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विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि
ढाल-(३) धण री सोरठी लांधै विषमी चालतां होजी, वाट अनड़ वर वीर, प्रबल पराक्रमी । धरम धुरंधर धीर प्र० महीयल शोभा आक्रमी होजी,
गुण निधि गुण गंभीर ; १ प्र० सूर तपै सिर ऊपरै होजी, लू पिण भेदै अंग, खलहल खलकती। तिहां पणि उतरै ढलकती होजी, नदियाँ परवत शृङ्ग ; २ ख० सुख दुख पामै ते सहै हो जी, कौतकियां नो राव । मलपई मन नी रली, तो पणि सुविशेष वली होजी,
देखी खेलै दाव ; ३ म० तिहां किण आवै पंथ मां हो जी, अटवी एक अपार । सरस सुहामणी, घणी तिहां सरवर तणी होजी,
लहिर सदा सुखकार , ४ म० अवलोकै रन वन घणा हो जी, तरुवर नौ नहिं ग्यान । नयणां निरखती, जाण कि अमृत वरषती होजी,
कुमर तणी तिण ठाम ; ५ न. किहां किण कमल तणी भली हो जी, कलियां अति सोरंभ; विहसै विकसती, नानी मोटी निकसती होजी,
करती वडो रे अचंभ ; ६ वि० अनुक्रमि नियत प्रमाण मां हो जी, लांघे ग्राम अनेक ; दीपै दिनमणी, मन मांहे धीरप घणी हो जी,
___ संगि न कोई एक ; ७ दी०
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