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द्वितीय प्रकाशः
॥ दहा ॥ हिव समरूं श्री सिद्धपद, जेहनौ सबल प्रभाव ; आतम तत्व विचार नै, ग्रहस्यु गुण सद्भाव ; १ बीजै अधिकारै सहु, सांभलिजो वृत्तान्त ; विकथा वैर विरोधथी, थाज्यो भविक प्रशान्त ; २. कमर कहै कुमरी भणी, हिव तो हुन रहेस ; वैरी नो थानक तजी, जास्यु देश विदेश ; ३ कूड़ कपट बहु केलवै, राक्षस नी अपजात ; तिण कारण हुँ चालस्यु, सो बाते इक बात ; ४ तुं रहिजे इण थानकै, मुझ नै दे हिव सीख ; तदनंतर कुमरी वदै, हुं छु तुझ सरीख ; ५ स्यानै राखै छै इहां, स्यु रहिवा नौ काम ; हुं छाया जिम ताहरै, कहिवौ न घटै आम ; ६ कर सेती करजोडि नैं, जे नर दाखै छेह ; तेहनै भलो न को कहै, हेज विहूणा जेह ; ७
ढाल (१) मेरी बहिनी कहि काई अचरिज बात, एहनी जिण दिवस हुं तुझनै मिली, कीधो वीवाह विचार ; तिण दिन थकी मांडी करी, कीधी मैं इकतार ; १
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