नस्वभावत्वहेतुव्याख्यानगाथाउप्पातातिसभावा पज्जाया जं च सासतं दव्यं । ते तप्पभवा गं य तं तप्पभवं तेण ते भिण्णा ॥३१३५।। उप्पातातिसभावा । उत्पाद-विगमपरिणामस्वभावाः पर्यायाः, शाश्वतं ध्रुवस्वभावं द्रव्यमिति भिन्नस्वभावता । तस्मात्ते गुणाः सुवैद्रव्यात्प्रभवन्ति, न पुनद्रव्यं चलस्वभावेभ्यो गुणे यः प्रभवति । तेन ते द्रव्याद् गुणा भिन्नाः ॥३१३५।। जीवरस य सामइयं पज्जायो तेण तं तओ भिण्णं । इच्छति पज्जायणयो वक्खाणमिदं जपत्थन्ति ॥३१३६।। जीवस्स य सामइयं पज्जायो । जीवस्य च द्रव्यस्य शा वतभावस्य सामायिकमशाश्वतं पर्यायः, तेन भिन्नस्वभावत्वाद् भेदप्रधानः पर्याय नय इच्छतिभिन्नमेतद्र(द् द्वयम्-जीवस्यैष गुण इति यथार्थ व्याख्यानम् ॥३१३६॥ १ चेव को। २ रप्पच्च को, रपच्च हे । ३ हारक त । ४ ज्जवण को हे त । ५ 'तब्वन्त जे । ६ ण तयं त° को हे । ७ ध्रुवाः द्रव्याः -इति प्रतौ। ८°व इति-इति प्रतौ । ९ यो जं च सासयं दव्वं को। १० मिणं त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ विशेषावश्यकभाष्ये [नि०५७६जति पज्जायणेयो चिय सम्मण्णति दो वि दव-पज्जाए। दव्वडिओ[२०६-द्वि०किमत्थं जति वै मती दो वि जमभिण्णे ॥३१३७॥ इच्छति सो तेणोभयमुभयग्गाहे वि संति पिधन्भूतं । मिच्छत्तमिहेगंतादेगत्तण्णत्तगाहाओ ॥३१३८॥ जति पज्जायणयो च्चिय । यद्यस्मिन्ना(न् व्याख्याने पर्यायनय एव संमन्यते दैव्यं पर्यायांश्च, ततः किमिति द्रव्यार्थिकनयः परिकल्प्यते ? यदि चैपा बुद्धिः-द्रव्यार्थिकनयस्तान् द्रव्य-पर्यायानभिन्नामि(नि)च्छति, पर्याय नयस्तु भिन्नानिति विशेषार्थमुभय द्रव्य-पर्यायनयो(याभ्यां) परिगृह्यते । उभयग्राहेऽपि सति न वस्तुपरिपूर्णता, यतो मिथ्यात्वमेकान्तेन द्रव्य-पयायैकत्वान्यत्वग्राहो ॥३१३७-३८॥ एगत्ते गणु दव्यं गुणो त्ति परियायवयणमे त्तमितं । तम्हा तं दव्वं वा गुणो व्वे दयहियग्गाहो ॥३१३९।। एगते णणु गाहा । एकत्वग्राहे 'द्रव्यम्' 'गुणः' इति च शब्दभेदमात्रं पर्यायवचनमेव अभिन्नत्वात्, घट-कुटवत् । एष द्रव्यार्थिक नाह(हो) मिथ्यादर्शनम् ।।३१३९।। जति भिण्णोभयगाही पन्जायणयो तदेगपक्सम्मि । अविरुद्धं चेय तयं किमतो दनहियणएण ।।३१४०॥ जति भिण्णोभयगाही। यदि भिन्नद्रव्य-पर्यायग्राही पर्याय नय] एवास्ति, ततो द्रव्यार्थिकनयोऽनर्थक एव, व्यस्य पर्याय मतेनैव प्रतिपादितत्वात्, पुनरुतवचनवत् ॥३१४०॥ तम्हा किं सामइयं हवेज्ज दव्वं गुणो त्ति चिंतेयं । दवटियस्स दव्यं गुणो तैयं पज्जवणयस्स ॥३१४१॥ तम्हा किं सामइयं गाहा । सामायिक द्रव्यं भवेद् गुणो दि(वे)ति चिन्तायां द्रव्यार्थिक उपयुज्यते । तस्य द्रव्यं सामायिकमिति निर्वचनात् । पर्याय नय]स्य गुणः सामायिकमिति । किमिति प्रश्नो निरुक्तो भवति ॥३१४१ इधरा जीवाणण्णं दनणयस्सेतरस्स भिण्णं ति । उभयणयोभयगाहे घडेज्ज णेक्क्क गाहम्मि ॥