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अतः मुझे पिता द्वारा उपार्जित लक्ष्मी का उपभोग न कर भ्रमण के हेतु निकल पड़ना चाहिये । वह देशाटन की उमंग में स्वजनों की चिन्ता छोड़कर हाथ में तलवार लेकर अपने भाग्य परीक्षा के हेतु प्रवास में निकल पड़ा । वह कितने ही जंगल, पहाड़ और नदियों को पार करता हुआ कौतुकवश धूप और लू की गर्मी में सुख-दुख सहन करता हुआ आगे बढ़ता ही गया। उसे कहीं तो भयानक अटवी मिलती तो कहीं हरे भरे वृक्ष और लहराते हुए सुन्दर सरोवर जहाँ कमलों की सौरभ मस्तिष्क को ताजा बना देती । अनुक्रम से अनेक ग्राम नगरों को उल्लंघन करता हुआ उत्तमकुमार मेवाड़ देश की राजधानी चित्तौड़ जा पहुँचा । यहाँ का राजा महासेन प्रबल प्रतापी और समृद्धिशाली होने के साथ साथ धर्मात्मा भी था । सब प्रकार से सुखी होने पर भी राजा सन्तान सुख से वंछित था । दैव की गति विचित्र है, कवि कहता है कि
" सुखिया देखि सकै नहीं, दोषी दैव अकज्ज संपति तो सुत नहीं, इण परि करें निलज इक अवनीपति सुतबिना, वलि वैस्यां में वास
नदी किनारे रूखड़ा, जद तद होइ विणास "
राजा ने सन्तानोत्पत्ति के लिए पर्याप्त उपाय किये पर वह असफल रहा। एक दिन वह वन में घूमने के लिए सपरिवार मन्त्री आदि को साथ लेकर निकला । राजा नीले घोड़े पर आरूढ़ था, उसने गुण लक्षण सम्पन्न घोड़े की बार-बार गति
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