Book Title: Vinaychandra kruti Kusumanjali
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003819/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र-कृति-कुसुमांजलि मेव पर . पाइल राज 2122 यानी . रिसर्च ratay प्रकाशक सादल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर। Jain Educationa intematon S amirary to Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान-भारती प्रकाशन नं. विनयचन्द्र-कृति-कुसुमांजलि - - - -- सम्पादक भँवरलाल नाहटा aa पशs • ज्ञान . Sakal साइल राज • साल Hiri NATURBE रिसर्च ३ स्थानी . . बीकान प्रकाशक सादल राजस्थानी रिसर्च-इन्स्टीट्यूट बीकानेर। प्रथमावृत्ति १०००] वि० सं० २०१८ [ मूल्य ४) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकसादुल राजस्थानी रिसर्च-इन्स्टीट्यूट बीकानेर। मुद्रकसुराना प्रिन्टिङ्ग वर्क्स ४०२, अपर चितपुर रोड, कलकत्ता-७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री सादुल राजस्थानी रिसर्च-इन्स्टीट्यूट बीकानेर की स्थापना सन् १९४४ में बीकानेर राज्य के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री के० एम० पणिक्कर महोदय की प्रेरणा से, साहित्यानुरागी बीकानेर-नरेश स्वर्गीय महाराजा श्री सादूलसिंहजी बहादुर द्वारा संस्कृत, हिन्दी एवं विशेषतः राजस्थानी साहित्य की सेवा तथा राजस्थानी भाषा के सर्वाङ्गीण विकास के लिये की गई थी। भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध विद्वानों एवं भाषाशास्त्रियों का सहयोग प्राप्त करने का सौभाग्य हमें प्रारंभ से ही मिलता रहा है। संस्था द्वारा विगत १६ वर्षों से बीकानेर में विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियां चलाई जा रही हैं, जिनमें से निम्न प्रमुख हैं१. विशाल राजस्थानी-हिन्दी शब्दकोश इस संबंध में विभिन्न स्रोतों से संस्था लगभग दो लाख से अधिक शब्दों का संकलन कर चुकी है । इसका सम्पादन आधुनिक कोशों के ढंग पर, लंबे समय से प्रारंभ कर दिया गया है और अब तक लगभग तीस हजार शब्द सम्पादित हो चुके हैं। कोश में शब्द, व्याकरण, व्युत्पत्ति, उसके अर्थ, और उदाहरण आदि अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएं दी गई हैं। यह एक अत्यंत विशाल योजना है, जिसकी संतोषजनक क्रियान्विति के लिये प्रचुर द्रव्य और श्रम की आवश्यकता है । आशा है राजस्थान सरकार की ओर से, प्रार्थित द्रव्य साहाय्य उपलब्ध होते ही निकट भविष्य में इसका प्रकाशन प्रारंभ करना संभव हो सकेगा । २. विशाल राजस्थानी मुहावरा कोश ___राजस्थानी भाषा अपने विशाल शब्द भंडार के साथ मुहावरों से भी समृद्ध है । अनुमानतः पचास हजार से भी अधिक मुहावरे दैनिक प्रयोग में लाये जाते हैं। हमने लगभग दस हजार मुहावरों का, हिन्दी में अर्थ और राजस्थानी में उदाहरणों सहित प्रयोग देकर संपादन करवा लिया है और शीघ्र ही इसे प्रकाशित करने का प्रबंध किया जा रहा है। यह भी प्रचुर द्रव्य और श्रम-साध्य कार्य है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ]. यदि हम यह विशाल संग्रह साहित्य-जगत को दे सके तो यह संस्था के लिये ही नहीं किन्तु राजस्थानी और हिन्दी जगत के लिए भी एक गौरव की बात होगी । ३. आधुनिकराजस्थानीकाशन रचनओं कांप्र इसके अन्तर्गत निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं१. कळायण, ऋतु काव्य । ले० श्री नानूराम संस्कर्ता २. आभै पटकी, प्रथम सामाजिक उपन्यास । ले० श्री श्रीलाल जोशी। ३ बरस गांठ, मौलिक कहानी संग्रह । ले० श्री मुरलीधर व्यास । . 'राजस्थान-भारती' में भी आधुनिक राजस्थानी रचनाओं का एक अलग स्तम्भ है, जिसमें भी राजस्थानी कवितायें, कहानियां और रेखाचित्र आदि छपते रहते हैं। ४ 'राजस्थान-भारती' का प्रकाशन . इस विख्यात शोधपत्रिका का प्रकाशन संस्था के लिये गौरव की वस्तु है। गत १४ वर्षों से प्रकाशित इस पत्रिका की विद्वानों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है । बहुत चाहते हुए भी द्रव्याभाव, प्रेस की एवं अन्य कठिनाइयों के कारण, त्रैमासिक रूप से इसका प्रकाशन सम्भव नहीं हो सका है। इसका भाग ५ अङ्क ३-४ 'डा. लुइजि पिनो तैस्सितोरी विशेषांक' बहुत ही महत्वपूर्ण एवं उपयोगी सामग्री से परिपूर्ण है । यह अङ्क एक विदेशी विद्वान की राजस्थानी साहित्य-सेवा का एक बहुमूल्य सचित्र कोश है। पत्रिका का अगला ७वां भाग शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा हैं । इसका अङ्क १-२ राजस्थानी के सर्वश्रेष्ठ महाकवि पृथ्वीराज राठोड़ का सचित्र और वृहत् विशेषांक है । अपने ढंग का यह एक ही प्रयल है । पत्रिका की उपयोगिता और महत्व के सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इसके परिवर्तन में भारत एवं विदेशों से लगभग ८० पत्र-पत्रिकाएं हमें प्राप्त होती हैं। भारत के अतिरिक्त पाश्चात्य देशों में भी इसकी मांग है व इसके ग्राहक हैं। शोधकर्ताओं के लिये 'राजस्थान भारती' अनिवार्यत: संग्रहणीय शोधपत्रिका है । इसमें राजस्थानी भाषा, साहित्य, पुरातत्व, इतिहास, कला आदि पर लेखों के अतिरिक्त संस्था के तीन विशिष्ट सदस्य डा० दशरथ शर्मा, श्रीनरोत्तमदास स्वामी और श्री अगरचन्द नाहटा की वृहत् लेख सूची भी प्रकाशित की गई है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] ५. राजस्थानी साहित्य के प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अनुसंधान, सम्पादन एवं प्रकाशन हमारी साहित्य-निधि को प्राचीन, महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों को सुरक्षित रखने एवं सर्वसुलभ कराने के लिये सुसम्पादित एवं शुद्ध रूप में मुद्रित करवा कर उचित मूल्य में वितरित करने की हमारी एक विशाल योजना है। संस्कृत, हिंदी और राजस्थानी के महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुसंधान और प्रकाशन संस्था के सदस्यों की ओर से निरंतर होता रहा है जिसका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है६. पृथ्वीराज रासो ___ पृथ्वीराज रासो के कई संस्करण प्रकाश में लाये गये हैं और उनमें से लघुतम संस्करण का सम्पादन करवा कर उसका कुछ अंश 'राजस्थान भारती' में प्रकाशित किया गया है । रासो के विविध संस्करण और उसके ऐतिहासिक महत्व पर कई लेख राजस्थान-भारती में प्रकाशित हुए हैं। ७. राजस्थान के अज्ञात कवि जान (न्यामतखां) की ७५ रचनाओं की खोज की गई। जिसकी सर्वप्रथम जानकारी 'राजस्थान-भारती' के प्रथम अंक में प्रकाशित हुई हैं । उसका महत्वपूर्ण ऐतिहासिक काव्य 'क्यामरासा' तो प्रकाशित भी करवाया जा चुका है। ८. राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्य का परिचय नामक एक निबंध राजस्थान भारती में प्रकाशित किया जा चुका है। ६. मारवाड़ क्षेत्र के ५०० लोकगीतों का संग्रह किया जा चुका है। बीकानेर एवं जैसलमेर क्षेत्र के सैकड़ों लोकगीत, घूमर के लोकगीत, बाल लोकगीत, लोरियां और लगभग ७०० लोक कथाएँ संग्रहीत की गई हैं। राजस्थानी कहावतों के दो भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं । जीणमाता के गीत, पाबूजी के पवाड़े और राजा भरथरी आदि लोक काव्य सर्वप्रथम ‘राजस्थान-भारती' में प्रकाशित किए गए हैं। १० बीकानेर राज्य के और जैसलमेर के अप्रकाशित अभिलेखों का विशाल संग्रह 'बीकानेर जैन लेख संग्रह' नामक वृहत् पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुका है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] ११. जसवंत उद्योत, मुंहता नैणसी री ख्यात और अनोखी आन जैसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथों का सम्पादन एवं प्रकाशन हो चुका है । १२. जोधपुर के महाराजा मानसिंहजी के सचिव कविबर उदयचंद भंडारी की ४० रचनाओं का अनुसंधान किया गया है और महाराजा मानसिंहजी की काव्य-साधना के संबंध में भी सबसे प्रथम 'राजस्थान-भारती' में लेख प्रकाशित हुआ है । १३. जैसलमेर के अप्रकाशित १०० शिलालेखों और 'भट्टि वंश प्रशस्ति' आदि अनेक अप्राप्य और अप्रकाशित ग्रंथ खोज-यात्रा करके प्राप्त किये गये हैं । १४. बीकानेर के मस्तयोगी कवि ज्ञानसारजी के ग्रंथों का अनुसंधान किया गया और ज्ञानसार ग्रंथावली के नाम से एक ग्रंथ भी प्रकाशित हो चुका है । इसी प्रकार राजस्थान के महान विद्वान महोपाध्याय समयसुन्दर की ५६३ लघु रचनाओं का संग्रह प्रकाशित किया गया है। . १५. इसके अतिरिक्त संस्था द्वारा-- __(१) डा० लुइजि पिनो तैस्सितोरी, समयसुन्दर, पृथ्वीराज, और लोकमान्य तिलक आदि साहित्य-सेविवों के निर्वाण दिवस और जयन्तियां मनाई जाती हैं। ... (२) साप्ताहिक साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन बहुत समय से किया जा रहा है, इसमें अनेकों महत्वपूर्ण निबंध, लेख, कविताएँ और कहानियां आदि पढ़ी जाती हैं, जिससे अनेक विध नवीन साहित्य का निर्माण होता रहता है । विचार विमर्श के लिये गोष्ठियों तथा भाषणमालानों आदि का भी समय-समय पर प्रायोजन किया जाता रहा है। १६. बाहर से ख्यातिप्राप्त विद्वानों को बुलाकर उनके भाषण करवाने का आयोजन भी किया जाता है । डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, डा० कैलाशनाथ काटजू, राय श्री कृष्णदास, डा० जी० रामचन्द्रन्, डा० सत्यप्रकाश, डा० डब्लू० एलेन, डा० सुनीतिकुमार चाटुा, डा० तिबेरिप्रो-तिबेरी आदि अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वानों के इस कार्यक्रम के अन्तर्गत भाषण हो चुके हैं। गत दो वर्षों से महाकवि पृथ्वीराज राठौड़ आसन की स्थापना की गई है। दोनों वर्षों के पासन-अधिवेशनों के अभिभाषक क्रमशः राजस्थानी भाषा के प्रकाण्ड Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] विद्वान् श्री मनोहर शर्मा एम० ए०, बिसाऊ और पं० श्रीलालजी मिश्र एम० ए०, हूंडलोद, थे। इस प्रकार संस्था अपने १६ वर्षों के जीवन-काल में, संस्कृत. हिन्दी और राजस्थानी साहित्य की निरंतर सेवा करती रही है। आर्थिक संकट से ग्रस्त इस संस्था के लिये यह संभव नहीं हो सका कि यह अपने कार्यक्रम को नियमित रूप से पूरा कर सकती, फिर भी यदा कदा लड़खड़ा कर गिरते पड़ते इसके कार्यकर्ताओं ने 'राजस्थान-भारती' का सम्पादन एवं प्रकाशन जारी रखा और यह प्रयास किया कि नाना प्रकार की बाधाओं के बावजूद भी साहित्य सेवा का कार्य निरंतर चलता रहे । यह ठीक है कि संस्था के पास अपना निजी भवन नहीं है, न अच्छा संदर्भ पुस्तकालय है, और न कार्य को सुचारु रूप से सम्पादित करने के समुचित साधन ही हैं; परन्तु साधनों के अभाव में भी संस्था के कार्यकर्ताओं ने साहित्य की जो मौन और एकान्त साधना की है वह प्रकाश में आने पर संस्था के गौरव को निश्चय ही बढ़ा सकने वाली होगी । राजस्थानी-साहित्य-भंडार अत्यन्त विशाल है। अब तक इसका अत्यल्प 'अंश ही प्रकाश में आया है। प्राचीन भारतीय वाङमय के अलभ्य एवं अनर्घ रत्नों को प्रकाशित करके विद्वज्जनों और साहित्यिकों के समक्ष प्रस्तुत करना एवं उन्हें सुगमता से प्राप्त कराना संस्था का लक्ष्य रहा है। हम अपनी इस लक्ष्य पूर्ति की ओर धीरे-धीरे किन्तु दृढता के साथ अग्रसर हो रहे हैं। यद्यपि अब तक पत्रिका तथा कतिपय पुस्तकों के अतिरिक्त अन्वेषण द्वारा प्राप्त अन्य महत्वपूर्ण सामग्री का प्रकाशन करा देना मी अभीष्ट था, परन्तु अर्थाभाव के कारण ऐसा किया जाना संभव नहीं हो सका। हर्ष की बात है कि भारत सरकार के वैज्ञानिक संशोध एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम मंत्रालय (Ministry of scientific Research and Cultural Affairs) ने अपनी आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास की योजना के अंतर्गत हमारे कार्यक्रम को स्वीकृत कर प्रकाशन के लिये रु० १५०००) इस मद में राजस्थान सरकार को द्रिये तथा राजस्थान सरकार द्वारा उतनी ही राशि अपनी ओर से मिलाकर कुल ९० ३००००) तीस हजार की सहायता, राजस्थानी साहित्य के सम्पादन-प्रकाशन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतु इस संस्था को इस वित्तीय वर्ष में प्रदान की गई है; जिससे इस वर्ष निम्नोक्त ३१ पुस्तकों का प्रकाशन किया जा रहा है । १. राजस्थानी व्याकरण श्री नरोत्तमदास स्वामी २. राजस्थानी गद्य का विकास (शोध प्रबंध) : डा० शिवस्वरूप शर्मा अचल . ३. अचलदास खीची री वचनिका श्री नरोत्तमदास स्वामी ४. हमीराय - श्री भंवरलाल नाहटा ५. पद्मिनी चरित्र चौपई६. दलपत विलास श्री रावत सारस्वत ७. डिंगल गीत " " " . ८. पंवार वंश दर्पण डा० दशरथ शर्मा ६. पृथ्वीराज राठोड़ ग्रंथावली श्री नरोत्तमदास स्वामी और . श्री बद्रीप्रसाद साकरिया १०. हरिरस श्री बद्रीप्रसाद साकरिया ११. पीरदान लालस ग्रंथावली श्री अगरचन्द नाहटा १२. महादेव पार्वती वेलि श्री रावत सारस्वत १३. सीताराम चौपई श्री अगरचन्द नाहटा १४. जैन रासादि संग्रह श्री अगरचन्द नाहटा और डा० हरिवल्लभ भायारणी १५. सदयवत्स वीर प्रबन्ध प्रो० मंजुलाल मजूमदार १६. जिनराजसूरि कृतिकुसुमांजलि श्री भंवरलाल नाहटा १७. विनयचन्द कृतिकुसुमांजलि१८. कविवर धर्मवद्धन ग्रंथावली श्री अगरचन्द नाहटा १६. राजस्थान रा दूहा--- श्री नरोत्तमदास स्वामी २०. वीर रस रा दूहा-- " , " २१. राजस्थान के नीति दोहा श्री मोहनलाल पुरोहित २२. राजस्थान व्रत कथाएं " " " २३. राजस्थानी प्रेम कथाएं " " " २४. चंदायन-- श्री रावत सारस्वत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ भड्डली श्री अगरचन्द नाहटा माविनय सागर २६. जिनहर्ष ग्रंथावली श्री अगरचन्द नाहटा २७. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रंथों का विवरण " ... " २८. दम्पति विनोद २६. हीयाली-राजस्थान का बुद्धिवर्धक साहित्य ३०. समयसुन्दर रासत्रय । श्री भवरलाल नाहटा ३१. दुरसा आढा ग्रंथावली . श्री बदरीप्रसाद साकरिया ___ जैसलमेर ऐतिहासिक साधन संग्रह (संपा० डा० दशरथ शर्मा), ईशरदास ग्रंथावली (संपा० बदरीप्रसाद साकरिया), रामरासो (प्रो० गोवर्दन शर्मा ), राजस्थानी जैन साहित्य (ले० श्री अगरचन्द नाहटा), नागदमण (संपा० बदरीप्रसाद साकरिया), मुहावरा कोश (मुरलीधर व्यास) आदि ग्रंथों का संपादन हो चुका है परन्तु अर्याभाव के कारण इनका प्रकाशन इस वर्ष नहीं हो रहा है । हम आशा करते हैं कि कार्य की महत्ता एवं गुरुता को लक्ष्य में रखते हुए अगले वर्ष इससे भी अधिक सहायता हमें अवश्य प्राप्त हो सकेगी जिससे उपरोक्त संपादित तथा अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन सम्भव हो सकेगा। इस सहायता के लिये हम भारत सरकार के शिक्षाविकास सचिवालय के प्राभारी हैं, जिन्होंने कृपा करके हमारी योजना को स्वीकृत किया और ग्रान्ट-इनएड की रकम मंजूर की। राजस्थान के मुख्य मन्त्री माननीय मोहनलालजी सुखाड़िया, जो सौभाग्य से शिक्षा मन्त्री भी हैं और जो साहित्य की प्रगति एवं पुनरुद्धार के लिये पूर्ण सचेष्ट हैं, का भी इस सहायता के प्राप्त कराने में पूरा-पूरा योगदान रहा है। अतः । हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता सादर प्रगट करते हैं। राजस्थान के प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षाध्यक्ष महोदय श्री जगन्नाथसिंहजी मेहता का भी हम आभार प्रगट करते हैं, जिन्होंने अपनी ओर से पूरी-पूरी दिलचस्पी * लेकर हमारा उत्साहवर्धन किया, जिससे हम इस वृहद् कार्य को सम्पन्न करने में । समर्थ हो सके । संस्था उनकी सदैव ऋणी रहेगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ = J इतने थोड़े समय में इतने महत्वपूर्ण ग्रन्थों का संपादन करके संस्था के प्रकाशन - कार्य में जो सराहनीय सहयोग दिया है, इसके लिये हम सभी ग्रन्थ सम्पादकों व लेखकों के अत्यंत आभारी हैं । अनूप संस्कृत लाइब्रेरी और अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर, स्व० पूर्णचन्द्र नाहर संग्रहालय कलकत्ता, जैन भवन संग्रह कलकत्ता, महावीर तीर्थक्षेत्र अनुसंधान समिति जयपुर, ओरियंटल इन्स्टीट्यूट बड़ोदा, भांडारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना, खरतरगच्छ वृहद् ज्ञान भंडार बीकानेर, मोतीचंद खजावी ग्रंथालय बीकानेर, खरतर आचार्य ज्ञान भण्डार बीकानेर, एशियाटिक सोसाइटी बंबई, आत्माराम जैन ज्ञानभंडार बडोदा, मुनि पुण्यविजयजी मुनि रमरिक विजयजी, श्री सीताराम लालस, श्री रविशंकर देराश्री, पं० हरदत्तजी गोविंद व्यास जैसलमेर आदि अनेक संस्थात्रों और व्यक्तियों से हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त होने से ही उपरोक्त ग्रन्थों का संपादन संभव हो सका है । अतएव हम इन सबके प्रति आभार प्रदर्शन करना अपना परम कर्त्तव्य समझते हैं । " ऐसे प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन श्रमसाध्य है एवं पर्याप्त समय की अपेक्षा रखता है । हमने अल्प समय में ही इतने ग्रन्थ प्रकाशित करने का प्रयत्न किया इसलिये त्रुटियों का रह जाना स्वाभाविक है । गच्छतः स्खलनंक्वपि भवय्येव प्रमाहतः, "हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति साधवः । आशा है विद्वद्वृन्द हमारे इन प्रकाशनों का अवलोकन करके साहित्य का रसास्वादन करेंगे और अपने सुझावों द्वारा हमें लाभान्वित करेंगे जिससे हम अपने प्रयास को सफल मानकर कृतार्थ हो सकेंगे और पुनः मां भारती के चरण कमलों में विनम्रतापूर्वक अपनी पुष्पांजलि समर्पित करने के हेतु पुनः उपस्थित होने का साहस बटोर सकेंगे । बीकानेर, मार्गशीर्ष शुक्ला १५ सं० २०१७ दिसम्बर ३, १६६०. Jain Educationa International निवेदक लालचन्द कोठारी प्रधान-मंत्री सादूल राजस्थानी इन्स्टीट्यूट बीकानेर For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर विनयचन्द्र और उनका साहित्य संसार में दो तरह के प्राणी जन्म लेते हैं । कुछ जन्मजात प्रतिभासम्पन्न होते हैं और कुछ परिश्रमपूर्वक प्रतिभा का विकास करते हैं। साहित्यकारों में भी हम उभय प्रकार के व्यक्ति पाते हैं । कई कवियों की कविता में स्वाभाविक प्रवाह होता है, शब्दावली अपने आप उनकी कविता में रत्नों की भाँति आकर जटित हो जाती है जो पाठकों को मुग्ध कर लेती है। कई कवियों की रचनाए शब्दों को कठिनता से बटोर कर संचय की हुई प्रतीत होती है। सुकवि विनयचन्द्र प्रथम श्रेणी के प्रतिभासम्पन्न कवि थे, जिनकी उपलब्ध रचनाओं का संग्रह प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रकाशित किया जा रहा है । बत्तीस वर्ष पूर्व राजस्थान के महाकवि समयसुन्दर की रचनाओं का अनुसंधान करते हुए बीकानेर के श्री महावीर जैन मण्डल में सं० १८०४ का लिखा हुआ एक गुटका प्राप्त हुआ जिसमें समयसुन्दरजी की अनेक फुटकर रचनाओं के साथसाथ उनकी परम्परा के कुछ कवियों की भी रचनाएँ मिली । सुकवि विनयचन्द्र महो० समयसुन्दरजी की परम्परा में ही थे और उस गुटके के लिखनेवाले भी उसी परम्परा के थे अतः विनयचन्द्र की भी ४ रचनाएँ इस प्रति में प्राप्त हुई जिनमें से नेमिराजुल बारहमासा और राजिमतीरहनेमि सझाय नामक उत्कृष्ट रचनाओं ने हमें इस कवि के प्रति विशेष आकृष्ट किया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] उनको राजिमती रहनेमि सझाय को सन् १६२६ ता० १३ जन में आगरा से प्रकाशित होनेवाले श्वेताम्बर जैन वर्ष ४ अंक २५ में प्रकाशित किया गया उसके बाद खरतर गच्छ के वृहद् ज्ञानभण्डार का अवलोकन करते हुए महिमाभक्ति भण्डार के बं० नं० ३७ में विनयचन्द्रजी की चौवीसी, बीसी, सज्झायादि की ३१ पत्रों की संग्रहप्रति प्राप्त हुई और जैन गुर्जर कविओ दूसरा भाग सन् १६३१ में प्रकाशित हुआ उसमें आपके रचित उत्तमकुमार चरित्ररास, ध्यानामृतरास, मयणरेहा रास, ११ अंग सज्झाय, शत्रुजय तीर्थयात्रा स्तवन का उल्लेख प्रकाशित हुआ था। हमने आपको प्राप्त समस्त रचनाओं की सूची देते हुए कविवर विनयचन्द्र नामक लेख प्रकाशित किया जिसमें नेमिराजुल बारहमासा भी दिया था। कवि की रचनाओं की संग्रह प्रति से तभी हमने प्रेस कापी तैयार कर रख दी थी जिसे प्रकाशित करने का सुयोग अब प्राप्त हुआ है। गुरु परम्परा खरतरगच्छ की सुविहित परम्परा में मुगल सम्राट अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान श्री जिन चन्द्रसूरि प्रसिद्ध और प्रभावक आचार्य हुए हैं। उनके प्रथम शिष्य सकलचन्द्र गणि के शिष्य अष्टलक्षो कर्त्ता महोपाध्याय समयसुन्दरजी की विद्वद् परम्परा में कविवर विनयचन्द्र हुए हैं । कविवर स्वयं उत्तमकुमार चरित्रचौरई में अपनी गुरु परम्परा का परिचय देते हुए लिखते हैं कि महोपाध्याय समयसुन्दरजो भारी प्रकाण्ड विद्वान थे जैसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] ज्ञानपयोधि प्रबोधवा रे, अभिनव ससिहर प्राय ; सु० कुमुदचन्द्र उपमा वहै रे, समयसुन्दर कविराय ; ८ सु० तत्पर शास्त्र समर्थिवा रे, सार अनेक विचार ; सु० वलि कलिंदिका कमलनी रे, उल्लासन दिनकार ; ६ सु० इनके शिष्य विद्यानिधि वाचक मेघविजय हुए। जिनके शिष्य हर्षकुशल भी अच्छे विद्वान थे जिन्होंने विहरमान बीसी का रचना करने के अतिरिक्त महोपाध्याय समयसुन्दरजो को ग्रन्थरचना में भी सहाय्य किया था । इनके शिष्य उ० हर्षनिधान हुए जिनकी चरणपादुकाएं सं० १७६७ मिति आषाढ़ सुदि ८ के दिन शिष्य वा० हर्षसागर द्वारा प्रतिष्ठित बीकानेर रेल दादाजी में विराजमान है। हर्षनिधानजी के लिए कविवर ने लिखा है कि ये अध्यात्म-योगी थे, यतः 'परम अध्यातम धारवा रे जो योगेन्द्र समान ।' इनके तीन शिष्य थे, प्रथम वा० हर्षसागर द्वारा सं० १७२६ का० कृ०६ को लिखित पुण्यसार चतुष्पदी ( सेठिया लाइब्ररी, बीकानेर ) प्राप्त है। इनकी चरणपादुकाएँ भी सं० १७८४ वै० सु० ८ सोम के दिन प्रतिष्ठित बीकानेर के रेल दादाजी में है । इनके नयणसी व प्रतापसी नामक दो शिष्य थे । हर्षनिधानजी के द्वितीय शिष्य ज्ञानतिलक व तीसरे पुण्यतिलक थे ये तीनों साहित्यादि ग्रंथों के विद्वान थे। ज्ञानतिलक रचित ३-४ स्तोत्र व फुटकर संग्रह का गुटका विनयसागरजी के संग्रह में है । कविवर विनयचन्द्र इन्हीं ज्ञानतिलकजी के शिष्य थे। सं० १७६६ मिती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 8 ] वंशाख सुदी १४ को बीकानेर में साध्वी हर्षमाला के लिए प्रतिलिपि की हुई एकादशांग स्वाध्याय की प्रशस्ति इसी ग्रन्थ के पृ० ६८ में प्रकाशित है। हर्षनिधानजी के तृतीय शिष्य पुण्यतिलक थे जिनके शिष्य महोपाध्याय पुण्यचन्द्र हुए। इनके शिष्य पुण्यविलासजी ने अपने शिष्य पुण्यशील के आग्रह से सं० १७८० में मानतुंग मानवती रास ( ढाल ५० गाथा १४४२ ) लूणकरणसर में निर्माण किया जिसकी दो प्रतियां लालभवन, जयपुर में है । पुण्यविलासजी के दूसरे शिष्य मानचन्द्र थे । नन्दीपत्रानुसार इनकी दीक्षा सं० १७७४ को पत्तन में हुई थी इसमें पं० माना पं० पुण्यशील लिखा है अतः पुण्यशील और माना एक ही व्यक्ति प्रतीत होते हैं । सं० १८०४ वाला उपर्युक्त गुटका इन्हीं मानचन्द्र द्वारा लिखा हुआ है जिसमें कविवर समयसुन्दरजी की कृतियाँ और विनयचन्द्रजी की चार कृतियाँ लिखी हुई है। प्रशस्ति इस प्रकार है : -- 'सम्वत् १८०४ वर्षे मिति माह बदि १ तिथौ जंगम युगप्रधान पूज्य भट्टारक श्रीमच्छी जिनचन्द्रसूरी श्वराणां शिष्य मुख्य पंडितोत्तम प्रवर सकलचन्द्रजी गणि शिष्य महोपाध्याय श्री ५ | श्री समयसुन्दरजी गणि । शिष्य मेघविजयजी गणि । वाचकोत्तम वर हर्षकुशलजी गणि । पाठकोत्तम हर्षनिधानजी शिष्य दक्ष पुण्य तिलकजी गणि । महोपाध्याय श्री १ - देखो बीकानेर जैन लेख संग्रह लेखांक २०८० । २ - देखो बीकानेर जैन लेख संग्रह लेखांक २०५३ । ---- Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ श्री पुण्यचन्द्रजी गणि तत्शिष्य पंडितोत्तमप्रवर श्री पुण्य विलासजी गणि। तदंतेवासी पंडित मानचन्द्र लिखितं ॥ श्री मरोट मध्ये ॥ सुश्रावक पुण्यप्रभावक मुंहता दुलीचन्दजी तत्पुत्र जैतसीजी तत्पुत्र सुखानन्द पठन हेतवे। आचंद्राकों यावत् चिरंनन्दतु। जन्म--- ____ कविवर का जन्म कब और किस प्रान्त में हुआ यह जानने के लिए अभी तक कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है पर गुजरात में रह कर हिन्दी रचना व राजस्थानी शब्द-प्रयोग देखते हुए प्रतीत होता है कि इनका जन्म राजस्थान में हो हुआ होगा। आपने अपनी रचनाओं में जिन राजस्थानी लोक गीतों की देसियां प्रयुक्त की हैं, यह भी हमारी धारणा को पुष्ट करने वाली हैं। आपके हृदय के उद्गार, भक्ति आदि देखते यह निश्चित है कि आपने जैन कुल में जन्म लिया था। आपकी प्रथम रचना उत्तमकुमार चरित्र चौपाई सं० १७५२ में पाटण में हुई है उस समय आपका ज्ञान और योग्यता देखते कम से कम २५ वर्ष की अवस्था होनी चाहिए तो अनुमान किया जा सकता है कि आपका जन्म लगभग १७२५ से १७३० के बीच में हुआ होगा। दीक्षा दोक्षाकाल जानने के लिए सब से सुगम साधन श्रीपूज्यों के दफ्तर और नंदो अनुक्रम सूची है। उसके अभाव में हमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान के आधार पर हो चलना होगा। अतः आपने लगभग १५ वर्ष की आयु में दीक्षा ली हो तो सं० १७४०-४५ के बीच में दीक्षाकाल होना चाहिए। विद्याध्ययन दीक्षा लेने के अनन्तर आपने विद्याध्ययन प्रारम्भ किया। आपकी गुरु परम्परा में साहित्य, जैनागम और भाषाशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान होते आये हैं। त्याग वैराग्यपूर्ण श्रमण संस्कृति का मुख्य आधार आचारशास्त्र और अध्यात्म था। आपने अपने गीतार्थ गुरुओं की निश्रा में रह कर पूर्ण मनोयोग पूर्वक विद्याध्ययन किया जो कि आपकी कृतियों से भली भांति प्रमाणित है। इनकी भाषा कृतियों में संस्कृत शब्दों का प्राधान्य है इससे विदित होता है कि संस्कृत भाषा एवं काव्य ग्रन्थादि का आपने सुचारु रूप से अध्ययन किया था। विहार और रचनाएँ___ आपका विहार कहाँ-कहाँ हुआ यह जानने के लिए हमारे पास आपकी कृतियों के सिवा कोई साधन नहीं है। आपकी संवतोल्लेख वाली प्रथम बड़ी रचना उत्तमकुमार चरित्र चौपई है जो सं० १७५२ मिती फागुन सुदि ५ गुरुवार के दिन पाटण में विरचित है। इससे ज्ञात होता है कि आप अपने गुरुजनों के साथ राजस्थान से तत्कालीन आचार्य श्री जिनचंद्रसूरिजी के आदेश से गुजरात पधार गये थे। इन श्री जिनचंद्रसरि जी की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] गहुँली इसी ग्रन्थ के पृ० ८४ में प्रकाशित है जिसमें आपने आचार्य श्री जिनधर्मसूरि के पट्ट पर श्रीजिनचंद्रसूरि के पाट विराजने का उल्लेख किया है। यह पट्ट महोत्सव बीकानेर के लूणकरणसर में हुआ था अतः इसके बाद आचार्य श्री ने आपके गुरु महाराज को गुजरात में विचरने का आदेश दिया प्रतीत होता है। इस लघु रचना में अपने को कवि ने मुनि विनय चंद्र लिखा है इसके बाद आपने लघु कृतियां अवश्य ही बनाई होगी क्योंकि उत्तमकुमार चरित्र में आपने अपने को कई जगह 'कवि' विशेषण से सम्बोधित किया है। पाटण में रहते आपने बाड़ी पार्श्व स्त० व नारंगपुर पार्श्व स्तवनादि की रचना की। इसके बाद सं० १७५५ का चातुर्मास आपने राजनगर किया और विजयादशमी के दिन विहरमान वीसी रचकर पूर्ण की। दूसरा चातुर्मास भी आपने राजनगर में ही बिताया था स्थूलिभद्र बारहमासा गा० १३ की रचना राजनगर में हुई । सं० १७५५ भा० १० १० को राजनगर ( अहमदाबाद ) में ११ अंग सझायों की रचना एवं विजयादशमी के दिन चौबीसी की रचना पूर्ण की। इस चातुर्मास के पश्चात् आपने आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी एवं अपने दादा गुरु श्री. हर्षनिधान पाठक व गुरु ज्ञानतिलकादि गुरुजनों के साथ सपरिवार मिती पोषवदी १० के दिन शत्रुजय महातीर्थ की यात्रा की जिसका उल्लेख आपने इसी ग्रन्थ के पृ० ५० में प्रकाशित शत्रुजय यात्रा स्त० गा० २१ में किया है एक और गा० १३ का स्तवन पृ० ५५ में प्रकाशित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [C] इसके अतिरिक्त संखेश्वर पार्श्वनाथ स्त० गा० ११ का पृ० ६४ में छपा है पर आपने यह यात्रा कब की इसका कोई उल्लेख नहीं । इसके पश्चात् आपने कब कहाँ चातुर्मास किये इसका कोई पता नहीं चलता अब तक जो रचनाएँ मिली हैं वे सं० १७५२ से १७५५ तक की हैं। इसके पश्चात् की कोई संवतोल्लेख वाली रचना नहीं मिलने से ठीक ठीक पता नहीं लगता कि आप कब तक विद्यमान रहे पर दीक्षानंदि पत्र में आपके शिष्य विनयमंदिर की दीक्षा सं० १७६६ ज्येष्ठ वदि ५ को बीकानेर में हुई थी लिखा है उस समय तक आप अवश्य ही विद्यमान थे । इन वर्षों पर किसी ज्ञान पास रही कहीं विशेष प्रकाश में आपने ग्रंथ रचना अवश्य ही की होगी । भंडार या उनकी परम्परा के किसी विद्वान के मिल जाय तो आपकी रचनाओं व जीवनी पर पड़ सकता है। तीन वर्ष जैसे अल्पकाल की विदित होता है कि आप उच्च कोटि के कवि थे बहुतसी रचनाओं का निर्माण किया होगा । प्रकाशित प्रधान रचनाएँ इस प्रकार है। रचनाओं से । एवं और भी इस ग्रन्थ में १ - उत्तमकुमार चरित्र चौपई २ - विहरमान बीसी स्तवन ३ - ११ अंग सज्झाय स० १२ Jain Educationa International -: ढाल ४२ गाथा ८४८ सं० १७५२ फा० सु० ५ गु० पाटण स्त० २० कलश १ सं० १७५४ विजयादशमी राजनगर सं० १७५५ भा० बदी १० राजनगर For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 8 ] ४-चतुर्विंशतिका स्त० २४ कलश १ सं० १७५५ विजयादशमी, राजनगर ५-शत्रुजय यात्रा स्त० गाथा २१ सं० १७५५ पौष बदी १० यात्रा ६-फुटकर स्तवन, सज्झाय, बारहमासा, गीत आदि २५ कृतियाँ इनके अतिरिक्त जैन गुजेर कविओ भाग २ पृष्ठ ५२३ में :१-ध्यानामृत रास। २-मयणरेहा चौपाई। एवं जैन गूर्जर कविओ भाग ३ पृ० १३७४ में ३-रोहा कथा चौपई का उल्लेख किया है। श्री देसाई ने प्रथम दो रचनाओंका न तो रचनाकाल व आदि अन्त दिया है और न प्राप्तिस्थान ही दिया है। विनयचन्द्र नाम के कई कवि हो गए हैं अतः वे रचना इन्हीं कविवर की हैं या और किसी विनयचन्द्र की, नहीं कहा जा सकता। फिर भी मयणरेहा चौपाई व रोहा कथा चौ० की प्रतियाँ हमारे ( श्री अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर) संग्रह में है उनमें से मयणरेहा चौपाई का रचना काल सं० १८७० एवं रचनास्थान जयपुर है उसके रचयिता विनयचन्द्र स्थानकवासी अनोपचन्द के शिष्य हैं। रोहा कथा चौपाई में विनयचन्द्र के गुरु का नाम रचनाकाल नहीं पाया जाता, पर यह कृति भी स्थानकवासी विनयचन्द्र की ही लगती हैं । अतः तीन में से दो तो हमारे कविवर विनयचन्द्र से सौ, सवासौ वर्ष पश्चात् होनेवाले स्थानकवासी विनयचन्द्र की रचनाएँ सिद्ध हो जाती है केवल ध्यानामृतरास ही अनिश्चित अवस्था में रहता है सम्भव है वह हमारे कवि विनयचन्द्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] की रचना हो पर उसकी प्रति कहाँ पर है इसका निर्देश नहीं होने से हम उसे प्राप्त नहीं कर सके । उत्तमकुमार रास की भी प्रतियां अधिक नहीं मिलती। दो-तीन प्रतियों की ही सूचना मिली जिनमें से १ तिलकविजय भंडार महुआ २ चुन्नीजी भंडार, काशी का उल्लेख जैन गूर्जर कवियों में किया गया था। चुन्नी जी भंडार की कुछ प्रतियाँ आगरा व कुछ प्रतियाँ रामघाट जैन मन्दिर के भंडार बनारस में बँट गई। हमने बनारस हीराचन्द्र सूरिजी को पत्र लिखा पर वहां की सूची में महाराजकुमार चौ० का नाम होने से वे पता नहीं लगा सके अन्त में हमें स्वयं वहाँ जाना पड़ा और कठिनता से पता लगाकर प्रति प्राप्त की। प्रति का उपयोग करने का सुयोग श्री हीराचन्द्रसूरिजी महाराज की कृपा से ही प्राप्त हो सका इसलिए उनके हम विशेष आभारी हैं। इसकी एक प्रति देहला के उपाश्रय, अहमदाबाद स्थित रत्नविजय भंडार में होने का उल्लेख जैन गूजर कविओ के दूसरे भाग में हैं जिसे प्राप्त करने के लिए पत्र व्यवहार किया पर सफलता नहीं मिली। यह चौपाई एक ही प्रति के आधार से सम्पादन की गई अतः कई जगह पाठ त्रुटित रह गया है। ____ चौवीसी, बीसी, ११ अंग सज्झाय आदि रचनाओं की एक प्रति पत्र ३१ की महिमाभक्ति ज्ञानभंडार में मिली थी तदनन्तर आचार्य शाखा भण्डार से २ संग्रह प्रतियाँ व दो फुटकर पत्र प्राप्त हुए जिनमें से प्रथम प्रति २७ पत्रों की कवि के गुरु श्री ज्ञानतिलक द्वारा लिखित हैं इसमें वीसी, चौबीसी, ११ अंग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] सझाय व अन्य फुटकर रचनाएँ हैं जिसकी प्रशस्ति इसी पुस्तक पृ० ६८ में दी गई है। दूसरी प्रति ७ पत्रों की है, जिसमें ११ अंग सकाय, दुर्गति-निवारण सफाय व पार्श्वनाथ स्तवन है जिसकी लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है : " संवत् १७६७ रा फागुन सुदि १० शनिवारे श्री जैसलमेर दुर्गे लिखितमस्ति श्राविका मूली बाई पठनार्थ ||श्रीरस्तु || " एक फुटकर पत्र में नयविमल रचित शत्रुंजय के २ स्तवनों के बाद विनयचन्द्र रचित संभवनाथ स्तवन है । यह पत्र पुण्यचंद्र ने सुश्राविका पुण्यप्रभाविका तत्वार्थ गुण भाविका झम्मा वाचनार्थ लिखा है । अन्य फुटकर पत्र में कुगुरु स्वाध्याय गा० ३१ की है वह कवि के स्वयं लिखित पत्र विदित होता है क्योंकि इसमें ऊपर व किनारे में पाठवृद्धि व पाठान्तर भी लिखे हु हैं, सम्भवतः यह रचना का खरड़ा या प्रथमादर्श होगा। और एक फुटकर पत्र में गौड़ी पर्श्व स्तवन और सूरप्रभ स्तवन मुनि हरिचंद्र के श्राविका आसां पठनार्थ लिखित प्राप्त है । कुगुरु सझाय हमारा अनुमान है कि यदि कवि के स्वयं लिखित है तो उनके हस्ताक्षर बहुत सुन्दर थे और उसकी प्रतिकृति इस ग्रंथ भी दी जा रही है। शिष्य परिवार ----- कवि विनयचंद्र के कितने शिष्य थे और उनकी परम्परा कब तक चली ? साधनाभाव में यह बतलाना असम्भव है पर ज्ञानसागर कृत चौबीसी पत्र ७ की प्रशस्ति से मालूम होता है कि आपके एक शिष्य विनयमन्दिर और उनके शिष्य खुस्यालचंद्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] थे। नंदि अनुक्रम पत्र के अनुसार इन विनयमंदिर का पूर्वनाम अमीचंद था और सं० १७६६ मिती ज्येष्ठ बदि ५ को बीकानेर में दीक्षा हुई थी। इस प्रशस्ति में से विदित होता है कि कविवर के गुरु वाचनाचार्य एवं कवि स्वयं सं० १७७२ से पूर्व गणि पद विभूषित हो चुके थे। यहाँ उपर्युक्त प्रशस्ति की नकल दी जा रही है : “संवत् १७७२ वर्षे मिती ज्येष्ठ सुदी १ रविवारे श्री राजनगरे वा० ज्ञानतिलक गणि शिष्य विनयचन्द्रगणि शिष्य विनयमंदिर शिष्य चिरं खुस्यालचंद लिखितं ॥ साध्वी कीर्तिमाला शिष्यणी हर्षमाला पठनार्थ ।। श्रीरस्तुः ।। शुभं भवतुः।।" भक्ति व काव्य प्रतिभा कविवर का हृदय जिनेश्वर भगवान के भक्ति रस से ओत प्रोत था। चौबीसी, वीसी एवं स्तवनादि में आपने बड़े ही मार्मिक उद्गार प्रगट किये हैं। आपने अपनी कृतियों में कहीं सरल भक्ति, कहीं उत्प्रेक्षाएँ और वक्रोक्तिपूर्ण उपालंभ देते हुए विभिन्न रसों की भाव धारा प्रवाहित की है । भाषा प्रौढ और सटंक शब्दयोजना, फबती हुई उपमाएँ पाठकों के मन को सहज ही आकृष्ट करने में समर्थ है। यहाँ कुछ थोड़े से अवतरण पाठकों के रसास्वादनार्थ उद्धत किये जाते हैं। "नयणे नयण मिलायने रे, जिन मुख रहीयइ जोय - तउ ही तृप्ति नहीं पामियइ रे, मनसा बिवणी होय" [ ऋषभदेव स्त०] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] जिम गोपी मन गोविन्द रे लाल, गौरी मन शंकर वसइ वलि जेम कुमुदिनी चंद रे लाल शांतिनाथ स्त०] नेह अकृत्रिम मंइ कियउ रे, कदे न विहड़इ तेह दिन दिन अधिकउ उलटइ रे, जिम आषाढ़ी मेह [ कुंथुनाथ स्त०] श्री मुनिसुव्रत स्वामी के स्तवन में प्रभु को उपालम्भ देते हुए कवि कहता है कि हुं रागी पिण तुं अछइ जी, नीरागी निरधार । मावै नहीं इक म्यान मइंजी, तीखी दोइ तरवार ।। जाणपणउ मई जाणियउ जी, जिनवर ताहरउ आज । तक ऊपर आव्यउ हतोजी, ते नवि राखी लाज ॥ जे लोभी तुझ सरिखाजी, वंछित नापइ रे अन्त । मुझ सरिखा जे लालचीजी, लीधा विण न रहंत ।। xxxx नेमजी हो मुगति रमणि मोह्या तुम्हे हो राजि, पिण तिण मां नहिं स्वाद। नेमजी हो तेह अनंते भोगवी हो राजि, छोड़उ छोकरवाद । [नेमिनाथ गीत पृ० ६०] कविवर ने उपमाओं एवं लोकोक्तियों को अपनी कृतियों में खचित करके उन्हें हृदयग्राही बना दिया है। यहाँ थोड़े से अवतरण प्रस्तुत किये जाते हैं :"साकर मां कांकर निकसइ ते साकर नौ नहिं दोष" [विमलनाथ स्तवन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] वाल्हा लागौ हो नहिं उपदेश, छांट घड़इ जिम चीगटइ वाल्हा तेतउ, हो न्याय अजेस, कर्म अरि कहो किम कटइ [धर्मनाथ स्त०] हां रे लाल निज फल तरुवर नवि भखइ, सरवर न पियइ जल जेम रे लाल पर उपगारइ थाय ते, तुं पिण जिनजी हुइ तेम रे लाल शांतिनाथ स्त०] "कोइल आंबा गुण लहै रे, पिण स्यु जाणे काग मूरख पशु जाणे नहीं रे, सेलड़ी कड़व मिठास" [कुंथुनाथ स्त०] "जे खल नई गुल सरिखा जाणइ, ते स्युं नवलो नेह पिछाणइ" (मल्लिनाथ स्त० ) “देव अवर मीठा मुखे, हृदय कुटिल असमान जाणि पयोमुख संग्रह्या, ते विषकुम्भ समान" (नमिनाथ स्त०) 'तरू भावइ तउ छइ इकताई, पिण अंब नींब अधिकाई रे पंखी जातइ एकज हुआ, पिण काग कोइल ते जुआ रे' . (सूरप्रभ स्तवन) महिर बिना साहिब किसउ हो, लहिर बिना स्यउ वाय रे सनेही सहिर बिना स्यउ राजवी हो, इम कलि मांहि कहाव रे सनेही (संखेश्वर पार्श्व स्त० पृ० ६५) एक हाथइ रे ताली नवि पड़इ रे' (स्वाभाविक पार्श्व स्त० पृ०७४) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] 'जिम सौ तिम पचास ' 'सौ बाते इक बात' ( बाड़ी पार्श्व स्तवन पृ० ७१) जिन प्रतिमा स्वरूप निरूपण स्वाध्याय ( पृ० १००) में वायस दुग्ध प्रक्षालन, मुद्गशेलिक घनवर्षण, ऊपरभूमि बीजवपन बधिर प्रमाण कथन, श्वान -पुच्छ, जिम कांजीयक दूध, नदीकिनोरवृक्ष आदि उपमाएँ दी गई हैं। स्वयं जिनेश्वर भगवान की अविद्यमानता में मुमुक्षुओं के लिए जिन प्रतिमा एक पुष्टालंबन है । कविवर जिन प्रतिमा को जिन सदृश उपकारी मानते थे और उसे आमन्य करनेवालों का प्रखरता के साथ निराकरण करने के हेतु इस ३६ गाथा की स्वाध्याय का निर्माण हुआ है । ध्यान के लिए जिन प्रतिमा की उपयोगिता बताते हुए कविवर निम्नोक्त भाव व्यक्त करते हैं : - 'जिन प्रतिमा निश्चयपण, सरस सुधारस रेलि चिंतामणि सुरतरु समी, अथवा मोहनवेलि ६ नेह बिना सी प्रीतड़ी; कंठ बिना स्थउ गान लूण बिना सी रसवती, प्रतिमा बिण स्यउ ध्यान ७ तीर्थंकर पिण को नहीं, नहि को अतिशयधार जिन प्रतिमा नउ इण अरइ, एक परम आधार है' कविवर विनयचन्द्र जैन शास्त्रों के प्रौढ विद्वान थे । उन्होंने ग्यारह अंग सज्झायों में प्रत्येक अंग --आगम का रहस्य बड़ी ही ओजस्वी वाणी में श्रद्धा-भक्तिपूर्वक व्यक्त किया है। इन सज्झायों को गाने से जिनवाणीके प्रति आस्था प्रगाढ़ हो जाती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] है और वाचक आपकी श्रुत श्रद्धा के प्रति पद-पद पर श्रद्धावनत हो जाता है । ग्यारह अंगों का परिचय प्राप्त करने के लिए तो ये सज्झायें बड़ी ही उपयोगी हैं। अन्तिम सझाय में कवि लिखता है कि'पसरी अंग इग्यार नी सहेली हे, मुझ मन मंडप वेलि कि । सांचू नेह रसइ करी सहेली हे, अनुभव रस नी रेलि कि ।।२।। हेजधरी जे सभिलइ सहेली हे, कुण बूढा कुण बाल कि । तउ ते फल लहै फूटरा सहेली हे, स्वादई अतिहि रसाल कि ॥३॥ ___ कविवर ने प्रकृति-सौन्दर्य को भी जिस सरसता से वर्णन किया है वह अपने ढंग का अनूठा है-'श्रीरहनेमि राजीमति स्वाध्याय तथा श्री स्थूलिभद्र बारहमासा' में छः ऋतुओं का वर्णन प्रकृति की सौन्दर्य सुषमा तथा जन-मन में उठता हुआ उल्लास नव रसों के प्रवाह का कवि ने जिस सजीवता से वणन किया है उसका रसास्वादन कराने के लिए कुछ पद्य यहाँ उद्धृत करते हैं : रहेनमि राजिमती स्वाध्याय वर्षा--- सजि बुंदसारी, हर्षकारी भूमि नारी हेत । भरलाय निझर झरत झरझर सजल जलद असेत ॥ घन घटा गर्जित छटा तर्जित भये जर्जित गेह । टब टबकि टबकत झबकि झबकत बिचिबिचि बीजकि रेह ॥२॥ 'हग श्याम बादर देखि दादुर रटत रस भरि रइन । वन-मोर बोलइ पिच्छ डोलइ द्विरद खोलइ पुनि नइन ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] मदन के माते रंग राते रसिक लोक अपार । बइठि कइ गोख मनई जोखई गावत मेघ-मल्हार ।। ५॥ पंच रंग चोपें अधिक ओपई इन्द्र-धनुष सधीर । बक श्रेणि सोहइ चित्त मोहइ सर सरित के तीर ॥ तहीं करन क्रीड़ा मुखइ बीड़ा चाबती त्रिय जात । केसरी सारी मूल भारी पहिरि कै हर्ष न मात ॥ ६ ॥ श्री स्थूलिभद्र बारहमास शृंगार आषाढ़ आषाढइ आशा फली, कोशा करइ सिणगारो जी। आवउ थूलिभद्र वालहा, प्रियुड़ा करूं मनोहारो जी ।। मनोहार सार शृंगार-रसमां, अनुभवी थया तरवरा । वेलड़ी वनिता ल्य३ आलिंगन,भूमि भामिनी जलधरा॥ हास्य श्रावण श्रावण हास्य रसई करी, विलसउ प्रतिम प्रेमइ जी। योगी! भोगीनइ घरे, आवण लागा केमइ जी ॥ तउ केम आवै मन सुहावै, वसी प्रमदा प्रोतडी। एम हासी चित विमासी, जोअउ जगति किसी जडी। करूणा वर्षा झरहरइ पावस मेघ वरसइ, नयण तिम मुख आंसुआँ । तिम मलिन रूपी बाह्य दीसउ, तिम मलिन अंतर हुआ ॥२॥ भादउ कादउ मचि राउ, कलिण कल्या बहु लोको जी। देखी करूणा ऊपजै, चन्द्रकान्ता जिम कोको जी।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ । कोक परि विहू बोक करतो, विरह कलणइ हुँ कली। काढियइ तिहाँ थी बांह झाली, करूणा रसनइ अटकली।। अकुलाय धरणि तरुणि तरणी, किरण थी, शोषत धरै । उपपति परइ घन कन्त अलगु, करी घन वेदन करें ।। तिम तुम्हें पणि विरह तापइ, तापवउ छउ अतिघणुं । चांदणी शीतल झाल पावक, परई कहि केतउ भणु ॥ वीररस-कार्तिक काती कौतुक सांभरइ, वीर करइ संग्रामो जी। विकट कटक चाला घणु तिम कामी निज धामोजी।। निज धाम कामी कामिनी बे, लड़इ बेधक वयण सुं। रणतूर नेउर खड्ग वेणी, धनुष-रूपी नयण सुं॥ भयानक मगसिर भयानक रसइ भेदिय, मगिसिर मास सनूरो जी। मांग सिरहि गोरी धरइ, वर अरुणि मां सिन्दूरो जी ।। सिन्दूर पूरइ हर्ष जोरइ, मदन झाल अनल जिसी । तिहां पड़इ कामी नर पतंगा, धरी रंगा धसमसी। अद्भुत हेमन्त व माघ माघ निदाघ परइ दहै, ए अद्भुत रस देखुं जी। शीतल पणि जड़ता घणु, प्रीतम परतिख पेखु जी॥ - फाल्गुन सहज भाव सुगन्ध तैलई, पिचरकी सम जल रसई । गुण राग रंग गुलाल उड़इ, करुण ससबोही वसइ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] परभाग रंग मृदंग गूंजई, सत्व ताल विशाल ए । समकित तंत्री तंत झणकर, सुमति सुमनस माल ए ॥ चैत ( वसन्त ) चैत्र विचित्र थ रही, अंबतणी वनरायोजी । थु शाखा अंकुरित थइ, सोह वसन्तइ पायो जी ॥ पाई वसंत सोह जिणपरि, प्रियागमनइं पदमिनी । सिणगार बिन पिण मुदित होवइ, प्रेम पुलकित अंगिनी || आगे चल कर कवि वैशाख और ज्येष्ठ महीना का भी सुन्दर वर्णन किया है । इसी प्रकार इस ग्रन्थ के पृ० ६१ में प्रकाशित नेमि राजिमती बारहमास में भी प्रकृति और बारहमास का सुन्दर वर्णन किया है पाठकों को स्वयं पढ़कर रचनाओं का रसास्वादन करना चाहिए । रास स्नेह निवारणे स्थूलभद्र सझाय में कहा है कि :'नेह थी नरक निवास, नेह प्रबल छइ पास नेह देह विनाश, नेह प्रबल दुख वाल्हानइ वउलावतां रे, पीड़इ प्रेम नी झाल atest फाटइ अति घणु रे, नांखर विरह उछाल लता भुँई भारणी व रे हाँ, अंग तपs अंगार आँखड़िये आंसू झरइ रे हां जिमपावस जलधार मत किणही सु लागज्यो रे, पापी एह सनेह धूख न धुंओं नीसरइ रे हां, बलइ सुरंगी देह' कविवर विनयचन्द्र की समस्त रचनाओं में विस्तृत रचना उत्तमकुमार चरित्र है जिसमें सदाचार को पोषण करने वाला उत्तमकुमार का उद्दात चरित्र है, जिसका सार यह दिया जा रहा है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तमकुमार रास सार प्रारम्भ में एक संस्कृत श्लोक द्वारा विनायक को नमस्कार किया गया है जो प्रति लेखक द्वारा लिखा हुआ है। रास के प्रारम्भ में १३ दोहों में ॐकार, सरस्वती और दादा श्री जिनकुशलसूरिजी को नमस्कार कर सुपात्रदान के अधिकार में उत्तमकुमार चरित्र रचना प्रस्ताव रखते हुए कवि श्रोताओं से बातचीत और कुमति क्लेश त्याग करने का निर्देश कर चरित्र का प्रारम्भ करता है। काशी देश स्थित वाराणसी नगरी का वर्णन करते हुए कवि लिखता है कि उस अलकापुरी के समकक्ष नगरी में ऊँची अट्टालिकाएँ, चारों ओर दुर्ग, चौरासी चौहटे और दण्ड-कलश युक्त जिनालय हैं जिन पर ध्वजाएँ फहराती हैं। इस नगरी के पुरुष देव और स्त्रियाँ अप्सरा तुल्य हैं। जल से लबालब भरे हुए सरोवरों में हंस आदि पक्षी कल्लोल करते है, फल फूलों से लदे हुए वृक्ष बारहों मास हरे भरे रहते हैं, टहूका करती हुई कोयल एवं अन्य पक्षी गण निर्भीक निवास करते हैं। इस नगरी का राजा मकरध्वज शूरवीर और दयालु था। राजा का वास्तविक गुण क्षमा ही है, यह बतलाने के लिए कवि ने निम्नोक्त दोहा उद्धत किया है : "उदै अटक्कै भूप नहीं, पहिरस्यां नांही रूप । खूद खमै सो राजवी, निरख सहै सो रूप ॥" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] - राजा की राणी लक्ष्मीवती पतिव्रता और चौसठ कलाओं में प्रवीण धर्मिष्ठा सुन्दरी थी। सांसारिक सुख उपभोग करते हुए रानी के गर्भ में शुभ स्वप्न सूचित पुत्र आकर अवतीर्ण हुआ। गर्भकाल पूर्ण होने पर रानी ने सुन्दर पुत्र को जन्म देकर इस दृष्टान्त को चरितार्थ कर दिया कि दीपक से दीपक प्रकट होता है। राजा ने बड़े उत्साह से पुत्र जन्मोत्सव किया घर घर में तोरण लगाये गए, दान दिया गया। दसोटन करने के बाद उत्तम लक्षण वाले पुत्र का नाम उत्तमकुमार रखा गया। उत्तमकुमार चन्द्रकला की भांति धाय माताओं द्वारा पालित पोषित होकर क्रमशः आठ वर्ष का हुआ। राजा ने उसे पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजा। थोड़े दिनों में वह सारे छात्रों से आगे बढ़ कर समस्त कला कौशल में निष्णात हो गया। कुमार बड़ा सदाचारी था, वह सत्यवादी, नोतिवान और दयालु था। वह चोरी, परदारागमन आदि सभी दुर्व्यसनों से विरत, धीर, वीर, गम्भीर दीन दुखियों का उपकारी होने के साथ-साथ अपने इष्ट-मित्रों के साथ खेल कूद में मस्त रहता था। एक दिन रात में सोये हुए कुमार के मन में विचार आया कि मैं अब तरुण हो गया। इस अवस्था में हाथ पर हाथ धर घर में बैठे रहना कायर का काम है। कहा भी है कि गुण भमतां गुणवंत नै, बैठां अवगुण जोय वनिता नै फिरिवौ बुरौ, जो सुकुलीणी होय । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ अतः मुझे पिता द्वारा उपार्जित लक्ष्मी का उपभोग न कर भ्रमण के हेतु निकल पड़ना चाहिये । वह देशाटन की उमंग में स्वजनों की चिन्ता छोड़कर हाथ में तलवार लेकर अपने भाग्य परीक्षा के हेतु प्रवास में निकल पड़ा । वह कितने ही जंगल, पहाड़ और नदियों को पार करता हुआ कौतुकवश धूप और लू की गर्मी में सुख-दुख सहन करता हुआ आगे बढ़ता ही गया। उसे कहीं तो भयानक अटवी मिलती तो कहीं हरे भरे वृक्ष और लहराते हुए सुन्दर सरोवर जहाँ कमलों की सौरभ मस्तिष्क को ताजा बना देती । अनुक्रम से अनेक ग्राम नगरों को उल्लंघन करता हुआ उत्तमकुमार मेवाड़ देश की राजधानी चित्तौड़ जा पहुँचा । यहाँ का राजा महासेन प्रबल प्रतापी और समृद्धिशाली होने के साथ साथ धर्मात्मा भी था । सब प्रकार से सुखी होने पर भी राजा सन्तान सुख से वंछित था । दैव की गति विचित्र है, कवि कहता है कि " सुखिया देखि सकै नहीं, दोषी दैव अकज्ज संपति तो सुत नहीं, इण परि करें निलज इक अवनीपति सुतबिना, वलि वैस्यां में वास नदी किनारे रूखड़ा, जद तद होइ विणास " राजा ने सन्तानोत्पत्ति के लिए पर्याप्त उपाय किये पर वह असफल रहा। एक दिन वह वन में घूमने के लिए सपरिवार मन्त्री आदि को साथ लेकर निकला । राजा नीले घोड़े पर आरूढ़ था, उसने गुण लक्षण सम्पन्न घोड़े की बार-बार गति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ ] भंग होते देख कर मंत्री से पूछा-इस घोड़े की किशोर वय में यह दशा क्यों ? राजा के बार बार पूछने पर भी मंत्री आदि कोइ भी जब उसकी जिज्ञासा का समुचित उत्तर न दे सका तो राजा को कष्ट होते देख उत्तमकुमार ने आकर कहा-प्रभो! मैं परदेशी हूं, पर अपनी मति के अनुसार बतलाता हूं कि इसने भैंस का दूध बहुत पिया है, वह वायुकारक होता है इसी से इसकी गति में चंचलता नहीं है । राजा ने कहा-वत्स! तुम बड़े ज्ञानी हो, तुमने कैसे जाना ? वस्तुतः यह अश्व बाल्यकाल में मातृविहीन हो गया तब इसका ऊपरी दूध से ही पालन पोषण हुआ था। उत्तमकुमार के अश्वपरीक्षा-ज्ञान से प्रभावित होकर राजा ने कहा-बेटा ! इतने दिन मैं निःसन्तान था अब तुम भाग्यवश आ मिले तो यह सब राज पाट सम्भालो, लक्षणों से तुम राजकुमार ही लगते हो। अतः निःसंकोच राज्य भार ग्रहण करो। मैं ज्ञानी गुरु के पास दीक्षित होकर आत्म-साधन करूंगा। उत्तमकुमार ने कहा-अभी तो मैं प्रवास में हूँ, लौटते समय आपके चरणों में उपस्थित होऊँगा। उत्तमकुमार चित्तौड़ से अकेला चल पड़ा और कुछ दिनों में मरुच्छ ( भरौंच ) जा पहुँचा। दर्शनीय स्थानों का अवलोकन करते हुए वह मुनिसुव्रत भगवान के मन्दिर में पहुँचा और पूजा स्तुति द्वारा अपना जन्म सफल किया। फिर सरोवर के तट पर जाकर बैठा तो पनिहारिन लोगों से सुना कि कुबेरदत्त व्यवहारी पांचसौ प्रवहण भर के आज ही समुद्र यात्रार्थ रवाने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] हो रहा है। कौतुकी उत्तमकुमार भी सांयात्रिक की अनुमति लेकर प्रवहण पर आरूढ़ हो गया। शुभ मुहूर्त में प्रवहण चल पड़े, कुछ दिनों में पीने का पानी समाप्त हो जाने से जल-संग्रह करने के लिए शून्य द्वीप में जहाज रोके गए। सब लोग जब पानी की खोज में उतरे तो भ्रमरकेतु नामक राक्षस अपने साठ हजार साथियों के साथ आकर लोगों को पकड़ कर तंग करने लगा। साहसी उत्तमकुमार तुरन्त द्वीप में उतर आया और ललकार कर अकेला ही राक्षस सेना के साथ युद्ध करने लगा। उसने जिस वीरता के साथ युद्ध किया, भ्रमरकेतु कायरतापूर्वक भग गया और उसकी सेना तितिर-बितिर हो गई। राक्षस को जीतकर उसने समुद्र तट पर जाकर देखा तो सारे जहाज रवाना हो चुके थे। कुमार ने सोचा-'लोग कितने स्वार्थी और कृतघ्न होते हैं ? दूसरे ही क्षण मन में विचार आया कि विचारे भयाकुल होकर भग गए, इसमें उनका कोई दोष नहीं, मेरे पूर्व जन्म के पापों का उदय है । इसके बाद उसने एक वृक्ष पर ध्वजा बांध दी जिससे किसी यात्री-जहाज को दूर से उसकी उपस्थिति मालूम हो जाय। वह भगवान के भजन करता हुआ फलाहार से अपना निर्वाह करने लगा। __एक दिन द्वीप की अधिष्ठातृ देवी ने कुमार के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उससे बहुत ही अनुनय पूर्वक प्रेम याचना की। कुमार ने कहा-माता तुम देवी हो! मैं परनारी सहोदर हूँ ! मेरे से तुम्हारा किसी भी प्रकार कार्य सिद्ध नहीं होगा। अतः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] नरक परिणामी अनुचित अध्यवसायों को त्याग दो! देवी ने आज्ञा न मानने पर उसे तलवार द्वारा मार डालने की धमकी दी। परन्तु कुमार को अपने निश्चय पर अटल देखकर संतुष्ट चित्त से देवी ने कुमार के शील गुण की स्तवना करते हुए बारह कोटि रत्न वृष्टि की। इसके बाद समुद्र में जाते हुए जहाज देखकर कुमार ने जहाज रोकने के लिए पुकारा। लहकती हुई ध्वजा के संकेत से समुद्रदत्त जहाजों को किनारे लगाकर कुमार से मिला और सारा वृतान्त ज्ञातकर उसे अपने जहाज में बैठा लिया। कुछ दिन में जल समाप्त हो जाने से व्याकुल होकर सभी यात्रियों ने शास्त्रज्ञ निर्यामक से जल प्राप्ति का उपाय पूछा। उसने कहा-थोड़े समय में वेल उतरने पर स्फटिक रत्नमय पर्वत प्रगट होगा जिस पर सुस्वादु जल का कुंआ है। पर वहाँ भ्रमरकेतु नामक अति क्रूर और मांसभोजी राक्षस रहता है। समुद्रदेवता के समक्ष उसने प्रतिज्ञा कर रखी है कि प्रवहण पर आरूढ़ यात्री को वह नहीं मारेगा। इस प्रकार बातें चल रही थी कि इतने में पर्वत प्रगट हो गया। सामने कुँआँ दीखने पर भी भय के वशीभूत होकर कोई नीचे नहीं उतरा । कुमार ने सबको साहस बन्धाकर जल लाने के लिए प्रेरित किया और सब की सुरक्षा का उत्तरदायित्व अपने पर ले लिया। लोगों ने रस्सी बांध कर जलपात्रों को कुए में डाला पर कुँआ जल से भरा हुआ होने पर भी किसी को एक बून्द पानी नहीं मिला। जब राक्षस के भय से कोई कुए में उतरकर जलोद्घाटन के लिए प्रस्तुत नहीं हुआ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] तो लोकोपकार के हेतु कुमार स्वयं रज्जु के सहारे कुंए में प्रविष्ट हो गया। उसने देखा कि सोने की जाली से समूचा जल आच्छादित है तो तारों को इधर-उधर करके जल निकालना सुगम कर दिया। उसने लोगों को जल भरने के लिए कहा तो सब लोग कुमार के सद्गुणों की प्रशंसा करते हुए जल भरने लगे। कुमार अपने परोपकारी कृत्य के लिए आत्म-सन्तोष अनुभव करने लगा। ___कुमार ने कुए में कंचनमय सोपान-पंक्ति देखी, वह कौतुकवश उसी मार्ग से आगे बढ़ा और एक भव्य प्रासाद के पास जा पहुँचा जिसके आंगन में रत्न जड़े हुए थे उसकी प्रथम भूमि स्वर्णमण्डित थी दूसरी भूमि में मणिमाणिक और तीसरी में मोती चमक रहे थे इसी प्रकार समृद्धिपूर्ण वह सतमंजिला मकान था। जब कुमार तीसरी भूमि में पहुंचा तो उसने एक वृद्धा को बैठे देखा । वृद्धा ने कुमार को देखते ही कहा-अरे मूर्ख ! तुम यहाँ भ्रमरकेतु राक्षस के घर अकाल मौत मरने के लिए क्यों आये हो ? कुमार ने राक्षस को अपने से पराजित बताते हुए वृद्धा से परिचय व प्रासाद का रहस्य पूछा, तो उसने कहा-यहाँ से राक्षसद्वीप निकट ही है और वहाँ लंकापति भ्रमरकेतु राज्य करता है। उसे अपनी पुत्री 'मदालसा' अत्यन्त प्रिय है जो अद्वितीय सुन्दरी और गुणवती है। एक दिन भ्रमरकेतु ने अपनी पुत्री के विवाह के सम्बन्ध में नैमित्तिक से पूछा तो उसने कहा-इसका पति वह राजकुमार होगा जो तीन खण्ड का अधिपति होगा। नैमित्तिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की बात से भ्रमरकेतु यह ज्ञातकर चिन्तित हुआ कि देवकुमर के योग्य मेरी पुत्री को मानव क्यों ब्याहेगा ? उसने तत्काल इस सुरक्षित कूपद्वार वाले प्रासाद में कुमारी मदालसा को मेरे संरक्षण में रख दिया ताकि उससे कोई भी मनुष्य ब्याह न कर सके। __ भ्रमरकेतु ने अभी फिर दूसरे ज्योतिषी से मदालसा के ब्याह के सम्बन्ध में प्रश्न किया तो उसने भी उपर्युक्त बात कही। जब प्रतीति के लिए राक्षसेन्द्र ने उसे पूछा तो वह कहने लगासांयात्रिक जन को मारने के लिए जाने पर द्वीप में उस अकेले ने तुम्हें जीता है। यह सुनकर भ्रमरकेतु सदलबल उसे मारने की प्रतिज्ञा कर यहाँ से गया है पर आज एक महीना हो गया, कोई खबर नहीं मिली ? वृद्धा से उपर्युक्त वृतान्त सुनकर कुमार सोचने लगा-वह लाख प्रतिज्ञा करे, मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, मैं उसे पराजित करके आया हूं, मेरे सामने उसकी क्या विसात है। इतने ही में मदालसा वहाँ आ पहुँची। वे दोनों परस्पर एक दूसरे के सौन्दर्य को देखते ही मुग्ध हो गए। मदालसा ने ऊपर जाकर वृद्धा को अपने पास तुरन्त बुलाया और पूछा कि तुम्हारे पास शुभलक्षण वाला पुरुष कौन खड़ा था ? वृद्धा ने जब दोनों का परस्पर प्रेम जाना तो उनका गन्धर्व विवाह करा दिया और मणिरत्नादि विविध वस्तुएँ देते हुए वृद्धा ने उन्हें आशीर्वाद दिया। मदालसा के साथ उत्तमकुमार ने घूम-फिरकर बाग-बगीचे, जलाशय आदि देखे व सुखपूर्वक रहने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ] लगा। मदालसा भी जैन धर्मपरायण और सुशील थी। कवि ने मदालसा के अप्रतिम सौन्दर्य का वर्णन १२वीं ढाल में किया है ( देखो पृ० १३५ ) धर्मिष्टा नारी के वर्णन में कवि ने निम्न कवित्त कहा है :नारी मिरगानयन, रंगरेखा, रस राती; वदे सुकोमल वयण महा भर यौवनमाती । सारद वचन स्वरूप, सकल सिणगारे सोहै, अपछर जेम अनूप मुलकि मानव मन मोहै । कलोल केलि बहु विध करै, भूरिगुणे पूरण भरी, चन्द्र कहै जिणधरम विण कामिणी ते किण कामरी। कवि विनयचन्द्र ने यहां प्रथम प्रकाश को १४ ढालों में पूर्ण करते लिखा है कि अपने ज्ञानवृद्धि के हेतु मैंने यह प्रथम अभ्यास किया है। ___ सिद्ध पद का स्मरण और आत्मतत्व के विचारपूर्वक कवि द्वितीय प्रकाश प्रारम्भ करता है। उत्तमकुमार ने बैरी के स्थान में अधिक रहना अनुचित जान कर मदालसा से विदेश गमनार्थ सीख मांगी। उसने कहा-प्रियतम! मैं तो छाया की भांति तुम्हारे साथ रहूंगी और यहाँ मेरे रहने का कोई प्रयोजनभी तो नहीं है। कुमारी ने अपने पाँच रत्न और वृद्धा को साथ लिये और एकमत से तीनों कूप में आ गए । समुद्रदत्त के आदमी उस समय जल निकाल रहे थे तो रस्सी के सहारे तीनों व्यक्ति बाहर निकल आये। लोगों ने कुमार के मुख से सारा वृतान्त ज्ञात कर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की और सब लोग प्रवहणारूढ़ होकर रवाना हो गए। ____ कुछ दिन बाद फिर जहाजों का पानी समाप्त हो गया। जल के बिना लोगों को दुखी देखकर मदालसा ने लोगों का उपकार करने के लिए पतिसे प्रार्थना की । उत्तमकुमार ने कहाजल बिना सबके ओष्ट सूख रहे हैं, क्या उपाय किया जाय ? यदि तुम कुछ कर सको तो सबका दुःख दूर हो। मदालसा ने अपने आभूषणां का करण्डिया खोलकर उसमें से पांच रत्न निकलवाये और उनके गुण बतलाते हुए कहा-प्रियतम ! ये पांच रत्न देवाधिष्ठित हैं, इनसे स्वर्णथाल, प्याला, चरी आदि भरे हुए भोजन, मणि रत्नादि के आभूषण, शयनासन, मूंग गेहूँ आदि धान्य तथा अग्नि रत्न से मिष्टान्न सुस्वादु व्यंजन प्राप्त होते हैं । गगन-रत्न से वस्त्र, वात-रत्न से अनुकूल वायु एवं नीररत्न को आकाश में रखकर पूजा करने से बांछित जल वृष्टि होती है। कुमार अपनी धर्मात्मा पत्नी के गुणों से प्रसन्न हो नीर-रत्न को स्तम्भपर बाँध कर बड़े समारोहसे पूजा की जिससे मेघवृष्टि हुई और लोगों ने अपने समस्त जलपात्र भर लिए। फिर मार्ग में धनधान्य की आवश्यकता पड़ने पर कुमार ने दूसरे रत्नों के प्रभाव से विविध उपकार किये। सब लोग अपने उपकारी उत्तमकुमार का बड़ा आदर करने लगे। समुद्रदत्त ने जब से मदालसा को देखा, वह उस पर मुग्ध होकर उसे प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के घात सोचने लगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० ] : समुद्रदत्त ने उत्तमकुमार के प्रति बड़ी आत्मीयता प्रकट की और उसके साथ इतनी घनिष्ठता पैदा कर ली कि दोनों का अधिकांश समय एक साथ ही व्यतीत होता था। मदालसा ने चतावनी देते हुए कहा-प्रियतम ! यह सेठ ऊपर से मधुरभाषी पर अन्तर में बड़ा कलुषित और कपटी है। आप इसका तनिक भी विश्वास न करें, कहीं यह धोखा दे देगा। यतः मोर मधुर स्वर करि नै बोले, रंग-सुरंगो होइ। पूंछ सहित विषधर ने खायै, इण दृष्टान्ते जोइ । यह मुझे हरण करने के लिए तुम्हारे से प्रेम दिखाता है है क्योंकि 'दाढ गले सहुनी गुल दीठां, तेहवो नारि शरीर' अतः आप सावधान रहें। काले मस्तक का मानव बड़ा कपटी होता है कवि ने मदालसा के मुख से एक राजकुमार का दृष्टान्त कहलाया है जो अश्वारूढ होकर वन में गया। वनदेव ने बानर का रूप करके राजकुमार को वृक्ष पर आश्रय दिया और रात्रिमें सिंह के उपस्थित होने पर जब उससे राजकुमार को मांगा तो उसने नहीं दिया पर जब बानर राजकुमार के गोद में सो गया तो सिंह की मांग पर अपने अश्व की रक्षा के बदले बानर को वृक्ष से नीचे फेंक दिया। कवि ने इतनी कथा लिखकर आगे का चार श्लोकों आदि का कथा प्रसंग व्याख्याता को मौखिक विवेचन करने की सूचना दी है। मदालसा ने कहा प्रियतम ! सावधान रहें ताकि भविष्य में पश्चाताप न हो। सौजन्यमूर्ति उत्तमकुमार ने कहा-सेठ धर्मात्मा है ! चन्द्र से अग्नि कैसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] निकल सकती है ? कह कर पत्नी के वचनों पर ध्यान नहीं दिया । एक दिन समुद्र में जल कान्तिमय पर्वत आदि कौतुक दिखाने के बहाने अवसर पाकर समुद्रदत्त ने कुमार को समुद्र में गिरा दिया। उसे समुद्र में गिरते ही एक बड़े मच्छ ने निगल 'लिया और गहरे जल में चला गया। फिर समुद्र - तरंगों के साथ कुमार के पुण्य से वह मच्छ समुद्र तट जा पहुँचा जिसे धीवर ने जाल में पकड़ लिया । जब मच्छ का उदर चीरा गया तो उत्तमकुमार बिना किसी कष्ट से उसमें से निकल गया । धीवर लोगों ने कुमार को अपना स्वामी स्थापन कर दिया और वह उनकी वस्ती में फलाहार द्वारा अपना जीवन निर्वाह करने लगा | इधर उत्तमकुमार को समुद्र में गिराकर सेठ कपट - विलाप करने लगा। जब मदालसा ने कोलाहल में कुमार के समुद्रपतन का सुना तो वह समुद्रदत्त के इस अकृत्य को ज्ञात कर नाना विलाप करते हुए अपना धैर्य खो बैठी । वृद्धा ने उसे आत्मघात महापाप बतलाते हुए हंस हंसी का दृष्टान्त देकर शान्त किया । निर्लज्ज समुद्रदत्त मदालसा को सान्त्वना देने के बहाने आया और उसकी प्रशंसा करते हुए भावी प्रबल बता कर अन्त में उसे अपनी गृहिणी बन जाने की प्रार्थना की । मदालसा ने शील रक्षा के हेतु छल का आश्रय लेकर उसे कहा कि कुछ दिन ठहरिये, मेरे पति को दस दिन हो जाने दीजिये फिर किसी नगर में जाकर राजा के समक्ष आपका कथन स्वीकार कर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ ] लूंगी। सेठ भी मदालसा के इन वचनों से संतुष्ट हो गया। वृद्धा ने मदालसा के चातुर्य की प्रशंसा की। सेठ के जहाज जब उल्टे मार्ग चलने लगे तो मदालसा ने पवन-रत्न की पूजा की जिससे अनुकूल वायु द्वारा जहाज मोटपल्ली वेलाकुल के तट पर आ लगे। यहाँ का राजा नरवर्म बड़ा धर्मात्मा और न्यायप्रिय था। मदालसा को लेकर सेठ राजसभा में पहुँचा और राजा को भेंट पुरष्कार से प्रसन्न करके निवेदन करने लगा-राजन् ! मुझे यह महिला चन्द्रद्वीप में मिली है, इसका पति समुद्र में गिर कर मर मया यह पवित्र है और आपकी आज्ञा से मेरी गृहिणी बनेगी। मदालसा ने कहा-मूर्ख ! क्यों मिथ्या अंट संट बकता है, अगर राजा न्याय करे तो तुम्हारे दाँत तोड़ दे। उसने फिर राजा को सम्बोधन कर कहा-महाराज ! इस पापी ने मेरे पति को समुद्र में गिरा दिया है, मैंने अपनी शील रक्षा के हेतु इसे भुला कर आपके सामने उपस्थित किया है अब आप जैसे महापुरुष अन्याय नहीं करेंगे क्योंकि वैसा होने से मेरु पर्वत कम्पायमान हो जाय एवं पृथ्वी पाताल को चली जाय । अतः दुष्ट को यथोचित शिक्षा दें। राजा ने क्रुद्ध होकर समुद्रदत्त के पांचसौ जहाज जब्त कर लिये और मदालसा से कहा-बेटी ! तुम मेरी पुत्री त्रिलोचना के पास उसकी बहिन की तरह आराम से रहो। चिन्ता छोड़कर दान पुण्य करती रहो। यदि किसी तट पर तुम्हारा पति पहुँचेगा तो उसका अनुसंधान करवाया जायगा। मदालसा को राजा ने धर्मपुत्री करके माना। वह पंच रत्नों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] के प्रभाव से दान पुण्य करती हुई सती स्त्रियोचित नियमों का पालन करती हुई काल निर्गमन करने लगी। उसने स्नान, शृंगारादि का त्याग कर दिया और प्रतिदिन नीरस आहार का एकाशना करके भूमि शयन स्वीकार कर लिया। वह पुरुष मात्र की ओर नजर उठाकर भी नहीं देखती एवं निरन्तर नवकार मन्त्र का स्मरण किया करती थी। एक दिन धीवर लोगों के साथ उत्तमकुमार भी मोटपल्ली आया और नगरी का अवलोकन करता हुआ जहाँ राजा नरवर्मा अपनी पुत्री के लिए प्रासाद बनवा रहा था, वहाँ आकर देखने लगा। कुमार वास्तुशास्त्र में निष्णात था, उसने स्थान-स्थान पर सूत्रधारों से वास्तु-दोष सुधारने के लिए निराभिमानता से उचित परामर्श दिये जिससे प्रसन्न होकर सूत्रधारों ने कुमार को अपने पास रख लिया। कुमार के सान्निध्य से थोड़े दिनों में वह सुन्दर प्रासाद बन कर तैयार हो गया। एक बार राजा नरवर्मा प्रासाद निरीक्षणार्थ आये, वे उत्तमकुमार को उच्चासन पर बैठे देखकर सोचने लगे कि यह रूप और गुण से राजकुमार मालूम होता है। उन्होंने कुमार से परिचय पूछा तो उसने कहा-राजन् ! मैं परदेशी हूं और आपके नगर में निवास करता हूं। राजा महल देखकर चला गया । वसंत ऋतु थी वन-वाटिका की शोभा अवर्णनीय थी, कवि ने ढाल १३वीं में वसन्त ऋतु का अच्छा वर्णन किया है। राजकुमारी भी क्रीड़ा के हेतु बगीचे में आई, उसे साँप डस गया। सर्वत्र हाहाकार छा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ ] गया। कुमारी के विष व्याप्त शरीर को राजमहल में लाकर विषापहार के हेतु गारुड़िक लोगों को बुलाया गया। उनके लाख उपाय करने पर भी जब कुमारी निर्विष नहीं हुई तो राजा ने राजकुमारी का विष उतारने वाले को अर्द्धराज्य व कुमारी से पाणिग्रहण कर देने की उद्घोषणा करवा दी। उत्तमकुमार ने पटह स्पर्श किया और उसने मन्त्र विद्या के बल से राजकुमारी त्रिलोचना को सचेत कर दिया। राजा ने अपने वचनानुसार शुभ मूहुर्त में उत्तमकुमार के साथ त्रिलोचना का पाणिग्रहण करा दिया। हस्तमिलाप छुड़ाने के समय राजा ने उसे अर्द्ध राज्य दे दिया। उत्तमकुमार अपनी प्रिया के साथ नवनिर्मित प्रासाद में रहने लगा । यहाँ दूसरा अधिकार समाप्त हो जाता है। - तीसरे अधिकार के प्रारम्भ में कवि भगवान महावीर को नमस्कार कर श्रोताओं को आगे का सम्बन्ध सुनने का निर्देश करता है। मदालसा ने दासी से कहा- प्रियतम का अबतक कोई पता नहीं लगा अतः वे समुद्र में डूब गए मालूम होते हैं । मैं अब किस आशा से जीवित रहूं ? मैंने इतने दिन आंबिल तपश्चर्या की, जिनालय एवं स्वर्ण, रत्नमय प्रतिमाएं बनवाई, त्रिकाल पूजा की। साधु व स्वधर्मियों को दान पुण्य आदि धर्माराधन करते हुए प्रतीक्षा की पर अब तो पांचों रत्न त्रिलोचना बहिन को सम्भला कर संयम-मार्ग स्वीकार कर लेना ही मेरे लिये श्रेयस्कर है । वृद्धा ने कहा-जिस परदेशी ने त्रिलोचना से व्याह किया है, सारे नगर में उसकी प्रशंसा सुनाई देती है, मेरी आत्मा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षी देती है कि वह अवश्य तुम्हारा पति ही होगा। यदि आज्ञा दो तो जाकर प्रतीति कर आऊं ? वह मदालसा की आज्ञा लेकर त्रिलोचना के घर गई और त्रिलोचना के भाग्य की प्रशंसा करते हुए उसके प्रियतम को देखने की इच्छा प्रकट की। त्रिलोचना ने कहा मेरे प्राणाधार महल में सोये हुए हैं, जाकर देख आओ। वृद्धा ने उत्तमकुमार को पलंग पर सोये हुए देखा और मदालसा से आकर कहा-मुझे तो तुम्हारे पति जैसा ही लगता है। यह सुनकर मदालसा के हृदय में प्रेम जगा और उससे मिलने को उत्सुक हुई। फिर दूसरे ही क्षण बिना प्रतीति किये परपुरुष के प्रति आकृष्ट होनेवाले पापी मन को धिक्कारा । इधर उत्तमकुमार ने वृद्धा को देख कर जाते हुए देखा तो त्रिलोचना से पूछा कि अभी महल में कौन आई थी, मुझे पता नहीं लगा। त्रिलोचना ने कहा-मेरे से भी सौन्दर्य व गुणों में उत्कृष्ट एक परदेशिन यहाँ आई है जिसे मैंने बहिन करके माना है वह एकान्त में रहकर धर्म ध्यान करती है परोपकारिणी तो वह अद्वितीय है उसके पास दिखता तो कुछ नहीं पर न जाने उसके पास क्या सिद्धि है दान पुण्य में अपार धनराशि व्यय कर रही है। पति के वियोग में उसने शरीर एकदम सुखाकर कृश कर लिया है। यह वृद्धा जो आपको देख गई उसी की सखी है। कुमार ने जब यह वृतान्त सुना तो उसे अपनी प्रियतमा मदालसा का ख्याल आया और उससे मिलने को उत्सुक हुआ। फिर दूसरे ही क्षण सोचा--उसे न जाने पापी समुद्रदत्त ने कहाँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] लेजाकर किस विपत्ति में डाला होगा। व्यर्थ ही परस्त्री पर मोह उत्पन्न होने का पश्चाताप करता हुआ मध्यान्हकाल मैं जिनपूजा के हेतु कुसुम, चन्दन आदि लेकर जिनालय में गया। बहुत विलम्ब हो जाने पर भी जब कुमार वापस नहीं लौटा तो त्रिलोचना ने चिन्तित होकर दासी को भेजा। खबर मिली कि उसे न तो किसी ने जाते देखा और न आते ही। त्रिलोचना पति-वियोग से दुखी होकर विलाप करने लगी। सर्वत्र खोज कराई गई पर कुमार का कोई पता नहीं लगा। __ इसी नगरी में महेश्वरदत्त नामक वणिक रहता था जिसके ५६ कोटि स्वर्ण-मुद्राएं निधान में, ५६ कोटि उधार में, एवं ५६ कोटि मुद्राएं व्यापार में थी। उसके ५०० जहाज, ५०० गोकुल, ५०० हाथी, ५०० घोड़े, ५०० पालकी, ५०० कोठे, ५०० सुभट व पांच लाख सेवक थे। उसके कोई उत्तराधिकारी पुत्र नहीं था, सहस्रकला नामक एक मात्र गुणवती कन्या थी जिसके लिए योग्य वर प्राप्त होने पर पाणिग्रहण करवा के स्वयं दीक्षित होने की सेठ महेश्वरदत्त की चिर-कामना थी। उसने अपनी ६४ कला निधान पुत्री को तरुण वय प्राप्त हो जाने पर भी जब योग्य वर न मिला तो एक नैमित्तिक से अपने भावी जामाता के विषय में प्रश्न किया। नैमित्तिक ने कहा-जो व्यक्ति राज सभा में त्रिलोचना के पति और मदालसा का पूरा वृत्तान्त कहेगा, वही तुम्हारी पुत्री का वर होगा और आज से एक महीने बाद वह मिलेगा। वही अखण्ड प्रतापी सारे राज्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ ] का अधिपति होगा! ज्योतिषी के विवाह लग्न देने पर सेठ ने स्वजन सम्बन्धियों को निमन्त्रित कर विवाहमण्डप की रचना की एवं नाना प्रकार की विवाह सामग्री का संचय बड़े जोर-सोर से करना प्रारम्भ कर दिया। नगर में वर के बिना व्याह मंडने की बड़ी भारी चर्चा चल रही थी। राजा ने जब यह बात सुनी तो उसने सेठ महेश्वरदत्त की वैराग्य-भावना की बड़ी प्रशंसा की और वह भी त्रिलोचना के पति की खोजकर उसे राजपाट देकर दीक्षा लेने का प्रबल मनोरथ करने लगा। राजा ने सर्वत्र उद्घोषणा करवा दी कि जो त्रिलोचना के पति व मदालसा का वृत्तान्त प्रकाशित करेगा उसे राज्याधिपति बनाने के साथ-साथ माहेश्वरदत्त की पुत्री सहस्रकला के साथ विवाह करा दिया जायगा। एक मास बीतने पर एक शुक ने आकर पटह स्पर्श किया और मानव भाषा में बोलकर कहा मुझे राजसभा में ले जाओ मैं राजा के जमाता और मदालसा का सारा वृत्तान्त बताकर राजा का राज्य व सहस्रकला को प्राप्त करूँगा। सब लोग उसे कौतुकपूर्वक राजसभा में ले आए। शुक ने मनुष्य की भाषा में कहा-परदे के अन्दर त्रिलोचना और मदालसा को बुलाकर उपस्थित कीजिए ताकि मैं सारा आख्यान कह सुनाऊँ। राजा ने कहा-तुम ज्ञान के बिना त्रियंच किस प्रकार सारी बातें जानते हो ? शुक ने कहा- मैं त्रिकालज्ञ हूं, भूत भविष्य की सारी बातें बतलाने में समर्थ हूं।" फिर शुक ने राजा और समस्त नागरिक लोगों के समक्ष अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८ ] • वाराणसी के राजा मकरध्वज का पुत्र उत्तमकुमार भाग्य परीक्षा के लिए घर से निकलकर देशाटन करता हुआ भरुअछ आया और मुग्धद्वीप देखने के लिए जहाज में बैठकर समुद्र के बोच पहुँचा। वहाँ जलकान्त पर्वत स्थित भ्रमरकेतु राक्षस कारित कुएं में साहस पूर्वक उतर कर लंकापति की पुत्री मदालसा से उसने पाणिग्रहण किया। फिर अपनी स्त्री के साथ कूप-मार्ग से बाहर आकर समुद्रदत्त के वाहन में आरूढ़ हुआ। मार्ग में जल शेष हो जाने पर पंचरत्न के प्रभाव से सबको अशन पान से सन्तुष्ट किया। कुमार की संपदा और स्त्री को देखकर पापी सेठ ने उसे समुद्र में गिरा दिया। उसे गिरते ही मकर ने निगल लिया जिसे धींवर ने जाल में पकड़कर उदर विदीर्ण कर कुमार को निकाला। वह एक दिन त्रिलोचना का प्रासाद देखने आया जिसका नव्य निर्माण हो रहा था। उसका राजकुमारी के साथ पाणिग्रहण हुआ और सुखपूर्वक रहने लगा और एक दिन वह जिन पूजा के हेतु घर से निकलकर जिनालय आया पूजनान्तर पुष्प करण्डिका में बंशनलिका को खोल कर देखा तो उसमें रखे हुए जहरी साँप ने कुमार के हाथ में डंक लगा दिया जिससे वह मूर्छित हो धराशायी हो गया। हे राजन् ! मैंने मदालसा और त्रिलोचना के पति का सारा वृत्तान्त बतला दिया अब कृपाकर अपनी सत्य प्रतिज्ञानुसार मेरी आशा पूर्ण करें तथा सेठ से भी सहस्रकला कन्या दिलावें। ऐसा कहकर शुक के मौन धारण करने पर राजा ने उसे आगे बोलने को कहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] तो उसने कहा-आप अपना वचन पूर्ण नहीं करते तो मैं चला जाऊँगा और जंगल में फल-फूल वृत्ति से अपना उदरपूर्ण करूँगा। मैंने यह जान लिया कि मनुष्य मायावी होते हैं और स्वार्थ सिद्ध होने पर तत्क्षण बदल जाते हैं। यह कहकर जब शुक उड़ने लगा तो राजा ने रोक कर कहा-धैर्यधारण करो, राज्य अवश्य दूंगा, पर यह तो बतलाओ उत्तमकुमार कहाँ है ? जीवित है कि नहीं ? मेरी यह शंका दूर करो ! शुक ने कहा-इतनी बात बताने पर भी जब कुछ नहीं मिला तो आगे बालुका को पीलने से क्या तेल निकलेगा ? जब राजा ने राज्य व कन्या देने की स्वीकृति दी तो शुक आगे का वृतान्त बतलाने लगा- 'उसो समय अनंगसेना नामक सुन्दर गणिका वहां पहुंची और उसे विषापहार मणि प्रक्षालित जल द्वारा निर्विष कर दिया और अपने घर ले जाकर चौथी मंजिल के महल में रखा। राजन् ! मैंने दाक्षिण्यवश सारा वृत्तान्त बतला कर मूर्खता की अब यदि आप अपना वचन पूरा नहीं करते तो मैं जाता हूं, आपका कल्याण हो ! राजा ने कहा-अर्द्ध चिकित्सा करके वैद्य नहीं जा सकता अतः अनंगसेना के घर में कुमार को शोध कर लूँ फिर तुम्हें राज दूंगा। .. राजा ने अपने कर्मचारियों को अनंगसेना के घर भेजा। वेश्या से राज-जामाता का अनुसन्धान पूछा तो वह चिन्तित और नीची नजर कर मौन हो गई। जब उत्तमकुमार वेश्या के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] यहाँ न मिला तो राजा ने सचिन्त होकर शुकराज से ही प्रार्थना की कि तुम्ही सब स्पष्ट अनुसंधान कहो ! उसने कहा- अनंगसेना ने देखा राज-जामाता को यों घर में रखना मुश्किल है अतः उसे सर्वदा अपने यहां रखने के लिये उसके पैर में मंत्रित डोरा बाँधकर शुक बना दिया। उसने शुक को स्वर्ण पिंजड़े में रखा। वह रात में उसे पुरुष और दिन में शुक बना देती है एवं गीतगान आदि से उसका मनोरंजन करती है। कुमार ने मन में सोचा-कर्मगति बड़ी विचित्र है! मैंने ऐसा क्या पाप किया जिससे मनुष्य भव में त्रियंच गति भोगनी पड़ती है। शायद मदालसा और पांचरत्न उसके पिता की आज्ञा बिना ग्रहण करने का तथा वृद्धा के आने पर त्रिलोचना से उसकी सखी पर स्वस्त्री जानकर क्षणिक मानसिक पाप किया तो उसी के फलस्वरूप साँप न डस गया हो ? कवि कहता है कि उत्तम पुरुष अपने थोड़े से अपराध को भी विशेष मानते हैं। . अनंगसेना के यहाँ रहते उसे एक मास हो गया आज वह दैवयोग से पिंजड़ा खुला छोड़कर किसी काम में लग गई। शुक ने पटहोद्घोषणा सुनकर उसे स्पर्श किया और इस समय वह आपके समक्ष उपस्थित है। राजा ने हर्षित होकर उसके पैर का डोरा खोला तो वह तुरत उत्तमकुमार हो गया। उत्तमकुमार को देखकर सर्वत्र आनन्द छा गया। मदालसा व त्रिलोचना के अपार हर्ष का तो कहना ही क्या ? सेठ माहेश्वरदत्त ने अपनी पुत्री सहस्त्रकला का कुमार के साथ पाणि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१ । ग्रहण कर दिया सारे नगर में आनन्द उत्सव मनाये गये। सुन्दरी गणिका अनंगसेना भी पातिव्रत नियम लेकर कुमार की चौथी स्त्री हो गई। राजा ने मालिन को बुलाकर धमकाया तो उसने समुद्रदत्त व्यवहारी द्वारा पाँचसौ मुद्रा प्राप्त कर लोभवश कुमार को मारने के लिए पुष्प-करंडिका में साँप रखने का दुष्कृत्य स्वीकार कर लिया। राजा ने समुद्रदत्त व मालिन को मृत्युदण्ड दिया पर उदारचेता कुमार ने अपना भाग्य-दोष बताते हुए उन्हें क्षमा करवा दिया। राजा ने समुद्रदत्त का सर्वस्व लूटकर अन्त में देश निकाला दे दिया। - राजा नरवर्मा ने उत्तमकुमार को राजपाट सौंप कर सेठ महेश्वरदत्त के साथ सद्गुरु के चरणों में जाकर संयम-मार्ग स्वीकार कर लिया और शुद्ध चारित्र पालन कर कर्मों का क्षय किया। अन्त में केवलज्ञान पाकर मोक्षगामी हुए। जब राक्षसेन्द्र भ्रमरकेतु ने नैमित्तिक से अपने वैरी का पता पूछा तो उसने कहा, वह तुम्हारी पुत्री को पंच रत्नों सहित व्याह कर ले गया और इस समय मोटपल्ली में है। जब भ्रमरकेतु ने दुर्गम वक्र कूप में पहुंचना असम्भव वतलाया तो उसने कहा कि जब वह अकेला था तब भी तुम उसका पराभव न कर सके तो अब तो वह प्रबल और जामाता भी हो गया। भ्रमरकेतु वैरभाव त्याग कर उत्तमकुमार से मिला और अपनी पुत्री तथा जामाता को आशीर्वाद देते हुए उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। .. एक दिन जब उत्तमकुमार राजसभा में बैठा था तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] वाराणसी से मकरध्वज का पत्र लेकर एक दूत उपस्थित हुआ, जिसमें अत्यन्त प्रेम पूर्वक लिखा था-'बेटा! तुम्हारे जाने के बाद हमने चारों ओर बहुत खोज की पर तुम्हारा कोई पता नहीं लगा। अब तुम शीघ्र आकर हमारा हृदय शीतल करो। मैं अब वृद्ध हो गया अतः तुम राज-पाट सम्भालो ताकि मैं . आत्मकल्याण करूँ। पितृ आज्ञा पाकर उत्तमकुमार का हृदय शीघ्र उनके चरणों में उपस्थित होने को उत्सुक हो गया। उसने मन्त्री लोगों को राज्य भार सौंप कर अपनी चारों स्त्रियों को लेकर सैन्य सहित वाराणसी के प्रति प्रयाण कर दिया। मार्ग में चित्रकूट जाकर राजा महासेन से मिला जिसने पूर्व निश्चयानुसार उत्तमकुमार को राज्याभिषिक्त कर स्वयं संयममार्ग स्वीकार कर लिया। उत्तमकुमार कई देशों में अपनी आज्ञा प्रवर्तित कर सैन्य सहित गोपाचलगिरि की ओर बढ़ा। वहीं के राजा वीरसेन को खबर मिलते ही चार अक्षौहिणी सेना के साथ सीमा पर आ डटा । परस्पर घमासान युद्ध हुआ, कवि ने १०वीं ढाल में युद्ध का अच्छा वर्णन किया है। अन्त में वीरसेन पराजित होकर जीवित पकड़ लिया गया। उसके आधीनता स्वीकार करने पर कुमार ने उसे छोड़ दिया। अपनी पराजय से वैराग्यवासित होकर उसने एक हजार पुरुषों के साथ सुविहित आचार्य युगन्धरसूरि के पास चारित्र ग्रहण कर लिया। थोड़े दिन बाद मार्ग के अभिमानी राजाओं को वशवर्ती कर उत्तमकुमार वाराणसी पहुंचा। उसके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ ] स्वागत में नगर को सजाकर बड़े भारी उत्सव समारोह किये गए। उत्तमकुमार अपने माता पिता की चरणवन्दना कर अत्यन्त प्रमुदित हुआ। अपने पुत्र को इतने बड़े राज्य-विस्तार व चार रानियों सहित समागत देखकर माता-पिता को अपार हर्ष हुआ। राजा मकरध्वज ने कुमार को शुभमुहूर्त में राज्याभिषिक्त कर स्वयं दीक्षा ले ली। अब उत्तमकुमार चार राज्यों का अधीश्वर था। उसके ४० लाख हाथी, ४० लाख घोड़े ४० लाख रथ व चार करोड़ पैदल सेना थी। वह ४० कोटि गामों का अधिपति था। उसने तीर्थयात्रा, जिनबिंब व प्रसादों के निर्माण तथा ग्रंथ भण्डार व स्वधर्मी वात्सल्य में अगणित धनराशि व्यय की। इस प्रकार चार रानियों के साथ सुखपूर्वक राज्य करने लगा। एक दिन केवली मुनिराज के शुभागमन होने पर राजा चरणवन्दनार्थ उपस्थित हुआ। उपदेश सुनकर राजा उत्तमकुमार ने केवली भगवान से पूछा-प्रभो ! मैंने ऐसे क्या पाप-पुण्य किये जिससे इतनी ऋद्धि सम्पत्ति पाने के साथ-साथ समुद्र में गिरा, मच्छ के पेट से निकलकर धीवर के यहाँ रहा एवं गणिका के यहाँ शुक पक्षी के रूप में रहना पड़ा । केवली भगवान ने फरमायापूर्वकृत कर्म का विपाक उदय में आने पर सुख-दुःख भोगना पड़ता है। कर्मों का प्रभाव जानने के लिए केवली भगवान ने राजा को पूर्व जन्म का सम्बन्ध कहा-हिमालय प्रदेश के सुदत्त ग्राम में धनदत्त नामक एक कौटुम्बिक रहता था जिसके चार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ . ] स्त्रियाँ थी, कमेवश उसका सारा धन नष्ट हो गया। एक बार चोरों द्वारा वस्त्र लुटे हुए चार मुनिराज उसके गांव में आये जो ठण्ड के मारे कांप रहे थे। धनदत्त कृपालु था उसने उन्हें वस्त्र दान दिया चारों स्त्रियों ने भी इस दान की बड़ी अनुमोदना की उसी के प्रभाव से तुम्हें चार महाराज्य मिले। एक वार किसी भव में तुमने मुनियों के मलिन शरीर को देखकर मच्छ जैसी दुर्गन्ध बतलाई जिसके कारण तुम्हें मच्छ के पेट में तथा धीवर के घर रहना पड़ा। इस भव से हजारवें भव पूर्व तुमने शुक को पिंजड़े में बन्द किया था उसी कर्मों से तुम्हें शुक होना पड़ा। अनंगसेना ने पूर्वभव में अपनी सखी को शृंगार सजी हुई देखकर वेश्या शब्द से संबोधित किया जिसके कर्मोदय से वह वेश्या हुई। राजा उत्तमकुमार अपना पूर्व भव सुनकर वैराग्यवासित हो गया। उसने अपने पुत्र को राजपाट सौंपकर चारों स्त्रियों के साथ संयम ले लिया। फिर निर्मल चारित्र पालन कर अनशन आराधना पूर्वक चार पल्योपम की आयुवाला देव हुआ। वहीं से महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध बुद्ध होंगे। ___ कवि विनयचन्द्र ने सं० १७५२ में पाटण में चारुचन्द्र मुनि कृत संस्कृत उत्तमकुमार चरित्र के आधार से यह रास-निर्माण किया है। हमारे अभय जैन ग्रन्थालय में इसकी चारुचन्द्र गणि द्वारा स्वयं लिखित प्रति विद्यमान है जिसके अनुसार यह चरित्र बीकानेर में ५७५ श्लोकों में प्रथमाभ्यास रूप में बनाया है कवि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] विनयचन्द्र भी इस रचना को अपना प्रथमाभ्यास सूचित करते हैं । जिनरत्नकोश के अनुसार इसके अतिरिक्त तपागच्छीय जिनकीर्त्ति, सोममण्डन और शुभशील के भी संस्कृत चरित्र उपलब्ध है तथा भाषा में महीचन्द्र ने सं० १५६१ जौनपुर में विजयशील ने सं० १६४१ में, लब्धिविजय ने सं० १७०१ में, कवि जिनहर्ष ने सं० १७४५ पाटण में तथा राजरत्न ने सं० १८५२ में खेड़ा में रास चौपाई बनाये जो सभी उपलब्ध हैं । कविवर विनयचन्द्र के व्यक्तित्व और रचनाओं का थोड़ा विहंगावलोकन पिछले पृष्ठों में कराया जा चुका है। इस ग्रन्थ में अब तक की उपलब्ध कविवर की समस्त रचनाएँ दी जा चुकी हैं। अन्त में कविवर की कृतियों में प्रयुक्त देसियों की सूची देकर इस ग्रन्थ में आये हुए राजस्थानी व गुजराती शब्दों का कोष प्रकाशित किया है। इसमें शब्दों के अर्थ की ओर नहीं, पर भावार्थ की ओर ही लक्ष्य रखा गया है, एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं पर जहाँ जिस भाव में उसे प्रयुक्त किया है उसे समझने में पाठकों को सुगमता हो, यही इसका उद्देश्य है । कविवर की जीवनी के विषय में हम अधिक सामग्री उपलब्ध न कर सके पर जितना भी ज्ञात हुआ, दिया गया है । कविवर के हस्ताक्षर व उनकी रचनाओं की प्रति के अन्तिम पृष्ठ का ब्लाक बनवा कर इस ग्रन्थ में प्रकाशित कर रहे हैं ताकि उनकी व उनके गुरु की अक्षरदेह के दर्शन हो सके। यह पुस्तक जिस रूप में प्रकाशित हो रही है उसका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ ] वास्तविक श्रेय राजस्थानी और जैन साहित्य के यशस्वी विद्वान सादूल राजस्थान रिसर्च इन्स्टीट्यूट के डाइरेक्टर पूज्य श्रो अगरचन्दजी नाहटा, जैन इतिहासरत्न को है जिनकी सतत चेष्टा और प्रेरणा से शताब्दियों से ज्ञानभंडारों में पड़े हुए ग्रन्थ प्रकाश में आ रहे हैं। मेरी समस्त साहित्य प्रवृत्तियों के तो वे ही सर्वेसर्वा हैं अतः आत्मीयजनों के प्रति आभार व्यक्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता। आशा है प्रमाद व उपयोगशून्यतावश रही हुई भूलों को परिमार्जन करके विद्वान पाठकगण अपने सौजन्य का परिचय देंगे। -भंवरलाल नाहटा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क अनुक्रमणिका कृति नाम आदि पद चौबीसी १-ऋषभ जिन स्तवनम् गा० ७ आज जनम सुकियारथउ रे १ २-अजित जिन स्त. गा० ७ साहिब एहवउ सेवियइ २ . ३-संभव जिन स्त० गा० ७ स्वस्तिश्री गर्जित भय वर्जित २ ४-अभिनन्दन जिन स्त० गा० ७ हारे मोरा लाल थिरकर रह्यउ ४ ५-सुमति जिन स्त० गा० ७ सुमति जिनेसर सांभलौ ६-पद्मप्रभु स्त० गा० ७ पद्मप्रभु स्वामी हो माहरी ५ ७-सुपार्श्व जिन स्त० गा० ७ सहजसुरंगा हो चंगा जिनजी ८–चन्द्रप्रभु जिन स्त० गा० ७ चन्द्रप्रभु नइ चन्द्र सरीखी ८ ६-सुविधिजिन स्त. गा० ७ सुविधि जिणंद तुम्हारी ८ १०-शीतल जिन स्त० गा० ७ अरज सफल करि माहरी १० ११-श्रेयांस जिन स्त० । गा० ७ जिनजी हो मानि वचन मुझ० ११ १२-वासुपूज्य स्त० . गा० ७ श्रीवासुपूज्य जिनेसर ताहरी १२ १३-विमल जिन स्त० गा० ७ विमल जिनेसर सुणि अलवेसर १३ १४–अनंत जिन स्त गा० ७ एक सबल मनमें चिंता रहै रे १४ १५-धर्मनाथ स्त० गा० ७ वाल्हा सुणि हो मुझ अरदास १६ १६-शांतिजिन स्त० गा० ७ हारेलाल शांतिजिनेसर १७ १७-~-कुंथुनाथ स्त.. गा० ७ बहुदिवसां थी पामियौ रे . १८ १८-अरनाथ स्त० गा० ७ तुझ गुण पंकति वाड़ी फूली १६ ०१६-मल्लि जिन स्त० गा० ७ मल्लिजिनेसर तुं परमेसर २० २०- मुनिसुव्रत स्त गा० ७ मुनिसुव्रत मनमाहरौजी २२ २१-नमिनाथ स्त० गा० ७ साहिबाजी हो तुं नमिजिनवर २२ २२-नेमिनाथ स्त० .. गा० ७ थाहरी तौ मूरति जिनवर . २४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति नाम २३- पार्श्वनाथ स्त २४ - महावीर स्त० २५ – कलश विहरमान बीसी सीमंधर जिन स्त युगमंधर स्त बाहु जिन स्त सुबाहु जिन स्त सुजात जिन स्त स्वयंप्रभ जिन स्त ऋषभानन स्त० अनंतवीर्य स्त सूरप्रभ जिन स्त विशाल जिन स्त वज्रधर स्त० चन्द्रानन स्त० चन्द्रबाहु स्त भुजंग जिन स्त ईश्वर जिन स्त नेमिप्रभ स्त वीरसेन स्त . महाभद्र स्त० देवयशास्त अजितवीर्य स्त कलश Jain Educationa International [ ४८ ] आदि पद पृष्ठाङ्क गा० ७ जिनवर जलधर उलट्यौ सखि २५ गा० ७ मनमोहन महावीर रे २७ गा० ७ इणिपरि मंइ चौवीसी कीधी २८ गा० ५ श्री सीमन्धर सुन्दर साहिबा गा० ५ बीजा जिनवर वंदियइ गा० ५ बाहुजिनेश्वर वीनवुं रे गा० ५ श्रीसुबाहु जिनवर नमियइ गा० ५ श्रीसुजात जिन पांचमांजी गा० ५ श्री स्वयंप्रभ अतिशय रत्ननिधान गा० ५ ऋषभानन जिनवर वंदी गा० ५ अनन्तवीय जिन आठमो रे तें पामी गा० ५ सूरप्रभु प्रभुता गा० ५ श्री सुविशाल जिणंद गा० ५ रंगरंगीला हो लाल वज्रधर गा० ५ चंद्रानन जिन चंदन शीतल गा० ५ चन्द्रबाहु जिनराज उमाह धरि गा० ६ भुजंगदेव भावइ नमुं ३० ३१ ३२ ३३. ३४ ३५ For Personal and Private Use Only ३५ ३६. ३७ ३८. ३६. ४० ४१ ४२. गा० ५ ईश्वरजिन नमियइ गा० ५ हर्ष हींडोलणइ झूलइ गा० ५ जयउ वीरसेनाभिधो जिनवरो ४५. ४७ गा० ५ साहिब सुणियइ हो सेवक वीनतीजी ४६ गा० ५ तुम्हे तो दूर जइवस्या रे हां गा० ५ अजितवीरज जिन वीसमाजी गा० ५ संप्रति वीस जिनेसर वंदउ ४८ ४६ ४३. ૪૪ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांङ्क [ ४६ ] कृति नाम आदि पद शत्रुञ्जय यात्रा स्त० गा० २१ हारमोरा लाल सिद्धाचल सो० ५० ऋषभजिन स्त० गा० ७ वीनति सुणो रे मांहरा वाल्हा ५४ शत्रुञ्जय आदि स्त० गा० १३ बात किसी तुझनई कहुं ५५ अभिनंदन स्त. गा० ४ पंथीड़ा अंदेसो मिटसै ५७ चंद्रप्रभ स्त. गा० ५ साहिबा हो पूरण शशिहर सारिखो ५८ शांतिनाथ स्त. . गा० ५ सांभलिनिसनेही हो लाल ५६ नेमिनाथ स्त० गा०६ नेमजी हो अरज सुणो रे वाल्हा ५६ नेमिनाथ सोहला गा० ७ नेमिकुंवर वर वोंद 'विराजे २०६ नेमिराजुल बारहमासा गा० १३ आवउ हो इस रिति हितसई ६१ संखेश्वरपार्श्व स्त० गा० ११ श्री संखेसर पासजी रे लो ६४ पाश्वनाथ वृ० स्त० गा० ११ श्रीपास जिनेसर स्वामी पार्श्वनाथ स्त० गा० ७ सुन्दर रूप अनूप गौड़ीपार्श्व स्त० गा० १५ नाम तुमारो सांभली रे पार्श्वनाथ स्त० गा० ३ माई मेरे सांवरी सूरत सू प्यार ७० वाड़ीपार्श्व स्त० गा० ६ लांच्या गिरवर डूंगराजी ७१ चिंतामणिपार्श्व स्त० गा० ७ भलौ बण्यो मुखड़ा नो मटको ७२ चिंतामणि पार्श्व स्त० गा० ५ अरज अरिहंत अवधारियै जी पाश्र्वनाथ गीत गा० ७ तूठा हे पास जिणंद - जिणंद स्वाभाविक पार्श्व स्त० गा० ६ सुणि माहरी अरदास रे नारंगपुर पार्श्व स्त० गा० ७ सुनिजर ताहरी देखिनई रे रहनेमि राजिमति स० गा० १५ शिवादेवीनन्दन चरण वन्दन स्थूलिभद्र समाय गा० ७ सांलि भोली-भामिनी रे स्थूलिभद्र बारहमासा गा० १३ आषाढइ आशा फली ८० जिनचन्द्रसूरि गीत गा० ११ बड़वखती गुरुनित गाजै Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५० ] कृति नाम आदि पद पृष्ठाङ्क ११ अंग सज्झायादि आचारांग सज्झाय गा० ७ पहिलो अंग सुहामणो रे सूयगडांग स० गा० ७ बीजो रे अंग हिवे सहु० स्थानांग सूत्र स. गा० ७ त्रीजउ अंग भलउ कह्यउ रे समवायांग स. गा० ७ चौथौ समवायांग सुणौ ८९ भगवती सूत्र स० गा० ७ पंचम अङ्ग भगवती जाणिये रे ६० ज्ञाता सूत्र स० गा० ७ छठो अङ्ग ते ज्ञाता सूत्र वखाणियह१ उपासकदसांग स० गा० ७ हिवैसातमो अंग ते सांभलो ६३ अन्तगड़दसा स० गा० ७ आठमो अंग अन्तगड़दसाजी ६४ अणुत्तरोववाइ स० गा० ७ नवमो अंग अणुत्तरोववाई ६४ प्रश्नव्याकरण स० गा० ७ दसमउ अंग सुरंग सोहावइ ६५ विपाक सूत्र स० गा० ७ सुणो रे विपाक श्रुत अंग ११ अंग स. गा० ७ अंग इग्यारे में थुण्या ६८ दुर्गति निवारण स० गा० ६ सुगुण सहेजा मेरा आतम ६६ जिन प्रतिमा स्वरूप स० गा० ३६ विपुल विमल अविचल अमल १०० कुगुरु सज्झाय गा० ३१ जैन युक्ति सुं साधना १०४ उत्तमकुमारचरित्र चौपई १०८ से २०८ तक ढालों में प्रयुक्त देसी सूची कठिन शब्दकोष 5 २११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि रमाws धर्मवचन माधक सामाजिनवचनोमहानुनाउयोगिकममा मानवचनोपनी जे सोधिक सुकलn पार मिमिका कारण विधिअयेषलायायापक नामोगिकता 38 अयोधिक निश्या" .