३१४२।। इधरा जीवाणगं । इतरथा सामान्यतः सामायिकचिन्तायां जीवादनन्यत् द्रव्यार्थिकस्य, जीवादर्थान्तरं पर्यायनयस्येति एकमपि न घटते उभयनयस(सा)माना. १°नउ कोहे । २ संम को हे। ३ वि त ४ । सयं को है। ५ ततो दम्या किं:इति प्रतौ । ६ गन्ते जे । ७ पउजाय का हे । ८ 'मित्त को हे । : ब को हे। १० अव जे। ११ चेव को ह त । १२ य तं को हे त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०७ नि० ५७६] किमिति द्वारम् । धिकरण्ये उभयात्मकत्वात् सामायिकमनन्य(न्यद्) जीवात् स्यादन्यदिति घटेत, नकैकग्राहे ॥३१४२॥ ननु चैतत् प्रश्ननिर्वचनमे केनैव पर्याय नयेन पूर्यते । यस्मात्-- णणु भणितं पज्जायद्वियस्स देव्यस्स एस हि गुणो ति । छट्ठीय ततो दव्वं सो तं च गुगो ततो भिष्णो ॥३१४३।। णणु भणितं पज्जायट्टियस्स । ननूक्तं पर्यायनयस्य जीवस्यैष गुण इति षष्ठया निर्देशात् भिन्नो गुणः सामायिकम् , गुणीव द्रव्यं भिन्नमिति किं द्रव्यार्थिकचिन्तायां द्रव्यप्रतिपादनायाम् ? ॥३१४३।। ___ यदुच्यते-- उप्पातभंगुराणं पतिक्खणं जो गुणाण संताणो । दव्योवयारमेति जति कीरति तम्मि त णाम ॥३१४४॥ ___उप्पातभंगुराणं । उत्पादानन्तरविनश्वराणां गुणानां प्रतिक्षणमपि समानबुद्धिहेतुः सभागसन्तति म सन्तानो यस्तस्मिन् यदि द्रव्योपचारमात्रं क्रियते ततस्तथा नाम कि नश्छिद्यते, द्रव्यं तावत् सिद्धम् ॥३१४४|| तभेतकप्पणातो तं तस्स गुणो ति होतु सामइयं । [२०७-०] पंण्णस्स णीलता जध तस्संताणोदितऽत्थमिता ॥३१४५॥ तभेतकप्पणातो । तस्य सन्तानिभ्योऽन्यस्य, म(य)तः स कल्पनातः, तस्य सामायिकं गुण इति कल्प्यताम् , पर्णस्य नीलता वर्णसन्तान एवोदिताऽस्तमितापर्ण नीलमित्युदिता, तस्मिन्नेव च पर्णे क्षणभङ्गरेऽपि पर्णसन्ताने पीततायामुप जातायां नोलता अस्तमिता-विनष्टा भवति, गुणस्वभावत्वात् ॥३१४५|| उप्पातभंगुरा जं गुणा य ण य सो त्ति ते य तप्पभवा । ण य सो तप्पभवो ति य जुज्जति तं तदुवयारातो ॥३१४६।। उप्पातभंगुरा जं । उत्पादभङ्गुरा गुणाः । न च सः सन्तान उत्पादभगुरः । तस्य प्रवाह नित्यतया स्थितत्वात् । तेन तत्प्रभवा गुणाः सन्तानप्रभवाः । एवं च द्रव्यप्रभवा गुणा इति व्याख्यातं भवति । न चासौ सन्तानो द्रव्यमिति कल्पितः तत्प्रभवः, गुणप्रभवो न भवति । अनेनैतदुक्तं भवति ---न गुणप्रभवाणि द्रव्याणीति तदुपचारायुज्यते व्याख्यानम् ॥ ३१४६॥ १ जीवस्स को ह त । २ "ऍ को, °ए ह, इ त । 'मेतं को ह, "मित्तं त । ४ तन्नाम को ह। ५ पत्त को ह त । ६ गोवित जे । - अनयेतदुः-प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ विशेषावश्यकभाष्ये [नि० ५७७अधवोदासीणमतं दवणयं पति ण जीवतो भिण्णं । भिण्णमितरं पति जतो पत्थि तदत्यंतरं जीवो ॥३१४७॥ अधवोदासीणमतं । अथवोदासीनद्रव्यार्थमतम् । उदासीनो मध्यस्थ उच्यते । आदिदव्याथों निर्विकल्पं सत्तामात्रम् , अन्त्यव्यार्थः कल्पितः सामान्यसन्तानः, मध्यदव्याथों व्यवहारोऽनुपचरितोभयः सामान्यप्रधानः इतरोपसर्जनः । तस्य मतम्जीवादनन्य(न्यत्) तत् सामायिकम् , भिन्नमितरस्य पर्यायनयस्य गुणप्रधानस्य, तस्माद् गुणादर्थान्तरं जीवो नास्त्येवेति ॥