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________________ श्री दुर्गति निवारण सज्झाय श्री दुर्गति निवारण सज्झाय ढाल - बीबी दूर खड़ी रहि लोकां भरम घरेगा सुगुन सहेजा मेरा आतम, तेरी शुभ मति जागी । सहज संतोष मन्दिर में मोह्या, मुगति वधू रस लागी ||१|| दुर्गति दूर खड़ी रही, तेरा काम नहीं है । अकणी ॥ शम दम दोऊ अजब झरोखे, तेज प्रदीप बनाया । धर्म ध्यान का लाल दुलीचा, नीच खूब बिछाया ||२|| दु०|| समकित तख्त क्षमा का तकिया, मंडप शील सुहाया । हह ज्ञान छत्र चामर चारित गुन, परम महोदय पाया || ३ || दुः || शुचि सुगंधता परिमल महके, सुरुचि सखी मन भाया । उपशम पुत्र सुलच्छन सुन्दर, आतम नृप घरि आया || ४ || दु०|| ए विलास सब मुगति रमनि के, छिन छिन में सुखकारी । सोहागिन से रंग लग्यो तब, तुझ से दृष्टि उतारी ||५|| दु० || तँ तो दुर्गति दुष्ट दुहागिन, लोकन से लपटानी । पर प्रपंच सुत अरुचि सखी के, संगइ तोहि पिछानी || ६ || दु०|| अति दुर्गन्ध अशुचिता प्रगटे, निरगुनता से लीनी । तेरो संग करे सो भूरख, तूं तो बहुत दुखीनी ||७|| दु०|| समता सायर मेरो आतम, ज्योतिवंत अविनाशी । परमानन्द विलासी साहिब, सज्जनता प्रतिभासी ||८|| दु० !! मुगति प्रिया रस भीनो अहनिश, दुर्गति दूर निवारी | विनयचन्द्र कवि आतम गुन से, होइ रहे अधिकारी ॥६॥ दुः|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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