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[ ३३ ] के प्रभाव से दान पुण्य करती हुई सती स्त्रियोचित नियमों का पालन करती हुई काल निर्गमन करने लगी। उसने स्नान, शृंगारादि का त्याग कर दिया और प्रतिदिन नीरस आहार का एकाशना करके भूमि शयन स्वीकार कर लिया। वह पुरुष मात्र की ओर नजर उठाकर भी नहीं देखती एवं निरन्तर नवकार मन्त्र का स्मरण किया करती थी।
एक दिन धीवर लोगों के साथ उत्तमकुमार भी मोटपल्ली आया और नगरी का अवलोकन करता हुआ जहाँ राजा नरवर्मा अपनी पुत्री के लिए प्रासाद बनवा रहा था, वहाँ आकर देखने लगा। कुमार वास्तुशास्त्र में निष्णात था, उसने स्थान-स्थान पर सूत्रधारों से वास्तु-दोष सुधारने के लिए निराभिमानता से उचित परामर्श दिये जिससे प्रसन्न होकर सूत्रधारों ने कुमार को अपने पास रख लिया। कुमार के सान्निध्य से थोड़े दिनों में वह सुन्दर प्रासाद बन कर तैयार हो गया।
एक बार राजा नरवर्मा प्रासाद निरीक्षणार्थ आये, वे उत्तमकुमार को उच्चासन पर बैठे देखकर सोचने लगे कि यह रूप और गुण से राजकुमार मालूम होता है। उन्होंने कुमार से परिचय पूछा तो उसने कहा-राजन् ! मैं परदेशी हूं और आपके नगर में निवास करता हूं। राजा महल देखकर चला गया । वसंत ऋतु थी वन-वाटिका की शोभा अवर्णनीय थी, कवि ने ढाल १३वीं में वसन्त ऋतु का अच्छा वर्णन किया है। राजकुमारी भी क्रीड़ा के हेतु बगीचे में आई, उसे साँप डस गया। सर्वत्र हाहाकार छा
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