३१४७॥ बि'तियस्स दव्यमेत्तं णत्थि तदत्यंतर गुणो णाम ।। सामण्णावत्थाणाभावातो खरविसाणं व ॥३१४८।। वितियस्स दव्यमेत्तं । उदासीनदव्यादन्यस्य द्वितीयस्य द्रव्यार्थिकस्य आदिसङ्ग्रहात्मकस्य द्रव्यमात्रमेव सर्वम् , न गुणो नाम कश्चित् , सामान्यावस्थानरूपादन्यत्वात् , खरविषाणवत् ॥३१४८॥ आविन्भाव-तिरोभावमेत्तपरिणामिदव्यमेवेतं । णिचं पारूयं पि य णडो व्य वेसंतरावण्णो ॥३१४९॥ आविर्भाव-तिरोभाव विरूपम्] तासु तासु अवस्थासु भिन्नास्वपि तदेवैकं द्रव्यं नित्यम् , आविर्भाव-तिरोभावमात्रबहुरूपत्वात् , नानावेषान्तरापन्ननटवत् ॥३१४९॥ . अतश्चागमः जं जं जे जे भावे परिणमति पयोगवीससादव्वं । तं तध जाणाति "जिणो अपज्जवे जाणणा णस्थि ।।५७७॥३१५०॥ जं जं जे जे भावे । 'यद्यद् यान् यान् प्रयोगविनसात्मकान् पर्यायान् परिणमति बहुतत्वम् , तदेव तत्स्वभावकम् , प्रकाश्यत्वात् , परिणामित्वात् , केवलज्ञानस्वात्मवत् ॥३१५०॥ ज जाधे जं भावं परिणमति त यं तदा ततोऽणणं । परिणतिमेत्तविसिहं दैव्यं चिय जाणति निर्णिदो ॥३१५१॥ जं जाधे जं भावं परिणमति । यद् द्रव्यं यदा यं भावं परिणमति तत्तदा तस्मात् परिणामादनन्यत् , सत्त्वात् , वस्तुत्वात्, विचित्रैवंविधकेवलपरिणामाग्जिनेन्द्रवत् ।।३१५१॥ १ योय हे त । २ धन्त को । ३ रूवं को हे। ४ जाणेइ दी म । ५ जे त्या नास्ति । ६ यद्यदव्यं नान्यान्न-इति प्रतो । . तया तयं त° त। ८ सम्वं जे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि० ५७१] कतिविमिति द्वारम् । ण सुवण्णादण्णं कुण्डलाति तं चेअ तं तमागारं । पत्तं तव्ववदेसं[२०७-द्वि०] लभति सरूवादभिण्ण पि ॥३१५२॥ __ण सुवण्णादण्णं । न सुवर्णादन्यः कुण्डलाचाकारः, तदाकारत्वात् , कुण्डलाद्याकारस्वात्मवत् । अभिन्नमपि च तद्वयपदेशं लभते सुवर्णस्याधा(का)र इति न्यपदेशत्वात, कुण्डलस्याकार इति यथा ॥३१५२।। जति वा दबादण्णे गुणाततो गुण सप्पतेसत्तं । होज्ज व रूवादीणं विभिण्णदेसोवलंभो वि ॥३१५३।। जति वा दव्वादपणे। नान्यद् द्रव्यं गुणेभ्यः, गुणदेशत्वात् , गुणस्वरूपवत् । गुणदेशं द्रव्यं पृथग्भूतस्वदेशत्वात्, गुणस्वरूपवत् । नान्यद् द्रव्यं गुणेभ्यः, गुणदेशादन्यत्रानुपलभ्यमानत्वाद् , गुणस्वरूपवत् ॥३१५३॥ जति पज्जवोवयारो लयप्पयासपरिणाममेत्तस्स । कीरति तं णाम ण सो दनादत्थंतरभूतो ॥३१५४!! जति पज्जवोवयारो । विचित्राः पर्यायाः, द्रव्यमेवै कम्, तत्प्रलयप्रकाशपरिणाममात्रत्वात् , बुद्बुद जलस्वरूपवत् । उपचारमात्रमेव द्रव्यपर्यायाः, प्रलयप्रकाशमात्रत्वात् , बुबुदजलवत् ॥३१५४॥ दव्वपरिणाममेत्तं पज्जाओ सो य ण खरसिंगस्स । तदपज्जवं ण णज्जति जं गाणं णेयविसयं ति ॥३१५५।। दारं ॥ दव्वपरिणाममेतं । द्रव्यपरिणाममात्रं पर्यायः, ज्ञेयवाद बुदबुदवत् । अपर्यायं न ज्ञायते, अपरिणामत्वात् , खरशृङ्गवत् ।। ।।