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ग्यारह अंग सज्झाय
सहस संख्यात पद कुन्द मचकुन्द जिम,
सरस चंपकलता सुरभि सहु नइ रुचइ,
बहुल परिमल भ्रमर चित्त गुजइ ||३||०|
अन्य उपगार नी बुद्धि माटर |
सूत्र उपगार तेहथी सबल जाणियइ,
बंध नइ मोक्ष ना बेउ कारण अछ,
जेहथी पुरुष सुख अचल खाटइ ||४||०||
दुकृत नइ सुकृत जोअउ विचारी ।
दुकृत नः परिहरी सुकृत नइ आदरी,
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म करि रे म करि निंदा निगुण पारकी,
जिन वचन धारियइ गुण संभारी ||५||सु०
नारकी तणी गति कांइ बंधइ ।
मारकी प्रकृति तजि सहज संतोष भजि,
सुख अनइ दुक्ख विपाक फल दाखव्या, अंग इग्यारमइ चिर जय वीर शासन जिहां सूत्र थी,
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लागि श्रुत सांभली धर्म धंधर || ६ ||सुः ||
वीतरागइ |
॥ इतिश्री विपाक श्रुताङ्ग स्वाध्यायः ॥
कवि 'विनयचंद्र' गुण ज्योति जागइ ||७|| सु०
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