श्री मारगयातकलापशनका गजझालनमः। नवरातिलिविस्वाहा gal जनयुक्तिसुसाधना'नागमयुप्रकलानितंत्रविहितलक्ष Aragaran सुविहितलकर्णमूल सिवितानिधारकायदा)यकिरण अनुबंधानिsanaविधांजानिदेउतिरबंधासाशिवाय सरणयुषांचरकरणगुणलीलाविशयसुधनमुत्रारक्रियाधरण सुप्रamanमियाबमयकविरमांतिहा पंचायणहाविद पक्षनिसदिनअधिकय एवाबदगुरुवदीयाशिवायन भाकककपटवरदतsianपदालावीलायरीना Raaaनग्रही। विदितपंचकनावशेषमानवकहि बागमुरेलाला कुरकamsनावरेशंसरणन२१ कवितदि नमानसशेलाला अधिकप्रयोजनोलिसावरगतगुणपामिया रेलालापामवायप्रमाणसाश्राधमयमा२६विकलस कराचारमाचलनअवधिवबंदमुरेलालानितनिर्गपचारशया 1 बावष्टिविस्ताउदिकविविधषकारेशावहमानपर निखरेलालाजेमदनीधारम॥४॥ मनमारगचालतानवि पाइकिलागरेशाचिनविचारिसमावरलालावलिमरकटवागरे Han० अघहासरायोरखदेससुसमाउएन अंतरगतिमानपक " शपबहिरंगवानालालबरमाहेजेधराशकरपरउपमानजाउ 901 असताशआचरावचमतधाविधिद्यायलालरेमविकल्पकाहि नकरात्रहनिषिप्रधावसायीना चाहगिनिस्पायमपूरवप चारलालविणणकलिमानहायोप्रतिपरिहारलाल श्रा सायंकायकराजदरअपविजेमलालशकारिजनलालबना। विवीयुतप्रेमलाल४०॥ श्मसंवरताहिजेरविकारिक हरवन्पलालशाप दालरियामन लागए ना जिलअधिकार अपनाजेनवाश्वतोपरे साजनमुणिमोहिaaहिनविamana निश्चयकरिपोवरायाननयुलिमोरा जपूरविधिशनक किमविपरीतराया।विणपासवउपासर्वदेसपरिणीतरारमा॥ नवेयवषाणेजेकरा कल्पवाचनतामराया साइशनातनीana ३ कल्पतरलिइएमयानित्यक्षिकातरमप्रमाप्रागनिदेइपिंकरे या। जेल्पनेहमऽतिविधाभावपकद्यश्करे॥४॥लिजेन्याल कलस्यमवयस्मापानियम उमरेसमालनी “पीलिराव ढाल : मेरेमनाएनी मायकवाखरेला नाम लैववाविवेक वकिपाका किसंधारेवारांबरमुगति " FINदिक मतदानमारय मारिशस "चंमारधार अशुपसापानम Jain Educationa Inteकविवर के हस्ताक्षरों में कुगुरू स्वाध्याय का खरडाw.jainelibrary.org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि - मरणा।। एसरी गइपारती ॥ स॥ मुजमनमम वेलि किसी चुने दर संघ कर सलवर सनी रे लिए सणादे अधूरी असाल लाइ | सपा का बूढा ऊ ए बाल कि तिते फल तेव्ह फूटस०|| स्वाद अतिविस्साल॥३०॥ ह पारधीदियइ॥सहमदावादम कार कि । सास की एांगनी ॥ ॥ वत्पाङत्यकार॥४०॥ संवत सतर वादन सादर्षा रिति नतमास कि। दसमी दिन३ दिएकामा समनच्या सास॥श्रीतिधर्मसू [रिपाटवी||स||श्री जिनचंद्रसूरी सति। खरतरगहना राखीया। सतसराज गीस६ सणापाठदर्ष विधानसी |स ज्ञान तिलकखए साथ कि।दिनयवं इकदम करी ॥ संग इग्यार सिक्षाय ॥७॥सण इतिश्रीएकादशांगानास्वाध्यायः ॥ संव कमन गरे । उपाध्याय श्रीहर्ष विधान ही शिष्ट ष्पणी। हरमाला पवना ।। श्रीरस्तमः। श्रुतं। त्य६६वर्षे मिती देशास दि१४ दिने। श्री दि पंपजन तिलक लिषत साधीकीर्तिमाला लव्त्रः कल्याणमस्तः ॥ श्रेया सिप्रवर्ततां ॥ कविवर के गुरु उ० ज्ञानतिलक लिखित कवि विनयचन्द्रकृति संग्रह प्रति का अन्तिम पत्र བཙ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि चतुर्विंशतिका ॥ श्रीऋषभ जिन स्तवनम् ॥ ढाल-महिंदी रंग लागौ आज जनम सुकियारथउ रे, भेट्या श्रीजिनराथ । . प्रभु सुं मन लागो, खिण इक दूरि न थाय ॥ प्रा सुगुण सहेजा माणसां रे, जोरइ मिलियइ जाय । प्र० ॥११॥ नयणे नयण मिलायनइ रे, जिन मुख रहीयइ जोय । प्र०।। . तउ ही तृप्ति न पामियइ रे, मनसा बिवणी होय । प्र० ॥२॥ मानसरोवर हंसलउ रे, जेम करइ झकझोल । प्र०। तिम साहिब सैं मन मिल्यउ रे, करइ सदा कल्लोल । प्र०॥३॥ हीयड़ा माहि जे वसइ रे, वाल्हा लागइ जेह । प्र०। . जउ बीजा रूपई रूड़ा रे, न गमइ तां तूं नेह । प्र० ॥४॥ रसल्यै गुण मकरंद नउ रे, चतुर भमर सजि खेद । प्र० जे जण घण सरिखा हुवइ रे, स्यु जाणइ तस वेध । प्र० ॥५॥ एहवउ मॅइ निश्चय कियउ रे, पलक न मेलूं पास । प्र०। आखर सेवा मां रह्यां रे, फलस्यइ मन नी आस । प्र० ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि मीठा अमृत नी परइ रे, ऋषभ जिनेश्वर संग। प्र०। 'विनयचन्द्र' पामी करी रे, राखउ रस भरि रंग । प्र० ॥७॥ ॥श्री अजित जिन स्तवनम् ॥ ढाल-हमीरा नी साहिब एहवउ सेवियइ, सुगुण सरूप सतेज सजनजी। मिलतां ही मन उल्लसै, दीठां बाधइ हेज सजनजी ।।१।। सा०॥ तेतउ आज किहाँ थकी, जिण माहें हुवै स्वाद । स० । स्वाद बिहूणा छोड़ियइ, राखेवां मरजाद सजनजी ॥२।। सा०॥ समय अछइ इण रीत नों, तउ पिण बखत प्रमाण । स० । मुझनइ प्रभु तेहवउ मिल्यौ, सहज सुरंग सुजाण । स० ॥३॥सा०॥ ज्यां सँ मन पहिली हुँतउ, ते तउ देव कुदेव । स०। . कंचन नइ वलि कामिणी, ते जीप्या नितमेव । स० ॥४॥साall ए निर्जित इण बात मां, रिद्धि तजी भरपूर सजनजी। दर्प हतउ कंदर्प नउ, ते पणि टल्यउ दूर सजनजी ॥५॥ सा०॥ मुगति बधू रस रागियउ, ज्योतिर्मय वसुधार सजनजी। यश महकइ गहकइ गुणे, अजित विजित रिपुवार ।स०||सा०॥ 'विनयचन्द्र' प्रभु आगलें, कर्म अरी करी नीम सजनजी। बेगि वल्या गर्भई गल्या, जिम पोइण गल हीम स० ॥७॥ सा० ।। ॥श्री संभव जिन स्तवनम् ॥ ___ ढाल-धणरा मारूजी रे लो स्वस्तिश्री गर्जित भयवर्जित त्रिभुवनतर्जित सकल जीव हितकामी रे लो । म्हारां वालेसर जी रे लो।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिका ते शिव बंदिर अनुभव मन्दिर सद्गुण सुन्दर तिहां छइ संभव स्वामि रे लो॥ मा०॥१॥ तिण दिशि लेख लिखइ प्रेमातुर चित नउ चातुर आतुर प्रेम प्रयासइ रे लो । मा०। प्रभु नइ प्रीति प्रतीत दिखाली रीति रसाली, पाली सेवक भासइ रे लो ॥ मा०॥२॥ सुगुण सनेही अरज सुणीजइ सुनिजर कीजइ, दीजइ दरस उमाही रे लो। मा० । मुझ चित्त माहें ए छइ चटकउ तुझ मुख मटकौ, . लटको दोसइ नाही रे लो । म० ॥३॥ तुतउ मोसु रहइ निरालउ, माया गालउ, इम टालउ किम कीजइ रे लो ॥ मा०॥ पोतानउ सेवक जाणीनइ हित आणीनइ, चित ताणी नइ लीजइ रे लो। म०॥४॥ निगुण थयां तउ नेह न व्यापइ मन थिर थापइ, तउ आपइ नवि डोलुं रे लो। मा० । बात कहुं वेधाले वयणे विकसित नयणे, गुण रयणे जस बोलु रे लो। मा० ॥५॥ कहतां कहतां सोहन वाधइ मोह न बाधइ, . साधइ कारिज तेही रे लो । मा० । मौन करइ जे मननी खांतइ बक दृष्टान्ते, . भ्रान्तइ रहत सनेही रे लो। मा० ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि समाचार इण भांतइ वांची दिलमई राची, साची कृपा करेज्यो रे लो । मा० । 'विनयचन्द्र' साहिब तुम्ह आगै मांगै रागें, सुक्रत भंडार भरेज्यो रे लो ॥ मा० ॥ ७ ॥ ॥श्री अभिनन्दन जिन स्तवनम् ॥ ढाल-धणरी बिंदली मन लागौ हारे मोरा लाल थिर कर रह्यौ सहु थानकइ, थिर जेहनउ जस थंभ मोरा लाल । अभिनन्दन चंदन थकी, अधिक धरइ सोरंभ मोरा लाल ॥१॥ तिण साहिब सुं मन मोह्यौ, ___ हारे सुगुणा साहिब सुं मन मोह्यौ । आंकणी ।। हारे मोरा लाल चंदण नी तौ वासना, रहइ एक वन अवगाह । मो० ॥ प्रभुनी प्रगट उपासना, सलहै त्रिमुवन माह ।। मोरा ॥ २॥ ति०॥ हारे मोरा लाल साप संताप करइ सदा, घाल्यौ चंदन घेर मो०॥ मारा साहिब आगलइ, सुरनर हुआ जेर । मो० ॥३॥ ति० ॥ चंदन विरहण नारीयां, तपति बुझावइ देह । मो० ॥ पाप ताप दूरइ हरइ, श्री जिनवर ससनेह ।। मो० ॥४॥ ति० ॥ चंदन तरुवर अवर नइ, करइ सरस शुभ गंध ॥ मो० ॥ विषय अंध मानव भणी, जिन तारइ भवि सिंधु ॥मो०॥शाति०। चंदन फल हीणौ हुवइ, नंदन वन जसु वास ॥ मो० ॥ इक कारणि प्रभु मां मिलइ, फलइ जपंता आश । मो०॥६॥तिका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिका परतखि जाणि पटतरउ, मनथी प्रभु मत मेल्हि ।। मो०॥ 'विनयचन्द्र' पामिस सही, निरमल जस रस रेल्हि ।। मोजाति०।। ॥ श्रीसुमतिजिन स्तवन । ढाल-बात म काढौ व्रत तणी सुमति जिनेश्वर सांभलौ, माहरा मननी वातां रे। तुं सुपना मांहे मिलइ, खबर पड़इ नहीं जातां रे ॥१॥सु०॥ पिण हिव अवसर देखिनइ, धर्म जागरिका धरस्यु रे। प्राण सनेही जाणिनइ, तुझथी झगड़ो करिस्युं रे॥२॥सु०॥ जे हित अहित न जाणिस्यइ, पर ना अवगुण लेस्यइ रे। तिण सुं कुण मुंह मेलिस्यइ, कुण अंतर गति देस्यइ रे ॥३॥सु०॥ तिल भर जे जाणै नहीं, तेहनइ गुह्य कहीजै रे। । सूं तउ जाण प्रवीण छइ, माहरी बांह ग्रहीजइ रे ॥४॥सुः।। मइ भव भमतां दुःख सह्यां, ते तउ तुं हिज जाणइ रे। जे लज्जालू नर हवइ, मुहंडइ केम वखाणइ रे ॥शासु०॥ इम जाणीनइ हित धरउ, मुझनइ दुत्तर तारउ रे। स्युं जायइ छइ ताहरौ, वाल्हा हृदय विचारौ रे ॥६॥सु०॥ बीजा किणही ऊपरा, भोलइ ही मति राचउ रे। मननी इच्छा पूरस्यइ, 'विनयचन्द्र' प्रभु साचउ रे ॥७॥सुका ॥ श्री पद्मप्रभु स्तवनम् ॥ ढाल- योधपुरीनी पद्मप्रभु स्वामी हो माहरी अरज सुणो, तुमे अंतरजामी हो; जिनवर आइ मिलौ ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि तुं तौ पदम तणी परइ हो, परिमल प्रगट करइ, w मु मन मधुकर धरिं हो | जि०॥२॥ बलि तुं इम जणिसि हो, पद्म हुवइ जिहां, जाय मधुकर अहिनिशि हो || जि०||३|| पण पदम सयाण हो, सरवर माहि रह्यौ, 1 des बीटाणउ हो । जि०||४|| तिहां चित्त न लोभइ हो, जल अति ऊछलइ, भमरउ इम सोच हो । जि०||५|| तिम तs कमलाकर हो, सिद्ध पद आश्रयौ, Jain Educationa International शिव वेलि सुहंकर हो || जि०||६|| fafe भवजल बोलइ हो 'विनयचन्द्र' किम आवइ, हिव किणि इक ओलइ हो । जि०॥ओ || श्रीसुपार्श्वनाथ स्तवनम् ॥ —————— - वारुनइ विराजइ हो हंजा मारु लोवड़ी ढाल सहज सुरंगा हो चंगा जिनजी सांभलौ, विनय तणा जे वयण । हुं तुझ चरणे हो आयौ ध्यायौ हेज सुं, साचौ जाणी सण ||१|| मूरति तोरी हो दिल चोरी नइ रही, वसियकरण कियौ कोइ । रंग दिखाइ हो टालइ जे दुख आपणौ, ते गुण रसिया जोइ ||२||मूरति || For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिका अंतरजामी हो सामि तैं मन वेधियउ, प्रगट्यउ प्रेम प्रमाण । मैं इकतारी हो कीधी थारी वालहा, तुं हिज जीवन प्राण॥३||मू०॥ ... पिण मोसुं नाणइ हो प्राणै ही तुं नेहलउ, एक पखी थइ प्रीत। नीर अभावइ हो जिम दुःख पावइ माछली, नीर तणइ नहीं चीत ॥४॥मू०॥ वलि इम जाण्यौ हो ताण्यौ तूटइ साहिबा, हृदय विचारी दीठ । जाय निराशी हो प्रभुसु हाँसी जे करइ, ते तूं फल प्रापति लहै नीठ । ५।।मू०॥ ओलग चाहइ हो तोरी लाहइ कारणइ, अन्य उपरि रहै लीण | वाचा न काचा हो जे तुझनइ कहइ, ते मूरख मतिहीण ॥६॥मू०॥ हुँ गुणरागी हो सागी सेवक ताहरउ, __ साहिब सुगुण सुपास । ... भेद न राखइ हो भाखइ कवियण भावसु, 'विनयचंद' सुविलास ॥७॥०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ॥ श्रीचन्द्रप्रभु जिन स्तवनम् ॥ ढाल-आघा आम पधारो पूज अमघरि विहरण वेला चन्द्रप्रभु नइ चन्द्र सरीखी, कान्ति शरीरइ सोहइ । जेहनउ रूप अनूप निहाली, सुरनर सगला मोहइ ।।१।। तिणसुमो मन मिलियउ राज, साकर दूध तणी परइ ॥आंकणी।। पिण सकलंकित चन्द्र कहावइ, अकलंकित मुझ स्वामी । ते तउ अमृत रस नइ धारइ, प्रभु अनुभव रस धामी ||२||तिका तेहनइ सन्मुख चपल चकोरा, प्रसरत नयणे जोवइ । प्रभु दरसण देखण जग तरस, प्रापति विण नवि होवइ ॥३॥तिका चन्द्रकला ते विकला जाणौ, घटत बधत नइ लेखइ । साहिब नइ तउ सदा सुरंगी, वाधइ कला विशेषइ ॥४॥ति०॥ निशिपति नारी मोहनगारी, रोहणि नइ रंग* रातौ । प्रभु करणी परणी तजि तरुणि, अद्भुत गुण करि मातौ ॥शाति॥ राहु निसत्त करै प्रसि तेहनइ, जाणौ रू नौ फूभौ। तेहज राहु जिनेसर सेवा, करइ सदाइ उभौ ॥६॥ति. सीस मानता देवाधिपनी, शशिहर एहवं जाणी। 'विनयचन्द्र' प्रभु चरणे लागौ, लंछन नउ मिश आणी ॥७॥तिका ॥श्री सुविधिनाथ स्तवनम् ॥ ढाल-बिंदलीनी सुविधि जिणंद तुम्हारी, मोनइ सूरति लागै प्यारी हो। . जिनवर अरज सुणौ ।। * रस। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरज सुणौ अवसर बिन कुण किणि पासइ, चतुर्विंशतिका इण वेला, दोहिला छइ फिर फिर मेला हो ||१|| जि० ॥ जिम कोइल पवनइ प्रेरी, तिम अवसर तेहनउ फल वलि लोक कूकर कण सूकइ, आज आप आवै मनइ उल्लास हो ॥ जि० ॥ पछै घोर घटा कर आवै, Jain Educationa International आवs तजि ठौड़ अनेरी हो ||२||जि०|| जलधर जौ अवसर चूकइ हो । जि० ॥ तेह केहना मन मां भावइ हो ||जि०||३|| साधउ स्वामी, तमे मोहन मूरति पामी हो ॥ जि० ॥ दीजै, कर हर कृतारथ कीजै हो ॥ जि० ॥ ४ ॥ मीठौ, म साच वचन ए दीठउ हो । जि०|| पंखि, फल फूल न देखइ अंखि हो || जि० ||५|| मूकइ, दृष्टान्त इत्यादिक ढकन हो ॥ जि० ॥ मुझनइ Σ स्वारथ जिम तरुवर छोड़इ निर्जल सर पिण ते मुझ मनमां सारस नावइ, इक तुंहिज सदा सुहावइ हो || जि० ||६|| For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि तुम्हथी कुण मुझनइ वाल्हूं, . हुं तउ तुमहिज ऊपरि माल्हुं हो ॥ जि० ।। साम्हउ जोवउ बहु खांतइ, कहइ विनयचन्द इण भांतइ हो ।जि०॥७॥ ॥ श्रीशीतलजिनस्तवन ॥ ढाल-वेगवती ते बांभणी, एहनी अरज सफल करि माहरी, शीतलनाथ सनेही रे। थोड़ा माँ समजै घj, साचा साजन तेही रे ।। १ ।। अ०।। तुझ बिन मननी वातड़ी, केहनइ आगल कहियइ रे । पासइ रहि सीखावियइ, तउ प्रभु सोह न लहीयइ रे ॥२॥०॥ तिण मेलउ दे मुझ भणी, जिम मन मां सुख थावइ रे। जउ चिन्ता चित्त राखीयइ, दिवस दुहेलउ जायइ रे ॥३॥१०॥ तैं मन लीधउ हेरिनइ, जिम भावै तिम कीजइ रे । कहतां लागइ कारिमउ, अनुमानइ जाणीजइ रे ॥ ४ ॥ अ०॥ जनम लगइ हिव माहरइ, तुं छइ अन्तरजामी रे। निज सेवक जाणी करी, खमिजे वाल्हा खामी रे ॥ ५॥१०॥ बीजउ सहु दूरइ रहउ, जउ फरवू तुझ छाया रे ।। तउ अगणित सुख ऊपजइ, उल्लसइ माहरी काया रे ॥ ६ ॥ अ० ॥ प्राण ही नवि पहुंचियइ, तेहनइ तुरत नमीजै रे। विनयचंद्र' कहै तेहनउ, तउ कांइक मन भीजै रे॥७॥ प्र० ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिका ॥ श्रीश्रेयांस जिन स्तवनम् ॥ ढाल — राजमती तें माहरो मनड़ौ मोहियौ हो लाल, एहनी जिनजी हो मानि वचन मुझ ऊधरउ हो लाल, महिर करी श्रेयांस वालेसर | खेल चतुर्गति मां कियौ हो लाल, वादी जिण परि वांस | वा० ||१|| पिण तुझ्नइ नवि सांभय हो लाल, मंइ तर किण ही वार ॥ वा० ॥ हिव अनुक्रमितुझनर मिल्यउ हो लाल, इहां नहीं झूठ लिगार | वा० ॥२॥ देखि स्वरूप संसार नउ हो लाल, भय आवे नितमेव ॥ वा० ॥ पिण जाणुं छं ताहरी हो लाल, Jain Educationa International आडी आस्यै सेव || वा० ||३|| सेव करइ ते स्वारथइ हो लाल, तेहनी ताहरइ चित्त ॥ वा० ॥ मोह हिया थी मेल्हिनर हो लाल, तुं बैठो तिति ॥ ० ॥४॥ कर जोड़ी तुझ आगले हो लाल, कहियइ वारंवार ॥ वा० ॥ तर ही तु न करइ मया हो लाल, स्यानउ प्राण आधार || वा० ||५| For Personal and Private Use Only ११ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि कठिन हृदय छइ ताहरउ हो लाल, बज्र थकी पिण जोर ॥ वा०॥ मन हटकी नइ राखिस्यउ हो लाल, करस्यइ कवण निहोर ॥ वा०॥६॥ आप शरम जउ चाहस्यउ हो लाल, जवि देस्यउ मुझ छेह ।। वा०॥ भवसायर थी तारस्यौ हो लाल, 'विनयचन्द्र' ससनेह ।। वा० ॥७॥ ॥ श्रीवासुपूज्य स्तवनम् ।। ढाल-बधावानी श्री वासुपूज्य जिनेसर ताहरी, ___ओलग हो २ मंइ कीधी सही जी। हिव आशा पूरउ प्रभु माहरी, नहिं तरि हो २ तुझ नइ मेल्हिस्यइ नहीं जी ॥ १॥ तुझ साथइ कोई जोर न चालइ, ___तउ पिण हो २ आडौ मांडिस्युं जी। इम करतां जउ तुं वंछित नालइ, .. तउ त्यारै हो २ तुझनइ छांडस्युं जी ॥२॥ हिवणां तउ हुँ छं, वाल्हा तारै जी सारै, कहिस्यौ हो २ कह्यौ नहीं पछै जी । बांह ग्रह्यांनी जे लाज वधारै, १. एहवा हो २ नर थोड़ा अछै जी ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिका जेहषी प्रीति कुटिल नारी नी, जेहवी हो २ बादल केरी छांहड़ी जी। जेहवी मित्राई भेषधारी नी, तेहवी हो २ कापुरुषां री बांहड़ी जी ॥४॥ पिण तुम्हे सगुण सापुरिस सवाई, पाई हो २ बांहड़ली मंइ तुम तणी जी॥ सफल करउ जिनवर चित लाइ, - मीनति हो २ सी करियइ घणी जी ॥५॥ शिव सुख फल तुझ पासइ चाहूं, तुं हीज हो २ सुरतरु मोरियउ जी। आज बधावउ जाणी मन में उमाहुँ, हुइज हो २ प्रेम अंकूरियउ जी ॥६॥ अधिकउ तउ ओछउ सेवक भाषइ नइ भाखइ, __साहिब हो २ तेह सदा खमइ जी। विनयचन्द्र कवि कहइ तुम्ह पाखइ, किणसु हो २ माहरउ मन रमइ जी ॥ ७॥ ॥ श्री विमलनाथ स्तवनम् ॥ ढाल-चतुर सुजाणा रे सीता नारी विमल जिनेसर सुणि अलवेसर, माहरा वचन अनूप । मनड़ौ विलूधौ रे ताहरै रूप, जेम विलूधौ रे कमल मधूप ॥oli ताहरा रूप माहे काई मोहनी, मिलवानी थइ चूंप ॥१॥ म० ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि वसोकरण छइ स्यु तुझ पासइ, अथवा मोहनवेलि मoll साच कहो ते अंतर खोली, जिम थायइ रंग रेलि ।। म० ॥ २॥ कहिस्यउ नहीं तउ मइ पिण सुणीयउ, लोक तणइ मुख आम ॥ मोहन रूप समौ नहीं कोई, वसीकरण नउ दाम ॥३ म०॥ एहिज कारण साचउ जाणी, लागौ तुझ सैं नेह । ताहरी मूरति चित्त मां चहुटी, खिण न खिसइ नयणेह ॥४ म०।। पिण फल मुझ नई न थयउ काइ, अमरष आवै तेह । फलदायक तौ तेहिज थायइ, जे गिरुआ गुण गेह ॥ ५ म०॥ वलि विस्मय मन मांहे आणी, मंइ ग्रहियउ सन्तोष । साकर मां कांकर निकसइ ते, साकर नौ नहीं दोष ॥ ६ म० ॥ सुगुण साहिब तूं सुखनउ दाता, निर्मल बुद्धि निधान । 'विनयचन्द्र' कहइ मुझनइ आपौ, मुगतिपुरी नउ दान ।। ७ म०॥ ॥ श्री अनंतनाथ स्तवनम् ॥ ढाल-पंथीड़ा नी एक सबल मन में चिन्ता रहै रे, न मिल्यउ साहिब जीवनप्राण रे । श्वास तणी परि मुझनई सांभरे रे, जिम चकवी केरइ मन भाण रे ॥१ ए०॥ पिण ते शिवमन्दिर मांहें वसै रे, कागल मात्र न पहुँचे कोइ रे। प्राणवल्लभ दुर्लभ जिनराजनी रे, संदेसे ओलग किम होइ रे ॥२ ए०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिका देव अवर सँ कीजइ प्रीतडी रे, खिण इक आवइ मन मां द्वष रे। इण बातई तउ स्वाद नहीं किसउ रे, . चुप करि रहियइ तिणे सुविशेष रे ॥३ ए० ॥ जेह आपणनई चाहइ दूरथी रे, - धरियइ दिन प्रति तेहनउ ध्यान रे । आडंबर देखी नवि राचियइ रे, ए छइ चतुर पुरुष नउ ज्ञान रे ॥४ ए०॥ मुँह मीठा धीठा हीयडइ तणा रे, निगुण न पालै किण सैं नेह रे । अवगुण ग्रहिवा थायइ आगला रे, काम पड्याँ द्यलांबी छेह रे ।। ५ ए० ।। ते टाली मिलियइ सुगुणा भणी रे, जे जाणइ सुख दुखनी बात रे । सुपनइ ही नवि करियइ वेगला रे, __ ज्यांहनइ दीठां उल्हसै गात रे ।। ६ ए० ॥ नाथ अनंत भवे नवि वीसरइ रे, जे ससनेही सगुण सुरंग रे । प्रभु सँ ‘विनयचन्द्र' कहै माहरौ रे, लागौ चोल तणी पर रंग रे॥ ७ ए० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृत कुसुमाञ्जलि ॥ श्री धर्मनाथ स्तवनम् ॥ ढाल-सासू काठा हे गोहूँ पीसाय आपण जास्यु मालवइ, सोनार भणइ वाल्हा सुणि हो मुझ अरदास, मइ अभिलाष इसउ धर्यो, मोसुं महिर करउ । वाल्हा काढूँ हो मननी भास, जे तुझ आगई पतगयौं । मो० ॥१॥ वाल्हा तुं तउ हो धरम धुरीण, पर उपगारी परगड़उ ।। मो० ॥ वाल्हा मुझनइ हो देखी दीण, सेवक करिनइ तेवड़उ ।। मो० ॥२॥ वाल्हा स्यु कहुँ माहरइ हो मुक्ख, मंइ पगि २ लही आपदा ॥मो०॥ वाल्हा टालउ हो ते सहु दुक्ख, सुख आपौ अविचल सदा। मो०।३।। बाल्हा पूरवइ हो. परषद मांहि, धरम देशना तूं दियइ । मो० ॥ वाल्हा सगले हो सुणि रे उमाहि, मई न सुणी इक पापियइ । मो० ॥४॥ वाल्हा लागी हो नहीं उपदेश, छांट घड़इ जिम चीगटइ । मो० ॥ वाल्हा तेतउ हो न्याय अजेस, कर्म अरि कहो किम कटइ ॥ मो० ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिका वाल्हा ताहरउ हो नहीं कोई दोष, सोस किसउ कीजइ हिवइ ।। मो० ॥ वाल्हा वलि म्यउ कीजइ हो रोष, आतम कृत कर्म अनुभवइ । मो० ॥६॥ वाल्हा पिण तुं हो सकज सदीव, धर्मनाथ जिन पनरमउ ।। मो० ॥ वाल्हा एहिज बात मइ जीव, विनयचन्द्र' ना दुख गमउ । मो० ॥७॥ ॥ श्री शान्तिनाथ स्तवनम् ॥ ढाल-बिछियानी हारे लाल शान्ति जिनेश्वर सांभलउ, ____माहरइ मन आवइ ख्याल रे लाल। हुँ तुझ चरणे आवियउ, तुं न करइ केम निहाल रे लाल ।।१।। माहरउ मन तुझ मई वसि रह्यउ ।। किणी ।। जिम गोपी मन गोविंद रे लाल, गौरी मन शंकर वसइ । वलि जेम कुमुदिनी चंद रे लाल ॥ २ मा०॥ बात कहीजइ जेहनइ, जे मन नउ हुइ थिर थोभ रे लाल । जिण तिण आगलि भाषता, वाल्हेसर न चढइ शोभ रे लाल ।।३।। तिण कारणि मईमाहरी, सहु बात कही तजि लाज रे लाल । तु मुखथी बोलइ नहीं, किम सरिस्यइ मन काज रे लाल ॥४ मा०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि हारे लाला तूं रसियउ बातां तणौ, सुणिनै नवि द्य को जबाब रे लाल । मन मिलीयां बिन प्रीतड़ी, कहो नइ किम चढियइ आब रे लाल।। ५मा० ॥ हारे लाल निज फल तरुवर नवि भखइ, सरवर न पियइ जल जेम रे लाल । पर उपगारइं थाय ते, तु पिण जिनजी हुइ तेम रे लाल ॥६ मा०॥ घणुं २ कहिये किसुँ, करिजे मुझ आप समान रे लाल । रयणि दिवस ताहरउ धरइ, कवि 'विनयचन्द्र' मन ध्यान रे लाल ७ मा०।। || श्री कंथनाथ स्तवनम् ॥ ___ ढाल-ईडर आंबा आंमली रे बहु दिवसां थी पामियौ रे, रतन अमोलख आज। जतने करि हुँ राखस्यु रे, जगवल्लभ जिनराज ॥१॥ मोरइ मन जाग्यउ राग अथाग, मई तउ पाम्यउ वारू लाग। माहरउ छइपिण मोटउ भाग, करस्युं भवसागर त्याग ।।आंकणी।। अणमिलियां हुँ जाणतउ रे, जिनवर केहवा होय । मिलियां जे सुख उपनउ रे, मन जाणइ छइ सोय ॥२ मो० ॥ मई साहिब ना गुण लह्या रे, आणी पूरण राग। कोइल आंबा गुण लहै रे, पिण स्यु जाणै काग ।। ३ मो० ॥ जे वेधक सहु बातना रे, गुण रस जाणइ खाश । मूरख पशु जाणइ नहीं रे, सेलड़ो कड़ा मिठास ॥४ मो० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिका प्रभुनी मुद्रा देखिन रे, मुझनइ थइ रे निरान्ति । हिव सेवा करवा तणी रे, मनड़ा मई छइ खान्ति ॥ ५ मो० ॥ नेह अकृत्रिम मई कियउ रे, कदे न विहड़इ तेह | दिन २ अधिक उलटइ रे, जिम आषाढ़ी मेह || ६ मो० ॥ एक घड़ी पिण जेहनइ रे, बीसार्यो नवि जाय । 'विनयचन्द्र' कहइ प्रणमियइ रे, कुन्थु जिनेश्वर पाय ||७ मो० ॥ || श्री अरनाथ स्तवनम् ॥ तु गुण पंकति बाड़ी फूली, ढाल - मोतीनी साहिबा कांइ मज करौ नइ, सुख सहस्रदल कमल Jain Educationa International मुझ मन भमर राउ तिहां भूली । मउज करउ कांई अंग सुहाता, सुणि सुणि नै विगताली बातां ||१|| सा०॥ तुझ पद कज केतकी मई पाई, आवै खुशबूह सहाई ॥ सा० ॥ तसु मालती महकै, मोहन भाव १६ साहिबा कांइ मज करउ || आंकणी ॥ आनी संगति करि गहकर ||२||सा०|| विकास्यौ, चित्त उदार ते चंपक जाणौ, समतारस मकरंद वास्यउ || सा० ॥ दिल गंभीर गुलाब वखाणौ ॥ सा०||३|| For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० कुंद अनै मचकुंद विलासी, विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि कलि कीरति उज्ज्वल प्रतिभासी ॥ सा०l पाडल प्रीति प्रतीत प्रबोधइ, मरुक दमण सज्जन गुण सोधइ || सा०|| ४ || केवड़ानी परि तुं उपगारी, गुणे करि धारी ॥ सा०l द्राखते द्वेपनी रेखन दावे || सा०||५|| फूल अमूल फल सहकार सकारइ फाबै, वलि संतोष सदाफल सदली, करुणा रूप सुकोमल कदली ||सा०|| नारंगी ते प्रभु निरागई, जंभीरी युगतें करि जाई ॥ सा०||६|| फूल अनइ फल इत्यादिक छै, Jain Educationa International प्रभु ना गुण इण मांहि अधिक छइ || सा०॥ नहीं शिव पोइणि ते तुझ आगइ, श्री अरनाथ विनयचंद मांगर ||सा०||७|| || श्री मल्लिजिन स्तवनम् ॥ ढाल - राजिमती राणी इण परि बोलइ मल्लि जिनेसर तुं परमेसर, तुझ नई सुरनर चर्चित केसर | | ० || तुझ सरिखा ते पुण्ये लहिय, देखी देखी मन गह गहीयइ | | ० || १ || For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिका तुं सद्भाव तणौ छइ धारक, दुष्ट दुरासय नौ निर्वारक म०।। तिण कारण माहरौ मन लागौ, भेद अपूरव सहजइ भागउ म०॥२॥ देव अवर सुं जे रहइ राता, तेहनइ तउ छइ परम असाता ॥ म०॥ इम जाणी मुझ मन ऊमाहइ, तुझ मुख कमल नरषिवा चाहइ ॥म०॥३॥ तुं छइ माहरह सगुण सनेही, तउ करो पड़वज कीजै केही ।। म०॥ पिण तु मुगति महल मां वसियउ, ____ संपूरण समता गुण रसियउ ।।म०|४|| अवसर आयइ नवि संभारइ, __केम भवोदधि हेलइ वारइ । म०॥ हिव हुं निश्चल थइ नइ बैठउ, । __ अनुभव रस मन मांहे पश्ठउ ।।म०।५।। जे खल नइ गुल सरिखा जाणइ, ते स्यु नवलौ नेह पिछाणइ । म०॥ इण हेतइ माहरउ मन फिरियउ, ___ जाणे पवन हिलोल्यउ दरियउ ।।म०॥६॥ साची भगति कीधी मई ताहरी, तउ मन इच्छा पूरउ माहरी । म०।। विनयचन्द्र कहै ते गुणवंता, जे टालै मनड़ानी चिन्ता ||म०॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि || श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवनम् ॥ ढाल - ओलूंनी मुनिसुव्रत मन माहरौ जी, लागौ तुम लगि थेट । पिण तु मींटन मेलवै जी, ए व्रत दुक्कर नेट ॥१॥ जिनेश्वर बणस्यै नहीं इम बात || आंकणी ॥ मुझ स्वभाव छै तामसी जी, रहिन सकइ खिण मात || २ || जि०|| हुँ रागी पिण तँ अछर जी, नीरागी निरधार । २२ नहीं इक म्यान मंत्र जी तीखी दोइ तरवार || जि०||३|| जाणपणउ मंत्र जाणीयउ जी, जिनवर ताहरौ आज । तक उपर आयउ हतो जी, तँ नवि राखी लाज || ४ ||जि०|| जे लोभी तुझ सरिखा जी, वंछित नाप रे अन्त । मुझ सरिखा जे लालची जी, लीधां विण न रहंत ||५|| जि०|| एह अणख छै आपणौजी, सदा न चलस्यै रे एम । करि मुझ नइ राजी हिवै जी, जिम बाधर बहु प्रेम || ६ || जि०|| तुं मुझ नइ नवि लेखवर जी, देखी सेवक वृन्द । तारा तेज करें नहीं जी, विनयचन्द्र बिण चन्द्र ||७|| जि० ॥ || श्री नमिनाथ स्तवनम् ॥ ढाल - भाभाजी हो डुंगरिया हरिया हुवा साहिबा जी हो तुं नमि जिनवर जगधणी, पुण्य Jain Educationa International सरणागत साधार म्हांरा साहिबा जी । संयोगइ ताहरउ, मैं दीठउ दीदार म्हां सा० ॥१॥ For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिका चतुरपणानी ए छइ चातुरी, मिलीयइ तुझ नइ सा० तो तुं चित चिन्ता हरै, सा० प्रीति हुवइ जिहां प्रेम नी, उपजइ तिहाँ करि करि नइ सुं कीजियइ, देव जांणि म्हां० | बादल नइ जिम वाय || म्हां० ||२|| च० ॥ अवर मीठा मुखे, सा० इम जाणी मन ओसर्यो, मंत्र तुझ प्रेम विहूणी प्रीति म्हां० ॥ ३ ॥ च० ॥ Jain Educationa International फेटि निगुण नी टलि गई, हृदय कुटिल असमान पयोमुख संग्रयां, ते विषकुम्भ समान म्हां० ॥ ४ ॥ च० ॥ इतला दिन मन मां हत, उदासीनता पाछौ त्यांथी नेट धाय परतीत ताहरइ मिलिवर ते गयउ, म्हां० । थई सुगुण नी भेट म्हां० ॥ ५ ॥ च० ॥ म्हां० । भाव होइ म्हां० । म्हा० । तत्खिण तजि निज दाव म्हा० ||६|| च० ॥ सेवा आदरी, For Personal and Private Use Only रह्यउ तुझ दास म्हां० | २३ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि जिण सुरतरु फल चाखियउ, कुफल गमइ नहीं तोस म्हां०॥७॥ च०।। स्युं कहिरावइ मो भणी, . तारि तारि करतार म्हां। विनयचन्द्र नी वीनति, हित धरी नइ अवधार । म्हां ।।८॥ च० ।। ॥ श्री नेमिनाथ स्तवनम् ॥ ढाल-ऊभी राजुलदे राणी अरज करै छै थाहरी तौ मूरति जिनवर राजै छइ नीकी, शिवसुन्दरि सिर टीकी हो। राणी शिवादेवीजी रा जाया नेमजी अरज सुणीजै। अरज सुणीजै काई करुणा कीजै, ___ म्हांनइ मुजरौ दीजै हो ॥१॥रा०॥ ते दिन वाल्हां मुझनै कइयंइ आस्यै, तुम थी मेलौ थास्यइ हो । रा०। अंतर तुम्हारउ माहरउ दूरइ ब्रजस्यइ, अंगइ सुख ऊपजस्यइ हो ॥२॥रा०॥ हिवणा तउ तुमनइ हियड़ा माँहे धारूँ, इण भांतइ दिल ठारूँ हो । रा०। आखर थे पिण समझणदार सनेहा, नवि दाखविस्यौ छेहा हो ॥शारा॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिका जे तुम सेती प्रेम प्रयासइ जी विलगा, ते किम टलस्यै अलगा हो । रा०। प्रीति लगास्यइ ते तउ जिम रंग अकीकी, पड़े नहीं जे फीकी हो ॥४॥रा०॥ प्राणपियारा साहिब थे छउ जी म्हारै मुझ नइ छइ तुम्ह सारै हो। रा०। इम जाणी नई प्रत्युपकार करता, राखौ छौ सी चिन्ता हो ॥५॥रा०॥ स्युं कहुं कीरति राज तुम्हारी, तुमे छउ बाल ब्रह्मचारी हो । रा०। राजुल नारी ते विरहागर क्यारी, पोतानी कर तारी हो । रा०॥६॥ कहियउ जी म्हारौ अलवेसर अवधारउ, हुँ छू दास तुम्हारौ हो । रा० । विनयचन्द्र प्रभु तुमे वरदाई, मउज सवाई घउ काइ हो । राजा ॥ श्री पार्श्वनाथ स्तवनम् ॥ ढाल-इण रिति मोनइ पासजी सांभरइ जिनवर जलधर उलट्यौ सखि, वयणे वरसै मेह । जेहनई आगमनइ करी सखि, ऊपज्यौ प्रेम अछेह रे ।। नर नारी बाध्यउ नेह रे, ठाढी थइ सहुनी देह रे । पसर्यो चित भुइ मइ बेह रे, उपस्यउ खल कंदल खेह रे ।।१।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि एहवा म्हारे पास जी मन वसइ ॥ आंकणी ॥ वाणी ते हिज जिण सजी सखि, गुहिर घटा घन घोर । ज्योति मबूकै बीजली सखि, ए आडम्बर कोइ और रे । प्रमुदित भविजन मोर रे, पिण नहीं किहां कुमति चोर रे। कंदर्प तणो नहीं जोर रे, अन्धकार न किण ही कोर रे ।।२।ाए०।। महिर करइ सहु उपरइ सखि, लहिर पवन नी तेह । सुर असुरादिक आवतां सखि, पीली थइ दिशि जेह रे ।। जाणै कुटज कुसुम रज रेह रे, जिहां धर्मध्वजा गुण गेह रे । ते तउ इन्द्र धनुष वणेह रे, अभिनव कोई पावस एह रे॥ इम निरखै सहु नयणेह रे ॥३॥ए०।। चतुर पुरुष चातक तणी सखि, मिट गई तिरस तुरन्त । हरिहर रूप नक्षत्र नउ सखि, नाठउ तेज नितन्त रे ।। थयउ दुरित जवासक अन्तरे, मुनिवर मंडुक हरखंत रे । जिहाँ विजयमान भगवंत रे, विकशित त्रय भुवन वनंत रे||४||ए०॥ सुर मधुकर आलंबिया सखि, पदि कदिब अरविन्द । विरही जेह कुदर्शनी सखि, पावइ दुख नइ दन्द रे ।। युद्ध थी विरम्यां राजिन्द रे, हरियाथया सुगुण गिरिंद रे। विस्रति मति सरति अमंद रे, पल्लवित वेलि सुख कन्द रे ।। फेड्या सगलाई फंद रे ॥५॥०॥ झिर मिर झिर मिर भर करइ सखि, नावइ किम ही थाह । प्रतिबोधित जन जेहवा सखि, ल्यइ बगि जिण मां लाह रे ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिका २७ हंसा सर सांभरियाह रे, ते जन धरै मुगतिनी चाह रे । तिहां दीसइ रतन घणाहरे, जाणै नवल ममोला वाह रे ॥६॥ ए. जीवदया जिहां जाणियइ सखि नीली हरी भरपूर । बीज तणइ रूपइ भलौ सखि, प्रगट्यउ पुण्य अंकूर रे॥ दुख दोहग गया सहु दूर रे, इम वर्षा भावई भूरि रे । प्रभुना गुण प्रबल पडूर रे, कहै 'विनयचन्द्र' ससनूरि रे ।।७।। एक ॥ श्री महावीर जिनस्तवनम् ।। ___ ढाल-हाडानी मनमोहन महावीर रे त्रिसला रा जाया, ताहरा गुण गाया, मनड़ा में ध्याया। तौही रे ताहरा खातर मैं नहीं रे, इवड़ी सी तकसीर रे त्रि० आज्ञाकारी रे हुँ सेवक सही रे ॥१॥ तुझसुं पूरवइ जेह रे, त्रि० रंग लागौ रे चोल मजीठ ज्युरे। दिन दिन बाधइ तेह रे, त्रि० भला रे व्यवहारी केरी पीठ ज्यु रे ॥२॥ निशिदिन मंइ कर जोड़ रे, त्रि० ओलग कीधी स्वामी ताहरी रे । भव संकट थी छोड़ि रे, त्रि० अरज मानौ रे एहिज माहरी रे ॥३॥ मंह आलंबी तुझ बाँहि रे, त्रि कहौ रे निरासी तउ किम जाइयइ रे।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि धीणउ हुवइ घर मांहि रे, त्रि० लूखौ रे तौ स्या माटे खाइयइ रे ॥४॥ तार्या तें सुरनर फोड़ि रे, त्रि० पोते तरी रे शिव सुख अनुभवइ रे। मुझमाँ केही खोड़ रे, त्रि० तारै नहीं रे क्यों भुझनइ हिवइ रे ॥५॥ ओछां तणउ सनेह रे, त्रि० जाणै रे पर्वत केरा वाहला रे। बहतां बहै एक रेह रे, त्रि० पछइ बिछड़इ रे ज्यु तरु डाहलारे ॥६॥ तिण परि नेहनी रीति रे, त्रि० नहीं छैरे चरम जिनेसर आपणी रे। 'विनयचन्द्र' प्रभु नीति रे, त्रि० राखउ स्वामी नइ सेवक तणी रे ॥७॥ ॥ कलश ॥ ___ढाल-शांति जिन भामणइ जाऊँ इण परि मंइ चौबीसी कीधी, सद्भावै करि सीधीजी। कुमति निकेतन आगल दीधी, सुमति सुधा बहु पीधीजी॥१॥ ३० इण में भेद तणी छइ दृढ़ता, गुण इक इक थी चढ़ताजी। सज्जन पंडित थास्यइ पढ़ता, दुर्जन रहस्यइ कुढ़ताजी ।।२।। ३० पूरण ज्ञान दशा मन आणी, वेधक वाणी वखाणीजी । विबुध भणी अवबोध समाणी, मूरख मति मूझाणीजी ॥३॥ इ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ चतुर्विशतिका बोध बीज निर्मल मुझ हुऔ, दियौ दुरति नइ दूऔजी । स्तवना नौ मारग छइ जूअउ, जाणै ते कोई गिरुऔजी ॥४॥ इ० संवत सत्तर पंचावन वरषइ, विजयदशमी दिन हरषइजी । राजनगर मां निज उतकरषइ, ए रची भक्ति अमरषइजो ॥३।। ३० श्रीखरतरगण सुगुण विराजइ, अंबर उपमा छाजइजी। तिहां जिनचन्द्रसूरीश्वर गाजइ, गच्छपतिचन्द्र दिवाजइजी ॥६॥ पाठक हर्षनिधान सवाई, ज्ञानतिलक सुखदाईजी। विनयचन्द्र तसु प्रतिभा पाई, ए चौवीसी गाईजी ॥७॥ इ० इति चउवीसी समाप्ता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरमान जिनवीसी ॥ श्री सीमन्धर जिन स्तवन ॥ ढाल-रसियानी श्री सीमंधर सुन्दर साहिबा, मन्दरगिरि समधीर सलूणा । श्री श्रेयांस नरेश्वर नन्दन, मुझ हीयड़ानु रे हीर सलूणा ॥१॥ सोवन वरणइ रे दीपइ देहड़ी, सुमनस सेवित पाय सलूणा । भद्रशाल' लक्षण करि राजतउ, भेट्यां भव दुःख जाय सलूणा ॥२॥ चन्द्र सूरज ग्रह गण सहु प्रभु तणइ, चरण सरण करइ नित्य सलूणा। जाणे रे जीत्या आप प्रभा भरइ, करइ प्रदक्षिणा कृत्य सलूणा ।।३।। मध्य विदेह विजय पुष्कलावती, नयरी पुण्डरिकिणी सार सलूणा । तिहाँ विचर भविजन मन मोहता, सत्यकी मातु मल्हार सलूणा ॥४॥ मेरु महीधर परि अविचल रहउ, मुझ मन एहिज रे देव सलूणा । ज्ञानतिलक गुरु पदकज भमरलउ, 'विनयचन्द्र' करइ सेव सलूणा ||५|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरमान जिनवीसी ३१ ॥ श्री युगमंधर जिनस्तवन । ढाल-नाटकियानी बीजा जिनवर वंदियइ, युगमंघर स्वामी लो अहो युग० । मई तउ सेवा जेहनी, बहु पुण्ये पामी लो अहो बहु० ।। अध्यातम भावई रह्यौ, मुझ अन्तरजामी लो अहो मुझ० । ललि ललि लागु पाउले, युगतइ शिरनामी लो अहो युगते०॥१॥ शान्त थई अंतर गुणे, दुसमन सहु दमिया लो अहो दु० । दान्त पणइ अविकार थी, विषयादिक वमिया लो अहो वि०॥ निर्धन पणि परमेश्वरु, त्रिभुवन जन नमिया लो अहो त्रि० । ए अचरिज प्रभु गुण तणउ, शिव सुख मन रमिया लो अहो शि० रूप अधिक रलियामणो सो वन वन काया लो अहो ओ०। शत्रु मित्र समता धरइ, सम रंक नइ राया लो अहो स० ।। राग न रीस न जेहनइ, मद मदन न माया लो अहो म० । सोहग सुन्दर ना गुणइ, भवियां मन भाया लो अहो भ० ॥३॥ सज्जन जन मन रीझवइ, नीराग सभावई लो अहो नी । विषय विभाव थी वेगलउ, सहु विषय दिखावइ लो अहो स० ॥ सकल गुणाश्रय निज भज्यउ, निर्गुणता ल्यावइ लो अहो नि ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि सकल क्रिया गुण दाखवी, अक्रिय रुचि पावइ लो अहो अ० ॥४॥ सुदृढ़ राज कुल दिनमणी, जसु माय सुतारा लो अहो ज०। गज लंछन अति गहगहइ, सहुनइ सुखकारा लो अहो स०॥ वप्र विजय मां विचरता, ज्ञानतिलक उदारा लो अहो ज्ञा० ॥ विनयचन्द्र विनयई कहइ, जिन जगत आधारा लो अहो जि० ॥५॥ ॥ श्री बाहुजिन स्तवन ॥ ढाल-योगिनानी बाहु जिनेश्वर वीनवु रे, बांह दिउ मुझ स्वामि हो जिनजी बा० । भवसायर तरवा भणी रे, तारक ताहरु नाम हो जिनजी बा० ॥१॥ जिणंदराय दर्शन दीजो आज, जिणंदराय जिम सीझइ मुझ काज। आंकणी । कल्पतरु कलि मां अछउ रे, वंछित देवा काज हो जिनजी वं०। तुम बांहि अवलंबतां रे, लहियइ भव जल पाज हो जिननी ल०॥२॥जि०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच विहरमान जिनवीसी कल्पतरु अवतर्या रे, अंगुलि मिसि तुम्ह बाँहि हो जिनजी अ० । तुम्ह दानइ किंकर थका रे, सेवइ तेह उच्छाहि हो जिनजी से० ||३|| जिoll सुक्ख अतींद्रिय द्यौ तुम्हे रे, ते गुण नहीं ते मांहि हो जिनजी ते० । तिण हेतर परगट नहीं रे, सांप्रत मनुजन मांहि हो जिनजी सां०|| ४ | सुग्रीव कुल मलयाचलई रे, चन्दन विजयानन्द हो जिनजी चं० । विनयचन्द्र वंदइ सदा रे, त्रीजा श्रीजिनचन्द्र हो जिनजी ||५||||जि०॥ Jain Educationa International || श्री सुबाहु जिन स्तवनम् ॥ देशी छींडीनी श्री सुबाहु जिनवर नई नमियई, उमाह बहु आणी । जस प्रभुता नउ पारन लहियइ, किम कहि सकियइ वाणी ॥१॥ प्राणी प्रभु लीधु चित्त ताणी, प्रभु मूरति उपशमनी खाणी, ३३ मुझ मन ए ठकुराणी रे प्रा० ॥ ज्ञानी जाणइ पिण न कहाय, सर्व थी जस गुण खाणी । परिमलता गुणनी अति निर्मल, जिम गंगा नउ पाणी रे ||२|| प्रा०|| For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि रंगाणी मुझ मतिए रंगइ, समकित नी सहिनाणी। . कुमति कमलिनी लवन कृपाणी, दुख तिल पीलण घाणी रे ॥३॥ शक्ति अपूर्व सहज ठहराणी, दुगति दूर हराणी । वाणी तेहिज वेमं वेधइ, कीरति तास गवाणी रे ॥४॥ प्रा०॥ निसढ़ नरेश्वर सुत शुभनाणी, माता भू नन्दा जाणी। विनयचन्द्र कवि ए कही वाणी, सुणतां अमी समाणी रे ।।प्रा०॥ ॥ श्रीसुजात जिन स्तवनम् ।। - ढाल-झांझरिया मुनिवरनी देशी श्री सुजात जिन पंचमा जी, पंचम गति दातार । पंचाश्रव गज भेदिवा जी, पंचानन अनुकार ॥ १ ॥ पंचम ज्ञान प्रपंच थी जी, धर्मादिक पणि द्रव्य । जेह त्रिकाल थकी कहै जी, सर्द है मनि तेह भव्य ॥२॥ पंच बाण नइ टालिवा जी, पंच मुखोपम जेह । विरहित पंच शरीर थी जी, अकल अलख गुण गेह ॥ ३॥ पंचाचार विचार हुँ जी, दाखइ जे व्यवहार । कल्पातीत पणइ रहइ जी, चरित अनेक प्रकार ॥४॥ देवसेन नृप नन्दनो जी, देवसेना जसु मात । विनयचन्द्र सोहइ भलौ जी, रवि लंछन विख्यात ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरमान जिनवीसी ॥ श्रीस्वयंप्रभ जिन स्तवनम् ॥ ढाल-लाछलदेवी मल्हार श्री स्वयंप्रभ, अतिशय रत्न निधान, आज हो हेजइ रे हेजालू हियडै हरखियइजी ॥१॥ जिम चकवा दिनकार मोरां नइ जलधार, ___ आज हो नेहई रे गुण गेही नयणे निरखियइजी ॥२॥ जिहां विचरै प्रभु एह, तिहां होइ सुख अछेह, ____ आज हो पुण्ये रे परमेश्वर प्रेमई परखियइजी ॥३॥ दुख महोदधि पाज, भव जल तारण जहाज, ___आज हो रंगइ रे रलियालउ साहिब सेवियइ जी ॥४॥ मित्रभूति कुलचन्द, सुमंगला नौ नन्द, आज हो वंदइ रे विनयचन्द्र हित आणी हियइ जी ॥५॥ ॥श्री ऋषभानन जिन स्तवनम् ।। ढाल-आवौ आवौ जी मेहलै आवंतइ ऋषभानन जिनवर बंदी, हुँतौ थयौ रे अधिक आनन्दी । करि कर्म तणी गति मंदी, आतम सुं दुर्मति निंदी । आवौ आवौ साहिब सुखकन्दा, मुझ नयन चकोर नइ चन्द्रा । आवौ आवौ जी सेवक संभारै|आकणी।। संभारइ तेह सहेजा, स्युं संभारइ रे निहेजा ।।१ आ०॥ जोड्यौ जे तुम सुं नेह, जाणे पर्वत केरी रेह ।।आoll जमवारइ जायइ नहीं तेह, जिम आई धरांये मेह ॥२ आol Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि लौ तुम पद अरविन्द, मुझ मन मधुकर आनन्दई ॥०॥ न रहइ ते दूर लगार, शुक नन्द यथा सहकार || ३ आ०।। तुम्ह बिन हुं अवरन चाहुँ, अविचल निज भावई आराहु || आ निरालंबन ध्यानइ ध्याउँ, क्षीरनी पर मिलि जाउँ ||४ आ०|| वीरसेना नन्द विराजs, कीर्तिराज कुलइ निज छाजै || आ०|| सिंह लंछन दुख गज भांजर, कवि 'विनयचंद्र' नइ निवाजइ ॥५॥ || श्री अनन्तवीर्य जिनस्तवनम् ॥ राग - चन्द्राउलानी अनंतवीर्य जिन आठमउ रे, जीत्या कर्म कषाय । नाम ध्यान थी जेहनइ रे, अष्ट महा सिद्धि थाय ॥ अष्ट महासिद्धि जेहन नामइ, सहज सौभाग्य सुयशता पामइ जे इच्छित होइ सुख नइ कामइ, तेह लहर नित ठामो ठाम जी || १|| विहरमानजी रे । ईति उपद्रव सवि टलइ रे, जिहां विचरs जिनराज । भीति रीति पर नहीं रे, जाणि गंध गजराज ॥ जाँणि गंध गजराज सोहावइ, सुभग दान ना भर वरसावइ । कपट कोट दहवट्ट गमावइ, नित नयवाद घंटा रणकावइजी ||२ विह०|| अतिशय कमला हाथिणी रे, परिवरियउ निशदीश । सहजानन्द नन्दन वनइ रे, केलि करइ सुजगीश ॥ केलि करइ परमारथ जाणी, समता तटिनी सजल वखाणी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरमान जिनवीसी आगम सुँडा दण्ड प्रमाणी, ___ परमत गज संगति नवि आणी जी ॥३ विह०॥ शुक्ल ध्यान उज्वल तनु रे, क्षायिक दर्शन ज्ञान । कुंभस्थल जसु दीपता रे, महिमा मेरु समान ॥ मेरु समान उत्तुंग ए देव, भविक कोडि जसु सारइ सेव । अचिर अभंग विचित्र कलायइ, तउ तस चरण सरोज मिलायइजी ॥४॥ विह०॥ मेघ नृपति कुल सुर पथई रे, भासुर भानु समान । मंगलावती माता तणउ रे, नन्दन गुणह निधान । गुण निधान गर्जित गज लंछन, वर्ण अनोपम अभिनव कंचन । भविक लोक नई नयणानन्दन, 'विनयचन्द्र' करइ नित नित वंदनजी ।।५ विह०। ॥ श्री सूरप्रभ जिन स्तवनम् ॥ ढाल-माहरी सही रे समाणी सूरप्रभु प्रभुता त पामी तोरा चरण नमुँ शिर नामी रे । मोरा अंतरजामी । देव अवर दीठा मंइ स्वामी, पिण ते क्रोधी कामी रे ॥१॥ मो०॥ तुझ मुद्रानइ जोड़इ नावइ, तउ सेवक दिल किम आवइ रे । मो० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि हँस सोभ बग जाति न पावइ, यद्यपि धवल सभावई रे ॥२॥ मो०॥ महिमा मोटिम तणी बड़ाई, किम लहइ ते सुघड़ाइ रे । मो० । तरु भावइ तउ छइ इक ताई, पिण अंब नींब अधिकाई रे ॥३॥ मो०।। पंखी जातइ एकज हुआ, पिण काग कोइल ते जूआ रे । मो०। देव अवर तुम्ह थी सहु नीचा, तुम्हे तउ गुणाधिक ऊँचा रे॥४॥ चन्द्र लंछन जिन नयणानन्दा, 'विनयचन्द्र' तुम्ह बन्दा रे॥५ मो० ॥ श्री विशाल जिनस्तवनम् ॥ ढाल-थारे महिला ऊपरि मेह झरोखे बीजली हो लाल झरोखइ बीजली श्री सुविशाल जिणंद, कृपा हिव कीजिए हो लाल कृपा० । बांह ग्रह्यां नइ छेह, कहो किम दीजियइ हो लाल कहो० ॥ सहज सलूणा साहिब, नेह निवाहियइ हो लाल नेह० । मुझ परि कूरम दृष्टि, तुम्हारी चाहियइ हो लाल तु० ॥१॥ चातक नइ मन मेह, बिना को नवि गमइ हो लाल बि० हंस सरोवर छोडि कि, छीलर नवि रमइ हो लाल कि छी० गंजा जल भील्या ते, द्रह जल नादरै हो लाल कि द्रह० मोह्या मालती फूल ते, आउल स्युं करइ हो लाल कि आ०॥२॥ भवि भवि तु मुझ स्वामी, सेवक हुँ ताहरौ हो लाल कि से० । जन्म कृतारथ आज, सफल दिन माहरौ हो लाल स०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरमान जिनवीसी देव अवरनी सेव, कवण चित मां धरइ हो लाल क० प्रभु तुमचउ उपगार, कदापि न बीसरइ हो लाल क० ॥३॥ ओलगड़ी अविनीत, तणी पिण आपणी हो लाल त० जाणि करौ सुप्रमाण, बड़ाई तुम तणी हो लाल ब० सेवक आप समान, करौ जो जग धणी हो लाल क० तउ त्रिभुवन मां बाधइ, कीरति अति घणी हो लाल की ॥४॥ नाग नृपति शुभ वंश, गगन तर दिनमणी हो लाल ग० भद्रा राणी नन्द, कंचन वरणइ गुणी हो लाल कं० लंछन भासत भानु, कला सुन्दर वणी हो लाल क० ज्ञानतिलक प्रभु भक्ति, 'विनयचन्द्रइ' भणी हो लाल वि०॥५॥ ॥ श्री बजधर जिनस्तवनम् ॥ ढाल-हँजा मारू हो लाल आवो गोरी रा वाल्हा रंग रंगीला हो लाल, बनधर जिणचंदा, ___नयन रसीला हो लाल, वंदइ बज्रधर वृन्दा। अंग असीला हो लाल, तुझ नइ दीठां आणंदा, मुगति वसीला हो लाल, समता सुरतरु कन्दा ॥१॥ हर्ष हठीला हो लाल, सज्जन सुखकारी, छयल छवीला हो लाल, मूरति मोहनगारी। जगत नगीना हो लाल, आयो हुँ तुझ शरणइ, जिम जल मीना हो लाल, लीणउ तिम तुझ चरणइ ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि प्रेम मई कीना हो लाल, जिम मालती भमरी, हेजइ भीना हो लाल तारौ महिर करी । बहु तपसीना हो लाल, ताहरइ दर्शन पाखइ, दास अमीना हो लाल, वारई २ स्यु भाखइ ।।३।। तुम्हे प्रवीणा हो लाल, समकित रतन दाता, देखी दीणा हो लाल, पूरो सुख नइ साता। दुर्जन हीणा हो लाल, ते तउ विमुख करउ, तुम गुण वीणा हो लाल, सेवक हाथइ धरउ ॥४॥ पद्मरथ नृपति हो लाल, नन्दन गुण निलयो, __मात सरसती हो लाल, विजया कंत जयो। संख लंछन सोहइ हो लाल, ज्ञानतिलक छाजै, 'विनयचन्द्र' मोहे हो लाल, महिमा महियल गाजै ।।।। ॥ श्री चन्द्रानन स्तवनम् ॥ ढाल-फाग चन्द्रानन जिन चंदन शीतल, दरसण नयण विशेष । वयण सुकोमल सरस सुधारस, सयण हर्षित होइ देख ॥१॥ सोभागी जिनवर सेवियइ हो, ___ अहो मेरे ललना अद्भुत प्रभु रूप रेख ।।आँकणी।। विषय कषाय दवानल केरौ, टालई ताप सजोर। सहज स्वभाव सुचन्द्रिका हो, उल्लसित भविक चकोर ॥२ सो०।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरमान जिनवीसी ४१ मिथ्यामत रज दूर मिटावइ, प्रगटइ सुरुचि सुगंध। अरुचि परुषता प्रगट न होवइ, करुणा रस श्रवइ सुबंध ॥३ सो०॥ चन्द्रानन आनन उपमानइ, हीणउ खीणउ चंद्र। शून्य ठाम सेवइ ते अहनिसि, मानु कलंकित मंद ॥४ सो०। श्री वाल्मीक नृपति कुल भूषण, पद्मावती नौ नन्द । वृषभ लंछन कंचन तनु प्रणमइ, प्रमुदित कवि 'विनयचन्द्र' ।।५।। ॥ श्री चन्द्राबाहु जिनस्तवन ।। ढाल-त्रिभुवन तारण तीरथ पास चितामणि रे कि पा. चन्द्रबाहु जिनराज उमाह धरि घणउ रे । उमाह । दास तणा दोय वयण निजर करिनइ सुणउ रे । नि० । जनम सम्बन्धी वैर विरोध ते उपसमइ रे। वि० । समवशरण तुम देख पंखी सबला भमइ रे॥ ५० ॥१॥ छय मृतु आवी पाय सेवइ प्रभु तुम तणा रे । से० । आप आपणी करइ भेट कि पुण्य प्रकर घणा रे कि । नीप कदम्ब नइ केतकि, जूहि मालती जू रे कि । जू० । बिउलसिरि वासंत कि जातिलता छती रे कि ॥जा० ॥२॥ शतदल कमल विशाल कि करणी केतकी रे । कि क० । बन्धु जीवना थोक अशोक सुबंधु की रे । अ० । सप्तपर्ण प्रियंगु सरेसड़ मोगरा रे । स० । लाल गुलाल सरल चंपक परिमल धरा रे ॥ स० ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि तिलक केसर कोरंट बकुल पाडल वली रे । ब० । दमणौ मरुव कुसुम कली बहु विध मिली रे । क० । होइ अनुकूल समीर धरइ नहीं तूलता रे । ध० । तौ किम सहृदय लोक धरै प्रतिकूलता रे ॥ ध० ||४|| देवानन्दन भूप कुलांवर दिनमणि रे | कु० | रेणुका माता नन्द लीलावती नउ धणी रे । ली० । कमल लंछन भगवान 'विनयचन्द्रइ" थण्यौ । वि० । तुम गुण गण नौ पार, कुंणइ ही नवि गुण्यो रे ॥ कुं० ॥५॥ ॥ श्री भुजंग जिनस्तवन ॥ ढाल-भूंत्रखड़ानी भुजंग देव भावइ नमुँ, भगति युगति मन आणि ॥ सलूणे साजना भुजंग नाथ वंदित सदा, सुरनर नायक जाणि | स० ॥ १॥ हुँ रागी पण तँ सही, निपट निरागी लखाय । स० । ए एकंगी प्रीतड़ी, लोकां मांहि लजाय । स० ||२|| आश्रित जन नई मूकर्ता, प्रभु अति हांसी थाय । स० । शंकर कंठइ विष धर्यो, पिण ते नवि मूकाय | स० ||३|| जे नेही नेह' मिलै, तर तेह सुं मिलियइ जाय । स० । तेह मिल्य स्युं कीजियइ, जे काम पड्यां कमलाय | स०||४|| महावल नृप महिमा तणौ, नन्दन गुण मणि धाम । स० । कमल लंडन प्रभु ना कर, विनयचन्द्र' गुण ग्राम स०||५|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरमान जिनवीसी || श्री ईश्वर जिनस्तवनम् || ढाल - थांरै माथे पिचरंग पाग सोनारी छोगलउ मारुजी ईश्वर जिन नमियर, दुःख नीगमियर भव तणा । वाल्हाजी । चउगति नवि भमियर, दुर्जन दमियर आपणा | वा०| संसार भमतां बहु दुख खमतां भव गयउ । वा० । भव थिति नइ भोग, कर्म संयोगइ सुख थयउ | वा० ||१|| तुं साहिब मिलियउ, सुरतक फलियउ आंगण । वा० । मिथ्यामति टलियउ दिन मुझ वलियउ हेजई घणइ |वा० । हुँ हुँ अपराधी, मई सेवा लाधी तुम्ह तणी | वा० । करउ सहज समाधि, कीरति बाधी अति घणी | वा० ||२|| मन विषय न समियर, क्रोधइ धमियउ कुभाव थी । वा० । आलई भव गमियउ, हुँ नवि नमियउ भाव थी । वा० । हिव मिथ्यात्व वमीय, मन उपसमियौ अति घणुं । वा० । दुर्दम दिलदमिय, समकित रमीय गुण थुगुँ । वा० ||३|| तुं आगम अरूपी, अकल सरूपी मोहना । वा० । परमातम रूपी, ज्योति सरूपी सोहना ॥ वा०|| तँ आप अनायक, त्रिभुवन नायक गुण भर्यो । वा० । जित मनमथ सायक, क्षायक भावई भव तय ॥ वा०४ ॥ गलसेन महीपति वंश विभूषण दिनमणी । वा० । जसु सुयशा माता, जगत विख्याता बहु गुणी ॥ वा० ॥ कंचन तनु जीप, लंछन दीपइ निशामणी | वा० । 'विनयचन्द्र' आनन्दइ श्री जिन वंदर सुरमणी ॥ वा० ५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ४३ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ॥ श्री नेमिप्रभ स्तवनम् ॥ ढाल-हीडोलणारी, कर्म हीडोलणइ माई झूलइ चैतनराय हर्ष हीडोलणइ झूलइ, नेमिप्रभ जिनराय । जिहां शुद्ध आशय भूमि पटली, सोहियइ थिरवाय । तिहां ज्ञान दर्शन थंभ अनुभव, दिव्य भाउ लसाय ॥ उपदेश शिख्या सहज संकलि, विविध दोर बनाय । सौंदर्य समता भाव रूपइ, हींचितां सुख थाय ॥१॥ ह०॥ जिहां चरण शोभा भाव चामर, चतुरता बींझाय । व्रत सुमति गुपति प्रतीत आली, रहत हाजरि आय ॥ परपक्ष गुण शुभ वायु सँधा, परिमलइ महकाय। तिहां भगति जुगति विवेचनादिक दीपिका दीपाय ॥३।। ह. सबोध तकीया तखत शुभ मति, विभवना समुदाय । अनुपाधि भाव सुभाव चित्रित महित मन वचकाय ।। जिहां सहज समकित गुण सुबन्धित, चंद्र आ चितलाय । शम शील लील विलास मंडित, मंडपइ धृति दाय ॥३॥ ह. कर कमल जोड़ी करइ सेवा, नाकि नाथ निकाय । सुर असुर नरवर हष भरि, सम्मिलित राणा राय ।। अनुभाव जेहनइ वैर विड्डुर, दुरित दुख पुलाय । धन धन्न प्रभु कृतपुण्य जय जय, सबद गीत गवाय ॥४।। ह०॥ वीरराय कुल अभ्र दिनमणि, सुयश तिहुअण छाय । जसु सूर लंछन वरण कंचन, सुभग सेना माय ॥ भवि जीव बोहइ चित्त मोहइ, ज्ञानतिलक पसाय ॥ कवि विनयचन्द्र' प्रमोद धरि नई, देव ना गुण गाय ॥५॥ ह० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरमान जिनवीसी || श्री वीरसेन जिन स्तवनम् ॥ राग - कड़खानी जय वीरसेना भिधो जिनवरो जग जयो, वीरसेना थकी सुयश द्रव्य गुणवाद रण तूर नादई करी, पायउ । शुद्ध उपदेश पड़हउ बजायउ || १|| ज० ॥ मद मदन मान मुख अटिल जे उंबरा, मोह महीपति तणा अचल अप्रमत्तता शक्ति गुण गण करी, जे प्रसिद्धा । सौर्य सन्नाह विविध प्रहरण करी जेर कीधा ॥२॥ ज० ॥ तन टोप गम्भीर्य्यता, वीर्य गुण वेदिका सुमति बन्दूक तप दारु गोली गुपति, अति कपट कोट नई चोटि कीधी ||३|| ज० ॥ रागनइ द्वेष बे तनुज मोह भूपना, तेह सुं सबल संग्राम सहज उदासता शक्ति बल अधिक थी, Jain Educationa International ओटिली ४५ For Personal and Private Use Only मोह मिथ्यात नउ पक्ष खण्ड्यउ ||४|| ज० ॥ कुमर भूमिपाल भूपाल नउ दीपतऊ, भानुमति नन्द आनन्ददाई | वृषभ लन्छन गुणी भुवन चूड़ामणि, कवि 'विनयचन्द्र' जस कीर्ति गाई || ५ || || मण्ड्यउ । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ॥ श्री महाभद्र जिन स्तवनम् ॥ ढाल- चँवर ढुलावइ हो गजसिंह रौ छावौ महुल में जी साहिब सुणियइ हो सेवक वीनति जी, श्री महाभद्र जिणंद । मुझ मन मधुकर हो नित लीणउ रहे जी, प्रभु पदकज मकरन्द ॥१॥सा०॥ एह अनादि हो अनन्त संसार मंइ जी, तुम्ह आणा बिन स्वामि । जे दुख पाम्या हो नाम लेई स्यु कहुँ जी, फरस्या सवि भवि-भवि ठामि ॥२सा०॥ अविरत अव्रत हो परवश नइ गुणें जी, मोह नृपति नइ जोर । कमै भरम नइ हो जाल अलूझियौ जी, ___चंचलता चित चोर ॥३||सा०॥ हुँ निज बीती हो बात शी दाखवू जी, जाणउ छउ जिनराय । तारक विरुद हो वहियइ आपणौ जी, बांह ग्रह्यांनी लाज ||४||सा०॥ देवराय नृप नउ हो कुँअर दीपतउ जी, ____ उमा देवी जसु माय । सिंधुर वंछन हो वरणइ कंचनइ जी, 'विनयचन्द्र, सुखदाय ॥शासा०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरमान जिनवीसी ॥ श्री देवयशा जिन स्तवनम् ।। ढाल-काचीकली अनार की रे हां तुम्हे तउ दूर जइ वस्या रे हां, आवी केम मिलाय । मेरे साहिबा। संदेशो पहुँचइ नहीं रे हां, कागल पिण न लिखाय ॥ मे० ॥१॥ पिण अनन्त ज्ञानी अछउ रे हां, जाणउ मन ना भाव । मे०॥ हेज धरी मुझ नई मिलौ रे हां, जिम होइ प्रीति जमाउ ।। मे० ॥२॥ अनुकम्पा करि नइ करउ रे हां, समकित नउ निरधार । मे० । तुम्ह बिन अवर न को अछइ रे हां, ___ जीवित प्राण आधार ।। मे० ॥ ३ ॥ जाणी नई नवि पूरता रे हां, सेवक केरी आश । मे०। तउ साहिब शी बात ना रे हां, हुँ पिण स्यानउ दास ॥ मे० ॥४॥ सर्वभूत नृप नन्दनौ रे हां, गंगा मात मल्हार । मे० । देवयशा शशि लन्छने रे हां, 'विनयचन्द्र' सुखकार ॥ मे० ॥ ५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ॥ श्री अजितवीर्य जिनस्तवन । ढाल-वीरवखाणी राणी चेलणा अजितवीरज जिन बीसमा जी, विसरइ नहीं थारउ नेह । अलख रूपी तुमे चित लिख्याजी, ___ आ भव पर भव जेह ॥१॥ अ०॥ प्रभु तुमे अकल कलना करी जी, अगम्य कीधा तुमे गम्य । अभक्ष्य ते भक्ष्य प्रभु आचर्या जी, . आदर्या रम्य अरम्य ॥२॥ अ०॥ अपेय जे पामर लोकनइ जी, तेह कीधैं तुम्हे पेय । अंतरगति इम भावतां जी, तुम्हे अनुपम उपमेय ।।३।। अ० अकल षट दव्य निज रूप थी, . अगम्य जे सिद्ध न ठाम | अभक्ष्य जे काल अपेय नइ जी, सहज अनुभव सुधा नाम ॥४॥ अ०॥ नरपति राजपाल सुंदरु जी मात कनीनिका जास । स्वस्तिक लंछनइ वंदियइ जी, कवि विनयचन्द्र' सुविलास ॥५॥ अ०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विहरमान जिनवीसी ॥ कलश ॥ ढाल-शांति जिन भामणइ जाऊँ संप्रति वीस जिनेश्वर वंदउ, विहरमान जिणराया जी। विचरंता भविजन मन मोहे, सुरनर प्रणमइ पाया जी ॥१।। सं०॥ जंबूद्वीपई च्यार सोहावइ, धातकी पुष्कर अर्द्धइ जी। आठ आठ विचरइ जयवंता, अढी द्वीप नइ संधे जी ।।२।। सं०॥ मात पिता लंछन नइ नामइ, भगति धरी नइ थुणिया जी। ए प्रभु ना अनुभाव थकी मंइ, . दुरित उपद्रव हणिया जी ।।३।। सं०॥ संवत सत्तर चउपन्नइ वरषइ, । राजनगर में रंगइ जी । बीसे गीत विजयदशमी दिन, कर्या उलट धरि अंगइजी ॥४॥ सं॥ गच्छपति श्रीजिनचन्द्रसूरिन्दा, हर्षनिधान उवझाया जी। ज्ञानतिलक गुरु नइ सुपसायइ, 'विनयचन्द्र' गुण गाया जी ।।५।। सं०॥ ॥ इति विंशतिका समाप्ता ।। इति श्री विनयचन्द्र कवि विनिर्मिता विंशतीर्थकराणां विंशतिका संपूर्णम् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ॥ श्रीशत्रुजय यात्रा स्तवनम् ।। ढाल-कंत तंबाकू परिहरी, एहनी । हारे मोरालाल सिद्धाचल सोहामणो, ऊँचो अतिहि उत्तंग मोरालाल । सिद्धि वधू वरवा भणी, . - मानु उन्नत करि चंग मोरा लाल से जा शिखरे मन लागो, . - साहिबनी सूरति चित लागौ॥ आं०॥ हारे मोरा लाल पालीताणौ तलहटी, जिहाँ ललितसरोवर पालि ॥ मो०॥ पगला प्रथम जिणंदना, प्रणमीजे सुविशाल मोरा लाल ॥२॥सेना हारे मोरा लाल प्रणमी नै पाजे चढ़ो, . समवसस्या जिहां नेम ।। मो० ॥ जिहाँ प्रभु पगला वंदिय, पूरण धरि नै प्रेम मोरा लाल ॥३॥से०॥ हारे मोरा लाल आगल चढ़ता, अतिभली, नीली, धवली पर्व ।। मो० ॥ कुंडे कुंडे पादुका, वंदे भवियण सर्व मोरा लाल ॥४॥सेना हारे मोरा लाल अनुक्रमि पहिला कोट में, . पेसी कीध प्रणाम । मो० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जय यात्रा स्तवन । वाघणि पोले पैसतां, ... नाग मोरनो ठाम मोरा लाल ||से०॥ हारे मोरा लाल गोमुख ने चक्केसरी, । प्रणमो वामे हाथ मोरा लाल । मो० ॥ चौरी नेम . जिणंदनी, सरगबारी ने साथ मोरा लाल ||६|से०॥ हारे मोरा लाल चौमुख जयमलजी तणो, . .. .. नमतां होइ आह्लाद । मो०॥ अवर चैत्य नमि पेसीयै, । आदि जिणंद प्रासाद मोरा लाल।से। हारे मोरा लाल दीजे मध्य प्रदक्षिणा, ...खरतरवसही वांदि ॥ मो०॥ पुंडरीक गणधर तणी, ... .. प्रतिमा अति आनंदि मोरा लाल ।८।से। हारे मोरा लाल सहसकूट अष्टापदे, । प्रमुख बहु जिन वांदि ॥ मो० ॥ राइणि तलि पगला नमो, गणधर पगला सार मोरा लाल ॥ilसे०॥ हारे मोरा लाल मूल गंभारे ऋषभजी, . पासै होइ जिणंद । मो० ॥ मरुदेवी माता गज : चढ़ी - आगल भरत नरिंद मोरा लाल ॥१०॥से०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि हारे मोरा लाल चवदैसय बावन अछे, इणिपरि देइ 2 गणधर पगला सार ॥ मो० ॥ प्रदिक्षणा, नमिये नाभि मल्हार मोरा लाल ||११|| से०|| हारे मोरा लाल चैत्यवंदन प्रभु आगले, हथणी पोले हिव बाहिर देहरा थकी, छै हांरे मोरा लाल सूर्यकुंड भीमकुंड ने, Jain Educationa International करिये आणी भाव || मो० ॥ हुँ भाव मोरा लाल ||१२|| से०|| ओलखाभूल फरसीजे जिन न्हाण मोरा लाल || १३|| से० ॥ हारे मोरा लाल जाइये चेलणतलावड़ी, सिद्ध सगला तिणि ठौड़ ॥ मो० ॥ पादुका, सिद्धवड़े प्रभु for a जोड़ मोरा लाल ||१४|| से० ॥ हारे मोरा लाल आदिपुरे आवि चढ़ो, फिरि नै ए गिरिराज ॥ मो० ॥ आविनै, पासे पगला जान || मो० ॥ आवियो वलि वंदो जिनराज मोरा लाल ||१५||८|| हारे मोरा लाल बीजी जात्र करिये तिहां, बाहिर खमणा चैत्य ॥ मो० ॥ For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जय यात्रा स्तवन ~~~~~~~~ ~~~ निरखी अद्भुत भेटिये, - अति प्रसन्न हुवे चित्त मोरा लाल ॥१६॥से०॥ हारे मोरा लाल पांडव पांचे प्रणमियै, अजित शांति जिनराय ॥ मो० ॥ टुंक शिवा सोमजी तणो, तिहां चोमुख भेटो आय मोरा लाल ॥१७॥से॥ हारे मोरा लाल गिरि तल से@जी नदी, जोवो . आणि विवेक ।। मो० ॥ इणि परि विमलाचल तणी, तीरथ भूमि अनेक मोरा लाल |१८। से०॥ हारे मोरा लाल पाजे पाजे ऊतरी, तलहटी जिन परसाद ॥ मो० ॥ . . स्नात्र महोच्छव कीजीए, टाली पंच प्रमाद मोरा लाल ॥१६॥से०॥ हारे मोरा लाल एगिरिनी गुण वर्णना, करतां नावै पार ॥ मो० ॥ सीमंधर सामी सेंमुखै, महिमा कही अपार मोरा लाल ॥२०॥से०॥ इम भक्तिपूर्वक युक्ति सेती, थुण्यो सेनूंजा तीथे नइ । संवत सतर पंचावनइ वर, पोष वदी दसमी दिनइ ।। श्रीपूज्य जिनचन्द्रसूरि पाठक, हरषनिधान हरषइ घनइ। परिवार सों जिन यात्र कीधी, विनयचन्द्र' इसु भणइ ॥२१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ॥ श्री ऋषभ जिन स्तवनम् ।। ढाल- फूली ना गीतनी देसी वीनति सुणो रे म्हारा वाल्हा, राजि मरूदेवा राणी ना लाला राजि थारां चरण नमुं शिरनामी । थेतौ भूखां नी भावठ भंजउ, राजि निज सेवक तणा मन रंजउ राजि० ॥१॥ म्हारा मननी आशा पूरो, ... राजि म्हारा कठिन करम दल चूरउ । राजि० । थारा गुण सुं मो मन लागो, राजि हियइ राखु रे बांभण जिम तागउ ॥२॥ थांरी सूरत अधिक सुहावै, .. राजि म्हारा नयण देखि सुख पावइ राज० थारी कंचनवरणी. काया, राजि थारउ रूप सकल सुख दाया। राज०।३॥ सोहइ नयन कमल अणियाला, . राजि समतामृत रस वरसाला । राजि० । थे तो नाभि नरिंद कुल चन्दा, राजि थांनइ सेवे सुर नर इन्दा । राजि०॥४॥ थारो ध्यान हिया विच धारूं, । राजि थानइ निशिदिन कहीन विसारू राजि०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जय स्तवन त्रिभुवन नउ. : मोहनगारउ, राजि तिणि लागइ मुझ नइ प्यारौ ।राजि० ॥३॥ तुझ नइ देखी दिल फूली, राजि तुझ पास सदा रहइ झूली। राजि० । मुझ नइ निज सेवक जाणी, . राजि मुझ तारउ करुणा आणी। राजि० ॥६॥ मई तउ पूरब पुण्यइ पाया, . राजि प्रभु चरणे चित्त लगाया। राजि०। श्री ऋषभ जिणंद जगराया, विनयचन्द्र हरख सुं गाया राजि० ॥ ७ ॥ .. ॥श्री शत्रुजय मंडन ऋषभदेव स्तवनम् ॥ ढाल-माखीनी वात किसी तुझनइ कहुं, मुझ नइ आवइ लाज ऋषभजी। विगर कह्यां मन नवि रहइ, हिव सांभलि जिनराज मृ०॥१॥ हुं माया मोहीयउ, मइ कीधा पर द्रोह । ऋ०। अधम तणी संगति ग्रही, न रही संयम सोह । ऋ० ॥२॥ मूझि रहयउ संसार में, न धर्यो ताहरउ घ्यान । मृ०। ... परमारथ पायउ नहीं, भरियउ घट मां मान । ऋ० ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि तृष्णा सुं लागी राउ, पिण न भज्यउ संतोष । ऋ०।। ठावा मुझ माहे मिलइ, सगलाई जे दोष। ऋ० ॥४॥ कुमति घणी मुझ मन वसइ, सुमति थकी नहीं नेह ऋ०। . माठी करणी मां पड्यउ, हुं अवगुण नउ गेह । ऋ०॥५॥ वलि झूठी सांची करूँ, वातां तणउ विचार । ऋ०। । हुं लंपट नइ लालची, कपट तणउ नहीं पार । ऋ० ॥६॥ ढाकुं अवगुण आपणा, केहनी न करूं काण । ०। पर दूषण लेवा भणी, हुँ छू आगेवाण । ऋ० |७|| मिथ्यादृष्टि देव सुं, धरियउ पूरउ राग । ०।। अर्थ तणउ अनरथ कियउ, देखी नइ निज लाग । ऋ० ॥८॥ थिरकि रह्यउ निज घाट में, चंचल माहरउ चित्त । ०। संसारी सुख ऊपरइ, हीयड़उ हीसइ नित्त । ० ॥६।। जीव संताप्या मई घणा, पर आशाये वींध । भृ०। वलि रात्रि भोजन कस्या, काज अकारज कीध । ऋ० ॥१०॥ हिव हुं किम करि छूटिहुँ, कीधा करम कठोर । ऋ०। भव दुख मां हुं भीड़ीयउ, कोई न चालइ जोर । ऋ० ॥१॥ पिण इक शरणउ ताहरउ, लीधउ छइ जग तात । भृ०। देस्युं ताहरी सानिधइ, दुर्जन नइ सिर लात । ऋ० ॥१२॥ 'विनयचन्द्र' प्रभु तूं अछइ, सेव॒जय सिणगार । ऋ०। । चरण ग्रह्या मैं ताहरा, मुझ कुमति नइ तार । ऋ० ॥१३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन जिन गीतम् . ॥ श्री अभिनन्दन जिन गीतम् ॥ ढाल-प्रोहितियानी पंथीड़ा अंदेसउ मिटस्यै जे दिनइ रे, ते तउ मुझ नइ आज बताइ रे। प्रभु अभिनन्दन नइ मिलवा तणउ रे, अलजो ए मनडै न खमाइ रे ।।१।। पं०॥ ते शिवपुर वासउ बसे रे, हुँ तउ मानव गण मई जोय रे। प्राणवल्लभ दुर्लभ जिनराज नी रे, कहि नै सेवा किण विधि होय रे॥२॥५०॥ पांख हुवै तउ ऊडि नै रे, . जाइ मिलीजै तेह सुं नेट रे। ओलग कीजइ बेकर जोडि नै रे, . स्युं वलि काइ भलेरी भेट रे ॥३।। पं० ॥ इण कलि संमुख नवि मिलइ रे, वलि पहुँचइ नहीं कागल मात रे। दूर थकी जे रंग इसी परि रे, राखिस ए पटोलै भाति रे॥४॥ पं०॥ परम पुरुष पांहर पखै रे, . चाढे वंछित कवण प्रमाण रे। गुण आगलि साची जाणै सही रे, . जगगुरू 'विनयचन्द्र' नी वाणि रे ॥४||पं०।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ॥श्री चन्द्रप्रभ जिन गीतम् ।। देशी-जिनजी हो हसत वदन मन मोहतउ हो लाल - साहिबा हो पूरण ससिहर सारिखौ, हो लाला सोहै मुख अरविंद जिणेसर तें चित चोर्यो माहरौ हो लाल, जिम अलि मन मकरन्द जि० ॥१॥ते।। गयण निसाकर दीपतौ हो लाल, __ जस वड़ जिम विस्तार जि० ॥२॥ ते० ॥ तूं तेहिज सुपनइ मिलइ हो लाल, सांप्रति दरसण दाखि जि० । मूढ पतीजै जे हियइ हो लाल,' ..... .. लाज मोरी तु राखि जि० ॥३।। ते० ॥ अन्तरजामी तुं अछे हो लाल, . ..... वाल्हेसर ... सुविदीत जि० । साहिब वस्त तिका करो हो लाल, ... जिण करि आवै चीत जि० ॥४॥ ते० ॥ ते हिज बात सही करी हो लाल, . . कहीये न विसरइ हेव जि०। 'विनयचन्द्र' साचउ सही हो लाल, . श्रीचन्द्रप्रभु देव जि० ॥५॥ ते० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिनाथ स्तवन ॥ श्री शान्तिनाथ स्तवनम् ॥ ढाल - जे हड़माने मोंजरी ए देशी सांभलि निसनेही हो लाल कहूं बात ते केही हो । 1 सगुण म्हांरा वालहा । कहुँ वीनति केही हो लाल पिण तूं छइ तेही हो । स० ||१|| शरणागत पालौ हो लाल, अंतर दुख टालौ हो ! स० । तुं तर माया गालौ हो लाल, रहै मोसुं निरालौ हो । साथ बाते परचावै हो लाल, ते मन नइ नावै हो । स० ॥ साची पतिया हो लाल, तउ संशय जावै हो । सं० ||३|| राख्यौ पारेवौ हो लाल, तिण परि सारेौहो । स० । सेवक तारेat हो लाल, नाकार वारेवौ हो । स० ||४|| शांतिनाथ सोभागी हो लाल, सोलम जिन सागी हो । स०| 'विनयचन्द्र' रागी हो लाल, जयौ तुं वड़ भागी हो | स०||५|| ॥ श्री नेमिनाथ गीतम् ॥ ढाल- - अब कउ चौमासौ थे घर आवौ जावई कहउ राजि ए देशी नेमजी हो अरज सुणो रे वाल्हा माहरी हो राज राजुल कहइ धरि नेह, घरि रहउ नै राज । साहिबा एकरस्य उ थे फिरी आवउ, घरि रहउ नै केसरिया घरि०. अलबेला घ० अभिमानी घ०, Jain Educationa International ५६ For Personal and Private Use Only राज । साहिबा एकरिस्यउ || आं० ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि नेमजी हो नवभव नेह निवारनइ हो राज, इम किम दीजइजी छेह ॥१॥ घ०॥ नेमजी हो बिन अवगुण मुझ नइ तजी हो राज, ते स्यउ मुझ मां दोष ॥१०॥ नेमजी हो करिवउ न घटइ तुम नइ हो राजि, __अबला ऊपरि रोष ॥१०॥सार २॥ नेमजो हो सउ मीनति करतां थकां हो राजि, मत जावउ मुझ मेलि ॥१०॥ नेमजी हो तुम बिन मुझ काया दहइ हो राजि, जिम जल विहूणी वेलि ॥घासा० ३॥ नेमजी हो मुगति रमणि मोह्या तुमे हो राजि, पिण तिण मां नहिं स्वाद ॥० नेमजी हो तेह अनंते भोगीवी हो राजि, . छोड़उ छोकरवाद ॥३०॥सा० ४॥ नेमजी हो अधिका लोभ न कीजइ हो राजि, आणउ हियइ रे विवेक ॥०॥ नेमजी हो सुललित शील सुहामणी हो राजि, हुँ तुम नारी एक घासा०॥ नेमजी हो योवन लाहउ लीजियइ हो राज, जोइ विषय सुख जोर ॥०॥ नेमजी हो चारित पिण लेज्यो पछइ हो राज, न हुवउ कठिन कठोर ||सा० ६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमि राजिमती बारहमासा नेमजी हो भलौ रे कियौ तुम वालहा हो राज, आवी तोरण बार ॥१०॥ नेमजी हो रथ फेरी पाछा वल्या हो राज, . एह नहीं जग व्यवहार ॥घासा० ७॥ नेमजी हो जउ नाव्या मन मन्दिरइ हो राज, हूँ आविस तुम पास ||घ०॥ नेमजी हो इम कहि पिउ पासइ गइ हो राज, ..... . राजुल धरती आश ॥घासा०८॥ नेमजी हो प्रणमी नेम जिणंदनइ हो राज, संयम ग्रह्यो धरि प्रेम ||१०|| नेमजी हो प्रिउ पहिली मुगते गई हो राज, ___ वंदइ 'विनयचन्द्र' एम ॥१०॥६।। ॥ श्री नेमिनाथ राजिमती बारहमासा ।। राग-हिंडोल आवउ हो इस रिति हित सइ यदुकुलचन्द, . द्यउ मोहि परम आनन्द । रस रीति राजुल वदत प्रमुदित, सुनो यादव राय। छोरि के प्रीति प्रतीति प्रियु तुम्ह, क्यूँ चले रीसाय ॥ चिहुँ ओर घोर घटा विराजत, गुहिर गाजत गइन । धरि अधिक गाढ़ अषाढ़ उलट्यउ, घट्यउ चित से चइन॥१ आ०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि उत्तंग गिरिवर प्रवर फरसत, मेघ वरषत जोर । दमकती दामिनि बहुर भामिनी, चमकती तिहिं ठोर।। प्रियु प्रियु पपीयन रटत प्रगटत, पवन के झकझोर । इस मास सावन दिल दिढावन, सजन मानि निहोर ॥२ आoll दिहुँ दिसइ जलधर धार दीसत, हार के आकार । ता वीचि पहुवै नहीं कबही, सूई को संचार ॥ सा लगत है झरराट करती, मध्यवरती बान । भर मास भाद्रव द्रवत अंबर, सरस रस की खान ॥३ आ०|| सरसा सरोवर विमल जल सै, भरे हैं भरपूर । लख लोल करत हिलोल हर्षित, हंस पक्षि पडूर ।। चन्द्र की शीतल चन्द्रिका से, विकासई निशि नूर । आसोज मास उदास अबला, रहत तो बिनु झूरि ॥४ आ०॥ संयोगिनी को वेष देख्यउ, तब उवेख्यउ कंत । शृंगार शोभत सहल अंगइ, महल दीप दीपंत ।। उनमत पीवर अति घन स्तन, मध्य मुकुलित माल। सखी मास काती दहत छाती, माल तौ भई झाल |शाआका सिव रमनि संगति सई उमाहे. जात काहे दउरि । निज नारी प्यारी आसकारी, दीजियत फ्यु छोरि ॥ वनवास कीयइ भेष लीयइ, भला न कहु तोहि । इन मार्गसिर भई मार्ग सिर परि, देखि दुखिनी मोहि ।।६। आगा अति दिवस दुबल सबल दोषाकान्त निशिपति ज्योति । संकुचित हिम हिम कठिनता सई, कमल लटपट होत ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमि राजिमती बारहमासा. - - - चंबेल चोआ करु मरदन, दरद होइ असमान । प्रियु पोष मास शरीर शोषत, हूं भई हइरान ||आoll चल चीत प्रीतम सीत कीनी, सोउ सालत साल। इक तनक मोरी भनक सुनिक, छिनक करौ निहाल | विरह सौं फाटत हृदय मेरौ, दुख घनेरो होहि । यह माह मास उलास धरि कै, सेझ को सुख जोहि ||८|आ०॥ सारिखी जोरी रमत होरी, लेत गोरी संग । रंभित झमाल धमाल गावत, सब बनावत रंग ।। डफ ताल चंग मृदंग वावत, 'उडावतहिं गुलाल । इह मास फागुन सगुन खेलउ, निरखि मोहि बेहाल ||आ०|| जहाँ गत विपल्लव अति सपल्लव, भये झंखरझार । अरविंद निर्मल विपुल विकसित, हसत वन श्रीकार ।। तहाँ बहुल परिमल लीन अलिकुल मिलि करत गुंजार। यह मास चैत सचेत भई, देत मनमथ मार |१०|आ०| लुलि लुंब झुब कदंब होवत, अंब के चिहुँ फेर । तरु डार धूजत मधुर कूजत, कोकिला तिहिं बेर ।। अभिलाष द्राखन कउ समानत, मउज मानत लोग। वैशाख मई वयशाख वउलत, कहा पीछई भोग ।।११।।आ०।। रति केलि कंदल दवानल सउ, प्रबल ताप प्रसंग। अति अरुन किरन कठोर लागत, नांहि तागत अंग ।। चन्दन प्रमुख झखि झखि लगाउं, धख जगावं साय । मन लाय ज्येठ मई ज्येठं मेरे, ल्याउ नेमि मनाय । १२। 'आ०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि इन भांति मन की खांति बारह, मास विरह विलास। करि कइ प्रिया प्रिय पासि चरित्र, ग्राउ आनि उल्लास ॥ दोउं मिले सुन्दर मुगति मंदिर, भइ जहाँ अति भंद्र मृदु वचन ताकउ रचन भाषत, विनयचन्द्र कवीन्द्र ॥१३।।आ०॥ ॥ इति श्री नेमिनाथ राजीमत्योर्द्वादश मास ।। ॥ श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ वृहत्स्तवनम् ।। ढाल-कोइलो परवत धुंधलउ, एहनी श्री संखेश्वर पास जी रे लो, सुणि वारू दोइ वइण रे सनेही। दरसण ताहरउ देखिवा रे लो, तरसे माहरा नइण रे सनेही ॥१ श्री०।। चोल मजीठ तणी परइ रे लो, - लागउ तुझ सुँ प्रेम रे सनेही। हियडउ हेजइ ऊलसइ रे लो, __ जलहर चातक जेम रे सनेही ॥२ श्री०।। हूँ जाएँ जइ नइ मिलूँ रे लो, साहिब नइ इकवार रे सनेही । सयणा रइ मेलइ करी रे लो, . सफल हुवइ अवतार रे सनेही ॥३श्री०।। वाल्हा किम आएँ तिहां रे लो, वेला विषमी जाय रे सनेही। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमि राजिमती बारहमासा सुख चाहता जीव नइ रे लो, __मत कोई लागू थाय रे सनेही ॥४ श्री०।। केलवि कल काइ हिवै रे लो, जिम आयु तुझ पास रे सनेही। आवी नइ तुझ रंझिस्यु रे लो, खिजमति करस्युं खास रे सनेही ॥५ श्री०॥ मत जाणौ मोनइ लालची रे लो, दिल माहरउ दरियाव रे सनेही। बीजउ कंइ माहरइ नहीं रे लो, चाहइ आदर भाव रे सनेही॥६ श्री०॥ महिर बिना साहिब किसउ रे लो, लहिर बिना स्यउ वाय रे सनेही। सहिर बिना स्यउ राजवी रे लो, इम कलि मांहि कहाइ रे सनेही ॥७ श्री०॥ कां न करउ मुझ ऊपरइ रे लो, कूरम दृष्टि सुदृष्टि रे सनेही । जेथी ततखिण संपजइ रे लो, शान्त सुधारस वृष्टि रे सनेही ॥८॥श्री०।। वृक्ष्यादिक नई सेवतां रे लो, पूगइ मननी आस रे सनेही । तउ साहिब तुझ सारिखउ रे लो, किम राखइ नीरास रे सनेही ॥६॥श्री०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि वयणे नेह वधइ नहीं रे लो, नयणे वाधर नेह रे सनेही । नेह तेह स्या काम नो रे लो, अमिलियां र है तेह रे सनेही ||१०||श्री० || जिम तिम मुझ नइ तेड़नइ रे लो, करि माहरउ निरवाह रे सनेही । 'विनयचन्द्र' प्रभु सानिधर रे लो. नहीं खलनी परवाह रे सनेही ||११|| श्री०॥ || श्री पार्श्वनाथ वृहत्स्तवनम् ॥ ढाल - देहु देहु नणद हठीली, एहनी श्री पास जिनेसर स्वामी, तुं वाहलो अन्तरजामी रे । जिनदेव तुं जयकारी, तुझ सुरति लागे प्यारी रे ॥ साहिब सुन वीनति मोरी, बलिहारी जाउ तोरी रे || १|| तुं गुण अनन्त करि गाजर, तुझ रूप अनोपम राजइ रे । सुन्दर तुझ मुख नउ मटकौ, वारू लोयण नउ लटकउ रे ||२|| तु धर्म तण छ धोरी, माहरउ मन लीधउ चोरी रे तुझ दीठां विण न सुहावर, मुझ जीव असाता पावइ रे || ३ || भरि निजर जोऊँ जब तुझनइ, तब आनंद उपजइ मुझनइ रे । चित्त मांहि हुवइ रंग रोल, जाणे स्वयंभूरमण कल्लोल रे || ४ || मई देव घणा ही दीठा, मुख मीठा हीयड़ा धीठा रे । मिलियउ नहीं हियउ कोई, त्यारइ मँक्या सह जोई रे ||५|| 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ स्तवनम् हुं भव भव भमतौ हार्यो, बहु दिवसे तुझ सम्भार्यो रे। तुझ सेवा करिवी मांडी, ते किम जायइ कहौ छांडी रे ॥६॥ पूरबली प्रीति जगाई, हिवइ करौ निवाज सकाई रे। जे मांहि दत्त गुण लहियइ, मोटा तउ तेहिज कहीयइ रे ।।७।। तूं अध्यातम मत वेदी, तई कर्मप्रकृति सहु छेदी रे। संसार तरी तु बइठउ, शिवमन्दिर मां जइ पश्ठउ रे ।।८।। आजन्म तु बालउ योगी, तुं अनुभव रस नउ भोगी रे । तुतउ छइ निपट निरागी, हुं रागी तुझ रह्यउ लागी रे ।।६।। रागी रागइ जे व्यापइ, तेहनइ जउ वंछित नापइ रे। तउ भगतवच्छल बहु प्रीतइ, तेहनइ कहियइ सी रीतइ रे ॥१०॥ अविचल सुख मुझ दीजइ, परमातम रूपी कीजइ रे। प्रभु साथ बाते आया, कवि 'विनय चन्द्र' गुण गाया रे ॥११॥ ॥श्री पार्श्वनाथ स्तवनम् ॥ ढाल-सूबर दे ना गीतनी सुन्दर रूप अनूप, मूरति सोहइ हो, सगुणा साहिब ताहरी रे। चित माहे रहै चूंप, देखण तुझ नइ हो, सगुणा साहिब माहरी रे ॥१॥ मुझ मन चंचल एह, राखं तुझ नइ हो, सगुणा साहिब नवि रहइ रे। मुझसुं धरिय सुनेह, राखउ चरणे हो, सगुणा साहिब सुख लहइ रे ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि तुं उपगारी एक, त्रिभुवन माहइ हो, सगुणा साहिब मई लाउ रे । आव्यौ धरिय विवेक, हिवइ तुझ सरणउ हो, सगुणा साहिब संग्राउ रे ॥३॥ सरणागत साधारि, विरुद सम्भारी हो, सगुणा साहिब आपणौ रे। भवसायर थी तारि, तुझ नइ कहियइ हो, सगुणा साहिब स्युं घणउ रे ।।४।। साहिब नइ छइ लाज, निज सेवक नी हो, सगुणा साहिब जाणिज्यो रे। मेलउ दे महाराज, वचन हीयामई हो, सगुणा साहिब आणिज्यो रे ॥५॥ लाड कोड मावीत, जो नवि पूरइ हो, सगुणा साहिब प्रेम सुरे। तो कुण राखइ प्रीति, तउ कुण पालइ हो, सगुणा साहिब खेम सुरे।।६।। पास जिणेसर राजि, पदवी आपउ हो, सगुणा साहिब ताहरी रे। कहै विनयचन्द्र' निवाजि, अरज मानेज्यो हो, सगुणा साहिब माहरी रे ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौड़ी पार्श्वनाथ वृहत्स्तवनम् ॥ श्रीगौड़ी पार्श्वनाथ बृहत्स्तवनम् ॥ राग - मल्हार नाम तुम्हारौ सांभली रे, जाग्यउ धरम सनेह | तदिन दिन ऊलटइ रे, मानुं पावस ऋतु नउ मेह ||१|| गोड़ी पासजी हो, ज्ञानी पासजी हो, अरज सुणउ इण वार ॥ तुम पासे आव्या तणौ रे, अधिक ऊमाहउ थाय । पिण स्युं कीजइ साहिबा, आव्या नै छै अन्तराय ||२||गो०|| ते माटइ करिनइ मया रे, आणी मन उपगार । आवी नइ मुझ थी मिलउ, दरसण द्यौ इकवार ||३|| गो० || तुझ जेहवउ वलि कुण छइरे, अवसर केरौ जाण । निज अवसर नवि चूकियइ, करौ सेवक वचन प्रमाण || ४ | गो० ॥ तीन भवन मां ताहरौ रे, झलकइ निरमल तेज । सूरति देखी ताहरी वाल्हा, हसता आवै हेज ||५|| गो० ॥ तुझ मुख मटकउ अति भलौरे, जाणइ पूनिमचन्द | आंखड़ी कमलनी पांखड़ी, शीतल नइ सुखकन्द || ६ || गो० ॥ दीपशिखा सम नासिका रे, अधर प्रवाली रंग । दंत पंकति दाडिम कुली, दीपs अंग अनंग ||७|| गो०|| मुकुट विराजs मस्तकइ रे, कांने कुण्डल सार । बांह बाजूबन्द बहिरखा, हीयड़इ मोती नउ हार ||८|| गो० ॥ नील वरण शोभा वणी रे, अहि लंछन अभिराम । तुझ सारीखो जगत मां, वाल्हा रूप नहीं किण ठाम ||६|| गो० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ६६ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि तीन छत्र सिर शोभता रे, चामर ढाल इन्द्र । तुम प्रभुता देखी करी, मोह्या सुर नर नइ नागेन्द्र ||१०|| गो०|| अपछर ल्याइ तुझ भामणा रे, करती नाटक जोर । तारौ तारौ पास जी रे, ऊभी करइ निहोर ॥११॥ गो० ॥ चाकर केरी चाकरी रे, प्रभु आणौ मन मांहि । वाल्हेसर सुप्रसन्न थी, धरि हेत ग्रहउ मोरी बांहि ||१२|| गो० ॥ तुझ सूं लागी मोहणी रे, बीजां सँ नहि काम | सह जोवौ साहिबा, आवौ आवौ आतम राम ॥ १३ ॥ गौ० ॥ योगी भोगी तुझ भणी रे, ध्यावै नित एकान्त । मुगति रमणि रस रागीयौ, तु नीरागी भगवन्त ||१४|| गो० ॥ अश्वसेन नृप कुल तिलौ रे, वामादेवी कौ नन्द । ते साहिब नइ वीनती, इम वीनवर 'विनयचन्द' ||१५||गो० ॥ ७० ॥ श्री पार्श्वनाथ स्तवनम् ॥ राग - सारंग माई मेरे सांवरी सूरति सु प्यार || मा०|| जाके नयन सुधारस भीने, देख्यां होत करार || मा०||१|| जासौं प्रीति लगी है ऐसी, ज्यों चातक जल धार । दिल में नाम वसै त निसदिन, ज्यु हियरा मई हार || मा०||३|| पास जिनेसर साहिब मेरे, ए कीनी इक तार । विनयचंद्र कहै वेग लहुं अब, भव जल निधि कौ पार || मा०||३|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वाड़ी पार्श्वनाथ लघुस्तवनम् ॥ श्री वाड़ी पार्श्वनाथ लघुस्तवनम् ।। लांध्या गिरवर डुंगरा जी, लांध्या विषम निवास । ते दुख तुझ भेट्यां गयां जी, सांभलि वाड़ी पास ॥१॥ परमगुरु माहरै तुम्हसु प्रीति । पामि सगुण तो सारिखा जी, निगुण न आवै चीत ॥ २०॥ नयणे निरख्यां चाहसँ जी, भलो थयो परभात । मन मेलू जो तु मिल्यौ जी, उल्हस्यौ माहरौ गात ॥३॥५०॥ तई तो कल का फेरवी जी, तन मन ताहरइ हाथ । खरी कमाई माहरी जी, हिव हुँ थयौ सनाथ ॥४॥५०॥ अलवि करै अराधतां जी, वायें बादल दूर। एह विरुद सम्भारि नै चित चिंता चकचूर ॥शाप०॥ सकज अछै तूं पूरिवा जी, घणा हरख नै लाड । जाइ अनेरा आगलै जी, किसौ चढ़ावू पाड ॥६पा०॥ वचने लागइ कारिमौ जी, लाख गुणे ही नेह । दिल भर दिल तेवै छतो जी, जिम बावईयै मेह ॥७॥१०।। प्रस्तावै ऊपर करै जी, वलती ए अरदास । दरसण दे संतोषजे जी, जिम सौ तिम पंचास प०॥ मत बीसारेज्यो हिवै जी, सौ वाते इक वात । अवगुण गुण करि लेखज्यो जी, विनयचंद्र जगतात पा०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि || श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् ॥ -आज माता जोगणी ने चालो जोवा जइये रे एहनी ढाल भौ वण्यो मुखड़ा नउ मटकौ, आंखड़ली अणियाली । लटकालौ साहिब देखी नइ, तो सुँ लागी ताली रे ||१|| राज म्हांरा बीजा नइ किम मन री बातां कहियs || आंकणी ।। ते पासिइ ऊभा नवि रहियइ, जे होवइ बहु मीता । थे म्हारा छउ अन्तरजामी, मनड़ा रा मानीता रे ॥२ रा०ll आज मिल्यउ थांनर ऊमाही, दूधे जलधर बूठा । प्रभु थांरउ दर्शन देखन्तां पाप दियइ पग पूठा रे || ३ रा०॥ हियउ छर मांहरउ हेजाल, सांझ सवार न देखइ | दिवस निज लेखर रे ||४|| थांसूं प्रीतकरण न आवइ, गिणइ कर जोड़ी नइ थांसूं इतरी, अरज करूँ सिरनामी । सनमुख थइ शिवसुख कां नापड, सी कीधी छ खामी रे ||५|| थार जस मैं पहिला सुणियउ, ए प्रभु आश्या पूरइ । तर पोतान सेवक जाणी, चिन्ता किम नवि चूरइ रे ॥ ६ रा०॥ जग मांहे तुं श्री चिन्तामणि, पारसनाथ कहावइ । 'विनयचन्द्र' नइ मुगति संपतां, थारउ कासुं जावई रे ||७ रा०॥ || श्री चिन्तामणि पावनार्थ लघु स्तवनम् ॥ ढाल - वीर वखाणी राणी चेलणा जी, एहनी अरज अरिहंत अवधारिये जी, चतुर चिन्तामणि पास | आतुर दरसण निरखिवा जी, मुँकीये केम निरास || १ || ― Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ गीतम् ७३ दूषण ने पड्यउ पांतरै जी, तेह बगसौ महाराज। बांह जउ दीजीय मो भणी जी, आज तोहिज रहै लाज ||२|| एक पखउ मई तो जाणीयो जी, स्वामि सेवक व्यवहार । धवलड़ौ दूध जिम देखिनैजी, हुं रच्यो सरल अनुहार ॥३॥ नेह कीजे निज स्वारथे जी, ते इहां को नहीं लाह। तुं निरंजण सही माहरी जी, तिल भर को नहिं चाह ॥४॥ पग भरि कवण ऊभौ रहे जी, जिहाँ नहिं लाव नै साव । कहै 'विनयचन्द्र' गिरुवाहुज्योजी, हरस द्यौ देखिने दाव ॥५॥ ॥श्री पार्श्वनाथ गीतम् ॥ ढाल-सरवर खारो हे नीर स० नयणां रो पाणी लागणौ हेलो एहनी देशी तूठा हे पास जिणंद तू०। बूठा हे अमृत मेहड़ा हे लो बू रूठा हे पातक वृन्द ।रू०। पूठा हे पग दे बापड़ा हे लो |पू० ॥१॥ साचउ हे धरम सनेह ।सा०ा लागउ हे प्रभु सँ माहरइ हे लो। मुझ इकतारी हे एह ।मु०। नेह कियाँ बिन किम सरइ हे लो॥२॥ समकित जाग्यउ हे जोर ।स०। अशुभ करम दूरइ गया हे लो। कुमति न चांपइ हे कोर ।कुछ। संयम जोग वशिथया हे लो ॥३॥ प्रगट्यो हे ध्यान थी ज्ञान प्र०ा उदय थयउ अनुभव तणो हे लो। आतम भाव प्रधान ।आ०। सहज संतोष वध्यउ घणो हे लो ॥४॥ सहुमाँ प्रभुनो हे अंश ।सा जेम घृतादिक खोर मां हे लो। झीलइ हे मुझ मन हँस ।झी०। प्रभु गुण निर्भल नीर मां हे लो॥५॥ जगव्यापी जिनराज ।जा तित्थंकर तेवीसमउ हे लो। हित सुख केरइ हे काज हि चरणकमल प्रभुना नमउ हे लो।।६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि परमपुरुष श्री पास |प०। प्रणम्याँ तन मन उल्लसइ हे लो। पूरइ हे सेवक आस पूछ। 'विनयचन्द्र' हियड़े वस्या हे लो॥७॥ . ॥ श्री स्वाभाविक पार्श्वनाथ स्तवनम् ।। ढाल-हाडानी सुणि माहरी अरदास रे मन मोहनगारा, म्हारा प्राण पियारा। आस पूरो रे वाल्हा पास, निपट न करि नीरास म० सास तणी परि तु मुंभ सांभरे रे ॥१॥ माहरइ हुँ हिज सइण रे ।म०। ताहरी मूरति मननी मोहनी रे। निरखि ठरइ मुझ नयण रे |म०) ___हियडौ हेजालू विकसै माहरो रे ॥२॥ तुझ थी लागौ रंग रे ।म०। लइणा दइणा नो कारण एह छरे। खिण न पड़े मन भंग रे ।म०। संग न छोडं जिनजी ताहरउ रे ।।३।। ताहरौ मन नीराग रे ।म० राग घणौ रे मन में मोहरै रे। ते किम पहुँचइ लाग रे ।म०। एक हाथइ रे ताली नवि पड़इ रे ॥४॥ वलि एहवउ नहिं कोइ रे ।म। जेहनइ कहियइ रे मननी वातड़ी रे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~~ ~ ~~ ~ ~~~~ श्री स्वाभाविक पार्श्वनाथ स्तवनम् अलवि कह्यां स्यु होइ रे ।म०। मन ना चिंत्या रे कारज नवि सरइ रे ॥१॥ मोह मिथ्यामति भाव रे ।म० रचि मचि नइ घट मांहि रहइ रे । स्यु ताहरउ परभाव रे म० विमुख न थायइ अरियण एहवा रे ॥६॥ अधिक करइ आवाज रे म01 राता माता रे हस्ती घूमता रे। ते मृगपति नइ लाज रे ।ते। एह औखाणउ जिनजी जाणियइ रे ।।। कलिमां तु कहिवाय रे ।म०। दरियउ रे भरियउ गुण रयणे करी रे । दुख सहु दूरि गमाय रे म० लहिर धरउ महिर तणी हिवइ रे ॥८॥ भव जल निधि थी तारि रे ।म। विरुद थायइ रे साचउ तउ सही रे। 'विनयचन्द्र' जलधार रे ।म। वरसइ रे सगलइ पिण जोवइ नहीं रे ॥६॥ ॥इति श्री स्वाभाविक पार्श्वनाथ स्तवनम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ॥श्री नारिंगपुर पार्श्वनाथ स्तवनम् ॥ ढाल-आठ टकइ कंकण लीयउ री नणदी थिरकि रहयउ मोरी बांह, कंकणउ मोल लीयउ एहनी देशी सुनिजर ताहरी देखिनइ रे जिनजी सफल थई मुझ आस । मोरउ मन मोहि राउ, हारे जैसे मृग मधुर ध्वनि गीत ।मो०॥ तुमाहरइ मन मई वस्यो रे, जि० श्री नारंगपुर पास ॥१॥ तुझ मुख कमल निहालिवा रे, जि० रहती सबल उमेद ।।मो०॥ ते तुझ नई मिलियाँ पछी रे जि० भागउ मन रउ भेद ॥मो०॥२॥ हुँ सेवक छु ताहरउ रे जि० तु साहिब सुप्रमाण । मो०॥ तें मन हेस्यो माहरउ रे जि० भावइ तउ जाण म जाण ।।मो॥३॥ खिण इक जउ तुझ नइ तजुरे जि० तउ उपजै अंदोह ।।मो०।। धरती पिण फाटइ हियो रे जि० पाणी तणय बिछोह ।मो०॥४॥ ताहरी सूरति नउ सदा रे जि० धरिस्यु निशि दिन ध्यान मो०। जिण तिण मां मन घालतां रे जि० न रहै माहरउ मान ।मो०।। चरण न मेल्हुँ ताहरा रे जि० रहिस्यु केडइ लागि ॥मो०।। फल प्रापति पिण पामस्युरे जि० जेह लिखी छइ भागि ।मो०।६। मई तउ कीधउ मो दिसा रे जि० ताहरइ ऊपरि मोह ॥मो०॥ विनयचन्द्र कहै माहरी रे जि. सगली तुम ने सोह ॥मो०॥७॥ रहनेमि राजीमति स्वाध्याय राग-हींडोल शिवादेवी नंदन चरण वंदन चली राजुल नारि । प्रियु संगि रागी सती सागी चलत लागी वार ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहनेमि राजीमति स्वाध्याय निज प्राणपति कौ नाम जपती होत तृपती बाल । तहाँ मास पावस कइ उदै सैं अइस जगत कृपाल ||१|| इण भांति स सखि आयउ वरषाकाल, सउ तर वरनत कवि सुविसाल || आंकणी || सजि बुँद सारी हर्षकारी भूमि नारी हेत । भरलाय निर्भर भरत झरझर सजल जलद असेत || घन घटा गर्जित छटा तर्जित भये जर्जित गेह । ca cafe and hबकि भबकत बिच बिचि बीज कि रेह ॥२॥ अतर्हि अवाज गगन गाजइ वायु वाजइ त्युं हि । दिग चक्र झलकइ खाल खलकइ नीर ढलकर भुं हि ॥ हग श्याम वादर देखि दादुर रटत रस भरि रइन । वन मोर बोलइ पिच्छ डोलइ द्विरद खोलइ पुनि नइन ||३||३०|| उल्लसित हीयरौ करि पपीयरौ करत प्रिय प्रियु सोर । विरह सई पीरी अति अधीरी डरत विरहनि जोर अंधकार पसरइ वैर विसरs परस्पर भूपाल सर्वरी शंका देत डंका दिवसन मई घरीयाल ||४||३०|| जहाँ परत धारा अति उदारा जानि गृह जल यन्त्र स्वाधीन वनिता सौख्य जनिता करत कंत निमंत्र मदन के माते रंग राते रसिक लोक अपार इठि कइ गोखई मनई जोखई गावत मेघ पंचरंग चोपें अधिक ओपई इन्द्र धनुष सधीर । बक श्रेणि सोहर चित्त मोहर सर सरित के तीर ॥ मल्हार ||५||३०|| Jain Educationa International ७७ For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि तहाँ करन क्रीड़ा मुखर बीड़ा चावती त्रिय जात । केसरी सारी मूल भारी पहिरि कै हर्ष न मात || ६ ||३०|| ससि सूर ढांकर जहाँ तहाँ के पंथ पूरे नीर | कुल के वन में निकि छिन मई झकोरतहिं समीर ॥ बहु सलिल पाए वेलि छाए सघन वृक्ष सुहात । अंकार भमरे करत गुणरे चुंवत पल्लव पात ||७||३०|| अद्रिसई उतरी भरी जलसई नदी आवत पूर । करणी के दरखत निकट निरखत छिन करत चकचूर ॥ सूकत जवासौ तरु निवासौ करत पंखी वृन्द । घन विप्रतारे सर संभारे हंस मिथुन निरदंद ||८||३०|| रंगइ रसीली निपट नीली हरी प्रगटत ज्यांहि । डोलत अमोला मृदु ममोला लाल से तिन माँहि ॥ उच्छाह सेती करत खेती करसनी सुविचार | सब लोक कुं आनंद उपज्यौ व्रज्यौ है दुरित प्रचार || ||३०|| वरसात इन परि झरी मंड३ छिन न खंडइ धार । राजीमती के वस्त्र भीने सबल झीने सार ॥ एकन गुफा में जाहि तामई सुकाए सब चीर । भई नगन रूपई अति सरूपई निरखी नेमि के वीर ||१०||३०|| निरखि के नागी तुरत जागी मदन नृप की छाक । घट भ्रमत ताकौ लगि झराकौ ज्युं कुलाल की चाक ॥ चिहुँ ओर घेरी अंग हेरी नृप सुता सुख काज । कहै वचन ऐसे अटपटे से सुनत ही आवै लाज || ११||३०|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलिभद्र सज्झाय हुं गुफावासी नित उदासी रहत हुँ इन ठोर। स्याबास तोकुं मिली मोकुं चित लीयउ तें चोर ॥ भोगकउ हुं तउ अति भिख्यारी करौ प्यारी प्यार। अब विरह टारौ हृदय ठारौ मिलौ मिलौ प्रान आधार ।।१२।।इ तब चीर पहिरई सबद गुहिरइ अंग करिकइ गूढ़। राजुल सयांनी वदत वानी सुनि अग्यानी मूढ ।। मुनि मागे मूंकइ चित्त चूकइ वृथा तुं इन वैर। क्युं ब्रत विगोवइ लाज खोवइ रहि रहि जियकु फेरि ॥१३॥ ३०॥ निद्रान्ध सिंधुर बहुत बन्धुर उर्द्ध कन्धर होय । जब धरत अंकुश सिर महावत ठौर आवत सोय ।। त्यु सदुपदेश विशेष देकर विमल एकइ वइन । बूझव्यौ सो रहनेमि विषयी गई जहां यदुपति सईन ॥१४||३० ॥ यु सुलभ बोधी आत्म सोधी गये मुगति मझार । कलियुग उमगई नाम जाकउ लेत है संसार ।। धरि ज्ञान अन्तर दशा सुदसा मनह मच्छर छोड़ि। कवि विनयचन्द्र जिनेन्द्र भावै जपत है कर जोरि ॥ १५ ॥३०॥ इति श्री रहनेमि राजीमत्योः स्वाध्यायः ॥ श्री स्नेह निवारणे स्थलिभद्रमुनि सज्झाय ॥ राग-केदारो, ढाल-मेरे नन्दना, एहनी सांभलि भोली भामिनी रे हां, परदेशी नै साथ । नेह न कीजिये। भमर तणी परि जे भमै रे हां, ते नहीं केहनै हाथ ॥ नेह० ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि 1 नेह थी नरक निवास, नेह प्रबल छ३ पास । नेहे देह विनाश, नेह सबल दुख रास || नेह० ॥ आ० ॥ परदेशी तर प्राहुणा रे हां, मेल्ही जाय निराश | नेह० । तिण थी केहर नेहलउ रे हां, न रहे जे थिर वास | ने० ||२| पहिलि मिलीयइ तेह सुं रे हां, करियइ हास विलास |०| मिलि नइ वीछड़ियौ पड़े रे हां, तब मन होइ उदास | ने० || ३ || वाल्हां नइ व लावतां रे हां, पीड़इ प्रेमनी झाल | ने० । हड़ौ फाट अति घणुं रे हां, नांखर विरह उछालि | ने०||४|| वलतां भुंइ भारणि हुवै रे हां, अंग तपइ अंगार | ने० । आंखड़ियइ आंसू पड़इ रे हां, जिम पावस जल धार | ने० ||५|| मत किणही सुं लगियो रे हां, पापी एह सनेह | ने० । धुखइ न धुंओं नीसरइ रे हां, बलइ सुरंगी देह | ने० || ६ || कोशा नइ स्थूलभद्र कहइ रे हां, नेह नी बात न भाखि |०| तिण कीधर ही सारियइ रे हां, विनयचन्द्र साखि |०||७|| 1 श्री स्थूलभद्र बारहमासा ढाल-चउमा सियानी आषाढइ आशा फली, कोशा करइ सिणगारो जी । आवउ थूलिभद्र वालहा, प्रियुड़ा करू मनोहारी जी ॥ मनोहार सार शृङ्गार रसमां, अनुभवी थया तरवरा । do afar as आलिंगन, मूमि भामिनी जलधरा।। जलराशि कंठइ नदी विलगी, एम बहु श्रृंगार मां । सम्मिलित थइ नइ रहै अहनिशि, पणि तुम्हें व्रत भार मां ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलिभद्र सम्झाय । श्रावण हास्य रस करी, विलसउ प्रीतम प्रेमइ जी। योगी भोगी नइ घरे, आवण लागा केमइ जी॥ तउ केम आवै मन सुहावै, वसी प्रमदा प्रीतड़ी एह हासी चित विमासी, जोअउ जगति किसी जड़ी। झरहरइ पावस मेघ वरसइ, नयण तिम मुख आंसुआं । तिम मलिन रूपी बाह्य दीसउ, तिम मलिन अंतर हुआ।।२।। भादउ कादउ मचि राउ, कलिण कल्या बहु लोकोजी। देखी करुणा ऊपजै, चन्द्रकान्ता जिम कोको जी॥ कोक परि विहू वोक करती, विरह कलणइ हुं कली। काढियइ तिहांथी बांह झाली, करुणा रस नइ अटकली।। मयमत्त तटिनी अनइ नारी, मेह प्रीतम नेह थी। अवसरइ जउ ते काम नावइ, स्युं करीजै तेह थी॥३॥ आसू आसिक दिहाड़ला, एकलडां किम जायो जी। रौद्र रसइ मुझ मन घणु, नित प्रति अति अकुलायोजी। अकुलाय धरणि तरुणी तरणो, किरण थी शोषत धरै। उपपति परइ धन कंत अलगु, करी घन वेदन करै। तिम तुम्हे पणि विरह तापइ, तापवउ छउ अति घणुं। चाँद्रणी शीतल झाल पावक, परई कहि केतउ भणुं ||४|| काती कौतुक सांभरइ, वीर करइ संग्रामो जी। विकट कटक चाला घणु, तिम कामी निज धामोजी। निज धाम कामी कामिनी बे, लड़इ वेधक वयण सु । रणतूर नेउर खड़ग वेणी, धनुष रूपी नयण हुँ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ते वीर रस मां थया कायर, जेह योगी बापड़ा । थरथर फिरता तेह दीसइ, उदासीन पणइ खड़ा ||५|| भयानक रस भेदियउ, मगिसिर मास सनूरो जी । मांग सिरइ गोरी धर, वर अरुणी मां सिन्दूरो जी ॥ सिन्दूर पूरइ हर्ष जोरs, मदन झाल अनल जिसी । तिहाँ पड़इ कामी नर पतंगा, धरी रंगा धसमसी । वलि अधर सधर सुधारसई करि सींचि नव पल्लव करइ । तिण प्रीति रीतई भीति न हुवइ एम कोशा उच्चरइ ||६|| रस वीभत्से वासियङ, पोष महीनउ जोयौ जी । दोषी पोषइ दिन दूबलु, हिम संकोचित होयो जी ॥ संकोच होवइ प्रौढ रमणी, संगथी लघु कंत ज्यु । तिम कंत तुमच वेष देखी, मई वीभत्स पणुं भजुं ॥ ए प्रौढ रयणी सयण सेजई एकलां किम जावए । हेमंत ऋतु म प्रिउ उछंग खेलवु मन भाव ए ||७|| माघ निदाघ परई दहै, ए अद्भुत रस देखूं जी । शीतल पणि जड़ता घणु प्रीतम परतिख पेखुं जी ॥ पेखु तुम्हा सित साधु हग पणि रह्या मुझ हृदयस्थलइ | ए मृषा संप्रति तुझ बिना मुझ प्राण क्षण क्षण टलवलइ ॥ इण परई व्रत ना भंग दीसइ परिग्रह भणी आविया I तर एह अचरिज रस विशेष शुद्ध चारित्र भाविया ॥८॥ फागुन शान्त रस रमइ, आणी नव नव भावो जी I अनुभव अतुल वसंत मां, परिमल सहज सभावो जी ॥ १७ , Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलभद्र समाय ८३ सहज भाव सुगंध तेल, पिचरकी सम जल रसई । गुण राग रंग गुलाल उडइ, करुण ससबोही वसई || परभाग रंग मृदंग गूँजइ, सत्व ताल विशाल ए । समकित तंत्री तंत झणकर, सुमति सुमनस माल ए ॥ ॥ चैत्र विचित्र थह रही, अंब तणी वनरायो जी। थुड़ शाखा अंकुरित थइ, सोह वसंत पायो जी ॥ पाई वसंत सोह जिण परि, प्रियागमनइ' पदमिनी । सिणगार विन पिण मुदित होवइ, प्रेम पुलकित अंगिनी ॥ रति हास्य मुख अड़ स्थायि भावइ, शोभती कोशा कहइ । हुं कामिनी गजगामिनी मुझ, तो विना मन किम रहइ ||१०|| वैशाख वन फूलीया, द्राख रसाल सुसाखर जी 1 अंब सु कलरव कोकिला, पंचम रागई भाखर जी ॥ भाखइ तिहाँ वलि भाव आठे, सरस सात्विक सुखकरा । पुलक स्वेद अव्यक्त स्वर नई स्थंभ आँसू निर्झरा ॥ इहाँ काम केरी दस अवस्था, धरs देहइ दंपती । प्रिउ देखि मुझ नइ तेह प्रगटे, कोशा मुख इम जंपती ॥११॥ जेठ दीहाड़ा जेठ ना, लागइ ताप अथाहो जी । विरहानल तपई दियउ प्रियु तुम चंदन बाँहो जी ॥ बाँह चंदन सुगम सेव्यइ, भाव संचारिक वध३ । तेवीस धृति मति स्मरण लज्जा शोक निद्रादिक सधइ ॥ उन्मत्तता आनंद भय मद मोह उत्सुक दीनता । चालंभ वाधइ ए विशेषज्ञ, रहइ केम निरीहता ॥ १२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि श्री स्थूलिभद्र मुणिंदना, भणीया बारहमासो जी। नवरस सरस सुधा थकी, सुणतां अधिक उल्लासो जी ।। उल्लास धरि ऋषिराज गायो, जिण रखायउ जगतमां । निज नाम अति अभिराम चुलसी, चउवीसीशीलवंतमा ।। गुरुराज हर्षनिधान पाठक, ज्ञानतिलक प्रसाद सुं। गुर्जरा मंडन राजनगरइं, 'विनयचंद्र' कहइ इसु ॥१३॥ ॥ श्री जिनचंद्रसूरि गीतम् ॥ बड़ बखती गुरु नित गाजै, वलि दिन दिन अधिक दिवाजै। सहु गच्छपति सिर छाजै ॥१॥राजेश्वर पाटियइ पाउधारउ। इक वीनतड़ी अवधारो पाटोधर० श्रीसंघना वंछित सारउ ॥रा० श्रीजिनधर्मसूरीसर पाटइं, पूज्य थाप्या घणै गहगाटइं। नर नारी आगै जुड़े थाटई ॥रा०॥२॥ वंशे बहुरा सिरदार, तात सांवलदास मल्हार । माता साहिबदे उरि हार ॥ रा० ॥ ३ ॥ हंस परि माधुरी सी चाल, अति अद्भुत रूप रसाल। मारग मिथ्यात उदाल । रा०॥४॥ तेजे करि जाणे सूर, शशिधर परि शीतल पूर। जसु निलवट अधिकउ नूर ।। रा०॥५॥ नित नित चढती कला राजइ, युगवर जिनचंद विराजइ । जसु भेट्यां भव दुख भाजइ ॥ रा०॥६॥ छतीस गुणे करि सोहइ, गुरु भविक तणा मन मोहइ । जगि इण समवड़ नहिं कोहै ।। रा०॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलिभद्र सज्माय नित पालै पंचाचार, षटकाय रक्षा करै सार। उज्ज्वल उत्तम व्रत धार ।। रा०॥ ८॥ धन नगरी नइ धन देश, जहाँ सहगुरु करै निवेश । कीरति जग में सलहेस । रा०॥६॥ वंदो भवियण हित आणी, पूजजी नी मीठी वाणी। साँभलतां अमिय समाणी रा०॥१०॥ मानइ जेहनइ राण राया, प्रणमीजै प्रहसम पाया। मुनि 'विनयचन्द्र' गुण गाया ॥रा०॥११॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CO ग्यारह अंग समाय (१) श्री आचारांग सूत्रसज्झाय देशी-हठीला वयरी नी पहिलो अंग सुहामणो रे, अनुपम आचारांग रे सगुणनर वीर जिणंदइ भाखीयउ रे लाल, उवाई जास उपांग रे सगुणनर। बलिहारी ए अंगनी रे लाल, हूं जाउं वार वार रे स० विनय गोचरी आदि दे रे लाल, जिहां साधु तणउ आचार रे स० ब०। आंकणी।। सुयक्खंध दोइ जेहना रे, प्रवर अध्ययन पचीस रे स० उद्देशादिक जाणियइ रे लाल, पंच्यासी सुजगीस रे स० ब०। २॥ हेत जुगति करी सोभता रे, पद अढार हजार रे स० अक्षर पदनइ छेहड़इ रे लाल, संख्याता श्रीकार रे स० ब०॥ ३॥ गमा अनंता जेहमां रे, वलि अनन्त पर्याय रे स० त्रस परित्त तउ छ इहां रे लाल, थावर अनन्त कहाय रे स० ॥४॥ निबद्ध निकाचित शासता रे, जिन प्रणीत ए भाव रे स० सुणतां आतम उल्लसइ रे लाल, प्रगटइ सहज सभाव रे स० ॥शा श्रावक वारू श्रावका रे, अंग धरी उल्लास रे स० विधिपूर्वक तुम्हें सांभलउ रे, लाल गीतारथ गुरू पास रे स०॥६ ए सिद्धान्त महिमा निलौरे, ऊतारइ भव पार रे स० 'विनयचन्द्र' कहइ माहरइ रे लाल एहिज अंग आधार रे स०॥७॥ ॥इति श्री आचारांगसूत्र स्वाध्यायः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ ग्यारह अंग सज्झाय (२) श्री सूयगडांग सूत्र सज्झाय देशी-रसियानी बीजउ रे अंग हिवइ सहु सांभलौ, मनोहर श्री सूगडांग । मोरा साजन । त्रिण्हिसइ त्रेसठि पाखंडी तणउ, । मत खंड्यउ धरि रंग । मोरा साजन । मीठी रे लागइ वाणी जिन तणी, जागइ जेह थी रे ज्ञान ।मो०। ए वाणी मन भाणी माहरइ, मानु सुधा रे समान (मो० मी० । रायपसेणी उपांग छइ जेहनु, एतउ सूत्र गंभीर मो०। जाणइ रे अर्थ बहुश्रुत एहना, एतउ क्षीर नीरधि नुरे नीर मो०।२। एहना रे सुयक्खंध दोइ छइ सही, वलि अध्ययन नेवीस मो० उद्देशा समुद्देशा जिहां भला, संख्यायई रे तेत्रीस मो० ॥३॥ नय निक्षेप प्रमाणइ पूरिया, पद छत्रीस हजार मो०। संख्याता अक्षर पद छहड़इ, कुण लहइ एहनुं रे पार मो० ॥४॥ गमा अनंता वलि पर्याय ना, भेद अनंत जेह माहि ।मो० गुण अनंत त्रस परित कह्या वली, थावर अनंता रे ज्याँहि ।।५।। निबद्ध निकाचित जे सासय कड़ा, जिन पन्नता रे भाव ।मो०। भाखी रे सुन्दर एह परूवणा, चरण करण नी रे जाव ।।मो० ६।। करियइ भगति युगति ए सूत्रनी, निश्चय लहियइ मुक्ति ।मो०। विनयचन्द्र कहइ प्रगटइ एह थी, आतम गुण नी रे शक्ति ॥७॥ ॥ इति श्री सूयगडांग सूत्र सज्झाय ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि (३) श्री स्थानांग सत्र सज्झाय ढाल-आठ टके कंकणो लीयो री नणदी थिरकि रही मोरी वाँह एदेशी त्रीजउ अंग भलउ काउ रे जिनजी, नामइ श्री ठाणांग। मोरो मन मगन थयउ । हां रे देखि देखि भाव, हां रे जिहां जीवाजीव स्वभाव मो०। आंकणी ।। सबल युगति करि छाजतउ रे जिनजी, जीवाभिगम उपांग ॥१॥ एह अंग मुझ मन वस्यउ रे जिनजी, जिम कोकिल दिल अंब। गुहिर भाव करि गाजतउ रे जिनजी, आज तउ एह आलंब ॥२॥ कूट शैल शिखरी शिला रे जिनजी, कानन नइ वलि कुण्ड ।मो० गह्वर आगर द्रह नदी रे जिनजी, जेहमां अछइ उद्दण्ड मो० ॥३॥ दश ठाणा अति दीपता रे जिनजी, गुण पर्याय प्रयोग मो०। परित्त जेहनी वाचना रे जिनजी, संख्याता अनुयोग ॥४॥ वेष्ट सिलोक निजुत्तिते रे जिनजी, सगहणी पडिवत्ति ।मो। ए सहु संख्याता इहां रे जिनजी, सुणतां उल्लसइ चित्त ।मो० ॥ सुयक्खंध एक राजतउ रे जिनजी, दश अध्ययन उदार मो०। उद्देशा एकवीस छइ रे जिनजी, पद बहोत्तर हजार मो० ६।। रागी जिन शासन तणा रे जिनजी, सुणइ सिद्धांत वखाण मो०। विनयचन्द्र कहइ ते हुवइ रे जिनजी, परमारथ ना जाण |मो०७।। ॥ इति श्री स्थानांग सूत्र स्वाध्यायः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारह अंग सज्झाय (४) श्री समवायांग सूत्र सज्झाय चाल - थांहरइ महलां ऊपरि मोर झरोखे कोइली हो लाल झरो० चथर समवायांग सुणौ श्रोता गुणी हो लाल | सु० पन्नवणा उवंग करी सोभा वणी हो लाल । क०) अर्द्धमागधी भाषा साखा सुरतरु तणी हो लाल । सा०| समकित भाव कुसुम परिमल व्यापी वणी हो लाल | प०||१|| जीव अजीव नइ जीवाजीव समास थी हो लाल कि जी० लहीयइ एह मां भाव विरोध कोई नथी हो लाल वि० भांगा तीन स्वसमयादिकना जाणीयइ हो लाल आदि० लोक अलोक नइ लोकालोक वखाणीयइ हो लाल कि लो० ||२|| एक थकी छ सत समवाय परूवणा हो लाल स० कोड़ाकोड़ि प्रमाण कि जाव निरूवणा हो लाल कि जा० बारस विह गणिपिटक तणी संख्या कही हो लाल त० शासता अर्थ अनन्त कि छइ एहना सही हो लाल कि० ||३|| सुयक्खंध अध्ययन उद्देशादिक भला हो लाल उ० संख्यायई एक एक प्रत्येक गुणनिला हो लाल प्र० पद एक लाख चउमाल सहस ते उत्तरा हो लाल स० पद नइ अग्र उदय संख्याता अक्खरा हो लाल सं० ||४|| भाष्य चूर्णि निर्युक्ति करी सोहइ सदा हो लाल क० सुणतां भेद गंभीर त्रिपति न हुबइ कदा हो लाल तृ० हेज न मावइ अंग कि अंतरगति हसी हो लाल कि अं० जल वसंत जोर कि कुण न हुवइ खुसी हो लाल किकु० ||५|| Jain Educationa International ८६ For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि जाग्यउ धरम सनेह जिणंद सैं माहरउ हो लाल जि० तज्या शास्त्र मिथ्यात सूत्र जाण्यउ खरउ हो लाल सू० जिम मालती लही भृग करीरई नवि रहइ हो लाल क० ईश्वर सिर सुरगंग तजी पर नवि वहइ हो लाल त० ॥६॥ ए प्रवचन निग्रंथ तणउ जुगत बड़उ हो लाल त० साकर सेलड़ी द्राख थकी पिण मीठड़उ हो लाल थ० सी कहीयइ बहु बात 'विनयचन्द्र' इम कहइ हो लाल वि० एहना सुणिनइ भाव श्रोता अति गहगहइ हो लाल श्रो० ॥७॥ ॥ इतिश्री समवायांग सूत्र स्वाध्यायः॥ (५) श्री भगवतीसूत्र सज्झाय देशी-पंथीड़ानी पंचम अंग भगवती जाणियइ रे, जिहां जिनवर ना वचन अथाह रे हिमवंत पर्वत सेती नीकल्या रे, मानु गंगा सिन्धु प्रवाह रे ।११६० सूरपन्नती नामइ परगड़उ रे. जेहनउ छइ उद्दाम उवंग रे। सूत्र तणी रचना दरीया जिसी रे, माहिला अर्थ ते सजल तरंग रे इहां तउ सुयक्खंध एक अति भलउ रे, एक सउ एक अध्ययन उदार रे। दस हजार उद्देशा जेहना रे, जिहाँ कणि प्रश्न छत्तीस हजार रे ॥३॥०॥ पदतउ दोइ लाख अरथई भऱ्या रे, परि सहस अठ्यासी जाणि रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारह अंग सज्झाय लोकालोक स्वरूप नी वर्णना रे, विवाहपन्नती अधिक प्रमाण रे॥४॥५०॥ करियइ पूजा अनइ प्रभावना रे, धरियइ सुद्गुरु ऊपरि राग रे। सुणियइ सूत्र भगवती रंग सुं रे, तउ होइ भवसायर नुं ताग रे ॥१०॥ गौतम नामइ नाणुं मुकीयइ रे, सम्यग् ज्ञान उदय होइ जेम रे। कीजइ साधु तथा साहमी तणी रे, भगति जुगति मन आणी प्रेम रे ॥६॥०॥ इण परि एह सूत्र आराधतां रे, इण भवि सीझ३ वंछित काज रे। परभवि विनयचन्द्र कहइ ते लहइ रे, मोहन मुगतिपुरी नउ राज रे ||पं०॥ इतिश्री भगवती सूत्र स्वाध्यायः। (६) श्री ज्ञातासूत्र सज्झाय ढाल-कित लाख लागा राजाजी रे मालीयइ जी एहनी । छठुड अंग ते ज्ञातासूत्र बखाणियइजी, जेहना छइ अर्थ अधिक उद्दण्ड हो । म्हारी सुणिज्यौ धरि नेह सिद्धान्त नी बातड़ी जी। श्रवणे सुणतां गाढउ रस ऊपजइ जी, मधुरता तर्जित जिण मधुखंड हो ।शम्हांका। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि जम्बूदीव पन्नती उपांग छइ एहनु जी, इण माहे जिनपूजा नी विधि जोर हो ।म्हां। अर्चक सुणि परम शांतरस अनुभवइ जी, . चर्चक सुणि करइ सभां मां सोर हो ।म्हांला२। नगर उद्यान चैत्य वनखंड सोहामणा जी, ...... समोशरण राजा ना मात नई तात हो ।म्हां० धर्माचारिज धर्मकथा तिहाँ दाखवी जी, इहलोक परलोक मृद्धि विशेष सुहात हो ।म्हा०।३। भोग परित्याग प्रव्रज्या पर्यवा जी, . सूत्र परिग्रह वारू तप उपधान हो ।म्हां। संलेहण पचखाण पादपोपगमनता जी, ___ स्वर्गगमन शुभकुल उतपत्ति प्रधान हो ।म्हां०।४। बोधिलाभ वलि तंत ते अंत क्रिया कही जी, धर्मकथा ना दोइ अछइ श्रुतखंध हो म्हा०। पहिला ना उगणीस अध्ययन ते आज छइ जी, बीजा ना दस वर्ग महा अनुबंध हो |म्हा०५॥ उंठ कोडि तिहां सबल कथानक भाखीयाजी, भाख्या वलि उगणतीस उद्देस हो ॥मा०॥ संख्याता हजार भला पद एहना जी, . एह थकी जायइ कुमति किलेस हो ॥६ मां०॥ विनय करै जे गुरु नो बहु परइजी, .... तेहनइ श्रुत सुणतां बहु फल होइ हो |मां०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारह अंग सज्झाय ते रसीया मन वसीया विनयचंद्र नइ जी, सउ मांहि मिलइ जोया एक कइ दोय हो ।७ मां०॥ ॥ इति श्री ज्ञाता धर्मकथांग स्वाध्याय ॥ (७) श्री उपासकदसांग सूत्र सज्झाय हिवइ सातमउ अंग ते सांभलउ, उपासक दशा नामइ चंग रे। श्रमणोपासकनी वर्णना, जस चन्दपन्नति उवंग रे॥१॥ मन लागउ रे मोरउ सूत्र थी, एतउ भव वइराग तरंग रे। रस राता गुण ज्ञाता लहइ, परमारथ सुविहित संग रे ॥२॥ इण अंग सुयक्खंध एक छइ, अध्ययन उद्देश विचार रे। दस दस संख्यायई दाखव्या, पद पिण संख्यात हज्जार रे ।।३।। आणंदादिक श्रावक तणउ, सुणतां अधिकार रसाल रे । रस लागइ जागइ मोहनी, श्रोताजन नइ ततकाल रे ॥४॥ श्रोता आगलि तउ वाचतां, गीतारथ पामइ रीझ रे। जे अद्धदग्ध समझइ नहीं, तेह सैं तो करिवी धीज रे ॥५॥ दश श्रावक तउ इहां भाखिया, पिण सूत्र भण्यउ नहिं कोई रे। ते माटई शुद्ध श्रावक भणी, एक अथेनी धारणा होइ रे ।।६।। साचो होअइ तेह प्ररूपियइ, निस्संक पणइ सुजगीस रे। कवि विनयचन्द्र कहइ स्युं थयउ, जउ कुमती करिस्यइ रीस रे।।७।। ॥ इति श्री उपासक दसांग सूत्र स्वाध्याय ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि (८) श्री अंतगड़दशांग सूत्र सज्झाय ढाल - वीर वखाणी राणी चेलणाजी, एहनी आठमो अंग अंतगड़दशाजी, सुणि करउ कान पवित्र । अंतगड़ केवली जे थया जी, तेहना इहाँ रे चरित्र || १ || आ० कर्म कठिन दल चूरता जी, पूरता जगतनी आस । जिनवर देव इहां भासता जी, शासता अर्थ सुविलास ॥२०॥ सकल निक्षेप नय भंग थी जी, अंगना भाव अभंग । सहज सुख रंगनी तल्पिका जी, कल्पिका जास उवंग ॥ ३ आ०॥ एक सुयखंध इणि अंग नउजी, वर्ग छ आठ अभिराम । आठ उद्देशा छइ वली जी, संख्याता सहस पद ठाम ||४०|| आठमा अंग ना पाठमई जी, एहवउ छइ रे मीठास । सरस अनुभव रस ऊपजइजी, संपजइ पुण्य नी राशि || ५ ० ॥ विषय लंपट नर जे हुबइ जी, निरविषयी सुण्यां थाइ । जिम महाविष विषधर तणउ जी, नाग मंत्रइ सुण्यां जाइ ||६|| अमृत वचन मुख वरसती जी, सरसती करउ रे पसाय ! जिम विनयचन्द्र इण सूत्रना जी, तुरत लहइ अभिप्राय ||७|| ॥ इति श्री अंतगड़ दशांग स्वाध्याय ॥ ६४ (६) श्री अणुत्तरोववाई सूत्र सज्झाय देशी - नणदल बदली दे, एहनी ( नवमो अंग अणुत्तरोववाई, एहनी रुचि मुझ नइ आई हो । श्रावक सूत्र सुणउ ॥ सूत्र सुणउ हित आणी, एतो वीतराग नी वाणी हो ||१ श्रा०|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारह अंग सज्झाय ६५ जस कल्पावतंशिका नामइ, सोहइ उवंग प्रकामइ हो ।श्रा०॥ एतो आगम नइ अनुकूला, मानु मेरूशिखर नी चूला हो ।।२।। ए सूत्र नुं नाम सुणीजइ, तिम तिम अंतरगति भीजइ हो ।।श्रा०॥ प्रगटइ कोई नवल सनेहा, एह थी उलसइ मोरी देहा हो ।श्रा० ३॥ अणुत्तर सुरपद जे पाया, तेहना गुण इण मां गाया हो ॥श्रा०।। नगरादिक भाव वखाण्या, ते तउ छठुइ अंगइ आण्या हो ॥४॥ इहां एक सुयक्खंध वारू, त्रिह वर्ग वली मनोहारू हो ॥श्रा०|| उद्देशा त्रिह सनूरा, संख्यात सहस पद पूरा हो ।श्रा०५॥ अम्हे सूत्र सुणावं तेहनइ, सारी श्रद्धा होवइ जेहनइ हो ॥श्रा०॥ श्रोता थी प्रीति जगावं, निंदक नइ मुँह न लगावू हो ॥श्रा० ६।। जे सुणतां करइ बकोर, ते तउ माणस नहीं पिण ढोर हो ॥श्रा०।। कवि विनयचन्द्र कहइ साचउ, श्रुत रंगइ सहु को राचउ हो ॥७॥ ॥ इति श्री अणुत्तरोववाई सूत्र स्वाध्याय ।। (१०) श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र सज्झाय ढाल-आघा आम पधारो पूजि दशमउ अंग सुरंग सोहावइ, प्रश्नव्याकरण नामई। सूत्र कल्पतरू सेवइ तेतउ, चिदानन्द फल पामइ ।।१।। आवउ आवउ गुण ना जाण, तुम्ह नइ सूत्र सुणावू |आ०|| पुष्पकली जिम परिमल महकइ, गुण पराग नइ रागइ। तिम उवंग पुष्पिका एहनउ, जोर जुगति करि जागइ ॥१ आ०॥ अंगुष्टादिक जिहाँ प्रकाश्या, प्रश्नादिक अति रूड़ा। ते छइ अट्ठोतर सत एत, सूत्र मध्य मणि चूड़ा ॥३॥आoll Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि आश्रव द्वार पाँच इहाँ आण्यां, पांचे संवर द्वारा । महामंत्र वाणी मां लहीयर, लबधि भेद सुखकारा ||४|| To सुक्खंध एक दशमइ अंगइ, पणयालीस अज्झयणा | पणयालीस उद्देश वलीपद, सहस संख्यात नी रयणा ||५|| जे नर सूत्र सुणइ नहि काने, केवल पोषड् काया । माया मांहि रहर लपटाणा, ते नर इम ही जाया ||६||०|| सूत्र मांहि तर मार्ग दोइ छइ, निश्चय नइ व्यवहारा । 'विनयचन्द्र' कहइ ते आदरीयइ, तजिमद मदन विकारा ||७|| आ० ॥ इतिश्री प्रश्न व्याकरण स्वाध्यायः ॥ (११) श्रीविपाकसूत्र सज्झाय ढाल -तार करतार संसार सागर थकी, एहनी सुणउ रे विपाक श्रुत अंग इग्यारमउ, तजउ विकथा वृथा जे अनेरी । ललित उवंग जस प्रवर पुप्फचूलिका, मूलिका पाप आतंक केरी ॥ १ ॥० ॥ अशुभ किंपाक सम दुकृत फल भोगवी, नरक मां गरक जे थयां प्राणी । सुकृत फल भोगवी स्वर्ग मां जे गया, Jain Educationa International तास वक्तव्यता इहाँ आणी ||२||०|| दो श्रुतखंध नइ वीस अध्ययन वलि, वीस उद्देस इहाँ जिन प्रयुं जइ । For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारह अंग सज्झाय सहस संख्यात पद कुन्द मचकुन्द जिम, सरस चंपकलता सुरभि सहु नइ रुचइ, बहुल परिमल भ्रमर चित्त गुजइ ||३||०| अन्य उपगार नी बुद्धि माटर | सूत्र उपगार तेहथी सबल जाणियइ, बंध नइ मोक्ष ना बेउ कारण अछ, जेहथी पुरुष सुख अचल खाटइ ||४||०|| दुकृत नइ सुकृत जोअउ विचारी । दुकृत नः परिहरी सुकृत नइ आदरी, Jain Educationa International म करि रे म करि निंदा निगुण पारकी, जिन वचन धारियइ गुण संभारी ||५||सु० नारकी तणी गति कांइ बंधइ । मारकी प्रकृति तजि सहज संतोष भजि, सुख अनइ दुक्ख विपाक फल दाखव्या, अंग इग्यारमइ चिर जय वीर शासन जिहां सूत्र थी, ६७ लागि श्रुत सांभली धर्म धंधर || ६ ||सुः || वीतरागइ | ॥ इतिश्री विपाक श्रुताङ्ग स्वाध्यायः ॥ कवि 'विनयचंद्र' गुण ज्योति जागइ ||७|| सु० For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ॥ एकादशांग स्वाध्यायः ॥ __ढाल-अयोध्या हे राम पधारीया, एहनी अंग इग्यारे मई थुण्या सहेली हे आज थया रङ्ग रोल कि । नन्दी सूत्र मइ एहनउ सहेली हे भाख्यउ सर्व निचोल ॥शा सहेली हे आज वधामणा ॥ पसरी अंग इग्यार नी सहेली हे मुझ मन मंडप वेलि कि । सींचू नेह रसइ करी सहेली हे अनुभव रसनी रेलि ||२|| हेज धरी जे सांभलइ सहेली हे कुण बूढा कुण बाल कि । तउ ते फल लहै फूटरा सहेली हे स्वादई अतिहि रसाल ॥३॥ हर्ष अपार धरी हियइ सहेली हे अहमदाबाद मझार कि । भास करी ए अंगनी महेली हे वरत्या जय जयकार ||४|| संवर सतर पंचावनइ सहेली हे वर्षा रिति नभ मास कि । दसमी दिन वदि पक्ष मां सहेली हे पूर्ण थई मन आस ॥शा श्री जिनधर्मसूरि पाटवी सहेली हे श्रीजिणचन्दसूरीस कि। खरतर गच्छ ना राजीया सहेली हे तस राजइ सुजगीस ॥६॥ पाठक हर्षनिधानजी सहेली हे ज्ञानतिलक सुपसाय कि । 'विनयचन्द्र' कहइ मई करी सहेली हे अंग इग्यार सिज्माय ||७|| इति श्री एकादशांगानां स्वाध्यायः ॥१२॥ संवत् १७६६ वर्षे मिति वैशाख सुदि १४ दिने श्री विक्रमनगरे उपाध्याय श्री हर्ष निधानजी शिष्य पं० ज्ञानतिलक लिखतं ।। साध्वी कीर्तिमाला शिष्यणी हर्षमाला पठनार्थ ॥ श्रीरस्तु ।। शुभभवतु ।। कल्याण मस्तुः ।। श्रेयांति प्रवर्ततां ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दुर्गति निवारण सज्झाय श्री दुर्गति निवारण सज्झाय ढाल - बीबी दूर खड़ी रहि लोकां भरम घरेगा सुगुन सहेजा मेरा आतम, तेरी शुभ मति जागी । सहज संतोष मन्दिर में मोह्या, मुगति वधू रस लागी ||१|| दुर्गति दूर खड़ी रही, तेरा काम नहीं है । अकणी ॥ शम दम दोऊ अजब झरोखे, तेज प्रदीप बनाया । धर्म ध्यान का लाल दुलीचा, नीच खूब बिछाया ||२|| दु०|| समकित तख्त क्षमा का तकिया, मंडप शील सुहाया । हह ज्ञान छत्र चामर चारित गुन, परम महोदय पाया || ३ || दुः || शुचि सुगंधता परिमल महके, सुरुचि सखी मन भाया । उपशम पुत्र सुलच्छन सुन्दर, आतम नृप घरि आया || ४ || दु०|| ए विलास सब मुगति रमनि के, छिन छिन में सुखकारी । सोहागिन से रंग लग्यो तब, तुझ से दृष्टि उतारी ||५|| दु० || तँ तो दुर्गति दुष्ट दुहागिन, लोकन से लपटानी । पर प्रपंच सुत अरुचि सखी के, संगइ तोहि पिछानी || ६ || दु०|| अति दुर्गन्ध अशुचिता प्रगटे, निरगुनता से लीनी । तेरो संग करे सो भूरख, तूं तो बहुत दुखीनी ||७|| दु०|| समता सायर मेरो आतम, ज्योतिवंत अविनाशी । परमानन्द विलासी साहिब, सज्जनता प्रतिभासी ||८|| दु० !! मुगति प्रिया रस भीनो अहनिश, दुर्गति दूर निवारी | विनयचन्द्र कवि आतम गुन से, होइ रहे अधिकारी ॥६॥ दुः|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि श्री जिन प्रतिमा स्वरूप निरूपण स्वाध्याय । दूहा ॥ विपुल विमल अविचल अतुल, निस्तल केवलज्ञान । तास प्रकाशक चरम जिन, मन धरि तेहनउ ध्यान ||१|| जिन प्रतिमा वंदन तणउ, हिव कहिस्युं अधिकार। जे निर्गुण मानइ नहीं, तेहनइ पड़उ धिकार ।।२।। अभव छेदक भाव थी', लख्यउ न जायइ दंभ । संमूर्छिम कपटी तणउ, क्षण ऊतरस्यइ अंभ ॥३॥ शास्त्र तणी युगति करी, सद्गुरु भाषइ तास । कुमति वास में तुं पड्यउ, किसी मुगति नी आस ॥४॥ अरे दुष्ट बुद्धि विकलर, किम निदइ जिन बिंब । अंब सपल्लव छोड़ि नइ, किम भजइ तु निंब ।।५।। जिन प्रतिमा निश्चय पणइ, सरस सुधारस रेलि । चिन्तामणि सुरतरु समी, अथवा मोहनवेल ।।६।। नेह विना सी प्रीतड़ी, कण्ठ बिना स्यउ गान । लूण बिना सी रसवती, प्रतिमा विण स्यउ ध्यान ॥७॥ हेज दिदृक्षाये धरइ, जिन मूरति नउ संग । ते नर जस सांप्रति लहैं, जेहवा गंग तरंग ।।८।। तीर्थ कर पिण को नहीं, नहीं को अतिशय धार । जिन प्रतिमा नउ इण अरइ, एक परम आधार ।।६।। १-व्यक्ति युक्ति नै निरखता २-निठुर ३-दीपक विण मन्दिर किस्यउ ४-दृष्टं इत्यादि दृक्षातया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन प्रतिमा स्वरूप निरूपण स्वाध्याय ढाल - १ ते मुझ मिच्छामि दुक्कडं एहनी तें तरे निज मत संग्राउ, सहु नी तजि लाज रे । तिण कारण तुझ नइ कहुं, सुविदित हित काज रे ॥१॥ जिनवर प्रतिमा वंदियइ, मन मां धरि रंग | समकित संकित कारणे, थायइ बहु भंग रे ||२|| जि०|| तुझ न रे कहता स्युँ हवइ, वायस नइ श्रावइ' रे । जउ दुग्ध प्रक्षालियर, पिण धवलता नावइ रे || ३ || जि०|| उपल मुद्गशेलिक तणs, ऊपरि घन बरसै रे । आर्द्र तदपि न हुवइ कदा, तुझ ते गुण फरसे रे || ४ || जि०|| वलि ऊखर धर ऊपर, जउ बीज कउ वाहै रे । अंकुर मात्र न नीपजइ, नहु एम सराहैं रे ||५|| जि० बधिर भणी जउको कहर, अनुगामि प्रमाण रे 1 पिण तसु मन अहि कांतनी, व्यापकता जाण रे || ६ || जि० श्वान तणी वलि पूंछनउ, दृष्टान्त दृढायौ रे । चित्त मां, आखर ते नायउ रे ||७|| जि०|| पण कुमति तु ढाल - २ माखी नी देशी शुद्ध परंपरा मानिय, प्रतिमा नो प्रतिरूप | अज्ञानी। जिन सादृशतायें सही, इम व्यवहार प्ररूप अज्ञानी ||१|| एहि तत्व विचारियइ, जउ क्युं जाणै साच अज्ञानी । अनहित ते ताहरs दिसा, पाच तजी ग्राउ काच अ० ||२|| १ - श्रवणं श्रावस्तेन Jain Educationa International १०१ For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि समकित विण प्रतियोग थी, शक्ति न ताहरइ बांहि अज्ञानी । आ गुण सद्भाविक देखतां, न मिलइ तुझ घट मांहि अ० ॥३॥ वंदन अंग उपासके, वलि ठाणांग मझार अज्ञानी । रायपसेणी मइ काउ, सूरीयाभ सविचार' अज्ञानी ॥४॥oll' न्याता अंगइ जाणियइ, पदि नइ अधिकार अज्ञानी । तिम अंबड़ अधिकार थी, निरखि उवाई सार अज्ञानी ॥॥ए। चारण श्रमण नमइ सदा, जिन प्रतिमा सस्नेह अज्ञानी । ते छइ भगवई अंगमाँ, किम मन आणइ रेह अज्ञानी ॥६॥एका एक सदय गुण तूं करइ, सूत्र बहुल नउ लोप ।। अज्ञानी ।। तउ तुझ नइ दीठाँ विना, मन नई आवश् कोप अज्ञानी ॥७॥ ढाल (३) ___ चाल-जोसीडानी दृश्य पणइ आवश्यकै रे, भावित कायोत्सर्ग। प्रतिमा विण निःफल काउ रे, तौ स्यु वाक्यिक वर्ग ॥१॥ अधर्मी प्रतिमाये स्यउ बंध। जड़मति नइ अनुभाव थी, जाति तणउ तूं अंध ||शअ०॥ विजयदेव अति भक्ति सुरे, पूज्या श्री जिनराय । इम छइ जीवाभिगम मां रे, ते तुझ नावइ दाय ॥३०॥ वलि जिन पूज्या शुभ मनइ रे, श्री सिद्धारथ राय। कल्पसूत्र संपेखि नइ रे, तसु अवगम चित लाय ॥४॥अ०॥ दानादिक सम भाखियउ रे, अरचा नउ फल सूध । महानिशीथे ते लहइ रे, तो स्यूं तेह असूध ॥शाअ०॥ १-विचारेण सहित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन प्रतिमा स्वरूप निरूपण स्वाध्याय धर्म विशेष विरुद्धता रे, तें प्रारंभी मूध । ते हिव शोभा किम रहइ रे, जिम कांजीयइ दूध || ६ || अ० ॥ साधन फल तें आदस्यउ रे, करण बिना परतक्ष । पिण कितलाइक दिन रहे रे, नदी कनारै वृक्ष ||७||०|| ढाल (४) चाल - मोहन सुन्दरी ले गयउ, एहनी चिदानंद फल जउ ग्रहइं, जिन पूजा मन धार । आधाकर्मिक भांति नउ हो, दूषण नहीय लिगार ||१|| मूरख रे मानि कथन तं माहरउ || आंकणी || ताहरउ मन भ्रामिक थयउ, अर्चित हिंसा हेत । नाग भूत यक्षादि नउ हो, विवरण सगलउ चेत ||२||मू०|| पिण जिन हेति नवि काउ, सूयगडांग मर देखि । भाष्य चूर्णि निर्युक्तियइ हो, एहिज अर्थ विशेष ||३||मू || मानव सूत्र सहु वली, पिण प्रतिमा सुं द्वेष | उताहर मुख दीजियइ हो, मषीय कूर्चिका रेख || ४ ||मू०|| जिनवर जैन समाचर, शैव ब्रह्म हरि राम । तूं तउ एकण मां नहीं हो, निर्गत भेष प्रकाम ॥५०॥ 3 ܝ कलश इम सुगम कहाँ जउ न समझ, सूत्र नउ बोधक पणउ । भव में अनंतानंत कालर, दुख देखिस तूं घणउ ॥ आणा विना जे मत उपाज, नरक तासु निदान ए । कवि विनयचन्द्र जिनेश प्रतिमा, तणउ धरिये ध्यान ए || १ || इतिश्री जिन प्रतिमा स्वरूप निरूपणं स्वाध्याय: सर्व गाथा ३६ [ पत्र १ आचार्य ख० गच्छ भण्डार ] १ प्रकाम - अतिशयेन Jain Educationa International १०३ For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि कुगुरु स्वाध्याय || दूहा* जैन युक्ति सुं साधना, आगम सुं अनुकूल । नित अविहित लक्षण हरण, सुविहित लक्षण मूल ॥१॥ सिद्धि शक्ति धारक सदा, व्यक्ति गुणइ अनुबन्ध । निहत निरंजण भक्ति विधि, जानि हेतु निरबंध ।।२।। धंध गिणइ संसरण सुख, चरण करण गुण लीण । अतिशय सुध जसु आचरण, क्रिया धरण सुप्रवीण ॥३॥ मिथ्या भ्रम रूपक द्विरद, तिहां पंचायण जेह । चिदानंद चिद्रूप सुं, निस दिन अधिक सनेह ॥४॥ एहवा सदगुरु वंदियइ, जिम थायइ भव अंत । कुगुरु कपटधर वंदतां, तद्गुण न रहइ तंत ॥५॥ ढाल (१) चाल-हठीला वयरीनी [सार सु] प्रवचन नउ ग्रही रे, विदित प्रपंचक भाव रे ।।सगुण नर॥ अनुभव कहि [सुरं] गसुरे लाल, कुगुरु तणइ प्रस्ताव रे ।।सगुण नर ॥१॥ * प्रारम्भ करनेके पूर्व आलिये पर लिखे दोहे :धर्म वचन साधक सदा, जिन वचनो पक्षीण। प्रस्तुतानुयोगिक सदा, जे सोधिक सुकुलीण ॥१॥ उपादान मित भुक्तविधि, अन्वेषणीय प्राय । प्रस्तुतानुयोगिक तणा, जे सोधिक मुनिराय ।।२।। मारग साधु तणउ काउ, दर्शन ज्ञान चरित्र । तिणथी खिण विरचइ नहीं, निशिदिन पुण्य पवित्र ।।३।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुगुरु स्वाध्याय अति विकसित चित सांभलउ रे लाल, अधिक प्रयोजन आणि रे ॥सका अंतरगत गुण पामिस्यउ रे लाल, ए समवाय प्रमाण रे ॥सका||श्रु०॥ प्रथम द्रव्य भावई रहइ रे लाल, विकल सकल आचार रे ॥स०।। चलन अवधि स्वच्छन्द हुँ रे लाल, नित निर्गत उपचार रे॥स०|३||श्रु०॥ बाह्य दृष्टि विरतंतनउ रे, भेदक विविध प्रकार रे ।।स०॥ प्रवहमान पर वृत्ति हुँ रे लाल, जेम जलदनी धार रे ॥स०|४||श्रु०॥ इन उन्मारग चालतां रे, नवि पामईतिहां लाग रे ॥स०॥ चित्त विचारि समाचरइ रे लाल, वलि मरकट वइराग रे ।।स०॥५॥श्रु०॥ ढाल २ सोरठ देश सुहामणउ, एहनी. अंतरगति आतप करइ, जप बहिरंग प्रधान लाल रे । अंबर माहे जे धरइ, शबकर पट उपमान लाल रे ॥१॥ अवयव तादृश आचरइ, वचन तथा विध थाय लाल रे । सविकल्प चिन्तन करइ, अहनिशि अध्यवसाय लाल रे ।।२।। चाहइ वेगि निरूपणा, सम पूरब पद चार लाल रे । पिण इण कलि माहे नहीं, सांप्रति सहु परिवार लाल रे ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि रस आसंकाय करई, ज्वर औषध विधि जेम लाल रे! कारिज नइ आलंबता, पृथिवी सुत सुं प्रेम लाल रे ॥४॥ इम संचरता हित धरी, ते स्तुति करि कहइ धन्य लाल रे। ते जग माहे जाणियइ, परतखि पण्डित मन्य लाल रे ॥५॥ ढाल ३ हरिया मन लागउ, एहनी जिण अधिकारइ ऊपनउ, जे अनवस्थित दोष रे । साजन सुणि मोरा। हिव तेहिज विवरणा तणउ, निश्चय करिस्यु पोष रे सा०॥१॥ जउ पूरब विधि मई रहइ, न करइ किम विपरीत रे ।सा०। पिण पासत्थउ ते खरउ, सर्व देश परिणीत रे । सा० ।।२।। ज्ञानादिक गुण जे तजइ, न बदइ मारग सूध रे । सा० । साध तणी निंदा करइ, लोक भ्रमावइ मूध रे । सा० । ३ ।। नवेय वखाणे जे करइ, कल्प वाचनता तेम रे । सा०। साहशता तेहनी लह, कल्पचरणि मइ एम रे। सा०॥४॥ नित्य सिझातर अग्रनइ, आगलि देइ पिंड रे। सा० । जे ल्यइ तिणनइ तिण विधइ, आवश्यक द्यइ दंड रे ।सा०1।। . ढाल ४ मेरे नन्दना, एहनी साधु कहावइ सई मुखइ रे हां, न मिले वचन विवेक । वचन किसा कहुँ। अवलंबन किहां थी ग्रहइ रे हां, इहां छ३ जुगति अनेक । व०॥१।। जे नव कल्ली नवि करै रे हां, उद्यत मुदित विहार । व०। मास दिवस ऊपरि रहइ रे हां, सेषइ काल अपार । व०॥२।। तिण सरिखउ ते दाखव्यउ रे हां, आचारांग मझार । व० । आधाकर्मिक आश्रहइ रे हां, ते ठाणांग विचार । व०॥३।।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुगुरु स्वाध्याय १०७ शास्त्र लिखावर जे वली रे हां, पिण न रहइ व्यवहार | व० | इम अधिकता कहइ रे हां, प्रवचन सारोद्धार | व० ||४|| ( बात करइ जे मारगै रे हां, उत्तराध्ययनइ तेह |०|) व्याख्यानादिक नित करइ रे हां, उपदेशमाल में तेह | व० । इत्यादिक आगम तणी रे हां, साख कही निसंदेह | व० ॥ ५ ॥ ढाल ५ यत्तिन हिव तास प्रसंगइ जेह, ते पिण कहीयइ ससनेह | उसन्नउ दुविध प्रकार, तसु अन्त पणइ व्यभचार ||१|| वलि भाख्यउ त्रिविध कुशील, नाण दंसण चरण निमील | बिहुँ भेद काउ संसत्तउ, शुभ अशुभ प्रकृति संपत्तउ ॥२॥ जह छंद लगइ ए पंच, सद्भाविक सगलउ संच । चिहुँ नउ निर्णय नवि कीधउ, स्वाभाविक फल गुण लीधर ||३|| परमातम ग्रहण विशेष, ते संग्रहिज्यो अवशेष । भाषित त्रिहुँ नइ अनुयाय, व्याकृति समयादिक न्याय || ४ || निज कल्पित दोइ प्रकार, शास्त्रादिक पंच उदार । पासत्थादिक सूं दूर, तसु वन्दन ऊगत सूर ||५|| ॥ कलश ॥ इम युक्ति साधन धरी चितमइ कीध सबल सरूपता । जाणिस्य तौ पणि तेह लहिस्यै प्रबल अनवच्छिन लता || उच्छेदि असमर्थक तणड मत विनयचन्द विख्यात ए । उपदिस सहु नी प्रार्थना वशि इण पर आख्यात ए ॥१॥ ॥ इति श्री कुगुरु स्वाध्याय: || सर्वगाथा ३१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर विनयचन्द्र विरचित श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपाई || GET || एकदन्तो महावीर्य्यो, नमोस्तु सरस पाणिने । सिद्धन्ति सर्व कार्याणि त्वं प्रसाद विनायकः ॥ १ ॥ ॐ अक्षर अतुल बल, चिदानन्द चिद्रूप | सकल तत्व संपेखतां, अविचल अलख अनूप ||२|| अजर अमर अविकार निति, ज्योति तणौ जे ठाम | सत्व रूप साराहियै, पूरण वंछित काम ||३॥ जेहनै नाम स्मरण थी, फीटै सगला फंद | मंदमती पंडित हुवै, दूरि टलै दुख दंद | ४ || योगी ध्यावै युक्ति सुं, भक्ति करी भरपूर । संपै तेहने व्यक्ति गुण, शक्ति सहित ससनूर ||५|| मंत्र मुख्य बीजक कह्यो, सार सहित सुविलास । अरिहंतादिक पंच नौ, अन्तर जास निवास || ६ || a अभ्र मांहि जिम थ्रू अडिग, शेषनाग पाताल । मृत्युलोक मां मेरु जिम, तिम ए वरण विसाल ||७|| ते अक्षर तो छै वलू, मन पिण आगेवाण । सरसति माता आपजे, मुझ नै अमृत वाणि ॥८॥ श्रीजिनकुशलसुरिंद गुरु, पूरौ मुझ भन आस । अंतरजामी जाणि नै, करीयै निज अरुदास || || Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपाई १०६ जोड़ि तणी का सुद्धि नहीं, हूं अति मूढ़ अयाण । तुम सुपसाये जे कहुँ, चाढो तेह प्रमाण ॥१०॥ दान सुपात्र समो न को, मुक्ति तणो दातार । उलट धरि द्य ते तजै, सलिल निधि संसार ॥११॥ सालिभद्र आदिक उपरि, दान तणे अधिकार । जिनशासन मां जोवतां, चरते नावै पार ।।१२।। तो पणि उत्तमकुमर नौ, चरित सुणो मन रंग । साधु प्रशंसित दान जिण, दीधो आणि उमंग ॥१३॥ बात चिंत कौ मत करो, छोडो कुमति किलेस । वांचंतां कविता तणो, मन जिम थाय विशेष ।।१४।। ढाल-(१) गौतम स्वामि समोसख्या एहनी वचन रचन सुणज्यो हिवै, आणी भाव प्रधानो रे। देज्यो दान इसी परै, जेम लहो तुमे मानो रे ॥शव० इणहिज जंबूद्वीप मां, दक्षिण भरत उदारो रे । काशी देश जिहाँ भलौ, पृथिवी नो सिणगारो रे ॥२॥व० नयरी तिहाँ वणारसी, अलिकापुरि सम तेहो रे । जहाँ सुर सरिखा मानवी, निशदिन चढते नेहो रे ॥३॥ व० वलि तेहनै चौ पाखती, विकट दुरंग विराजै रे। घण वाजिव सदा घुरै, घन गरजारव लाजै रे ।।४।। व० ऊँचा मंदिर अति घणा, दीठां आवै दायो रे। तिम चित चोरै कोरणी, जोतां दिन वहि जायो रे ॥।॥ व० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि गोखै बैठी गौरड़ी, अपछर नै अनुहारौ रे। केलि करै मन मेलि नै, सहियर सुं सुखकारो रे ।।६।। व० जिनमन्दिर रलियामणा, दंड कलश करि सोहै रे । अति ऊँची धज लहलहै, सुरनर ना मन मोहै रे ।।७। व० चौरासी वलि चौहटा, मिलिया बहु जन वृन्दो रे । देश अने परदेश ना, पावै परमाणंदो रे ।।८। व० सरस सरोवर चिहुं गमा, भरीया जल करि पूरो रे। हंस प्रमुख कल्लोल सु, निवसै दुख करि दूरो रे ॥६।। व. वली विशेष तरुवर करी, सोहै वन सश्रीको रे। कोकिल कर टहूकड़ा, रहै पंखी निरभीको रे ॥१०॥व० बारै मास लगै सदा, नील हरी जिहाँ दीसै रे । फल फूले छाइ घणु, हीयड़ी देखी हीसै रे ।।११।।व० राज करै नगरी तणौ, मकरध्वज भूपालो रे। सूरवीर अति साहसी, न्याय नोत सुदयालो रे ।।१२।।व० दुर्जन जे वांका हता, नार कीया ते जेरो रे। जिम मृगपति नै आगलै, न सकै गयवर फेरो रे ।।१३।।व० इन्द्र समोवर जाणीय, रिद्धि करी राजानो रे। गुनह खमें निज प्रजा तणौ, दिन-दिन वधतै वानो रे ॥१४॥व० यत :-उदै अट्टक्कै भूप नहि, पहिल्यां नांही भूप । खुंद खमै सो राजबी, निरख सहै सो रूप ।।१५।। तेहनै राणी रूबड़ी, पतिभगती गुण खाणो रे। नामै श्री लखमोवती, इन्द्राणी सम जाणो रे ॥१६॥व० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपाई १११ जाणै ते चौसठि कला, निरूपम वचन विलासो रे । चन्द्रवदन मृगलोयणी, गय गजराज उल्हासो रे ॥१७॥व० पालै सील भली परै, धरम करी सुविकासै रे। एम विनयचन्द्र हेज मुं, ढाल प्रथम परकासै रे ॥१८॥व० ॥ दहा ॥ ते सुख विलसै दंपती, विविध परै ससनेह । मास घड़ी सम लेखवै, जिम दोगंधक देह ॥१॥ शुभ स्वप्नै सुत ऊपनौ, राणी उयर मझार। सुख ऊपरि सुख तो लहै, जो तूस करतार ।।२।। ललित लच्छि पुण सुत निपुण, गौरी गजगति गेलि। पुण्य प्रमाणं पामीय, विनयचन्द्र गुण वेलि ।।३।। दिन-दिन डोहला पूरतां, बोल्या पूरा मास । सुत जायौ रलियामणौ, सहुनी पूगी आस ॥४॥ ए अद्भुत प्रगटीयौ, प्रथम हतो जे भूप । दीप थकी दीपक हुवै, ए दृष्टान्त अनूप ॥५॥ राजा अति उच्छवक थकै, जनम महोच्छव कीध । घरि-घरि तोरण बांधीया, दान वली तिहाँ दीध ।।६।। दशऊठण कीधां पछी, उत्तम लक्षण देखि । नाम दीधो सहु साख ले, उत्तमकुमर विशेष ॥७॥ ___ ढाल-(२) वींछियानी हां रे लाल तेह कुमर दिन-दिन वधै, जिम चन्द्रकला सुविसाल रे लाल। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि धाइ माइ पालीजतौ, थयो आठ बरस नो बाल रे ॥१॥ वाल्हो लागै रंगीलो रे कुंमरजी, ते खेलै राज दुवार रे लाल । मोह्या मुख मुलकै सहु, तिम निजर तणै मटकार रे ॥२॥ वा० हो रे लाल मात पिता बहु प्रेम सुं, तजिवा बालापण लाज रे लाल । आडम्बर करि कुमर नै, मुंक्यौ भणवा नै काज रे । ३।। वा० हाँ रे लाल लेखक शाला मांहि जे, जुड़ि बैठा छात्र अनेक रे लाल । ते सहु पाछलि तेह नै, अध्ययन करै सुविवेक रे ॥४॥ वा० कितले दिन जाते थयौ, ते सकल कला नो जांण रे। लघु वय सकज सकल वधै, ए पुण्य तणा परमाण रे ॥५॥ वा० सत्य वचन बोलै सदा, वारू वलि राखै नीति रे। तो हिज वाधइ लोक मां, तेहनी पूरी प्रतीति रे ॥६॥ वा० कांटो बाजै पगतले, ते खटके बारो वार रे। जीव कहौ किम मारीय, इम जाणीदया करै सार रे । ७॥वा० अणदीधो लीजै तृणो, तो ही अदत्तादान रे। एम विचारी परिहरै, सुकलीणो कुमर सुजाण रे ॥८॥ वा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई ११३ नरक महल चढिवा भणी, नीसरणी सम परदार रे। अकलंकित तनु जेहनो, वलि कनकाचल सम धीर रे॥६॥वा० सहज सलूणो कुमर जी, सायर री परि गंभीर रे। गमन निवारै जाणि नै, देखी अति गहन विचार रे ॥१०॥वा० कला बहुत्तर आगलो, दाता ज्ञाता जिम सूर रे। प्रसिद्धि भलेरी जगत मां,जस अधिको प्रबल पडूर रे।।११शावा० खेल करै निशि वासरै, मन मेलू लेई संग रे। विषमा अरियण अवहटै, ए राजवीयां रो अंग रे ।।१२।।वा० दीन हीन ने ऊधरै, दुखीयाँ केरो प्रतिपाल रे । विनयचन्द्र कहै एतलै, पूरी थई बीजी ढाल रे ॥१३॥ वा० दहा सोरठा सुख विलसतां तेम, निशि भर कुमर इसी परें। एक दिन चित एम, तरुण थयौ हिव हुं सही ॥१॥ तौ स्युं बैठो आम, परवशि थई मुधा परे। ए कायर नु काम, घर सूरा किम थईयई ॥२॥ यत :-गुण भमतां गुणवंत नै, बैठां अवगुण जोय । वनिता नै फिरिवौ बुरौ, जो सुकलीणी होय ।।३।। खाटी लखमी जेह, बाप तणी किम विलसीयै। तौ नहीं ए मुझ देह, जउ मन चिंत नवि करूं ॥४॥ इम मन मां आलोचि, हाथ खड़ग ले उठीयौ। कीयौ न काइ सोच, स्वजन तणौ तिण अवसरै ।।