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________________ [ ३२ ] लूंगी। सेठ भी मदालसा के इन वचनों से संतुष्ट हो गया। वृद्धा ने मदालसा के चातुर्य की प्रशंसा की। सेठ के जहाज जब उल्टे मार्ग चलने लगे तो मदालसा ने पवन-रत्न की पूजा की जिससे अनुकूल वायु द्वारा जहाज मोटपल्ली वेलाकुल के तट पर आ लगे। यहाँ का राजा नरवर्म बड़ा धर्मात्मा और न्यायप्रिय था। मदालसा को लेकर सेठ राजसभा में पहुँचा और राजा को भेंट पुरष्कार से प्रसन्न करके निवेदन करने लगा-राजन् ! मुझे यह महिला चन्द्रद्वीप में मिली है, इसका पति समुद्र में गिर कर मर मया यह पवित्र है और आपकी आज्ञा से मेरी गृहिणी बनेगी। मदालसा ने कहा-मूर्ख ! क्यों मिथ्या अंट संट बकता है, अगर राजा न्याय करे तो तुम्हारे दाँत तोड़ दे। उसने फिर राजा को सम्बोधन कर कहा-महाराज ! इस पापी ने मेरे पति को समुद्र में गिरा दिया है, मैंने अपनी शील रक्षा के हेतु इसे भुला कर आपके सामने उपस्थित किया है अब आप जैसे महापुरुष अन्याय नहीं करेंगे क्योंकि वैसा होने से मेरु पर्वत कम्पायमान हो जाय एवं पृथ्वी पाताल को चली जाय । अतः दुष्ट को यथोचित शिक्षा दें। राजा ने क्रुद्ध होकर समुद्रदत्त के पांचसौ जहाज जब्त कर लिये और मदालसा से कहा-बेटी ! तुम मेरी पुत्री त्रिलोचना के पास उसकी बहिन की तरह आराम से रहो। चिन्ता छोड़कर दान पुण्य करती रहो। यदि किसी तट पर तुम्हारा पति पहुँचेगा तो उसका अनुसंधान करवाया जायगा। मदालसा को राजा ने धर्मपुत्री करके माना। वह पंच रत्नों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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