________________
२६
चतुर्विशतिका बोध बीज निर्मल मुझ हुऔ, दियौ दुरति नइ दूऔजी । स्तवना नौ मारग छइ जूअउ, जाणै ते कोई गिरुऔजी ॥४॥ इ० संवत सत्तर पंचावन वरषइ, विजयदशमी दिन हरषइजी । राजनगर मां निज उतकरषइ, ए रची भक्ति अमरषइजो ॥३।। ३० श्रीखरतरगण सुगुण विराजइ, अंबर उपमा छाजइजी। तिहां जिनचन्द्रसूरीश्वर गाजइ, गच्छपतिचन्द्र दिवाजइजी ॥६॥ पाठक हर्षनिधान सवाई, ज्ञानतिलक सुखदाईजी। विनयचन्द्र तसु प्रतिभा पाई, ए चौवीसी गाईजी ॥७॥ इ०
इति चउवीसी समाप्ता।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org