३१५५।। ॥किमिति द्वारं समाप्तम् ॥ कतिविधम् ! इति प्रस्तूयते-. सामाइयं च तिविधं सम्मत्त सुतं तथा चरितं च । दुविधं चेव चरितं ‘आकारमणकारियं चेव ।।५७८।।३१५६॥ अज्झयणं पि य तिविधं मुत्ते अत्थे य तभए चेव ।। सेसेसु वि अज्झयणेसु होति एसेव णिज्जुत्ती ॥५७९।।३१५७"। सामाइयं च गाहा । अज्झयणं पि य गाहा । सूत्रगाथाद्वयम् ।।३१५६-५७|| १°लाई को । २ °गम्पि को, न्नं ति हे। ३ णादओ को हे। १ नाना-प्रतौ । ५ पसाय को। ६ तन्ना को है । ७ पि को हे । ८ अगार को हे दी म हा, अका जे। ९ णगारि' को हे दी म। १० दी प्रती इयं गाथा मूलभाष्य गता । नियुक्तिगाथा इति हे प्रतौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० विशेषावश्यक भाष्ये अस्य भाष्यम् सम्मं णिसग्गतोऽधिगमतो य दसधा चे तप्पभेतातो । कारक रोचक दीवकमघवा खतिआतियं तिविधं ।। ३१५८ ।। सम्म णिसग्गतो गाहा । सम्मं सम्यग्दर्शनं द्विविधम्- निसर्गतश्चाधिगमतश्व अथवा तत्प्रभेदात्-अथवा निसर्गजमधिगमजं वा एकैकमौपशमिकम् सास्वादनम् क्षायोपशमिकम् वेदि ( द ) कम क्षायिकमिति पञ्चधेति कृत्वा । अथवा त्रिविधं सम्यग्दर्शनं कारकम् रोचकम् दीपकमिति । अथवा क्षायिकम् क्षायोपशमिकम् औपशमिकमिति कारणत्रयात् त्रिविधम् ॥ ३१५८ ॥ तत्थतदुभयाई बहुधा वा सुत्तमक्खरमुताति । खइयाति तिधा सामाइयादि वा पंचधा चरणं ॥ ३१५९ ।। श्रुतसामायिकमध्ययनं तत् त्रिधा सूत्रार्थतदुभयात्मकत्वात् । बहुधा वा सूत्रम् अक्षरादिभेदात् । चारित्रसामायिकं त्रिधा - क्षायिकम् क्षायोपशमिकम् औपशमिकम् चेति । पञ्चधा वा सामायिकम् छेदोपस्थाप्यम् परिहारविशुद्धिकम् सूक्ष्मसम्परायम् अथाख्यातमिति ॥ ३१५९।। दुविधतिविधादिणाऽणु [२०८ - प्र० ]ब्दाति बहुहे गदेस चारितं । वी सव्वाई पुणो पज्जेयतोऽणंतभेताई || ३१६०।। चारित्रद्वैविध्ये सर्वचारित्रमुक्तम् । देशचारित्रमनेकभेदं द्विविध-त्रिविधादिना प्रत्याख्यानभेदेन सप्तचत्वारिंशशत भेदम् । एतानि पुनः सम्यक्त्वादीनि सर्वाण्यपि विष्वक् स्वपर्यायगणनया अनन्तभेदानि ।। ३१६० || चतुवीयत्ययादिसु सव्वज्झयणे चीणुयोगस्मि । एस च्चिय णिज्जत्ती उद्देसादी णिरुन्ता ||३१६१॥ [ नि० ५७९ चतुवीसयत्थयादि । शेपेष्वध्ययनेष्विति सूत्रगाथा ( ३१५७ ) - शेषाणि चतुविंशतिस्तवादीनि आवश्यकं प्रति । अथवा अनुयोगविषयेषु सर्वेष्वध्ययनेषु एषैव निर्युक्तिर्व्याख्याता उद्देशनिर्देशकानि (दि) निरुक्त पर्यवसाना ॥ ३१६१ ॥ Jain Educationa International || कतिविधमिति भेदाख्यानं गतम् ॥ १ व को, वित नास्ति हे प्रत्याम् । ४ धाय सा० को हे। ५ "याई को हे को. दुग हे । ९ 'उ' हे । १० वाणु २° सुयाई को, सुयाइ हे त । ३या है। ६ व्वाईको हे 1 2 For Personal and Private Use Only हुए हे। ८ उग को, 'याणु हे त । ११ तंता है। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ainelibrary.org