५।। चाल्यौ होइ निचंत, ते परदेशैं पाधरौ। खरी आणी मन खंत, कुमर परीक्षा कारण ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ढाल-(३) धण री सोरठी लांधै विषमी चालतां होजी, वाट अनड़ वर वीर, प्रबल पराक्रमी । धरम धुरंधर धीर प्र० महीयल शोभा आक्रमी होजी, गुण निधि गुण गंभीर ; १ प्र० सूर तपै सिर ऊपरै होजी, लू पिण भेदै अंग, खलहल खलकती। तिहां पणि उतरै ढलकती होजी, नदियाँ परवत शृङ्ग ; २ ख० सुख दुख पामै ते सहै हो जी, कौतकियां नो राव । मलपई मन नी रली, तो पणि सुविशेष वली होजी, देखी खेलै दाव ; ३ म० तिहां किण आवै पंथ मां हो जी, अटवी एक अपार । सरस सुहामणी, घणी तिहां सरवर तणी होजी, लहिर सदा सुखकार , ४ म० अवलोकै रन वन घणा हो जी, तरुवर नौ नहिं ग्यान । नयणां निरखती, जाण कि अमृत वरषती होजी, कुमर तणी तिण ठाम ; ५ न. किहां किण कमल तणी भली हो जी, कलियां अति सोरंभ; विहसै विकसती, नानी मोटी निकसती होजी, करती वडो रे अचंभ ; ६ वि० अनुक्रमि नियत प्रमाण मां हो जी, लांघे ग्राम अनेक ; दीपै दिनमणी, मन मांहे धीरप घणी हो जी, ___ संगि न कोई एक ; ७ दी० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई ११५ भमतो भमर तणी परै हो जी, आयौ गढ चीत्रोड़, हेजे हरखती, हेलै जिण जीता अरी होजी, सुहड़ां सिरहर मौड़ ; ८ हे. राजा तिण नगरी तणो होजी, मछरालौ महसेन ; मानी महिपति, अछै सभा दो शुभमती होजी ; दायक जिम सुरधेन ; ६ मा० देशां मांहे दीपतो होजी, देश वडो मेवाड़ ; राखै तसु रली, जेहनै को न सकै छली होजी, वैरी तणो रे विभाड़; १० रा० गुणीयण जस जेहनो कहै होजी, चावो चारे खंड ; कमणा का नहीं, सरिखा छै तेहने सही होजी, हय गय प्रबल प्रचण्ड, ११ क० अवर सहु को राजवी होजी, सीस नमावै जास, अधिक वयण अमी, ए पणि मोटा राजवी होजी, राखै महिर उल्लास ; १२ अ० विरुओ दुर्मुख ऊपरै होजी, पिण जिन धर्म करंत ; रयण दिवस रही, समकित सुद्ध सुमति ग्रही होजी, भजै सदा भगवंत ; १३ २० भामणि सेती भोगवै होजी, जे सुख संसारीक ; अवसर आपणी, सुत कारण सहु अवगिणी होजी, __ माणै लाछि अलीक ; १४ अ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि देसी धणरी सोरठी होजी, तिण में तीजी ढाल ; रसीया मन रमी, कहतां हीज मन मां गमी होजी, विनयचन्द्र सुविशाल ; १५ र० ॥हा॥ राज करंता राजवी, गेह गिणे मृग पास ; पुत्र तणी यौवन पणे, काय न पूगी आस ; १ सुखिया देखि सकै नहीं, दोषी दैव अकज्ज ; संपति द्य तो सुत नहीं, इण परि करै निर्लज्ज ; २ वई बूढो अंगज पखै, रहै मन मांहि उदास ; गृह जाणै सूनो सहु, दिन दिन थाय निरास ; ३ इक अवनीपति सुत विना, वलि वैस्यां में वास; नदी किराडै रूखड़ा, जद तद होइ विणास ; ४ दैव मनायां नवि थयौ, खरची धननी कोड़ि; तो कोई कारण अछै, का तन मांहे खोड़ि ; ५ ढाल ४ हमीरा नी किणही आस फली नहीं, तेह करमनी बात राजनजी विण सरज्यां सुत किम हुवै, जो जमवारो जात रा० १ कि० इम मन माहे चीतवी, पोताने परिवार रा० जायै वन में अंतरै, मंत्रि प्रमुख लेइ लार रा० २ कि० नील वरण हयवर ऊपरै, राज थयो असवार रा० सहु गुण लक्षण पूरीयौ, ते हयवर श्रीकार रा० ३ कि० पणि गति भंग करे घj, महीपति पूछ ताम रा० मुंहता नवलि किशोर नी, केम अवस्था आम रा०४ कि० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई बीजो को बोलै नहीं, घणी थई तिहां वार रा० तेह सरूप अलक्ष छ, पिण मंत्री करै विचार रा०५ क्रि० राजा अति आतुर थयौ, तेहने कीधी रीस रा० उत्तम तिहां कि आविनै, बोलै विसवा वीस रा० ६ कि० हुँ परदेशी छु प्रभो, तो पणि सांभलि बात रा० तुम आगलि कम राखिये, कूड़ कपट तिल मात रा० ७ कि० हुं कहिस्यूँ मति अनुसरे, अश्व तुमारो एह रा० महिषी दूध पियौ घणौ, तिण मंदी गत छह रा० ८ कि० वाई पय प्राये हवें, चंचल गति तिण नांहि रा० राय कहै वह माहरै, तुं वसीयो मन मांहि रा० ६ कि० तुं ज्ञानी तुझसुं कहुं, इण साचइ अहिनोण रा० स्या कही गुण ताहरा, तुं कोई चतुर सुजाण रा० १० कि० दूषण किम तें जाणीयौ, कुमर कदै वलि एम रा० जाणुं हयवर पारिखौ, तिण कारण कह्यो तेम रा० ११ कि० मा मूई जब एहनी, तब ए लघुतर बाल रा० पय पाई मोटो कियो, एम कहै भूपाल रा० १२ कि० इण परि चौथी ढाल में, रोभयौ चित राजान रा० विनयचंद कहै कुमर नैं, थास्यै आदर मान रा० १३ कि० ॥ दूहा || इतला दिन हुं घरि रह्यो, विण वि तुं हिज सुत माहरै, दूधे सुत Jain Educationa International अति स्नेिह ; बूठा मेह; १ For Personal and Private Use Only ११७ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ VAAAAAAwr .. विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि मारै भागे तूं मिल्यौ, सगली बात सकज्ज ; पर उपगार शिरोमणी, सहु साधण पर कज्ज ; २ ए हय गय रथ ए सुभट, ए मंदिर ए सेज, आदरि तुं संतोष धरि, माहरो तो परि हेज ; ३ चारित्र लेवा ऊमह्यो, ज्ञानी गुरु नई पास ; तुझ आगलि तिण कारण, कहियै वचन विलास ; ४ आचारे लखीयै सही, तुं छै राजकुमार ; मन गमतो मुझ राज्य ले, मत को करे विचार ; ५ ढाल (५) रसीयानी तब ते कुंवर कहै कर जोडि नै, तात सुणो मुझ बात, मया करि हुँ परदेशी रे कुतूहल जोइवा, नीसरियो सुविख्यात, म० १ त० हिव आगै चालीस एकलो, देखीस सकल विनोद, दया पर तुम चरणे राजन जी हुं आविसुं, मन धरि परम प्रमोद, द०२ त० इम कहि लेइ सीख सनेहीँ, ततखिण चाल्यो रे ऊठि, सुगुण नर एकलड़ौ पिण स्यौ डर तेहन, जगगुरु जेहनै रे पूठि, सु० ३ त० लांघे ग्राम नगर वहिला घणु, तिमगिरि गह्वर नीर, चतुर नर कितलाइक दिन मारग चालतो, पहुतो भरुच्छ तीर च०४ त० नगरी तणी छबि देखई सोहामणी, प्रसन थयो मन माहिं सोभागी जोवा लायक सगली जाइगा, जिण मुँकी अवगाहि सो० ५ त० तिहाँ जिनवर मुनिसुव्रत स्वामिने, देवगृह निज आय, सही वारो वार करै गुण वर्णना, मन सुद्ध प्रणमै रे पाय, स० ६ त० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई ११६ जन्म सफल गिणि सरवर आवीयो, बैठो तरुवर छाय, रसिक नर नीर भरै पणिहारी तिहां किणे, निरखै ते मन लाय, र० ७ त० मांहो मांह बात करै त्रिया, सुणि बहिनी मुझ बात, सहेली कुबेरदत्त नामा विवहारीयो, आज चलेस्यै रे जात, स० ८ त० पिण प्रवहण पूरेस्यै पांचसै, द्वीप मुगध मां रे जाय, सुरंगी ते तो अष्टादश योजन शत, मान इसु कहिवाय, सु० ६ त० मध्य भाग लवणोदधि नै रह्या, जिहाँ लंका कहवाय, सलूणी द्रव्य उपावण साथे मानवी, त्यां सुपूरी रे प्रीत, स० १० त० इम सुणि बात घ] हरखित थयौ, कुमार विचारइ रे एम, सनेही सांयात्रिक संघात ते भणी, पूछि चहुँ तिहाँ खेम, स० ११ त० प्रवहण ऊपर बैठो पूछनै, सहु सुं मिलीयो रे आप, विनय सु मीठा वचन कही रीझ्या सहु, सकल टल्यो रे संताप, वि०१२ त० शुभ महुरत ले पूरीया, लांध्यो कितरो रे माग, चलंतां जल खूटौ तिहां पोतक वणिक कहै,पूरो कोई रे अभाग, च०१३त. इतलै वखत तणे वसि आवीयो, एक तिहाँ सूनो रे द्वीप, हरखसुं सहु ऊतरि जल भरवा ने गया, वहिला कूप समीप, ह. १४ त० यत :-पेखी नदी जल पूर, तिरस वसै जायै तृषित जग में गरज गरूर, विनयचन्द्र इण परि वदै ? जल संग्रह करंतां लोकाँ भणी,खिण इक लागी रे वार, करम वसि भ्रमरकेतु राक्षस तिहाँ आवीयौ,सरजित तणैरे प्रकार, क०१५त. ढाल कही रूड़ी पाँचमी, विनयचन्द्र बहु जाण, भविकजन भय करसी राक्षस पणि धरमथी,थास्यै कुशल कल्याण,भ०१६त. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ॥ दूहा ॥ ते रात्रैचर अति विटल, विकल वदन विकराल ; विषम वचन मुख बोलतो, रूठो जाणि कराल ; १ सहस्र लहन, राक्षस पर पूठि ; साँकन राखै केहनी, दूरि किया जिण दूठ ; पिण भूखौ ते स्युँ करें, आव्यौ अवसरि देखि ; माँस भखेवा उलस्यौ, माणस नौ सुविशेष; ३ वलि काढतो जीभ ते, लोक डरावै सर्व्व; कर झाले करवाल इक धरि मन माँहे गर्व ; ३ वचने करि सहु नै कहै, किहाँ जास्यौ रे आज, इम कहतो आव्यो कन्है, करतो अधिक अगाज ; ५ ढाल (६) तारि करतार संसार सागर थकी, एहनी कोप करि लोक तिण पकड़ि कबजे किया, विगर घर बार हूवा वियोगी, १२० नासताँ भूइ भारी पड़ी त्याँ नरों, सबल पार्नै पड्या थया सोगी १ को ० केर झाल्या जकड़ि पकड़ि नै काख में, या ई करथी सदावे; तेम चाँप्या पग हेठि पापी तौ Jain Educationa International एण अवसर कवण केड़ि आवै ; २ को ० अतुल बल फोरि करजोर हिव आपणौ, कुमर ति ठौर भरडाक आयौ ; For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १२१ साहसी इम कहै दुष्ट पापिष्ट सुणि, ___ सीह सूतो किस्यानै जगायो ; ३ को० नीच तुझ थी इसौ वयर कोई नहीं, नास दौते तृणो लेई निबला ; राति दिन राँक नर मारिवा रड़ वड़े, __ साह न सकीसि मो जिसा सबला; ४को० चित्त मां इम सुणी प्रेतपति चमकीयौ, बाल वय एम सँ वचन बोलै ; किसी वलि देह घट मांहि पोरस किसौ, डिगमिगै वचन मन केम डोलै ; ५ को० वचन काँकल प्रथम माँडि वड वेग सुं, झडा झड़ि झूझ मांड्यौ झड़ाकै ; सड़ा सड़ सोक तीरों तणी सबल द्या, तड़ा तड़ वहै धजवड़ तड़ाकै ; ६ को० झणण धरि बाण करि बणण रमझमक द्य, खसर कसमस हस करि खंगारा ; सणण चिहुँ दिशि नासि सेना चरा, जाण छूटी छलद जलद धारा ; ७ को० धड़ाधड़ि धरणि गडडाट नभ धड़हड़े, राडिदिधरि रीस ते लीय रटका ; खाग्डिदि खेलै खडाखड़ विहुंज सखरई, वडा वडा उडै समसेर वटका ; ८ को० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि भाग्डिदि भुंइ लुटै खिण छुटै वलि अभ्भटै, प्रगट भट ऊछलै जिम पतंगा तिहां करै घाव देइ ओट वड वेग सु, मरद न मुडै ज्जुडै जिम मतंगा; ६ को० अंत तस बल घट्यौ कुमर तब ऊलट्यौ, कट्यौ जंजाल सहु लोक छूटा ; जुद्ध हुई रह्यौ हथियार रो जिण घड़ी, जोर धरि वले अंग जूटा ; १० को० झपटि द्य थापटे चापटे झापटे, गहग गंभीर मुख करै गाजां मुंठि अर मुठि पडि उठि भड दूठ मचि, लडि लगावै रखे कोइ लाजां ११ को० अधिक नहीं बात द्यई लात करि घात अति धग्डिदि धकि झबकि झुकि दीये धमका; जाणि बैंकार करती जिसी अपछरा । ठमकि पद ठावति करै ठमका ; १२ को प्रबल भुज जुद्ध खिण मां उपसम थयौ निठुर कायर भ्रमरकेतु नाठो धन्न हो धन्य जोगणि कहै चित्त धरि कीयौ राक्षस थकी हीयो काठौ १३को०. पोन्य पोते हुवै तेह जीपई सदा धरम न करै तिके धमधमीजै. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई पुण्य थी शत्रुदल तेह आई नडै पुण्य थी शिवसुख तुरत लीजै; १४ को० सुजस वाध्यो घणो कुमर उत्तम तणौ ___ कीयो उपगार तिण विण निहोर ढाल छट्ठी विनयचन्द्र इण परि भणे उत्तस्या वादला वाय जोरै ; १५ को० ॥हा॥ आवै कुमर तिहां थकी, सायर तट मन रंग ; मनुष्य मात्र दीसै नहीं, तुरत कीयौ मन भंग ; १ सहु नै राख्या जीवता, मैं कीधो उपगार ; तो पिण मुझनै अवसरै, मूंकि गया निरधार ; २ . लाज विहूणा लोकए, नीच निगुण निसनेह : आप सवारथ साधिनै, निश्चय दीधो छेह ; ३ वहिला खेड़ जिहाज नै, मुझ सु खेली घात ; तो काइक दीसै अछे, वखत लिखतनी वात ; ४ मै तो कीधी मो दिसा, जेह भलाई आज ; जो न गिणी तो तेहनै, पूछेसी महाराज ; ५ ढाल ७ इण रित मोनै पासजी सांभरै, एहनी वलि मन मांहे चीतवै सखी, ते तो लोक विनीत ; राक्षस आगलि स्यु करै सखी, मन मां सबली भीति रे ; किण परि राखै मुझ चीत रे, भय मरण तणो विपरीतिरे ; तिहां दूरि रही ते प्रीति रे, पछै सहु को नी रीति रे ; १ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि इम जाणी रिदै गुण संभरै, एहिज वृक्ष सुहामणा सखी, घणा वली फल फूल : तो हिव इण हिज थानके सखी, वसियै करनै सूल रे ; किहां तो न पड़ीजै भूल रे, जिन ध्यान मां रहीयै झूल रे ; करिय गुण पास अमूल रे, जिम न हुवई चित्त डमडूलरे;२३० इहां रहतां कुण जाणसी सखी, एहवो चित्त विमास ; एकण तरुवर ऊपरै सखी, ध्वज बांधी सुविलास रे ; तिहां समरै जिनवर पास रे, अवहड़ मन धरतो आस रे ; कहतो मुखथी जसवास रे, अमृत सम वचन विलासरे ; ३३० तेहज द्वीप निवासनी सखी, देवी देखि कुमार ; मन चिंतइ रंजी थकी सखी, माहरइ प्राण आधार रे ; मिलीयो दुखियां साधार रे, जो आय चढे घर बार रे ; तउ सफल गिणु अवतार रे, थायै मन मांहि करार रे ; ४ ३० हिव आगलि आवी कहै सखी, सुणि मनमोहन बात रे; तुझ सु लागी मोहनी सखी, भेदी साते धात रे , मुझ दाझै खिण खिण गात रे, मुझ सेती न रह्यो जात रे; तुंदिल मां परम सुहात रे, स्यु कहियै बहु अवदात रे ; ५ इ० तुं तौ प्रीतम मानवी सखि, हुँ छु अपछर नारि ; तिहां सुख भोगवतां छतां सखी, करमां अन्य प्रकार रे; संतावै मदन अपार रे, तन वाध्यो मदन विकार रे ! मिलवो तोसुं इकवार रे, मैं कीधो एह विचार रे ; ६ ३० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १२५ जोरइ पिण हिव ताहरइ सखी, गलि मांहि घालिस बाह; जे मिलवा नै उल्हसै सखी, किसी विमासण ताहि रे; ए जोवण लहिरै जांहि रे, टाढी तरुवर नी छांहि रे; कहियौ आणौ मन मांहि रे, अणबोल्या वणसी नाहि रे; ७ ३० राजकुमर तब इम कहै सखी, स्यानै खोवै लाज ; ताहरइ मन में जे अछै सखी, मोसुन सरइ काज रे; इवड़ी करई केम आवाज रे, तुं सहु देव्यां सिरताज रे ; माहरौ राखीजै माज रे, इतलो हिज दीजे राज रे; ८ ३० परनारी बहिनी अछै सखी, वलीय विशेष मात ; तिण तुझ नै साची कहुँ सखी सो बाते इक बात रे; इण वात नरक मां पात रे, नव लक्ष जीव नो घात रे; दुख सहियै दिन ने राति रे, नवि लहियै खिण सुख सात रे; ६ ३० वईयर बालै रूसणै सखि भाखै देवी वाणि ; सगपण भगनी मात नो सखी, दाखै केम अयाण रे ; माहरो करि वचन प्रमाण रे, जो चाहै घट मां प्राण रे; तु भावै जाणि म जाणि रे, रहिस्यै नहिं काइ काण रे ; १० ३० देवी तब रूठी थकी सखी, काढि खड़ग कहै ताम ; विण जीवी तुं कांइ मरै सखी, करि मूरख ए काम रे ; तुझ नै नवि लागै दाम रे, ए सजल सरस छै ठाम रे ; तुं जे नवि घालै हाम रे, कहि नै किम चलसी आम रे ; ११ ३० सूर अवर दिश ऊगमैं सखी, मेरु डिगै वलि जेम ; सायर मरयादा तजै सखी, पिण नवि चूकं तेम रे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि परस्त्री हुँ रमवा नेम रे, तब चिंतइ अपछर एम रे एतौ नवि राखै मुझ प्रेम रे, निहुरो करीये कहो केम रे ।।१२ ३०॥ निश्चल मन कुमर कीयौ सखी, न पड्यो माया जाल ; टेक ग्रही ते नवि तजी सखी, वचन तणो प्रतिपाल रे ; कंठ ठवि शीलनी माल रे, सहु दूर मिट्यौ जंजाल रे; एतलै ए सातमी ढाल रे, कहै विनयचन्द्र चौसाल रे॥१३ ३०।। ॥ दूहा॥ देवी इण परि वीनवै, रीस करी जे काय ; ओछो अधिको जे कह्यो, खमज्यो तुं महाराय : ।।१।। एकण जीभई ताहरा, गुण मोहँ न कहाय ; ताहरै नामै जनम ना, पातक दूर पुलाय ।।२।। जे बोल्या दशवीस तें, अमीय समाणा बोल ; हितकारी सहुनै अछै, पिण हुँ निटुल निटोल ॥३॥ हाव भाव विभ्रम कीया, वलि तिमहीज विलाप ; तो पिण ते तिलमात्र इक, नाण्यो मन संताप ||४|| सील लील राखण भणी, तजिवा मांडी देह ; पिण परनारी जाणि नै, न कीयौ विषय सनेह ।।५।। ढाल-८ मृगनयणी राधाजी रे कंत कहा रति माणि राजि ए देशी न दीयौ छेह नेह धरि गाढौ, धरम नी बात बखाणी राज हां ध० गति मति नै छ ति छानी रहै, नहीं वाणी अमीय समाणी राज १ अम्हे पणि जाणी राजि जाणी तु एतो मन जोवा नै माटै कुमरजी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई मुझ थी बात कहाणी राज जिण धरमनी बात कुमरजी विषय निजर तुमे नाणी अमे० २ इम कहि बारह कोड़ि रयणनी वरषा करि सुप्रमाणी राजि जिण धरमनी देसण ठाणी मुगति तणी अहिनाणी ३ अ० मन नी कासल छोड़ि गई हिव निज थानकि सुरराणी राज कुमर तणा गुण खिण खिण समरै जास कुमति कमलाणी राज ४ प्रवहण देखि इस इक नैडो नयण तिहां विकसाणी राज सरलै साद कहै रे भाई ल्यो तुम्हे खबर अम्हाणी ; ६ अ० सांभली वाणी पुरुष नी एहवी समुद्रदत्त मन भाणी राज कोइक नो भागो छै वाहण ल्यौ तुमे खबर आफाणी ; ७ अ० सगला नर तिण पासे आवै, देखि धजा लहकाणी राज उत्तमकुमर तिहां निज वातां, भाखी चित्त सुहाणी राज ; ८ अ० कुमर तणा गुण देखि सहूनी, अंतरगति उलसाणी राज हिलमिल वैसि चल्या सायरमां, खूटि गयौ वलि पाणी ; है अ० भर दरीया मांहे ते जल विण, सुं करै प्रीति पुराणी राज तड़क भड़कै भूत थई तसु, बींधइ उदर कृपाणी ; १० अ० निर्यामक कहै शास्त्र निहाली, म करो खांचाताणी राज हिवणा वेलि उतरसी जलनी, धीर धरो तुमे प्राणी ११ अ० प्रगट हुस्यै गिर फिटक रयण माँ, कूपक तिहां सुखदाणी राज जल निरमल ते माहे अछै पिण एहवी बात सुहाणी १२ अ० राक्षस धीठ रहै इण थानक लोक उकति कहवाणी राज आठमी ढाल कहै मनरंगे, विनयचन्द्र गुण खाणी ; १३ अ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ॥हा॥ निर्यामक सुणि वातड़ी, लोक कहै गुण गेह ; राक्षस ते केहवो अछ, अंगत आकारेह ; १ तेह कहै दीठो किणे, पिण लोकां री बात ; जे आवै इण थानके, करै तेहनो घात ; २ महाक्रूर रुद्रातमा, मांसभखी विष नयण ; भ्रमरकेतु नामैं इसौ, दुर्द्धर जेहना वयण ; ३ जलधि देव नै आगलै. तिण ए कीधो नेम ; वाहण मां जन नवि भखं, बाहिर थी नहि नेम ; ४ वात करंतां तेहवै, ते परबत तिण ठाम ; जगा ज्योति प्रगट थयौ, सहु को हरख्या ताम ; ५ ढाल-६ योगिनारी कूप तिहां ते निरखि नै रे, जल पूरत ससुवाद सजन जी सहु निर्यामक नै कहै रे, विरुओ तेह पलाद ; १ सजनजी एक सुणौ अरदास स० तेहनौ एछै वास स० करिस्यै सहुनो नास स० थइयै तेण निरास ; २ प्रवहण थी नवि ऊतरै, राक्षस भय असमान केई नर आगे भख्या रे, कहतां नावै ग्यान ; ३ तिण कारण मरवौ भलौ रे, तिरषारत इण ठाम ; पिण न हुवां तेहना वसूरे, लोक वदै सहु आम ; ४ वात सुणी इम लोकनी रे, देई अवचल वाच ; कुमर विदां वर साहसी रे इण परि जंपै साच ; ५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई मुझ सरिखौ माथै छतां रे, कांइ डरावै आम ; सुरपति तिण मुझ सामुही रे, घाल सकै नहीं हाम ; ६ स० तौ ए स्यु छै बापड़ी रे, एहनी सी परवाह ; स्याल तणौ स्यौ आसरौ रे, सीह तिहाँ गज गाह ; ७ स० ऊतरि प्रवहण थी तदा रे, जल भरिवा नै काज ; कूप समीपई आविया रे, लोकां तणां समाज ; ८ स० मन संकित पण तो हिवै रे, लेइ नै जल पात्र ; राद आगलि बांधि नै रे, मंक्यो सरलै गात्र ; 8 स० पाणी तिहाँ नवि नीकलै रे, सोकातुर सहु जात ; चिंतवणा एहवी करै रे, एतौ विरुइ वात ; १० स० रीव करई वलि तरफलै रे, जिम थोड़े जल मीन ; ऐ ऐ दुर्जय ए त्रिषा रे, जेण थया सत्वहीन ; ११ स० माँहो माँहे ते कहै रे, दीसै जलि भृत कूप ; तोही बिन्दु न नीकलै रे, कोइक देव सरूप ; १२ स० अरति अंदोह करै घणु रे, मरणौ आयो माय ; स्यु कीजै हिव बापजी रे, तिरष न खमणी जाय ; १३ स० के संभारै गेहनै रे, के महिला सुख सेज : के बाई के बहिनड़ी रे, के भाई के भाणेज ; १४ स० इम चिंतातुर लोक नै रे, देखी राजकुमार ; कूप प्रवेशन आदरी रे, सहु मन कीध करार ; १५ स० जेह विरुद मोटा वहै रे, तेह करै उपगार नवमी ढाल कही भली रे, विनयचन्द्र हितकार ; १६ स० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ww विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जाल ॥ दूहा ॥ रज्जु विलंबी नै कुमर, पइस कूप मझार ; तिण माहे इक इण परै, निरखै देव प्रकार ; १ जाली कंचन मांहि सुभ, जल ऊपरि तिहां कीध; मन मां अचरिज ऊपनौ, आडी किण ए दीध ; २ सुणो सुणो रे लोक सहु, विस्मय वाली वात ; जाली सोवन नी अछै, दीठां उल्लसै गात ; ३ तिण नीचे जल देखि नै, बड़वखती वड़वोर ; उरी परही करि जालिका, भाजै धर मन धीर ; ४ पाणी सुगम कीयौ कुमर, जेह हतो दुरलंभ ; रलियाइत सहु को थया, पोछो परिघल अंभ ; ५ दहो सोरठो गुण समरी नर तेह, कुमर तणा तिण अवसरै ; तास चरण नी खेह, सहु को आपण नै गिणे ; ६ ढाल-१० राग-सामेरी चतुर नर एह बड़ी अधिकाई, बाल अवस्था मांहि अछै पणि, कुमर थयौ सुखदाई ; १ च० हिव चालौ प्रवहण पूरी नै, करि जल तणी सझाई ; चन्द्रद्वीप मांहे बैठां किम, आवै वडम वडाई ; २ च. वात करंतां कूपक मांहे, अद्भुत भीत वणाई; देव दुवार सहित पाउडोए, निरखै कुमर सवाई ; ३ च० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १३१ लोकां ने कहै हुँ परदेशी, कीधो भाग्य सहाई, तो देखीजै केलि कुतूहल, खोड़ि नहीं छै काई ; ४ च० प्रथम तजि गृह ते चीत्रोड़े, जाई सगुणता पाई ; राज तिहां महसेन दियो पणि, न लीयो लोभ समाई ; ५ च० छोडाव्या नर रात्रिंचर स्यु, करि नै सबल लड़ाई; सांप्रत पाणी परगट कीधउ, सहु जाणे सुघडाई ; ६ च० हिव आगै स्यु थासी ते पिण, देखीजे मन लाई ; धरि हुँति अभ्यास अछै मुझ, करवी सहु सुं भलाई ; ७ च० चाल्यो तिणहीज द्वार थई नइ, मन मां आणि जिकाई; पांचे रंग तणा पाहण नी, बांधि वाट विछाई ; ८ च० कंचन में सोपान सुपेखित, रोमराइ उलसाई ; आगै एक भुवन अति सुंदर, वसुधा जाणि हसाई ; ६ च० रतन जड़ित अंगण तसु दीस, अधिकी जास सफाई ; भूमि प्रथम सोवन मां मंडित, विकसित रहै सदाई ; १० च० जोतां कुमर इसी पर बीजी, भूमि चढ्यौ वलि जाई ; ते पिण मणि माणक मां मंडित, तिहाँ रहै चित लोभाई; ११च० तीजी मुक्ताफल दीपति, तिम चौथी मन भाई ; वलि पांचमी छट्ठी मन मोहै, सातमी भूमि सुहाई ; १२ च० दसमी ढाल थई ए पूरी, विनयचन्द्र चतुराई ; सुणिज्यो आगलि कुमर कुतूहल, तजि मन विघन बुराई;१३च० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ॥ दूहा ॥ तिहां कणि तीजी भूमि परि, बैठी एक ज नारि ; अति बूढी वलि खीण तन, दीठी तेह कुमार ; १ मुख नहीं खिण दाँत विण, मुख माखी विणकार ; केश पणि चक्षु मांजरी, कूबजा नै आकार ; देखी कुमर भणी निकट, इम जंप सुविचार ; काइ मरैरे आयु विण, रे गुणहीन गमार ; ३ राक्षस त नवि सांभल्यौ, भ्रमरकेत इण नाम ; निज घर तजि आयौ इहां, कोइ नहीं स्युं काम ; ४ कुमर कहै रे डोकरी, ते जोरावर दीठ; एक धकै मास्यो गुर्डे, पड़े स ऊठै नीठ; ५ पण ए गृह छै केनौ, केण करायौ कूप ; वलितुं वृद्धा कवण छै, ते सहु दाखि सरूप; ६ ढाल (११) जिनवर सुं मेरो मन लीनौ, एहनी सुणिपंथी एक बात हमारी, वृद्धा तँ पूछयो ते ऊत्तर देवा, मुझ मन राक्षसद्वीप इहां थी नैड़ो, जिहाँ राज करै तेहनो राक्षसपति, भ्रमरकेतु निसंक रे ; २ सु० अति वल्लभ तेहने पुत्री इक, जास मदालसा नाम रे ; रूप कर जीती जाणै रति, अपछर जिम अभिराम रे ; ३ सु० Jain Educationa International कहै मन लाई रे ; हरषित थाई रे ; १ सु० नगरी है लंक रे; For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १३३ नवली भली कुमुदिनी विकसै, रवि ऊगमतें जेम रे; भर यौवन रवि ऊगै दिन दिन, कुमरी विकसै एम रे ; ४सु० भ्रमरकेतु राक्षस एक दिवस, भर दरबार मझार रे; नैमित्तिक नै पूछ चित धरि, प्रसन कहौ सुविचार रे ; ५ सु० कवण हुस्यै मुझ पुत्री नै वर, ते भाखै मतिवंत रे कहिस्यु तंत तुम्हारै आगलि, रीस म करज्यो अंत रे ; ६ सु० ताहरी पुत्री ने वर थासी, राजकुमर सुप्रसिद्ध रे ; तीने खण्ड तणो जे अधिपति, सगली बाते समृद्ध रे ; ७ सु० एहवौ वचन सुणी विलखाणो, मन मां चिंतै घात रे; देवकुमर लायक मुझ पुत्री, भूचर किम परणात रे ; ८ सु० इम जाणी मन मांहि न आणी, तास कहाणी जासरे; सायर में गिरिवर नै शृंगै, कूप कराओ खास रे;हसु० ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... पूर लूण कपूर धुरा धुर, कौणि मन विसवा वीस रे ; १० सु० जाली कुपक मांहि लगाई, पड़िवा में भय एह रे ; बात कही तें पूछी ते सहु, वलि सांभलि ससनेह रे ; ११ सु० ढाल एकादशमी सांभलतां, जाणीजै सदभाव रे ; विनयचन्द्र कुमर तिहां ऊभो, देखै अपणो दाव रे ; १२ सु० ॥हा॥ अवर निमित्ती नै वली, पूछई मन धरि राय ; मुझ पुत्री कुण परणस्यै, ते मुझ तुरत बताय ; १ ते जल्पै तेहनी पर, नृप मन आवी रीस ; कोड़ि उपाय कीयां इसुं, किम करिस्यै जगदीस ; २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि दिल भरि दिल फेर कहि, स्युं तेहनो अहिनाण ; सांयात्रिक जन मारिवा, गयो करिने प्राण ; ३ द्वीपमाँहि तोसु लड्यो, जिण मांहे बहुमांण ; तुझ नै जीतो जोर करि, ते तु निश्चय जाणि; ४ दल वादल बहु मेलिने, तेह चड्यौ तसु काज ; एम प्रतिज्ञा करि गयौ, मारेवौ तसु आज ; ५ ढाल (१२) बिंदली नी, मास थयौ इक तेहन, हिव पूछु खबर हुँ केहनै हो, ___ चटपट चित्त लागी ; हुं संभार जेहन, जिम मोर चीतारै मेहनै च० १ हीय. कुमर विचार, माहरौ स्यु तेहनै सारै हो च० ते फोकट आपौ हारै, एहवौ कुण मुझनै मारै हो च० २ सवलां नी उझड़वाट, आयौ तेहनै निराधाट हो च० जोरो क्युमुझ घाट, तो करिस घणा गहगाट हो च० ३ तेह जाणै हुं धीगो, तो मारग रोकी रीको हो च० हुँ पिण छु रे दडीगो, ठीगां ऊपरलो ठीगो हो च० ४ वात विमासं तेहवै, ते कुमरी आवी तेहवै हो च० यौवन रूपै केहवै, कवियण भाखै सहु एहवै हो च० ५ भर यौवन मां माती, पिण जैन धरम री राती हो च० न सकै देखि मिथ्याती, जिणै दूर कीया कुरापाती हो च०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १३५ (यतः) नारी मिरगानयन, रंग रेखा रस राती, वदै सुकोमल वयण, महा भर यौवन माती ; सारद वचन सरूप, सकल सिणगारे सोहै, अपछर जेम अनूप, मुलकि मानव मन मोहै ; कल्लोक केलि बहु विध करै, भूरि गुणे पूरणभरी, चंद्र कहै जिण धरम विण, कामिणि ते किण कामरी; १ रमझमकते चालैं, हंसला रै हीयडै सालै हो ; च० रीसै नयण निहालै, पिण घात किसी परि घालै हो ; च०७ चरण कमल ने ठमकै, निशिदिन काछबियो चमकै हो ; च० नासि गयौ तिहां धमकै, जिम कायर ढोल नै ढमकै हो ; च०८ जेहनी जांघ विराजै, कदली थंभा स्यै काजै हो ; च० कटि देखी जसु लाजै, निज मां उपमान छाजै हो ; च०६ हृदयकमल सुविकाशै, सोहै दोइ पयोहर पासै हो ; च० एहवा ते प्रतिभासै, भली कनक कलश छबि नासै हो : च० १० बांह बिहुं लटकाली, अति ओपै ढुंब मुंबाली हो ; च० रुड़ी नै रलियाली, हीणी करि चंपक डाली हो; च० ११ करनी निरखि प्रकाश, आकाश थयो नीरास हो; च० कहज्यो मुख थी खास, ए भावांतर सुविलास हो ; च० १२ देखी मुख अरविन्द, दिवस नवि ऊगै चन्द हो ; च० माया सुरनर वृन्द, रांभया देखी किंनर नागिंद हो ; च० १३ रक्त अधर वलि जाणी, परवाली मन विलखाणी हो ; च० इण मोसु अति ताणी, तिण वासो कीधो पाणी हो ; च० १४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि दन्त पंकत सोभावै, दाडिम कलीयां लोभावै हो ; च० नाक तणै जसु दावै, जिहां दोपशिखा पणि नावै हो ; च० १५ आँखड़ीयां अणीयाली, बिचि सोहै कीकी काली हो ; च० हिरण घसैं खुरताली, मारी आँखि लीधी मटकाली हो च० १६ मुंअ सजोड़े दीपै, वांकड़ी कबाण नै जीपै हो; च० मांहो मांहि न छीपै, ते भाल विसाल समी हो ; च० १७ वेणि निरखि विशाल, शेषनाग गयौ पाताल हो ; च० एहवौ रूप रसाल, नहीं छै सही इण कलिकाल हो ; च० १८ रमणी जेह कुरूप, स्यु कहीये तास सरूप हो ; च० विनयचन्द्र चित्त चूंप, कहै बारमी ढाल अनूप हो ; च० १६ ॥हा॥ सझीया सोल सिंगार जिण, स्यु कहीयै ते नाम ; रूप तणे अनुमान सहु, जाणो निज निज ठाम ; १ देखै देह कुमार नै, नाखै सनमुख नयण ; फिर पूठी चढ मालीय, बोलै मीठा वयण ; २ हे वृद्धा तुं माहरे, पासै वहिली आवि ; स्युं भुंडी आलस करे, खिण इक वार म लाइ ; ३ तिण पासै हिव ते गई, पूछ एहनी बात ; कुण ऊभौ मुझ आंगणे, एह पुरुष शुभ गात ; ४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई ढाल (१३) नणदल नी इण मन वेध्यो हे माहरो, सर विण केण प्रपंच हे सजनी ते कहै माहरै आगल, सबल करै मन खंच हे सजनी ; १३० तेज प्रबल एहनौ अछ, निरमल सूर समान हे स० नयणे अमृत रस क्सै, निरुपम योध जोवान हे स० २ इ. सारद वदन सोहामणो, हृदय कमल सोभंत हे स० रूपै मदन थकी रूयडौ, गौर वरण गुणवंत हे स० ३ ३० पुरुष घणा दीठा हुस्यै, कोइ न आवै दाय हे स० इण दीठां मन माहिलो, दौड़ी मिलवा जाय हे स० ४ ३० कवण अछै पिण जातिनो, ते कल न पड़े काय हे स० पूछयाँ विण हिव तेहन, मन किम ठाम रहाय हे स० ५ ३० ऊतर आपै डोकरी, सुंदरि म करि विलाप हे स० विरह गहेली तुं थई, जाग्यौ मदन नो ताप हे स० ६ ३० एह मन मान्यौ ताहरै, तिणि कारण सर जाण हे स० जौ चूकै ए निजर थो, तिण भय तुं तजै प्राण हे स० ७ ३० मोह तणै वसि जे पड़या, थाइ सही सुंअंध हे स० जिण सँ रस कस तिण विना, जाणै अवर ते धंध हे स०८ स्युं तुझनै नवि सांभर, इण मन्दिर नो हेत हे स० एहनै मिलवा टलवलै, पिण पहिली हो चित चेत हे स०६३० तेह वचन अवहेल नै, तेड़े कुमर सुजाण हे स० ऐ ऐ मन नी मोहनी, स्युं न करै काम हे स० १० इ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि परदेशी तुं हो कवन छै, बोलै इम धरि नेह हे स० कुमर कहै छु मानवो, स्यु इवड़ी संदेह हे स० १ ३० वारू किम आया इहाँ, कुमर पयंपइ एम हे स० केवल तुझ नै निरखवा, आयो छु धरि प्रेम स० १२ ३० लाजन लोपै सुन्दरी, सुकुलीणी सिरदार हे स० छोड़ि कपट हाजी कहै, ना न कदै सुविचार हे स० ५३ ३० ढाल वखाणी तेरमी, विनयचंद्र तजि रेह हे स० ते तिम हिज करि जाणज्यो, मत आणौ संदेह हे स० १४३० ॥हा॥ भले पधास्या कुमरजी, पावन कीधो गेह ; चक्रवाक रवि नी परै, थांस्यु लागौ नेह ; १ नाम तुमारूं स्यु अछै, किम छोड्या मां बाप ; किण नगरो किण देशना, वासी छो महाराज ; २ कुमर कही सहु वातड़ी, करि कुमरी आधीन ; बिहुंना मन लहस्यां लियै, नीर विर्षे जिम मीन ; ३ बात कही वृद्धा भणी, पाणिग्रहण संकेत ; तिण दीधउ आदेश इम, जाणी बिहुंनो हेत ; ४ भावी न मिटै कुयरी, तुम्हे थया छो एक ; मन मान्यो सोढो मिल्यो, परणो आणि विवेक ; ५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १३६ ढाल (१४) सीयाला हे भलइ आवीयौ, एहनी नवलो नेह लगाड़िवा, कुमरी नै हो ते कुमर सुजाण ; सहेली हे नयणे मिलै, वलि वयणे हो ते चवै मीठी वाणि ; स० चोल मजीठ तणी परै, रंग लागोहे मांहो मांहे प्रमाण १ स० जोड़ी सरखी जाणि नै, ते परणे हे यौवन नै लाह ; स० विचि मांहे थई डोकरी, तिहां कीधो हे गंधर्व वीवाह; २ स० हाथ मुकावण द्य तिहां, मणि माणिक हे भलीरतन नीकोड़िा स० द्य आसीस सुहामणी, मत लागो हो इण जोडि नै खोड़ि; ३ स० अंग विलेपन कीजिये, कस्तूरी हे नूतन घनसार ; स० कुमर कुसुम सायक समौ, रंभा नै हे कुमरी अवतार ; ४ स० खावो विलसौ भोगवौ, जो जग माहे किम जाणौ साच ; स० स्वाद अछै इण वात मां, इम जंपइ हो ते वृद्धा वाच ; ५ स० खिण खिण मां पहरईतिके, जिहाँ भूषण हे नव नवला वेस; स० मन गमती मोजां करै, भय नाणे हे केहनो लवलेश ; ६ स० धरम तणी चरचा करै, मन रू. हे वर वींदणी तेह ; स० जिम जिम चतुरपणो भजे, तसु तिमतिम हे हुवै विकसित देह; स० फूले फलै रलीयामणा, देखाड़े हे कुमरी आराम ; स० जल ना कुंड सुहामणा, लेइ नै हे तिहां नाम सुठाम; ८ स० पालोकड़ निज हरणली, खेलायै हे मन धरि ऊछरंग ; स. घड़ी घड़ी नै अन्तरै, बिहुं नो हे थयो चढतो रंग ; E Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि स० प्रीतम नो चित रीझीयो, मधुर स्वर हे गाई गुणगीत ; स० पति भगती ए कुयरी, पदमण नी हे जाणै सहुरीति ; १० स० कुमर सतेजो हिवथयो, कौमुदी करि जाणे जिमचंद; स० लोक सहु पिण इम कहै, नारी विण हे जाणौ नर मन्द; ११ स० ढाल कही ए चौदमी, तिण माहे हो पहिलो अधिकार; स० मनगमतां पूरौ थयौ, ते तौ थाज्यो हे सुणतां सुखकार ; १२ स० निजमति विस्तरवा भणी, मैं कीधो हे ए प्रथम अभ्यास; स० विनयचन्द्र कहै दाखिस्यु, आगै पणि हे द्वितीय प्रकाश; १३ इति श्री विनयचन्द्र विरचिते सरस ढाल खचिते सञ्चातुर्य शौर्य धैर्य गांभीर्यादि गुण गणा मत्रे श्री मन्महाराज उत्तमकुमार चरित्रे पर जनपद संचरण अश्व परीक्षा करण चित्राकूटावनिध मिलन भृगुकच्छपुर गमन यान यात्रा रोहण पलाद निर्दलन भूमिगृह प्रवेशन मदालसा पाणिपीड़नो नाम द्वितीयाग्रजो ऽधिकारः ॥ १॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाशः ॥ दहा ॥ हिव समरूं श्री सिद्धपद, जेहनौ सबल प्रभाव ; आतम तत्व विचार नै, ग्रहस्यु गुण सद्भाव ; १ बीजै अधिकारै सहु, सांभलिजो वृत्तान्त ; विकथा वैर विरोधथी, थाज्यो भविक प्रशान्त ; २. कमर कहै कुमरी भणी, हिव तो हुन रहेस ; वैरी नो थानक तजी, जास्यु देश विदेश ; ३ कूड़ कपट बहु केलवै, राक्षस नी अपजात ; तिण कारण हुँ चालस्यु, सो बाते इक बात ; ४ तुं रहिजे इण थानकै, मुझ नै दे हिव सीख ; तदनंतर कुमरी वदै, हुं छु तुझ सरीख ; ५ स्यानै राखै छै इहां, स्यु रहिवा नौ काम ; हुं छाया जिम ताहरै, कहिवौ न घटै आम ; ६ कर सेती करजोडि नैं, जे नर दाखै छेह ; तेहनै भलो न को कहै, हेज विहूणा जेह ; ७ ढाल (१) मेरी बहिनी कहि काई अचरिज बात, एहनी जिण दिवस हुं तुझनै मिली, कीधो वीवाह विचार ; तिण दिन थकी मांडी करी, कीधी मैं इकतार ; १ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि माहरा वालहा, ताहरी न तजुलार, तुंहीयड़ा नुहार; तु यौवन सिणगार, तुं भोगी भरतार ; मा० स्त्री तणै वसि जे पड्या, निश दिवस कथन करेह ; कुमरई वचन मानी लियउ, अविहड़ नेह धरेह ; २ मा० हिव रतन पृथिवी आदि दे, जे च्यार प्रगट प्रधान ; पांचमो गगन तणी परै, सुन्दर नव नव वान ; ३ मा० ते पांच रतन मदालसा, लेई चलै प्रीउ साथि ; स्यु करै रहिने डोकरी, चलितां पकड्यो हाथ ; ४ मा० जण त्रिण एक मतं थई, आव्या कूपक तीर, तिहां समुद्रदत्त ना आदमी, ऊभा काढे नीर ; ५ मा० नीसस्या रज्जु तणै बलै, तीने जणा तिण काल ; मन दीयौ कुमरी मां सहु, निरखि निरखि सुकमाल ; ६मा० कुमर ने पूछे किहां जइ, परणी नवल ए बाल ; अपछर किंवा किन्नरी, अथवा रंभ रसाल ; ७ मा० चिंता करीने तुम तणी, अम्हे रह्या इण हिज ठाम; नयणे निहाली तुम भणी, हरख्या आतम राम ; ८ मा० विरतंत सहु कुमरे कह्यौ जिम थयौ धुर थी मांडि; सापुरुष झूठ कहै नहीं, नेह न नांखै छांडि ; ६ मा. प्रवहण तिहां थी पूरिया, करतां अत्यन्त विनोद; लोकनो कुमरे मन हस्यो, उपजावी आमोद ; १० मा० पाणी बलि पूरौ थयौ, लांघतां कितलौ पंथ ; एहिवं थानक को नहीं, कालै जोई ग्रन्थ ; ११ मा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई पूठिली परि ते गलगलै, पिण नहीं कोई उपाय ; सगलै जी कहै जल नैं बिना, जीव विछूटौ जाय; १२मा० मन मां कुमर इम चिन्तवै, ए थई तीजी वार; पीड़ा करै छै पापीयौ, विरुयौ कोई वेकार ; १३ मा० अधिकार बीजैए कही, अति भली पहिली ढाल ; इम विनयचंद्र कुमार सुँ, बात कही उजमाल ; १४ मा० ॥ दूहा ॥ इण अवसर कुमरी कहै, सुणि सोभागी कंत ; जिम सहुनो थास्यै भलौ, तिम करिस्यै भगवंत;१ एतौ गलिगलि लोक छै, थायै सबल अधीर ; दे सहु नै आस्वासना, तनिक कोई सधीर ; २ कुमर कहै किम थाय ते, सूका सहुना होठ ; कहिवौ तो दूरे रह्यौ, मरण तणी छै गोठ ; ३ हिव तुं जउ उपगार करि, मेटि सहुनी पीड़, स्यु भाखै छै मो भणी, भांजि दुहेली भीड़; ४ सी राखई छै चित्त मां, गुंगा केरी गाह ; तिम करि माहरी सुन्दरी, जन जंपइ वाह वाह ; ५ ढाल (२) कन्त तमाखू परिहरौ एहनी डावी नै वलि जीमणी, बात वणै नहीं काय मोरा लाल नीर बिना दरियाव मां, लोक घणु अकुलाय मो० १ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि मिठड़ा राजिंद मिल रहौ, इक मानो मोरी वात मो० महिर करो मो ऊपरै, जिम न हुवै उतपात मो० २ मि० रत्न करंडक माहरो, तुम पासै छै जेह मो० पाँच रतन ते मांहि छै, गुण सांभलि गुण गेह मो० ३ मि० भूदेवाधिष्टित भलो, पहलो रत्न उदार मो० तेहनो निरखे पारिखो, जिम न हुवै अकरार मो० ४ मि० थाल कचोला वाटला, वासण चरवी चंग ; मो० मग गोधूमादि दियै, प्रथवी रतन सुरंग ; ५ मि० नीर रतन भजे धरै, जल वरसै ततकाल मो० तेहनो हिवणों काम छै, कटिसी दुख नो जाल मो०६ मि० अगनि रतन थी सिद्धि हुवै, ते सुणि दीनदयालु मो० नवली नवली रसवती, चावल ने वलि दाल मो० ७ मि० मुरकी ने लाडू भला, पौंडा सखर सवाद मो० खाजा ताजा देखताँ, हरई क्षुधित विखवाद मो० ८ मि० वात समोरण चालवै, सुरभि सीतल ने मंद मो० गगन वस्त्र जास कहीये, तजै तिमिरनो फंद मो०६ मि० पाँच रतन ए लेइ नै, करि प्रीतम उपगार मो० हुँ करिस तो ताहरो, नवि रहसी व्यवहार मो० १० मि० उपगारी सिर सेहरौ, तुं जग मांहि कहाय मो० केम कठिन थायै इहां, कहियौ करि महाराय मो० ११ मि० वचन सुणी नारी तणा, कुमर विचारै एम मो० ए गुणवंती भामनी, वांछै सहु नै खेम मो० १२ मि. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १४५ बाप अधम छै एहनो, पण एहतो धरमीण मो० आज लगै दीठी नहीं, एहवी नारि प्रवीण मो० १३ मि० बीजै अधिकारै थई, बीजी ढाल विचित्र मो० विनयचंद थास्यै सही, नीर प्रगट सुपवित्र मो० १४ मि० ॥ दूहा ॥ रत्न करंड उतारि नै, काढी नीर रतन्न ; कूवा थंभै बाँधिने, करि नै सबल यतन्न ; १ केसर में कस्तूरिका, कुंकम अगर कपूर ; चढतै मन पूजा करै, भाव सहित भरपूर ; २ झर कर नै वरसै, तिहां, जलद अखंडित धार; जाण्यो उलस्यौ भाद्रवो, ध्वनि गंभीर अपार ; ३ सहु लोके भाजन भस्या, नीर तणौ करि पान ; शीतल तन करि चालिया, धरि निज रक्षकै धांन;४ खुटि गयौ धन धान्य वलि, मारग मांहे नेट ; पृथिवी रतन दियौ तिहां, ना सति नाखी मीट; ५ पांचे रतन तणै बलै, जिहां तिहां पामै जैत ; बीजा ते सहु बापड़ा, कुमर वडौ विरुदैत ; ६ रावल राणा राजवी, गुण आगलि सहु जेर ; जाणौ माणस गुण विना, धूलि तणौ जे ढेर ; ७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ढाल (३) हा चन्द्रवदनी हा मृगलोयण हा गोरी गजगेल च० एहनी सेठ तणै मन मांहि उदधि माँ कुमरी वसै निशदीश ; विरह विलूधो रे विसवावीस ; नलिनी देखि भमर जिम अटक, तिम तसु मिलण जगीस; वि० मुखड़े जपै रे हा जगदीस, सास बैंची नै रे धूणे सीस ; हे गौरी तें ए स्यु कीधौ, मनड़ो लीधो खंच ; वि० ताहरै सरिखी अंतेउर विच, मुझ न लागै अंच ; वि० २ इम विलपतो जाणै जोडु, भावें जिम तिम प्रीत ; वि० एहवी नारी नै जो माणुं, तो न चढे काई चीति ; वि० ३ इम मन धारी तेह विचारी, वचन कहै सुख कार ; वि० कृपा करी इहाँ आवी बैसौ, उत्तम राजकुमार ; वि ४ बात कहौ काई सुख दुखनी, तेवड़ि मुझ नै मीत ; वि० हुँ पण कहिसु माहरा मन नी, ए रूड़ी छै रीति ; वि०५ ताहरा गुण देखी नै रोभयो, रीझ्यौ देखी रूप ; वि० हिव निश्चय सेवक छु ताहरो, तूं मुझ स्वामि अनूप ; वि०६ मोहनगारो तु मछरालौ, सगुणा सिर कोटीर ; वि० तई तो प्रेम लगायो एहवौ, चोल रंग नो चीर ; वि०७ पंचाख्यान मांहे तुझ कह्या छै, मित्र पणेना तीन ; वि० परम मित्र ते प्रथम वखाणौ, रहियै जसु आधीन ; बि०८ द्वितीय भलाई राखै मुख सुं, अवसर पूछे खेम ; वि० तृतीय मिलै मारग चलतां, मित्र तणी विधि एम ; वि०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १४७ रजनी तुजाजे निज थानक, दिवसे करिस्यां ख्याल; वि० ताहरै मिलियै माहरा मन नो, टलीयौ सबलौ साल ; वि०१० माहरै तुंछ परम सनेही, प्राण तणौ आधार ; वि० इत्यादिक वचने संतोष, करि चुंबन करि सार ; वि० ११ कुमरी तेड़ि कहै निज पति नै, नीच थकी स्यौ नेह ; वि० प्रीतम ए तौ वडौ ज अधर्मा, निपट कपट नौ गेह; वि० १२ मोर मधुर स्वर करि नै बोलै, रंग सुरंगौ होइ, वि० पुंछ सहित विषहर नै खायै, इण दृष्टान्ते जोइ ; वि० १३ दाढ गलै सहुनी गुल दीठां, तेहवौ नारि शरीर ; वि० दृश्यमान उपमान नै नइण; जेहवौ वारिधि नीर ; वि० १४ केवल मुझ हरिवा नै काजै, मांडै तुम सु रंग ; वि० प्रीत तणा बीजा मुख दीसै, ए कायरो रे कुरंग ; वि० १५ ए बीजै अधिकार तीजी, ढाल कही सुविलास ; वि० विनयचन्द्र जो मुझ नै चाहै, मानि मोरी अरदास वि० १६ ॥ दूहा ॥ माणस कालै सिर तणौ, मिसरी घोले मुख ; हीयड़ा नौ कपटी हुवै, अवसर आपै दुख ; १ तिण ऊपरि सांभलि कथा, वाल्हेसर सुविदीत ; राजकुमर इक वन विषै, गयो सहू ले मीत ; २ बीजा पिण पाछलि कीया, तिज घोड़ो छोड़ाणि; पहुतौ वन मांहे तुरत, अंग पराक्रम आणि ; ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि कुमर परीक्षा जोइवा, आयो तिहां वन देव ; रूप कीयो वानर तणो, तज पूरवली टेव ;४ ढाल (४) प्रोहितीया थारै गलै जनोई पाट की रे एहनी बोलइ ते आगलि वानर कूदतो रे, आवो मन ना मानीता मीत रे ; आगति स्वागति करिस्यु थाहरी रे, रजनी माहरे घरि करो व्यतीत रे; १बो० आंबा रायण नालेरी तणो रे सबल वल्यौ छै एहज कँडरे ; तेण थानक चालौ बैसियरे, पिण मुझ नै जावो मत छंडिरे ; २ बो० रूंख तणै थुड़ि घोड़ो बांधि नै रे, कुमर चढ्यौ वानर नै साथ रे ; साख ऊपरि बैठा जाइनै रे, नेह धरी तिहां जोड़े बाथ रे ; ३ बो० जल निरमल ल्यावै नदीयां तणौ रे, पांन तणा संपुट करी सार रे ; सरस रसाफल आणि नै रे, ते करै कुमर तणी मनुहार रे ; ४ बो० राजकुमर पूछे वानर भणी रे, काइक अणदीठो कहि बात रे ; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १४६ तु तो हिव माहरौ प्रीतो थयो रे, तुझ नै दीठां उलसै गात रे ; ५ बो० तिहां वली सबलो सिंह विकूरबी रे, ते कहै मै दीठो इक सीह रे ; माणस नी लेतो वासना रे, - आवै छै इण वार अबीह रे ; ६ बो० न करो नींद कुमरजी थे हिवै रे, इण तरु ऊपरि रहो सचेत रे ; इतलै सीह तडूकी आवियो रे, फाटै मुख जलहलता नेत रे ; ७ बो० कुमर कहै स्युं करिस्यां वानरा रे, सीह तणौ भय मुझ न खमाय रे ; तिम वलि नोंद आवै छै पापिणी रे, ___करि करि वहिलौ कोइ उपाय रे ; ८ बो० राजि सूवो मुझ खोला मां तुमें रे, दोइ प्रहरनी द्यछै सीम रे ; कुमर सयन करि वानर अंक में रे, रयणि गमावै गलती हीम रे ; ६ बो० वानर नै भाखै इम केसरी रे, तुवन नो वासी छै नेट रे ; आस करै जो निज देही तणी रे, तो करि कुमर तणी मुझ भेट रे ; १० बो० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि इम कहतां हवै ते जागीयौ रे, वानर सूतो तेहनै अंक रे; मन लेवा नै कपट निद्रा करी रे, खांचें स्वासोश्वास निसंक रे ; ११ बो० तिमहीज मृगपति कुमर भणी कहै रे, खाईस हयवर ताहरो आज रे; नहिं तर पटकी दे वानरो रे, । तिल भरि मकरि सूनी लाज रे; १२ बो० कहतां बे हाथे करि नांखीयो रे, ___वानर ऊडि गयो आकाश रे ; सीह अरूपी लागो मारगे रे, रहीयो मन मा कुमर विमास रे, १३ बो० भाखी एहवी बात मदालसा रे, उत्तम चतुर बात सुणी निरबंध रे; इम अनुमान प्रमाणौ जाणियै रे, इहां जुड़तो एहीज संबंध रे ; १४ बो० च्यार श्लोक तणे अनुयायिनी रे, आगलि कहिज्यो बात सुरंग रे; स्वाभाविक फल आश्रय आणिने रे, मै न कही श्रोता नै संगि रे ; १५ बो० बीजै अधिकारई पूरी कही रे, चौथी ढाल सरल श्रीकार रे ; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Suvyyvvvvran श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई जग मां विनयचन्द्र यश ते लहै रे, जे न करै परदोह लिगार रे ; १६ बो० ॥दोहा॥ फेरी नै कुमरी कहै, प्राणपीयारा नाह ; पछतावै पड़स्यौ पछै, दिल ऊलससी दाह ; १ बात कुमर मानै नहीं, साचौ जाणै साह ; सजन मन माहे रमणि, कूड़ कपट हुवे काह ; २ सेठ अछै धर्मातमा, बहु राखै छै प्रेम ; कहि नारी बरसि अगणि, चंद्र किरण थी केम ; ३ तेहवई निजर चुकायवा, सेठ दिखलावै खेल ; वर गिरवर जल कांतिमय, वल जल रतनी रेल ; ४ हुई हीया नौ जालमी, करतो सबली हेल; पग सुठेलि समुद्र मां, नांख्यो कुमर उथेल ; ५ ढाल (५) चाल :-बिडलै भार घणौ छै राजि कुमर पडतो इण परि भाखै, मिश्र वचन शुभ भावै ; गुण ऊपर अवगुण लेईनै, पापी खोड़ि लगावै ; १ पापी स्यु कीधो तें एह, काज कुमाणस वालौ ; पड़त समान मच्छ एक मोटो, मुख प्रसारि नै बैठौ ; ततखिण तेह कुमर नै गिलीयौ, वलि जल ऊडै पईठौ; २ पा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि प्रवहमान उछलित वेलि वसि, पार जलधि नो पायो ; पुण्यादिक अनुभाव कुमर नो, जलचर निमित्त कहायौ ; ३ पा० तिहाँ मच्छ नै अभिलाष संचरै, धीवर सायर कूलै ; तसु हग बंधन थयौ माछलो, जल प्रायक विण शूलै ; ४ पा० माया जाल सहु नै सरिखौ, ते सहु कोई जाणै ; अंतःकरण तजै मीनादिक, द्रव्य जाल अहिनाणै ; ५ पा० खिण इक मां ते पकड़ि विणास्यो, तीखण कठिन कुड़ाईं; याहस आचरणादिक तादृश, फल तेहनै न गमाडै ; ६ पा० तेहना उदर थकी नीकलियौ, उत्तमकुमर सवाई ; रंच मात्र पिण घाव न लागौ, ए जोवौ अधिकाई ; ७ पा० सगला धीवर अचरज पाम्या, एस्यु थयौ तमासौ; कुमर कहै रे मूढ़ गमारां, इण बाते स्यौ हाँसौ ; ८ पा० सदा आपदा पडै पुरुष मां, तम ने साचौ भाखु; घण घाते हुँ नवि भेदाणो, तो डर केहनो राखं; 8 पा० धीरवंत कुमर ने निरखी, धीवर पाइ लागा ; स्वामी पणै थाप्यौ सहु मिलने, जस ना वाजत्र वागा; १० पा० रहै कुमार तिहाँ सुख सेती, फल साधन ए राखै ; जेह वृत्त जिन पक्ष बाधक, तेह कदापि नविभाखै ; ११ पा० मिथ्यादृष्टि तणो उत्थापक, व्यक्त गुणे सुविलासी ; वलि विरक्त मोहादिक भावै, एक युक्ति अभ्यासी ; १२ पा० ढाल थई बीजै अधिकारै, तुरत पांचमी पूरी ; विनयचन्द्र आगलि ते कुमरी, बिहुं ढालां में झरी ; १३ पा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १५३ ॥ दहा ॥ हिव विरतंत सुणौ सहु, आदरवंत अचूक ; सेठ तिहाँ ठगनी परै, पडीयौ पाडै कूक ; १ हा ! बांधव हा ! वल्लहा, हा ! मुझ जीवन प्राण ; पाणी में पड़तौ थकौ, इम स्यु थयो अजाण ; तुझ सरिखा किहांथी मिले, गौरव गुण नै योग ; मिटसी किम ताहरै बिना, माहरै मननो सोग ; ३ ढाल (६) ओलुंनी कोलाहल लोके कियो जो, कुमरी सुणीयो रे ताम ; सायर माहे नांखीयौ जी, इण निरलज नो काम; १ न करिस्यौ नीच पुरष सु नेह ; करसी तेह पछतावसी जी, निश्चै नै निस्संदेह ; २ न० रोवै अबला एकली जी, खिण खिण मां मुझाय ; सहजै अगनि उछालतां जी, लागि उठी क्षण मांहि ; ३ न० फरइ पूरइ हेज स्यु जी, मांडइ मरण उपाय ; प्रियु विरहागति झालस्यु जी, देही संतप थाय ; ४ न० प्रियु नै छ ओलंभड़ा जी, कथन न कीधो मुझ ; तु मुझ नै मेल्ही गयौ जी, हिवस्यु कहियै तुझ ; ५ न० हुँ तुझ नै कहती सदा जी, विगडन हारी बात ; ते सांप्रति साची थई जी, दुरजण खेली घात; ६ न० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि तँ भद्रक परिणाम थी जी, सुविशेषै मन लाय ; ऊपरलै आडंबरे जी, राचि रहयो मुरझाय ; ७ न० प्रीतम मारा भमरलां जी, कांइक कीजै संक ; फुल्या दीसै फुटरां जी, आफु आडै अंक ; ८ न० नास थयौ जीवतव्यनौ जी, पिण सी पूगी आस ; तें कल्पद्रुम जाणि नै जी, सेव्यो निगुण पलास ; हन० लाज न आवै एहनें जी, वलि न करे निज सूल ; मुख कालो करि नै रह्यो जी, जिम केसूनो फूल ; १० न० यतः-धन्ना होइ सुलखणा, कुसती होइ सलज ; खारा होइ सीयला, बहु फल फलै अकज ; ११ न० हा हा हिवहुं किम रहुँ जी, ताहरइ विण खिण मात्र ; विरह व्यथा नी माहरे, हीयड़े बूही दात्र ; १२ न० बीजै अधिकारई करै जी, ढाल छट्ठी बहुलाज ; विनयचन्द इम उपदिस जी, रोयाँ नावै राज ; १३ न० ॥ दूहा ॥ वारंवार मदालसा, कहै निसासा नांखि किण आधारै जीविय, छेदी मांहरी पांख १ इवड़ा बखत किहां थकी, कायम रहै सोभाग सिर कदि आवै माहरै, अंगूठानी आगि २ पंखिण पंखी वीछडै, जिम शोकातुर थाय ; तिम कुमरी नै पिउ बिना, खिण इक खिण न सुहाय ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई ढाल (७) कागलीयो करतार भणी सी परिलिखु रे, एहनी करम तणी गति को नवि लखै सकै रे, सहु जाणै छै एम ; पिण सयणां रे विरहे हीयड़ो रे, फाटै हो रन सर जेम ; १ क० कुमरी विचारै रहिनै जीवती रे, स्यु करिस्यु निश दीस ; मरण नथी का देतो पापीया रे, फिट भुंडा जगदीस ; २ क० सांभलि सजनी प्रिउ नै पाछलै रे, करिस्यु झपापात ; वारिधि पिण जाणैस्यै प्रीतड़ी रे, जगि रहसी अखियात ; ३ क० इम सुणि ते आकुल थई रे, इण विध जपै रोइ ; काँइ न ऊगै वीरा चांदला रे, एह अधोमुख जोइ ; ४ क० कमल विलासी क्यु विकस्यो नहीं रे, इण तो कर संकोचि ; हीयड़ा आगलि दे प्रीयुड़ा तणौ रे, मांड्यौ सबलो सोच ; ५ क० वलि वनवासी पसुवा हिरणला रे, जोवो मन धरि नेह ; विरह वियोगई नयणां मीचियां रे, तिण कारण कहुं एह; ६ क० इम कहती सहुनै रोवरावियारे, वलि भाखै उपदेश ; होवणहार पदारथ नवि मिटै रे, मकरि मकरि अंदेश ; ७ क० बालमरण मन मां नवि आणियै रे, इण साहस नहि सिद्धि; जैन तणै आगम जे वारियै रे, तिण सरसी अण किद्ध: ८ क० जीवंता मिलसी तुझ नाहलौ रे, पंखी नी परि जाण ; जिम इक हंस सरोवर मां रहै रे, महिला सहित प्रमाण ; ६ क० एक दिवस सर नै कूलै गयौ रे, जिहां बहुला सेवाल; अणजाणंतां मांहि अलूझियौ, कंठइ आयौ काल ; १० क० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि नेह तणी बांधी तिहां हंसली रे, धसिवा लागी जाम ; सयण कहै तेहनै पासै थकारे, ए तु मत करि काम ; ११ क० तेह तणे वखते तिण रन्न मै रे, आयो पुरुष ज एक ; तिण सेवाल सहु दूरे कियां रे, हंसण नी रही टेक ; १२ क० एक घड़ी मां ते सब तौरे, वलि विहुं थया रे सचेत तु निश्चय जाणे तेहनी परै रे, पिण एम धरि तुं हेत ; १३ क० देखो इण पापी कीधी तिका रे, बीजो न करै कोइ ; कुमरी कहै धिग माहरा रूप नै रे, एहा अनरथ होइ ; १४ क० बीजे अधिकारइं ए सातमी रे, ढाल कियौ प्रतिभास ; विनयचंद्र कहै दुखीयां माणसां रे, घटिका जाय छमास; १५क० ॥ हा॥ इम विलपंती देखि नै, आवै सेठ निलज्ज ; सुवचन कहै संतोष नै, एहवी करै अरज्ज ; १ मित्र हतो ते माहरै, उत्तमकुमर सुजाण ; हिव तेहनै दीठां विना, छूटै छै मुझ प्राण ; २ ते सरिखा तो पामीय, पुण्य तणे संयोग ; विरह सह्यो जाइ नहीं, जिम घट व्यापै रोग ; ३ ते चिन्तामणि सारिखो, आय चढ्यौ थो हाथ ; पिण जाणौ छो किम रहै, दालिद्री घर आथ ; ४ मन में किण जाण्यो हतो, इण परि थासी अंत ; छट्ठी रात तणा लिखत, ते पणि थायै तंत ; ५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १५७ ढाल (८) चाल :-पाटोधर पाटीयइं पधारो, एहनी सोहागिण रंग रंगीली, तु प्रेम महारस झीली, सांभलि मुझ बात रसीली ; १ हठीली तेहने स्यु अरै, ते नजर थकी थयौ दुरै, हिव मुझ नै थापि हजूरै ; २ ह० तसु जाति पांति नहीं कांई, नहीं कोई जेहनै भाई ; वलि बाप न काई माई ; ३ ह० हुँ तुझ नै आवी मिलीयौ, वीतग दुख सहु टलीयौ, __ घर अंगण सुरतरु फलीयो; ४ ह० माहरै हिव था धणीयाणी, तुहिज मन मांहि सुहाणी, जिम राजा नै पटराणी ; ५ ह. माहरौ घर ताहरै सारै, वलि जो सिर माहे मारे, ___ तो पिण बलिहारई थारै; ६ ह० मुझथी सुख भोगवि नारी, कहियौ करि मोहनगारी, थारी सूरति लागै प्यारी; ७ ह. करतां जो प्रीत न कीजै, तो गाढो अपजस लीजै, वचने कोई न पतीजे ; ८ ह० जे प्रारथीयां निरवासी, जग मां एतलौ ही जरसी, __ सगला नर इम हीज कहसी;ह० वलि जेह करै उपगार, न गणै ते सांझ सवार, सहु बोल नो ए छै सार; १० ह० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ए यौवन ना दिन च्यार, लटकौ छै इण संसार, कालांतर नि भलीवार; ११ ह० मिलतां सुं नयण मिलावै, प्रस्तावै विरह बुझावै, तेहनै कुण दावै आवै ; १२ ह. बहु बात कहीजे केही, मुझ मति तुझ चित्त सुरेही, तु किम थाई निसनेही; १३ ह. दूहा :-कामातुर न कहै किसुं, न करै स्युन अज्ञान; कीजै इण बात किसौ, विनयचंद्र विज्ञान ; १ कामातुर नी सुणि वाणी, कुमरी मन मांहि लजाणी, एहवी किम बात कहाणी ; १४ ढाल आठमी एम वणाई, बीजै अधिकार सुणाई, पिण विनयचंद्र चित नाई ; १५ ॥ दूहा ॥ कुमरी मन मां चिंतवै, किम रहसी मुझ लाज ; ए पापी लागू थयौ, करिवो कोय इलाज ; १ सील रयण ने कारणै, अनवछेदक बात ; जिम तिम करी उपचार ज्यं, ते विघटै व्याघात ; २ ठीक सील इक राखवौ, मन करि निज अनुकूल; झूठ वचन पण भाखिनै, एह नै मुख द्यं धूल ; ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १५६ ___ ढाल (8) चाल वीर वखाणी राणी चेलणा जी, एहनी, वीनती सेठ जी सांभलौ जी, सरस पीयूष समान ; तुझ थकी चित लागी रह्यो जी, लोह चंबक उपमान ; १ ताहरै माहरै प्रीतड़ी जी, आज थी थई रे प्रमाण ; पिण दस दिवस मुझ कंत नी जी, काइक राखीयै काण ; २ निजर नौ नेह जिण सुं हुवै जी, वीछड्यां दुख न खमाय ; तेह सांप्रति किम वीसरै जी, जेहनो जीवन प्राय ; ३ किण इक नगर में जाय नै जी, साख धर राखि नै राय ; मनगमणी रमणी हुस्यु जी, सेवस्युं ताहरा पाय ; ४ जेह काचा हुवै मन तणा जी, बात मानै नहिं साच ; . पिण तुमे सगुण सापुरुष छौ जी, मानज्यो अवचल वाच ; ५ इम सुणी सेठ मनि हरखीयौ जी, परखीयौ स्त्री तणो भाव ; भोडलो एम जाणे नहीं जी, इहां न कोलावन साव ; ६ हिवै रे मनोरथ-मालिका जी, पूरसी बालिका एह; सेठ गयौ निज थानकै जी, चित मां चीतवी तेह ; ७ तिण समै ते वृद्धा कहै जी, राखीयौ तें भलौ सील , जेह थकी भय सहु त्रासवै जी, पामियै शिवपुर लील ; ८ वात अनुकूल लेई करी जी, प्रवहण दीयौ रे वलाइ । नव नवे पंथ ते संचरै जी, द्वीप सनमुख नवि जाय ; 8 पवन रतन में पूजिने जी, अधिक धरी सनमान ; वेलकूलै सहु आविया जी, मोटपल्ली अभिधान ; १० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि मेदनीपति तिहां जाणियै जी, व्यसनवारक नरवर्म ; परम जिनधरम नै आदरै जी, अवर जानै सहु भर्म ; ११ सात खेत्रे वित्त वावरै जी, छावरै मोस नै मर्म ; शीतल चन्द्रमा सारिखौ जी, निज प्रजा ऊपरि नर्म ; १२ ध्यान जिनवर तणौ मन धरै जी, साचवै जे षट कर्म ; ईति उपद्रव दहवटै जी, जेम छाया धन धर्म ; १३ ढाल नवमी रमी हीयड़े जी, अवल बीजै अधिकार ; न्याय राजा करसो भलो जो, विनयचन्द्र इकतार ; १४ ॥ दूहा ॥ दरबारै आवै हिवै, सेठ स्त्रो ले साथ ; पेसकसी आगलि करी, प्रणम्यो अवनीनाथ ; १ माह महुत्त घणौ दियौ, राजायें तिणवार ; सुख साता पूछी कहै, वयण एक सुविचार ; २ सांभलि सेठ प्रवृत्ति शुभ, कुण नारी छै एह ; सर्वाभरण विभूषिता, सुभगाकार सुदेह ; ३ सेठ कहै ए मई संग्रही, जिहां छइ चन्द्रद्वीप ; पति सायर मां पडि मूओ, ए छै हजी अछीप ; ४ ए माहरी ग्रहणी हुस्यै, अनुमति द्यौ महाराज ; कहीय न हुवै अन्यथा, राज समक्ष काज ; ५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई ढाल (१०) चाल :- मेरे नन्दना तिण वेला कुमरी कहै रे हां, वयण विचारी बोलि, सीख किसी कई झूठो स्यु एहवो झखै रे हां, मूरख निठुर निटोल १ सी० अगल डगल मुख भाखतो रे हां, किम न हुवै उपसांत ; सी० न्याय करै जौ राजवी रे हां, तो तोड़े तुझ दांत ; २ सी० सेठ कहै इम का कहै रे हां, बीतग जाणि प्रबन्ध ; सी० किहां मारग ना बोलड़ा रे हां, स्यु तुझ बोले बंध ;३ सी० करि लज्जा वलती कहै रे हाँ, धर मन अधिक उमंग ; सी० महाराज इण पापीय रे हाँ, कीधउ मुझ घर भंग ; ४ सी० पति जलधि मांहे नौखियो रे हाँ, धरि मन अधिक उमंग ; सी० सील रयण खंडण भणी रे हां, मॉड्यो घणो रे तरंग ; ५ सी० पिण हुं सीलवती सती रे हां, केम विटालुं देह ; सी० जिम तिम करी ए भोलवी रे हां, राख्यो शील अभंग ; ६ सी० हिव तुझ सरिखा राजवी रे हां, न करै सुधो न्याय ; सी० तो मन्दिरगिर डिगमिगैरे हां, धरणि पाताले जाय ; ७ सी. पातक लागै दरसण रे हां, ए पर स्त्री नो चोर ; सी० जो सीखावण द्यौ नहीं रे हाँ, स्यु करिस्यै जगि जोर ; ८ सी० सत्य वचन राजा सुणी रे हां, धर्यो वली फिर द्वेष ; सी० पोत स्थित धन संग्रह्यो रे हां, नवि राख्यो अवशेष ; ६ सी० जे भावित भवतव्यता रे हाँ, न चलै तास उपाय ; सी० जेहवो वावै रूखड़ो रे हां, तेहवा होज फल थाय ; १० सी० ११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ते धन लेई सेठ नो रे हाँ, भूप भर्यो भंडार ; सी० तस्कर माहे ले ठव्यो रे हाँ, जिहाँ छै कारागार ; ११ सी० कुमरी नई हिव पुत्रिका रे हाँ, कहि बोलावै राय ; सी० रहि तु माहरा गेह माँ रे हाँ, चितनी चिंत गमाय ; १२ सी० माहरै पुत्री त्रिलोचना रे हां, जीवन प्राण छै तेह ; सी. तिण पासै रहि नानड़ी रे हाँ, दिन दिन वधतइ नेह ; १३ सी० पुत्री बीजी माहरै रे हाँ, तुं हिज थई निरधार ; सी० मिष्ट अन्न पानादिके रे हां, करि कायानी सार ; सी० १४ दीन दुखी नै दान दे रे हां, खबर करावीस तेह; .... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... सी०१४ सील प्रसादै पामिय रे हां, विनयचन्द्र नव निधि ; सी० ए बीजा अधिकारनी रे हां, दशमी ढाल प्रसिद्ध ; सी० १६ ॥ दूहा ।। बहिनी थई त्रिलोचना, वदै परस्पर वान ; सिद्ध थयौ कारज सहु, कुमरी नौ तिण थान ; १ सखियां सुं खेले रमै, करें गीत नै गान ; प्रवर पंच परमेष्टिनौ, धरै निरन्तर ध्यान ; २ पंच रतन परभाव थी, ये दुखीयां नै दान ; सदगुरु वाणी सांभलै, करै पवित्र निज कान ;३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई ढाल (११) वारू नै विराजे हंजा मारू लोवड़ी, एहनी सीलवंती नै हो एहिज जोगता, धरम पणै दृढ थाय ; वलि विशेषे हो जेह वियोगिणी, धरम करई मन लाय ; १ सी० अभिग्रह लीधा हो कुमरी मदालसा, प्रीतम न मिलइ जाम ; सुइव हो धरती निरती चूँप सुं, जपती रहुँ प्रिय नाम ; २ सी० अतिघणुं राता हो चीर न पहिरिवा, न करू कइये स्नान ; वलिन विछाउ हो फूलनी सेजड़ी, न लहुँ केह मांन ; ३ सी० आँखडी न आँजु काजल प्रियु बिना, नवि करवौ सिणगार ; तिलक न धाएँ हो मस्तक ऊपर, करि कंकण परिहार ; ४ सी० विलेपन अंगे हो तजिवो सर्वथा, वलि तजिवा तंबोल ; स्वादिम छोड़ हो तिम हिज पणि वली, दूध दही ने घोल ; ५ साकर गुल ने हो खांडनी आखड़ी, सरब मिठाई तेम ; हास्य वचन नो हो कारण नवि धरु, चित्त र थिर जेम ; ६ सी साक न खाऊं हो फूल फल नवि भखँ, न जावुं जीमण काज ; सखीय संघाते हो हुँ हिव नवि र राखुं माहरी लाज ; ७ सी० गोखड़े न बैसुँ हो केहनै जोइवा, चित्रित सुँ नहीं प्यार ; बात न करिवि हो कि पुरुष सुँ, सरस कथा अपहार ; ८ सी० जौ कथा करवी हो तो वइरागनी, इत्यादिक जे सुँस ; कुमरीयs लोधा हो ते सहु सांभली, मन मां धरिज्यो हुँस ; ६ कुमरी प्रह्मा छे हो पति नै ऊपर, पिण तेहने स्यावास ; जे मन वाले हो विन कारण वशै, धन धन कहियै तास ; १०सी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १६३ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ढाल प्ररूपी हो एह इग्यारमी, बीजै हिज अधिकार ; सार्थकता नी हो जे उपमा वहै, विनयचन्द्र गुणधार ; ११ सी० सहु धीवर इण अवसरै, कुमरोत्तम ले संग ; मोटपल्ली आव्या मिली, कृत्य हेतु उछरंग ; १ मंडावै राजा तिहां, नरवर्मा उल्लास ; निज कुमरी में कारणे, अनुपम एक आवास ; २ घु ति निवेसनी जोवतो, बीजो जाण कैलास ; ते महल निजरै पड्यौ, आवै तेहनै पास ; ३ कारीगर कारिज करै, पणि गृह मांहे हाणि ; खिण खिण मां चूकै तिके, अंध परंपर जाणि ; ४ वास्तुक शास्त्र तणै बलै, बोले कुमर सुजाण ; ए गृह नी चातुर्यता, कुण करसी परमाणि ; ५ ढाल-१२ कंकणानी । तें चित चोस्यो माहरो रसीया, तूं छै पुरुष उदार। मोरो मन रीझ रह्यो । हां रे तुझ देखी दीदार, मो० घर मां केही खोड़ छ रे, एम कहै सूत्रधार ; मो०१ कुमर सीखावै सहु भणी रे, र० मन सँ तजि अहंकार ; मो० खोड़ हती जे गेह मंझार रे, र० न रही तेह लिगार ; मो० २ अचरिज सहु नै ऊपनो रे, र० वलि चीतइ सूतार ; मो० विश्वकरणनि ओपमा रे, र० एहिज लहै रे कुमार ; मो० ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १६५ भगति युगति कर अति घणु रे, र० कुमर भणी हरषेण ; मो० दीठा विण विलखा थया रे, र० पूरव हेज वसेण ; मो० ४ मो० ; ; मो० ५ कोई अद्याहड़ो माहरो रे, २० रतन लह्यो छो जेह ; मो० ते पिण राख सक्या नहीं रे, र० धिग जमवारो एह ; मो० ६ इत्यादिक वचने करी रे, र० निंदे कर्म स्वकीय ; मो० ते पहुता निज थानकै रे, र० पिण नवि पायौ प्रीय ; मो० ७ तिण पासे रहता थकां रे, २० हुन्नर धरि निज हाथ ; मो० कुमर करायौ राय नो रे, र० गृह कारीगर साथ ; मो० ८. संपूरण जईये थयौ रे, र० कुमरी तणो रे निवास ; मो० राजा निरखण आवियौरे, मन मां धरी विलास ; मो० ६ निरखी अति उच्छक थयो रे, र० हीयड़लो रहीयो हींस ; मो० कारीगर नें रंग सुँ रे २० करई सबल बगसीस ; मो० १० तिण माहिज कुमर निहालीया रे २० अभिनव जाण अनंग ; मो० बैठो ऊँचे ओसणै रे, र० ओपै रवि जिम अंग ; मो० ११ २० बैसे गिरवर शृंग ; मो० कुमर भणी चित चंग ; मो० १२ जिम बालक मृगराजनो रे ए दृष्टान्ते जाणियै रे र० बीजे अधिकारै थई रे २० बारमी ढाल अनूप, मो० विनयचन्द्र कहै एवं रे र० मन मां रंज्यो भूप ; मो० १३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ॥हा॥ आदर मान देई के, कुमर भणी ते राय ; इतला मांहे देखतां, तु हिज आवै दाय ; १ सत्य वचन मुझ आगलै, तूं कुण छै ते भाखि ; एक मनौ मुझ जाणि नै, अंतर मत को राख ; २ हूं तो छं परदेसीयो, स्वामि वयण अवधार ; जाति न जाणु रायजी, रहुं तुम नगर मझार ; ३ पूरी सी जाणु नहीं, नाम तणी मन सार; पेट भराई हुं करूं, कारीगर ने लार ; ४ निज मंदिर मां नृप गयौ, मन धरि एम विचार ; दीसै छै निश्चय सही, ए कोई राजकुमार ; ५ ढाल (१३) चाल :-दस तो दिहाड़ा मोनै छोडि रे जोरावर हाडा, एहनी श्राव्यौ मास वसंत रे रसीयां रो राजा। सुख छ साजा, तरु होइ ताजा जेहनै तूठां रे मौज लहीजीय रे। अधिक पणे ओपंत रे र० मदन तणौ रे मित्र कहीजीय रे ; १ तास थयो प्रारम्भ रे र० थंभ जिसारे तरुवर पालवै रे दुखियां ने दुरलभ रे र० विरही लोकां रै हीयडै सालवै रे ; २ वाजै सीतल वाय रे र० लहरी आवै रे सुरंभ तणी घणी रे; कहतां न वणै काय रे र० सबली रेशोभा वन माहे वणी रे; ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १६७ मउस्या जिहां सहकार रे र० ऊपरि बैठी कुहकै कोयली रे ; महिला मानी हार रे र० एहवी चतुराई मिलतां दोहिली रे; ४ जिहां किण कमल अपार रे र० चांपो मरुवो रे दमणो मालती रे विउलसिरी सुखकार रे र० जाई जूई रे दुखडा पालती रे ; ५ भमर करै गुजार रे र० निशदिन राचै तेहनी वास थी रे; रस आस्वादै सार रे र० संग न छोड़े कहीये पास थी रे ; ६ रूड़ी रीति कहिवाय रे र० रंग थकी परिपूरण छकी रे; सहु फली वनराय रे र० एक न फूली निगुणी केतकी रे; ७ एहवौ जे मधु मास रे र० जाणी नैं राजा रमवा नीसों रे ; . वनमा आवै उल्लास रे र० नयणे देखी रे जसु हीयडौ ठर्यो रे ; ८ सघन सुशीतल छायाय रे र० सरिता वहै रे वन पासै छती रे; . तिहां खेलै ते राय रे र० राणी रमई रंग राचती रे; 8 ते वन अति श्रीकार रे र० तुरत मिटै रे मन नी सोचना रे; सखीय ने परिवार रे र० रावली रमै रे कुमरी त्रिलोचना रे ; १० नगरी केरा लोक रे र० फाग गावै रे राग सुहामणै रे ; मेली सगला थोक रे र० मन नी रे इच्छा पूरै हित घणै रे ; ११ वाजे चंग मृदंग रे र० वाजै रे वीणा मीणा तार नी रे; वाजै वली उपंग रे र० वार नह विणा हार नी रे ; १२ उडै गुलाल अबीर रे र० नीर छांटै रे मांहो मां सहुरे; भीजै नवला चीर रे र० प्रेम वणावै नरनारी बहु रे ; १३ तेरमी ढाल प्रधान रे र० एहवै रे बीजै अधिकार रै थई रे; विनयचन्द्र विद्वान रे र० एम कहै रे मन मां ऊमही रे ; १४ . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ॥ दूहा ॥ तिहां क्रीड़ा करतां थक, कुमरी नै तिण वार; डंक दीयौ नागै सबल, करइंज हाहाकार ; तिण वन थी उपाड़ि नै, आणी निज आवास ; नयण बहुं धवला थया, व्यापौ विषनौ पास ; २ तेड्या सगला गारुड़ी, मंत्र तंत्र ना जाण ; झाड़ौ पावै सलिल, पणि निकसै तसु प्राण; ३ राजा फेरा पड़ह, नगर मांहि इण रीति ; मुझ कुमरी साजी करै, द्यं, तेहनै सुख प्रीति ; ४ राज्य अरध मुझ कन्यका, तिण मांहे नहिं झूठ ; इम साँभलि उत्तमकुमर, पटह छव्यौ पर पूठि ; ५ ढाल (१४) आवउ गरबै रमीयै रूड़ा रांम सुं रे, एहनी कुमर आवै राय मारगै रे काँइ, साथै नर नारी थाट रे ; चालो नै रे जश्यै कुमरी देखिवा रे || आं० ॥ ए परदेशी जाण छै रे काँइ, जहनो रूडो रूड़ो घाट रे ; १ चा० सगले लोके कुमर नै रे कांइ, आण्यौ भूपति पास रे ; कुमर कहै नृप आगले रे काँइ, इण परि वचन विलास रे २ चा० राज्य अरधउ रे ताहरी कन्यका रे कांइ, मुझ देज्यो महाराय रे ; हुँ कुमरी जीवास् िरे काँइ, करस्युं दाय उपाय रे ; ३ चा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १६९ पाणी मंत्री नइ छांटियउ रे काइ, कुमरी थईय समाधि रे; उठे रे आलस मोडि नै रे काँइ, दूर गई सहु व्याधि रे ; ३ चा० कुमर प्रति नृप ओलख्यौ रे, कांइ ए तो तेहिज कुमार रे; जनम लगै पुत्री भणी रे, कीधो इण उपगार रे; ५ चा० बोल कह्यो ते पालिवारे, कांइ भूपति करै विचार रे; पुत्री माहरी त्रिलोचना रे, कांइ द्य एहनै निरधार रे ; ६ चा० राज्य प्रमुख सहु सूपिने रे, कांइ हिव रहीयै निश्चित रे; इम जाणी तेड़ावी नै रे, कांइ जोसीयड़ो गुणवंत रे ; ७ चा० जोसी नै राजा कहै रे, कांइ परण कुमरी मुझ रे ; दिवस लगन कहि रूवड़ौ रे, कांइ हुं संतोषिस तुझ रे ; ८ चा० जोवइ जोसी टीपणो रे, कांइ दिवस लगन करि ठीक रे; जपै रोजा आगलै रे, कांइ अमुक दिवस सुप्रतीक रे ; ६ चा० अति उच्छव राजा करै रे, कांइ मंगल हेतु तिवार रे; परणावै निज कन्यका रे, कांइ मन मां हरख अपार रे ; १०चा० कर मुकावण अवसरै रे, कांइ अरधो दीधो राज रे; वलि गृह निज पुत्री तणौ रे, कांइ दीधो सुइवा काज रे; ११चा० तिण गृह मां सुख भोगवै रे, कांइ निशदिन स्त्री-भरतार रे; श्री परमेसर ध्यान थी रे, कांइ कुमर लह्यौ जयकार रे; १२ चा० ढाल चवदमी ए कही रे, कांइ पूरण थयो अधिकार रे; सत्गुरु नैं परभाव सुरे, कांइ एह लह्यो पणि पार रे ; १३ चा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि अनुभव नै अधिकार थी रे, कांइ सत्ता ने अनुकूल रे ; विनयचंद्र कहै मैं कीयो रे, कांइ एह संबंध समूल रे ; १४ चा० इतिश्री विनयचंद्र विरचिते सरस ढाल खचिते सच्चातुर्य शौर्य गांभीर्यादि गुणगणामत्रे। श्री मन्महाराजकुमार उत्तम चरित्रे सुर-परीक्षित सत्व-प्रकटित प्रदत्त । रत्न प्रभाव प्रोद्भूत भूरिजल प्रकटन तत्पानतः सकल लोक तृप्ति वितरण । दुर्दैवात्समुद्रान्तबूंडन मत्स्य समुद्रान्तः पतन तग्दिलण मोटपल्ली वेलाकूल प्रापण। धीवर ग्रहण मच्छ विदारणतस्ततो निस्सरण। तत्र स्व विद्या यशः ख्याति विस्तरण दुष्टाहिदष्ट कष्ट त्रसित राजपुत्री सज्जीकरणो जीवत धरणो रमणतयाङ्गीकरण तत्पाणिग्रहणादि विविध चरित्र सूत्रणो नाम तृतीया ग्रजोऽधिकारः ।।२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार ॥ दूहा ॥ वर्तमान तीरथ धणी, महावीर भगवंत ; नमस्कार तेहनै करूं, उच्छव घरे अनंत ; १ हिवs तीजै अधिकार में, जेह थई छै बात ; नरनारी मन लाय नै, सांभलिज्यो सुविख्यात;२ जँपै एम मदालसा, दासी नै ऊमाहि ; प्रिउड़ो नाव्यौ तो सही, बूडौ सायर मांहि ; ३ दिन जास्यै वि दोहिला, किम रहिसै मुझ प्राण; संता मुझ नै सदा, घट मां पांचे बाण ; ४ दीपक विण मंदिर किसौ, यौवन विण सिणगार; ह विना सी प्रीति जिम, तिम कंता विण नार ; ५ नीरस आहार किया, तप आंबिल मन लाय; साहमी नें संतोषिया, पड़िलाभ्या मुनिराय ; ६ नवा कराव्या देहरा, श्री जिनवर ना चंग ; प्रतिमा सोवन रत्न नी, सकल भरावी अंग ; ७ वलि त्रिकाल पूजा करी, भावन भावी शुद्ध ; उन्नति कीधी अति घणी, धरम कीयौ अविरुद्धः ८ Taai afa मिल्यौ, जो माहरौ भरतार; तौ पंचरत्न दे बहिन नै, लेस्युं संयम भार; ६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ढाल (१) दल बादल बूठा हो नदीयां नीर चल्या ; एहनी इम वचनई हो जंपइ कामनी, माहरी ए वाणी हो सांभलि स्वामिनी ; १ परदेशी कोई हो वस्यो त्रिलोचना सुणा, जेहना जस बोलइ हो, नर सहु इक मना; २ गुण मणिनो दरीयो हो भरियो हेजि सुं, जिण हेले जीतो हो सूरिज तेज सुं; ३ सही सेती ताहरउ हो प्रीतम हीज हुसी, दिल साख द्य मांहरो हो तुझ मन उल्हसी; ४ जो अनुमति आपई हो तो तेहनी खबर करूं, ___ मुख मटको देखी हो हीय. हरख धरूँ ; ५ तब कुमरी भाखै हो था ऊतावली, आलस छोड़ी नै हो जा मन नी रली ; ६ तेहनै घरि आइ हो दासी नेह हुँ, - पणि तसु नवि देखै हो मिलवो जेह सु; ७ कहै कुमरी नै हो ताहरौ भाग्य फल्यो, मन नो मानीतो हो वालम आयो मिल्यो ; ८ मुझ नै देखाड़ो हो प्रीतमनु तुम तणो, देखण मन मांहरै हो अलजउ अति घणो; ते कुमरि पयंपई हो सांभलि सहल में, मुझ प्राण पियारो हो सृतो महल में ; १० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई ते जोवा चाली हो ऊमही जिसै, पल्लंक परि सूतो हो कुमर दीठो तिसै ; ११ देखी नै तन नउ हो कीधो पारिखो, रूपइ पणि दिसे हो उत्तम सारिखौ ; १२ फिर पाछी आवी हो कुमरी नै कहै, तुझ पति नै सारिखो ते तो गहगहै ; १३ इम सुणि नै कुमरी हो गाढौ हरख धस्यो, खिण एक तसुरंगई हो मिलिवा मन कस्यो; १४ वलि चित्त मां विचारै हो ए मै स्युकियो, पर पुरुष न जाण्यो हो तेमां मन दीयो; १५ माहरो मन पापी हो कहुँ अवगुण किसा, मन पाछो वाल्यो हो एम कहै मदालसा; १६ चतुराई तेहनी हो जे वहिलो भेद लहै, इम पहिलै ढाल हो विनयचंद्र कवि कहै;१७ ॥ दहा ॥ कुमर कहै निज रमणि नै, कवन हती ते नारि ; आवी नै पाछी वली, ए स्यु थयो प्रकार ; १ मुझ नै खबर पड़ी नहीं, नहिं तो एणी वार ; सगली बातां पूछि नै, सही करत निरधार ; २ अवसर चूकां माणसां, अति पछतावौ होइ ; अवसर चूक सुंदरि, जगमां जलधर जोइ ; ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ___ ढाल (२) नागा किसनपुरी एहनी प्राणसनेही सुणि मोरी बात, कौतुककारी छै अवदात ; मीठी बात खरी, इण परि भाखै नृप कुँयरी ; हे सुंदरि मुझ नै संभलाइ, सुणतां हीयडौ उलसित थाय १ मी० मुझ थी अधिकी रूप विवेक, परदेसण आई छई एक; बइंन करी मानी मै तास, निश दिन जीव रहै तिण पास; २ मी० नाह वियोगै दुखणी तेह, झूरि कृस कीधो छै देह ; रहै एकान्ते लेइ आवास, धरम ध्यान मन मांहे जास ; ३ मी० दीन हीनन आपै दांन, द्रव्य घणौ देई सनमान ; मी० करुणा आणी करै उपगार, एहवी काइ नहीं संसार ; मो० ४ एतलौ धन नौ दीसै नहीं, क्याई थी काढइ छै सही; मी० तेहनै पासे छै कांइ सिद्धि, खरचतां खूटै नई रिद्धि ; मी०५ एह अपूरव छै विरतंत, मुझ भगनी सो सांभलि कंत; मी० तास सखी ए वृद्धा नारि, तुझ देखी गई एह विचारि ; मी० ६ सांभलि एहवा वचन कुमार, रागातुर हूवौ तिणवार;मी० एहवी छ गुणवंती जेह, मदालसा हुसई नहीं तेह ; मी०७ अथवा नारी सुंदराकार, एहवी घणी छै घर घर बार मी० परस्त्री ऊपरि धरीयौ पाप, धिग मुझ नै निदइ इम आप ; मी०८ किहां थी आय मिलै मुझ नारि, समुद्रदत्त ले गयो निरधार;मी० खोटो मोह करै स्यु थाय, तन मन थी सगलो सुख जाय; मी०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १७५ तिण अवसरि मन धरि उछरंग, श्री उत्तमाभिध सगुणनरिंद,मी० मध्यानै जिन पूजा हेत, कुसुमचंदन लेइ सुगति संकेत ; भी० १० निज मंदिर पासै प्रासाद, आयौ मन धरतौ आल्हाद ; मी० जातो किण ही न दीठो तेह, फिर पाछौ नायौ वलि गेह; मी०११ त्रिलोचना कुमरी तिणवार, दुख संपूरित हृदय मझार; मी० दुखणी दुख भरि करै विलाप, प्रीय विरहागनि तनसंताप:१२मी० निज पति तणी करेवा सार, दासी नै मेली तिण वार; मी० पिण नवि पायो परम दयाल, नयणे नीर झरै तिण वार; मी०१३ लज्जा छोडी वारंवार, ऊंचइ स्वर ते करईपुकार ; मी० मन में धारै अधिको सोग, हीयड़ो फाटइ नाह वियोग ; मी०१४ हिव तिणहीज पुरमांह प्रधान, सकल सुजस गुण तणौ निधान मी० महेसदत्त नामै धनवंत, सहु वणिक मांहे सौभंत ; मी० १५ छप्पन कोड़ि निधान मझार, छप्पन कोड़ि कलांतर धार ; मी० छपन कोड़ि नौ करैव्यापार, इतली सोवन कोड़ि विचार ; मी०१६ एहवी जेहना घरमां रिद्धि, पुण्य-संयोगे दिन दिन वृद्धि ; मी० सूरिजनी परि झाकझमाल, विनयचंद्र कहै बीजी ढाल ; मी०१७ ॥ दहा ॥ वाहण जेहनै पांचसै, वलीय पांच सई हाट ; घर गोकुल पिण पांच से, तितला सकट सुघाट ; १ गज तुरंग नर पालखी, पांच सयां प्रत्येक ; कोठा जेहनै पांच सै, वली वणिज सुविवेक ; २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि वाणोत्तर वाजिन पणि, सुभट थाट सश्रीक ; पंच पंचसय जाणियै ए सगला तहकीक ; ३ पांच लाख सेवक तुरी, एहवी लखमी जास; यौवन वय वोली सहु, पिण संतति नहिं तास ; ४ ढाल (३) केत लख लागा राजाजी रै मालियै जी इणपरि चिंता करता तेहनै दिन केतलाइक बीता ताम हो; मांहरी सुणिज्यो चित देइ चंगी वातड़ी जी, वातडीमा चोज अधिक इण ठाम हो;मांक वाटड़ी जोवंता थई कन्यका जी, लावण्यगुण रूप तणौजाणै धाम हो;मां०१ सहस्रकला तसु नाम सुहामणो जी, चौसट्ठि कलानी ते छै जाण हो; मां० अनुक्रमि भर यौवन थई सुन्दरी जी, युवती नो जे छंडावै माण हो ; मां० २ चिंतातुर थयौ तात निहालि नै जी, केहनै ए दीजै कन्या सार हो ; मां० ए सरिखौ रूपै गुण विद्या आगलौ जी, पुण्यै लहीये एहवो वर सार हो ; मां० ३ घर घर मां वर जोवै सेठ सुता भणी जो, फिर फिर ने पुर पुर जोवै सुविशेष हो मां० पणि कन्या सरिखो वर न मिल्यौ जोर्वतां जी, आरति मन मांहे थई अलेख हो मां०४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई को एक निमित्त नै पूछ्यौ तेडिनै जी, विनय करी. देइ बहुमान हो; मां० माहरी पुत्री ने कुण वर परणस्यै जी, तेह कहै सांभलि वचन प्रधान हो; मां०५ राजा नई दरबार मांहे जे बसि नै जी, त्रिलोचना भर्ता री कहिल्यै सुद्धि हो;मां० कहस्यै वृतान्त मदालसा कुमरी नौ जी, मूल थी मांडी नै निर्मल बुद्धि हो ; मां०६ ताहरी पुत्री नो ते वर जाणजै जी, महीना नै अंतरि मिलस्यै तेह हो ; मां० समस्त राजा नो थास्यै राजवी जी, तेहनौ प्रताप अखंड अछेह हो ; मो०७ सगली सामग्री हिव वीवाहनी जी, हलुवै हलुवै करै सेठ सुजाण हो; मां० इहाँ मन संदेह न आणिजे जी साची मानै माहरी तुं वाणि हो ; मां०८ लगन दीधो निरदोष निहालिनै जी, ___ वचन अंगीकरि महेशदत्त हो; मां० हरषित मन में थई अति घणु जी, पुत्री नै परणायवा उछक चित्त हो; मां०६ मंडप कराया मोटा सोहता जी, सज्जन तेड़ावै कागल मेल्हि हो ; मां० १२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ तोरण बंधाव्या धवल गीत गावै नारि सुहामणा जी, विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि मंदिर बारणे जी. चित्रत कीधो घर मोहणवेलि हो; मां०१० वर भणी ताजा कलश वंस मेल्ही कार्जे वेदिका जी, श्रवणे सांभलतां सहु ने सुहाय हो ; मां० Jain Educationa International मेलि मेल्ह्या सकल उपाय हो ; मां० १९ बला मेला नवा जी, अम्बर उज्जवल सुन्दर पटकूल हो ; मां० सोवन आभरण करावै नव नवा जी, रतन जड़ित भारी मूल हो ; मां० १२ जातीला गजराज तुरी जिण संग्रहा जी, यानादिक हाथ मेलावे देय हो ; मां० सरल मति धारी तोजी ढाल मां जी, इण परि विनयचंद्र कहेय हो ; मां १३ ॥ दूहा ॥ वार्त्ता कौतुक कारणी, पुरमां थई तिण वार ; वर विण सेठ वीवाह नो, रच्यो सबल विस्तार ; १ एह वचन राजा सुणी, चितै इम निज चित्त ; घन माहेशदत्त गृहपति, जेहनी अविरल मत्ति ; २ देस्यै धन जामात नै, कन्या परणावेह ; व्रत लेस्यै वयरागियौ, मन धरि परम सनेह ; ३ For Personal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १७६ सुद्ध जमाई नी लहुं, तो तेहनै देई राज ; हुँ पिण संजम आदरं, सारू उत्तम काज ; ४ महेशदत्त सुं राजवी, एहवौ करीय विचार ; पड़ह नगर मां फेरव्यो, उद्घोषणा अपार; ५ ढाल (४) मुंगफली सी वारी आंगुली, एहनी राजा पुत्री त्रिलोचना, विरहाकुल थई नाह वियोग ; एहवौ राय वचन कहावै छै सही, तेहनो पति क्यांही गयौ तिण कुमरी राखै बहु सोग ; १ मदालसा परदेसणी, मैं पुत्री करि मानी तेह । ए०. सहु सम्बन्ध तेहनो कहै, मांडी नै धुर थी नर जेह ।२ । ए. राज्य समापुं ते भणी, वलि आपई महेशदत्त सेठ । ए० सहस्रकला निज दीकरी, सुरकन्या पिण जेहनै हेठ । ३ ए० एक मास नै अंतरै, सुक पडहो छबीयौ तिणवार । ए० लोक सहु सुणज्यो तुमे, मुझ वाणी प्राणी हितकार । ४ ए० मुझ ने ले जावो हिवै, महाराज केरी सभा मझार । एक क्षितिपति ना जामात नी, हुं कहिस्यु सगलो ही विरतंत । ५९० मदालसा नो पणि तिहां, संभलावीस नृप में विरतन्त । ए० राज्य लहीस राजा तणौ, कन्या परणेसु गुणवन्त । ६ ए० कौतुक धरि ते आदमी, लेइ आव्या नृप परषद मांहि । एक राय बोलाव्यौ सूअटौ, नर भाषा बोल्यो ते साहि । ७ ए० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० . विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि परीयछ बंधावौ इहां, त्रिलोचना तुझ पुत्री जेह । ए० मदालसा पणि तेडीयै, जिम भालु आख्यानक एह । ८ ए० राय वचन तेहनौ सुणी, हरषित थई कीधो तिम हीज ए० ज्ञान विना तिरजंच तु, किम जाणसि वीतक नो बीज । ६ ए. तीन काल नी वारता, जो थारै मन अचरिज होइ ; ए० सावधान थई सांभलो, विच वातां म करज्यो कोइ । ए० १० रामति जोवा सहु मिल्या, पुर वासी जन मन धरि प्रेम ।ए. मदालसा नी वातड़ी, कहै सुवटो जिम कही छै तेम । ए० ११ वाराणसी नगरी भली, राजा तिहां मकरध्वज नाम । ए० तेहनो पुत्र पराक्रमी, उत्तमाभिध जाणै रूपै काम । ए० १३ अचरिज नाना देश ना, जोएवा नीकलिया तेह । ए० भाग्य परीक्षा कारण, साहस धरि निज देह अछेह । ए० १४ कितले के दिवसे गयौ, भरुअछपुर नृप सुत कुशलेण । ए० चौथी ढाल सुहामणी, इम भाखी कवि विनयचन्द्रेण । ए० १५ ॥ दहा ।। मुग्धद्वीप देखण भणी, पोते चढ्यो कुमार; आव्यो कितलेके दिने, भर दरीयाव मझार ; १ जलकान्तिक पर्वत तिहां, ऊंचो घणौ महान; तिण माहे कूपक अछ, पाणी सुद्धा समान ; २ भ्रमरकेत राक्षसपति, तिणे करायो तेह ; जल अरथै साहसधरी, गयौ तिहां गुण गेह ; ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई ढाल (५) धण रा मारुजी रे लो, एहनी पर उपगारी कोइ न दीठो एहवो मीठो, गुणधारी सुविचारी रेलो; म्हारा राजेसरजी रेलो बारी मां जल हेते पहुतौ मन गह गहतो, दीठी तिहां किण नारी रे लो; १ मदालसा नामै सुकमाली रूप रसाली, तिहां परणी ते बाली रे लो; मां जाली मां थई बाहर आया नारि सुहाया, गुणमणिनी आली रे लो ; २ मां समुद्रदत्त ने वाहण चढीया त्यां थी खंडीयां, पंच रतन परभावै रे लो; मां० जल इंधण अन्नादिक जोई लोक सकोई, मन मां शाता पावैरे लो अवसर देखी पापी सेठै भुंडी द्रेठे, ; ३ मां० रामा धन नो रसीयो रे लो; मां० दरीया मांहे नांखी दीधो माठो कीधो, पड़तो मच्छे ग्रसीयो रे लो ; मां० ४ मगर गलतो कांठौ आयौ धीवर पायौ, काढ्यौ पेट विदारी रे लो; मां० तुझ पुत्रि घर देखि नीपजतो आयो चलतो, परणायो तिणवारी रे लो ; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १८१ मां ५ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि सुख भोगवतां देव तणी परि किणीक अवसर, श्री जिनपूजा करिवा रे लो ; मा० श्री जिनवर ने मंदिर आवै भावन भावे, ___भवसायर लहु तरवा रे लो; मां० ६ फूल भरी चंगेरी नीकी वंस नली की, मदन मुद्रित देखी रे लो; मां० उघाड़ी ते हाथे साही लघु अहि माहि, __ कर करड्यौ सुविशेषी रे लो; मां०७ तन थी नष्ट सकल बल पडीयो भुई तलि अडीयौ ___ इतली मैं कही वातां रे लो ; मां० सत्य प्रत्यज्ञा जो छै ताहरी आस्या माहरी, पूरो तुझ गातां रे लो; मां० ८ पोतानो निरवाहै कहियौ तिण जस लहीयौ, उत्तम ते जग माहे रे लो; मां० विवहारी तुझ पुत्री ल्यावौ मुझ परणावी, उच्छव सुं कर साहै रे लो ; मां ०६ ऊतावलि करि मुझ नै दीजै ढील न कीजै, जग जस भारी लीजई रे लो ; मां० तिरजंच जो हुं थाहुं राजा करूं दिवाजा, - रमणी साथि रमीजै रे लो; मां० १० एहवौ कहि मुखि मौन सरागै बैठो आगे, इतलै राय पयंपै रे लो; मां० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १८३ पोपट अंतर हीय म राखो आगै भाखौ, थास्यइ मन कंपई रे लो; मा० ११ पंडित ते निज बोल्यो पाले कुल उजवालै, तुझ सरिखा गुणवंता रे लो ; मां० जो नवि आपै तो हुं जास्यु फेर न आस्यु, मांनु पहुँची कंता रे लो ; मां० १२ स्वादवंत फलनो आहारी रहुँ वनचारी, इण परि काल गमासुरे लो; मां० ढाल पांचमी ए थई पूरी बात अधूरी, विनयचन्द्र इम भास्यु रे लो; मां० १३ ॥ दहा ॥ मैं जाण्यो नर हुवै अधम, माया कपट निधान ; स्वार्थ करी जायै नटी, तुम सरिखा राजान ; १ ऊडेवा नै सज्ज थयौ, नृप झाल्यौ ततकाल ; देईसि राज सुधीर धरि, वर पंडित वाचाल ; २ उत्तमकुमर किहाँ अछै, आगलि कहि वृतांत ; जीवै छै किंवा मूऔ, भांजि भांजि मन भ्रांत ; ३ वली वचन कहै सूवटो, जो तिल मां तेल न होय; तो वेल्लू में किहाँ थकी, राय विचारी जोय ; ४ एतली बात कह्यां थका, जौ तु नापै राज; आगलि कह्यां हुवै किसु', कंठ शोष स्यौ काज ; ५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि राज देईसि जो मुझ भणी, तो आगे कहिस्युबात; कहि कहि देइस तुझ भणी, कन्या राज संघात ; ६ ढाल (६) हस्ती तो चढिज्यो हाडा राव कुमकुमां माहरा वालमा, ए देशी तो वारू राजा रे अहि डसीयां पछी मांहरा साहिबा, ___ अनंगसेना इण नाम रे; वेश्या विगताली। चंचल चरिताली, योवन मतवाली, गयवर गति गाली तिण वार निहालो, मांहरो कहियो मानो, कहीयो मानो रेराज तुमने हुँ कहिसुवंछित फल लहिसुं, धुरा राज्य नी वहिस्यु निज आपद दहिस्युं सुख सेती रहिस्यु गुण अवगुण सहिसुं। मां । - किण एक कारण रे दैव संयोग थी। मां। ते आवी तिण ठाइ रे मणि नीर झकोली, ___ तसु काया खोली ।। १ ।। मां० ।। ते तिण ऊपरि रे रीझ्यो अति घणो। मां। वदनकमल निरखंत रे। थयो परम सरागी, मिलिवा मति जागी । मां० । __ ऊठाड़ी ने आपणै मन्दिर लीयौ । मा० । चउथी भूमि ठवन्त रे, सुख मांहि सदाई, रहै कुमर सवाई ॥ २॥ मा० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १८५ हुँतो थयौ मूरख रे दाक्षिणवंत थी । मा० । बात कही सहु तुझरे । राज चाहुं पाछै । खोटी मति आछै । मां० । थाज्यो तो तुमनै रे स्वस्ति महीपति । मां०। अपजस आपो मुझ रे जे मंगलपाठी, मुझ रसना घाठी । मां ॥३॥ राजा भाषैरे अद्ध वैद्यक कियै । मां० । जावा न लहै वैद्य रे। वाचाल तजी नै, मन सुथिर भजी नै। मां०। ___ अनंगसेना नो घर जोऊ जेतले । मां०। तूं मत काढे कैद रे, कन्या राज आपुं, तुझ नै थिर था' ॥ ४॥ मा० ।। क्षण इक इहां रे हुं बइठो अर्छ । मां० । जोवो वेश्या गेह रे। नृप आणा लहता, सेवक तिहां पुहता। मां०। सहु गृह जोयो रे नवि पामियौ । मां० । पूछ सगला तेह रे, किहां राय जमाई, द्यो साच बताई ॥५॥ अधोदृष्टि जोई रही पण्यांगना । मां० । ऊतर नापै लिगार रे। विलखित मुख छाया, संकोचित काया। मां०। आवी सहु भाखी रे बात वेश्या तणी। मां० । जे छई गहन विचार रे शुकनै पूछीजै, निश्चय ए कीजै।६।।मा०॥ सूं विप्रतारै अम्हनै सूवटा । मां० । जेहवो छै तेहवो दाखि रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि कहि ज्ञान विचारी, तूं छै उपगारी। मां० । _ सुणि महाराज रे पोपट वीनवै । मां० । वेश्या धर्यो अभिलाष रे ए वर मुझ थास्यै, भोग अर्थ आसै ।। मां० ॥७॥ इहां बीजो जासी रे किमही न आवसी। मां०। एहवो चित्त विचार रे। ते मुझ सुक कीधो निद्रावसि वीधो । मां० । सोवन केरै पिंजर मां ठव्यो । मां० । रंज्यु गुण गीत गाय रे श्लोक कथा कहीन, ___ अवसाण लहीन ॥ ८॥ मा०॥ चरणां थी छोडी रे डोरो नर करी । मां० । बांध्यो मोहनइ चाल रे। तिण सुं सुख माणु, उदयास्त न जाणु। मां० __ दवरक बांधी रे वलि मुझ शुक करै। मां० । इम गयो कितलो काल रे, मन माहि विचारु, तिरजंच भव धारु ॥ ६ ॥ मां० ।। परउपगारी रे सहुनो हुँ हतो । मां० । निष्टाचार न चोर रे। केहनै दुख नवि दीधो काई विरुद्ध न कीधो । मां० । हां हां जाण्यो रे मैं इणहीज भवै । मां० । कीधो पातक घोर रे, न रह्यो हुं सीधो मै सुजस न लीधो ॥१०॥ मां । राक्षसकन्या रे कुमरी मदालसा। मां०। परणावी न तसु बाप रे॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई परणी मैं छानै लज्जा करि कानै । मां० । 1 सायरमां तिण पाप रे, सागरदत्त नांख्यौ, राक्षस केरी पुत्री रे म हरी । धिग धिग मुझनै रे पांच ग्रह्मा मणी | मां० । निजकृत कर्म चाख्यौ ॥ ११ ॥ मां० ॥ पापी मुझ सरिखो, नहीं कोई रे परखो । मां० । १८७ राक्षसना अणदीधा रे । Jain Educationa International विनयचंद्रनी कीधरे, श्रवण सांभलजो, एतो छुट्टी रे ढाल सुहामणी । मां० । पातक थी टलज्यो ।। १२ ।। मां० ॥ ॥ दूहा ॥ तिम त्रिलोचना नै घरे, आवी वृद्धा नारि ; मैं पूछयौ एकुण अछे, मुझ प्रिया तिण वार ; १ सखी बतावी तेहनै, मुझ नारी मैं जाणि, राग बुद्धि क्षण इक करी, हुं थयो मूढ अजाण, ; २ मोटो पातक मन तणो, मुझनै लागो तेह ; सर्प डस्यो ति वार थी, श्री जिनवर नै गेह ; ३ ढाल (७) सासू काठा गेहूं पीसाय आपण जास्युं प्रेम सुं सोनारि भणै, नर फीटी हो थयौ तिरयंच पातकि वृक्ष कुसुम सही; सुक एम भणै For Personal and Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि वली कह युं छै हो आगम मांहि नरक वेदन फल संग्रही ; सु०१ महा बलधारी हो रावण जेह, विश्व जिणे निज वसि कीयौ ; सु० परस्त्रीनी हो वांछां कीध, कुलखय नारक पामीयौ ; सु० २ जोई द्रुपद सुतानो हो रूप, कीचक मन लाई रह्यौ ; सु० भीम चाप्यो हो कुभी हेठि, अपजस दुर्गति दुख लह्यो । सु० ३ इम समरै हो निज कृत पाप, आतम निंदर आपणौ ; सु० हुवई थोड़ो हो पिण अपराध, उत्तम मानै करि घणौ ; सु. ४ हिवइ अनंगसेना हो राग, मास रह्यौ घरि तेहनै ; सु० आज गई नई हो किण इक काज, भावी न सूझै केहनै ; सु० ५ पुण्ययोगै हो मुझ महाराय, मुँक्यौ उघाड़ो पीजरौ ; सु० नीसरीयौ हो अवसर जाणि, धीरज धरि मन आकरौ ; सु०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १८६ त्रिकनै हो चोक चचर सव्वेत्र, सांभलि पटहनी घोषणा ; सु० मई प्रगट निवास्यो हो तेह, वचन सुणी रलियामणा ; सु०७ हुँ आव्यौ हो ताहरै पास, बात कही मैं माहरी ; सु० हिव दीजै हो मुझ सुखवास, उलट मन मांहे धरी ; सु०८ हुँ तो ते छु उत्तमकुमार, पगथी छोड़ो दोरड़ो ; सु० दिव्य रूपी थयो ततकाल, जाणे कंदर्प आगै खड़ी ; सु०६ हर्षित हुवा हो सगला लोक, सहस्रकला कन्या वरी ; सु० तिहाँ मिलीयौ मदालसा नारि, वृद्धा युक्त हरख धरी ; सु० १० महोच्छव पुर मां हो करि नै भूरि, त्रिलोचना कुमरी मिली ; सु० नारी हो तीन तणौ संयोग, थयौ मन नी आसा फली ; सु० ११ पुनवान हो पुरुष जे होइ, __तुरत मिटै तसु आपदा ; सु० थई एतलै हो सातमी ढाल, विनयचन्द्र लही संपदा ; सु० १२ ___ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ॥ दूहा ॥ प्रीति परस्पर जाणि नै, वेश्या थापी नारि ; तिण पणि कीधी आखड़ी, इण भवि ए भरतार ; १ हिव तेड़ी वनमालिका, करि नै बहुविध बंध ; नलिका मांहे व्याल नो, पूछयौ सहु संबंध ; २ बोलै मालणि बीहती, दोष न को मुझ स्वामि ; समुद्रदत्त मुझनै दीया, परिष पांचसै दाम ; ३ बोल कीयो जिण एहवौ, भूप जमाई मारि; तिण लोभे ए मैं धस्यो, नलिका सर्प विचार ; ४ राजा बिहुँ नै मारिवा, हुकम कीयो करि क्रोध ; कुमरै राख्या जीवता, देई अति प्रतिबोध ; ५ बिहु नो धन लूटी लियौ, देश निकालौ दीध ; उत्तम कुमर भणी, सइहथ राजा कीध ; ६ ढाल (८) लटको थारो रे लोहणी रे, एहनी नृप हुवो वैरागीयो रे, जीता विषय कषाय ; खटको जेहना रे मनथी टल्यौ रे। आं० सेठ सहित संयम लीयौ रे, सद्गुरु पासै जाय ; ख० १ लोभ रहित जे मुनिवरा रे, निर्मल निरहंकार ; ख० बाल वृद्ध गीतार्थ नो रे, वेयावच करै सार ; ख० २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १६१ थोड़े काल भण्या घM रे, धरम ध्यान रस लीन ; ख० केवलज्ञान लही करी रे, पोहता मुगति अदीन ; ख० ३ तिण अवसर राक्षसपतो रे, भ्रमरकेतु गुण ठाम ; ख० नैमित्तिक पूछ्यौ वली रे, मुझ वैरी किण ठाम ; ख० ४ ते कहै ताहरी पुत्रिका रे, परणी गयौ जेह ; ख० पंच रतन ताहरा लीया रे, मोटपल्ली छै तेह ; ख० ५ वक्रकूप पाताल मां रे, ते पैठो हसी केम ; ख० पुत्री किम परणी हस्यै रे, नहिं संभीवीय एम ; ख० ६ ज्ञान न थाय अन्यथा रे, नैमित्तक कह्यौ सुद्ध ; ख० तेहनै जीती नवि सकौ रे, जो था तु अति क्रुद्ध ; ख० ७ पहिली शून्यद्वीप मां रे, एकाकी हतो जाम ; ख० तो पण गंजी नवि सक्यौ रे, हिव युद्ध नौ स्य काम ; ख० ८ पंच रतन सुपसाउले रे, तेह थयौ भूपाल ; ख० मिलीयै पासे जाय नै रे, सी करीयइ तसु आलि ; ख०६ वलि सगपण मोटो थयो रे, ते माहरौ जामात ; ख० इम चिंतवि आयौ तिहां रे, मुँकि सकल उतपात ; ख० १० उत्तम नृप सेती मिल्यौ रे, दुविधां टाली दूर ; ख० पुत्री भीड़ी हीय. रे, निरमल बाध्यौ नूर ; ख० ११ मस्तक धारी आगन्या रे, उत्तम नृप नी जेण ; ख० चाल्यो निज नगरी भणी रे, राक्षसपति हरषेण ; ख० १२ ढाल भणी ए आठमी रे, सांभलतां सुख थाय ; ख० विनयचन्द्र महाराय नौ रे, जस जग मांहि सुहाय ; ख० १३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि ॥ दहा ॥ तिहां किण सकल सभा मिली, नृप बैठो मन रंग ; छत्र विराजे मस्तके, चामर ढले सुचंग ; १ दूत तिहां एक आवोयो, जास वचन सुपवित्र ; कर जोड़ी नृप आगलै, मेल्ही लेख विचित्र ; २ राजा खोली वांचियो, मन धरि हरख अपार; तेमां स्युं लिखीयो अछ, ते सुणज्यो अधिकार ; ३ ढाल (8) चाल-राजा जो मिले, एहनी, स्वस्ति थी जिनदेव प्रधान, नमीय बणारसी थी बहुमान ; राजा वीनवै, प्रेमातुर इम संभलवै श्री मकरध्वज नृप गुणगेह, सपरिवार सँ धरीय सनेह ; १ मोटपल्ली नामे बेलाकूल, सकल श्रियानौ जे छै मूल ; रा० उत्तमकुमर कुमार आरोग्य, निज अंगज स्नेहपूर्वक योग्य ; २ रा० आलिंगी निज हृदयसरोज, ___घणु घणु प्रेमै रोज ; रा० समादिसति भूपति कल्याण, ___ कुशल अत्र वर्तइ सुविहाण ; ३ रा० साता सुख तणा समाचार, पुत्र तुमे देज्यो निरधार ; रा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १६३ कारज कहीयै एह विशेष, हीय. धरीज्यो वाची लेख ; ४ रा० तूं अम राज्य तणौ आधार, . करिजे माता पितानी सार ; रा० तुझ नै दुहवियौ कहि केण, पहुतो तू परदेशे जेण ; ५ रा० जिण दिन थी नीसरियौ पूत, खबर करावी तुझ बहूत ; रा० पिण नवि लाधी ताहरी बात, - दुख पाम्या जाणे वजूघात ; रा०६ ते तो अमने कीया निरास, नाखंतां दिन जाय नीसास ; रा० सास तणीपरि आवै चीति, साल तणीपरि सालै प्रीति ; रा०७ प्रायै छोरू न लहै सार, मावीत्रां नी किण ही वार ; रा० पिण मावीत्र तपै दिन-राति, पाणी वल विरहो न खमात ; रा०८ दिवस दुहेला कष्टे जाय, __ रयणी तो किमही न विहाय ; रा० जिम जलधरनै समरै मोर, तिम तुझनै समरूं छू जोर ; रा०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १६४ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि प्राणसनेही चतुर सुजाण, तुझ विण जास्यै जाणे प्राण ; रा० ढील न करिजे गुण-मणि-खाण, वहिलो आवै मूकी माण ; रा० १० उपजावै सुख लही सुख विभूति, मावीत्रांनै तेह सपूत ; रा० सायर नै जिम चन्द्र-प्रकाश, __हरख वधारै परम उल्लास ; रा० ११ सुहणा ही मां ताहरो ध्यान, वाल्हो लागै जेम निधान ; रो० जिण दिन देखिसि ताहरो मुख, तिण दिन थासी अगणित सुख ; रा० १२ वहिवा राज्य धुरानो भार, वृद्ध थया असमर्थ विचार ; रा० इहां आवीयौ पोतानो राज, पालौ संभालौ गृह काज ; रा० १३ घणं किसु कहीयइ वार वार, तुछ चतुर सकल बुद्धि धार ; रा० जो तुं अमारो भक्त कहाय, तौ पाणी पीजे इहां आय ; रा० १४ लेख तणो एहवो समाचार, वांचै वारंवार कुमार; रा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १६५ एहवा हितवछल मावीत, हुँ दुखदायक थयौ अविनीत ; रा० १५ शीघ्र चलूँ नीसाण वजाय, सुख द्युमात पिता नै जाय ; रा० इम उच्छक थयौ मिलण कुमार, . मात-पिता नै तेणी वार ; रा० १६ सचिव भणी निज राज्य भलाव, चाल्यो चतुरंग सेन मिलाय ; रा० वाणारसी नगरी भणी नाम, चार प्रिया संयुक्त प्रकाम ; रा० १७ चलतां चलतां अखंड प्रयाण, आया चित्रोड़ समीपे जाण ; रा० ए पूरी थई नवमी ढाल, विनयचन्द्र कहै परम रसाल ; रा०१८ ॥ दूहा ॥ महासेन आवी मिल्यो, निज परिवार समाज ; राज देई निज नृप भणी, आप थयौ मुनिराज ; १ मेदपाट नै लाट वलि, भोट अनै कर्णाट' ; पोते वसि करि चालीयौ, ले निज सेना थाट ; २ गोपाचल गिरि आवीयौ, उत्तम नृप जिण वार; वीरसेन राजा भणी, खबर पड़ी तिण वार ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि लेई च्यार अक्षौहिणी, सेना तणौ समूह; उत्तम नृप सामौ चल्यो, धरा धड़क बूंह ; ४ उलकापात हुवो वली, थरकै अहिपति ताम; मेरु डिगै सायर चलै, कच्छप थयो विराम ; ५ इत्यादिक अपशुकन तजी, गयौ सनमुख तास ; सीमा से₹ ऊतस्यो, वीरसेन उल्लास ; ६ उत्तम पृथ्वीपति भणी, साम्हो मेली दूत ; - जौ राणी जायौ हुवै, तौ थाजै रजपूत ;७ इम सुणी कोपातुर थयौ, उत्तम नाम नरिंद; वीरसेन ऊपरि अधिक, रूठो जिम असुरिंद ; ८ झंडा दीसै दल तणा, घणा घुरइ नीसाण ; सूरा पूरा सहु थकी, हूवा आगेवाण ; 8 . ढाल-(१०) हो संग्राम राम ने रावण मंडाणौ एहनी मांहो मांहि ते लसकर बे मिलिया, सनद्ध बद्ध संकलीया ; टंकारव लागै नवि टलीया, भड़ सहु कोई मिलीया रे ; १ मा० वाजा रण माहे तिहां वाजै, गरजारव करि गाजै ; लूवरि पिण आवण री लाजै, दल रै सघन दिवाजै हो ; २ मा० हाथी सहु पहिरी हलकारै, हलकंता नवि हारै ; सुँडा दंड सबल विसतारै, मद उनमत्ता मारै हो ; ३ मा० जुगति लड़ण री घोड़ा जाणे, दल में ते दोडाणै ; बापूकार्या बल बहु, टामक वजण टाणें हो ; ४ मा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई रिण मांड्यो सूरे रस राते, घट भांगै घण घाते ; मन थी महिर तजे मद माते, विचि विचि आवै वाते हो; ५ गड़ गड़ नाल विशाल गडूक, धरणी तुरत धडूकै ; चन्द्र बाण नाखंतां न चूकै, कल कल स्वर करि कूकै हो ; ६ भा० डिगै न पायक भरतां डाके, छल खेले छिलती छाके ; ... ... ... ... ... ... ... ... .''ढाहि चढावै ढाकै हो ; ७ मा० रुख तणी परि पग आरोप, लड़ता रिण नवि लोपै ; चक्षु तणै फुरकारै चोपै, कहर करतां न कोपै हो ; ८ मा० चमकि लगावै वदन चपेटा, लातां तणा लपेटा ; घरहर नै जिम मंडै घेटा, तिम भरी रीस ल्यै भेटा हो ; हमा० कुहक बाण छूटण रै कडकै, अरीयां साम्हा अडकै ; भड़ कायर भाजै तिहां भड़क, त्रेह त्रसै जिम तड़कै हो ; १० मा० वलि बिच मां बंदूक विछूटै, खिण आराबा खुटै; तरवारी त्राछंतां तूटै, सुभटां रो सिर फूटै हो ; ११ मा० अरक छिपायो रज ऊडंती, अंबर जिम ओपंती ; रुहिर खाल तिहां मांहि रहंती, बालारुण वहसंती हो ; १२ मा० असवारै असवार अटक्कै, लल बल लुबि लटक्कै ; संभावै समसेर सटक्के, तोडै, लँड तटक्कै हो ; १४ मां० अंग तणे पोरस्स उमाहे, अरियण ने अवगाहै ; ढालां री ओटा दे ढाहै, सबल सड़ासड़ साहै ; १५ मा० रथ सेती जूटा रथवाला, मुडै नहीं मछराला; मूंछे बल घालै मतवाला, टलि न करै को टाला ; १६ मा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि पासै सर आवंता पालै, भलकंते निज भालै ; नयणे निपट निजीक निहालै धाव झड़ाझड़ धाले ; १७ मा० इतर वेढं हुई उपशमती, कलिरो भाव कहती ; दुइ दल रा तिहां दीसै दंती, बादल घटा बहंती हो ; १८ मा० प्रलय काल रिण मेघ प्रगट्टे, इत तल थल उदव ; झलहल विज्जल खड़ग झपट्टे, छट्टा वाण आछट्टई हो ; १६ मा० उदक व रुधिरालउ लोला, गडां रूप ते गोला ; इन्द्र धनुष झण्डा धज ओला, हयवर पवन हिलोला हो ; २० मा० इणपरि युद्ध तणी विधि जाणै, जे सगवट नें जाणे ; परतखि दशमी ढाल प्रमाणै, विनयचन्द्र सुवखाणै हो ; २१ मा० ॥ दूहा ॥ संग्रामांगण नै विषै, जीतो उत्तम राय ; वीरसेन नै जीवतौ, बांधि लियौ तिणठाय ; १ फेरावी निज आगन्या, उत्तम राजा वेगि ; गाल्यो गह बैरी तणो, भला जगाई तेग ; २ वीरसेन मनमां चींतवें, माहरी न रही माम; हुँ पिण जोरावर हतो, एह थयौ किम आम ; ३ निज अपराध खमाइ नै पाए लागौ जाम ; राजा छोड़ि दीयो तुरत, फिर बगस्यौ निज ठाम ; ४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई १६६ ढाल (११) ओलगड़ी चित्त मां (२) विचारै राजा एहवो रे, हो अपजस भाखै लोक ; तो हिवै (२) आफु उत्तम राय नै रे, राज्य प्रमुख सहु थोक ; १ चि० केहनी (२) गुमान रहै नहीं साबतो रे, गंजी नई कुण जाय ; परभवि (२) परमेसर पूज्यां विना रे, जेत कहो किम थाय ; २ चि० राजनै (२) गजादिक तूंपीया रे, __ उत्तम नृप नै ताम; निज मन (२) चाल्यो गृह बंधन थकी रे, ___ वीरसेन हित काम ; ३ चि० इण समै (२) सुविहित मुनि चूडामणी रे, __ हो आव्या युगन्धर सूरि ; नगर नै (२) समीप वन में समोसर्या रे, हो साधु सहित भरपूर ; ४ चि० आवी नै (२) वन पालक दीध वधामणी रे, गुरु आगमन प्रघोष ; वांदिवा (२) चाल्यो निज परवार सुँ रे, हो नृप तेहनै संतोष ; ५ चि० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि वांदि नै (२) बैठो सुणिवा देसना रे, .. ____ सदगुरु द्य उपदेश; धरम (२) करो रे भवियण भावसं रे, जेम कट कर्म कलेश; ६ चि० नर भव (२) लहिस्यो फिर दोहिलो रे, करि भव भ्रमण अनेक ; भवजल (२) निधि तरिवानै कारण रे, जैन धरम छै एक ; ७ चि० तेहनो (२) सरणौ हो भवियण आदरो रे, - संयम तप धरि सार; . इक भव (२) अथवा दोइ भव अंतरै रे, वरिस्यौ शिवगति नार; ८ चि० धर्मकथा (२) सुणि संयम प्रह्यो रे, भण्यो शास्त्र सिद्धांत सुजाण ; पालीने (२) चारित्र निरतिचार सुं रे, नृप पहुतो निरवाण : ६ चि० उत्तम (२) कुमर देश वशी करि, आवै निजपुर मांहि ; आवता (२) अनमी राय नमाविया रे, _थयौ आणंद उच्छाह ; १० चि० भूपति (२) सह्यौ सामेलो प्रेम सुँ रे, सिणगार्या गजराज घरि (२) तोरण बांध्या अति भला रे, . घुरे नगारा गाज ; ११ चि० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई २०१ कोतिल (२) घोड़ा आगलि कर्या रे, सधव धर्या सिर कुंभ ; इण परि (२) राय मिल्यो निज सुत भणी रे, चित थी टलीयौ दंभ ; १२ चि० एहवै (२) ढाल कही इग्यारमी रे, लहीयौ भूपति मान ; उत्तम (२) कीरति थंभ चढावीयौ रे, विनयचन्द्र वरदान ; १३ चि० ॥ दहा ॥ उत्तम नूप मिलीयौ जई, बाप भणी धरि नेह ; मन विकस्यौ तन उल्लस्यो, रमांचित थयौ देह । १ मकरध्वज भूपाल पणि, सुत ऊपरि करि मोह ; अंगइ आलिंगन दीयौ, सखरी वधारी सोह ; २ सासू नै पाए पड़ी, च्यार बहु मद छोड़ि ; दीधी तीण आसीस इम, अविचल वरतो जोड़ि ; ३ प्रभुता देखी पुत्र नी, राजा हुवै खुश्याल ; पुण्य बिना किम पामीय, एल मुलक ए माल ; ४ निज सुत समरथ जाणि नै, पोते थाप्यो पाट ; पंथ लियौ मुनिवर तणौ, जग माहे जस खाट ; ५. ढाल (१२) तंबोलणि नी च्यार राज्य अधिपति हुवो रे, उत्तम नृप गुण गेह; जेहनै सुन्दर कामिनी रे, जसु कंचन वरणी देह ; १ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि च्यारे त्रिया चित्त हरइ रे, अधिको अधिको नेह, दिवस प्रति जे धरइरें; चित चोखो चिहुं नारि नो रे, गुणवंती कहवाय ; प्रिउ ऊपरि अति रागणी, ते कथन न लोपै काय ; २ सेमै रंभा सारिखी रे दासी गृह नै काम ; माता नी परै नेहलो, पालै टालै दुख ठाम ; ३ सुख आपै निज पति भणी रे, सुकलीणी सिरताज ; धरम ध्यान पिणसाचवै, अवसर देखि तजि लाज ; ४ च्यारे० जेहनै लखमी अति घणी रे, कहतां नावै पार; जाणि धनद निज आविन, भरीयो पूरण भंडार ; ५ च्या० चालीस लक्ष हयवर भला रे, गज पणि लक्ष चालीस; स्पंदन पणि जेहनै छै तितला हीज विसवा वीस ; ६ च्या० च्यार कोडि पायक कह्या रे, प्रामा गर पणि जास; चालीस कोड़ि वखाणिय, दिन दिनमां अधिक प्रकाश; ७ च्या० धरम करै उच्छव धरै रे, पूजे जिनवर देव ; धूजै पातिक थी घणु, इण रीति राखै टेव ; ८ च्या० भला कराव्या देहरा रे, जिनवर तणा अलेख ; यात्र करी जिण जुगति सु, सहु तीरथ नी सुविशेष ; ६ च्या० पोष्या पात्र सुपात्र ना रे, छोड्यो सगलो दंड ; साधर्मिकवच्छल कर्या, चावौ यथो च्यारे खंड ; १० च्या० पुस्तक जेण लिखाविया रे, जिन आगम सुविचार; दानशाला मंडाविने, दान देई करै उपगार ; ११ च्या० संसारी सुख भोगवे रे, च्यार स्त्रियां नै साथि ; जातां दिन जाणौ नहीं रे, एतो वाणारसी नौ नाथ ; १२ च्या० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई २०३ राज प्रजा सुख चैन मां रे, प्रवर्ते दिन राति ; इम द्वादशमी ढाल मां, कहै विनयचन्द्र अवदात ; १३ च्या० ॥हा॥ इण प्रस्तावै समोसस्या, केवलधार मुणिंद ; चित मां अति उच्छक थई, वांदण चाल्यो नरिंद ; १ मुनिवर पासै आविन, वांदे बे कर जोड़ ; धर्म देशना मुनि दियै, मोह तणा दल मोड़ि; २ जगवासी जन सांभलौ, ए संसार असार ; तिहां तन धन यौवन निफल, जातां न लहै वार ; ३ पाम्यौ जनम मनुष्य नौ, आरिज कुल सुनिहाल ; . रयण राशि कवड़ी सटैं, कोई गमावौ आलि ; ४ श्रुत सुणतां अति दोहिलो, राखै तिण मां चित्त ; सहहणा वलि साचवौ, संयम धरि सुपवित्त ; ५ धरम च्यार प्रकार नौ, दान शील तप भाव ; ते दुर्मति छोडीजो, धौ कृतान्त सिर घाव ; ६ जनम मरण दुख छोडि नै, जेम लहो शिवराज ; सांभलि एहवी देशना, हरख्या लोक समाज ; ७ हिव राजा पूछ इसु, स्वामी कहो विचार ; मैं लखमी पामी घणी, राज्य लह्या वली चार ; ८ हुँ वारिधि मांहे पड्यो, मीनोदर रह्यो केम ; गणिका घरि शुक किम थयो, भाखौ जिम छै तेम ;E Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ढाल (१३) होलाई बांभणी, एहनी सुणि नृप गुण रसीया पूरब अर्जित संबन्ध जो, जे ते पाम्यौ रे फल इण हीज भवे रे लो। सु० नवि छूटै निज कृत कर्म बंध जो, . केवलधारी मुनि इण परि चवै रे लो । १ सु० भूमि हिमालै पासि नजीक जो, सुदत्त तिहां रे गांम सुहामणो रे लो । सु० तिण मा रहै कौटंबिक गुण गेह जो, धनदत्त नाम अति रलीयामणो रे लो। २ सु० तेहनै रमणी चार सरूप जो, लखमी तो लाखे गाने गेह मां रे लो । सु० कितलै दिवसे थयो विरूप जो, ____ कवड़ी नौ वित्त मिलै नहीं जेहमां रे लो। ३ सु० भूख मरंतां कृश थयो अंग जो, वली जरायै ते थयौ जाजरो रे लो० । सु० तसु घर आव्या मुनि मन रंग जो, कौटंबी जाण्यो धन दिन आज नो रे लो । ४ सु० ते तो च्यारे साधु सुजाण जो, चोरे लूट्या रे मारग चालतां रे लो । सु० टाढई धूजई तेहना प्राण जो, महिर आवी रे तास निहालतां रे लो। ५ सु० वहिराव्या तिण वस्त्र प्रधान जो, अनुकंपा कीधी रे च्यारे अंगना रे लो । सु० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई धन धन तुं प्रिय गुणनिधान जो, मुनि पड़िलाभ्या वस्त्र सुचंगना रे लो । ६ सु० तिण प्रभावै धनदत्त राय जो, तंतौ थयो रे सहु नो अधिपति रे लो । सु० ताहरै स्त्री पुण्य पसाय जो, ते ही च्यारे रे अभिनव सरसती रे लो । ७ सु० देखी कि एक भवि मुनि आंन जो, निंदा कीधी रे तेहनी घणुं घणी रे लो। सु० एतो मीनक नी परि म्लान जो, मछ जिम वासै गंध देही तणी रे लो । ८ तसु कर्मे काल निवास जो, तूं तो वसीयो रे मछ ना पेट मां रे लो । सु० रहीयौ वलि मेनिक आवास जो, आन पड्यौ रे दुखनी फेट मां रे लो । ६ सु० इण भवि थी सुवड़ो कोइ जो, राख्यो रे तँ तो सहस्रतमै भवै रे लो । सु० घाल्यो पंजर मां गुण जोइ जो, हूवो रे पोपट तूं पिण तिण ढबै रे लो । १० ०. वलि अनंगसेना ने पास जो, २०५ परलंतर आवी सहीयर सझि भली रे लो । सु० तिण इण परि कीधो हास जो, आवौ रे बाई वेश्या लाडिली रे लो । ११ सु० तिण कर्म तणै वशि एह जो, अनंगसेना रे गणिका ऊपनी रे लो। मु० इम सुणि राजादिक तेह जो, सकल विटंबन जाणी कर्मनी रे लो । १२ सु० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि थई पूरी तेरमी ढाल जो, भाख्यो रे पूरब भव जिण शुभमती रे लो । सु० एतौ विनयचन्द्र दयाल जो, नृप परसंसा जेहनी कृत छती रे लो । १३ सु० ॥हा॥ राज देई निज सुत भणी, उत्तम नृप जिन भक्त ; गुरु पासै संजम लीयौ, च्यारे स्त्री संयुक्त ; १ . चारित पालै निरमलो, तप करि सोषे काय ; पूरब पाप पखालतां, कर्म निर्जरा थाय ; २ प्राते अणसण आदरी, पहुता वर सुर लोक ; च्यार पल्योपम आउखो, जिहाँ छै बहु विह्वोक ; ३ तिहां थी चवि नै सीझसी, महाविदेह मझार ; अविचल शिव सुख पामसी, नहीं जिहां दुख लिगार;४ ढाल (१४) गूजरी रागे वस्त्र दान नै ऊपरै रे, उत्तम चरित्र कुमार; सुख संपत लही, हां रे सुख पाम्या श्रीकार ; सु० इम जाणी नै दान द्यो रे, मन धरि हरख अपार ; १ सु० गुण गाया मुनिराय ना रे, धन्य दिवस मुझ आज; रास कीयौ मन रंग सुरे, सीधा वंछित काज ; २ सु० चारुचंद्र मुनिवर कीयौ रे, उत्तमकुमर चरित्र ; सु० ते संबंध निहालनै रे, जोड्यौ रास विचित्र ; ३ सु० ओछौ अधिको जे कह्यो रे, कवि चतुराई होइ ; सु० मिथ्यादुष्कृत वलि कहुं रे, ते सुणज्यो सहु कोइ ; ४ सु० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई २०७ वचन प्रमाणै जाणि नै रे, मन थी टाली रेख ; सु० ढाल भली देशी भली रे, कहिज्यो चतुर विशेष ; ५सु० श्री खरतर गच्छ जगतमा रे, प्रतपै जाणि दिणंद ; सु० सहु गच्छ माहे सिर तिलौरे, ग्रह गण मां जिम चंद ;६ सु० गुण गिरुवौ तिहां गच्छपति रे, श्रीजिणचंद सुरिंद ; सु० महिमा मोटी जेहनी रे, मानै बड़ा नरिंद ; ७ सु० ज्ञान पयोधिप्रतिबोधिवा रे, अभिनव ससिहर प्राय ; सु० कुमुद चन्द्र उपमावहै रे, समयसुन्दर कविराय ; ८ सु० तत्पर शास्त्र समर्थिवा रे, सार अनेक विचार ; सु० वली कलिंदिका कमलनी रे, उल्लासन दिनकार ; सु० विद्या निधि वाचक भला रे, मेघविजय तसु सीस ; सु० तस सतीर्थ्य वाचकवरू रे, हर्षकुशल सुजगीश ; १० सु० तासु शिष्य अति शोभता रे, पाठक हर्षनिधान ; सु० परम अध्यातम धारवा रे, जे योगेन्द्र समान ; ११ सु० तीन शिष्य तसु जाणियै रे, पंडित चतुर सुजाण ; सु० साहित्यादिक ग्रंथ ना रे, निर्वाहक गुण जाण ; १२ सु० प्रथम हर्षसागर सुधी रे, ज्ञानतिलक गुणवंत ; सु० पुण्यतिलक सुवखाणतां रे, हियड़ो हेज हरखंत ; १३ सु० तास चरण सेवक सदा रे, मधुकर पंकज जेम ; सु० प्रमुदित चित नी चूंपसुं, रे, रास रच्यो मैं एम ; १४ सु० संवत सतरै बावनै रे, श्री पाटण पुर मांहिं ; सु० फागुण सुदि पांचम दिनै रे, गुरुवारे उच्छाहि ; १५ सु० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि ढाल बयालीस अति भली रे, नव नव राग प्रधान ; सु० अठतालीस नै आठसै रे, गाथा नौ छै मान ; १६ सु० एह चरित सुणतां सदा रे, वाधै महियल माम ; सु० सुख संपति बहु पामियै रे, अनुक्रमि मन विश्राम ; १७ सु० ढाल चवदमी मन गमी रे, सहु रीझ्या ठाम ठाम ; सु० ज्ञानतिलक गुरु सानिधै रे, विनयचंद कहै आम ; १८ सु० इति श्रीविनयचन्द्र कवि विरचिते सरस ढाल खचिते सच्चातुर्य शौर्य धैर्य गांभीर्यादि गुण गणामत्रे। श्री मन्महाराज उत्तमकुमार चरित्रे जिन पूजा रचन । श्रेष्टि दापित मालाकारणी पुष्प नलिकास्थ लघु सर्प दशन गणिका निर्मित विषापहरण । क्रीडा शुक करण। पटहोद्घोषण स्पर्शन सहस्रलोचना परिणयन नरवर्म दत्त राज्य प्रापण। भ्रमरकेतु मिलन । महासेन दत्त राज्यांगीकरण । हठात् वीरसेन राज्य ग्रहण पिता दत्त राज्यादि राज्य चतुष्टय निर्वाहण समयामृतसूरि समागमन । पूर्व भव श्रवणात् अवाप्त चारित्र सूत्रण । निर्वाणपद प्राप्ति समर्थनो नाम चातुर्य्य वयं तुसंग्रजोधिकारः॥३॥ संवत् १८१० वर्षे मिती चैत सुदि ११ शुक्र। महोपाध्याय श्री ५ पुण्यचन्द्रजी गणि तत्शिष्य पुण्यविलासजी गणि। तदंतेवासी वाचक पुण्यशील गणिः लिखिता चतुष्पदिका। बाकरोद ग्राम मध्ये ।। श्रीः॥ [श्री हीराचन्दसूरिजी के बनारस, ज्ञानभंडार की प्रति पत्र २१ पंक्ति प्रतिपत्र १७, अक्षर प्रति पंक्तिमें ५६, आदि व अन्त का १-१ पृष्ठ रिक्त] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नेमिनाथ सोहला राग-खंभाइती सोहलौ नेमिकुंवर वर वींद विराजै, यादव यानी केसरीया। असीय सहस सेजवाला साथे, मंगल मुख गावै गोरीयां ॥१॥ यदुनाथ चढे गज रथ तुरीयां । आंकणी। ऐरापति सम अंग सुचंगा, सोवन मैं साकति जरीयां । अंग प्रचंड महाबल मँगल, गात बड़ा सोहै गिरीयां ॥२॥यदु०॥ गत तरंग चपल गति चंचल, खेत खरा करता खुरीयां । अश्व अनोपम ऊँचा सोहै, हीस करै हयवर हरीयां ॥३॥यदु०॥ पवन वेग चालंता साथे, धवला धोरी जोतरीयां । असीय हजार सुखासन आगे, जरकस में चालै जरीयां॥४॥यदु०॥ छप्पन कोड़ कुंवर मद माता, सारंग हाथ लेई सरीयां । बजा सहज अड़तालीस बाजै, फरहरता नेजा धरीयां । पायक कोड़ि पंचाणू आग, नोबति बाजै घूघरीयां ॥शायदु०॥ अपछर सरिखी राजुल रंभा, गोखि चढ़ी जोवै गोरीयां। अभिनव इंद्र विराजे प्रभुजी,सरिखी जोड़ी भल मिलीयांपायदु। राजिमती तन देव विभूषण, खलकै कंकण कर चूरीयां। तोरण तें प्रभु फेरि सिधारे, विनयचंद्र मुगते मिलियां ॥७॥ यदु०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढालों में प्रयुक्त देसी सूची महिंदी रंग लागौ हमीरा नी धरा मारुजी रे लो घण री बिन्दली मन लागौ बात का व्रत तणी योधपुरीनी वारू नइ विराज हो हंजा मारू लोवड़ी आघा आम पधारो पूज अम घरि विहरण वेला बिदली नी, नणदल बिंदली दे वेगवती ते बांभणी राजमती तें माहरो मनड़ौ मोहियो हो लाल बधावानी चतुर सुजाणा रे सीता नारी पंथीड़ा नी सासू काठा हे गोहुँ पीसाय आपण जास्युं मालवइ, सोनार भणइ बिछिया नी ईडर आंबा आंमली रे मोतीनी राजिमती राणी इण परि बोलइ ओलूंनी भाभीजी हो डुंगरिया हरियाहुवा ऊभी राजलदे राणी अरज करे छे इणरिति मोनइ पासजी सांभरइ हाडा नी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only २,११६ २,१८१ ४ ५ ५ ६,१६३ ८,६५ ८,६४,१३४ १० ११ १२ १३ १४,६० १६,१८७ १७,१११ १८ १६ २० २२,१५३ २२ २४ २५, १२३ २७,७४ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) शांति जिन भामणइ जाऊं २८,४६ रसिया नी ३०,८७,११८ नाटकिया नी योगिना नी ३२,१२८ छींडी नी झांझरिया मुनिवर नी लाछल देवी मल्हार आवौ आवौजी मेहले आवंतइ चंद्राउला नी मांहरी सही रे समाणी थारे महिलां ऊपरि मेह झरोखे बीजली हो लाल झरोखे ३८ हंजा मारू हो लाल आवउ गोरी रा वाल्हा फाग त्रिभुवन तारण पास चिंतामणि रे कि झूबखड़ा नी थारै माथै पिचरंग पाग सोना रो छोगलउ मारूजी कर्म हीडोलणइ माई झूलइ चेतन राय (हीडोलणा री ) ४४ कड़खानी ४५ चंवर दुलावै हो गजसिंहजी रो छावौ महुलमेंजी ४६ काची कली अनार की रे हां ४७ वीर वखाणी राणी चेलणा ४८,७२,६४,१५६ कंत तंबाक परिहरो ५०,१४३ फूली ना गीत नी माखी नी प्रोहितिया नी, प्रोहितियारै गले जनोई पाट की रे । ५७,१४८ जिनजी हो हसत वदन मन मोहतउ हो लाल ५८ जे हड़माने मोंजरी ४३ ५६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३ ) ran चौमासौ थे घर आवौ जावइ कहउ राजि कोइलउ परवत घूंधलउ देहु देहु नणदल हठीली संबरदेना गीतनी आज माता जोगणी नै चालो जोबा जइये सरवर खारो हे नीरस नयणा रो पाणी लागणो हे लो आठ टकै कंकण लीयो री नणदी थिरकि रह्यउ मोरी बाँह कंकण मोल लीयउ मेरे नन्दना चउमासियानी हठीला वयरी नी थारे महिलां ऊपर मोर झरोखे कोइली हो लाल कित लाख लागा राजाजी रे मालीयइजी तार करतार संसार सागर थकी अयोध्या हे राम पधारिया बीबी दूर खड़ी रहि लोकां भरम धरेगा ते मुझ मछामि दुक्कड जोसीड़ा नी मोहन सुन्दरी ले गयउ सोरठ देस सुहामण हरिया मन लागउ यत्तिनी गौतम स्वामी समोसर्यां धण री सोरठी मृगनयणी राधाजी रे कंत कहा रति माणि राजि जिनवर सु मेरो मन लीनो नणदल नी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only પૂ ६४ ६६ ६७ ७२ ७३ ७६,८८ ७६,१०६,१६१ ८० ८६,१०४ दह ६१,१७६ ε६,१२० हद ६६ १०१ १०२ १०३ १०५ १०६ १०७ १०६ ११४ १२६ १३२ १३७ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयाला हे भलइ आवीयौ मेरी बहिनी कहि काई अचरिज बात हा चन्द्रवदनी हा मृगलोयण हा गोरी गज गेल fasa भार घणौ छै राजि ( २१४ ) कागलीयो करतार भणी सी परि लिखूं रे पधारो पाटोघर पाटी कंकणा नी दस तो दिहाडा मोने छोड़ रे जोरावर हाडा आवउ गरबे रमीये रूड़ा राम सु रे दल बादल बूढा हो नदीयां नीर चल्या नागा किसन पुरी मुंगफली सी वांरी आंगुली हस्तीतो चढिज्यो हाडा राव कुमकुम माहरा बालमा लटको थारो लोहणी रे राजा जो मिले हो संग्राम राम नै रावण मंडाणो ओलगड़ी तंबोलणि नी होलाई बांभणी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १३६ १४१ १४६ १५१ १५५ १५७ १६४ १६६ १६८ १७२ १७४ १७६ १८४ १६० १६२ १६६ १६६ २०१ २०४ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन शब्दकोष अ अकरार=अशक्ति अकज=निकम्मा, अकार्य अकीकी-लालरंग का पत्थर अक्खरा-अक्षर अखियात अक्षय, आख्यात, आख्यान, कहावत अगल-डगल-अंटसंट अछइ, अछउ है, हो अछीप-अस्पृष्ट अजेस आज भी अटिल-अटल अड़कै भिड़ते हैं अड़-आठ अढारह-अठारह अणख=इर्ष्या, नहीं सुहाना अणदीठी-बिना देखी अणियाला तीखा अथाग=अथाह अदत्तादान-चोरी अनड़-स्वाभिमानी, अनम्र अनुयोग=जोड़ना अनेरी दूसरी अपछर-अप्सरा अपजात-हीन जाति अबीह भयरहित अभ्भटे आभिड़े अभिग्रह-नियम अम=हम अमी-अमृत अमरष=अमर्ष, खेद, प्रचण्ड अमीना हमें अमोलख-अमूल्य अम्हाणी-हमारी अयाण अज्ञान अरइ-आरामें (कालचक्र-६ आरे) अरियण=अरिजन, शत्रु अलजउ-हंस अलवेसर-प्रभु, प्रियतम अलजो=उत्कट अभिलाषा अलूझियो-उलझ गया अलवि-सहज अवगाह ब्याप्त, डुबकी लगाना, __लीन होना अवदात-शुभ, सुन्दर यश अवचल-अविचल, निश्चल अवधारो स्वीकार करो अवर-अपर, और, दूसरे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ CU [ २१६ ] wimmmmmmmmmmmmm अविहड़-अविघट, निश्चय आम-ऐसा अवहटै दूर करता है आराहुंआराधन करता हूँ असाता-असमाधि, अशान्ति आराबा एक प्रकार का शस्त्र अहिनाण=अधिज्ञान, चिह्न, पहिचान आलंबिया अवलम्बित आली-सखी आउल-बांवल, कांटेदार वृक्ष आलइ व्यर्थ आखड़ी-नियम आलि छेड़छाड़ आगेवाण-आगीवान, प्रधान आलोचि-विचार कर आगलै-आगे आसरौ-आश्रय आगल अर्गला आगन्या-आज्ञा इकताईएकत्त्व आचर्या-आचरण क्रिया इवड़ी ऐसी आछदृई छटते हैं आँजु-अंजन डालता हूँ उघाड़ी खोली आडी-पहेली, काम में आना, उछाहि-उत्साह से रुकावट डालना उच्छवक-उत्सुक आडौ-जिद्द, हठ उच्छक-उत्सुक आणी-लाकर उजमाल=उज्वल, तेजस्वी आदस्या-स्वीकार किया उमड़वाट-उजड़ मार्ग आधाकर्मिक-अधोकर्मिक, जो साधु | उंठ साढे तीन के निमित्त बना हो। उदाल-नष्ट करना आन-अन्य उदग्र-जोरदार आपइ-स्वयं, देता है उदव-उलटना आपउदो उद्देशा=अध्याय आफाणी अपने आप उपस्यउ-उपशांत हुआ आंबिलतप-रूखा व अलोना एक उपधान-श्रुताराधनार्थ किया जाने धान्य दिन में एक ही बार खाना वाला तप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाड़िने= उठाकर - ऊपजस्यै = उत्पन्न होगा उंबरा = उमराव उमाही = उमंग, उल्लसित उयर=उदर, गर्भ उलट इ = उल्लसित होना उवंग- उपांग उवावण= उपार्जन उवेख्यउ = उपेक्षित उसन्नउ = शिथिलाचरी ऊठाड़ी उठाकर ऊडेवा= उडने के लिए ऊतावलि - शीघ्रता ऊधरउ = उद्धार करो ऊभी खड़ी हुई ए एकरस्य उ = एक बार एकलड़ा=अकेले एहवउ = ऐसा ओछउ=न्यून ओलग= सेवा ओ ओलइ=ओट, मिस ओसयो = हटना औखाणौ - कहावत अंभ=पानी Jain Educationa International अं [ २१७ ] अंतेउर=अन्तःपुर अंतगड़= अन्तःकृत, अंतिम समय में कार्य सिद्ध कर मोक्ष जानेवाले अदेसउ=आशंका अंदोह = अंदोलन, कंपन क कचोला=प्याला कड़कै = शब्द करना, कड़कड़ाहट कन्है=पास, निकट कड़व= कटुक कड़ा कृता कण=धान्य, कबाण = कमान कमणा= कमी, न्यूनता करड़यो = काटखाया करण= क्रिया करसणी कृषक, किसान अंश कल= अटकल, उपाय कवड़ी = कौड़ी कवियण= कविजन कहर= आफत कन्ता=कान्त, पति कांकर=कंकड़ काँकल=ललकार कागल-पत्र काठौ= दृढ़ काढतौ-निकालते हुए For Personal and Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१८ ] wwwwwwwww काढूँ=निकालूं खमिजे क्षमा करना काण-लिहाज, कायदा, इज्जत खरउन्सत्य कारिमउ-व्यर्थ खाटइभोगता है कारिज कार्य खाणी-खान कासल-कश्मल, पाप खातर खाता बही किंपाक-एक विष परिणामी मधुर | खांतइ-क्षांतिपूर्वक फल | खामीत्रुटि किम कैसे खिजमति-सेवा किराड़े-किनारे खिण-क्षण किसी-कौन सी खिसइ हटता है कीकी आँख की पुतली खीणउ-क्षीण कुढना भीतर ही भीतर जलना खुंद अपराध कुण-कौन खूटि (गयो)=समाप्त ( हो गया) कूकइ-चिल्लाते, पुकारते है खेड़-हांक कर, चला कर कूड़-झूठ, मिथ्या खेह-धूलि कूरम अक्रूर खोड़-त्रुटि केडइ-पीछे खोली-प्रक्षालित कर केरीकी केलवि-प्रयत्न करके, खोज करके | गइन गगन केहना-किसके गड़ां ओले केही कैसी गणपिटक-द्वादशांगी कोड-उत्कण्ठा गंभारे गर्मगृह कोतिल-सजावटी (घोड़े) गमइ-सुहाना कोर-कोने में गमा भेद गरूआ-बड़े खमणाक्षपणक, दिगम्बर गलगलिगद्गद् खमात-सहन होना गवाणी-गायी गई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१६ ] गहकइ-प्रफुल्लित होता है गहगाटइ-उत्साह से, समारोह से गहेली-पागल, गृथिल गाने प्रमाण में गाह-गाथा गीतारथ गीतार्थ, बहुश्रुत विद्वान गुड़े-लुढकता है गुणीयण-गुणी जन गुल-गुड़ गूंगा-मूक, अबोल गोचरी=मधुकरी, भिक्षार्थ भ्रमण गोठ-गोष्ठी चरवी-चरी, बटलोइ | चंदूआ-चंदरवो चंग अच्छा चहुटी-चिपकी, लगी चांपइन्दबाना चारित-संयम, दीक्षा चावो-प्रिय, चाहवाला चीत-चित, चिन्ता, याद चीर वस्त्र, ओढणा चुलसी-चौरासी चूंप=इच्छा, चेष्टा, युक्ति चूरउ-चूर्ण करो चीगटइ-चिकने, स्निग्ध चोला-मजीठ, लाल चौरी-विवाह मण्डप चौसाल होसियार, चतुर घटइ-चाहिए घाठी-घृष्ट, घसी घाणी-कोल्हू घालतां प्रविष्ट करते, लगाते घाल्यो-डाला घालिस-डालूंगी घुरइ-बजते हैं घेटा-मींढा छती रहीहुइ छव्यौ-स्पर्श किया छाजइ-सुशोभित छांडस्युं छोडूंगा छानेगुप्त छावरै छोड़े छाहडी छाया छीपे-स्पर्श करै छेहड़इ अन्त में छोकरवाद-लड़कपन चइन-चैन, आनन्द चउमाल-चमालीस चटकउ-उत्साह चवि-च्यवकर चरण-चारित्त, चर्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोरी लड़की छोरू-लड़का [ २२० । जेर-परास्त, निर्जित जोगता योग्य, योग्यता जोड़इ-समकक्ष जोतरीयां जोड़े गए जोसीयडो-ज्योतिषी जोय-देखना जोवइ-देखता है जइयै-जब जड़ी-मिली जमवारो-भव, जन्म जमवारइ जन्म भर जलहर-जलधर, मेघ जसथंभ-कीर्ति स्तम्भ जाइगा-जगह जागरिका-जागरण जाजरो-जर्जर जाणपन-ज्ञान जाति-जन्म से जाम-जहांतक जाया-जन्मे जपै बोले जात-यात्रा जास्यौ-जाओगे जीत्या-जीते जीमणीन्दाहिनी जीवाडिस्युं जिला दूंगा जूअउ-जुदा जेत-जीत, विजय जेम-जैसे जेहवी-जैसी जैत-जय-जीत झकझोल-झकझोरना, झीलना झखैबकता है झखि झखि-घिस घिसकर झबूक-चमकै झाकझमाल तेज, जगमगाहट झाडो-मंत्र फूक झाली-पकड़ कर झाले पकड़े झील्या-स्नान किया झूलइ-झूलते हैं झूली-डोलना, मंडराना झूझ-युद्ध ट टलवले-उत्सुक, व्याकुल टाढई-शीत से टाढी-शीतल टामक ढोल टालउ दूर करना, टालना टाणे अवसर पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२१ ] ठाणा-स्थान ठवना=रखना, स्थापित करना ठीगो जबरदस्त ठाढी-ठंढी, शीतल ठारू-शीतल करूँ ठावा निश्चित स्थान ढकइ-जंचता है तिरस प्यासा, तृषा तीखी तीक्ष्ण तुमचउ-तुम्हारा तूटैटूट पडै ( आक्रमण) तूठा-तुष्ट हुए तेडनइ-बुलाकर ते तउ-वह तो तेडावी-बुलाकर तेवडउ-मानो, निश्चय करो तेहवउ-वैसा त्रस-चलते फिरते जीब त्रसै-फट जाती है त्राछन्तातड़ाछ से त्रेह-तह, अन्तर में प्रविष्ट होना (पृथ्वी में पानी का) डसीया ( अहि) सर्पदंश डावी-बाँयी डोकरी-बुढ़िया डोहला-दोहद डोल-डोलना डाहला-डालियाँ तक-अवसर तणी की तड़के-धूप में तंत-तत्त्व तडूकी गर्ज कर तरफलै-तडफडै, व्याकुल तलावडी-तलाइ, छोटा सरोवर । तल्पिका-शय्या तागत-बल ताग-यज्ञोपवीत ताणीनइ तानकर, खींचकर .. थकी से थया-हुआ थाटइ ठाठ से थानकइंस्थान में थापइ-स्थापित करे थापी-स्थापित की . थाय-होता है थावर-स्थिर जीव थारउ-आपका थासी होगा थिर-स्थिर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थुड़ वृक्ष का तना; धड़ थुणिया = स्तुति की स्तुति करता हूँ थेट = ठेठ थोभ = स्तम्भ द दड़ीगो= जबरदस्त दमिया = दमन किया दवरक = डोरी दशऊठण = दसोठन, पुत्र जन्म के १० वें दिन का उत्सव द हिस्युं = नष्ट करूंगा, जलाऊँगा दाखवी = दिखाकर दाखविस्यौ = दिखाओगे दाभै=दग्ध हो रहा है दाढगले मुंह में पानी आवे दाव=अवसर दिवाजइ = प्रकाशित दिक्षायें - देखने की इच्छा से दिहाड़ला = दिवस दिसा = दिशि, तरफ दीकरी = पुत्री दीठ = देखा, दृष्टि दीस इ = दिखाई देता है दीदीखते हो [ २२२ ] दुक्कर = दुष्कर दुत्तर = दुस्तर Jain Educationa International दुहेला=दुखदाई दृठ= दुष्ट औ-हटने का आदेश, निकालना, ललकारना दुहवियौ = दुखित किया देवा = देने के लिए देस = देशना, उपदेश देशना= उपदेश देहड़ी = शरीर देहरा = देवगृह, मन्दिर दोगंधक = इन्द्र के गुरु स्थानीय देव दोर डोरी, रस्सी दोरड़ो डोरी दोहिला=दुर्लभ ध घणीयाणी = स्वामिनी, स्त्री धमियउ = तत धरमीण = धर्मात्मा धवलड़ौ - सफेद सवा लागी = प्रविष्ट होने लगी धीणौ धेनु आदि दुधारू पशु धीरप = धैर्य धींगौ= जबरदस्त धुख इ = सुलगता है धुरीण = धुरन्धर, प्रधान धोरी = प्रधान, संचालक, अगुआ धंध= जंजाल For Personal and Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २२३ ] निरूवणा-निरूपण नटी (जावै ) इनकार करें निरान्ति=निश्चिन्त नडैन्नमै निलवट-ललाट नथी नहीं निलौ=निलय, घर नमिया नमन किया निहाली-निहारकर, देखकर नय-जानने का प्रकार, तत्व जानने निहेजा-निस्नेही का साधन निक्षेप-वस्तु सिद्ध करने के प्रकार नवि-नहीं नीगमियइ-निर्गमन करना नानड़ी-बच्ची नीठ-कठिनता से नांखइ=गिराता है नीम नियम नांखंतांडालते हुए नीसरइ=निकले नाठउन्नष्ट हुआ नीसरणी-सीड़ी, निसैनी नाठौ-भग गया नीसाण-उंठ पर बजनेवाली नोबत, नाणइ नहीं लाता है नगाड़े नाणु-द्रव्य नेट अन्तमें नालइनहीं देता है नेम=नियम, त्याग नासंतां-भगते हुए नेहलउ-स्नेह, प्रेम निकाचित=वे कर्म जो भोगे बिना | नैडो निकट न छूटे प निचंत=निश्चित पखालतां प्रक्षालित करते निचोल-निचोड़ पखी-पक्ष, तरफ की निजुत्ति नियुक्ति पगलाचरण पादुका निटुल=निष्ठुर पचखाण-प्रत्याख्यान, त्याग निटोल=निश्चित, व्यर्थ पंजर-पिंजड़ा निबद्ध दृढ़ बंध (कर्म) जो भोगे पटली तख्ती बिना न छूटे पटोलें-पटकूल निरख-दृष्टि पड़वजप्रतिबंध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़हो = पटह पढ़िवत्ति प्रतिपत्ति पडिलाभ्या = प्रतिलाभ्या, साधुओं को दान दिया पडूर=प्रचुर पणयालीस = पैतालीस पणि, पिण=भी पतगरयौ = प्रतीति प्राप्त पतिया = विश्वास दिलावे पती = विश्वास करै पंथीडा = पथिक पन्नता = प्ररूपित, कथित पयंपइ=कहता है पर्यवा= पर्याय परइ = जैसी, तरह, भांति परखियइ = परीक्षा करें परचावे = बहलाता है। परणी = विवाहिता परगडउ = प्रगट परिघल=प्रचुर, बहुत परिख= लो, परखो परीयछ = पड़दा परित्त=असंख्य परूवणा = प्ररूपणा पलाद = मांसभोजी, राक्षस पहुतो = पहुँचा पाउड़ीए = सीड़िएँ, पगथिए [ २२४ ] Jain Educationa International पाउधारउ = पधारो पाउले=चरणों में पाखइ = बिना पाखती = ओर, निकट पाचहीरा, रत्न पाज = पद्या, सेतु पाड-एहसान पांतरे = अन्तर पांति=पंक्ति, जातपांत पादपोपगमन = एक विशेष प्रकार का अनशन पाघरो-सीधा पापड्या = पाले पड़े, धक्के चढ़े.. पामीयइ = प्राप्त करें पामी करी = पाकर पारेवो= कबूतर पारिखो= परीक्षा पालोकड़=पालतू पासत्था = शिथिल आचारी. पाहण= पाषाण, पत्थर पिचरकी = पिचकारी पीठ = पैठ पीधी-पान की पीलण = पीलना पूठा = पीछा पूठली = पिछली पूरउ=पूर्ण For Personal and Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२५ ] पूरवइ-पूर्व दिशा में, पूर्ति करना पूरस्यइ पूर्ण करेगा बकोर-शोर, हल्ला पूरेस्यै पूर्ण करेगा, भरेगा बटका टुकड़ा पेसी-प्रवेश कर बणस्यै बनेगी पैसतां प्रवेश करते वधत=वृद्धि पोइण-पद्मिनी, कमलिनी बहिराव्या दान दिया,अर्पित किया पोतानी-अपनी बारसद्वादसी पोतानउ-अपना बांकडी-टेढ़ी पोपट-शुक बारणेद्वार पर पोरस, पोरस्स-घोरुष, बल, पुरुषार्थ बांची-पढ़कर प्रभावना ख्याति बाडी-बाटिका प्रयुंजइप्रयुक्त करते हैं बाधइ=बढ़ता है प्रहरण-हथियार बाधइ बाधा देना प्राहुणा मेहमान, पाहुने बाजे-लगना बाबइयै पपीहा फरस्या स्पर्श किया बारद्वार फलस्यइ-कलेगी बांभण-ब्राह्मण फाटै (मुंह)=खुले मुंह बापडा-विचारे फाटै (हृदय )=(हृदय) फटता है बिंब प्रतिमा फिटक रयण स्फटिक रन बिभाड-विभाजक फीट-नष्ट होते हैं बिवणी दुगुनी फटरा-सुन्दर बिहूणा-रहित फूभौ=फैल (रूई का) बीटाणउ वेष्टित फेट-फंदा बीजा दूसरा फेटि-सम्बन्ध बीझाय-व्यंजित होना फेड्या-दूर किया बीहती-डरती हुई फेरवी धुमाकर, घुमाई | बूठावृष्टि हुई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२६ ] होगा बूडो-डूब गया भावइचाहे, भले ही बेउन्हो भासइ-कहता है बैसो बैठो भीडीयउ-दुखित बोलाइ-डूबना भुंइ=पृथ्वी बोहइबोध देते हैं भंडी-बुरी ब्रजस्यइ-चलेगा, जायगा, वर्जित भेटा=भिडना, मिलाप भेट्या=मिला भोडलोबुद्धू , भोला भंजउ भांगो, भांगते हो, दूर करते हो भोलइ भूलकर भड-भट, योद्धा भोलवी भूलाकर भणी-को भज्यउ भजन किया मउज-सुख भरड़ाक-तुरन्त मग-मूंग भलाव-संभालना मच्छर=मात्सर्य भलेरी-अच्छी मछरालोजोरावर भवियां भव्य जीवों का मछराला-गुमानी भमता भ्रमण करते मटकार नेत्रों का सौम्य कटाक्ष भरेज्यो-भरना मटकउवणाव भांगा-भेद मण्ड्यउ छिड़ गया भाउम्भाव मंडावै=(मकान) बनवाता है भणवा-पढ़ने के लिए मल्हार=प्रिय भाणी-सुहाइ मलपइप्रस्त, आनन्द करता भाणी पसन्द आइ महियलमहीतल, पृथ्वी में भामणि=भामिनी, स्त्री माज-इज्जत भारणि=भारी माठी-बुरी, निकृष्ट भामणा वारणा लेना माठो=जुरा भावठ-संकट मांडिस्युं करूँगा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२७ ] मांडी-विगतवार मुंहड़इ=मुख से माणुंभोगू मूओ-मर गया माणे-भोगे मूकाय=छोडा जाना माण=पान मूकइ छोड़ता है माणसां मनुष्यों को मूझाणी-उलझन माण-मान मूझि-मुग्ध होकर मातो मत्त मूलिका=उखाड़ने वाली मानीता-मान्य मेटि-मिटाओं माम=अहंकार मेनिक-मछ वा माम सम्मान मेलिस्यइ-लगावेगा मारकी हिंसक मेलं छोडूं माल्हुँ मौज करू मेल्हि छोडो मावै समावै, अटै मेहडा मेघ मावीत्र-माता-पिता मोटिम महत्ता मावीत माता-पिता मौड-मुकुट माहोमा हि =परस्पर मोनइ-मुझे माहरा-मेरे मोरा-मेरा मिसि-बहाने मोरियउ मुकुलित हुआ मिशबहाना मोसा-ताना मीचिया=मुंद लिये, बन्द कर लिये मोहणी मोहिनी मीट दृष्टी मोहनगारउ=मोहित करनेवाला मीता मित्र य मीनति-बीनती, प्रार्थना यानी (जानी) बाराती मुद्गशेलिकमगसिलिया पाषाण युगतइ-युक्ति पूर्वक __ (हरे रङ्ग का एक रूखा पत्थर) मूध-मुग्ध, मूढ़ रंगरेल हर्ष मुलक=मुस्कराहट रङ्गाणी-रङ्गी हुई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२८ ] mmmmmmm रज्जु-रस्सी रन्न-अरण्य रमिया-रमण किया रयणरत्न रयणा-रचना रलियामणा-सुन्दर रलियालउ सुन्दर राखउ रक्षा करो राखेवा रखने के लिए .. राची रंजित होकर रा-मोटीडोर, रंदू रातो-रक्त, रचा हुवा रामति खेल रास-राशि, समूह रीझवइ-रिझाते हैं, रंजन करते हैं रीव-चिल्लाहट रीस रोष रू-रूई रूंखड़ा-वृक्ष रूठारुष्ट हुए रूडा=अच्छा रूवडी अच्छी रूहिर-रुधिर, रक्त रेलि-प्रवाह रेह-रेखा रोवराविया रुला दिया . लगइ-पर्यन्त लटकउचाल लंछन-चिह्न ललना-लाल, लालन लच्छि-लक्ष्मी लबधि-लब्धि, २८ प्रकार : तपस्या से प्राप्त आत्म-शक्ति लपटाणा लुब्ध लखाय-लक्षित होना लसाय-लिप्त लवन छेदन, काटना लगारलेश ललि-ललि-जमन कर लाग-अवसर लांघेउल्लंघन करे लाछि-लक्ष्मी लाड-प्यार लाडिली=प्रिय, प्यारी लाधी-मिली लांबौ-दीर्घ लार=साथ, पीछे ल्यावइ लाता है लाव-लेना लाहइ-लाभ लाहउ-लाभ लीणो=लीन हुई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२६ ] लीधउ लिया लूखो रूखा लूवरि लू लेखवइ-गिनती लेखइ हिसाब से लेवा लेने के लिए लोयण-लोचन, नेत्र वई अवस्था, वय वईयर-स्त्री वउलावतां भेजते, लौटते वखाण-व्याख्यान वछ-वत्स वज्जणबजने के वडम-महती वनवर्ण वमिया वमन किया वयणवचन वरसाला-बरसने वाला वलू-बलवान वलि=फिर वल्या-लौटा व्यवहारी व्यापारी वसीला निवासी वहियइवहन किया -वहिला-शीघ्र -वाइवायु करना वाचवचन वाचनाचाक्य, परम्परा, वांचन वाची-पढ़ कर वाधइ बढ़ता है वाटला-कटोरा, वाटका वाणोत्तर-वाणिज्य करने वाला, गुमास्ता वातडी-वार्ता वारू-सुन्दर वारेवौधारण करना वालंभ-बल्लभ , वाल्हाबल्लभ वालेसर वल्लभ, प्रियतम वावत-बजाते हैं वावरैच्यय करता है वासना=बांध वांसपीछे वाहला=जल प्रवाह विगताली=पिछली विगोवइनष्ट करता है विचरइ-विचरण करता है। विछूटो-वियोग (जीव विछूटो मरना) विज्जल-विजली वौंद-वर वींदणीवधू विमासण-विमर्श Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६० ] विषहर विषधर, सांप संकलिया=संकलित हुए विहरमान=विचरते हुए सगवट-रूपक विचरता=विचरते हुवे संघातइ-साथ में विकरवीक्रिय लब्धि से उत्पन्न संघाते साथ में कर के सर्दहै श्रद्धा करता है विरूओ-विरूप, विद्रूप संपै-संपजै, सम्प्राप्त हो विरचइ विरक्त होना सभावइ-स्वभाव से विरहण-विरहिनी समबड-समान, समकक्ष विलूधो-विलुब्ध समुद्दे शा=अध्याय का एक भाग विहडै विघटित होना समवाय समूह विह-त्रकार . समय=सिद्धान्त वेडं-छिद्र समास-प्रकरण वेगलऊ-दुर समकित=सम्यक्त्व वेढ-युद्ध समाणी=समान, समाविष्ट होना वेलू-बालूका समियउ-शान्त हुआ वेधालेवेधक समूर्छिम स्वतः उत्पन्न जन्तु वेगलादूर स्युं क्या वोली-बीती सरजित-कर्म, भाग्य सरिस्यइ-सरेगा, सिद्ध होगा सइमुखसम्मुख सरिखा-समान सइण-सज्जन सलहै सराहना सइन-स्वयं, साथ, सज्जन संलेहण=संलेखना सइहथ अपने हाथ से सलहेस-सराहना सकज-काम का सलूणा=सलोने, सुन्दर संगहणो संक्षिप्तसार सवार-सवेरा सगला-सभी संसत्तउ-शिथिलाचारी संकलि-जंजीर | संसरण-संसार, सांसारिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सशहर = चन्द्र ससनूर = विशेष सुन्दर सहगुरू =सद्गुरु सहीयर = सखि सहिनाणी = चिन्ह, लक्षण सहेजा = प्रीतिवाले साकर = मिश्री साँक = शंका सागी - सगा साच = रक्षा करता है साधइ = सिद्ध करता है सांभलो ध्यानपूर्वक सुनो सांभरिया =स्मरण किया सामेलो = स्वागत साहमी = स्वधर्मी साम्हो = सामने सामुही= समक्ष सायकाण सायर=सागर साल-सल्य सारेवौ = सुधारना सारै=भरों से - सालै = खटके साव सर्व बिलकुल > - सासय-शास्वत 'शासता = शास्वत साह = साधन करना Jain Educationa International [ २३१ ] साही= पकड़कर सिलोक - श्लोक सिझाय= स्वाध्याय सिमातर = शय्यातर ( साधु जिसके घर ठहरे हो वह व्यक्ति सीइ = सिद्ध हो सीकसी = सिद्ध होगा सुइवो = शयन करना सुकलीणो = कुलीन सुकियारथर = सुकृतार्थं सुजगीस=अच्छी सुजान= सुज्ञानी सूतार = सूत्रधार, मिस्त्री सूँघा = सुगन्धित सुयक्खंध=श्रुतस्कंध संसत्याग सुहां = सुभटों में सुहणा = सपना सूअटो-शुक सूकइ = सूखता है संपीया= सौंपें सुविहित= सुव्यवस्थित सुहंकर =शुभंकर सुहामणी = सुहावनी सूल अच्छी तरह सेष काल = चातुर्मास के अतिरिक्त का समय For Personal and Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेजडी = शय्या सेजवाला वाहन विशेष सेभ = शय्या में सेलडी - ईख सेहरो=शेखर, मुकुट सोगी = शोकीले, दुख्खी सोढोर, साथी, नायक ( राजपूतों की एक जाति ) सोरंभ=सौरभ, सुगन्ध सोवन= स्वर्ण सोस = सोच सोहग= सौभाग्य सोहन = शोभन सोह= शोभा [ २३२ ] ह हलवे हलवे = धीरे-धीरे हंसलउ = हंस हाथ मुकावण=हथलेवा छुड़ाना Jain Educationa International हाथ मेला - हस्त मेलापक हाम= स्वीकृति, हैंकारा हिलोल्यउ = आन्दोलित हिंडोलणा= हिडोला, झूला हित्यउ = हितेषी हिब अब हिवणा=अब ही उ-हीन ीणों-रहीत ही चिता भूलते हुए हीर = हीरा हीडा = हृदय ही संत हर्षित होता है हू स=उमंग हुतउ, हतउ=था प्रेम, स्नेह हेजालू = प्रेमी ठ-नीची हेल इ = सहज For Personal and Private Use Only Page #296 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