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विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि श्री जिन प्रतिमा स्वरूप निरूपण स्वाध्याय
। दूहा ॥ विपुल विमल अविचल अतुल, निस्तल केवलज्ञान । तास प्रकाशक चरम जिन, मन धरि तेहनउ ध्यान ||१|| जिन प्रतिमा वंदन तणउ, हिव कहिस्युं अधिकार। जे निर्गुण मानइ नहीं, तेहनइ पड़उ धिकार ।।२।। अभव छेदक भाव थी', लख्यउ न जायइ दंभ । संमूर्छिम कपटी तणउ, क्षण ऊतरस्यइ अंभ ॥३॥ शास्त्र तणी युगति करी, सद्गुरु भाषइ तास । कुमति वास में तुं पड्यउ, किसी मुगति नी आस ॥४॥ अरे दुष्ट बुद्धि विकलर, किम निदइ जिन बिंब । अंब सपल्लव छोड़ि नइ, किम भजइ तु निंब ।।५।। जिन प्रतिमा निश्चय पणइ, सरस सुधारस रेलि । चिन्तामणि सुरतरु समी, अथवा मोहनवेल ।।६।। नेह विना सी प्रीतड़ी, कण्ठ बिना स्यउ गान । लूण बिना सी रसवती, प्रतिमा विण स्यउ ध्यान ॥७॥ हेज दिदृक्षाये धरइ, जिन मूरति नउ संग । ते नर जस सांप्रति लहैं, जेहवा गंग तरंग ।।८।। तीर्थ कर पिण को नहीं, नहीं को अतिशय धार । जिन प्रतिमा नउ इण अरइ, एक परम आधार ।।६।।
१-व्यक्ति युक्ति नै निरखता २-निठुर ३-दीपक विण मन्दिर किस्यउ ४-दृष्टं इत्यादि दृक्षातया
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