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१६० विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि मेदनीपति तिहां जाणियै जी, व्यसनवारक नरवर्म ; परम जिनधरम नै आदरै जी, अवर जानै सहु भर्म ; ११ सात खेत्रे वित्त वावरै जी, छावरै मोस नै मर्म ; शीतल चन्द्रमा सारिखौ जी, निज प्रजा ऊपरि नर्म ; १२ ध्यान जिनवर तणौ मन धरै जी, साचवै जे षट कर्म ; ईति उपद्रव दहवटै जी, जेम छाया धन धर्म ; १३ ढाल नवमी रमी हीयड़े जी, अवल बीजै अधिकार ; न्याय राजा करसो भलो जो, विनयचन्द्र इकतार ; १४
॥ दूहा ॥
दरबारै आवै हिवै, सेठ स्त्रो ले साथ ; पेसकसी आगलि करी, प्रणम्यो अवनीनाथ ; १ माह महुत्त घणौ दियौ, राजायें तिणवार ; सुख साता पूछी कहै, वयण एक सुविचार ; २ सांभलि सेठ प्रवृत्ति शुभ, कुण नारी छै एह ; सर्वाभरण विभूषिता, सुभगाकार सुदेह ; ३ सेठ कहै ए मई संग्रही, जिहां छइ चन्द्रद्वीप ; पति सायर मां पडि मूओ, ए छै हजी अछीप ; ४ ए माहरी ग्रहणी हुस्यै, अनुमति द्यौ महाराज ; कहीय न हुवै अन्यथा, राज समक्ष काज ; ५
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