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श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई ११३ नरक महल चढिवा भणी, नीसरणी सम परदार रे। अकलंकित तनु जेहनो, वलि कनकाचल सम धीर रे॥६॥वा० सहज सलूणो कुमर जी, सायर री परि गंभीर रे। गमन निवारै जाणि नै, देखी अति गहन विचार रे ॥१०॥वा० कला बहुत्तर आगलो, दाता ज्ञाता जिम सूर रे। प्रसिद्धि भलेरी जगत मां,जस अधिको प्रबल पडूर रे।।११शावा० खेल करै निशि वासरै, मन मेलू लेई संग रे। विषमा अरियण अवहटै, ए राजवीयां रो अंग रे ।।१२।।वा० दीन हीन ने ऊधरै, दुखीयाँ केरो प्रतिपाल रे । विनयचन्द्र कहै एतलै, पूरी थई बीजी ढाल रे ॥१३॥ वा०
दहा सोरठा सुख विलसतां तेम, निशि भर कुमर इसी परें। एक दिन चित एम, तरुण थयौ हिव हुं सही ॥१॥ तौ स्युं बैठो आम, परवशि थई मुधा परे।
ए कायर नु काम, घर सूरा किम थईयई ॥२॥ यत :-गुण भमतां गुणवंत नै, बैठां अवगुण जोय ।
वनिता नै फिरिवौ बुरौ, जो सुकलीणी होय ।।३।। खाटी लखमी जेह, बाप तणी किम विलसीयै। तौ नहीं ए मुझ देह, जउ मन चिंत नवि करूं ॥४॥ इम मन मां आलोचि, हाथ खड़ग ले उठीयौ। कीयौ न काइ सोच, स्वजन तणौ तिण अवसरै ।।५।। चाल्यौ होइ निचंत, ते परदेशैं पाधरौ। खरी आणी मन खंत, कुमर परीक्षा कारण ॥६॥
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