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चतुर्विशतिका देव अवर सँ कीजइ प्रीतडी रे,
खिण इक आवइ मन मां द्वष रे। इण बातई तउ स्वाद नहीं किसउ रे,
. चुप करि रहियइ तिणे सुविशेष रे ॥३ ए० ॥ जेह आपणनई चाहइ दूरथी रे,
- धरियइ दिन प्रति तेहनउ ध्यान रे । आडंबर देखी नवि राचियइ रे,
ए छइ चतुर पुरुष नउ ज्ञान रे ॥४ ए०॥ मुँह मीठा धीठा हीयडइ तणा रे,
निगुण न पालै किण सैं नेह रे । अवगुण ग्रहिवा थायइ आगला रे,
काम पड्याँ द्यलांबी छेह रे ।। ५ ए० ।। ते टाली मिलियइ सुगुणा भणी रे,
जे जाणइ सुख दुखनी बात रे । सुपनइ ही नवि करियइ वेगला रे,
__ ज्यांहनइ दीठां उल्हसै गात रे ।। ६ ए० ॥ नाथ अनंत भवे नवि वीसरइ रे,
जे ससनेही सगुण सुरंग रे । प्रभु सँ ‘विनयचन्द्र' कहै माहरौ रे,
लागौ चोल तणी पर रंग रे॥ ७ ए० ॥
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