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________________ ६६ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि आश्रव द्वार पाँच इहाँ आण्यां, पांचे संवर द्वारा । महामंत्र वाणी मां लहीयर, लबधि भेद सुखकारा ||४|| To सुक्खंध एक दशमइ अंगइ, पणयालीस अज्झयणा | पणयालीस उद्देश वलीपद, सहस संख्यात नी रयणा ||५|| जे नर सूत्र सुणइ नहि काने, केवल पोषड् काया । माया मांहि रहर लपटाणा, ते नर इम ही जाया ||६||०|| सूत्र मांहि तर मार्ग दोइ छइ, निश्चय नइ व्यवहारा । 'विनयचन्द्र' कहइ ते आदरीयइ, तजिमद मदन विकारा ||७|| आ० ॥ इतिश्री प्रश्न व्याकरण स्वाध्यायः ॥ (११) श्रीविपाकसूत्र सज्झाय ढाल -तार करतार संसार सागर थकी, एहनी सुणउ रे विपाक श्रुत अंग इग्यारमउ, तजउ विकथा वृथा जे अनेरी । ललित उवंग जस प्रवर पुप्फचूलिका, मूलिका पाप आतंक केरी ॥ १ ॥० ॥ अशुभ किंपाक सम दुकृत फल भोगवी, नरक मां गरक जे थयां प्राणी । सुकृत फल भोगवी स्वर्ग मां जे गया, Jain Educationa International तास वक्तव्यता इहाँ आणी ||२||०|| दो श्रुतखंध नइ वीस अध्ययन वलि, वीस उद्देस इहाँ जिन प्रयुं जइ । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003819
Book TitleVinaychandra kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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