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चतुर्विशतिका परतखि जाणि पटतरउ, मनथी प्रभु मत मेल्हि ।। मो०॥ 'विनयचन्द्र' पामिस सही, निरमल जस रस रेल्हि ।।
मोजाति०।। ॥ श्रीसुमतिजिन स्तवन ।
ढाल-बात म काढौ व्रत तणी सुमति जिनेश्वर सांभलौ, माहरा मननी वातां रे। तुं सुपना मांहे मिलइ, खबर पड़इ नहीं जातां रे ॥१॥सु०॥ पिण हिव अवसर देखिनइ, धर्म जागरिका धरस्यु रे। प्राण सनेही जाणिनइ, तुझथी झगड़ो करिस्युं रे॥२॥सु०॥ जे हित अहित न जाणिस्यइ, पर ना अवगुण लेस्यइ रे। तिण सुं कुण मुंह मेलिस्यइ, कुण अंतर गति देस्यइ रे ॥३॥सु०॥ तिल भर जे जाणै नहीं, तेहनइ गुह्य कहीजै रे। । सूं तउ जाण प्रवीण छइ, माहरी बांह ग्रहीजइ रे ॥४॥सुः।। मइ भव भमतां दुःख सह्यां, ते तउ तुं हिज जाणइ रे। जे लज्जालू नर हवइ, मुहंडइ केम वखाणइ रे ॥शासु०॥ इम जाणीनइ हित धरउ, मुझनइ दुत्तर तारउ रे। स्युं जायइ छइ ताहरौ, वाल्हा हृदय विचारौ रे ॥६॥सु०॥ बीजा किणही ऊपरा, भोलइ ही मति राचउ रे। मननी इच्छा पूरस्यइ, 'विनयचन्द्र' प्रभु साचउ रे ॥७॥सुका
॥ श्री पद्मप्रभु स्तवनम् ॥
ढाल- योधपुरीनी पद्मप्रभु स्वामी हो माहरी अरज सुणो, तुमे अंतरजामी हो;
जिनवर आइ मिलौ ॥१॥
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