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________________ [ २४ ] हो रहा है। कौतुकी उत्तमकुमार भी सांयात्रिक की अनुमति लेकर प्रवहण पर आरूढ़ हो गया। शुभ मुहूर्त में प्रवहण चल पड़े, कुछ दिनों में पीने का पानी समाप्त हो जाने से जल-संग्रह करने के लिए शून्य द्वीप में जहाज रोके गए। सब लोग जब पानी की खोज में उतरे तो भ्रमरकेतु नामक राक्षस अपने साठ हजार साथियों के साथ आकर लोगों को पकड़ कर तंग करने लगा। साहसी उत्तमकुमार तुरन्त द्वीप में उतर आया और ललकार कर अकेला ही राक्षस सेना के साथ युद्ध करने लगा। उसने जिस वीरता के साथ युद्ध किया, भ्रमरकेतु कायरतापूर्वक भग गया और उसकी सेना तितिर-बितिर हो गई। राक्षस को जीतकर उसने समुद्र तट पर जाकर देखा तो सारे जहाज रवाना हो चुके थे। कुमार ने सोचा-'लोग कितने स्वार्थी और कृतघ्न होते हैं ? दूसरे ही क्षण मन में विचार आया कि विचारे भयाकुल होकर भग गए, इसमें उनका कोई दोष नहीं, मेरे पूर्व जन्म के पापों का उदय है । इसके बाद उसने एक वृक्ष पर ध्वजा बांध दी जिससे किसी यात्री-जहाज को दूर से उसकी उपस्थिति मालूम हो जाय। वह भगवान के भजन करता हुआ फलाहार से अपना निर्वाह करने लगा। __एक दिन द्वीप की अधिष्ठातृ देवी ने कुमार के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उससे बहुत ही अनुनय पूर्वक प्रेम याचना की। कुमार ने कहा-माता तुम देवी हो! मैं परनारी सहोदर हूँ ! मेरे से तुम्हारा किसी भी प्रकार कार्य सिद्ध नहीं होगा। अतः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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