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[ ४२ ] वाराणसी से मकरध्वज का पत्र लेकर एक दूत उपस्थित हुआ, जिसमें अत्यन्त प्रेम पूर्वक लिखा था-'बेटा! तुम्हारे जाने के बाद हमने चारों ओर बहुत खोज की पर तुम्हारा कोई पता नहीं लगा। अब तुम शीघ्र आकर हमारा हृदय शीतल करो। मैं अब वृद्ध हो गया अतः तुम राज-पाट सम्भालो ताकि मैं . आत्मकल्याण करूँ।
पितृ आज्ञा पाकर उत्तमकुमार का हृदय शीघ्र उनके चरणों में उपस्थित होने को उत्सुक हो गया। उसने मन्त्री लोगों को राज्य भार सौंप कर अपनी चारों स्त्रियों को लेकर सैन्य सहित वाराणसी के प्रति प्रयाण कर दिया। मार्ग में चित्रकूट जाकर राजा महासेन से मिला जिसने पूर्व निश्चयानुसार उत्तमकुमार को राज्याभिषिक्त कर स्वयं संयममार्ग स्वीकार कर लिया। उत्तमकुमार कई देशों में अपनी आज्ञा प्रवर्तित कर सैन्य सहित गोपाचलगिरि की ओर बढ़ा। वहीं के राजा वीरसेन को खबर मिलते ही चार अक्षौहिणी सेना के साथ सीमा पर आ डटा । परस्पर घमासान युद्ध हुआ, कवि ने १०वीं ढाल में युद्ध का अच्छा वर्णन किया है। अन्त में वीरसेन पराजित होकर जीवित पकड़ लिया गया। उसके आधीनता स्वीकार करने पर कुमार ने उसे छोड़ दिया। अपनी पराजय से वैराग्यवासित होकर उसने एक हजार पुरुषों के साथ सुविहित आचार्य युगन्धरसूरि के पास चारित्र ग्रहण कर लिया। थोड़े दिन बाद मार्ग के अभिमानी राजाओं को वशवर्ती कर उत्तमकुमार वाराणसी पहुंचा। उसके
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