________________
१४४ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि मिठड़ा राजिंद मिल रहौ, इक मानो मोरी वात मो० महिर करो मो ऊपरै, जिम न हुवै उतपात मो० २ मि० रत्न करंडक माहरो, तुम पासै छै जेह मो० पाँच रतन ते मांहि छै, गुण सांभलि गुण गेह मो० ३ मि० भूदेवाधिष्टित भलो, पहलो रत्न उदार मो० तेहनो निरखे पारिखो, जिम न हुवै अकरार मो० ४ मि० थाल कचोला वाटला, वासण चरवी चंग ; मो० मग गोधूमादि दियै, प्रथवी रतन सुरंग ; ५ मि० नीर रतन भजे धरै, जल वरसै ततकाल मो० तेहनो हिवणों काम छै, कटिसी दुख नो जाल मो०६ मि० अगनि रतन थी सिद्धि हुवै, ते सुणि दीनदयालु मो० नवली नवली रसवती, चावल ने वलि दाल मो० ७ मि० मुरकी ने लाडू भला, पौंडा सखर सवाद मो० खाजा ताजा देखताँ, हरई क्षुधित विखवाद मो० ८ मि० वात समोरण चालवै, सुरभि सीतल ने मंद मो० गगन वस्त्र जास कहीये, तजै तिमिरनो फंद मो०६ मि० पाँच रतन ए लेइ नै, करि प्रीतम उपगार मो० हुँ करिस तो ताहरो, नवि रहसी व्यवहार मो० १० मि० उपगारी सिर सेहरौ, तुं जग मांहि कहाय मो० केम कठिन थायै इहां, कहियौ करि महाराय मो० ११ मि० वचन सुणी नारी तणा, कुमर विचारै एम मो० ए गुणवंती भामनी, वांछै सहु नै खेम मो० १२ मि.
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org