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[ ६३ ] भंग होते देख कर मंत्री से पूछा-इस घोड़े की किशोर वय में यह दशा क्यों ? राजा के बार बार पूछने पर भी मंत्री आदि कोइ भी जब उसकी जिज्ञासा का समुचित उत्तर न दे सका तो राजा को कष्ट होते देख उत्तमकुमार ने आकर कहा-प्रभो! मैं परदेशी हूं, पर अपनी मति के अनुसार बतलाता हूं कि इसने भैंस का दूध बहुत पिया है, वह वायुकारक होता है इसी से इसकी गति में चंचलता नहीं है । राजा ने कहा-वत्स! तुम बड़े ज्ञानी हो, तुमने कैसे जाना ? वस्तुतः यह अश्व बाल्यकाल में मातृविहीन हो गया तब इसका ऊपरी दूध से ही पालन पोषण हुआ था। उत्तमकुमार के अश्वपरीक्षा-ज्ञान से प्रभावित होकर राजा ने कहा-बेटा ! इतने दिन मैं निःसन्तान था अब तुम भाग्यवश आ मिले तो यह सब राज पाट सम्भालो, लक्षणों से तुम राजकुमार ही लगते हो। अतः निःसंकोच राज्य भार ग्रहण करो। मैं ज्ञानी गुरु के पास दीक्षित होकर आत्म-साधन करूंगा। उत्तमकुमार ने कहा-अभी तो मैं प्रवास में हूँ, लौटते समय आपके चरणों में उपस्थित होऊँगा।
उत्तमकुमार चित्तौड़ से अकेला चल पड़ा और कुछ दिनों में मरुच्छ ( भरौंच ) जा पहुँचा। दर्शनीय स्थानों का अवलोकन करते हुए वह मुनिसुव्रत भगवान के मन्दिर में पहुँचा और पूजा स्तुति द्वारा अपना जन्म सफल किया। फिर सरोवर के तट पर जाकर बैठा तो पनिहारिन लोगों से सुना कि कुबेरदत्त व्यवहारी पांचसौ प्रवहण भर के आज ही समुद्र यात्रार्थ रवाने
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