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विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि
धीणउ हुवइ घर मांहि रे,
त्रि० लूखौ रे तौ स्या माटे खाइयइ रे ॥४॥ तार्या तें सुरनर फोड़ि रे,
त्रि० पोते तरी रे शिव सुख अनुभवइ रे। मुझमाँ केही खोड़ रे,
त्रि० तारै नहीं रे क्यों भुझनइ हिवइ रे ॥५॥ ओछां तणउ सनेह रे,
त्रि० जाणै रे पर्वत केरा वाहला रे। बहतां बहै एक रेह रे,
त्रि० पछइ बिछड़इ रे ज्यु तरु डाहलारे ॥६॥ तिण परि नेहनी रीति रे,
त्रि० नहीं छैरे चरम जिनेसर आपणी रे। 'विनयचन्द्र' प्रभु नीति रे,
त्रि० राखउ स्वामी नइ सेवक तणी रे ॥७॥
॥ कलश ॥ ___ढाल-शांति जिन भामणइ जाऊँ इण परि मंइ चौबीसी कीधी, सद्भावै करि सीधीजी। कुमति निकेतन आगल दीधी, सुमति सुधा बहु पीधीजी॥१॥ ३० इण में भेद तणी छइ दृढ़ता, गुण इक इक थी चढ़ताजी। सज्जन पंडित थास्यइ पढ़ता, दुर्जन रहस्यइ कुढ़ताजी ।।२।। ३० पूरण ज्ञान दशा मन आणी, वेधक वाणी वखाणीजी । विबुध भणी अवबोध समाणी, मूरख मति मूझाणीजी ॥३॥ इ०
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